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अभिलाषा

धनराज शम्भु

प्रकाशक : हिन्दी बुक सेन्टर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5355
आईएसबीएन :81-85244-70-7

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इस संग्रह की कहानियों में मेरे देश के गाँवों एवं शहरों की ही बू आती है। इस देश का नागरिक किस परिवेश में जीता है उसकी आंतरिक एवं बाह्य परिस्थिति कैसी है। उसकी पहचान इन कहानियों में होती है।

Abhilasha a hindi book by Dhanraj Shambhu - अभिलाषा - धनराज शम्भु

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कहानी मेरी दृष्टि में

एक समय था जब तोता-मैना की कहानी सुनाकर किस्से-कहानी का रसास्वादन किया जाता था। जब तक चमक-दमक का अभाव था और टी.वी. रेडियो तथा अन्य नए दृश्य-श्रव्य उपकरण नहीं पाये जाते थे तब तक मनुष्य ने किस्से कहानियों को ही अपना मनोरंजन का साधन बनाया, पर आज इसमें बहुत परिवर्तन आ गया है। आज की कहानी कल जैसी सिर्फ मनोरंजन का रसास्वादन मात्र ही नहीं रह गई है वरन् आधुनिक कहानियों में मानव जीवन यानी जन्म से मृत्यु तक का फलक न बनकर सम्पूर्ण जीवन से सिर्फ एक घटना घटकर मात्र ही कहानी का रूप ले लेती है। कहानी सम्राट प्रेमचंद ने भी ठीक ही कहा है कि ‘‘कहानी गमले का सिर्फ एक ही फूल है’’ यानी जीवन की एक ही घटना को उद्धृत करना ही कहानी है। आज की कहानी में एक छोटी सी घटना स्थिति को कहानी का रुप दे दिया जाता है।

आज की कहानी में आम आदमी की बात होती है। जन-साधारण लोगों की उधेड़-बुन, संत्रास, संवेग, तड़प, घुटन, टूटन तथा जीवन के अनुभव अंतर्द्वन्द्व आदि को लिया जाता है। आज के कहानीकार को जीवन में सुख से ज़्यादा दुख, दर्द, संत्रास, विघटन,, दुराचार मानवता का हनन, बेचैनी, अविश्वास, नफरत आदि दिखाई देते हैं। यही कारण है कि आज के कहानी साहित्य में जीवन की यही सच्चाइयाँ उभर कर आती हैं और हमारा मनोरंजन नहीं हो पाता है बल्कि उन कहानियों के अंतः में इस तरह प्रवेश कर जाते हैं कि मकड़ी के जाल के समान ही हम भी स्वयं अपने आप को उलझे हुए पाते हैं।
जब हम कहानी साहित्य की बात करते हैं तो हर देश-भूभाग की अपनी-अपनी मिट्टी की सौंधी गंध भी ओतप्रोत होती है। उसकी भाषा में लिपटी हुई परम्परा और संस्कृति की विरासत पाई जाती है। मॉरिशस की संस्कृति अन्य देशों की संस्कृति से निराली है। कारण यह है कि यह देश बहुभाषी एवं बहुसांस्कृतिक है फिर भी यहाँ की कहानियों की भाषा अब तक शुद्ध हिन्दी ही है। अत्यधिक आवश्यकता पड़ने पर पात्रों के चरित्रों के आधार पर ही अन्य भाषाओं की सहायता ली जाती है। यहाँ पर अभी तक ‘हिंग्लिश का प्रभाव नहीं पड़ा है। अपनी भाषा की समृद्धि के आगे किसी और भाषा का सहयोग लिया जाए ऐसा यहाँ के कहानीकारों को गवारा नहीं। शैली की दृष्टि से भी एक समय में अनान्य साहित्यों से प्रभावित थी पर अब इन लोगों की अपनी शैली है। कभी तो ऐसे प्रयोग भी हुए हैं कि लोग दंग रह जाते हैं। जैसे अन्य लोग लिखते हैं कि ‘सिगरेट पीओ’ पर हम यहाँ पर ‘सिगरेट जलाओ का प्रयोग करते हैं। ‘हम भात खाते हैं’ कहते हैं पर उधर कहते हैं- चावल बनता है, चावल खाते हैं। आदि-आदि। यहाँ का पात्र भी इसी मिट्टी से लिपटा हुआ है। उन्हें अन्य लोगों की जमीन की बू या सुंदरता तो पंसद है पर अपनी मातृ भूमि की आत्मीयता, आत्म आकर्षण एवं आत्मसंतुष्टि से ज्यादा नहीं।

