ऐतिहासिक >> गोमांतक गोमांतकविनायक दामोदर सावरकर
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मराठी गद्यानुवाद का हिन्दी रूपान्तर...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गोमांतक रचना का पावन प्रसंग
सावरकर जी के जीवन-प्रसंगों की तरह उनकी रचनाओं का भी बड़ा मार्मिक एवं
रोमांचकारी इतिहास रहा है। उनकी ‘1857 का भारतीय स्वातन्त्र्य
समर’ पुस्तक अपने विषयवस्तु की दृष्टि से जैसे क्रान्तिकारी
ग्रन्थ था, एक क्रान्तिकारी द्वारा लिखा गया, किन्तु उसकी विशेषता और
महानता कीर्ति के पंख लगा के जैसे उड़ने लगी। कारण यह कि, संसार का वह एक
विचित्र अपवाद था—जिस ग्रंथ के प्रकाशन से पूर्व ही उसकी
पाण्डुलिपि किसी साम्राज्यवादी सत्ता ने जब्त कर ली। मानो किसी साहसी लेखक
ने शत्रु के घर जाकर ही उसका कच्चा चिट्ठा तैयार किया, जब शत्रु को पता
लगा तो वह बौखला उठा।
उसी प्रकार ‘गोमांतक’ का निर्माण भी बड़ा अद्भुत संस्मरण है—जैसे कटार की छाया में भी किसी विद्रोही कवि ने अपने विचारों के ज्वालामुखी को व्यक्त किया। यह ग्रन्थ अण्डमान जेल की विकराल सींखचों में तैयार हुआ—वीर सावरकर ऐसा भयंकर बन्दी समझा गया, जिसकी गतिविधियों की विशेष निगरानी के कड़े आदेश थे। उसकी सूचना भारत सरकार के अतिरिक्त ब्रिटिश सरकार को भी भेजी जाती थी, उस जैसे बन्दी के आवेदन पर विचार करने का प्रश्न ही नहीं उठता था—अतः कागज लेखनी, एवं अन्य सामग्री देने से जेल-अधिकारियों का स्पष्ट इन्कार था। किन्तु एक क्रान्तिकारी, एक विचारक कवि कैसे अपनी मानसिक भूख को तृप्त किए बिना रह सकता था। उसे एक नई अनुभूति हुई कि हमारे ऋषि-मुनि कन्दराओं एवं हिम-पर्वतों में रहकर कैसे इतना महान् तत्वज्ञान संसार को दे गए। तब उनको सूझा कि—ऐसा तत्वज्ञान साहित्य-सृजन, कथा या इतिहास वाक्य, शब्द रचना यानी गद्य में लिखना संभव नहीं, यदि वर्षों तक भी स्मरण-शक्ति द्वारा संजोकर रखा जा सकता है—तो पद्य यानी काव्य के रूप में। इसी कारण प्राचीन संस्कृत साहित्य मन्त्र एवं श्लोक भी उनकी काव्य-शैली में है, तब इस परमपुरुष ने भी यही प्रयोग आरम्भ किया। उनको जेल में जो श्रम करना पड़ता था, वह दो-तीन प्रकार था। एक था मूँज का पटसन, जूट के रेशे कूटना—या बैलों के समान तेल निकालने के लिए कोल्हू में जुतना—यह एक बड़ी हृदयविदारक बात थी, कि जब वह पशु के समान गोल चक्कर में लड़खड़ाते हुए घूमते तो मराठी जो उनकी मातृभाषा है, जिसके वह उच्च-कोटि के साहित्यकार एवं कवि हैं। उसकी कविता का एक पद्य या छन्द तैयार हो जाता और यह सौभाग्य इस ‘गोमांतक’ महाकाव्य एवं एक दूसरी अनुपम काव्य-कृति ‘कमला’ को प्राप्त है—जब इस काम से निवृत्त होते तो भी उनको सामान्य मानवी अधिकार, सुविधाएँ तो प्राप्त थीं नहीं—वह उस कविता के छन्दों के गुण-दोष परखने के लिए एवं अच्छी तरह कण्ठस्थ हो जाये उस समय तक के लिए लकड़ी के जले कोयले से अपनी जेल-कोठरी की दीवारों पर लिखते। जिसमें प्रायः अँधेरा ही रहता था—एक ओर से रोशनी केवल आती थी। इस पर भी यह मुसीबत कि उसको वार्ड के आने से पूर्व, अल्प समय में कण्ठस्थ करना अनिवार्य होता। इसी प्रकार वर्षों बीत जाने पर उन्होंने कई हज़ार कविता के छन्द—पद्य, जो भी थे, पूरे कण्ठस्थ कर लिए। अण्डमान से मुक्त होने के बाद उनको रत्नागिरि में स्थानबद्धता की अवधि में लिपिबद्ध किया। जब उन्होंने रत्नागिरि की एक गोष्ठी में अपना यह मार्मिक संस्मरण सुनाया, तो वहाँ बैठे एक श्रोता के मुख से बरबस निकल पड़ा—धन्य ऋषिवर सावरकर ! उनकी जो रचनाएँ हिन्दुत्व, हिन्दू-पद-पादशाही—मोपला एवं नाटक, निबन्ध इत्यादि हैं—वे गद्य में हैं। इन ग्रन्थों की भूमिका एवं विषय-सामग्री का प्रारूप उनके मस्तिष्क में भले ही अण्डमान जेल में बना हो, किन्तु गोमांतक एवं कमला काव्य-कृतियों की रचना तो पूर्णतः अण्डमान में हुई।
