कहानी संग्रह >> नीलाम घर नीलाम घररामदेव शुक्ल
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श्रेष्ठ कहानी संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
विश्वविद्यालय परिसर का प्रशस्त बँगला सामने लॉन बड़ा। बड़ा पोर्टिको। बीच
में बैठक। एक किनारे स्टडी-अध्ययन कक्ष। उसके ठीक सामने दूसरे कोने में
अतिथि कक्ष। गुरूजी अध्ययन कक्ष में बैठे हैं। सामने बड़ी मेज। चारो ओर
किताबों से लगी शीशे वाली आलमारियाँ। घंटी बजती है। गुरूजी पूछते हैं-कौन
? ‘मैं हूँ सर !’ कहते हुए एक पहलवाननुमा युवक का
प्रवेश।
युवक सफारी सूट में है। कंधे पर दुर्गा के चित्रों वाली चुनरी गमछे की तरह
रक्खी हुई। कमरे में प्रवेश करके मेज के उस तरफ आता है जिधर गुरूजी बैठे
हैं। उनके पावों की ओर हाथ बढ़ाकर कहता है-‘गुरूजी पांव
लागों।’ ‘प्रसन्न रहे !’ कहते हुए गुरूजी
उसके पीछे
मिठाई का बड़ा डब्बा और फल की टोकरी लिए कमरे में प्रवेश करते आदमी को
देखते हैं। उनके चेहरे पर खुशी चमकती है। तुरंत चेहरा कस लेते हैं। युवक
से कहते हैं-‘मैंने तुमसे कितनी बार कहा है लल्लू कि यह सब लेकर
मेरे यहाँ मत आया करो। तुम क्यों नहीं मानते ?’ लल्लू मेज की
दूसरी
ओर आकर बैठता हुआ कहता है-‘अरे गुरुजी। आपकी सेवा में यही तो कर
पाता हूँ। कभी किसी बड़े काम का आदेश आप देते ही नहीं।’ उस आदमी
की
ओर देखता है जो सामान लिए खड़ा है। उससे कहता है-‘उसे छोटी मेज
पर
रख दो और जाकर गाड़ी में बैठो।’ वह सामान रखकर चला जाता है।
गुरूजी
ताजा मुस्कान के साथ प्रेम से लल्लू को देखते रहते हैं। पूछते
हैं-‘कहो। कैसे आना हुआ लल्लू !’’
चौड़ी मुस्कान के साथ जेब से एक कागज निकालकर गुरूजी की ओर बढ़ा देता है ‘क्या है ?’ कहते हुए वे उसे हाथ में लेकर पढ़ते हैं। चौंक कर कहते हैं-‘मिल गया। इंटरव्यू लेटर तुम्हें कैसे मिल गया ? तुम्हारे मार्क्स तो....’ गुरूजी का वाक्य पूरा होने से पहले ही लल्लू बोल पड़ता है-‘सब हो जाता है गुरूजी ! आपका आशीर्वाद चाहिए। जैसे यह मिल गया वैसे ही वह भी मिल जायेगा।’ ‘वह क्या ?’ गुरूजी पूछते हैं-लल्लू लापरवाही के साथ जवाब देता है-‘अरे वही एप्वाइँटमेन्ट लेटरवा। वह भी इसी तरह मिल जायेगा।’ गुरूजी बिना चौंके पूछते हैं-‘अरे भाई वह। जब इंटरव्यू में एक भी सवाल का ठीक-ठीक उत्तर दोगे तब न एप्वाइंटमेंट लेटर मिलेगा।’ ‘आप तो, गुरुजी, कहते थे कि तुम्हें इंटरव्यू में ही नहीं बुलाया जायेगा। बुलाया गया कि नहीं। उसी तरह वह भी मिल जायेगा। बस आप का आशीर्वाद चाहिए।’ गुरूजी गंभीर मुद्रा में लल्लू की ओर कुछ देर देखते रहते हैं। कुछ देर बाद पूछते हैं-‘अच्छा इंटरव्यू लेटर अपने आप आया या कुछ करना पड़ा ?’
लल्लू खुलकर हँसते हैं। कहते हैं-‘कहाँ गुरूजी ! हमारा कोई काम अपने से होता है ? एमए में नाम अपने से लिखा गया ? फर्स्ट डिवीजन अपने से मिला ? रिसर्च में एडमीशन अपने से हुआ ? थीसिस अपने से लिखा गया ? उसकी रिपोर्ट अपने से आई ? वाइवा के एक्जामिनर साहब अपने से आए ? डिगरी अपने से मिली ? अरे जब सब कुछ के लिए लछमिनिया को जोर लगाना पड़ा तो इंटरव्यू के लिए भी लगा दिया। लछमिनिया के जोर से ही इंटरव्यू लेटर भी आया है। उसी के जोर से दूसरे का लेटर भी आयेगा। बस आप आशीर्वाद देते रहिए। इस बार चूकना नहीं है।’ लल्लू का आत्मविश्वास से भरा हुआ भाषण सुनने के बाद गुरूजी खुलकर हँसते हैं। लल्लू भी हँसता हैं। कुछ देर बाद उठकर उनके पाँव छूता है और पहलवान चाल से सीना फुलाए बाहर आ जाता है।
गुरूजी मेज के सामने बैठकर एक घंटी का बटन दवाते हैं, जो घर के अंदर बजती है। एक लड़की आकर पूछती है ‘क्या है बाबूजी ? गुरू जी फल मिठाई की ओर इशारा करके कहते हैं-‘इसे अंदर ले चलो। माताजी जाग गयीं ?’ वह बताती है-‘जी जाग गयीं। वह फल मिठाई लेकर घर के अंदर जाती है। कुछ देर बाद गुरूजी भी अंदर जाते हैं।
सबेरे नौ बजे का समय। गुरू जी नाश्ता करके बाहर आते हैं। अध्ययन कक्ष में आकर मेज पर बैठ जाते हैं। थोड़ी देर में घंटी बजती है। गुरूजी बैठे-बैठे पूछते हैं-‘कौन ?’ ‘मैं हूँ गुरूजी।’ कहता हुआ एक युवक अंदर आता है। गुरूजी के पास आकर पैर छूकर बैठ जाता है। उसे देखकर गुरूजी का चेहरा खिल उठता है। पूछते हैं-‘कैसा रहा सेमिनार ?’ युवक खुशी से भरा हुआ है। यह कहता हुआ बताता है-‘बहुत अच्छा हुआ सर। मेरे पेपर पर खूब बहस हुई। कुछ लोगों ने बड़ी तारीफ की। कुछ ने ऐसे सवाल किए कि मुझे उखाड़कर रख देंगे, पर मेरे जवाब से संतुष्ट हुए। आपके आशीर्वाद से बहुत अच्छा रहा सब कुछ।’ युवक की बात पूरी होने से पहले अंदर की घंटी का बटन गुरू जी दबा चुके थे। वही युवती आई। पूछा-‘क्या है बाबू जी !’ गुरूजी ने कहा कहा, ‘जाकर माँजी से बता दो, विवेक आया है। इसके लिए जलपान ले आओ।’ ‘जी अच्छा।’ कहकर युवती चली गयी। थोड़ी देर में जलपान ले आई। विवेक मिठाई खाने लगा तो गुरूजी ने बताया-‘कल लल्लू आया था। डॉक्टर लल्लू। वह जब भी आता है मिठाई और फल ले आता है। मना करने पर भी नहीं मानता। कहता है आप और किसी सेवा के लिए कहते नहीं। इतना भी न करूँ तो क्या करूँ।’ विवेक चुपचाप जलपान करता रहा गुरूजी ने पूछा-‘तुम्हारा इंटरव्यू लेटर आया कि नहीं ? विवेक ने कहा ‘नहीं सर अभी तो नहीं आया।’ गुरूजी ने कहा, ‘लल्लू तो अपना निकलवा कर ले आया। कल दिखा रहा था।’ विवेक चकित हुआ। उसने पूछा-‘सर लेकिन उसे इंटरव्यू लेटर कैसे मिल सकता है ?’
