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जीवनी/आत्मकथा >> डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी जीवन यात्रा

डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी जीवन यात्रा

शिव कुमार गोयल

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :106
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5387
आईएसबीएन :81-88388-56-4

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डॉ मुखर्जी नवभारत के निर्माताओं में से एक महत्त्वपूर्ण स्तम्भ हैं।

Dr.Shyama Prasad Mukarji Jivan Yatra.

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय

डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी नवभारत के निर्माताओं में से एक महत्त्वपूर्ण स्तम्भ हैं। जिस प्रकार हैदराबाद को भारत में विलय करने का श्रेय सरदार पटेल को जाता है, ठीक उसी प्रकार बंगाल, पंजाब और कश्मीर के अधिकांश भागों को भारत का अभिन्न अंग बनाये रखने की सफलता प्राप्ति में डॉ. मुखर्जी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। उन्हें किसी दल की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता क्योंकि उन्होंने जो कुछ किया देश के लिए किया और इसी भारतभूमि के लिए अपना बलिदान तक दे दिया। ऐसे दिव्य पुरुष की गौरवमयी गाथा को जन-जन तक पहुंचाना हमारा परम सौभाग्य होगा, ताकि भारत की युवा पीढ़ी डॉ. मुखर्जी के जीवन से प्रेरणा लेकर देश को उन्नति के नये शिखर पर ले जाए। इसी आशा और विश्वास के साथ यह ग्रंथ आपके सुयोग्य हाथों में सौंपा जा रहा है।
लेखक श्री शिवकुमार गोयल ने पुस्तक को स्वर्गीय गुरुदत्त द्वारा लिखित डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की ‘‘अंतिम यात्रा’’ के प्रथम भाग के रूप में प्रस्तुत किया है। इस पर भी यह अपने आप में संपूर्ण पुस्तक है।

पद्मेश दत्त

समर्पण


महान साहित्य-मनीषी तथा चिन्तक वैद्य गुरुदत्त जी जो डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ श्रीनगर में नजरबंद थे तथा अन्तिम यात्रा (बलिदान) के साक्षी थे, की पावन स्मृति में सादर-समर्पित

शिवकुमार गोयल

दो शब्द


मेरे पिताश्री भक्त श्री रामशरणदास जी धार्मिक विषयों से सुपरिचित लेखक थे। ‘कल्याण’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में जहाँ उनके धर्म और भक्ति सम्बंधी लेखों का प्रकाशन होता था। वहीं महान स्वाधीनता सेनानी भाई परमानंदजी द्वारा सम्पादित ‘हिन्दू’, अरुणोदय (इटावा) तथा प्रो. रामसिंह जी द्वारा संपादित ‘केसरी’ आदि पत्रों में उनके हिन्दुत्व सम्बंधी लेखों को पढ़कर किशोरावस्था में ही मेरे हृदय में राष्ट्रवादी संस्कार जाग्रत होने लगे थे। स्वातन्त्र्यवीर सावरकर जी, भाई परमानंद जी, डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुँजे, डॉ. हेडगेवार जी, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे राष्ट्रवाद के पुरोधाओं के विषय में जानकारी प्राप्त कर मैं इन सबके प्रति श्रद्धावान बन गया था।
23 जून 1953 को डॉ. मुखर्जी के श्रीनगर में नजरबंदी के दौरान निधन हो जाने का समाचार मिलते ही मेरे अनन्य मित्र श्री आनन्दप्रकाश सिंहल तथा उनके हिन्दुत्वनिष्ठ युवा साथियों ने संकल्प लिया कि कश्मीर की अखण्डता के लिए बलिदान देने वाले महान राष्ट्रनायक डॉ. मुखर्जी की पावन स्मृति में पिलखुवा में एक पुस्तकालय-वाचनालय की स्थापना की जायेगी और 31 अगस्त 1953 को मुखर्जी पुस्तकालय-वाचनालय की स्थापना कर दी गयी।

