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अनमोल कहानियाँ

पूनम त्यागी

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5402
आईएसबीएन :00000

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नाना-नानी की प्यारी कहानियां...

Anmol Kahaniyan a hindi book by Punam Tyagi - अनमोल कहानियाँ - पूनम त्यागी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

आज के भारत में बच्चों का अपने राष्ट्र, गुरुजन, दादा-दादी, नाना-नानी, माता-पिता, बड़े एवं छोटे भाई-बहनों के प्रति सम्मानजनक, सभ्य, स्नेहमय व्यवहार का अभाव हमें बाध्य करता है कि हम इसका कारण जानें।
माता-पिता का बच्चों को समय न देना, संयुक्त परिवारों का टूटना और टेलीविजन का प्रभाव बच्चों के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के विकसित न होने का कारण बन रहा है।
इन सभी कारणों को सुधारने का डॉ. पूनम त्यागी का सकारात्मक प्रयास है, इस पुस्तक का प्रकाशन।

श्री संजीव त्यागी

परिचय


बच्चों के ज्ञानवर्धन के लिए समर्पित इस पुस्तक की लेखिका डॉ. पूनम त्यागी एक सुविख्यात चिकित्सक होने के साथ-साथ समाज-सेविका भी हैं। 9 जुलाई 1953 को दिल्ली के एक कुलीन परिवार में जन्मीं डॉ. त्यागी ने एमबीबीएस की शिक्षा सेवाग्राम स्थित महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस से प्राप्त की। इनके पति डॉ. राजीव त्यागी भी एमबीबीएस, एमएस हैं एवं एक भद्र और कुलीन परिवार से हैं।

त्यागी दंपत्ति समाजसेवा में महत्वपूर्ण योगदान अदा कर रहा है। यह सात्विक परिवार निर्धन एवं निर्बल वर्ग की अन्यान्य तरीकों से सहायता करते रहते हैं। 1977 से मेडिकल प्रैक्टिस करने वाली डॉ. पूनम त्यागी निर्बल वर्ग के मेधावी बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाने के साथ-साथ प्रतिवर्ष एक महिला एमबीबीएस विद्यार्थी को पढ़ाई का खर्च भी देती हैं।

भूमिका


मुझे अपने बचपन की याद है जब अधिकांश परिवार संयुक्त होते थे। इन परिवारों में सभी सदस्य हंसी-खुशी साथ मिलकर रहते थे। लगभग सभी परिवारों का एक जैसा सीधा-साधा चलन होता था। इन परिवार में नाना-नानी, दादा-दादी के साथ रहने से छोटे बच्चों को अच्छी शिक्षा और भरपूर प्यार मिलता था।
शाम को जब अंधेरा घिरने को होता, बच्चे अपना खेल समाप्त कर घर आते, घर आकर खाना खाते और फिर शुरू होता कहानी सुनने-सुनाने का सिलसिला। लगभग सभी बच्चे अपने नाना-नानीं, दादा-दादी से कहानी सुनने की जिद करते और सच तो यह है कि कहानी सुनते-सुनते गहरी नींद में सो जाया करते थे।

ये कहानियां बच्चों के लिए बड़ी लाभदायक सिद्ध होती थीं। कहानी के बहाने बच्चों को अपने देश के देवी-देवताओं, ऋषि-मुनियों, साधु-संतों और अन्य महापुरुषों के बारे में पता चल जाता था। और इन्हीं कहानियों के माध्यम से बच्चों को महाभारत, रामायण जैसे धार्मिक ग्रंथों में बताये गये सत्य का सार बड़े रोचक और सीधे-साधे शब्दों में बताया जाता था। इस तरह इन कहानियों के माध्यम से, बगैर पढ़े बच्चे वह सब बातें जान लेते थे, जो उनके चरित्र निर्माण के लिए ज़रूरी होती थी। आज रोजगार की तलाश में लोग दूर-दूर जाने लगे हैं। संयुक्त परिवार टूटे हैं, नाना-नानी, दादा-दादी का साथ छूटा है। अब हमारे बच्चे मजबूरी में टेलीविजन देखा करते हैं और टीवी पर कई बार बच्चे ऐसे कार्यक्रम देखते हैं, जिनके लिए बच्चे अभी मानसिक तौर पर पूरी तरह से विकसित नहीं हैं। आजकल देश की सभ्यता, संस्कृति, धर्म या इतिहास के बारे में सही जानकारी देने वाला साहित्य बहुत कम पाया जाता है। बच्चों के पढ़ने लायक साहित्य भी कम लिखा जा रहा है।