गुरूजी ने आँखों को गोल करके कहा-‘यही तो मैं भी समझता था कि उसे इंटरव्यू लेटर कैसे मिल सकता है, पर वह जाकर ले आया। कह रहा था लछमिनिया के बल पर निकलवाकर ले आया है। उसी के बल पर एप्लाइंटमेंट लेटर भी निकलवाएगा।’ निराशा की मुद्रा में गुरूजी ने अपनी दोनों बाँहें फैला दीं। विवेक चकित था। गुरूजी की निराशा ने उसके पहले से आहत और निराश मन को छू लिया। उसका चेहरा बुझ गया। गुरूजी ने उत्साहित करते हुए कहा-‘देखो लछमिनिया कुछ भी कर करा सकती है, यह बात ठीक है। मगर तुम्हारी मेरिट और तुम्हारे परफार्मेन्स के कारण तुम्हारा चनय न हो, ऐसा वह भी नहीं करा सकती और एक बात यह जान लो कि सारे गलत नियुक्तियाँ करने वाले भी उन गलत नियुक्तियों को वैध और सही ठहराने के लिए दस पाँच योग्य अभ्यर्थियों का चयन करते ही हैं। तुम्हारा तो यह हाल है कि अगर एक भी सही नियुक्ति होगी, तो वह तुम्हारी ही होगी। तुम क्यों उदास होते हो ?’ गुरूजी की बात सुनकर विवेक और उदास हो गया। उसके सामने अपने ही विश्वविद्यालय का वह इंटरव्यू साक्षात आकर खड़ा हो गया, जिसमें सभी बाहरी विशेषज्ञों ने उसके उत्तर प्रत्युत्तर से प्रभावित होकर वहीं उसे बधाई दे दी थी। केवल विभागाध्यक्ष और कुलपति गंभीर बनकर बैठे रहे गये थे। बाहर जाकर उसने और अभ्यर्थियों से अपने सवाल जवाब की बात बताई तो उन सबने भी बधाई दे दी। जब गुरूजी के घर आकर उसने उनके सामने सारे दृश्य का विस्तृत वर्णन किया तो वे भी चहक उठे।
बोले-‘चलो इससे सिद्ध हो गया कि योग्यता की कद्र अभी भी होती है।’ जब विवेक ने अपने मन की शंका बताई कि कुलपति और अध्यक्ष तो कुछ नहीं बोले तो गुरूजी ने कहा, ‘देखो, अध्यक्ष इतने समर्थ नहीं हैं कि वे विशेषज्ञों के निर्णय की उपेक्षा कर सकें। रही बात कुलपति की तो उनके विषय में यही प्रसिद्ध है कि वे न्यायप्रिय व्यक्ति हैं। उनके रहते अन्याय नहीं हो सकता।’ विवेक को अच्छी तरह याद है और जीवन भर याद रहेगा वह दृश्य जब कार्यकारिणी की बैठक के निर्णय की प्रत्याशा में वे अपने दोस्तों के साथ सबेरे से इंतजार करता रहा था। जब निर्णय की सूचना मिली तो उसका नाम कहीं नहीं था। कई दिन तक वह हास्टल के कमरे से बाहर नहीं निकल सका। गुरूजी ने अपने बेटे को भेजकर बुलवाया। वे भी बहुत आहत हुए थे, विवेक के न चुने जाने पर। उन्होंने विवेक को बताया कि जब पता चल गया कि चयन-समिति का निर्णय हुआ है तो उन्होंने विशेषज्ञों में से एक को फोन करके पूछा कि जिस अभ्यर्थी को आप सब ने बधाई दे दी थी, उसका चयन क्यों नहीं किया गया। उस विशेषज्ञ ने दुख प्रकट करने के साथ क्षमा-याचना की। विवेक के न चुने जाने का कारण उन्होंने यह बताया कि इंटरव्यू खत्म करने के बाद सब लोग लंच के लिए उठे। भोजन के बाद निर्णय होना था। भोजन के बाद काफी पीते समय कुलपति ने चयन समिति के सदस्यों से कहा कि विवेक की योग्यता प्रमाणित हो चुकी है।
उसे तो विश्वविद्यालय में आना ही है। एक वर्ष के भीतर नया पद लाकर उसका चयन करा लूंगा। इस बार तो मैं व्यक्तिगत रूप से आप सबसे अनुरोध कर रहा हूं कि दूसरे युवक का चयन कीजिए। विशेषज्ञों से अनुरोध करने के बाद कुलपति कुछ देर के लिए उस कमरे से बाहर निकले तो पहली बार अध्यक्ष ने मुंह खोला। उन्होंने बताया कि उसी युवक के साथ उनकी बहन की बेटी का विवाह निश्चित हो चुका है। उसके पिता ने यह शर्त रख दी है कि विवाह तभी होगा जब यूनिवर्सिटी में वह लेक्चरर हो जायेगा। कुलपति इतने असहाय हैं कि उनके सामने कोई विकल्प नहीं है। इसी के साथ उन्होंने यह भी बतादिया कि अगर उस अभ्यर्थी का चयन नहीं होगा, तो वे चयन समिति के अध्यक्ष के रूप में यह लिखने को बाध्य होंगे कि अभ्यर्थियों में से कोई भी योग्यता की कसौटी पर खरा नहीं उतरा; इसलिए पद का पुनर्विज्ञापन कराया जाय। अंत में सभी विशेषज्ञ कुलपति के इस आश्वासन के बाद उनके प्रस्ताव पर सहमत हुए कि साल के अंदर विवेक की नियुक्ति हो ही जायेगी।
विवेक की आँखों में दिखाई पड़ रहा था कि उसके मन में कैसा तूफान मचल रहा है। गुरूजी ने उसके घाव पर मरहम लगाते हुए कहा, ‘देखो, उस बात को स्मरण करके दुखी न हो। इस बार मैं सब तरह से कोशिश करूँगा कि तुम्हारा सलेक्शन हो जाय। जीवन में जो काम कभी नहीं किया, वह भी करूँगा। कम से कम इतना तो है कि सर्वोत्तम अभ्यर्थी के लिए सिफारिश कर रहा हूँ। मेरे बच्चे मुझसे असंतुष्ट रहते हैं कि उनके लिए कभी भी मैंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल नहीं किया, वे जो कुछ बने, अपने बलपूते पर ही बने। तुम्हारे लिए मैं अपने प्रभाव का उपयोग करूँगा। इंटरव्यू लेटर मिलते ही मुझे तुरंत बताना।’
विवेक के भीतर का तूफान शांत तो क्या होता। गुरु जी के समझाने का उसके ऊपर असर हुआ। वह निश्चिंत हो गया कि उनकी कृपा से आगे सब ठीक होगा, ऐसा भाव चेहरे पर लाकर वह विदा हुआ। एक एक एक दिन बीत रहा था। इंटरव्यू लेटर नहीं मिल रहा था। रोज दस बजे से पहले पोस्ट ऑफिस जाकर पता करता नहीं आया सुनकर मुरझा कर लौट आता। हास्टल में चर्चा की तो कई लड़कों ने बताया कि डॉ. लल्लू को इंटरव्यू लेटर मिल सकता है तो इसका मतलब यह हुआ कि वहाँ जाकर कुछ दानदक्षिणा अर्पित करने के बाद ही मिलेगा। विवेक बहुत निराश हो गया। गुरूजी से कहता कि क्या करूँ तो वे यही कहते कि धीरज रखो। ऐसा हो ही नहीं सकता कि तुम्हें न बुलाया जाय। लेकिन विश्वविद्यालय वाले अनुभव के बाद विवेक यह मानने लगा था कि उसके विरूद्ध कोई भी कुछ भी कर सकता है। घोर निराशा के क्षणों में वह एक सीनियर के घर चला गया। वह एक साल पहले चुना गया था। सारी बात सुनकर उसने एक परिचित क्लर्क का नाम और फोन नम्बर देकर कहा कि उससे फोन पर बात करके पूछ ले। विवेक पीसीओ गया। उस क्लर्क से बात हुई।
विवेक ने बताया कि मेरिट के हिसाब से मेरा इंटरव्यू लेटर सबसे पहले निकलना चाहिए था, अब तक क्यों नहीं निकला ! क्लर्क ने कहा, ‘क्यों नहीं निकला, इसे जानने कि कोशिश बेकार है। आप दो दिन के अंदर दस हजार रुपए लेकर आइए। साथ में इंटरव्यू लेटर लेकर जाएइ।’ गुरूजी से यह बात बता कर विवेक ने हताश निर्णय सुना दिया-‘इसका मतलब तो साफ है कि मुझे इंटरव्यू लेटर भी नहीं मिलेगा।’ गुरूजी कुछ देर चुप रहे। उसके बाद बोले-‘ठीक है, दो दिन तक इंतजार करो। इसके बाद भी नहीं आया तो कुछ किया जायेगा।’ विवेक ने सारी उम्मीदें छोड़ दी। तीसरे दिन पोस्टमैन उसके कमरे में आकर इंटरव्यू लेटर दे गया। कई बार उलट पुलट कर पढ़ने, अपने नाम की वर्तनी का एक-एक अक्षर जांचने के बाद भी वह आश्वस्त नहीं हो पा रहा था कि उसी के नाम का पत्र है और उसे पन्दरह दिन बाद इंटरव्यू के लिए बुलाया गया है। कमरे में ताला बंदकर विवेक सीधा गुरूजी के घर जा पहुंचा। गुरूजी ने कहा, ‘मुझे तो उस क्लर्क की बात से विश्वास हो गया था कि नहीं मिलेगा।’ गुरूजी ने कहा, ‘ये लोग इसी तरह ठगते हैं। तुम्हारी मेरिट सुनकर उसने इतना जान लिया कि तुम्हारे नाम इंटरव्यू लेटर जरूर जायेगा। तुम आतुर हो, उसका फायदा उठाने के लिए उसने रूपए की मांग कर दी। चलो, अब जम के तैयारी करो कि किसी भी विषय पर विशेषज्ञ, सदस्य, अध्यक्ष के प्रश्न तुम्हें निरुत्तर न कर सकें। मैं अपना काम करता हूँ।
जाने के दो दिन पहले गुरूजी ने विवेक का आत्मबल विशेष रूप से बढ़ा दिया। उन्होंने बताया कि एक विशेषज्ञ का पता चल गया है। उन्होंने एक शोध प्रबन्ध की रिपोर्ट के लिए फोन किया। मैंने पूछ लिया कि अमुक तिथि को आप विशेषज्ञ तो नहीं हैं ?