मुखर्जी पुस्तकालय के लिए सत्साहित्य प्राप्त करने के लिए मैं आनन्द जी के साथ भारती साहित्य सदन, नयी दिल्ली गया तो वहाँ साहित्य मनीषी आदरणीय वैद्य गुरुदत्त जी के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वैद्यजी डॉ. मुखर्जी के अन्तिम समय में श्रीनगर में उनके साथ ही नजरबंद थे। वे यह जानकर बहुत प्रसन्न हुए कि पिलखुआ  में ‘श्री मुखर्जी पुस्तकालय’ की स्थापना हुई है।। वैद्यजी को अगस्त 1957 में मुखर्जी पुस्तकालय की समाचार पत्र-प्रदर्शनी के उद्घाटन के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने डॉ. मुखर्जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर भाषण दिया, जिसे सुनकर सभी प्रभावित हुए।

वैद्यजी के सुयोग्य पुत्र तथा भारती साहित्य सदन के संचालक आदरणीय भाई योगेन्द्र जी ने वीर सावरकर जी के निधन के तुरन्त बाद सन् 1966 में मुझे प्रेरित कर ‘अमर सेनानी सावरकर’ पुस्तक लिखवाई तथा प्रकाशित की। उन्हीं की प्रेरणा पर मैंने ‘स्वामी विवेकानंद-जीवन और विचार’ पुस्तक भी लिखी।

इसी वर्ष एक दिन मुझे योगेन्द्र जी के पुत्र चि. पद्मेश का संदेश मिला कि मैं वैद्य गुरुदत्त जी द्वारा लिखित ‘डॉ. मुखर्जी की अंतिम यात्रा’ पुस्तक के पूरक के रूप में उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एक पुस्तक लिखूँ। मैंने डाक्टर साहब से संबंधित अनेक पुस्तकों का अध्ययन किया। आदरणीय प्रो. बलराज मधोक लिखित डॉ. मुखर्जी की जीवनी तथा बड़ा बाजार लाइब्रेरी, कोलकाता द्वारा प्रकाशित एवं श्री जुगलकिशोर जैथलिया द्वारा सम्पादित डॉ. मुखर्जी स्मारिका से मुझे बहुत तथ्य प्राप्त हुए। इन दोनों का मैं हृदय से आभारी हूँ।
डॉ. मुखर्जी की जीवनी लिखकर मैंने चि. पद्मेश की आकांक्षा को मूर्त रूप दिया है। आशा है पाठक जम्मू-कश्मीर की अखण्डता के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले इस महान राष्ट्रपुरुष के जीवन से राष्ट्रहित को सर्वोपरि महत्त्व देने की प्रेरणा लेकर मेरा लेखन सार्थक करेंगे।

शिवकुमार गोयल

अध्याय-1

कुलीन वंश में जन्म

2 जुलाई सन् 1909 का दिन था। कलकत्ता के भवानीपुर क्षेत्र में एक तिमंजिले मकान के एक कमरे में कोलकाता हाईकोर्ट के जज श्री आशुतोष मुखर्जी विचारमग्न मुद्रा में बैठे हुए थे। कुछ देर पहले ही उन्होंने अपनी पत्नी योगमायादेवी तथा पुत्र श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ मिलकर देवी की मूर्ति के सामने बैठकर पूजा-अर्चना व दुर्गा सप्तशती का पाठ किया था। माँ काली के भव्य चित्र के समक्ष दीप जल रहा था।
पिता-पुत्र साथ-साथ बैठे हुए थे कि आशुतोष बाबू के एक वकील मित्र ने कमरे में प्रवेश किया। उसने आते ही कहा-‘‘आशु बाबू, क्या आज का न्यूज पेपर पढ़ा है ? लंदन में मदनलाल ढींगरा नाम के युवक ने सर करजन वायली पर गोली चलाकर उसकी हत्या कर डाली।’’

आशुतोष बाबू ने तब तक समाचारपत्र नहीं पढ़ा था। उन्होंने मेज पर से समाचारपत्र उठाया। उसके मुख्य पृष्ठ पर काला बार्डर लगाकर प्रमुखता के साथ एक भारतीय क्रांतिकारी युवक द्वारा लंदन में सरेआम सभा में की गयी इस हत्या की घटना को प्रमुखता से प्रकाशन किया गया था।
न्यायाधीश आशुतोष ने कहा-अभी चंद दिनों पहले ही तो पुणें में 16 वर्षीय कान्हेरे नामक युवा क्रान्तिकारी ने नासिक के डी.एम. जैक्सन की गोली मारकर हत्या की  थी। अब लंदन में घटी इस घटना से पूरे ब्रिटेन में हड़कम्प मच गया होगा। भारत में भी क्रांतिकारी युवकों के साथ और ज्यादा सख्ती की जाएगी।’’

