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कहानी संग्रह >> सुलगते चाँद के नाम

सुलगते चाँद के नाम

अरुणा कपूर

प्रकाशक : स्टार पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5354
आईएसबीएन :81-7650-094-1

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नारी उत्पीड़न पर आधारित कहानियाँ...

Sulgate Chand Ke Naam

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘सुलगते चाँद के नाम’’ मेरे लिए मात्र एक कहानी संग्रह नहीं, एक बड़ा कैनवास जिस पर नारी जीवन के अलग-अलग चित्र बनाने की चेष्टा की है। हो सकता है पाठक इन चित्रों में काले रंगों के अधिक होने का आक्षेप करे, किंतु विश्वास कीजिए ये रंग अपने आप ही फलते गये। नारी मन की कुंठा, उसका शोषण-उत्पीड़न आज भी बदस्तूर जारी है यह इस कहानी संग्रह को पढ़कर आप लोग भली भांति जान जाएंगे।
इस संग्रह में लेखिका की नवीनतम कहानियों के साथ-साथ उनका एक बहुचर्चित नाटक ये भी अच्छी रही’’ संकलित है। इस नाटक का अमेरिका में कई बार सफल मंचन हो चुका है।

प्राक्कथन

‘‘सुलगते चाँद के नाम’’ मेरे लिए मात्र एक कहानी संग्रह नहीं, एक बड़ा कैनवास जिस पर नारी जीवन के अलग-अलग चित्र बनाने की चेष्टा की है। हो सकता है पाठक इन चित्रों में काले रंगों के अधिक होने का आक्षेप करे, किंतु विश्वास कीजिए ये रंग अपने आप ही फलते गये। नारी मन की कुंठा, उसका शोषण-उत्पीड़न आज भी बदस्तूर जारी है यह इस कहानी संग्रह को पढ़कर आप लोग भली भांति जान जाएंगे।
आज से कुछ वर्ष पहले नारी जीवन को कुछ सीमित समस्याओं से जूझना पड़ता था, बचपन से वह मानसिक रूप से वैसे ही तैयार की जाती थी। किंतु इक्कीसवीं सदी की नारी किसी दबाव तले आने से चाहे इंकार करे वह अब भी एक कमजोर नारी ही है। इस बात का सर्वेक्षण किया जाए तो मन ही मन हर नारी ऐसी स्थिति के होने की बात स्वीकार करेगी।

कहने को आज नारी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा रगड़ती अपने योग्य होने का दावा करती है। उच्च पदों पर आसीन आदरणीया अफसर-मिनिस्टर से लेकर सफल व्यवसायी के रूप में भी उसने यह दिखा दिया है कि वह हर क्षेत्र में उतनी ही सक्षम है जितना कि पुरुष। किंतु क्या पुरुष यह स्वीकार करने को आज भी राजी है ? क्या वास्तव में वह नारी का वह अधिकार और आदर देने को तैयार है जो उसका हक है ?।
दृष्टि घुमाएं तो समाज में सैकड़ों ऐसी नारियों से आप  का साक्षात्कार होगा जो अब घर-बाहर के दोहरे शोषण—उत्पीड़न का शिकार हैं। जो शारीरिक और मानसिक यातनाएं उन्हें आज से पचास साल पहले दी जाती थी, अब भी दी जाती हैं अन्तर इतना है कि इन नारियों का अहम उन्हें प्रत्यक्ष रूप से कुछ कहने को रोकता है, क्योंकि वे स्वीकार करना नहीं चाहती कि इतना सब प्राप्त करने के बाद भी वे वहीं हैं, जहां से चली थी।

‘‘आज तुम होते’’ की मां घर-घर, गली-गली चुपचाप आंसू बहाते दिख सकती है जिसे अपने बेटे द्वारा ही ‘‘घर से निकाले’’ का शिकार होना पड़ा। ‘‘दोहराओ जरा’’ की बर्तन मांजने वाली लड़की स्वयं अपने पिता की ही हवस का शिकार बनी, ऐसे दृष्टान्त आए दिन अखबारों में मुख्य पृष्ठों पर देखे जा सकते हैं।