उन्होंने बताया कि ‘हैं’। मैंने विस्तार से तुम्हारे विषय में सब कुछ बता दिया। वे तुम्हारी पूरी सहायता करेंगे। तुम आराम से इंटरव्यू में जाना और पूरे आत्मविश्वास के साथ जबाब देना। विवेक के मुंह से बिना सोचे एक बात निकल गयी-सर ! मेरे गुरू भी आप ही हैं और अभिभावक भी। और लोगों के अभिभावक साथ जा रहे हैं। मेरे किसान पिता जाएंगे भी तो वहाँ जाकर क्या करेंगे ? सर, अगर आप चले चलते हैं तो’-लगभग गिड़गिड़ाते हुए उसने वाक्य अधूरा छोड़कर अपील की। गुरूजी स्तब्ध हो गये। उनकी समझ में नहीं आया कि क्या करें, क्या न करें ? विवेक का चेहरा उमड़ने लगा था। आँखें अब बरस जांय कि तब। गुरू जी द्रवित हो गये। उन्होंने साथ चलने की हामी भर दी। विवेक ने कहा कि वह उनका आरक्षण भी करा देगा। सुनकर गुरूजी ने उसे डांट दिया ‘जब मैं चल रहा हूं तो जो कुछ करना होगा, मैं ही करूँगा। तुम अपना भी आरक्षण मत कराओ। अपनी गाड़ी से चलेंगे। वहाँ पता नहीं कहाँ कहाँ जाना पड़े, किस किस से मिलना पड़े।’
इंटरव्यू से एक दिन पहले गुरूजी विवेक को साथ लेकर अपनी कार से पहुँच गये। उनके शिष्य आयकर अधिकारी हैं। उन्हीं के यहाँ ठहरे। जिन विशेषज्ञ से बात हो चुकी थी, उनसे मोबाइल पर बात करके जान लिया कि वे तो आ चुके हैं। अपने ठहरने की जगह भी उन्होंने बता दी। गुरूजी नहा धोकर निकल गये। जब दोपहर में भोजन के समय लौटे तो खुशी से उनका चेहरा चमक रहा था। लंच के लिए आफिस से घर आए आयकर अधिकारी ने कहा, ‘गुरूजी क्या बात है ? आज आप इतने खुश दिखाई पड़ रहे हैं, जितने कभी नहीं दिखाई पड़े थे। कभी कभी तो हम लोग समझ ही नहीं पाते थे कि आप खुश हैं कि उदास हैं। आज आपका खिला मुखमंडल बता रहा है कि आपको कोई बड़ी उपलब्धि हुई है।’ गुरूजी मुस्कुराए उन्होंने कहा, ‘हां बेटे ! वाकई मुझे एक उपलब्धि हुई है। तुम तो अपने अनुभव से जानते हो कि प्रामिजिंग स्टूडेंट्स की मदद करना मेरा व्यसन रहा है। रिटायर होने के बाद भी वह बना हुआ है। यह ब्रिलिएंट नौजवान विवेक है। अपने बैच का टॉपर है। नेट क्वालीफाइड है मगर यूनीवर्सिटी में इसकी नियुक्ति नहीं हो पाई। वहां ईमानदार कुलपति की बहन की बेटी का विवाह इसके रास्ते में टकरा गया।’ कहकर गुरूजी खुलकर हंसे। फिर वह पूरा किस्सा सुनाया।
सब लोग दुबारा देर तक हंसते रहे। उसके बाद गुरूजी ने बताया कि यहाँ इसकी नियुक्ति कराने निकला हूं। आज इसलिए ज्यादा खुश हूं कि एक एक्सपर्ट से बात हो चुकी थी, दूसरा वह निकल आया जिसके प्रोफेसर बनने में मैंने मदद की थी। योग्य था, मगर उसके अध्यक्ष की बीवी किसी वजह से नाराज थी, इसलिए अध्यक्ष महोदय विरोध कर रहे थे। अन्य विशेषज्ञों और कुलपति को कोई परेशानी नहीं थी। बस, पहल करने वाला कोई नहीं था। मैंने पहल करके उसका सलेक्शन करवा दिया। तब से वह बहुत कृतज्ञ रहता है। मैंने विवेक के विषय में बताया तो उसने कहा कि ऐसे योग्य अभ्यर्थी की वह पूरी मदद करेगा। मुझे खुशी इस बात की हो रही है कि अगर दो एक्सपर्ट अड़ जांय तो सलेक्शन होने में कोई खास दिक्कत नहीं होगी।’ विवेक गुरूजी की खुशी देखकर निश्चिंत हो गया कि इस बार दिक्कत नहीं होगी।’ विवेक गुरूजी की खुशी देखकर निश्चिंत हो गया कि इस बार उसकी नियुक्ति जरूर हो जायेगी। विवेक की खुशी रात के खाने के बाद और बढ़ गई। आयकर अधिकारी ने अपनी ओर से गुरूजी से पूछा-‘गुरूजी ! अगर आप कहें तो मैं चेयरमैन से बात कर लूँ विवेक के लिए !’ गुरूजी ने पूछा-‘जानते हो उन्हें ? मेरा मतलब है कि संबंध अच्छे हैं ? जवाब मिला ‘हम आयकर के लोग हैं। हमको किसी से जान पहचान बनाने के लिए पहल नहीं करनी पड़ती। लोग आगे बढ़कर हम लोगों से जान पहचान करते हैं और मेलजोल बढ़ाते हैं।’ गुरूजी ने कहा, ‘ऐसा है, तो तुम भी कह दो। तब विवेक की नियुक्ति सोलह आने पक्की हो जाएगी।’ आयकर अधिकारी ने चेयरमैन को फोन लगवाया। उधर से जवाब आया। दो घंटे बाद लौटेंगे तो आपसे बात कर लेंगे। दो घंटे से पहले ही चेयरमैन का फोन आ गया। इधर की सारी बातें सुनकर उन्होंने जो कुछ कहा उसका सारांश गुरूजी को बताया गया। सारांश यह था कि चेयरमैन ने कहा कि इंटरव्यू में सबसे ज्यादा महत्व अभ्यर्थी की योग्यता और उसके परफार्मेंस का होता है। इसका निर्णय करने के लिए तीन एक्सपर्ट होते हैं।