मेरी दृष्टि में यदि आज की कहानियों में आज की समस्याओं की चर्चा न की जाए तो उसका महत्व ही क्या रह जाता है। जिस प्रकार साहित्य-राष्ट्रीय चेतना का सर्वप्रमुख संवाहक होता है। उसी प्रकार कहानी भी समाज की चेतना का एक महत्वपूर्ण संवाहक है। यदि किसी देश, जाति या मनुष्य की भावात्मक, सांस्कृतिक या धार्मिक धड़कनों को समझना हो तो श्रेष्ठ कहानियों के नब्ज़ पर ही हाथ रखने की आवश्यकता है। आज की धड़कनों या समस्याओं को समझने के लिए ‘आज’ का आमना-सामना अति आवश्यक है। यही सबसे ताज़ी और महत्वपूर्ण चीज़ है। आज की रचना वही हो सकती है जो वर्तमान को समझने में सहायक हो सके। ऐसी ही रचना, विशेष रूप से कहानी कालजयी हो सकती है और देश एवं साहित्य का धरोहर बन सकती है।

इस संग्रह की कहानियों में मेरे देश के गाँवों एवं शहरों की ही बू आती है। इस देश का नागरिक किस परिवेश में जीता है उसकी आंतरिक एवं बाह्य परिस्थिति कैसी है। उसकी पहचान इन कहानियों में होती है। मैंने इन कहानियों में ऐसे पात्रों को प्रस्तुत किया है जिसे पढ़ते समय ऐसा ही लगेगा कि यह कोई आपबीती घटना है और यह पात्र मेरे व्यक्तित्व से ही मिलता-जुलता है। जैसे ‘‘प्रेम विवाह’’ में विवाह के पश्चात् की स्थिति से सभी लोग सोचने के लिए विवश हो जाते हैं कि कहीं मेरा जीवन भी ऐसा न हो। ‘तीन बच्चों वाली माँ’ में आज का चित्र खींचा गया है। इसमें आज के समाज में जीती हुई माँ और बच्चों के प्रति किंकिर्त्तव्यविमूढ़ता की स्थिति प्रस्तुत की गयी है। ‘मेरा बेटा’ बेटा कितना प्यारा होता है, पर जब उससे माँगें या आशाएँ पूर्ण नहीं होती हैं तो उसकी प्रतिक्रिया क्या होती है। कहानी में देखा जा सकता है। ‘बिखरती गृहस्ती’ में एक विश्वासपूर्ण गृहस्ती में आज के युग की हवा लगते ही कैसे बिखराव आ जाता है, उसी घटना का चित्र खींचा गया है कि जब मनुष्य के दिमाग में भौतिक सुख की दानवी भावना जन्म लेने लगती है तो वह अपने अस्तित्व को भुलाकर रिश्तों से नाता तोड़ नए और छिछला रिश्ता कायम कर लेता है। इसी तरह हर एक कहानी में व्यक्ति समाज और हर घर-घर की समस्याओं को उठाया गया है।

अंततः मैं अपने सभी पाठक बन्धुओं के प्रति कृतज्ञता सके दो फूल अवश्य चढ़ाना चाहूँगा जिन्होंने मेरी अन्य रचनाओं को सिर्फ पढ़ा ही नहीं बल्कि सराहा भी है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस कहानी संग्रह में संग्रहीत कहानियों को हिन्दी साहित्य में उचित स्थान प्राप्त होगा और उन सभी मित्रों के प्रति आभार प्रकट करना चाहूँगा जिनकी प्रेरणा से यह संग्रह प्रकाश में आ पाया। अब रचना आपके करकमलों में है-यह आप की ही रचना है।