कुछ क्षण चिन्तन की मुद्रा में बैठने के बाद आशुबाबू ने कहा—‘‘वकील साहब ! इस प्रकार की घटनाएँ तो एक न एक दिन होनी ही थीं। किसी भी राष्ट्र को शक्ति के बल पर अधिक समय तक पराधीन नहीं रखा जा सकता। अभी देखना क्रांति की यह आग और तेजी से फैलनी है।’’
8 वर्षीय श्यामाप्रसाद अपने पिता और उनके मित्र की बातें सुनकर चौंक पड़ा। जब वकील चले गये तो उसने अपने पिताजी से पूछ लिया—‘‘रेवेल्यूश्नरी कौन होते हैं ? वे अंग्रेजों की हत्याएँ क्यों कर रहे हैं।’’

पिताजी ने कहा—‘‘तुम इन बातों से दूर रहो। अपनी पढ़ाई में लगे रहो।’’
पहली बार श्यामाप्रसाद को पता चला कि विदेशी अंग्रेजों से देश स्वाधीन कराने के लिए युवक क्रांतिकारी भारत ही नहीं अंग्रेजों के गढ़ लंदन तक में सक्रिय हो उठे हैं।

श्यामापसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई सन् 1901 को श्री अशुतोश मुखर्जी तथा योगमायादेवी के पुत्र के रूप में हुआ। उनके पितामह श्री गंगाप्रसाद मुखर्जी की एक सुयोग्य चिकित्सक के रूप में दूर-दूर तक ख्याति थी। वे बंगाल के कुलीन ब्राह्मणों में आदर्श माने जाते थे। पूरा परिवार धर्मनिष्ठ तथा आचार-विचारों का दृढ़ता से पालन करने वाला था। परिवार में माँ काली की पूजा अर्चना विधि-विधान से की जाती थी।
पिता आशुतोष मुखर्जी बाल्यावस्था में ही असाधारण मेधावी थे। बंगाल के साथ-साथ देववाणी संस्कृत भाषा के प्रति उनके हृदय में अनूठी निष्ठा थी। संस्कृत के अध्ययन के बाद उन्होंने अनेक प्राचीन धर्मग्रन्थों का अध्ययन किया। इससे उनके हृदय में सनातनधर्म  की परम्पराओं तथा मान्यताओं के प्रति श्रद्धा की भावना विकसित हुई।
श्री आशुतोष मुखर्जी की गणित की पढ़ाई में विशेष रुचि थी। वे क्षण भर में ज्यामितिक प्रश्न सुलझा देने की क्षमता रखते थे।  उनकी इस अनूठी प्रतिभा को देखकर लंदन मैथेमैटिकल सोसायटी की सदस्यता प्रदान की गयी।
29 मार्च सन् 1864 को जन्में आशु बाबू 35 वर्ष की आयु में सन् 1899 में बंगाल लेजिस्लेटिव कौंसिल के लिए निर्वाचित हुए। सन् 1903 में वे दोबारा कलकत्ता कारपोरेशन के प्रतिनिधि के नाते बंगाल लेजिस्लेटिव कौंसिल के लिए निर्वाचित हुए।

शिक्षा के क्षेत्र में उनकी रुचि अनूठी प्रतिभा को देखते हुए उन्हें इंडियन यूनिवर्सिटीज कमीशन का सदस्य मनोनीत किया गया। लार्ड कर्जन कलकत्ता यूनिवर्सिटी की प्रगति में व्यक्तिगत रुचि लेते थे। वे श्री आशुतोष की असाधारण प्रतिभा से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय का उपकुलपति मनोनीत कर दिया।
सन् 1904 में उन्हें कलकत्ता हाईकोर्ट का जज मनोनीत किया गया। कुछ ही समय में निष्पक्षता और न्यायप्रियता के लिए उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी।
न्यायाधीश तथा कुलपति जैसे सर्वोच्च पदों पर आसीन होने के बावजूद आशुतोष मुखर्जी अपने धार्मिक संस्कारों के पालन में अडिग रहे। उनका जीवन अत्यन्त सरल तथा सात्विक बना रहा।
वह प्रतिदिन गंगा स्नान करने के बाद दुर्गा सप्तशती का पाठ करते थे। मिलने आनेवाले व्यक्ति की सहायता व मार्गदर्शन करना अपना कर्त्तव्य समझते थे।