वे लोग ही निर्णायक की हैसियत में होते हैं। उनके बाद बोर्ड के सदस्य हैं। उनकी राय भी महत्वपूर्ण होती है। मैं अपनी ओर से पूरी कोशिश करूँगा। गुरूजी ने सुना। पुलकित हुए विवेक ने सुना। उसकी खुशी का ओर छोर न रहा। खुशी के मारे उसे देर रात तक नींद नहीं आई। इंटरव्यू के दिन सबेरे आयकर अधिकारी टहलकर लौटे तो उन्होंने एक अच्छी खबर और सुना दी। उन्होंने बताया कि सदस्यों में से एक से मिलकर आ रहे हैं। उसे भी विवेक का नाम और मेरिट बता दिया है। वह भी पूरी मदद करेगा। सुनकर गुरूजी ने उन्हें बाँहों में भर कर गले से लगा लिया। उन्होंने कहा, ‘मैं तुम्हें हृदय से आशीर्वाद देता हूँ। तुमने एक योग्य व्यक्ति की सहायता करके मुझ पर उपकार किया है।’ विवेक को दस बजे पहुँचना था। नाश्ता करवा कर आयकर अधिकारी ने साढ़े नौ बजे अपनी गाड़ी से उसे पहुँचवा दिया। चलते समय उनकी पत्नी ने दही चीनी खिला दी। गुरूजी ने सिर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद दिया। विवेक समय से पहले पहुँच गया। यह देखकर उसे अचरज हुआ कि वहाँ तो नौ बजे से ही अभ्यर्थी बैठे हुए हैं। एक दो बदहवास से सीधे बस स्टैंड से आकर वहीं हाथ मुँह धो रहे थे। साढ़े दस तक सबके प्रमाणपत्रों की जाँच हो गयी। उसके बाद एक एक को अंदर बुलाया जाने लगा।
एक को अंदर बीस मिनट लगे। जब बाहर आया तो उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। रुआँसा होकर उसने बताया कि ऐसे ऐसे सवाल पूछे जा रहे हैं, जिनके बारे में कभी सोचा भी नहीं था। हमारे टापिक पर कोई सवाल नहीं पूछा गया। एक प्रश्न था-‘आप प्रधानमंत्री होते तो क्या करते ?’ वह युवक अपने कागज पत्तर समेट कर तुरंत लौट गया। जाते जाते उसने कहा, ‘मेरा इंटरव्यू बहुत खराब हुआ। अब प्रतीक्षा करने को कुछ है ही नहीं।’ विवेक को बारह बजे तक इतने तरह की बातें सुनने को मिलीं कि उसका आत्मविश्वास भहराने लगा। एक अभ्यार्थी ने उसे बताया कि उसकी नियुक्ति पक्की है कारण वह नहीं बतायेगा। एक के विषय में पता चला कि उसके लिए मुख्यमंत्री ने सिफारिश की है। एक बजे इंटरव्यू एक घंटे के लिए रोक दिया गया। विशेषज्ञ और अधिकारीगण लंच के लिए चले गये। अभ्यर्थियों से कहा गया कि वे दो बजे आएँ। आसपास चाय, फलों के जूस और मिठाई की दुकाने थीं। अभ्यर्थी अपनी रुचि के अनुसार एक घंटे का समय वहाँ बिताने लगे। चाय की दूकान में बैठा एक आदमी कुछ अभ्यर्थियों को अलग बुलाकर कानाफूसी कर रहा था।
उसके पास से लौट कर आये एक अभ्यर्थी को बुलाकर विवेक ने पूछा कि वह आदमी कौन है और क्या बात कर रहा है। कुछ इधर उधर की करने के बाद उस अभ्यर्थी ने विवेक से पूछा, ‘क्या आप उससे मिलना चाहते हैं ?’ विवेक ने कुछ तल्ख़ी के साथ प्रतिप्रश्न कर दिया-‘मैं जानता ही नहीं कि वह कौन है तो उससे मिलना क्यों चाहूगा ?’ उस व्यक्ति को झेंप जाना चाहिए था मगर वह विवेक के अनाड़ीपन पर मुस्कुराया। कुछ देर बाद उसने कहा-‘उसे जानता कोई नहीं है मगर यहां जो माहौल है, उसमें यही बताया जा रहा है कि जो अभ्यर्थी उससे बात पक्की कर लेगा, उसी की नौकरी पक्के तौर पर हो पायेगी ! बाकी सारा कुछ नौटंकी है।’ उसकी बात से विवेक को कोई हैरानी परेशानी नहीं हुई। उसे कुतूहल हुआ। उसने जानना चाहा कि आखिर वह है कौन ! कई बार पूछने पर पहले वाले अभ्यर्थी ने बताया कि वह चाहे जो हो, उस व्यक्ति तक पहुँचने का माध्यम है जो पांच लाख के बदले नौकरी की गांरटी लेता है। विवेक को विश्वास नहीं हुआ। मन में दृढ़ विश्वास था कि उसकी नियुक्ति तो होनी ही है, वह क्यों प्रपंच में पड़े ?
विवेक को अंदर बुलाया गया। जाते हुए उसने भगवान के साथ गुरूजी का स्मरण किया। आत्मविश्वास से उसका चेहरा दमक रहा था। अंदर पहुंच कर उसने शालीनता से हाथ जोड़ कर सब को नमन किया। चेयरमैन का इशारा पाकर वह सामने रखी कुर्सी पर बैठ गया। उसके बाद उसने अपने प्रमाण पत्र शोधप्रबन्ध और छपे हुए शोध-पत्र आदि मेज पर रख दिए। चेयरमैने ने उसके नाम के साथ उसकी योग्यता के एक एक स्तर को पढ़कर सुनाया। आपने एमए में टाप किया ? ‘जी’। आपने पिछले वर्ष नेट क्लियर किया। ‘जी’। अत्यंत शालीनता के साथ चेयरमैन ने विशेषज्ञों की ओर देखकर कहा ‘अब आप लोग पूछें।’ बहुत आत्मीयता के लहजे में एक विशेषज्ञ ने पहला प्रश्न किया। विवेक का उत्तर सुनकर उनकी आंखें चमकने लगीं। दूसरे, तीसरे चौथे सभी प्रश्नों के उत्तर विशेषज्ञों को अधिकाधिक प्रसन्न और संतुष्ट करते गये। विशेषज्ञों ने एक स्वर से विवेक की सराहना करने के बाद सदस्यों की ओर इशारा करके कहा, ‘अब आप लोग पूछें।’ एक सदस्य ने कहा कि जब आप लोग संतुष्ट हैं तो और क्या पूछना ! फिर भी देश-काल सामान्य-ज्ञान कला राजनीति पर कुछ चलताऊ सवाल पूछे गये। विवेक ने उनके उत्तर भी ठीक ही दिए। अंत में चेयरमैन ने एक बेतुका सवाल किया-‘मिस्टर विवेक !