प्रेम विवाह

विपिन सभी की रूदन सुन-सुन कर और भी व्याकुल होता जा रहा था। जितने मुँह उतने ही प्रकार की बातें उड़ रही थीं। सुनते-सुनते विपिन के कान पक जाते थे मगर ऐसी स्थिति में सिवाय चुप रहने के और क्या कर सकता था। सिर पर नारियल के तेल ऐसे डाले गए थे जैसे किसी गवार स्त्री का सिरदर्द से सर फटा जा रहा हो। एक दम लथ-पथ कभी कनपटी और दोनों कानों के किनारों से तेल बह रहा था। समय-समय पर आस-पास के मित्र आकर अपनी सहानुभूति प्रकट करते। विपिन का मुँह जैसे खुलना नहीं चाहता हो पर दो होंठ धीरे से थिरक जाते और धन्यवाद शब्द फूट पड़ता।

अक्षय अभी साढ़े तीन साल का छोटा सा पतला और साँवला रंग का गंभीर चेहरे वाला बालक था। उसे न तो हंसी-मज़ाक ही आ रहा था और न ही रूदन। किसी के बुलाने पर भी वह नहीं जाता, हालांकि चाचा लींबो से वह खूब हिल-मिल गया था। आज ऐसी स्थिति में जैसे किसी को पहचानता ही नहीं। एक बड़े आदमी की तरह अंदर ही अंदर जैसे सारी चिंताओं और भावनाओं को छिपाए गम्भीर मुद्रा में चुपचाप बैठा कभी पिता को तो कभी स्त्रियों की ओर टुकर-टुकर देख रहा था। कभी पिता की जाँघों पर सिर रखकर दो क्षण के लिए आराम कर लेता था। मगर खाने-पीने की सुध उसे बिल्कुल न थी।
विपिन से उस समय रहा न गया जब अनीला की छोटी बहन और उसकी माँ लंगड़ाती हुई आई और दरवाज़े की चौखट ही से चिल्ला कर कहने लगी-‘‘अनीला के पिता की जब मृत्यु हुई थी तो यह सिर्फ सोलह महीनों की थी। तब से अपने टूटे पैर से उसे पाल-पोस कर, पढ़ा-लिखाकर इस लायक मैंने बनाया, अभी ही इसे ऐसा करना था। हाय रे मेरे मालिक ! इसकी जगह पर मुझे क्यों न,

....‘‘और फूट-फूट कर चिल्ला कर एक लम्बी साँस ली और वहीं लुढ़क गयी। कुछ स्त्रियों ने उसे सहारा देकर अंदर के एक पलंग में लिटा दिया। उसके सिर पर भी नारियल का तेल थोपा गया। अनीला की बहन शीला की आँखें भी नम हो चुकी थीं। कैसे न रोती। एक साल का ही तो दोनों में अंतर था। उसे याद आ रहा था जब अनिला ने अपनी एस.सी. परीक्षा पास की थी और वह लोवर सीक्स में पढ़ना नहीं चाहती थी तो अनीला ने कहा था-‘‘देखो शीला, माँ अपनी टूटी टाँग से हमें पढ़ा रही थी। हमारे लिए कितने कष्ट सह रही होगी। उसकी आशा होगी कि लड़कियाँ पढ़-लिख जाएँ तो अच्छा घर और अच्छा पति मिल सके। अगर तुम अभी से ही हताश हो गयी तो आगे क्या होगा ?
शीला के दिमाग में जैसे एक-एक बात कौंध रही थी और आँखों से आँसू के दो निशान बह रहे थे। वह मन ही मन सोच रही थी कि अनीला अपनी छोटी सी उम्र में कैसे बड़ी दादी जैसी बातें करती थी।

विपिन को शीला की यह स्थिति देखकर डर लगने लगा कि कहीं वह शुरू की सारी बातें कह-कह कर रोने न लगे। उसे देखकर विपिन अपनी पुरानी बातों को याद करने लगा जब उसने प्रथम बार अनीला को प्रेम से देखा था और शीला से सिफारिश करवाया था। फ़्लाक के स्टेट कॉलेज का रास्ता था। विपिन ज्यों ही बस से उतरा तो उसकी आँखें दोनों बहनों पर जैसे पड़ी उसकी धड़कन तेज हो गई। उसने सोच लिया कि आज अनीला से वह बात कह कर ही रहेगा। अभी इतना सोच ही रहा था कि शीला का पेंसिल बाक्स (कलमदान) नीचे गिर गया। वह जब तक उसे उठाती रही अनीला आगे निकल गई और विपिन शीला के पास आ गया था।
नमस्ते शीला ! विपिन ने एक मीठी मुस्कान बिखेरते हुए कहा।