उसी प्रकार ‘गोमांतक’ का निर्माण भी बड़ा अद्भुत संस्मरण है—जैसे कटार की छाया में भी किसी विद्रोही कवि ने अपने विचारों के ज्वालामुखी को व्यक्त किया। यह ग्रन्थ अण्डमान जेल की विकराल सींखचों में तैयार हुआ—वीर सावरकर ऐसा भयंकर बन्दी समझा गया, जिसकी गतिविधियों की विशेष निगरानी के कड़े आदेश थे। उसकी सूचना भारत सरकार के अतिरिक्त ब्रिटिश सरकार को भी भेजी जाती थी, उस जैसे बन्दी के आवेदन पर विचार करने का प्रश्न ही नहीं उठता था—अतः कागज लेखनी, एवं अन्य सामग्री देने से जेल-अधिकारियों का स्पष्ट इन्कार था। किन्तु एक क्रान्तिकारी, एक विचारक कवि कैसे अपनी मानसिक भूख को तृप्त किए बिना रह सकता था। उसे एक नई अनुभूति हुई कि हमारे ऋषि-मुनि कन्दराओं एवं हिम-पर्वतों में रहकर कैसे इतना महान् तत्वज्ञान संसार को दे गए। तब उनको सूझा कि—ऐसा तत्वज्ञान साहित्य-सृजन, कथा या इतिहास वाक्य, शब्द रचना यानी गद्य में लिखना संभव नहीं, यदि वर्षों तक भी स्मरण-शक्ति द्वारा संजोकर रखा जा सकता है—तो पद्य यानी काव्य के रूप में। इसी कारण प्राचीन संस्कृत साहित्य मन्त्र एवं श्लोक भी उनकी काव्य-शैली में है, तब इस परमपुरुष ने भी यही प्रयोग आरम्भ किया। उनको जेल में जो श्रम करना पड़ता था, वह दो-तीन प्रकार था। एक था मूँज का पटसन, जूट के रेशे कूटना—या बैलों के समान तेल निकालने के लिए कोल्हू में जुतना—यह एक बड़ी हृदयविदारक बात थी, कि जब वह पशु के समान गोल चक्कर में लड़खड़ाते हुए घूमते तो मराठी जो उनकी मातृभाषा है, जिसके वह उच्च-कोटि के साहित्यकार एवं कवि हैं। उसकी कविता का एक पद्य या छन्द तैयार हो जाता और यह सौभाग्य इस ‘गोमांतक’ महाकाव्य एवं एक दूसरी अनुपम काव्य-कृति ‘कमला’ को प्राप्त है—जब इस काम से निवृत्त होते तो भी उनको सामान्य मानवी अधिकार, सुविधाएँ तो प्राप्त थीं नहीं—वह उस कविता के छन्दों के गुण-दोष परखने के लिए एवं अच्छी तरह कण्ठस्थ हो जाये उस समय तक के लिए लकड़ी के जले कोयले से अपनी जेल-कोठरी की दीवारों पर लिखते। जिसमें प्रायः अँधेरा ही रहता था—एक ओर से रोशनी केवल आती थी। इस पर भी यह मुसीबत कि उसको वार्ड के आने से पूर्व, अल्प समय में कण्ठस्थ करना अनिवार्य होता। इसी प्रकार वर्षों बीत जाने पर उन्होंने कई हज़ार कविता के छन्द—पद्य, जो भी थे, पूरे कण्ठस्थ कर लिए। अण्डमान से मुक्त होने के बाद उनको रत्नागिरि में स्थानबद्धता की अवधि में लिपिबद्ध किया। जब उन्होंने रत्नागिरि की एक गोष्ठी में अपना यह मार्मिक संस्मरण सुनाया, तो वहाँ बैठे एक श्रोता के मुख से बरबस निकल पड़ा—धन्य ऋषिवर सावरकर ! उनकी जो रचनाएँ हिन्दुत्व, हिन्दू-पद-पादशाही—मोपला एवं नाटक, निबन्ध इत्यादि हैं—वे गद्य में हैं। इन ग्रन्थों की भूमिका एवं विषय-सामग्री का प्रारूप उनके मस्तिष्क में भले ही अण्डमान जेल में बना हो, किन्तु गोमांतक एवं कमला काव्य-कृतियों की रचना तो पूर्णतः अण्डमान में हुई।
कथानक के सम्बन्ध में
महान् कर्मयोगी वीर विनायक दामोदर सावरकर का जीवन-वृत्त विश्व में बलिदान
एवं पराक्रम का साकार रूप है। उसी प्रकार सावरकर साहित्य की एक महान्
विशेषता यह है कि प्रत्येक अंश में वह परकीय सत्ता के विरुद्ध वैचारिक
प्रतिकार के साथ-साथ सशस्त्र प्रतिकार के अर्थात् स्वातन्त्र्य लक्ष्मी की
पावन-पूजा के लिए सशस्त्र क्रान्ति की भी प्रेरणा देता है। भारत के
दक्षिणी-पूर्वी तट पर पुर्तगालियों ने गोमांतक (गोवा) भूमि पर जघन्य
अत्याचार किए। उसका चित्रण उनके एवं उनके विरुद्ध हिन्दुओं के प्रतिकार
एवं गौरवपू्ण संघर्ष की ज्वलन्त गाथा इस ग्रंथ में प्रस्तुत है। जिन दिनों
का वृत्तान्त ‘गोमांतक’ में उपलब्ध है, उन दिनों
छत्रपति शिवाजी महाराज के महान् आदर्शों से प्रेरित होकर वीर मराठे हिन्दू
पद-पादशाही की पावन भगवी पताका के नीचे, दक्षिण के मध्य एवं उत्तर तक
विदेशी मुस्लिम सत्ताधीशों के विरुद्ध सफल अभियान चला रहे थे। उनकी सफलता
से गोवा के हिन्दू-जन भी लाभान्वित और प्रेरित होकर पुर्तगालियों को
खदेड़ने लगे थे। जिस भाँति शिवाजी ने धर्मच्युत हिन्दू बन्धुओं को पुनः
शुद्धि का अमृत पिलाकर हिन्दुत्व की दीक्षा दी थी, उसी भाँति निर्भय