आप इतने योग्य अभ्यर्थी हैं, तो अपने विश्वाविद्यालय में आपकी नियुक्ति क्यों नहीं हुई ?’ एक क्षण तो विवेक की समझ में कुछ नहीं आया कि क्या जबाव दे ? कुलपति की बहन की बेटी का विवाह बिल्ली की तरह उसका रास्ता काट गया था, यह बात बताए ? यह कोई जवाब होगा ? कोई मानेगा ? उसने ऊपर की ओर देखकर इशारा कर दिया जिसका अर्थ होता था-यह तो ऊपर वाला ही जाने की नियुक्ति वहां क्यों नहीं हुई ? एक विशेषज्ञ ने कहा, ‘इसका जवाब ये कैसे दे सकते हैं ? समय आने पर वहां भी हो जायेंगे।’ सबलोग मुस्कुराए। चेयरमैन ने कहा, ‘ठीक है। जाइए।’ विवेक बाहर आये तो बचे हुए अभ्यर्थियों ने घेर लिया। आपका इंटरव्यू ज्यादा देर तक हुआ। क्या क्या पूछा गया ?’ विवेक ने घड़ी देखी, तब उसे पता चला कि लगभग पैंतालीस मिनट उससे पूछताछ होती रही।
घेरने वालों को कुछ बताते समय विवेक के मन में एक मधुर धुन बजती रही-‘समय आने पर वहां भी हो जायेंगे-वहां भी हो जायेंगे, वहां भी’ हो जायेंगे अर्थात् ? अर्थात् यह कि यहां तो हो ही गये। यहां तो हो ही गये। यहां तो हो ही गये।’ इस मस्ती में जल्दी से जल्दी गुरूजी के पास पहुंच गये। सब कुछ बताकर अपना अनुमान भी कह सुनाया। गुरू जी तो पहले से आश्वस्त थे। चहक कर बोले, ‘ठीक है बेटा। अब मैं निश्चित हुआ। जिन्दगी में मैंने बहुतों की मदद की है, अध्यापक के रूप में अध्यक्ष के रूप में, विशेषज्ञ के रूप में। यह पहला अवसर है, जब मैंने किसी भी हैसियत में न होने पर, आउट आफ वे जाकर किसी के लिए व्यक्तिगत स्तर पर सिफारिश की। इस बार तुम्हारा न होता तो मेरे लिए डूब मरने की बात होती।’
चौड़ी मुस्कान के साथ जेब से एक कागज निकालकर गुरूजी की ओर बढ़ा देता है ‘क्या है ?’ कहते हुए वे उसे हाथ में लेकर पढ़ते हैं। चौंक कर कहते हैं-‘मिल गया। इंटरव्यू लेटर तुम्हें कैसे मिल गया ? तुम्हारे मार्क्स तो....’ गुरूजी का वाक्य पूरा होने से पहले ही लल्लू बोल पड़ता है-‘सब हो जाता है गुरूजी ! आपका आशीर्वाद चाहिए। जैसे यह मिल गया वैसे ही वह भी मिल जायेगा।’ ‘वह क्या ?’ गुरूजी पूछते हैं-लल्लू लापरवाही के साथ जवाब देता है-‘अरे वही एप्वाइँटमेन्ट लेटरवा। वह भी इसी तरह मिल जायेगा।’ गुरूजी बिना चौंके पूछते हैं-‘अरे भाई वह। जब इंटरव्यू में एक भी सवाल का ठीक-ठीक उत्तर दोगे तब न एप्वाइंटमेंट लेटर मिलेगा।’ ‘आप तो, गुरुजी, कहते थे कि तुम्हें इंटरव्यू में ही नहीं बुलाया जायेगा। बुलाया गया कि नहीं। उसी तरह वह भी मिल जायेगा। बस आप का आशीर्वाद चाहिए।’ गुरूजी गंभीर मुद्रा में लल्लू की ओर कुछ देर देखते रहते हैं। कुछ देर बाद पूछते हैं-‘अच्छा इंटरव्यू लेटर अपने आप आया या कुछ करना पड़ा ?’
लल्लू खुलकर हँसते हैं। कहते हैं-‘कहाँ गुरूजी ! हमारा कोई काम अपने से होता है ? एमए में नाम अपने से लिखा गया ? फर्स्ट डिवीजन अपने से मिला ? रिसर्च में एडमीशन अपने से हुआ ? थीसिस अपने से लिखा गया ? उसकी रिपोर्ट अपने से आई ? वाइवा के एक्जामिनर साहब अपने से आए ? डिगरी अपने से मिली ? अरे जब सब कुछ के लिए लछमिनिया को जोर लगाना पड़ा तो इंटरव्यू के लिए भी लगा दिया। लछमिनिया के जोर से ही इंटरव्यू लेटर भी आया है। उसी के जोर से दूसरे का लेटर भी आयेगा। बस आप आशीर्वाद देते रहिए। इस बार चूकना नहीं है।’ लल्लू का आत्मविश्वास से भरा हुआ भाषण सुनने के बाद गुरूजी खुलकर हँसते हैं। लल्लू भी हँसता हैं। कुछ देर बाद उठकर उनके पाँव छूता है और पहलवान चाल से सीना फुलाए बाहर आ जाता है।
गुरूजी मेज के सामने बैठकर एक घंटी का बटन दवाते हैं, जो घर के अंदर बजती है। एक लड़की आकर पूछती है ‘क्या है बाबूजी ? गुरू जी फल मिठाई की ओर इशारा करके कहते हैं-‘इसे अंदर ले चलो। माताजी जाग गयीं ?’ वह बताती है-‘जी जाग गयीं। वह फल मिठाई लेकर घर के अंदर जाती है। कुछ देर बाद गुरूजी भी अंदर जाते हैं।
सबेरे नौ बजे का समय। गुरू जी नाश्ता करके बाहर आते हैं। अध्ययन कक्ष में आकर मेज पर बैठ जाते हैं। थोड़ी देर में घंटी बजती है। गुरूजी बैठे-बैठे पूछते हैं-‘कौन ?’ ‘मैं हूँ गुरूजी।’ कहता हुआ एक युवक अंदर आता है। गुरूजी के पास आकर पैर छूकर बैठ जाता है। उसे देखकर गुरूजी का चेहरा खिल उठता है। पूछते हैं-‘कैसा रहा सेमिनार ?’ युवक खुशी से भरा हुआ है। यह कहता हुआ बताता है-‘बहुत अच्छा हुआ सर। मेरे पेपर पर खूब बहस हुई। कुछ लोगों ने बड़ी तारीफ की। कुछ ने ऐसे सवाल किए कि मुझे उखाड़कर रख देंगे, पर मेरे जवाब से संतुष्ट हुए। आपके आशीर्वाद से बहुत अच्छा रहा सब कुछ।’ युवक की बात पूरी होने से पहले अंदर की घंटी का बटन गुरू जी दबा चुके थे। वही युवती आई। पूछा-‘क्या है बाबू जी !’ गुरूजी ने कहा कहा, ‘जाकर माँजी से बता दो, विवेक आया है। इसके लिए जलपान ले आओ।’ ‘जी अच्छा।’ कहकर युवती चली गयी। थोड़ी देर में जलपान ले आई। विवेक मिठाई खाने लगा तो गुरूजी ने बताया-‘कल लल्लू आया था। डॉक्टर लल्लू। वह जब भी आता है मिठाई और फल ले आता है। मना करने पर भी नहीं मानता। कहता है आप और किसी सेवा के लिए कहते नहीं। इतना भी न करूँ तो क्या करूँ।’ विवेक चुपचाप जलपान करता रहा गुरूजी ने पूछा-‘तुम्हारा इंटरव्यू लेटर आया कि नहीं ? विवेक ने कहा ‘नहीं सर अभी तो नहीं आया।’ गुरूजी ने कहा, ‘लल्लू तो अपना निकलवा कर ले आया। कल दिखा रहा था।’ विवेक चकित हुआ। उसने पूछा-‘सर लेकिन उसे इंटरव्यू लेटर कैसे मिल सकता है ?’
