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हिन्दुत्व

विनायक दामोदर सावरकर

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :139
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5422
आईएसबीएन :00000

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एक रोचक पुस्तक...

Hindutva

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘हिन्दुत्व’ उस महापुरुष की अमर कृति है, जिसने वर्तमान युग में राष्ट्र हेतु सर्वस्व समर्पण की परम्परा को गतिमान ही नहीं किया, अपितु जो अण्डमान की काल-कोठरियों में वर्षों तक स्वातन्त्र्य लक्ष्मी की आराधना में रत रहकर जीवित हुतात्मा ही बन गया था।

श्री सावरकर

क्रान्तिकारियों के मुकुटमणि स्वातन्त्र्यवीर सावरकर का जन्म 28 मई सन् 1883 ई. को नासिक जिले के भगूर ग्राम में एक चितपावन ब्राह्मण वंश परिवार में हुआ था। उनके पिता श्रीदामोदर सावरकर एवं माता राधाबाई दोनों ही परम धार्मिक तथा कट्टर हिन्दुत्वनिष्ठ विचारों के थे। विनायक सावरकर पर अपने माता-पिता के संस्कारों की छाप पड़ी और वह प्रारम्भ में धार्मिकता से ओतप्रोत रहा।

नासिक में विद्याध्ययन के समय लोकमान्य तिलक के लेखों व अंग्रेजों के अत्याचारों के समाचारों ने छात्र सावरकर के हृदय में विद्रोह के अंकुर उत्पन्न कर दिये। उन्होंने अपनी कुलदेवी अष्टभुजी दुर्गा की प्रतिमा के सम्मुख प्रतिज्ञा ली—‘‘देश की स्वाधीनता के लिए अन्तिम क्षण तक सशस्त्र क्रांति का झंडा लेकर जूझता रहूँगा।’’
युवक सावरकर ने श्री लोकमान्य की अध्यक्षता में पूना में आयोजित एक सार्वजनिक समारोह के सबसे पहले विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का शुभारम्भ किया कालेज से निष्कासित कर दिये जाने पर भी लोकमान्य तिलक की प्रेरणा से वह लन्दन के लिए प्रस्थान कर गये।

साम्राजयवादी अंग्रेज़ों के गढ़ लंदन में सावरकर चुप न बैठ सके। उन्हीं की प्ररेणा पर श्री मदनलाल ढींगरा ने सर करजन वायली की हत्या करके प्रतिशोध लिया। उन्होंने लन्दन से बम्ब व पिस्तौल, गुप्त रूप से भारत भिजवाये। लन्दन में ही ‘1857 का स्वातन्त्र्य समर’ की रचना की। अंग्रेज सावरकर की गतिविधियों से काँप उठा।

13 मार्च 1910 को सावरकरजी को लन्दन के रेलवे स्टेशन पर गिरफ्तार करा लिया गया। उन्हें मुकदमा चलाकर मृत्यु के मुँह में धकेलने के उद्देश्य से जहाज में भारत लाया जा रहा था कि 8 जुलाई 1910 को मार्लेस बन्दरगाह के निकट वे जहाज से समुद्र में कूद पड़े। गोलियों की बौछार के बीच काफी दूर तक तैरते हुए वे फ्रांस के किनारे जा लगे, किन्तु फिर पकड़ लिये गये। भारत लाकर मुकदमे का नाटक रचा गया और दो आजन्म कारावास का दण्ड देकर उनको अण्डमान भेज दिया गया। अण्डमान में ही उनके बड़े भाई भी बन्दी थे। उनके साथ देवतास्वरूप भाई परमानन्द, श्री आशुतोष लाहिड़ी, भाई हृदयरामसिंह तथा अनेक प्रमुख क्रांतिकारी देशभक्त बन्दी थे। उन्होंने अण्डमान में भारी यातनाएँ सहन कीं। 10 वर्षों तक काला-पानी में यातनाएँ सहने के बाद वे 21 जनवरी 1921 को भारत में रतनागिरि में ले जाकर नज़रबन्द कर दिए गये। रतनागिरि में ही उन्होंने ‘हिन्दुत्व’, ‘हिन्दू पद पादशाही’, ‘उशाःप’, ‘उत्तर क्रिया’ (प्रतिशोध), ‘संन्यस्त्र खड्ग’ (शस्त्र और शास्त्र) आदि ग्रन्थों की रचना की; साथ ही शुद्धि व हिन्दू संगठन के कार्य में वे लगे रहे।

