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जीवन के कई रंग रे

गुणमाला सोमाणी

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5433
आईएसबीएन :0000

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रात के दस बज रहे थे, पूर्णिमा का दिन था इसलिए पूर्णता को पहुँचता हुआ चन्द्रमा मन्दशील प्रकाश बिखेरता हुआ आकाश में दृष्टिगोचर हो रहा था।

Jivan Ke Kai Rang Re

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संपादकीय

बचपन में दादी माँ व बड़ी बहन से बहुत सी लोक कथाएँ सुनी हैं, तब मन में एक ही सवाल पैदा होता था कि दादी जी जो कहानियाँ सुनाती हैं, वे किताबों में क्यों नहीं हैं ? इन सब बातों को आज से लगभग 25 साल हो गये, तब से बहुत कुछ पढ़ा, पर उस तरह की प्रेरणाप्रद या हृदयस्पर्शी कथा किसी वरिष्ठ महिला लेखिका की पढ़ने को नहीं मिली, लेकिन जब मैंने पूज्य माताश्री गुणमाला सोमाणी जी की विशाल नामक कहानी पढ़ी तो आँखों में आँसू आ गये और मुझे अपनी उन दोनों बहनों की याद आ गयी, जो उत्तर प्रदेश छोड़ने के बाद मुझसे बिछड़ गयी हैं। निस्संदेह श्रीमती सोमाणी का प्रस्तुत लघु उपन्यास जीवन के कई रंग व चुनी हुई कहानियाँ आदर्श भारतीय मूल्यों को पुन: ग्रहण करने की प्रेरणा देती हैं।

किसी भी देश की सभ्यता व संस्कृति का वास्तविक रूप वहां के साहित्य में प्रतिबिम्बित रहता है। कहानी एक ऐसा सतत माध्यम है जिससे राष्ट्र के सर्वांगीण विकास चाहे बौद्धिक हो, नैतिक हो सभ्यता अनुकूल शास्त्रोनुकूल सामाजिकता आदि के विकास में बडी सहायता मिलती है। श्रीमती सोमाणी जी ने कार्य और प्रसंगों की पृष्ठभूमि पर पात्रों के आंतरिक भावों और मनोविकारों का इस प्रकार विश्लेषण करने का प्रयास किया कि पढ़ने वाला उत्सुकतापूर्वक पढ़े और मानव जीवन की आंतरिक और गहन से गहन गोपनीय या आदर्श भावनाओं के चित्रण को पढ़ने वाले की सहानुभूति प्राप्त होवे।

श्रीमती सोमाणी जी ने केवल मनोरंजन या धन की लालसा में अपने उपन्यासों या कहानियों का स्तर नहीं गिराया, क्योंकि उनका उद्देश्य भारतीय सभ्यता व संस्कृति के नैतिक मूल्यों की पुर्नस्थापना करना है। इसीलिए उर्दू साहित्यकार फरहाना ताज ने अपने चर्चित ग्रंथ हिंदी साहित्य का गौरवशाली इतिहास में लिखा है-‘‘श्रीमती गुणमाला सोमाणी ने अपने लेखन का आधार भारतीय सभ्यता व संस्कारों की श्रेष्ठता को ही बनाया है, अवकाश प्राप्त प्राचार्य होने के कारण इनका साहित्य काफी शिक्षाप्रद बन पड़ा है, इसलिए सोमाणी जी को बच्चों की महादेवी के नाम से भी पुकारा जाता है।’’ फिर भी श्रीमती सोमाणी जी का यह लघु उपन्यास व कथाएँ कहां तक प्रभावोत्पादक है, यह सब तो पाठकों के निर्णय और समझ पर ही आधारित है।

संपादक,
तेजपाल सिंह धामा

आत्म-कथन

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसलिए उसे सामाजिक नियमों का, बंधनों का, पालन करना पड़ता है। यदि सामाजिक प्रथाओं को, परम्परा को तोड़ा जाता है तो समाज उसे आसानी से मान्यता नहीं देता। सामाजिक, नियम, बंधन यदि समाज के लिए कल्याणकारी हों, आवश्यक हों, तो उन्हें तोड़ने का प्रयास नहीं करना चाहिए। किन्तु यदि कुछ बंधन कुछ विशिष्ट स्थिति में आवश्यकता के कारण डाले गये हो और बाद में स्थिति बदलने के बाद उसमें कुछ लचीलापन लाया जा सकता हो, तो उसे तोड़ा जा सकता है।