यातनाओं द्वारा गोमांतक में पुर्तगालियों द्वारा ईसाई बनाये गए सहस्रो
हिन्दुओं की सामूहिक रूप से पुनः धर्म प्रवेश (शुद्धिकरण) हुआ।
कथानक की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तो वास्तविक है। गोमान्तक के इतिहास के पृष्ठ तो पुर्तगालियों के अत्याचारों से परिपूरित हैं ही, उनमें रक्त के अथाह छींटे छितरे हुए हैं, किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ का कथानक रूढ़ि या पात्र इत्यादि लेखक के अपने विवेक की उपज है। अतः अन्य उपन्यासों की भाँति ये पात्र भी काल्पनिक हैं। कुछ समालोचक उनकी कल्पना में उनकी ही जीवन-झाँकी की झलक देखते हैं।
वीर सावरकर की इस कृति में उनकी शैली एवं शिल्प के अतिरिक्त एक इतिहासकार एवं राजनीतिज्ञ की पैनी दृष्टि भी है। अतः पाठक इस ग्रंथ में उसका भी प्रत्यक्ष अनुभव करेंगे।
इस ग्रन्थ का कालखण्ड भी सैकड़ों वर्षों तक घूमता है। पूर्वार्द्ध से उत्तरार्ध तक राजनीतिक परिवर्तनों की झलक मिलती है।
पुर्तगाल उस समय एक ऐसा यूरोपीय साम्राज्यवादी देश था जो अपने साम्राज्य के विस्तार से भी अधिक महत्त्व ईसाई मत के प्रचार और प्रसार को देता था। बाईबिल ने मानव-हत्या को घोर अपराध ठहराया है। किन्तु पुर्तगाली मदान्ध पादरियों ने इसका बड़ी ही विचित्र और वीभत्स विकल्प खोजा था और वह यह था कि जो हिन्दू ईसाई बनना अस्वीकार करता उसको सदेह—जीवित ही घर-बार सहित अग्नि में जला दिया जाता था।
हिन्दुओं पर मनमाने अत्याचार कर उन्हें ईसाई बनाने वालों में सर्वाधिक अग्रणी पादरी सेन्ट जेह्वियर था। वह 1520 ई. में गोमांतक में आया और वर्षों तक ईसाई मत के प्रचार में संलग्न रहने के उपरान्त उसने अपने अनेक अनुभव पुर्तगाल के बादशाह को लिखकर भेजे थे। इन्हीं में से एक में उसने लिखा है—
‘‘हिन्दुओं को ईसाई बनाने का हमारा कार्य बड़ी तीव्र गति से बढ़ रहा है ! उनकी सारी सम्पत्ति को हम छीन लेते हैं, मूर्तियों को तोड़ देते हैं, और कोड़ों की मार से पीट-पीटकर उनकी चमड़ी उधेड़ देते हैं। जो भी ईसाई बनना अश्वीकार करता है, उसके सहित उसका सम्पूर्ण घर-बार ही हम अग्नि में जला देते हैं, जिससे सीधी हत्या का आरोप एवं पवित्र बाईबिल का उल्लंघन भी न हो। अधिक क्या लिखूँ यदि ये ब्राह्मण मेरे मार्ग का काँटा न बनें होते तो मैं सारे हिन्दुस्तान में बहुत शीघ्र ही ईसाई-धर्म का विस्तार करने में सफलता प्राप्त कर लेता।’’ यह है इस ग्रन्थ के कथानक की पृष्ठभूमि। एक विस्तारवादी साम्राज्य के हथकंडे—और स्वधर्म—साम्राज्य की पावन आकांक्षाओं से प्रेरित गोवा की हिन्दू जनता के प्रतिकार की रोमांचकारी कथा।
कथानक की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तो वास्तविक है। गोमान्तक के इतिहास के पृष्ठ तो पुर्तगालियों के अत्याचारों से परिपूरित हैं ही, उनमें रक्त के अथाह छींटे छितरे हुए हैं, किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ का कथानक रूढ़ि या पात्र इत्यादि लेखक के अपने विवेक की उपज है। अतः अन्य उपन्यासों की भाँति ये पात्र भी काल्पनिक हैं। कुछ समालोचक उनकी कल्पना में उनकी ही जीवन-झाँकी की झलक देखते हैं।
वीर सावरकर की इस कृति में उनकी शैली एवं शिल्प के अतिरिक्त एक इतिहासकार एवं राजनीतिज्ञ की पैनी दृष्टि भी है। अतः पाठक इस ग्रंथ में उसका भी प्रत्यक्ष अनुभव करेंगे।
इस ग्रन्थ का कालखण्ड भी सैकड़ों वर्षों तक घूमता है। पूर्वार्द्ध से उत्तरार्ध तक राजनीतिक परिवर्तनों की झलक मिलती है।
पुर्तगाल उस समय एक ऐसा यूरोपीय साम्राज्यवादी देश था जो अपने साम्राज्य के विस्तार से भी अधिक महत्त्व ईसाई मत के प्रचार और प्रसार को देता था। बाईबिल ने मानव-हत्या को घोर अपराध ठहराया है। किन्तु पुर्तगाली मदान्ध पादरियों ने इसका बड़ी ही विचित्र और वीभत्स विकल्प खोजा था और वह यह था कि जो हिन्दू ईसाई बनना अस्वीकार करता उसको सदेह—जीवित ही घर-बार सहित अग्नि में जला दिया जाता था।