नमस्ते ! आज बड़ा सवेरे ही आ रहे हो। तुम तो कहते हो तुम्हारे गाँव से बस ही नहीं मिलती है। शीला ने चंचल और स्वाभाविक स्वभाव से कहा। हाँ, जानती हो क्यों मैं सवेरे आ गया, राज़ की बात है किसी से कहना मत ! आज मैंने एक मुर्गा अपने पलंग की टाँग से बाँध दिया था। ज्यों ही चार बजे मुर्गा बाँग देने लगा। मेरी नींद खुल गयी।
दोनों ठहाके के साथ हँसने लगे। तभी एकाएक विपिन गंभीर होकर कहने लगा।
शीला मैं तुम से एक बात कहना चाहता हूँ पर कुछ डर सा लगता है। डर और तुम्हें शीला हँसने लगी।
शीला मैं तुम्हारी बहन अनीला को चाहने लगा हूँ। पता नहीं क्यों हर समय उसकी याद मुझे सताती है। हर अदा आँखों के सामने दिखती है। मैं बता नहीं सकता। मेरा जीना हराम हो गया है। अगर तुम उससे कह दोगी तो मैं तुम्हारा एहसान जीवन भर नहीं भूलूँगा।

ह ! इतनी सी बात, मैं सोच रही थी कि तुम आसमान के तारे तोड़ लाने को कहोगे। ये तो मेरे दायें हाथ का खेल है। शीला ने बडे़ स्वाभाविक ढंग से हँसते-हँसते कहा।
सच ! तुम कह सकती हो ! कल मुझे जवाब देना...
अच्छी बात है। मैं चली....

इतना कह कर शीला दौड़ कर अपनी बहन के साथ चली गई। इधर विपिन भी अपने लड़कों के डिपार्टमेंट में चला गया पर उस दिन पढ़ाई में विपिन का मन बिल्कुल नहीं लग रहा था। उसे सिर्फ कल की प्रतीक्षा थी। आखिर एक लम्बी और भारी रात के बाद सुबह आ ही गई। एक रोज़ पहले की तरह विपिन अनीला का इंतजा़र कर रहा था। लगभग आठ बजे शीला और अनीला बस से उतरीं। उन्हें देखते ही विपिन का दिल जैसे धक से रह गया। वह उनके साथ चलने लगा। शीला अपने आप में मुस्करा रही थी पर अनीला एकदम गम्भीर थी। आखिरकार वह वेदना देने वाली घड़ी आ गई जहाँ से उसको अलग होना था विपिन ने शीला को इशारा करना चाहा पर शीला चली गई और अनीला ने रूककर विपिन की ओर देखते हुए कहा- ‘‘यह एक जवाब है, इसे कहीं अकेले में अच्छी तरह पढ़ना।’’ इतना कहकर वह चली गई।

अंधा क्या चाहे दो आँखें। विपिन दीवार के सहारे रुक गया और पत्र पढ़ने लगा। हर पंक्ति के बाद उसके दिल की धड़कने तेज़ होती जाती और वह उस पंक्ति का इंतजा़र करता रहा जहाँ पर लिखा हो मैं भी तुमसे प्यार करती हूँ। पर वह वाक्य कहीं नहीं आया, बल्कि यह वाक्य आया कि अभी तो एक परीक्षा और है अगर इंतजार कर सको, फिर जीवन साथी बनने के लिए अच्छी तरह निर्णय कर लेना अच्छा है। विपिन को यही वाक्य पसंद आ गया और उसे विश्वास हो गया कि अनीला गैर ज़िम्मेदार लड़की नहीं। दूसरे दिन विपिन ने पूरी सूझ-बूझ के साथ एक पत्र लिखा और कहा कि मुझे तुम पर पूरा भरोसा है और मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा।