जो वर्णव्यवस्था समाज को सुव्यवस्थित स्वरूप प्रदान कर, उसे सुचारु रुप से चलाने के उद्देश्य से बनायी गयी थी, उसे समाज के कुछ स्वार्थन्ध कर्णधारों ने विकृत स्वरूप देकर, जाति प्रथा में परिवर्तित कर दिया था। जाति के आधार पर पहले कोई भेदभाव नहीं था। विवाह आदि के लिए जाति का कोई बंधन नहीं था। किन्तु जाति-प्रथा का चलन हमारे समाज में आ गया। विवाह आदि के लिए भी जाति का बंधन आ गया। किन्तु कालान्तर में यह स्पष्ट होने लगा कि इस बंधन के कारण समाज की एकता खंडित होने लगी, आपसी प्रेम एवं सद्भाव के स्थान पर आपस में द्वेष और वैमन्सय बढ़ने लगा, तो कुछ विद्वानों ने, चिन्तकों ने इसका विरोध किया। उन्होंने प्राचीनकाल के अनेक उदाहरण देकर समझाया कि मानव-समाज में जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं था और न हो सकता है। प्राचीन परम्परा को फिर से प्रचलित करने के लिए उन्होंने अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन दिया।

फिर भी शताब्दियों से चली आयी प्रथा या परम्परा को तोड़ना आसान नहीं है और यदि कोई साहस करके उसे तोड़ता है, तो समाज उसे क्षमा नहीं करता, उसके कार्य को मान्यता नहीं देता।
अन्तर्जातीय विवाह तो आजकल कॉमन हो गये हैं, फिर भी ऐसा विवाह करने वालों को उनके परिवार वाले तथा समाज दोनों स्वीकार नहीं करते। परिवार वाले उनका तिरस्कार करते हैं और समाज उन्हें आदर की दृष्टि से नहीं देखता।
यह बात अलग है कि आज के भौतिक युग में धन-दौलत के आधार पर ऐसे सैकड़ों लोग परिवार में और समाज में भी शान के साथ जीते हैं, जो समाज के हर कायदे-कानून को तोड़ते हैं और जाति प्रथा को तोड़कर अन्तर्जातीय विवाह करते हैं। आज समाज में कायदे-कानून तथा प्रथा-परम्परा की जाँच-पड़ताल करने वाले, प्रथा-परम्परा की तथा नियमों की जाँच भी व्यक्ति के आर्थिक, सामाजिक तथा सत्ता के पलड़ों के आधार पर करते हैं। खैर !

यदि हम किसी परम्परा को तोड़ने में समाज का अथवा परिवार का कोई अहित नहीं समझते हैं और उसे तोड़ते हैं, तो यह हमारे दृष्टिकोण से उचित कार्य हो सकता है, किन्तु परिवार अथवा समाज की दृष्टि में वह गलत होता है। ऐसी स्थिति में हमारा यह कर्तव्य होता है कि हम उनकी दृष्टि से इसे देखें, उनकी भावनाओं को समझें और उन्हें यह विश्वास दिलायें कि हमने जो किया, वह गलत नहीं है। अन्तर्जातीय विवाह से जाति, धर्म, प्रदेश आदि सारे भेदभाव समाप्त होने की संभावना होती है। किन्तु ऐसे विवाह केवल प्रेम प्रसंगों के कारण होते हैं, और अधिकांश प्रेम विवाह करने वाले, केवल अपनी दृष्टि से सोचते हैं और अभिभावकों की दृष्टि से नहीं।