‘अन्तत-’’ की आकांक्षा दफ्तरों में शारीरिक शोषण का शिकार होने वाली उन युवतियों का प्रतिनिधित्व करती है जो हालात से हारकर ऐसे घिनौने समझौते करने को मजबूर हो जाती हैं। ‘‘एक सी’’ और ‘‘फिर वहीं से’’ नायिकाएं अलग-अलग देशों की होते हुए भी पति द्वारा शारीरिक व मानसिक प्रतारणा का सामना करती हैं। अत्याधुनिका होते हुए भी वे अनपढ़-गंवार की भांति पुरुष का अत्याचार सहती हैं। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘‘सुलगते चांद के नाम’’ आदि काल से नारी को पुरुष के लिए जिन्दा जला दिए जाने की एक ऐसी प्रथा का वर्णन है, जो आज भी चलाई जा रही है और हम दावा कर रहे हैं नारी उत्थान का, उसे पुरुष के बराबरी का दर्जा देने का।

चांद को शीतलता का प्रतीक माना जाता है, क्या वास्तव में वह शीतल रह पाया है ? रात के अंधेरे में सिर उठा कर आकाश की ओर ताकते हुए न जाने कितनी नारियों ने अपनी दुख गाथाओं से उसे झुलसाया है, कितने रहस्य कितनी पीड़ा, कितने हृदय विदारक दृश्य उस चांद ने देखे हैं, और चुप रहा है। आपको ऐसा नहीं लगता कि कभी-कभी रात को नारंगी दिखने वाला चांद उन आहों की लपट से सचमुच सुलगने लगा है ? सिर उठाकर देखिए तो सही—।
प्रत्येक कहानी को लिखते हुए कहानी की नायिका के साथ मैंने वह अनुभव जिया है। पात्र के बिलखने पर रोई हूँ। उसके शरीर पर पड़ती चोट मेरे शरीर पर भी वही टीस छोड़ गई है। ऐसे में अपनी कलम से हटकर मैं यह भी सोचने लगती हूँ—ये नारियां आख़िर इन अत्याचारों का उत्तर उल्टा वार करके क्यों नहीं देतीं ? किंतु मेरे वे प्रश्न बार-बार कुलबुलाते हैं, और उत्तर आसपास होते हुए भी कोई ढूंढ़ नहीं पाता।

आवश्यकता है नारी की आत्मशक्ति जगाने की, अपने ‘‘मैं’’ की शक्ति को पहचान कर प्रतिकार करने की। यह पहल उन्हें करनी होगी, केवल कार्यक्षेत्र में ही नहीं, अपने जीवन में भी। अनाचार सहने वाला भी अनाचार करने वाले से कम दोषी नहीं होता। मेरी यह सोच है कि स्त्री यदि घर से बाहर निकलकर योग्यता में पुरुषों को पछाड़ सकती है, तो निजी जीवन में भी उन्हें संयम से रहने का सबक दे सकती है। पुरुष को ईश्वर ने ऐसा कुछ भी विशेष नहीं दिया है कि स्त्री उससे डरे या दबे।
आशा है कहानी संग्रह पाठकों को पसंद आएगा।
शुभकामनाओं सहित

अरुणा कपूर

आज तुम होते तो !

मुनिया का जुराब अभी अधूरी थी और सरला के हाथ थे कि हिलने से ही इन्कार कर रहे थे। रात ही रात में पोती का झबला सैट पूरा करने की उमंग में शाम से अब तक झबला, टोपी और जुराब तो बना ली थी, किंतु कम्बख्त गठिया का दर्द अब दूसरी पूरी करने की इजाजत ही नहीं दे रहा था। ऊपर से ठंड भी ऐसी कड़ाके की कि जैसे छुरे की तेज़ धार से शरीर को चीरकर रख देगी। बुढ़ापे का शरीर, फिर दर्द जो एक तरह से लाईलाज है, सरला को अकसर रात-रात जगाता। वह फिर भी मगन रहती अपने बेटे-बहू में, पोते-पोती में। रविकान्त के न होने की कसक वह उनकी बातों में, किलकारियों में भुला देती। एक बेटा जो उसने मांग-मांग कर लिया, एक बेटी जो उसकी लाड़ली है। यही तो है अब उसका संसार।