मेरी यह धारणा है कि कहानी एक ऐसा माध्यम है, जिसके द्वारा हम बीते हुए समय के संचित ज्ञान को अपने बच्चों तक आसानी से पहुँचा सकते हैं। बाल साहित्य के इस अभाव को मैंने बड़ी गहराई से महसूस किया, जब मैं खुद नानी बनी। मुझे लगा कि मैं अपने नाती ‘विराज’ को कौन सी कहानियाँ सुनाऊँगी ? इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए और बच्चों में अच्छे विचार, अच्छी भावनाएँ जगाने के लिए मैंने कुछ ऐसी कहानियों का संग्रह किया है, जो हमने अपने बड़ों से सुनी थी।

पुस्तक के पहले भाग में सम्मिलित कहानियां हमारे पुराणों और धार्मिक ग्रंथों रामायाण, महाभारत में वर्णित हैं। दूसरे भाग में जो कहानियाँ शामिल हैं वह मेरी सास श्रीमती आशा त्यागी के पिता श्री पंडित महाराज सिंह शर्मा जी सुनाया करते थे। ये कहानियां शर्मा जी ने सुनाई थीं और किसी ने उन्हें बोले हुए ढंग से लिखा था। मैंने इन कहानियों को सम्पादित किया है। उन्हें क्रम और व्यवस्था में डाला है। जहाँ जरूरी हुआ वहाँ बोले हुए विवरण को और अधिक स्पष्ट और सुगमता से सजाया है। मेरी यह कामना है कि पुस्तक छोटे बच्चों को अच्छे विचार, अच्छी भावनाएं लगाये। इस पुस्तक को लिखने में मुझे अपने ससुर श्री वीरेन्द्र कुमार त्यागी जी से बड़ी सहायता मिली। उन्होंने समय-समय पर मेरी हर समस्या का समाधान किया और हमेशा मुझे लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। मैं उनकी आभारी हूँ।

मैं अपने पति डॉ. राजीव त्यागी की भी आभारी हूँ, क्योंकि उन्होंने कभी कोई काम करने से नहीं रोका। उनके सहयोग के बगैर मैं शायद यह काम पूरा नहीं कर पाती।
इस पुस्तक के संकलन में मुझे अपने बच्चे और सारे परिवार का पूरा सहयोग मिला है, मैं दिल से सभी की आभारी हूँ।

डॉ. पूनम त्यागी

लालची चिड़िया


एक जंगल में पक्षियों का एक बड़ा सा दल रहता था। रोज सुबह सभी पक्षी भोजन की तलाश में निकलते थे। पक्षियों के राजा ने अपने पक्षियों को कह रखा था कि जिसे भी भोजन दिखाई देगा वह आकर अपने बाकी साथियों को आकर बता देगा और फिर सभी पक्षी एक साथ मिलकर दाना खाएंगे। इस तरह उस दल के सभी पक्षियों को भरपूर खाना मिल जाता था।

एक दिन भोजन की तालश में एक चिड़िया उड़ते-उड़ते काफी दूर निकल गयी। जंगल के बाहर रास्ते तक आ गई। इस रास्ते से गाड़ियों में अनाज के बोरे मण्डी जाया करते थे। रास्ते में काफी सारा अनाज गाड़ियों से नीचे गिरकर सड़क पर बिखर जाता था। चिड़िया गाड़ियों में अनाज के भरे बोरे देखकर बहुत खुश हुई, क्योंकि अब उसे और कोई जगह तलाश करने की जरूरत ही नहीं थी। अनाज से भरी गाड़ियाँ वहां से रोज गुजरती थीं और अनाज के दाने सड़क पर बिखरते भी रोज थे। चिड़िया के मन में लालच आ गया। उसने सोचा कि उस जगह के बारे में वह किसी को नहीं बतायेगी और रोज इसी जगह आकर पेट भर खाना खाया करेगी।