हिन्दुओं पर मनमाने अत्याचार कर उन्हें ईसाई बनाने वालों में सर्वाधिक अग्रणी पादरी सेन्ट जेह्वियर था। वह 1520 ई. में गोमांतक में आया और वर्षों तक ईसाई मत के प्रचार में संलग्न रहने के उपरान्त उसने अपने अनेक अनुभव पुर्तगाल के बादशाह को लिखकर भेजे थे। इन्हीं में से एक में उसने लिखा है—
‘‘हिन्दुओं को ईसाई बनाने का हमारा कार्य बड़ी तीव्र गति से बढ़ रहा है ! उनकी सारी सम्पत्ति को हम छीन लेते हैं, मूर्तियों को तोड़ देते हैं, और कोड़ों की मार से पीट-पीटकर उनकी चमड़ी उधेड़ देते हैं। जो भी ईसाई बनना अश्वीकार करता है, उसके सहित उसका सम्पूर्ण घर-बार ही हम अग्नि में जला देते हैं, जिससे सीधी हत्या का आरोप एवं पवित्र बाईबिल का उल्लंघन भी न हो। अधिक क्या लिखूँ यदि ये ब्राह्मण मेरे मार्ग का काँटा न बनें होते तो मैं सारे हिन्दुस्तान में बहुत शीघ्र ही ईसाई-धर्म का विस्तार करने में सफलता प्राप्त कर लेता।’’ यह है इस ग्रन्थ के कथानक की पृष्ठभूमि। एक विस्तारवादी साम्राज्य के हथकंडे—और स्वधर्म—साम्राज्य की पावन आकांक्षाओं से प्रेरित गोवा की हिन्दू जनता के प्रतिकार की रोमांचकारी कथा।
-सावरकर साहित्य मूल्यांकन समिति
पुर्तागाली शासन के प्रथम चरण में गोवा की पृष्ठभूमि पर आधारित यह
‘गोमांतक’ महाकाव्य स्वातन्त्र्य वीर सावरकर द्वारा
रचित संपूर्ण साहित्य-भंडार का शिरोमणि है। उनके इस काव्य में उनका
सम्पूर्ण लेखन तथा राष्ट-विषयक समग्र तत्व-ज्ञान प्रकट हुआ। कथानक का
स्थान गोवा का भार्गव ग्राम एवं दारका नदी पाठकों को भगूर और दारण नदी का
स्मरण कराते हैं, जो संयोग से सावरकर जी का जन्मस्थान भी है। उत्तरार्द्ध
में उन्होंने वैनायक वृत्त की रचना कर मानो अपने आत्मचरित की झाँकी
प्रस्तुत की हो। राष्ट्र के इतिहास की एक भव्य और महान् घटना की
पार्श्वभूमि प्राप्त इस अनुपम महाकाव्य के मराठी गद्यानुवाद का हिन्दी
(औपन्यासिक) रूपांतर हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।
गोमांतक
पूर्वार्द्ध
1
यह देखो ‘दारका’, तापहारिणी लोक-माता ! फेन-धवल उसका
नीर देखो, कैसी प्रतिपदा के चन्द्रमा की कोर-सी उसकी कांति। हला-हल-पान से
भगवान शंकर के शरीर का दाह शांत करने में व्यस्त मानो भगवती गंगा !
सम्राट् भगीरथ द्वारा पूर्वजों के पाप-प्रक्षालनार्थ मानो वसुधातल पर लायी
गई हो ! इस महत् कार्य में वह सतत-व्यग्र पवित्र भगीरथी और जाह्नवी (गंगा)
की बहिन ही है यह ‘दारका’ ! फिर क्यों कम रहेगी !
गंगा के समान इसकी पुण्याई बेशक बड़ी न हो, किन्तु दीन प्यासों की प्यास
बुझाने का पुण्य तो इसे प्राप्त ही है ! सिंहनी अगर अपने बच्चों को
स्तनपान कराती है तो हिरनी भी अपने बच्चों को दूध पिलाती ही है। उसी तरह
‘दारका’ अपने तटों पर प्यासों की प्यास बुझाती हुई
जीवन दान देती हुई बह रही है, अपना जीवन धन्य कर रही है।
और यह देखो, दारका के रम्य तट पर एक छोटा-सा ग्राम, भार्गव ! दारका की रमणीयता में इस छोटे-से ग्राम ने कैसा रंग ला दिया है ! मोतियों की बेल के सिरे पर फूलों के गुच्छे के समान सुशोभित, यह छोटा-सा गाँव कैसा सुन्दर लगता है ! चारों ओर हरे-हरे खेत और बीच में बसा हुआ यह ग्राम समुद्र से घिरे हुए एक छोटे-से द्वीप-सा शोभायमान हो रहा है। पक्षियों की चहचहाहट के साथ भोर हुई तो रहट चलाने वाले कृष्ण ने बैलों को आवाज़ देकर हाँका और प्रभात की सुगंधित वायु के साथ-साथ उसका स्वर भी आकाश में गूँज उठा। उस रहट से गिरने वाले जलप्रपात के शब्द से आकाश गूँज रहा था। उसकी स्निग्ध गम्भीर ध्वनि सुन मोर पंख फैलाकर नृत्य करने लगे। ऐसा था यह निसर्ग-सौन्दर्य का वरदान प्राप्त भार्गव ग्राम ! किन्तु जैसे कोई सुन्दर शरीर तपेदिक की बीमारी से दुरावस्था को प्राप्त हो जाये या बिजली के गिरने से जैसे कोई वृक्ष जल जाये, वैसी स्थिति परचक्र के आघातों के कारण इस दुर्दैवग्रस्त ग्राम की भी थी। उसके टूटे-फूटे परकोटे की दीवारें कहीं-कहीं ऊँची खड़ी दिखाई दे रही थीं। निकट ही जीर्णावस्था में एक शिवमंदिर अब भी जैसा-तैसा खड़ा था। गाँव के लोगों का यह एकमात्र श्रद्धास्थान था। मंदिर