वे अपने बड़े बुजुर्गों की नाराजगी दूर करने का प्रयास नहीं करते, उलटे स्वयं उनपर आरोप लगाते हैं कि उन्होंने हमारे साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। हमसे संबंध तोड़ दिया। वे यह नहीं सोचते कि उनके माता-पिता की भी कुछ अभिलाषाएं थीं, उनको लेकर उन्होंने भी कुछ सपने देखे थे, जिन्हें इन्होंने तोड़ दिया और इसी के कारण वे क्रोधित हुए और उनकी प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। अत: उनके क्रोध को शांत करना, उनके मान-सम्मान की रक्षा करना हमारा धर्म है। प्राय: होता यह है कि नव विवाहिता बहू सास-ससुर अथवा परिवार के अन्य सदस्यों की नाराजगी को अथवा कटु वचनों को सुनकर स्वयं को अपमानित महसूस करती है और उनसे नाता तोड़ने की घोषणा करती है। परिणामस्वरूप एक बेटा अपने परिवार से कट जाता है। उनके स्वयं के बेटे-बेटियाँ अपने दादा-दादी तथा परिवार के अन्य बुजुर्गों के स्नेह से वंचित हो जाते हैं। इस प्रकार सामाजिक एकता के उद्देश्य से अन्तर्जातीय विवाह का समर्थन करने वाले महापुरुषों का वह लोक मंगल का उद्देश्य धूल में मिल जाता है।

अत: नये जमाने के नयी विचार धारा रखने वाले युवा पीढ़ी को उपरोक्त बातों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। ऐसे ही एक अन्तर्जातीय विवाह करने वाले दम्पत्ति के जीवन संघर्ष को इस उपन्यास में चित्रित कर, यह दर्शाने का प्रयास किया है कि अन्तर्जातीय विवाह को परिवार के लिए कैसे सुखदायक स्वरूप प्रदान किया जाता है ? ऐसे विवाह को कैसे मंगलमय, आदर्श तथा उदात्त स्वरूप दिया जाए। नयी पीढ़ी अपने पूर्वजों के महान् उद्देश्यों को समझें, अपने माता-पिता की भावनाओं को समझें, ताकि वे अपने माता-पिता को सुखी बना सकें और स्वयं भी सुखपूर्वक रह सकें। इसी आशा के साथ यह उपन्यास मैं पाठकों को सौंप रही हूँ।

मैं तेजपाल सिंह धामा की अत्यंत आभारी हूँ, जिन्होंने इस उपन्यास का संपादन कार्य भार संभाल कर इस उपन्यास को पाठकों तक पहुँचाने में मुझे अपना सद्भाव पूर्ण सहयोग किया। अंत में मैं उन सभी महानुभावों का आभार मानती हूँ, जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस प्रकाशन में अपना सहयोग दिया।

गुणमाला सोमाणी

1

रात के दस बज रहे थे, पूर्णिमा का दिन था इसलिए पूर्णता को पहुँचता हुआ चन्द्रमा मन्दशील प्रकाश बिखेरता हुआ आकाश में दृष्टिगोचर हो रहा था। चन्द्रमा की शीतल किरणें होटल के रूप की खिड़की से शरद ऋतु की मादक निशा प्रकृति में छनछन कर झर रही थी। आनंद और उल्लास का संचार कर रही थी। महाराष्ट्र के निलंगा टाउन के एक होटल में कस्तुरी अपने पति के साथ उस दिन के उत्सव के विषय में प्रसन्नता से बातें करती रही। उस दिन वह बहुत प्रसन्न थी, क्योंकि उसके जीवन की साधना सफल हो चुकी थी। उसका मन एक अज्ञात आनंद से भरपूर तृप्त हो चुका था उसे लग रहा था मानो उसका जीवन धन्य हो गया। ईश्वर ने उसकी चाहत को पूर्ण कर दिया।