उस शाम को जब चिड़िया अपने दल में वापस पहुँची, तब उसके बाकी साथियों ने देरी से आने का कारण पूछा।
चिड़िया ने भी एक अनूठी झूठी कहानी सुना दी कि वह किसी तरह जान बचाकर आयी है। उस रास्ते से तो इतनी गाड़ियाँ गुजरती हैं रास्ता पार करना मुश्किल है। दल की बाकी चिड़िया यह सुनकर डर गयीं और सभी ने निश्चय कर लिया कि वह रास्ते के पास नहीं जाएंगी।

इस तरह वह चिड़िया रोज उसी रास्ते पर जाकर पेट भर दाना खाती रही। एक दिन चिड़िया रोज की तरह रास्ते पर बैठकर खाना खा रही थी। खाना खाने में वह इतनी मग्न थी कि उसे उसकी तरफ आती हुई गाड़ी की आहट सुनाई ही नहीं दी। गाड़ी भी तेजी से आगे बढ़ रही थी। चिड़िया दाना चुगने में मग्न थी, गाड़ी पास आ गयी और गाड़ी का पहिया चिड़िया को कुचलता हुआ आगे निकल गया।
इस तरह लालची चिड़िया अपने ही जाल में फँस गयी।

लालच बुरी बला है-कभी लालची मत बनो !

स्वावलम्बन


बहुत पुरानी बात है। बंगाल के एक छोटे से स्टेशन पर एक रेलगाड़ी आकर रुकी। गाड़ी में से एक आधुनिक नौजवान लड़का उतरा। लड़के के पास एक छोटा सा संदूक था।
स्टेशन पर उतरते ही लड़के ने कुली को आवाज लगानी शुरू कर दी। वह एक छोटा स्टेशन था, जहाँ पर ज्यादा लोग नहीं उतरते थे, इसलिए वहाँ उस स्टेशन पर कुली नहीं थे। स्टेशन पर कुली न देख कर लड़का परेशान हो गया। इतने में एक अधेड़ उम्र का आदमी धोती-कुर्ता पहने हुए लड़के के पास से गुजरा। लड़के ने उसे ही कुली समझा और उसे सामान उठाने के लिए कहा। धोती-कुर्ता पहने हुए आदमी ने भी चुपचाप सन्दूक उठाया और आधुनिक नौजवान के पीछे चल पड़ा।

घर पहुँचकर नौजवान ने कुली को पैसे देने चाहे। पर कुली ने पैसे लेने से साफ इनकार कर दिया और नौजवान से कहा—‘‘धन्यवाद ! पैसों की मुझे जरूरत नहीं है, फिर भी अगर तुम देना चाहते हो, तो एक वचन दो कि आगे से तुम अपना सारा काम अपने हाथों ही करोगे। अपना काम अपने आप करने पर ही हम स्वावलम्बी बनेंगे और जिस देश का नौजवान स्वावलम्बी नहीं हो, वह देश कभी सुखी और समृद्धिशाली नहीं हो सकता।’’ धोती-कुर्ता पहने यह व्यक्ति स्वयं उस समय के महान समाज सेवक और प्रसिद्ध विद्वान ईश्वरचन्द्र विद्यासागर थे।

कहानी हमें यह शिक्षा देती है कि हमें कभी अपना काम दूसरों से नहीं कराना चाहिए।

पंडित और ग्वालिन


एक पंडित जी थे। उन्होंने एक नदी के किनारे अपना आश्रम बनाया हुआ था। पंडित जी बहुत विद्वान थे। उनके आश्रम में दूर-दूर से लोग ज्ञान प्राप्त करने आते थे।
नदी के दूसरे किनारे पर लक्ष्मी नाम की एक ग्वालिन अपने बूढ़े पिताश्री के साथ रहती थी। लक्ष्मी सारा दिन अपनी गायों को देखभाल करती थी। सुबह जल्दी उठकर अपनी गायों को नहला कर दूध दोहती, फिर अपने पिताजी के लिए खाना बनाती, तत्पश्चात् तैयार होकर दूध बेचने के लिए निकल जाया करती थी।
पंडित जी के आश्रम में भी दूध लक्ष्मी के यहाँ से ही आता था। एक बार पंडित जी को किसी काम से शहर जाना था। उन्होंने लक्ष्मी से कहा कि उन्हें शहर जाना है, इसलिए अगले दिन दूध उन्हें जल्दी चाहिए।
लक्ष्मी अगले दिन जल्दी आने का वादा करके चली गयी।