के चारों ओर थीं चम्पा के फूलों की झड़ियाँ। देव-दर्शन के लिए आयी हुई देवियाँ उधर परिक्रमा करतीं, तो इधर उनके बच्चे चम्पा-पुष्पों की मालायें गूँथते। पास ही एक मठ दिखाई दे रहा था। उस मठ के आँगन में था पारिजात वृक्ष, पुष्पों के भार से झुका हुआ। सारा गाँव उस वृक्ष के अभिमान से ओत-प्रोत था। इसके पीछे वह दंत-कथा काम करती थी, जो वहाँ का बच्चा-बच्चा बड़े गर्व से बताया करता। स्वयं श्रीकृष्ण ने यह कथा देवर्षि नारद जी से कही थी। कथा थी—श्रीकृष्ण स्वर्ग से पारिजात वृक्ष लाये और सत्यभामा के आंगन में उसको रोपना चाहा, तो रुक्मिणी को ईर्ष्या हुई। उन्होंने इसे रुक्मिणी के आंगन में रोपना चाहा तो सत्यभामा को सहन न हुआ। इसलिए भगवान ने इस ईर्ष्या को समाप्त करने के लिए वह पारिजात वृक्ष मुनिश्रेष्ठ भृगु को अर्पण कर दिया। मुनिवर ने वह वृक्ष अपने आश्रम में लगाया। ‘‘वह महर्षि भृगु का आश्रम ही तो यह मठ है और उनका लगाया हुआ वह वृक्ष यही पारिजात है।’’
गाँव के मध्य भाग में एक छोटा-सा बाजार था, जिसमें पाँच-सात दुकानें थीं। दुकानों की दीवारें चूने से रंगी थीं और गेरुए रंग से उन पर नक्काशी की गई थी। गाँव के रंगीले जवान शाम को इधर ही आकर टहलते थे। खेतों में जाने वाली स्त्रियाँ प्रातः दुकानों में अपनी तेल की बोतलें रख जातीं और शाम को लौटते समय तेल ले आतीं। चीज़ों के लेन देन के लिए कौड़ियों का प्रयोग होता था और कभी चीज़ों की अदला-बदली हुआ करती थी। बनिया ‘मूल’ से कभी दुगुने दाम वसूल कर लिया करता था। वहीं एक मोटे पेट वाले सेठ की दुकान थी। उसकी दुकान बाकी दुकानों से कुछ ही बड़ी थी, किन्तु उसी को लोग बड़ी आढ़ती समझते थे। दुकान के सामने आवारा बच्चों के शोर से सेठजी क्रोधित हो उठते, किन्तु उनके डंडा उठाकर अपनी विशाल देह को अपने पैरों पर सम्भालने से पहले ही वे बच्चे चम्पत हो जाते। प्रातः काल गौओं को लेकर ग्वाले जंगल की ओर निकलते। अपनी गाय भेजने में श्यामजी पंडित हमेशा ही देर करते थे। तब वे ग्वाल-बाल पंडित जी को तंग करने के लिए उनसे छू जाते, जिससे पंडितजी को फिर से स्नान करके शुद्ध होना पड़ता। हर साल पड़ोस के गाँव में मेला लगता और दंगल होता। भार्गव गाँव का कोई-कोई जवान भी उसमें खम ठोक कर उतरता। जाते समय माँ के चरण-स्पर्श करता। माता उसे अशीष देते समय कहती, ‘‘होशियार रहना बेटा और जीत कर आना।’’ तब वह आत्मविश्वास से मुस्कराकर मूछों पर हल्का-सा हाथ फेरता। माँ का आशीष कभी व्यर्थ नहीं जाता। वह अपने से दुगने जवान की पीठ लगाकर लौटता। उसी विजयी वीर के स्वागत के लिए तथा उसके सिर पर पगड़ी बाँधने के लिए गाँव की सीमा पर सब स्त्री-पुरुषों की भीड़ इकट्ठी हो जाती। जयकारों से आकाश गूँज उठता और वह जवान छाती तान कर ऐसी शान से डोलता हुआ एक-एक कदम उठाता आगे बढ़ता मानो रावण को मार कर राम ही अयोध्या को लौट रहा हो।
गाँव के सभी झगड़े पंचायत में निपट जाते और गाँव का पटेल गाँव की रक्षा के लिए सदा सन्नद्ध रहता। गाँव के पंडितजी सभी ग्रामीण जनों को उनके धर्म-कर्म की शिक्षा दिया करते। इस प्रकार दैवी और भौतिक संकटों के परिहार की व्यवस्था होने के कारण किसान निश्चिंतता से अपनी खेती करते। हरे-भरे खेतों पर लहलहाने वाली अनाज की सुनहरी बालें ऐसी लगतीं जैसे शरीर के भीतर प्राण। उन्हें देखकर घर-घर में संतोष फैल जाता। खलियान में अनाज के ढेर लगने पर कुम्हार, बढ़ई, जुलाहे, लुहार आदि ग्राम्य-जीवन के हिस्सेदार इकट्ठे होते और वर्ष-भर किये गये परिश्रम के बदले में किसान से अपना-अपना अनाज का हिस्सा पाते। साल-भर के लिए पर्याप्त अनाज रखकर बाकी सब पटेल की देख-रेख में पंचायत के कोठे में जमा हो जाता। दुर्भाग्यवश यदि कभी अकाल पड़ जाता तो उसी से सबका गुजारा हो जाता। ऐसी-थी ग्राम-पंचायत की व्यवस्था, जिसके कारण प्रत्येक ग्राम मानो एक स्वतंत्र जनतंत्रातम्क राज्य ही हो। ऐसा मनमोहक चित्र था, उस भार्गव ग्राम के लोक-जीवन का। पर यह तो था बीता हुआ जमाना। आज उस ग्राम की क्या हालत थी ?