एक बार रविवार के दिन वे किसी मुकदमे की फाइल देखने में इतने व्यस्त हो गये कि गंगा स्नान के लिए जाते-जाते देर हो गयी। गंगा स्नान के बाद जब वे कंधे पर गीली धोती व गमछा डालकर हाथ में जल से भरा लोटा लेकर लौट रहे थे कि रास्ते में एक महिला ने उन्हें कर्मकाण्डी पण्डित समझा और उनके पास जा पहुँची। वह हाथ जोड़कर बोली-‘महाराज ! मेरे पति का श्राद्ध होना है, लेकिन मुझ गरीब विधवा को कोई पंडित नहीं मिल रहा है। क्या मेरे पति बिना श्राद्ध के अतृप्त ही रह जाएँगे ?’’
आशु बाबू ने उसकी करुणाभरी बात सुनी और बोले-‘‘चलो मैं श्राद्ध कराये देता हूँ।’’
वे वृद्धा की झौंपड़ी में पहुँचे पूरे विधि-विधान से श्राद्ध कर्म संपन्न कराया। जब वृद्धा भोजन करने तथा दक्षिणा ग्रहण करने का आग्रह करने लगी तो वे बोले-‘‘माँ जी, दक्षिणा व भोजन किसी गरीब को दे दीजिएगा। मैं पेशे से श्राद्ध कराने वाला पंडित नहीं हूँ।’’

उनकी अदालत का पेशकार वहीं पास ही रहता था। आशु बाबू जैसे ही वृद्धा की खोली से बाहर निकले पेशकार की नजर उन पर पड़ी। कुछ ही देर में उन्हें पता लग गया कि जज साहब वृद्धा के आग्रह पर उसके पति का श्राद्ध कर्म करवाकर निकले हैं, तो वह एक महान जज साहब की करुणा भावना व सरलता को देखकर हतप्रभ हो उठा।
दूसरे दिन पेशकार ने जब उनके बँगले पर पहुँचकर उनके पुत्र श्यामाप्रसाद मुखर्जी को पहले दिन की घटना सुनाई तो परिवार के सभी लोग हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये।
एक बार श्री आशुतोष मुखर्जी न्यायालय में चल रहे किसी मामले की जाँच करने मधुपुर गये हुए थे। कार्य पूरा होने के बाद वे कलकत्ता पहुँचने के लिये मधुपुर रेलवे स्टेशन पर पहुँचे। रेल आधा घंटा विलंब से आनेवाली थी। उनके अर्दली ने प्रतीक्षालय में सामान रख दिया। इसी बीच मधुपुर का अंग्रेज एस.डी.एम. वहाँ पहुँचा तथा प्रतीक्षालय में आराम कुर्सी पर पसरकर चुरुट पीने लगा।

श्री मुखर्जी धोती-कुर्ती पहने प्लेटफार्म पर टहल रहे थे। जब वे प्लेटफार्म से प्रतीक्षालय में आये, तब भी अंग्रेज पैर पसारे चुरुट पीता रहा। श्री मुखर्जी का अर्दली उन्हें पानी पीने के लिये गिलास देने लगा तो उसकी वर्दी देखकर वह समझ गया कि ये कोई बड़ी हस्ती हैं। उसने एकांत पाकर अर्दली से पूछा-‘‘आपके साहब कौन हैं।’’ जब उसे बताया गया कि ये जस्टिस मुखर्जी हैं, तो उसने चुरुट फेंका और खड़ा होकर उन्हें लंबा सलाम ठोंका।
बाद में उन्होंने कलकत्ता में अपने मित्र से इस घटना की चर्चा करते हुए हँसते हुए कहा-‘‘ये गोरे अफसर भारतीयों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। इन साहब से मुझे सलाम मेरे अर्दली की वर्दी ने कराया है।’’