 थोड़ी देर में उसके पति तो सो गये किन्तु उसकी आँखों में नींद कहाँ थी ! जीवन भर दो अपनत्व भरे शब्दों के लिए जो तरसती रही, उस पर तो उस दिन अपनत्व, स्नेह और प्रशंसा भरे शब्दों की वर्षा हो चुकी थी। भूख मिटाने के लिए दो रोटी (सूखी ही सही) की चाह रखने वाले को पंच पकवान का थाल मिल जाए, तो उसकी प्रसन्नता और तृप्ति का शाब्दिक वर्णन असंभव सा हो जाता है, हाँ ! उसे केवल महसूस किया जा सकता है। कस्तुरी आज उसी तृप्ति का आनंद ले रही थी। लेटे-लेटे खिड़की से बाहर छिटकी चाँदनी को वह देख रही थी। उसके मन की प्रसन्नता का नशा उसके तन-मन पर छाया हुआ था, शायद इस लिए उस दिन उसे चाँदनी रात में संपूर्ण प्रकृति मादक दिखायी देने लगी। वह सोचने लगी, ‘‘आज तक मुझे चाँदनी रात अथवा प्रकृति इतनी सुंदर आकर्षक क्यों नहीं दिखायी दी’’! सोचते-सोचते इसका उत्तर भी उसने स्वयं ही अपने अन्तर मन से पा लिया। उसे लगा शायद वह अपने लक्ष्य प्राप्ति की साधना में ही डूबी रही, अपने घर-परिवार को संवारने में, अपने परिवार के बुजुर्गों का आशीर्वाद पाने की चाह में, ऐसी जुट गयी कि परिवार के अतिरिक्त और किसी ओर उसका ध्यान गया ही नहीं, तो फिर वह सृष्टि की सुंदरता भला कैसे देख पाती खैर !

नींद नहीं आ रही थी इसलिए धीरे-धीरे वह अपने अतीत में चली गयी। अतीत की परछाइयाँ उसके मानस पटल पर उभरने लगी।

2

कस्तुरी निलंगे के पास के एक छोटे से गाँव की लड़की थी। मातृ प्रेम से वंचित, विमाता के तिरस्कार एवं दुर्व्यवहार से पीड़ित, उसका बाल मन कभी सांसारिक उत्सव तथा तीज त्योहार आदि में रमा ही नहीं। बाल्यावस्था से ही वह गुमसुम सी रहती थी। घरका काम-काज करती, स्कूल जाती और घरके काम से फुर्सत मिलती तब स्कूल की पढ़ाई करती। उसका मन यदि किसी बात में रमता था तो वह केवल पढ़ाई में। उस समय पढ़ाई का स्तर बहुत ऊंचा था। प्रायमरी स्कूल में भी प्रथम और द्वितीय भाषा के पाठ्यक्रम में अच्छे लेख, कहानियाँ एवं महापुरुषों की जीवनियाँ रखी जाती थी। उन प्रेरणादायिनी कहानियों तथा जीवन चरित्रों को पढ़ते-पढ़ते कस्तुरी को लगता वह भी पढ़  लिखकर विदुषी बने, एक आदर्श अध्यापिका बने, एक आदर्श पत्नी, आदर्श बहू, आदर्श माँ, आदर्श सास बनकर एक आदर्श परिवार की रचना करें, अध्यापिका बनकर छात्रों का उचित मार्गदर्शन कर, उन्हें चरित्रवान बनाकर, एक आदर्श समाज की रचना में अपना योगदान दे।

कहते हैं निराधार, निराश्रित बच्चों में बहुत कम आयु में ही परिपक्वता आती है। बाल्यावस्था में ही उसकी माँ इस संसार से चल बसी थी। तभी से वह छोटी सी बालिका, उपेक्षिता का जीवन जी रही थी, जिनको माता-पिता का प्रेम नहीं मिलता उन्हें अपने सगे-सम्बन्धियों का भी प्यार नहीं मिलता। घर तथा नाते रिश्तोदारों की उपेक्षा से कस्तुरी का स्वभिमानी मन दिन-रात आहत होता, शायद इसीलिए पढ़ लिखकर अपने पाँव पर खड़ा होने का एक प्रण उसके बाल मन ने लिया था।
उसके गाँव में केवल सातवीं तक ही स्कूल था। कस्तुरी आगे पढ़ना चाहती थी। उसने अपने पिता से आग्रह किया कि उसे हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए उसके चाचा के घर निलंगा में रहने की व्यवस्था करें। उसके पिता की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, इसलिए उनके रिश्तेदार भी उनसे अधिक संबंध नहीं रखते थे। वे जानते थे कि उनका भाई कस्तुरी को रखने के लिए तैयार नहीं होगा। उन्होंने उसे यह बात समझायी। किन्तु कस्तुरी अपने निश्चय पर अड़िग थी। उसका कहना था कि वे उसे निलंगा लेकर चलें वह स्वयं अपने चाचा-चाची से बात करेगी। पिता शायद पुत्री के मनोभावों को जानते थे। अत: वे उसे निलंगा लेकर गये।