मुस्करा कर सरला ने अनायास ही सलाई चलाई, दर्द के मारे एक दबी सी चीख निकल गई उसके मुंह से। रात के बारह बज रहे हैं। विकास और सपनीली बच्चों को सुला कर कब सो चुके थे। बच्चे कभी चोरी-छिपे, कभी जिद से सोने से पहले एक बार जरूर आकर उससे चिपटते हैं। पिता की डांट, मां की धमकियां, कुछ भी काम न आता। दादी के थुलथुल शरीर से लिपट कर सोने का सुख वे कभी भी गंवाना नहीं चाहते थे। सरला को भी उनके बिना नींद न आती। आज घर में कुछ मेहमान आए थे। उनके बच्चों के साथ खेलते हुए वे बैठक में ही सो गए थे सरला अभी बिस्तर से हिल नहीं पाई थी दर्द की वजह से। अभी तो यह दर्द हाथ की उंगलियों और एक घुटने को ही दबोचे है, पता नहीं धीरे-धीरे शरीर के और कितने हिस्सों को जकड़ेगा। भगवान उसे चलते चलाते उठाले, किसी पर बोझ न बने वह।

विकास लाखों से अच्छा है, बहू सपनीली भी सीधे कभी उसके सामने ज़बान नहीं खोलती। सरला भी अपनी सामर्थ्य से अधिक काम कर देती है। बस कभी-कभी बच्चों की देख-रेख के बारे में उसे सरला के तौर-तरीके पसन्द नहीं आते अरे इतना तो चलता ही है—वो भी कई बातें पसन्द नहीं करती सपनीली की, आखिर वो उसकी इकलौती बहू है।
विकास के पिता रविकान्त एक सरकारी महकमें में ऊपर डिवीजन क्लर्क थे। अपने दोनों बच्चों, विकास और मीरा को उन्होंने अपनी औकात से अधिक खर्च कर पढ़ाया-लिखाया, अच्छे से अच्छा खिलाया पिलाया। फलस्वरूरप अपने अन्य साथियों की भांति अधिक फल-फूल नहीं सके और रिटायर होने के बाद बड़ी मुश्किल से सौ गज़ के प्लाट पर दो मंजिल मकान बनवाकर गले तक कर्ज में डूब गए। इसी चिन्ता में बीमारियों से घिरे एक दिन जा सोए, तो सोए ही रह गए। गनीमत यह थी कि मीरा का विवाह करने के बाद विकास की भी सगाई कर चुके थे। वरना अकेली सरला क्या बिना पैसे के यह सब कर पाती ? विकास घर चलाता, या यह बोझ उठाता ?

धीरे-धीरे उन्नति करता हुआ विकास एक बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनी का एरिया मैनेज़र बन गया था, इधर शादी की तैयारी की, उधर लेने वाले तकाज़े कर रहे थे। एक तल के दो कमरों में उसका दम घुटता था, शान में कमी आती थी। पहले तल के पन्द्रह सौ के किराए से कहीं कर्जे चुकते 1 यह मकान बेचकर कोई बड़ा मकान ले लेना चाहिए, यह बात सरला को समझाने में उसे ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। फिर जो भी हाथ खर्च की जरूरत होगी, वह भी विकास उसे देगा ही। सरला ने सोचा बाकी जीवन बेटे के साथ ही तो काटना है चुपचाप उसने मकान के कागजों पर साइन कर दिए थे। बेटे को अपनी पोजीशन के मुताबिक रहने का तो हक है न। फिर इतने बड़े घर की बहू बन कर आएगी, उसके भी तो कुछ अरमान होंगे।

मकान बेचकर विकास ने कर्जे चुकाए, कुछ और पैसे मिलाकर और ऑफिस से उधार लेकर-यह चार सौ गज का आलीशान मकान खरीदा—विवाह हुआ-दुल्हन के मुबारक कदम आए—एक एक करके पहले आशु और डेढ़ साल पहले मुनिया आई।—सरला तो धन्य-धन्य हो गई इतना प्यारा परिवार—इतने प्यारे पोता-पोती—। सिवाय रविकान्त के अब उसके जीवन में कोई कमी नहीं थी।