गुरूजी ने आँखों को गोल करके कहा-‘यही तो मैं भी समझता था कि उसे इंटरव्यू लेटर कैसे मिल सकता है, पर वह जाकर ले आया। कह रहा था लछमिनिया के बल पर निकलवाकर ले आया है। उसी के बल पर एप्लाइंटमेंट लेटर भी निकलवाएगा।’ निराशा की मुद्रा में गुरूजी ने अपनी दोनों बाँहें फैला दीं। विवेक चकित था। गुरूजी की निराशा ने उसके पहले से आहत और निराश मन को छू लिया। उसका चेहरा बुझ गया। गुरूजी ने उत्साहित करते हुए कहा-‘देखो लछमिनिया कुछ भी कर करा सकती है, यह बात ठीक है। मगर तुम्हारी मेरिट और तुम्हारे परफार्मेन्स के कारण तुम्हारा चनय न हो, ऐसा वह भी नहीं करा सकती और एक बात यह जान लो कि सारे गलत नियुक्तियाँ करने वाले भी उन गलत नियुक्तियों को वैध और सही ठहराने के लिए दस पाँच योग्य अभ्यर्थियों का चयन करते ही हैं। तुम्हारा तो यह हाल है कि अगर एक भी सही नियुक्ति होगी, तो वह तुम्हारी ही होगी। तुम क्यों उदास होते हो ?’ गुरूजी की बात सुनकर विवेक और उदास हो गया। उसके सामने अपने ही विश्वविद्यालय का वह इंटरव्यू साक्षात आकर खड़ा हो गया, जिसमें सभी बाहरी विशेषज्ञों ने उसके उत्तर प्रत्युत्तर से प्रभावित होकर वहीं उसे बधाई दे दी थी। केवल विभागाध्यक्ष और कुलपति गंभीर बनकर बैठे रहे गये थे। बाहर जाकर उसने और अभ्यर्थियों से अपने सवाल जवाब की बात बताई तो उन सबने भी बधाई दे दी। जब गुरूजी के घर आकर उसने उनके सामने सारे दृश्य का विस्तृत वर्णन किया तो वे भी चहक उठे।
बोले-‘चलो इससे सिद्ध हो गया कि योग्यता की कद्र अभी भी होती है।’ जब विवेक ने अपने मन की शंका बताई कि कुलपति और अध्यक्ष तो कुछ नहीं बोले तो गुरूजी ने कहा, ‘देखो, अध्यक्ष इतने समर्थ नहीं हैं कि वे विशेषज्ञों के निर्णय की उपेक्षा कर सकें। रही बात कुलपति की तो उनके विषय में यही प्रसिद्ध है कि वे न्यायप्रिय व्यक्ति हैं। उनके रहते अन्याय नहीं हो सकता।’ विवेक को अच्छी तरह याद है और जीवन भर याद रहेगा वह दृश्य जब कार्यकारिणी की बैठक के निर्णय की प्रत्याशा में वे अपने दोस्तों के साथ सबेरे से इंतजार करता रहा था। जब निर्णय की सूचना मिली तो उसका नाम कहीं नहीं था। कई दिन तक वह हास्टल के कमरे से बाहर नहीं निकल सका। गुरूजी ने अपने बेटे को भेजकर बुलवाया। वे भी बहुत आहत हुए थे, विवेक के न चुने जाने पर। उन्होंने विवेक को बताया कि जब पता चल गया कि चयन-समिति का निर्णय हुआ है तो उन्होंने विशेषज्ञों में से एक को फोन करके पूछा कि जिस अभ्यर्थी को आप सब ने बधाई दे दी थी, उसका चयन क्यों नहीं किया गया। उस विशेषज्ञ ने दुख प्रकट करने के साथ क्षमा-याचना की। विवेक के न चुने जाने का कारण उन्होंने यह बताया कि इंटरव्यू खत्म करने के बाद सब लोग लंच के लिए उठे। भोजन के बाद निर्णय होना था। भोजन के बाद काफी पीते समय कुलपति ने चयन समिति के सदस्यों से कहा कि विवेक की योग्यता प्रमाणित हो चुकी है।
उसे तो विश्वविद्यालय में आना ही है। एक वर्ष के भीतर नया पद लाकर उसका चयन करा लूंगा। इस बार तो मैं व्यक्तिगत रूप से आप सबसे अनुरोध कर रहा हूं कि दूसरे युवक का चयन कीजिए। विशेषज्ञों से अनुरोध करने के बाद कुलपति कुछ देर के लिए उस कमरे से बाहर निकले तो पहली बार अध्यक्ष ने मुंह खोला। उन्होंने बताया कि उसी युवक के साथ उनकी बहन की बेटी का विवाह निश्चित हो चुका है। उसके पिता ने यह शर्त रख दी है कि विवाह तभी होगा जब यूनिवर्सिटी में वह लेक्चरर हो जायेगा। कुलपति इतने असहाय हैं कि उनके सामने कोई विकल्प नहीं है। इसी के साथ उन्होंने यह भी बतादिया कि अगर उस अभ्यर्थी का चयन नहीं होगा, तो वे चयन समिति के अध्यक्ष के रूप में यह लिखने को बाध्य होंगे कि अभ्यर्थियों में से कोई भी योग्यता की कसौटी पर खरा नहीं उतरा; इसलिए पद का पुनर्विज्ञापन कराया जाय। अंत में सभी विशेषज्ञ कुलपति के इस आश्वासन के बाद उनके प्रस्ताव पर सहमत हुए कि साल के अंदर विवेक की नियुक्ति हो ही जायेगी।
विवेक की आँखों में दिखाई पड़ रहा था कि उसके मन में कैसा तूफान मचल रहा है। गुरूजी ने उसके घाव पर मरहम लगाते हुए कहा, ‘देखो, उस बात को स्मरण करके दुखी न हो। इस बार मैं सब तरह से कोशिश करूँगा कि तुम्हारा सलेक्शन हो जाय। जीवन में जो काम कभी नहीं किया, वह भी करूँगा। कम से कम इतना तो है कि सर्वोत्तम अभ्यर्थी के लिए सिफारिश कर रहा हूँ। मेरे बच्चे मुझसे असंतुष्ट रहते हैं कि उनके लिए कभी भी मैंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल नहीं किया, वे जो कुछ बने, अपने बलपूते पर ही बने। तुम्हारे लिए मैं अपने प्रभाव का उपयोग करूँगा। इंटरव्यू लेटर मिलते ही मुझे तुरंत बताना।’
विवेक के भीतर का तूफान शांत तो क्या होता। गुरु जी के समझाने का उसके ऊपर असर हुआ। वह निश्चिंत हो गया कि उनकी कृपा से आगे सब ठीक होगा, ऐसा भाव चेहरे पर लाकर वह विदा हुआ। एक एक एक दिन बीत रहा था। इंटरव्यू लेटर नहीं मिल रहा था। रोज दस बजे से पहले पोस्ट ऑफिस जाकर पता करता नहीं आया सुनकर मुरझा कर लौट आता। हास्टल में चर्चा की तो कई लड़कों ने बताया कि डॉ. लल्लू को इंटरव्यू लेटर मिल सकता है तो इसका मतलब यह हुआ कि वहाँ जाकर कुछ दानदक्षिणा अर्पित करने के बाद ही मिलेगा। विवेक बहुत निराश हो गया। गुरूजी से कहता कि क्या करूँ तो वे यही कहते कि धीरज रखो। ऐसा हो ही नहीं सकता कि तुम्हें न बुलाया जाय। लेकिन विश्वविद्यालय वाले अनुभव के बाद विवेक यह मानने लगा था कि उसके विरूद्ध कोई भी कुछ भी कर सकता है। घोर निराशा के क्षणों में वह एक सीनियर के घर चला गया। वह एक साल पहले चुना गया था। सारी बात सुनकर उसने एक परिचित क्लर्क का नाम और फोन नम्बर देकर कहा कि उससे फोन पर बात करके पूछ ले। विवेक पीसीओ गया। उस क्लर्क से बात हुई।
विवेक ने बताया कि मेरिट के हिसाब से मेरा इंटरव्यू लेटर सबसे पहले निकलना चाहिए था, अब तक क्यों नहीं निकला ! क्लर्क ने कहा, ‘क्यों नहीं निकला, इसे जानने कि कोशिश बेकार है। आप दो दिन के अंदर दस हजार रुपए लेकर आइए। साथ में इंटरव्यू लेटर लेकर जाएइ।’ गुरूजी से यह बात बता कर विवेक ने हताश निर्णय सुना दिया-‘इसका मतलब तो साफ है कि मुझे इंटरव्यू लेटर भी नहीं मिलेगा।’ गुरूजी कुछ देर चुप रहे। उसके बाद बोले-‘ठीक है, दो दिन तक इंतजार करो। इसके बाद भी नहीं आया तो कुछ किया जायेगा।’ विवेक ने सारी उम्मीदें छोड़ दी। तीसरे दिन पोस्टमैन उसके कमरे में आकर इंटरव्यू लेटर दे गया। कई बार उलट पुलट कर पढ़ने, अपने नाम की वर्तनी का एक-एक अक्षर जांचने के बाद भी वह आश्वस्त नहीं हो पा रहा था कि उसी के नाम का पत्र है और उसे पन्दरह दिन बाद इंटरव्यू के लिए बुलाया गया है। कमरे में ताला बंदकर विवेक सीधा गुरूजी के घर जा पहुंचा। गुरूजी ने कहा, ‘मुझे तो उस क्लर्क की बात से विश्वास हो गया था कि नहीं मिलेगा।’ गुरूजी ने कहा, ‘ये लोग इसी तरह ठगते हैं। तुम्हारी मेरिट सुनकर उसने इतना जान लिया कि तुम्हारे नाम इंटरव्यू लेटर जरूर जायेगा। तुम आतुर हो, उसका फायदा उठाने के लिए उसने रूपए की मांग कर दी। चलो, अब जम के तैयारी करो कि किसी भी विषय पर विशेषज्ञ, सदस्य, अध्यक्ष के प्रश्न तुम्हें निरुत्तर न कर सकें। मैं अपना काम करता हूँ।
जाने के दो दिन पहले गुरूजी ने विवेक का आत्मबल विशेष रूप से बढ़ा दिया। उन्होंने बताया कि एक विशेषज्ञ का पता चल गया है। उन्होंने एक शोध प्रबन्ध की रिपोर्ट के लिए फोन किया। मैंने पूछ लिया कि अमुक तिथि को आप विशेषज्ञ तो नहीं हैं ?
