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हास्य-व्यंग्य >> प्रतिबिम्ब

प्रतिबिम्ब

नरेन्द्र आहूजा

प्रकाशक : हिन्दी बुक सेन्टर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :101
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5351
आईएसबीएन :81-85244-69-3

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प्रस्तुत पुस्तक ‘प्रतिबिम्ब’ में विभिन्न व्यंग्य रचनाओं के माध्यम से समाज के विभिन्न चरित्रों में व्याप्त नकारात्मक सोच एवं व्यवहार को तीखे व्यंग्यों द्वारा प्रतिबिम्बित किया है।

Pratibimb

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

प्रतिबिम्ब के विषय में

हंसना और रोना सुख-दुख की अनिवार्य अभिव्यक्ति है। जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में हास्य-व्यंग्य का कभी आनन्द नहीं लिया उसके लिए ‘‘रम्भा-शुक संवाद’’ की शब्दावली में कहना पडे़गा कि ‘‘वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम।’’ प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति के लिए हास्य विनोदशीलता आवश्यक गुण भी माना गया है।
भारतीय आचार्यों ने भी हास्य-व्यंग्य को स्थायी भाव के रूप में स्वीकार किया है। हास्य-व्यंग्य की कमी परम्परा का पालन संस्कृत साहित्य से परम्परागत रूप में हिन्दी साहित्य को भी प्राप्त हुआ है।

आधुनिक काल से पहले हास्य केवल कविता के क्षेत्र तक ही सीमित था। परन्तु उन्नीसवीं शताब्दी से हिन्दी की गद्य-रचनाओं में भी हास्य-व्यंग्य का सूत्रपात होने लग गया और हास्य-व्यंग्य का यह पुट नाटक, एकांकी, कहानी इत्यादि विविध गद्य-रचनाओं में प्रवेश कर गया। आज हिन्दी का हास्य-व्यंग्य साहित्य की एक परमावश्यक विधा बन गई है। वर्तमान के तनावग्रस्त वातावरण को विनोदप्रिय बनाने के लिए डा. बरसाने लाल चतुर्वेदी, गोपालप्रसाद ‘व्यास’ काका हाथरसी, डा. अशोक चक्रधर, हरिशंकर परसाई, सरदार मनजीत सिंह, हरीश नवल, तथा श्री जे.बी. गुप्ता ‘राकेश’ आदि रचनाकारों ने हास्य-व्यंग्य की लोकप्रिय विधा का पर्याप्त मात्रा में सृजन किया।

विवेच्य कृति ‘‘प्रतिबिम्ब’’ के रचयिता श्री नरेन्द्र आहूजा ‘विवेक’ इसी श्रृंखला की एक सशक्त कड़ी माने जाते हैं। यह उनका दूसरा व्यंग्य-विनोद का हास्यमिश्रित संग्रह है। इससे पूर्व वे हिन्दी की व्यंग्य विधा को ‘‘आईना’’ अर्पित कर चुके हैं। ‘‘समय के स्वर’’, ‘‘विवेक दोहावली’’ व ‘‘संवेदनाएं’’ उनकी तीन पूर्व प्रकाशित कृतियों में भी परोक्षरूप से हास्य-व्यंग्य का ही स्वर मुखरित हुआ है। प्रतिबिम्ब में कुल 30 रचनाएँ हैं।