आखिर दोनों की प्रतीक्षाएँ प्यार और फिर प्रेम विवाह में बदल गईं। दोनों एक-दूसरे के जीवन साथी बन गए। जीवन रंगीन हो गया। दोनों ही प्राइवेट कॉलेज में अध्यापन कार्य में रत हो गये। समय के साथ एक मुन्ना भी उनके जीवन में आ गया। विपिन फिर भी प्रसन्न था। उसे कुछ और पढ़ने की इच्छा थी। काफी विचार विनिमय के बाद अनीला ने कहा-अच्छा तुम पढ़ने जा सकते हो। पैसे की चिंता नहीं ! मैं तुम्हें पैसे ज़रूर भेजूँगी। आज विपिन एम.ए. है। वह सोच में डूबा है कि अनीला ने मेरे लिए कितना बड़ा त्याग किया होगा अभी वह इसी ध्यान में मग्न था कि एकाएक उसकी दर्द से कराहती हुई, अपनी चेतनावस्था में खोती हुई लंगड़ी-सास ज़ोर से चीखने लगी। विपिन सकपका गया और अपनी सामान्य स्थिति में आ गया। उसकी सास फिर अनीला के पास आई और छाती-पीट-पीट कर कहने लगी-‘‘नहीं ऐसा नहीं हो सकता। अभी तो शुक्रवार को अच्छी-भली थी आज रविवार को ही क्या हो गया।’’

तभी पास मैं बैठी एक स्त्री ने कहा-‘‘अब मत रो बहन, जो होना था सो तो हो गया। भगवान पर भरोसा रखो।’’ रोती हुई, ‘‘नहीं अब तो उस पर विश्वास नहीं कर सकती। उसने मेरे साथ विश्वासघात किया है। विधवा होकर महीने की बच्ची को एच. एस. सी तक मैंने पढ़ाया नौकरी मिली। जब खाने-पीने के दिन आये तो मुझसे छिन गई। कैसे मैं विश्वास कर लूँ। कहती हुई बहुत ज़ोर से साँस ली और एक बार फिर बेहोश हो गई। तभी अनीला का बड़ा भाई जो पुलिस कांसटेबल में भरती हो चुका था उसने अपनी माँ को उठाना चाहा कि अनीला का सिर छू गया जहाँ पर चोट का एक गहरा निशान था। उसका मन छनका। उसने उसको अच्छी तरह देखा उसको लगा कि अनीला की गर्दन के पास उंगलियों के भी कुछ धुंधले निशान नज़र आये। अब उसे पक्का विश्वास हो गया कि उसकी बहन ने आत्म हत्या नहीं कि है। दाल में जरूर कुछ काला है। पहले से भी उसने अपने जीजा की हरकतों के बारे में सुना था। उसने विपिन की ओर एक नजर देखा-अब उसका चेहरा उसे कसाई जैसा लग रहा था। इससे पहले कि वह अपने जीजा से कुछ पूछता कि पण्डित जी ने कहा- ‘‘चलिए, सभी लोग पण्डाल में चलिए अब लाश उठाने का समय हो चुका।’’

अनीला का भाई मन ही मन सोचने लगा कि मैं इसे रूकवा दूँ, मगर उसे कौन सुनता। अंतिम क्रिया होने के समय शायद अच्छा भी नहीं । पर उसे अपने मन की शंका खाई जाती रही। उसने दृढ़ संकल्प किया और अपनी माँ से कहा- ‘‘माँ मेरे साथ चलो। अनीला मरी नहीं है उसे मार कर जबरदस्ती ‘ग्रामोक्ज़ोन’ ज़हर पिलाया गया है।’’ माँ को भी शक था। वकील का सहारा लेकर डॉक्टर से दोबारा पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट माँगी गई। उधर सी.आई.डी. के आदमियों ने अक्षय की प्री.प्राइमेरी पाठशाला से उसकी माँ के बारे में पूछ-ताछ की थी।