जिस समय सावरकर ने देखा कि गांधीजी हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर मुस्लिम पोषक नीति अपनाकर हिन्दुत्व के साथ विश्वासघात कर रहे हैं तथा मुसलमान प्रोत्साहित होकर देश को इस्लामिस्तान बनाने के ख्वाब देख रहे हैं, उन्होंने हिंदू संगठन की आवश्यकता अनुभव  की। 30  दिसम्बर 1937 को अहमदाबाद में हुए अ,.भा. हिन्दू महासभा के वे अधिवेशन के वे अध्यक्ष चुने गये। हिन्दू महासभा के प्रत्येक आन्दोलन का उन्होंने तेजस्विता के साथ नेतृत्व किया। भारत-विभाजन का उन्होंने डटकर विरोध किया।

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने उन्हीं की प्रेरणा से आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना की थी। वीर सावरकर ने ‘‘राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दू का सैनिकीकरण’’ तथा ‘‘धर्मान्त याने राष्ट्रान्तर’ यो दो उद्घोष देश व समाज को दिये।
गांधीजी की हत्या के आरोप में उन्हें गिरफ्तार किया गया, उन पर मुकदमा चलाया गया, किन्तु वे ससम्मान मुक्त कर दिए गये।
26 फरवरी 1966 को इस चिरंतन ज्योतिपुंज ने 22 दिन का उपवास करके स्वर्गारोहण किया। हिन्दू राष्ट्र भारत, एक असाधारण योद्धा, महान् साहित्यकार, वक्ता, विद्वान, राजनीतिज्ञ, समाज-सुधारक, हिन्दू संगठक से रिक्त हो गया।

शिवकुमार गोयल

नाम में क्या है


हिन्दू नाम के साथ हमारी गहन आसक्ति को देखकर कतिपय व्यक्ति वेरोना की उस रूपवान कन्या के समान, जिसने अपने प्रेमी को अपने नेह का वास्ता देकर अपना नाम बदल देने का अनुरोध किया था, उसी के मुख से अभिव्यक्त हुए उद्गारों की इस प्रकार पुनः अभिव्यक्ति कर सकते हैं कि ‘नाम में धरा ही क्या है ?’’ नाम न तो हाथ ही है और न ही पैर, न भुजा ही है और न ही है मुखमंडल, नाम मानव-शरीर का कोई अवयव भी तो नहीं फिर इसमें है ही क्या जो हम नाम की ही वन्दना करते रहें और उसका परित्याग न कर सकें। वस्तु विद्यमान है तो नाम की चिन्त ही क्यों की जाए ? गुलाब को यदि गुलाब की संज्ञा न देते हुए अन्य किसी नाम से संबोधित किया जाए तो इसकी सुगन्ध तो विलुप्त नहीं हो जाती ?’’ एक ही वस्तु होते हुए भी विभिन्न भाषाओं में उसको भिन्न-भिन्न नामों से सम्बोधित किया जाता है। इससे ही यह सन्देह निर्मूल हो जाता है कि शब्द विशेष तथा उससे प्रतिध्वनित होने वाले अर्थ का परस्पर कोई अविच्छिन्न सम्बन्ध है। इस पर भी वस्तु और वस्तुवाचक शब्द का आपसी संबंध जितना ही सुदृढ़ और पुरातन होता है उस शब्द का अर्थ और पारस्परिक सम्बन्ध भी उतना ही अविच्छिन्न होता जाता है, और उस अर्थ अथवा अभिप्राय की अभिव्यक्ति की मानसिक व्यवस्था में वही शब्द स्वतः वाणी से निःसृत हो उठता है और उस शब्द को सुनते ही वही अर्थ मानसपटल पर उद्भूत हो जाता है।

 इसके साथ ही जब उस शब्द को सुनते ही वही अर्थ मानस पटल पर उद्भूत हो जाता है। इसके साथ ही जब उस शब्द के साथ-ही-साथ अनेक अभावनाएं उदित होती हैं, जिनका उदित होना उस शब्द के उच्चारण के साथ हम रोक नहीं पाते, तब तो उस शब्द अथवा नाम का भी उतना ही महत्त्व हो जाता है जितना कि उस पदार्थ का है। अतः लोग ऐसा कहते हैं कि नाम में धरा ही क्या है, उन्हें स्वतः ही अपने मन से यह प्रश्न करना चाहिए कि क्या हम अपने राम अथवा कृष्ण सरीखे उपास्य देवताओं का नाम परिवर्तित कर उन्हें अल्लाह अथवा ईसा के नाम से सम्बोधित कर सकते हैं ? ऐसे नाम यद्यपि हाथ, पर अथवा मानव-शरीर का अंग नहीं हैं किंतु नाम ही तो उसका सर्वस्व है। नाम की गरिमा ही ऐसी है कि वह भावना विशेष का ही प्रतीक बन जाता है और वह भावना ही दिवंगत–मानवों की कई सन्ततियों के पश्चात भी जीवित रहती है। यसूमसीह का निधन हो गया किन्तु ‘क्राइस्ट’ का महत्त्व कम नहीं हो पाया।