परकीयों के आक्रमण से लोक-जीवन के साथ-साथ ग्राम-संस्थायें भी मृतवत् हो गई थीं। अब तो विदेशियों की—पाशवी पुर्तगालियों की हुकूमत चल रही थी। बाज़ार में शराब की दुकानें खुल गई थीं और नये-नये करों से किसान पिस रहा था। बेचारा जैसे-तैसे जी रहा था। किन्तु एक विशाल वट-वृक्ष अब भी मानो अपनी ज़िम्मेदारी निभाता हुआ वहाँ अटल खड़ा था, सदियों से नहीं शायद युगों से। जिस दिन वीर श्रेष्ठ परशुराम ने समुद्र को हटाकर इस भूमि पर अपना विजय-ध्वज उभारा, उसी दिन उस भार्गव ने की थी इस भार्गव ग्राम की स्थापना और अक्षय वट-वृक्ष का बीजारोपण। उस वृक्ष के इर्द-गिर्द एक विशाल चबूतरा था। वह अनघड़े बड़े-बड़े पत्थरों का, बिना चूने-गारे के बना हुआ था। किन्तु ग्रामवासी बड़े गर्व से कहा करते कि इतना बड़ा चबूतरा संसार में कहीं नहीं होगा। गाँव में आने वाला यात्री उस वृक्ष के नीचे चबूतरे पर विश्राम करके ही आगे बढ़ता। ग्रामीण भी उस चबूतरे पर दिन-भर बैठकर गप्पें हाँकते। गाँव की सभी बातों की वहाँ चर्चा चलती। दिन-भर मानो खुला सभा-गृह और रात में नाटक-तमाशे की रंग-भूमि। एक बार तबला-ढोलक और झाँझ-मँजीरे का रंग जम जाता और स्वाँग और लोक-गीतों की स्पर्धा शुरू हो जाती, तो रात भी कम पड़ती। कभी कोई साधु-महात्मा आ जाते, तो वह भी चबूतरे पर धूनी लगाकर बैठ जाते और चिलम के धुएँ के साथ गपोड़बाजी भी चलाते। वट-पूजा व्रत के दिन नव-विवाहिता वधुएँ उस बूढ़े वट-वृक्ष की पूजा करतीं और धागा लपेटतीं, तो जवान वृक्षों को भी उससे ईर्ष्या होती। उधर उस महान् वट-वृक्ष की ग्रामीणों पर छत्र-छाया थी, तो निकट ही उधर पुर्तगाली सिपाहियों की चौकी भी थी।
तहसीलदार जब दौरे पर आकर वहाँ टिकता तो गाँव में खासी हलचल मच जाती। हरएक किसी-न-किसी बहाने से उधर से निकलता और डरता-चौंकता उस थाने की ओर देखता। गाँव के पटेल की मूँछें बड़ी भव्य थीं और पटवारी की कलम भी कम बहादुर नहीं थी। पर दोनों ही तहसीलदार के सामने कमर झुकाकर सलाम करते और तहसीलदार-साहब ज़रा-सी गर्दन हिला देते। तब ऐसे अक्खड़ साहब का गाँव के लोगों को डर लगना स्वाभाविक ही था। पुलिस-चौकी के पास ही पुर्तगालियों का एक स्कूल खुल गया था। उसकी वजह से आचार्यजी की पाठशाला वीरान हो गई। फिर आचार्यजी को क्रोध क्यों न आता ? पुर्तगालियों के स्कूल में बच्चों को ‘अ, आ’ सिखाने की बजाए ‘ईसा मसीह’ क्रास कोलम्बिया, अल्बुकर्क’ आदि के ही पाठ रटाये जाते। हाय ! कितना यह दुर्भाग्य !
यह ‘पुर्तगाली’ शब्द सुनते ही पिछले सौ वर्षों से उस गाँव में आतंक छा जाता। जैसे कोई गाय किसी भेड़िये से पीड़ित हो और उसी समय शेर उस पर झपट पड़े, ऐसी स्थिति गोवा में पुर्तगालियों के पाँव जमते ही पैदा हो गई थी। गोवा की जनता पहले इस्लामियों से पीड़ित थी और अब उनसे भी अधिक क्रूर ईसाइयों के जबड़े में आ गई थी। वन में शेरों से त्रस्त हिरण जिस प्रकार अपने झुण्डों में जैसे-तैसे जीते रहते हैं। उसी प्रकार गोमांतक-रूपी वन में यह भार्गव-ग्राम जैसे-तैसे जी रहा था।
इस सादे गाँव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था, जो अत्यन्त सुशील, सुप्रतिष्ठित, सर्वप्रिय था। इस परिवार का इतिहास भी तेजस्वी था। श्री महामंडलाधीश कदम्ब महाराज के ज़माने में इस कुल के लोग राज-पुरोहित का सम्मान पाते थे। किन्तु जिस दिन इस देश पर विदेशी परचक्र आया और स्वातंत्र्य नष्ट हो गया, उस दिन इस कुल के पुरुष पंडिताई छोड़कर खड्ग धारण कर रणांगन में कूद पड़े थे। अनेकों ने देश-स्वातंत्र्यार्थ धर्म-युद्ध में अपनी देह समर्पित की थी। एक बार इस कुल की एक स्त्री को तुर्क अधिकारियों ने पकड़ कर बेच दिया और उसे अन्य ज़बरन पकड़ी स्त्रियों के साथ अरब ज़हाज पर चढ़ा दिया। उस तेजस्वी ने इन अत्याचारी मानवों की अपेक्षा समुद्र के जलचर ही अच्छे समझकर अपनी शील-रक्षा के लिए समुद्र में छलांग लगा दी थी। मुसलमानों की पाशवी हुकूमत में मूर्ति-भंजक तुर्कों के आघातों से सारे देवी-देवता नष्ट हो गए।