निलंगा पहुंचने के बाद कुशल मंगल की साधारण बातें हुयी। भोजन आदि के बाद जब उसकी चाची सब काम निपटा कर विश्राम के लिए बैठ गयी, तब कस्तुरी ने बात आरंभ की। कहा-‘‘चाची मैं सातवीं की परीक्षा में पूरे जिले में प्रथम आयी हूँ मुझे सरकार की ओर से स्कालरशिप भी मिल गयी है। चाची मैं खूब पढ़ना चाहती हूँ किन्तु क्या करूँ हमारे गांव में इससे आगे पढ़ने की सुविधा नहीं है। इसलिए आपसे मैं एक विनती करने आयी हूँ। मैं आपके पास रहकर मैट्रिक तक की पढ़ाई करना चाहती हूँ।’’

यह सुनकर चाची थोड़ी सोच में पड़ गयी, उसने कुछ कहा नहीं। तब कस्तुरी ने कहा, ‘‘चाची मैं आप पर किसी प्रकार का बोझ नहीं डालूंगी। मुझे जो स्कॉलरशिप मिलती है, उसमें मैं अपने कपड़े-लत्ते का तथा पढ़ाई का खर्चा चला लूँगी। मैं आपके घर का सब काम करूंगी। आपको कभी शिकायत का मौका नहीं दूंगी।’’

3

कस्तुरी पर ईश्वर की कृपा थी, शायद इसीलिए किसी को अपने पास फटकने न देने वाली चाची ने कस्तुरी को अपने पास रखना स्वीकार किया। और कस्तुरी हाईस्कूल की शिक्षा के लिए वहाँ रहने लगी। उसकी चाची जिनके मकान में किराये से रहती थी, उस घर की मकान मालकिन बहुत ममतामयी थी। वह भी मातृत्व से वंचित थी, शायद इसी लिए मातृ विहीना कस्तुरी पर उसकी ममता बरसने लगी। घर में कुछ विशेष पदार्थ बना कि वह याद से उसके लिए निकालकर रखती। जब वह स्कूल से आती, तो उसे बुलाकर अपने सामने बैठा कर उसे खिलाती।

मकान मालकिन का छोटा भाई हैदराबाद में इंटर में पढ़ रहा था। संयोग से वह भी बाल्यावस्था में ही माँ को खो चुका था। मकान मालकिन की तीन बहनें थी। एक बड़ी और दो छोटी। दो बड़े भाई और दो छोटे। हैदराबाद में पढ़नेवाला भाई प्रकाश, सबसे छोटा था। माँ न रहते हुए भी सब बड़े-भाई बहनों का उसे भरपूर प्रेम मिलता था। एक तरह से वह सबका लाड़ला था। उसके पिता चाचा आदि निलंगा के पास ही एक छोटे से गांव के जमींदार थे। वे सब गाँव में ही रहते थे। जब भी छुट्टियों में अपने गाँव जाना होता, प्रकाश पहले निलंगा अपनी बड़ी दीदी के पास आता, वहां दो चार दिन रहकर अपने गांव जाता था। इस बार भी वह दीपावली की छुट्टियों में आया था। गांवों के मकान के प्रवेशद्वार के आजू-बाजू दालान हुआ करते थे। (एक तरह की बैठक अथवा ड्राइंग रूम समझिये, जहां आने-जाने वालों को बिठाकर बात की जाती थी) कस्तुरी जब स्कूल से आयी तो वे दोनों, भाई बहन वहीं पर बैठे थे। उसे देखते ही मौसी ने कहा-(कस्तुरी अब उन्हें मौसी कहने लगी थीं), ‘‘सुन कस्तुरी ! मैं कहती थी ना मेरा छोटा भाई हैदराबाद में पढ़ता है यह वही हैं।’’