अगले दिन लक्ष्मी ने सुबह जल्दी उठकर अपना सारा काम समाप्त किया और जल्दी से दूध उठाकर आश्रम की तरफ निकल पड़ी। नदी किनारे उसने आकर देखा कि कोई मल्लाह अभी तक आया नहीं था। लक्ष्मी बगैर नाव के नदी कैसे पार करती ? फिर क्या था, लक्ष्मी को आश्रम तक पहुँचने में देर हो गयी। आश्रम में पंडित जी जाने को तैयार खड़े थे। उन्हें सिर्फ लक्ष्मी का इन्तजार था। लक्ष्मी को देखते ही उन्होंने लक्ष्मी को डाँटा और देरी से आने का कारण पूछा।

लक्ष्मी ने भी बड़ी मासूमियत से पंडित जी से कह दिया कि नदी पर कोई मल्लाह नहीं था, वह नदी कैसे पार करती ? इसलिए देर हो गयी।
पंडित जी गुस्से में तो थे ही, उन्हें लगा कि लक्ष्मी बहाने बना रही है। उन्होंने भी गुस्से में लक्ष्मी से कहा, ‘‘क्यों बहाने बनाती है। लोग तो जीवन सागर को भगवान का नाम लेकर पार कर जाते हैं, तुम एक छोटी सी नदी पार नहीं कर सकती ?’ पंडित जी की बातों का लक्ष्मी पर बहुत गहरा असर हुआ। दूसरे दिन भी जब लक्ष्मी दूध लेकर आश्रम जाने निकली तो नदी के किनारे मल्लाह नहीं था। लक्ष्मी ने मल्लाह का इंतजार नहीं किया। उसने भगवान को याद किया और पानी की सतह पर चलकर आसानी से नदी पार कर ली। इतनी जल्दी लक्ष्मी को आश्रम में देख कर पंडित जी हैरान रह गये, उन्हें पता था कि कोई मल्लाह इतनी जल्दी नहीं आता है। उन्होंने लक्ष्मी से पूछा कि तुमने आज नदी कैसे पार की ?

लक्ष्मी ने बड़ी सरलता से कहा—‘‘पंडित जी आपके बताये हुए तरीके से। मैंने भगवान् का नाम लिया और पानी पर चलकर नदी पार कर ली।’’
पंडित जी को लक्ष्मी की बातों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने लक्ष्मी से फिर पानी पर चलने के लिए कहा। लक्ष्मी नदी के किनारे गयी और उसने भगवान का नाम जपते-जपते बड़ी आसानी से नदी पार कर ली।

पंडित जी हैरान रह गये। उन्होंने भी लक्ष्मी की तरह नदी पार करनी चाही। पर नदी में उतरते वक्त उनका ध्यान अपनी धोती को गीली होने से बचाने में लगा था। वह पानी पर नहीं चल पाये और धड़ाम से पानी में गिर गये। पंडित जी को गिरते देख लक्ष्मी ने हँसते हुए कहा, ‘‘आपने तो भगवान का नाम लिया ही नहीं, आपका सारा ध्यान अपनी नयी धोती को बचाने में लगा हुआ था।’’
पंडित जी को अपनी गलती का अहसास हो गया। उन्हें अपने ज्ञान पर बड़ा अभिमान था। पर अब उन्होंने जान लिया था कि भगवान को पाने के लिए किसी भी ज्ञान की जरूरत नहीं होती। उसे तो पाने के लिए सिर्फ सच्चे मन से याद करने की जरूरत है।

कहानी में हमें यह बताया गया है कि अगर सच्चे मन से भगवान को याद किया जाये, तो भगवान तुरन्त अपने भक्तों की मदद करते है।