और यह देखो, दारका के रम्य तट पर एक छोटा-सा ग्राम, भार्गव ! दारका की रमणीयता में इस छोटे-से ग्राम ने कैसा रंग ला दिया है ! मोतियों की बेल के सिरे पर फूलों के गुच्छे के समान सुशोभित, यह छोटा-सा गाँव कैसा सुन्दर लगता है ! चारों ओर हरे-हरे खेत और बीच में बसा हुआ यह ग्राम समुद्र से घिरे हुए एक छोटे-से द्वीप-सा शोभायमान हो रहा है। पक्षियों की चहचहाहट के साथ भोर हुई तो रहट चलाने वाले कृष्ण ने बैलों को आवाज़ देकर हाँका और प्रभात की सुगंधित वायु के साथ-साथ उसका स्वर भी आकाश में गूँज उठा। उस रहट से गिरने वाले जलप्रपात के शब्द से आकाश गूँज रहा था। उसकी स्निग्ध गम्भीर ध्वनि सुन मोर पंख फैलाकर नृत्य करने लगे। ऐसा था यह निसर्ग-सौन्दर्य का वरदान प्राप्त भार्गव ग्राम ! किन्तु जैसे कोई सुन्दर शरीर तपेदिक की बीमारी से दुरावस्था को प्राप्त हो जाये या बिजली के गिरने से जैसे कोई वृक्ष जल जाये, वैसी स्थिति परचक्र के आघातों के कारण इस दुर्दैवग्रस्त ग्राम की भी थी। उसके टूटे-फूटे परकोटे की दीवारें कहीं-कहीं ऊँची खड़ी दिखाई दे रही थीं। निकट ही जीर्णावस्था में एक शिवमंदिर अब भी जैसा-तैसा खड़ा था। गाँव के लोगों का यह एकमात्र श्रद्धास्थान था। मंदिर के चारों ओर थीं चम्पा के फूलों की झड़ियाँ। देव-दर्शन के लिए आयी हुई देवियाँ उधर परिक्रमा करतीं, तो इधर उनके बच्चे चम्पा-पुष्पों की मालायें गूँथते। पास ही एक मठ दिखाई दे रहा था। उस मठ के आँगन में था पारिजात वृक्ष, पुष्पों के भार से झुका हुआ। सारा गाँव उस वृक्ष के अभिमान से ओत-प्रोत था। इसके पीछे वह दंत-कथा काम करती थी, जो वहाँ का बच्चा-बच्चा बड़े गर्व से बताया करता। स्वयं श्रीकृष्ण ने यह कथा देवर्षि नारद जी से कही थी। कथा थी—श्रीकृष्ण स्वर्ग से पारिजात वृक्ष लाये और सत्यभामा के आंगन में उसको रोपना चाहा, तो रुक्मिणी को ईर्ष्या हुई। उन्होंने इसे रुक्मिणी के आंगन में रोपना चाहा तो सत्यभामा को सहन न हुआ। इसलिए भगवान ने इस ईर्ष्या को समाप्त करने के लिए वह पारिजात वृक्ष मुनिश्रेष्ठ भृगु को अर्पण कर दिया। मुनिवर ने वह वृक्ष अपने आश्रम में लगाया। ‘‘वह महर्षि भृगु का आश्रम ही तो यह मठ है और उनका लगाया हुआ वह वृक्ष यही पारिजात है।’’
गाँव के मध्य भाग में एक छोटा-सा बाजार था, जिसमें पाँच-सात दुकानें थीं। दुकानों की दीवारें चूने से रंगी थीं और गेरुए रंग से उन पर नक्काशी की गई थी। गाँव के रंगीले जवान शाम को इधर ही आकर टहलते थे। खेतों में जाने वाली स्त्रियाँ प्रातः दुकानों में अपनी तेल की बोतलें रख जातीं और शाम को लौटते समय तेल ले आतीं। चीज़ों के लेन देन के लिए कौड़ियों का प्रयोग होता था और कभी चीज़ों की अदला-बदली हुआ करती थी। बनिया ‘मूल’ से कभी दुगुने दाम वसूल कर लिया करता था। वहीं एक मोटे पेट वाले सेठ की दुकान थी। उसकी दुकान बाकी दुकानों से कुछ ही बड़ी थी, किन्तु उसी को लोग बड़ी आढ़ती समझते थे। दुकान के सामने आवारा बच्चों के शोर से सेठजी क्रोधित हो उठते, किन्तु उनके डंडा उठाकर अपनी विशाल देह को अपने पैरों पर सम्भालने से पहले ही वे बच्चे चम्पत हो जाते। प्रातः काल गौओं को लेकर ग्वाले जंगल की ओर निकलते। अपनी गाय भेजने में श्यामजी पंडित हमेशा ही देर करते थे। तब वे ग्वाल-बाल पंडित जी को तंग करने के लिए उनसे छू जाते, जिससे पंडितजी को फिर से स्नान करके शुद्ध होना पड़ता। हर साल पड़ोस के गाँव में मेला लगता और दंगल होता। भार्गव गाँव का कोई-कोई जवान भी उसमें खम ठोक कर उतरता। जाते समय माँ के चरण-स्पर्श करता। माता उसे अशीष देते समय कहती, ‘‘होशियार रहना बेटा और जीत कर आना।’’ तब वह आत्मविश्वास से मुस्कराकर मूछों पर हल्का-सा हाथ फेरता। माँ का आशीष कभी व्यर्थ नहीं जाता। वह अपने से दुगने जवान की पीठ लगाकर लौटता। उसी विजयी वीर के स्वागत के लिए तथा उसके सिर पर पगड़ी बाँधने के लिए गाँव की सीमा पर सब स्त्री-पुरुषों की भीड़ इकट्ठी हो जाती। जयकारों से आकाश गूँज उठता और वह जवान छाती तान कर ऐसी शान से डोलता हुआ एक-एक कदम उठाता आगे बढ़ता मानो रावण को मार कर राम ही अयोध्या को लौट रहा हो।
गाँव के सभी झगड़े पंचायत में निपट जाते और गाँव का पटेल गाँव की रक्षा के लिए सदा सन्नद्ध रहता। गाँव के पंडितजी सभी ग्रामीण जनों को उनके धर्म-कर्म की शिक्षा दिया करते। इस प्रकार दैवी और भौतिक संकटों के परिहार की व्यवस्था होने के कारण किसान निश्चिंतता से अपनी खेती करते। हरे-भरे खेतों पर लहलहाने वाली अनाज की सुनहरी बालें ऐसी लगतीं जैसे शरीर के भीतर प्राण। उन्हें देखकर घर-घर में संतोष फैल जाता। खलियान में अनाज के ढेर लगने पर कुम्हार, बढ़ई, जुलाहे, लुहार आदि ग्राम्य-जीवन के हिस्सेदार इकट्ठे होते और वर्ष-भर किये गये परिश्रम के बदले में किसान से अपना-अपना अनाज का हिस्सा पाते। साल-भर के लिए पर्याप्त अनाज रखकर बाकी सब पटेल की देख-रेख में पंचायत के कोठे में जमा हो जाता। दुर्भाग्यवश यदि कभी अकाल पड़ जाता तो उसी से सबका गुजारा हो जाता। ऐसी-थी ग्राम-पंचायत की व्यवस्था, जिसके कारण प्रत्येक ग्राम मानो एक स्वतंत्र जनतंत्रातम्क राज्य ही हो। ऐसा मनमोहक चित्र था, उस भार्गव ग्राम के लोक-जीवन का। पर यह तो था बीता हुआ जमाना। आज उस ग्राम की क्या हालत थी ?