उन्होंने बताया कि ‘हैं’। मैंने विस्तार से तुम्हारे विषय में सब कुछ बता दिया। वे तुम्हारी पूरी सहायता करेंगे। तुम आराम से इंटरव्यू में जाना और पूरे आत्मविश्वास के साथ जबाब देना। विवेक के मुंह से बिना सोचे एक बात निकल गयी-सर ! मेरे गुरू भी आप ही हैं और अभिभावक भी। और लोगों के अभिभावक साथ जा रहे हैं। मेरे किसान पिता जाएंगे भी तो वहाँ जाकर क्या करेंगे ? सर, अगर आप चले चलते हैं तो’-लगभग गिड़गिड़ाते हुए उसने वाक्य अधूरा छोड़कर अपील की। गुरूजी स्तब्ध हो गये। उनकी समझ में नहीं आया कि क्या करें, क्या न करें ? विवेक का चेहरा उमड़ने लगा था। आँखें अब बरस जांय कि तब। गुरू जी द्रवित हो गये। उन्होंने साथ चलने की हामी भर दी। विवेक ने कहा कि वह उनका आरक्षण भी करा देगा। सुनकर गुरूजी ने उसे डांट दिया ‘जब मैं चल रहा हूं तो जो कुछ करना होगा, मैं ही करूँगा। तुम अपना भी आरक्षण मत कराओ। अपनी गाड़ी से चलेंगे। वहाँ पता नहीं कहाँ कहाँ जाना पड़े, किस किस से मिलना पड़े।’
इंटरव्यू से एक दिन पहले गुरूजी विवेक को साथ लेकर अपनी कार से पहुँच गये। उनके शिष्य आयकर अधिकारी हैं। उन्हीं के यहाँ ठहरे। जिन विशेषज्ञ से बात हो चुकी थी, उनसे मोबाइल पर बात करके जान लिया कि वे तो आ चुके हैं। अपने ठहरने की जगह भी उन्होंने बता दी। गुरूजी नहा धोकर निकल गये। जब दोपहर में भोजन के समय लौटे तो खुशी से उनका चेहरा चमक रहा था। लंच के लिए आफिस से घर आए आयकर अधिकारी ने कहा, ‘गुरूजी क्या बात है ? आज आप इतने खुश दिखाई पड़ रहे हैं, जितने कभी नहीं दिखाई पड़े थे। कभी कभी तो हम लोग समझ ही नहीं पाते थे कि आप खुश हैं कि उदास हैं। आज आपका खिला मुखमंडल बता रहा है कि आपको कोई बड़ी उपलब्धि हुई है।’ गुरूजी मुस्कुराए उन्होंने कहा, ‘हां बेटे ! वाकई मुझे एक उपलब्धि हुई है। तुम तो अपने अनुभव से जानते हो कि प्रामिजिंग स्टूडेंट्स की मदद करना मेरा व्यसन रहा है। रिटायर होने के बाद भी वह बना हुआ है। यह ब्रिलिएंट नौजवान विवेक है। अपने बैच का टॉपर है। नेट क्वालीफाइड है मगर यूनीवर्सिटी में इसकी नियुक्ति नहीं हो पाई। वहां ईमानदार कुलपति की बहन की बेटी का विवाह इसके रास्ते में टकरा गया।’ कहकर गुरूजी खुलकर हंसे। फिर वह पूरा किस्सा सुनाया।
सब लोग दुबारा देर तक हंसते रहे। उसके बाद गुरूजी ने बताया कि यहाँ इसकी नियुक्ति कराने निकला हूं। आज इसलिए ज्यादा खुश हूं कि एक एक्सपर्ट से बात हो चुकी थी, दूसरा वह निकल आया जिसके प्रोफेसर बनने में मैंने मदद की थी। योग्य था, मगर उसके अध्यक्ष की बीवी किसी वजह से नाराज थी, इसलिए अध्यक्ष महोदय विरोध कर रहे थे। अन्य विशेषज्ञों और कुलपति को कोई परेशानी नहीं थी। बस, पहल करने वाला कोई नहीं था। मैंने पहल करके उसका सलेक्शन करवा दिया। तब से वह बहुत कृतज्ञ रहता है। मैंने विवेक के विषय में बताया तो उसने कहा कि ऐसे योग्य अभ्यर्थी की वह पूरी मदद करेगा। मुझे खुशी इस बात की हो रही है कि अगर दो एक्सपर्ट अड़ जांय तो सलेक्शन होने में कोई खास दिक्कत नहीं होगी।’ विवेक गुरूजी की खुशी देखकर निश्चिंत हो गया कि इस बार दिक्कत नहीं होगी।’ विवेक गुरूजी की खुशी देखकर निश्चिंत हो गया कि इस बार उसकी नियुक्ति जरूर हो जायेगी। विवेक की खुशी रात के खाने के बाद और बढ़ गई। आयकर अधिकारी ने अपनी ओर से गुरूजी से पूछा-‘गुरूजी ! अगर आप कहें तो मैं चेयरमैन से बात कर लूँ विवेक के लिए !’ गुरूजी ने पूछा-‘जानते हो उन्हें ? मेरा मतलब है कि संबंध अच्छे हैं ? जवाब मिला ‘हम आयकर के लोग हैं। हमको किसी से जान पहचान बनाने के लिए पहल नहीं करनी पड़ती। लोग आगे बढ़कर हम लोगों से जान पहचान करते हैं और मेलजोल बढ़ाते हैं।’ गुरूजी ने कहा, ‘ऐसा है, तो तुम भी कह दो। तब विवेक की नियुक्ति सोलह आने पक्की हो जाएगी।’ आयकर अधिकारी ने चेयरमैन को फोन लगवाया। उधर से जवाब आया। दो घंटे बाद लौटेंगे तो आपसे बात कर लेंगे। दो घंटे से पहले ही चेयरमैन का फोन आ गया। इधर की सारी बातें सुनकर उन्होंने जो कुछ कहा उसका सारांश गुरूजी को बताया गया। सारांश यह था कि चेयरमैन ने कहा कि इंटरव्यू में सबसे ज्यादा महत्व अभ्यर्थी की योग्यता और उसके परफार्मेंस का होता है। इसका निर्णय करने के लिए तीन एक्सपर्ट होते हैं।
वे लोग ही निर्णायक की हैसियत में होते हैं। उनके बाद बोर्ड के सदस्य हैं। उनकी राय भी महत्वपूर्ण होती है। मैं अपनी ओर से पूरी कोशिश करूँगा। गुरूजी ने सुना। पुलकित हुए विवेक ने सुना। उसकी खुशी का ओर छोर न रहा। खुशी के मारे उसे देर रात तक नींद नहीं आई। इंटरव्यू के दिन सबेरे आयकर अधिकारी टहलकर लौटे तो उन्होंने एक अच्छी खबर और सुना दी। उन्होंने बताया कि सदस्यों में से एक से मिलकर आ रहे हैं। उसे भी विवेक का नाम और मेरिट बता दिया है। वह भी पूरी मदद करेगा। सुनकर गुरूजी ने उन्हें बाँहों में भर कर गले से लगा लिया। उन्होंने कहा, ‘मैं तुम्हें हृदय से आशीर्वाद देता हूँ। तुमने एक योग्य व्यक्ति की सहायता करके मुझ पर उपकार किया है।’ विवेक को दस बजे पहुँचना था। नाश्ता करवा कर आयकर अधिकारी ने साढ़े नौ बजे अपनी गाड़ी से उसे पहुँचवा दिया। चलते समय उनकी पत्नी ने दही चीनी खिला दी। गुरूजी ने सिर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद दिया। विवेक समय से पहले पहुँच गया। यह देखकर उसे अचरज हुआ कि वहाँ तो नौ बजे से ही अभ्यर्थी बैठे हुए हैं। एक दो बदहवास से सीधे बस स्टैंड से आकर वहीं हाथ मुँह धो रहे थे। साढ़े दस तक सबके प्रमाणपत्रों की जाँच हो गयी। उसके बाद एक एक को अंदर बुलाया जाने लगा।
