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मोपला

विनायक दामोदर सावरकर

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5426
आईएसबीएन :00000

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मलाबार की सत्य घटनाओं पर आधारित ऐतिहासिक उपन्यास...

Mopla athartya mujhey isse kya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रात्रि में ग्राम में अग्निकाण्ड होने पर, आग में जान-बूझकर तेल डालना, जितना समाजद्रोही एवं पापपूर्ण कृत्य है, उतना ही इस आग की ओर से नेत्र मूँदकर यह मानना तथा रहना भी सार्वजनिक हित की दृष्टि से हानिकारक ही है कि आग लगी ही नहीं : जैसे अग्नि में तेल डालना, आग बुझाने का सही उपाय नहीं, उसी प्रकार ‘आग लगी है, उठो भागो’’ आदि की आवाज इस भय से न लगाना कि कहीं सोते हुए लोगों की नींद न टूट जाए, भी उस अग्नि से ग्राम को बचाने का वास्तविक उपाय नहीं है।
मालबार की सत्य घटनाओं के आधार पर ऐतिहासिक उपन्यास।

प्रकाशकीय

हमारी संस्था द्वारा वीर सावरकर जी की अमर कृतियों के हिन्दी में प्रकाशन की योजना बड़ी सफलता से अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर है हम स्वीकारते हैं कि इसकी गति मन्द है कारण, प्रकाशन-व्यवसाय को पिछले वर्षों जो क्षति पहुँची है, उससे प्रत्येक प्रकाशक को अपने प्रकाशकीय कार्यक्रम में संशोधन करना पड़ा है।

फिर भी जिन महत्त्वपूर्ण कृतियों को प्रकाशनार्थ चुना गया उसमें निस्सन्देह सावरकर साहित्य को प्रथमिकता मिली हमारे व्यक्तिगत अनुराग एवं पाठकों की माँ दोनों ही पहलू समक्ष थे। अतः ‘मोपला’ उनके द्वारा लिखा गया मार्मिक उपन्यास हिन्दू-मुस्लिम दंगे के सम्बन्ध में पाठकों को समर्पित है एवं एक अन्य उपन्यास ‘गोमांतक’ भी इसके साथ प्रस्तुत किया जा रहा है उसके प्रकाशक स्वयं भी वीर सावरकर हैं,. किंतु उनके वितरण के सम्पूर्ण अधिकार हमारी संस्था को प्राप्त हैं पाठकों की प्रतीक्षा समाप्त हुई। इस कृति के उपरान्त महर्षि सावरकर की अमर रचनाओं के प्रति पाठकों की जिज्ञासा पूर्व-ग्रंथों की तरह बढ़ जाएगी। उनके आत्मसमर्पण के उपरान्त तो हर क्षण यह रुचि निरन्तर बढ़ी है।
उपन्यास के आरंभ से पूर्व उनकी इस रचना को वैचारिक पृष्ठभूमि के मूल्यांकन का अध्ययन पाठकों को उपन्यास के कथानक के लिए रुचि उत्पन्न करेगा।

प्रस्तावना


रात्रि में ग्राम में अग्निकाण्ड होने पर, आग में जान-बूछकर तेल डालना- जितना समाजद्रोही एवं पापपूर्ण कृत्य है, उतना ही इस आग की ओर से नेत्र मूँदकर रहना तथा यह मानना भी सार्वजनिक हित की दृष्टि से हानिकारक ही है कि आग लगी ही नहीं : जैसे अग्नि में तेल डालना, आग बुझाने का सही उपाय नहीं, उसी प्रकार ‘आग लगी है, उठो भागो’’ आदि की आवाज इस भय से न लगाना कि कहीं सोते हुए लोगों की नींद न टूट जाए, भी उस अग्नि से ग्राम को बचाने का वास्तविक उपाय नहीं है।
इस भाँति मैं यह समझता हूँ कि मलाबार में मोपलों के उपद्रव के समय घटित भयंकर घटनाओं को अतिरंजित और अस्फुट-रंजित न करते हुए अथवा ज्यों का त्यों विवरण हिन्दू-मात्र के कानों तक पहुंचाना और इनके घातक कर्म को उनके हृदय में बैठाना, हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों के लिए हितकारी है। इसी दृष्टि से यह कहानी लिखी गई है।