कभी-कभी सरला रविकान्त से सपनों में बातें करती, उसे बताती कि आज—उसके पीछे उसका परिवार कितना फल फूल रहा है—तुम्हारे जीवन की सारी कमियां तुम्हारे बेटे ने पूरी कर ली हैं—तुम्हारी मेहनत के पैसों में अपने पैसे मिलाकर उसने तुम्हारी पोजीशन इतनी ऊंची बना ली है। सच आज तुम होते तो गर्व से तुम्हारा सीना फूल जाता—ऐसा बेटा क्या सबको मिलता है ?—दवा और पथ्य की कमी में मरने वाले रविकान्त की आत्मा जैसे सचमुच गद्गद् हो उठती।
वैसे सरला को यह दर्दों की बीमारी तो शायद नहीं हुई होती, अगर पिछले साल कार दुर्घटना में उसके घुटने और हाथों में जबर्दस्त चोट न लगी होती। बहुत से इलाज के बाद भी उसके हाथों और घुटनों में अन्दरूनी दर्द ऐसा बैठा गठिया बन गया। सरला को इसका गम भी नहीं था। क्योंकि यह हुआ था उसके कलेजे के टुकड़े पोती-पोतों की वजह से। सपनीली कार में सरला व दोनों मार्केट जा रही थी, सामने आती कार ने ऐसी टक्कर मारी कि कार एक ओर से भीतर की ओर घचक गई। सपनीली को तो कुछ चोटें आईं किंतु सरला ने खुद चोट खाकर भी दोनों बच्चों को खरोंच तक नहीं आने दी।

सरला महीना भर अस्पताल में रही। विकास और सपनीली रोज अस्पताल आते और सरला को बार-बार धन्यावाद देते। सरला तब दुखी होती थी बच्चे क्या उसके कुछ नहीं लगते ? क्या वह विकास को इस तरह अपनी जान पर खेल कर बचाती तो वह उसे धन्यावाद कहता ? ’फरि उसने अपने मन को समझा लिया नए जमाने की अंग्रेजी की सभ्यता सॉरी और थैंक्यू कह कर सारे कर्ज उतार देने की जल्दी शायद उसका बेटा भी सीख गया है। अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने का यही फायदा है शायद।

सपनीली और विकास लाखों बच्चों से अलग हैं। उसे कितनी अच्छी तरह रखते हैं। खाने-पीने रहने किसी  बात में कमी या तंगी नहीं। और बच्चे तो उससे ऐसे चिपटे रहते हैं कि पूछो मत। उसकी मासूम शरारतें—उनकी प्यारी-प्यारी बातें-इन्हीं सब से तो चल रहा है उसका जीवन-विकास भी तो ऐसा ही था। रविकान्त की मृत्यु पर विकास का मोह न होता तो शायद वह भी रविकान्त की चिता में जा समाती। चाहे विकास हर समय उसकी गोद में न लेटा हो, वह उसे दूर से ही देख कर ममता से लहलाती रहती। उसका सुदर्शन चेहरा, रौबीला व्यक्तित्व और व्यस्त जीवन देख कर वह अभिमान से भर उठती। यह उसकी कृति है—उसका बेटा—है कोई और मां जिसने जन्मा हो ऐसा लाल ?
कभी कोई पड़ोसिन ताना देती—‘‘अरी इता मोह न कर इनसे’’ ये मीठी छुरी से काटते हैं कलेजा। सरला उन्हें झिड़क देती।
तेरे होंगे ऐसे-ढेर सारे बेटे हैं न—मेरा तो इकलौता है, इतने मान से रखता है मुझे—ऐसे बेटे चिराग लेकर ढूँढ़े नहीं मिलते-तुझे जलन होती है न—।

पड़ोसिन सच में दुखी हो उठी। चार बेटों के झगड़ें में फंसी वह सचमुच अभागी थी। मीयाद बांधते थे अपनी मां को अपने साथ रखने की। कभी इस बेटे के दरवाजे, कभी उस बेटे की कृपा पर वह धक्के खाती रहती। बहुओं को उसका खाना-पीना, पहनना, ओढ़ना भी भारी पड़ती। एक कहती ‘तू कर’—दूसरी कहती ‘तू कर’। पोते-पोती अपनी गंवार दादी से दूर रहते। बेचारी विधवा जैसे-तैसे जीवन ढो रही थी। उसकी ऐसी दुर्दशा देखकर सरला सिहर जाती ऐसे चार बेटो से तो वह अभागी निपूती रहती।


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