एक को अंदर बीस मिनट लगे। जब बाहर आया तो उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। रुआँसा होकर उसने बताया कि ऐसे ऐसे सवाल पूछे जा रहे हैं, जिनके बारे में कभी सोचा भी नहीं था। हमारे टापिक पर कोई सवाल नहीं पूछा गया। एक प्रश्न था-‘आप प्रधानमंत्री होते तो क्या करते ?’ वह युवक अपने कागज पत्तर समेट कर तुरंत लौट गया। जाते जाते उसने कहा, ‘मेरा इंटरव्यू बहुत खराब हुआ। अब प्रतीक्षा करने को कुछ है ही नहीं।’ विवेक को बारह बजे तक इतने तरह की बातें सुनने को मिलीं कि उसका आत्मविश्वास भहराने लगा। एक अभ्यार्थी ने उसे बताया कि उसकी नियुक्ति पक्की है कारण वह नहीं बतायेगा। एक के विषय में पता चला कि उसके लिए मुख्यमंत्री ने सिफारिश की है। एक बजे इंटरव्यू एक घंटे के लिए रोक दिया गया। विशेषज्ञ और अधिकारीगण लंच के लिए चले गये। अभ्यर्थियों से कहा गया कि वे दो बजे आएँ। आसपास चाय, फलों के जूस और मिठाई की दुकाने थीं। अभ्यर्थी अपनी रुचि के अनुसार एक घंटे का समय वहाँ बिताने लगे। चाय की दूकान में बैठा एक आदमी कुछ अभ्यर्थियों को अलग बुलाकर कानाफूसी कर रहा था।
उसके पास से लौट कर आये एक अभ्यर्थी को बुलाकर विवेक ने पूछा कि वह आदमी कौन है और क्या बात कर रहा है। कुछ इधर उधर की करने के बाद उस अभ्यर्थी ने विवेक से पूछा, ‘क्या आप उससे मिलना चाहते हैं ?’ विवेक ने कुछ तल्ख़ी के साथ प्रतिप्रश्न कर दिया-‘मैं जानता ही नहीं कि वह कौन है तो उससे मिलना क्यों चाहूगा ?’ उस व्यक्ति को झेंप जाना चाहिए था मगर वह विवेक के अनाड़ीपन पर मुस्कुराया। कुछ देर बाद उसने कहा-‘उसे जानता कोई नहीं है मगर यहां जो माहौल है, उसमें यही बताया जा रहा है कि जो अभ्यर्थी उससे बात पक्की कर लेगा, उसी की नौकरी पक्के तौर पर हो पायेगी ! बाकी सारा कुछ नौटंकी है।’ उसकी बात से विवेक को कोई हैरानी परेशानी नहीं हुई। उसे कुतूहल हुआ। उसने जानना चाहा कि आखिर वह है कौन ! कई बार पूछने पर पहले वाले अभ्यर्थी ने बताया कि वह चाहे जो हो, उस व्यक्ति तक पहुँचने का माध्यम है जो पांच लाख के बदले नौकरी की गांरटी लेता है। विवेक को विश्वास नहीं हुआ। मन में दृढ़ विश्वास था कि उसकी नियुक्ति तो होनी ही है, वह क्यों प्रपंच में पड़े ?
विवेक को अंदर बुलाया गया। जाते हुए उसने भगवान के साथ गुरूजी का स्मरण किया। आत्मविश्वास से उसका चेहरा दमक रहा था। अंदर पहुंच कर उसने शालीनता से हाथ जोड़ कर सब को नमन किया। चेयरमैन का इशारा पाकर वह सामने रखी कुर्सी पर बैठ गया। उसके बाद उसने अपने प्रमाण पत्र शोधप्रबन्ध और छपे हुए शोध-पत्र आदि मेज पर रख दिए। चेयरमैने ने उसके नाम के साथ उसकी योग्यता के एक एक स्तर को पढ़कर सुनाया। आपने एमए में टाप किया ? ‘जी’। आपने पिछले वर्ष नेट क्लियर किया। ‘जी’। अत्यंत शालीनता के साथ चेयरमैन ने विशेषज्ञों की ओर देखकर कहा ‘अब आप लोग पूछें।’ बहुत आत्मीयता के लहजे में एक विशेषज्ञ ने पहला प्रश्न किया। विवेक का उत्तर सुनकर उनकी आंखें चमकने लगीं। दूसरे, तीसरे चौथे सभी प्रश्नों के उत्तर विशेषज्ञों को अधिकाधिक प्रसन्न और संतुष्ट करते गये। विशेषज्ञों ने एक स्वर से विवेक की सराहना करने के बाद सदस्यों की ओर इशारा करके कहा, ‘अब आप लोग पूछें।’ एक सदस्य ने कहा कि जब आप लोग संतुष्ट हैं तो और क्या पूछना ! फिर भी देश-काल सामान्य-ज्ञान कला राजनीति पर कुछ चलताऊ सवाल पूछे गये। विवेक ने उनके उत्तर भी ठीक ही दिए। अंत में चेयरमैन ने एक बेतुका सवाल किया-‘मिस्टर विवेक !
आप इतने योग्य अभ्यर्थी हैं, तो अपने विश्वाविद्यालय में आपकी नियुक्ति क्यों नहीं हुई ?’ एक क्षण तो विवेक की समझ में कुछ नहीं आया कि क्या जबाव दे ? कुलपति की बहन की बेटी का विवाह बिल्ली की तरह उसका रास्ता काट गया था, यह बात बताए ? यह कोई जवाब होगा ? कोई मानेगा ? उसने ऊपर की ओर देखकर इशारा कर दिया जिसका अर्थ होता था-यह तो ऊपर वाला ही जाने की नियुक्ति वहां क्यों नहीं हुई ? एक विशेषज्ञ ने कहा, ‘इसका जवाब ये कैसे दे सकते हैं ? समय आने पर वहां भी हो जायेंगे।’ सबलोग मुस्कुराए। चेयरमैन ने कहा, ‘ठीक है। जाइए।’ विवेक बाहर आये तो बचे हुए अभ्यर्थियों ने घेर लिया। आपका इंटरव्यू ज्यादा देर तक हुआ। क्या क्या पूछा गया ?’ विवेक ने घड़ी देखी, तब उसे पता चला कि लगभग पैंतालीस मिनट उससे पूछताछ होती रही।
घेरने वालों को कुछ बताते समय विवेक के मन में एक मधुर धुन बजती रही-‘समय आने पर वहां भी हो जायेंगे-वहां भी हो जायेंगे, वहां भी’ हो जायेंगे अर्थात् ? अर्थात् यह कि यहां तो हो ही गये। यहां तो हो ही गये। यहां तो हो ही गये।’ इस मस्ती में जल्दी से जल्दी गुरूजी के पास पहुंच गये। सब कुछ बताकर अपना अनुमान भी कह सुनाया। गुरू जी तो पहले से आश्वस्त थे। चहक कर बोले, ‘ठीक है बेटा। अब मैं निश्चित हुआ। जिन्दगी में मैंने बहुतों की मदद की है, अध्यापक के रूप में अध्यक्ष के रूप में, विशेषज्ञ के रूप में। यह पहला अवसर है, जब मैंने किसी भी हैसियत में न होने पर, आउट आफ वे जाकर किसी के लिए व्यक्तिगत स्तर पर सिफारिश की। इस बार तुम्हारा न होता तो मेरे लिए डूब मरने की बात होती।’
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