यद्यपि इस पुस्तक में उल्लिखत नाम और ग्राम कल्पित हैं, फिर भी इसमें जिन घटनाओं का विवरण प्रस्तुत किया गया है उनमें वस्तुस्थिति का यथातथ्य प्रतिबिम्ब ही है : इस वर्ण में मोपलों के उपद्रवों के समय हुई भयंकर और भव्य घटनाओं को अतिरंजित करने का प्रयत्न नहीं किया है।
केवल पृथक् व अलग-अलग स्थानों पर आधारित हुई घटनाओं को एक सुसंगत कथा के सूत्र में पिरोने के लिए नाम, ग्राम व काल तथा वेला की जितनी काट-छाँट आवश्यक थी उतनी की गई है ! किन्तु ऐसा करते हुए भी इस उपद्रव के उद्देश्य, इसकी भूमिका, कृत्यों अथवा घटनाओं की संगति और मर्म के ऐतिहासिक स्वरूप का लवलेश-मात्र भी विपर्याय न होने देने की सतर्कता बरती गई है।

मालाबार के उपद्रव को प्रत्यक्ष अवलोकन कर, उस उपद्रव से पीड़ित लोगों के अनेक वर्ष काम करते हुए सैकड़ों पीड़ित हिन्दुओं और मोपला उपद्रवियों के वृत् उनके हस्ताक्षरों सहित आर्य समाज ने ‘‘मालाबार का हत्याकाण्ड’ नामक पुस्तक प्रकाशित की है। इस पुस्तक में श्रीयुत देवधर द्वारा मालाबार में पीड़ितों की सहायता करने का पुण्यकृत्य करते हुए वहाँ की परिस्थिति का इतिवृत्त भी प्रकाशित किया है। इसी विवरण और जानकारी के आधार पर यह कथा लिखी गई है जिन पाठकों के लिए सम्भव हो वे पुस्तक तथा अली मुसेलियर के अभियोग का विवरण अवश्य पढ़ें : मैं मालाबार का

 हत्याकाण्ड’ नामक इस पुस्तक में ही लाला खुशहालचन्द खुरसन्द के प्रत्यक्ष रूप से देखे गए कुएँ का वृत्तान्त (पृष्ठ 113 ई.) पन्नीकर, तेहअस्मा, थल कुर्र राम, सनको जी नायर, की हत्याकर तथा केमियन को मृत समझकर इस कुएँ में फेंके जाने तथा ईश्वर-कृपा से उसके पुनः जीवित बचने, केश यन नम्बोदर, कंजुनी, करूप व चमकुरी मंजेरी इत्यादि स्त्री-पुरुषों द्वारा अपने भयंकर अनुभवों का जो विवरण अपने हस्ताक्षरों सहित दिया, प्रकाशित किया गया है।

 इन्हें पाठक अवश्य पढ़ें। उससे पाठकों को यह विदित हो सकेगा कि पुस्तक में दिया गया विवरण कितना यथार्थ है। ऐसे अवसर अपने राष्ट्र के समक्ष क्यों उपस्थित हुआ और पुनः ऐसा प्रसंग उपस्थित न हो पाए इसके लिए किन उपायों का अविलम्बन किया जाना चाहिए, इस प्रश्न को समाधानकारक रीति से सुलझाया जाना आवश्यक है। सत्य से दृढ़ता-सहित सामने रखकर हिन्दू-मुसलमान दोनों ही इस प्रश्न को समान रूप से सुलझाने को प्रवृत्त हों। ईश्वर से में उत्कंठा-सहित यही प्रार्थना है।

लेखक

मोपला-पुनर्मूल्यांकन
(प्रस्तुत उपन्यास विषय एवं तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में)



महर्षि सावरकर के साहित्य-सृजन का हेतु देश, काल तथा समाज से सम्बन्धित परिस्थितियाँ मात्र ही नहीं अपितु उनके साहित्य में एक स्थायी तत्त्वज्ञान भी है। रचनाओं का यह स्थायी तत्त्वज्ञान तथा ऐतिहासिक सामग्री जो अस्थायी परिवेश में तात्कालीन समस्याओं पर आधारित है किसी न किसी सिद्धान्त एवं विचार-सूत्र की धुरी की ही परिक्रमा करते हैं।
हिन्द महासागर के पश्चिमी तट पर स्थित (मालाबार) कालीकट इत्यादी का मलयालम भाषा-भाषी अंचल किसी समय मद्रास प्रदेश का भाग था किन्तु अब यह केरल का भाग है।