एक रात जब अनीला का भाई जीजी के पास सी.आई. डी. के साथ आया तो देखा कि विपिन नशे में चूर है। उसका भाई लींबो भी नशे में चूर हाँकू-हाँकू कर, एक छुरी से उसे झार रहा था और कह रहा था...‘‘चिंता मत करो...चिंता मत करो...। सब ठीक हो जाएगा। तुम्हारे सिर पर कोई चिंता नहीं होगी...। मैं हूं न गर्दन तो मैंने दबाई थी। अब उनको निशान कहाँ से मिलेंगे लाश तो जल गयी।
....। हँसते हुए उछल-कूद कर....आह ! ग्रोंजीमुन तू दॉ उ लायें।’’ सब आपके सामने हैं।
उधर विपिन नशे में रोते हुए भी बोले जा रहा था, ‘‘ये मैंने क्या कर दिया, अनीला ये सब क्या हो गया...ऐसे क्यों हो गया...?’’


तीन बच्चों वाली माँ


युवावस्था में सभी लोग स्वतंत्र होते हैं। हरेक व्यक्ति अपने शरीर की सुंदरता पर विशेष ध्यान देता है। वह कभी किसी से कम सुंदर नहीं दिखना चाहता। वह यही चाहता है कि लोग उससे प्रेम शिष्टाचार से मिलें। वह सभी की आँखों की पुतली हो जाए। रजू इन्हीं भावनाओं के साथ अपनी पच्चीसवीं वर्षगाँठ मना रहा था। शरीर की सुंदरता पर विशेष ध्यान देता था। हाँलाकि वह एक गरीब परिवार में पला था। छठी कक्षा के बाद वह आगे पढ़ न सका था पर इस मॉरिशस देश की तो यही विशेषता है कि चाहे आदमी पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, युवावस्था में किसी प्रकार का अंतर नहीं रहता। सभी अच्छे कपड़े, जूते पहन लेते हैं। हर स्टाइल में अपने बालों को बनवा लेते हैं। रजू भी आजकल के अभिनेताओं की तरह लम्बे, घुंघराले बाल और पोशाक के आकर्षण से किसी युवती को घायल कर सकता था। दीना भी उसी का शिकार हो गयी। रजू और दीना में प्रेम हो गया।

दीना बहुत प्यारी सी, नाटी, गोरी, मोटी आँखों वाली युवती थी। वह कारखाने में काम करती थी। छठी के बाद कुछ लोगों के घरों में कार्यरत थी फिर उम्र सोलह की होते ही वह कारखाने में जाने लगी। उसके लिए मानो आज़ादी मिल गई। वह ऊपर-ऊपर उड़ने लगी। साज-श्रृंगार और यौवन से उस में स्वाभिमान भी भर गया था। जवान लोगों के साथ घूमना, बात करना या उनके साथ एक कप चाय लेना या एक साथ किसी कॉफी शॉप में बैठकर गप्पें मारना जैसे आम बात हो गयी है। दीना अपने आप में खूब खुलकर जीने लगी थी।
एक रोज़ जब दीना नौकरी से लौट रही थी तो रजू भी उसी सीट पर बैठा हुआ था। वह दीना से बात करने लगा। दोनों ऐसे बाते करने लगे कि बरसों से वे एक-दूसरे को जानते हों। वे इतने खुलकर बोल रहे थे मानो अपरिचित नाम की कोई चीज़ ही नहीं। दीना ने मुस्करा कर कहा-
तुम्हारा नाम क्या है ?

रजनीश, लेकिन प्यार से लोग मुझे रजू ,कहते हैं। तुम भी इसी नाम से पुकार सकती हो।
इसी नाम से, अच्छा मैं तुम्हें इसी नाम से पुकारूँगी रजू। लेकिन तुमने तो मेरा नाम पूछा ही नहीं। क्या तुम मेरा नाम जानना नहीं चाहते ?
क्यों नहीं, जो पहली बार यह न जानना चाहे तो समझो कि उसकी बुद्धि कहीं चरने गई है। अब तो बता ही दो कि....
अच्छा-अच्छा बस, तुम्हारी बुद्धि कहीं चरने नहीं गई है-सुनो मेरा नाम दीना है।
वाह ! बड़ा प्यारा नाम है। अच्छा तुम किस कारखाने में काम करती हो। मेरा कोई निश्चित ठिकाना नहीं है। जहाँ मेरा जी चाहे वहीं काम करती हूँ कभी यहाँ तो कभी वहाँ, कभी दस्ताने तो कभी कपड़े कभी ऐनक तो कभी आभूषण के कारखानों में काम करती हूँ। जहाँ जी लगे वहीं काम करती हूँ...और तुम रजू ?
मैं...मैं आजकल एक गैरेज में मोटर आदि रंगने का काम कर रहा हूँ। काम चलता है बस प्रसन्न हूँ। पैसे मिलते हैं और क्या चाहिए।