 ‘मेडोना’ के उन सुन्दरतम चित्रों के नीचे आप ‘फातिमा’ का नाम अंकित कर दीजिए तो किसी भी स्पेनवासी की दृष्टि उस पर गड़ जाएगी वह उसमें देवत्व की अनुभूति करता है उसको निहारता है। नाम में धरा ही क्या है ? ऐसा कहने वाले यदि अयोध्या को अयोध्या न कहते हुए होनोलूलू कहकर पुकारें अथवा उस नगरी में जन्म ग्रहण करने वाले अमर राजकुमार को एक कल्पित नाम पूहवाल की संज्ञा दे दें तो क्या वे ऐसा कर सकते हैं ? आप किसी अमरीकी से यह तो कह देखिए कि वासिंगटन का नाम बदलकर चंगेज खाँ रख दीजिए अथवा किसी मुसलमान को यह कहिए कि वह अपने –आपको यहूदी कहना आरम्भ कर दे तो वह कदापि तैयार न होगा। वस्तुतः इन नामों में इतिहास निहित है और विद्यामान है आत्म-गौरव की भावनाएँ। इन्हीं से प्रत्यक्ष जीवन की धारा का संचार होता है और उन्हीं नामों परिपूरित है जीवनी शक्ति।

हिन्दुत्व हिन्दूवाद से भिन्न है


जो नाम मानव जाति के लिए जीवनप्रद और कर्तव्यसूचक तथा गौरवपूर्ण रहे हैं उन्हीं में से एक हैं हिन्दुत्व। इसकी अनिवार्य प्रकृति और महत्त्व का विचार करना ही हमारी इस पुस्तक की रचना का उद्देश्य है।

इस नाम के साथ इतनी भावनाएं और पद्धतियाँ संलग्न हैं और वे इतनी बलवती, गहन तथा गंभीर हैं कि इस नाम का विश्लेषण तथा व्याख्या करना सम्भव प्राय होता है। यदि अधिक भी नहीं तो कम-से-कम हमारा 40 शताब्दियों का इतिहास तो इस नाम के साथ ही सम्बद्ध रहा है। आज इस नाम का जो भी अभिप्राय है उस अभिप्राय की अभिव्यक्ति की शक्ति इसे 40 शताब्दियों में उपलब्ध हुई है। इनेक महानतम योद्धा तथा इतिहासज्ञ, दार्शनिक व कविगण, विधिज्ञ और विधिनिर्माता शास्त्रों के प्रकाण्ड पण्डित इसी नाम के लिए संघर्ष करते रहे हैं, उन्होंने उसके लिए संग्राम ही नहीं किया, अपितु सर्वस्व भी समर्पित किया है। क्या यह नाम हमारी जाति के असंख्य महान कार्यों का ही प्रतिफल मात्र नहीं है ?
 कभी युद्ध तो कभी मिलन, और कभी पारस्परिक सहकार के रूप में हिन्दू जाति ने जो कुछ भी किया है वह सभी कुछ इसी नाम ‘हिन्दुत्व’ में ही समाहित है।

वस्तुतः हिन्दु्व केवल मात्र शब्द ही नहीं, अपितु अपने आप में एक सम्पूर्ण इतिहास ही है। हिन्दुत्व से अभिप्राय हमारी जाति का कोरा धार्मिक तथा आद्यात्मिक इतिहास ही नहीं जैसा कि कई बार भ्रमवश इसी से मिलते-जुलते शब्द हिन्दूवाद से लिया जाता है। हिन्दूवाद तो वस्तुतः हिन्दुत्व का एक अंश मात्र ही है। अतः यह स्पष्ट है कि जब तक उनमें से दूसरे शब्द का अर्थ सुस्पष्ट न हो जाए तब तक पहले के अर्थ के सम्बन्ध में भी भ्रम और अनिश्चितता की स्थिति ही बनी रहेगी।

इन दोनों शब्दों के अर्थ में अन्तर न किया जाने के कारण ही हिन्दू सभ्यता के महान कोष के समान रूप से लाभान्वित होने वाले हमारे ही कई सखा सम्प्रदायों में भ्रमपूर्ण भावनाओं का उद्भव हुआ है। अब हम जो तर्क प्रस्तुत कर रहे हैं उससे इन दोनों शब्दों का अन्तर सुस्पष्ट हो जाएगा। यहाँ यह इंगित करना मात्र ही पर्याप्त होगा कि हिन्दुत्व का वास्तविक अर्थ वह नहीं है जिसे भ्रमवश हिन्दूवाद की संज्ञा दी जाती है। वाद का अर्थ सामान्यतः कोई ऐसा सिद्धान्त अथवा संहिता होती है जो किसी आध्यात्मिक अथवा धार्मिक-प्रणाली पर अधिष्ठित हो।



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