परकीयों के आक्रमण से लोक-जीवन के साथ-साथ ग्राम-संस्थायें भी मृतवत् हो गई थीं। अब तो विदेशियों की—पाशवी पुर्तगालियों की हुकूमत चल रही थी। बाज़ार में शराब की दुकानें खुल गई थीं और नये-नये करों से किसान पिस रहा था। बेचारा जैसे-तैसे जी रहा था। किन्तु एक विशाल वट-वृक्ष अब भी मानो अपनी ज़िम्मेदारी निभाता हुआ वहाँ अटल खड़ा था, सदियों से नहीं शायद युगों से। जिस दिन वीर श्रेष्ठ परशुराम ने समुद्र को हटाकर इस भूमि पर अपना विजय-ध्वज उभारा, उसी दिन उस भार्गव ने की थी इस भार्गव ग्राम की स्थापना और अक्षय वट-वृक्ष का बीजारोपण। उस वृक्ष के इर्द-गिर्द एक विशाल चबूतरा था। वह अनघड़े बड़े-बड़े पत्थरों का, बिना चूने-गारे के बना हुआ था। किन्तु ग्रामवासी बड़े गर्व से कहा करते कि इतना बड़ा चबूतरा संसार में कहीं नहीं होगा। गाँव में आने वाला यात्री उस वृक्ष के नीचे चबूतरे पर विश्राम करके ही आगे बढ़ता। ग्रामीण भी उस चबूतरे पर दिन-भर बैठकर गप्पें हाँकते। गाँव की सभी बातों की वहाँ चर्चा चलती। दिन-भर मानो खुला सभा-गृह और रात में नाटक-तमाशे की रंग-भूमि। एक बार तबला-ढोलक और झाँझ-मँजीरे का रंग जम जाता और स्वाँग और लोक-गीतों की स्पर्धा शुरू हो जाती, तो रात भी कम पड़ती। कभी कोई साधु-महात्मा आ जाते, तो वह भी चबूतरे पर धूनी लगाकर बैठ जाते और चिलम के धुएँ के साथ गपोड़बाजी भी चलाते। वट-पूजा व्रत के दिन नव-विवाहिता वधुएँ उस बूढ़े वट-वृक्ष की पूजा करतीं और धागा लपेटतीं, तो जवान वृक्षों को भी उससे ईर्ष्या होती। उधर उस महान् वट-वृक्ष की ग्रामीणों पर छत्र-छाया थी, तो निकट ही उधर पुर्तगाली सिपाहियों की चौकी भी थी।
तहसीलदार जब दौरे पर आकर वहाँ टिकता तो गाँव में खासी हलचल मच जाती। हरएक किसी-न-किसी बहाने से उधर से निकलता और डरता-चौंकता उस थाने की ओर देखता। गाँव के पटेल की मूँछें बड़ी भव्य थीं और पटवारी की कलम भी कम बहादुर नहीं थी। पर दोनों ही तहसीलदार के सामने कमर झुकाकर सलाम करते और तहसीलदार-साहब ज़रा-सी गर्दन हिला देते। तब ऐसे अक्खड़ साहब का गाँव के लोगों को डर लगना स्वाभाविक ही था। पुलिस-चौकी के पास ही पुर्तगालियों का एक स्कूल खुल गया था। उसकी वजह से आचार्यजी की पाठशाला वीरान हो गई। फिर आचार्यजी को क्रोध क्यों न आता ? पुर्तगालियों के स्कूल में बच्चों को ‘अ, आ’ सिखाने की बजाए ‘ईसा मसीह’ क्रास कोलम्बिया, अल्बुकर्क’ आदि के ही पाठ रटाये जाते। हाय ! कितना यह दुर्भाग्य !
यह ‘पुर्तगाली’ शब्द सुनते ही पिछले सौ वर्षों से उस गाँव में आतंक छा जाता। जैसे कोई गाय किसी भेड़िये से पीड़ित हो और उसी समय शेर उस पर झपट पड़े, ऐसी स्थिति गोवा में पुर्तगालियों के पाँव जमते ही पैदा हो गई थी। गोवा की जनता पहले इस्लामियों से पीड़ित थी और अब उनसे भी अधिक क्रूर ईसाइयों के जबड़े में आ गई थी। वन में शेरों से त्रस्त हिरण जिस प्रकार अपने झुण्डों में जैसे-तैसे जीते रहते हैं। उसी प्रकार गोमांतक-रूपी वन में यह भार्गव-ग्राम जैसे-तैसे जी रहा था।
इस सादे गाँव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था, जो अत्यन्त सुशील, सुप्रतिष्ठित, सर्वप्रिय था। इस परिवार का इतिहास भी तेजस्वी था। श्री महामंडलाधीश कदम्ब महाराज के ज़माने में इस कुल के लोग राज-पुरोहित का सम्मान पाते थे। किन्तु जिस दिन इस देश पर विदेशी परचक्र आया और स्वातंत्र्य नष्ट हो गया, उस दिन इस कुल के पुरुष पंडिताई छोड़कर खड्ग धारण कर रणांगन में कूद पड़े थे। अनेकों ने देश-स्वातंत्र्यार्थ धर्म-युद्ध में अपनी देह समर्पित की थी। एक बार इस कुल की एक स्त्री को तुर्क अधिकारियों ने पकड़ कर बेच दिया और उसे अन्य ज़बरन पकड़ी स्त्रियों के साथ अरब ज़हाज पर चढ़ा दिया। उस तेजस्वी ने इन अत्याचारी मानवों की अपेक्षा समुद्र के जलचर ही अच्छे समझकर अपनी शील-रक्षा के लिए समुद्र में छलांग लगा दी थी। मुसलमानों की पाशवी हुकूमत में मूर्ति-भंजक तुर्कों के आघातों से सारे देवी-देवता नष्ट हो गए।
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