दोनों में बातें हो रही थीं। बस शाम की हवा और धुंधलके को चीरती हुई हवा से बातें कर रही थी। कुछ-कुछ रोशनी किसी लैंपोस से आ जाया करती थी। ठण्ड का मौसम था इसलिए कुछ जल्दी ही अंधेरा होने लगता था। उन लोगों के लिए यह नज़ारा जैसे और भी रोमांटिक हो गया था दोनों के मन में यही इच्छा पनप रही थी कि यदि रास्ता और लम्बा होता तो अच्छा होता, मगर सभी इच्छाएँ यों ही नहीं पूरी हो जातीं। दीना अपने घर के पास आ गई थी। उसने बस की घंटी बजाई रजू उछल सा गया। उसका मन बैठने लगा। सोच रहा था कि यदि कभी फिर उससे मुलाकात होगी तो साफ-साफ कह देगा कि वह उसे चाहता है और उससे शादी करना चाहता है। अंधा क्या चाहे दो आँखें ही। उसकी मुलाकात होती रही एक नहीं एक सप्ताह में दो या तीन बार और बात यहां तक बढ़ी कि शादी भी हो गई।

शादी का पहला वर्ष किसी तरह आरामदायक था। दोनों ने एक-दूसरे को समझा प्यार गहराया और गृहस्ती की ज़िम्मेदारी भी उन लोगों ने समझने की कोशिश की। एक वर्ष बाद एक लड़की का जन्म हुआ। प्रथम बच्चा किसे प्यारा नहीं होता। दीना और रजू ने प्रथम बार माँ-बाप बनने का सुखद अवसर प्राप्त किया। दीना ने बच्चे के लालन-पालन के लिए नौकरी छोड़ दी। रजू कड़ी मेहनत करने लगा। दीना चाहती थी कि ज्यों ही कृति कुछ बड़ी हो जाए तो फिर नौकरी कर लेगी मगर ऐसा नहीं हो पाया। दीना पुनः गर्भवती हुई और एक और बेटी का जन्म हुआ। नेहा को पाकर दोनों में इतनी खुशी नहीं हुई जितनी कि कृति को पाकर हुई थी। रजू हमेशा सोचता रहा कि इस बार लड़का होगा तो ठीक होगा।

उसने नाम भी सोच रखा था। यदि लड़का होगा तो उसे योधिश नाम से पुकारता लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। इस तरह तीसरे वर्ष में लड़का पाने की आशा में दीना एक बार फिर गर्भवती हुई और एक और लड़की का जन्म हो गया। दोनों को निराशा हो गई। दीना ने सोचा इतनी जल्दी-जल्दी बच्चे पैदा करने की क्या आवश्यकता थी। जैसे औरत सिर्फ बच्चे पैदा करने की मशीन हो गयी हो। रजू भी सोचता-ईश्वर ने शायद किसी पाप की सज़ा दी होगी। जो लड़का चाहता है उसे लड़की मिलती है और जो लड़की उसे लड़का। एक रोज़ वह दीना से कह रहा था-दीना ! हमें इतनी जल्दी बच्चे नहीं पैदा करने चाहिए थे। एक हुआ, चलो वह हमारे प्यार की निशानी सही पर ये दोनों तो हद ही हो गई।
तो तुम क्या कहना चाहते हो क्या मुझे पसन्द है। इतनी कम उम्र में तीन लड़कियों की माँ बनकर जीना कोई आसान काम नहीं है। बीस साल की उम्र में तो मेरी सहेलियों की अभी तक शादी तक नहीं हुई।
अरी दीना तुम तो सौभाग्यवती हो, जो माँ बन गयीं। कितनों के भाग्य में तो यह भी नहीं।

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