सातवां घड़ा


एक गाँव में एक नाई अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रहता था। नाई ईमानदार था, अपनी कमाई से संतुष्ट था। उसे किसी तरह का लालच नहीं था। नाई की पत्नी भी अपनी पति की कमाई हुई आय से बड़ी कुशलता से अपनी गृहस्थी चलाती थी। कुल मिलाकर उनकी जिंदगी बड़े आराम से हंसी-खुशी से गुजर रही थी।
नाई अपने काम में बहुत निपुण था। एक दिन वहाँ के राजा ने नाई को अपने पास बुलवाया और रोज उसे महल में आकर हजामत बनाने को कहा।
नाई ने भी बड़ी प्रसन्नता से राजा का प्रस्ताव मान लिया। नाई को रोज राजा की हजामत बनाने के लिए एक स्वर्ण मुद्रा मिलती थी।
इतना सारा पैसा पाकर नाई की पत्नी भी बड़ी खुश हुई। अब उसकी जिन्दगी बड़े आराम से कटने लगी। घर पर किसी चीज की कमी नहीं रही और हर महीने अच्छी रकम की बचत भी होने लगी। नाई, उसकी पत्नी और बच्चे सभी खुश रहने लगे।

एक दिन शाम को जब नाई अपना काम निपटा कर महल से अपने घर वापस जा रहा था, तो रास्ते में उसे एक आवाज सुनाई दी।
आवाज एक यक्ष की थी। यक्ष ने नाई से कहा, ‘‘मैंने तुम्हारी ईमानदारी के बड़े चर्चे सुने हैं, मैं तुम्हारी ईमानदारी से बहुत खुश हूँ और तुम्हें सोने की मुद्राओं से भरे सात घड़े देना चाहता हूँ। क्या तुम मेरे दिये हुए घड़े लोगे ?
नाई पहले तो थोड़ा डरा, पर दूसरे ही पल उसके मन में लालच आ गया और उसने यक्ष के दिये हुए घड़े लेने का निश्चय कर लिया।
नाई का उत्तर सुनकर उस आवाज ने फिर नाई से कहा, ‘‘ठीक है सातों घड़े तुम्हारे घर पहुँच जाएँगे।’’

नाई जब उस दिन घर पहुँचा, वाकई उसके कमरे में सात घड़े रखे हुए थे। नाई ने तुरन्त अपनी पत्नी को सारी बातें बताईं और दोनों ने घड़े खोलकर देखना शुरू किया। उसने देखा कि छः घड़े तो पूरे भरे हुए थे, पर सातवाँ घड़ा आधा खाली था।
नाई ने पत्नी से कहा—‘‘कोई बात नहीं, हर महीने जो हमारी बचत होती है, वह हम इस घड़े में डाल दिया करेंगे। जल्दी ही यह घड़ा भी भर जायेगा। और इन सातों घड़ों के सहारे हमारा बुढ़ापा आराम से कट जायेगा।
अगले ही दिन से नाई ने अपनी दिन भर की बचत को उस सातवें में डालना शुरू कर दिया। पर सातवें घड़े की भूख इतनी ज्यादा थी कि वह कभी भी भरने का नाम ही नहीं लेता था।

धीरे-धीरे नाई कंजूस होता गया और घड़े में ज्यादा पैसे डालने लगा, क्योंकि उसे जल्दी से अपना सातवाँ घड़ा भरना था।
नाई की कंजूसी के कारण अब घर में कमी आनी शुरू हो गयी, क्योंकि नाई अब पत्नी को कम पैसे देता था। पत्नी ने नाई को समझाने की कोशिश की, पर नाई को बस एक ही धुन सवार थी—सातवां घड़ा भरने की।
अब नाई के घर में पहले जैसा वातावरण नहीं था। उसकी पत्नी कंजूसी से तंग आकर बात-बात पर अपने पति से लड़ने लगी। घर के झगड़ों से नाई परेशान और चिड़चिड़ा हो गया।
एक दिन राजा ने नाई से उसकी परेशानी का कारण पूछा। नाई ने भी राजा से कह दिया अब मँहगाई के कारण उसका खर्च बढ़ गया है। नाई की बात सुनकर राजा ने उसका मेहताना बढ़ा दिया, पर राजा ने देखा कि पैसे बढ़ने से भी नाई को खुशी नहीं हुई, वह अब भी परेशान और चिड़चिड़ा ही रहता था।
एक दिन राजा ने नाई से पूछ ही लिया कि कहीं उसे यक्ष ने सात घड़े तो नहीं दे दिये हैं ? नाई ने राजा को सातवें घड़े के बारे में सच-सच बता दिया।