श्री आशुतोष मुखर्जी ने रामायण, गीता तथा धर्म-शास्त्रों से भारतीयता पर दृढ़ बने रहने के सद्गुण ग्रहण किये थे। माता-पिता के प्रति वे अगाध श्रद्धा भावना रखते थे। प्रतिदिन घर से बाहर जाते समय माता-पिता के चरण स्पर्श करते थे। रात्रि के सोने से पूर्व उनकी सेवा करते थे। उनकी आज्ञा लिये बिना कोई कार्य कदापि नहीं करते थे।
एक बार लार्ड कर्जन ने उनसे एडवर्ड सप्तम के अभिषेक उत्सव में भाग लेने के लिए इंग्लैंड जाने का आग्रह किया। उन्होंने कहा-मैं अपनी माताजी से आज्ञा लेने के बाद ही इंग्लैंड जाने की स्वीकृति दे सकता हूँ।’’

माता जी नहीं चाहती थीं कि उनका पुत्र उन्हें छोड़कर उपने देश से बाहर जाए। उन्हें विनम्रता से इंकार कर दिया।
लार्ड कर्जन ने कहा-‘‘अपनी माता जी को कह दो कि देश के वायसराय तथा गवर्नर जनरल का आदेश है कि वे इंग्लैंड जाए।’’
मुखर्जी ने विनम्रता से उत्तर दिया-‘‘मेरे लिए माँ के आदेश व इच्छा से बढ़ कर किसी दूसरे का आदेश कोई महत्व नहीं रखता।’’
लार्ड कर्जन उनके निर्भीकता भरे शब्द सुनकर हतप्रभ रह गये। कलकत्ता उच्च न्यायालय के जज तथा विश्वविद्यालय के उप कुलपति जैसे पदों पर रहते हुए आशुतोष मुखर्जी अंदर ही अंदर उन दिनों देश में चल रही स्वाधीनता की लहर के प्रति पूर्ण सहानुभूति रखते थे। लोकमान्य तिलक तथा अन्य राष्ट्रीय नेताओं द्वारा स्वदेशी अभियान चलाए जाने पर उन्होंने अपने मित्र से अंग्रेजी की जगह भारतीय भाषाओं को महत्त्व देने के पक्ष में विचार व्यक्त किये थे। वे स्वयं धोती-कुर्ती धारण करने में गर्व का अनुभव करते थे। उन्होंने अपने कमरे में विभिन्न विषयों की हजारों पुस्तकों का संकलन किया हुआ था। लोकमान्य तिलक द्वारा संपादित ‘केसरी’ तथा राषट्रभक्ति की भावना का प्रसार करने वाली अन्य पत्र-पत्रिकाओं का वे नियमित अध्ययन करते थे। उनके निजी पुस्तकालय में धर्म, संस्कृति तथा राष्ट्रीयता की प्रेरणा देने वाला विपुल साहित्य था। छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोविंदसिंह तथा अन्य राष्ट्रवीरों के जीवन चरित्रों का उन्होंने गहन अध्ययन किया था। श्रीमद्भगवद्गीता को वे कर्म व भक्ति की प्रेरणा देने वाला सर्वोत्कृष्ट धर्म शास्त्र बताया करते थे।

उन दिनों कलकत्ता में यतीन्द्रनाथदास, देशबन्धु चितरंजनदास, रामानन्द चटर्जी आदि जहाँ राष्ट्रीय भावनाएँ पनपाने में लगे हुए थे वहीं कुछ बंगाली युवक क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय थे।

आध्यात्मिक विभूति भाई हनुमानप्रसाद पोद्दार उन दिनों कलकत्ता में व्यापार करने के साथ-साथ गीता के प्रचार में संलग्न थे। कलकत्ता की साहित्य संवर्द्धिनी समिति की ओर से भाईजी तथा उनके युवा सहयोगियों ने गीता का प्रकाशन कराया था। गीता के मुख पृष्ठ पर भारत माता का ऐसा चित्र दिया गया था, जिसमें वह हाथ में खडग लिये हुए खड़ी थी। कलकत्ता के प्रशासन ने इस पुस्तक को राजद्रोह को बढ़ावा देनेवाली बताकर जब्त कर लिया था।
श्री पोद्दार जी ने एक बार बताया था कि जब वे गीता के इस संस्करण की एक प्रति भेंट करने श्री आशुतोष मुखर्जी के निवास पर गये, तो उन्होंने इसके प्रकाशन के लिए बधाई दी।