कस्तुरी ने ध्यान से उसे देखा, और मौसी से कहा-‘‘अच्छा मौसी मैं अभी आयी।’’ वह तुरन्त वहां से चली गयी। प्रकाश को देखते ही पता नहीं क्यों उसके मन में एक अजीब सी हलचल निर्माण हो गयी, वह अधिक समय तक वहां रुक नहीं सकी। आँगन पार कर अपने घर में चली गई। किन्तु किसी काम में उसका मन नहीं लग रहा था। बार-बार वही चेहरा सामने आने लगा। प्रकाश दो तीन दिन वहां रहा था लेकिन उन दोनों में एक बार भी बात चीत नहीं हुई। हाँ ! जब भी वह अपने घर से बाहर आती तो उसे दालान में बैठा हुआ देखती और उसे लगता शायद वह भी उसी को देखने के लिए वहां बैठा रहता था। स्कूल जाते समय स्कूल से आते समय जब वह उसकी ओर देखती तो, वह उसी को देखता हुआ नजर आता।

तीन दिन के बाद वह अपने गाँव चला गया वापसी में फिर आया और एक दिन रुक कर हैदराबाद चला गया। इसी तरह छुट्टियों में आता और चला जाता। कस्तुरी को पता नहीं क्यों उसके आने का इन्तजार रहता, आने के बाद वह उससे बात नहीं करती और ना ही प्रकाश उससे बात करता किन्तु कस्तुरी को अहसास होने लगा कि वह जितना उसे देखने के लिए उत्सुक रहती है, शायद प्रकाश भी उसके लिए उतना ही व्याकुल रहता है। दिन बीतते गये कस्तुरी अब दसवीं कक्षा में प्रवेश कर चुकी थी और प्रकाश बी.ए.के द्वितीय वर्ष में। उस साल जब वह दीपावली की छुट्टियों में निलंगा आया तो उसने सब की आँख बचाकर उसे एक पत्र दिया। एकांत में उसे पढ़कर कस्तुरी थरथर काँपने लगी।

उसे लगा किसी को पता चलेगा तो क्या होगा ? वास्तव में अब वह भी उसे चाहने लगी थी। किन्तु सोचती, क्या हम दोनों का मिलन संभव होगा ? कहाँ मैं एक गरीब, अनाथ-सी मराठा परिवार की लड़की और कहाँ प्रकाश एक ब्राह्मण परिवार का लड़का ? क्या उसके परिवार के लोग हमारे विवाह को स्वीकार करेंगे ? उसकी बड़ी दीदी कस्तुरी को माँ समान प्रेम करती थी, किन्तु क्या वह इस संबंध को स्वीकार करेगी ? उस परिवार का एक सदस्य था, जिससे आशीर्वाद पाने की उसे आशा थी और वह था प्रकाश का बड़ा भाई सुहास, जो आयु में उससे केवल दो-ढाई वर्ष बड़ा था।

किन्तु बहुत ही उदारमना, त्यागी परोपकारी था। दयालु भी था। कस्तुरी किसी प्रकार चाची के घर में दिन रात कष्ट करके अपनी पढ़ाई कर रही है। यह देख देखकर उसका परोपकारी मन उसके प्रति सहानुभूति से भर उठता था। जब कभी वह अपनी दुकान के लिए सामान खरीदने एक दिन के लिए निलंगा आता, तो कस्तुरी से कहता, ‘‘तुम्हें किसी पुस्तक की या और किसी चीज़ की ज़रूरत हों तो मुझसे कहना।’’ वह प्रत्येक राखी पूर्णिमा के अवसर पर विशेष रूप से उससे राखी बंधवाने आता था। खैर ! जब वह पत्र उसने पढ़ा तो सोचा इस बार सुहास भैया आयेंगे, तो उनसे राय लूँगी। बाद में सुहास की सहायता से ही कस्तुरी के गाँव में प्रकाश और कस्तुरी का विवाह संपन्न हो गया। कस्तुरी के पिता ने इन दोनों का विवाह संस्कार संपन्न करा दिया था।


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