तब राजा ने नाई से कहा कि सातों घड़े यक्ष को वापस कर दो, क्योंकि सातवां घड़ा साक्षात लोभ है, उसकी भूख कभी नहीं मिटती।
नाई को सारी बात समझ में आ गयी। नाई ने उसी दिन घर लौटकर सातों घड़े यक्ष को वापस कर दिये।

घड़ों के वापस जाने के बाद नाई का जीवन फिर से खुशियों से भर गया था।

कहानी हमें बताती है कि हमें कभी लोभ नहीं करना चाहिए। भगवान ने हम सभी को अपने कर्मों के अनुसार चीजें दी हैं, हमारे पास जो है, हमें उसी से खुश रहना चाहिए। अगर हम लालच करे तो सातवें घड़े की तरह उसका कोई अंत नहीं होता।

सुनहरा पक्षी


सुन्दरलाल एक धनी व्यापारी था। उसमें बस एक कमी थी—वह बहुत कामचोर और आलसी था सुबह देर तक सोना उसे बहुत पसंद था।
अपने आलसी स्वभाव के कारण धीरे-धीरे सुन्दर लाल की सेहत बिगड़ने लगी। वह पलंग पर पड़ा-पड़ा मोटा हो गया। उससे अब ज्यादा चला-फिरा नहीं जाता था। उसने अब अपने सारे काम नौकरों पर छोड़ रखे थे।

नौकर अपने मालिक के आलसी स्वभाव से परिचित थे। उन्होंने भी धीरे-धीरे बेईमानी करना शुरू कर दी और उससे सुन्दरलाल को व्यापार में नुकसान होने लगा।
एक दिन सुन्दरलाल का मित्र उससे मिलने आया। सुन्दरलाल ने अपने मित्र से अपनी बीमारी के बारे में बताया। मित्र होशियार था, वह तुरन्त समझ गया कि सुन्दरलाल का आलसीपन ही सारी बीमारी की जड़ है। उसने सुन्दरलाल से कहा—‘‘तुम्हारी बीमारी को दूर करने का उपाय में जानता हूँ, पर तुम वह कर नहीं सकते, क्योंकि इसके लिए तुम्हें जल्दी उठना पड़ेगा।’’

सुन्दरलाल ने कहा कि बीमारी ठीक होने के लिए सब कुछ करने को तैयार है।
मित्र ने कहा, ‘‘सुबह-सुबह अक्सर एक सुनहरा पक्षी आता है। तुम अगर उसे देख लो तो तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जायेंगे।’’
सुन्दरलाल अगले दिन सुबह-सुबह उठकर सुनहरे पक्षी को खोजने चल पड़ा।
रास्ते में उसने देखा कि नौकर उसी के भण्डार से अनाज चोरी कर रहे हैं। ग्वाला दूध में पानी मिला रहा है। सुन्दरलाल ने अपनी सभी नौकरों को डांटा।

अगले दिन फिर सुन्दरलाल सुनहरे पक्षी की खोज में निकला। सुनहरे पक्षी तो मिलना नहीं था, पर अपने मालिक को रोज आते देख भण्डार से चोरी होनी बन्द हो गयी। सभी नौकर अपना काम ठीक से करने लगे। चलने-फिरने से सुन्दरलाल का स्वास्थ्य भी ठीक रहने लगा।
कुछ समय बाद सुन्दरलाल का मित्र वापस सुन्दरलाल के पास आया।
सुन्दरलाल ने मित्र से कहा—‘‘मैं इतने दिनों से सुनहरे पक्षी को खोज रहा हूँ, पर वह मुझे दिखाई नहीं दिया।’’
मित्र ने कहा—‘‘तुम्हारा परिश्रम ही वह सुनहरा पक्षी है। तुमने जब से खेतों में जाना शुरू किया है, तुम्हारे यहाँ चोरी बन्द हो गयी और तुम्हारा स्वास्थ्य भी ठीक हो गया।
मित्र की बात अब सुन्दरलाल की समझ में आ गयी। उसने उसी दिन के बाद से आलस करना छोड़ दिया।

कहानी हमें बताती है कि सबको अपने काम स्वयं करने चाहिए। परिश्रम और मेहनत से ही काम सफल होते हैं।


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