श्री आशुतोष मुखर्जी ने यह अनुभव किया था कि अंग्रेज अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से युवा भारतियों को अपने साम्राज्य का हस्तक मात्र बनाये रखना चाहते हैं। उन्हें लार्ड मैकाले के शब्द याद थे कि अधिकांश अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीय अपनी संस्कृति व सभ्यता त्याग कर स्वतः अंग्रेजों के पिछलग्गू बन जाएंगे। अतः उन्होंने भारतीयता पर आधारित शिक्षा तथा बंगला संस्कृत, हिन्दी आदि भाषाओं को महत्त्व देनेवाले विद्यालयों की स्थापना की जरूरत को समझा। उन्होंने अपने अनेक धनाढ्य मित्रों को प्रेरणा देकर विद्यालयों की स्थापना कराई, जिससे बच्चे अपनी संस्कृति व परम्पराओं को अक्षुण रखते हुए पठन पाठन कर सकें।

कलकत्ता विश्विद्यालय के उप कुलपति के नाते श्री मुखर्जी ने सन् 1906 में बंग्ला भाषा की पढ़ाई शुरू कराई। उनके प्रयास से आगे चलकर भारतीय भाषाओं में एम.ए. की परीक्षा शुरू की गयी।
आशुतोष बाबू न्यायाधीश तथा उपकुलपति जैसे पदों पर रहते हुए भी देश के स्वाधीनता आंदोलन के प्रति सहानुभूति बनाये रहे। अपने राष्ट्र के सांस्कृतिक उत्थान के प्रति वे पग-पग पर जागरुक बने रहे।

अध्याय-2

माता-पिता से मिले संस्कार


श्यामाप्रसाद अपनी माता पिता को प्रतिदिन नियमित पूजा-पाठ करते देखते तो वे भी धार्मिक संस्कारों को ग्रहण करने लगे। वे पिताजी के साथ बैठकर उनकी बातें सुनते। माँ से धार्मिक एवं ऐतिहासिक कथाएँ सुनते-सुनते उन्हें अपने देश तथा संस्कृति की जानकारी होने लगी।
वे माता-पिता की तरह प्रतिदिन माँ काली की मूर्ति के समक्ष बैठकर दुर्गा सप्तशती का पाठ करते। परिवार में धार्मिक उत्सव व त्यौहार मनाया जाता तो उसमें पूरी रुचि के साथ भाग लेते। गंगा तट पर वे मंदिरों में होने वाले सत्संग समारोहों में वे भी भाग लेने जाते।

आशुतोष मुखर्जी चाहते थे कि श्यामाप्रसाद को अच्छी से अच्छी शिक्षा दी जाए। उन दिनों कलकत्ता में अंग्रेजी माध्यम के अनेक पब्लिक स्कूल थे। आशुतोष बाबू यह जानते थे कि इन स्कूलों में लार्ड मैकाले की योजनानुसार भारतीय बच्चों को भारतीयता के संस्कारों से काटकर उन्हें अंग्रेजों के संस्कार देने वाली शिक्षा दी जाती है।
उन्होंने एक दिन मित्रों के साथ विचार-विमर्श कर निर्णय लिया कि बालकों तथा किशोरों को शिक्षा के साथ-साथ भारतीयता के संस्कार देने वाले विद्यालय की स्थापना कराई जानी चाहिए।
उनके अनन्य भक्त विश्वेश्वर मित्र ने योजनानुसार ‘मित्र इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की। भवानीपुर में खोले गये इस शिक्षण संस्थान में बंग्ला तथा संस्कृत भाषा का भी अध्ययन कराया जाता था।

श्यामाप्रसाद को किसी अंग्रेजी पब्लिक स्कूल में दाखिला दिलाने की बजाए ‘मित्र इंस्टीट्यूट’ में प्रवेश दिलाया गया। आशुतोष बाबू की प्रेरणा से उनके अनेक मित्रों ने अपने पुत्रों को इस स्कूल में दाखिला दिलाया। वे स्वयं समय-समय पर स्कूल पहुँच कर वहाँ के शिक्षकों से पाठ्यक्रम के विषय में विचार-विमर्श किया करते थे। 


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