इसी अंचल में निवास करने वाले मुस्लिम ‘मोपला’ कहलाते हैं। इनमें से कुछ उन अरबी जलदस्युओं के वंशज हैं जो सौदागरों के रूप में आकर इस अंचल में बस गये और अन्य वे हैं जिनको इन्होंने हिन्दू समाज में व्याप्त छुआछूत की भावना का लाभ उठाकर अथवा प्रलोभन देकर धर्मान्तरित किया था।

इस्लामी खलीफा के समर्थन में भारत में भी खिलाफत-आन्दोलन मुसलमानों द्वारा आरम्भ किया गया और हिन्दू-मुस्लिम एकता के दीवानों ने स्वातन्त्र्य-प्राप्ति की मृग-मारीचिका में जी भरकर इसका समर्थन किया। किन्तु थोड़े समय बाद ही विचित्र बात यह हुई कि देशभर में भयंकर हिन्दू-मुस्लिम उपद्रव आरम्भ हो गए। मालाबार में तो भीषण रक्तपात हुआ। उसी समय की स्थिति तथा हिन्दू की वेदना ही इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है जिसे महान साहित्यकार हिन्दू हृदय-सम्राट वीर सावरकर ने अपनी लेखनी से प्रस्तुत किया है।

वस्तुतः हिन्दू-मुस्लिम दंगे भी भारत में इतिहास की एक श्रृंखला ही बन गए हैं, इनका स्वरूप बदलता रहता है। जिस दिन से विश्व में इस्लाम का प्रदुर्भाव हुआ तबसे संसार के रंगमंच पर एक विचित्र उथल-पुथल होती आ रही है। प्रत्येक दूसरी जाति से इस्लाम के अनुयायियों का संघर्ष हुआ। इस्लामी धर्मोंन्माद को हिन्दुस्तान ने भी सैकड़ों वर्षों तक झेला है। चाहे वह उन्माद गजनवी और गौरी के आक्रमणों अथवा खिलजियों और मुगलों की सत्ता किसी भी रूप में उभरा हो। हिन्दू निरन्तर उसका लक्ष्य बनता रहा है !

किन्तु सबसे अधिक दुखद तथ्य यह है कि जब यह मुस्लिम-समूह स्वयं भी हिन्दुस्तान के हिन्दुओं के समान ही किसी तीसरी सत्ता के अधीन हो गया और अब भारतीय भी कहलाने लगा था तब भी उसने जातिगत रूप में अपनी पृथकतावादी नीति, उग्रता और हिंसक प्रवृत्ति का परित्याग नहीं किया और वह प्रवृत्ति तृतीय शक्ति के समान शत्रु के स्थान पर सहवासी भारतीयों के विरुद्ध ही रही।

 यद्यपि इन मुसलमानों में अधिकांश वही थे जिनके पूर्वज हिन्दू ही थे, किन्तु इसका मजहबी मान्यताएँ और धर्मान्धता से तो ऐसा सन्देह होने लगता है कि अन्य धर्मावलम्बियों के साथ सहअस्तित्व, सहयोग और  सद्भावना तथा शान्ति शायद उसके शब्दकोष में है ही नहीं।

इस पृथक मनोवृत्ति एवं उपद्रवों की प्रवृत्ति से एक पृथक इस्लामी साम्राज्य उन्होंने सहज में प्राप्त कर लिया। जैसा कहा गया है इसके वैचारिक कारण भी हैं कि इस्लाम की दृष्टि में राष्ट्रीयता की भावना ही स्वीकार्य नहीं है। इस्लाम एक पृथक जीवन-पद्धति है जो केवल मक्का और अरब के पैगम्बर रसूल को ही मान्यता देते हैं, यही उनका धर्म है और यही है उनकी राष्ट्रीयता तथा अन्तर्राष्ट्रीयता।

इन दंगों में निर्दोष नागरिक मरते हैं। वस्तुतः किसी एक व्यक्ति अथवा कुछ व्यक्तियों को यह अधिकार नहीं दिया जा सकता कि वे कानून का उल्लंघन कर अशान्ति उत्पन्न करें।


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