रचनाकार को हास्य-व्यंग्य की सामग्री अपने ही निकटवर्ती समाज की विसंगतियों और विषमता-जनित अभावों से मिलती है। मानव-जीवन की विकृतियां ही गद्य या पद्य में नुकीले हास्य को जन्म देती है। श्री विवेक ने उसी समाज की विकृति को हास्य-व्यंग्य की आकृति-कृति में प्रस्तुत किया है। ‘‘चीफ गेस्ट’’ ‘‘चमचा’’ ‘‘फैशन शो’’ तथा ‘‘सुनामी राहत’’ में उन्होंने इन्हीं सामाजिक विकृतियों का पर्दाफाश किया है। ‘‘इंस्पैक्टर की ट्रेनिंग’’ ‘ईमानदारी’’ सुबह की सैर’’ तथा ‘‘आओ शान्ति खरीदें’’ जैसी रचनाओं में लेखक ने बड़ी सफलता के साथ युग की त्रासदी को चित्रित किया है। ‘‘टकला’’ और ‘‘शिखर पर’’ में समय की विडम्बनाओं का पूर्णरूपेण स्वस्थ आकलन किया गया है। ‘‘रामलाल निरीक्षक’’ संत्रास्त मानसिक दुर्बलता के प्रतीक के रूप में प्रमाणित व्यंग्य है।

प्रतिबिम्ब के रचनाकार नरेन्द्र आहूजा ‘विवेक’ ने यह सिद्ध कर दिया है कि समाज की बुराइयों और त्रुटियों के निराकरण में व्यंग्य अत्यन्त उपयोगी तत्त्व सिद्ध होता है। लोग न जाने कितनी ही बुराइयों को समाज की हंसी से बचने के लिए छिपाते हैं। व्यंग्य लेखक समाज की ऐसी ही असंगतियों पर अप्रत्यक्ष रूप से रोक लगाये रखता है। प्रस्तुत संग्रह के लेखक श्री विवेक जी ने ‘सिर मुंड़ाते ही ओले पड़े’’, ‘‘जुगाड़’’ तथा ‘‘शर्म’’ जैसी व्यंग्य रचनाओं में ऐसी ही सामाजिक विद्रूपताओं को उद्घाटित किया है। व्यंग्यप्रिय साहित्यकार निश्चित रूप से ही उदारशील होता है। वह तुरन्त ही सुख-दुख से प्रभावित होकर अपने निकटवर्ती लोगों को भली-भांति समझने लगता है और वह अपने हास्य-व्यंग्य और विनोद के आंसुओं के द्वारा सहानुभूति प्रकट करता है। ‘‘प्रतिबिम्ब’’ के रचयिता एक ऐसे ही व्यंग्य-साहित्यकार हैं।

आज हिन्दी साहित्य की आलोचना के सिवा अन्य कोई विधा ऐसी नहीं है जिसमें ‘हास्य-व्यंग्य’ का अबाध प्रवेश न हो। बल्कि स्व. प्रतापनारायण मिश्र और स्व. बालकृष्ण भट्ट की आलोचना में भी हास्य-व्यंग्य के छींटे दिखाई पड़ते हैं।
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् हमारे देश में जो मानव-मूल्यों का पतन हुआ समाज में व्यामोह, पाखंड, अंधविश्वास, बाह्माडम्बर और राजनीतिक भ्रष्टाचार की जो दुर्गन्ध फैली उस पर व्यंग्य के पैने नश्तरों के बगैर कदापि अंकुश नहीं लगाया जा सकता था ‘‘आईना’’ व्यंग्य संग्रह के उपरान्त अब ‘‘प्रतिबिम्ब’’ के अन्तर्गत व्यंग्य रचनाओं में विवेक ने इसी उक्त तथ्य को प्रमाणित किया है।

नि:सन्देह श्री विवेक का व्यंग्य तिलमिला देने वाली शैली में लिखा गया है जिसका तीखा दंश पाठक की चेतना को झकझोर कर उसे जागरूक सचेत और सक्रिय बनाता है। हाजिर जवाबी हास्य-व्यंग्य का प्राण होती है और शब्दों की कोमलता तथा अर्थ की गहनता ये दोनों ही उसके आवश्यक और महत्त्वपूर्ण अंग होते हैं। उक्त दोनों विशेषतायें ‘विवेक’ के ‘प्रतिबिम्ब’ में प्रतिबिम्बित हैं। उनके व्यंग्य संग्रह में ‘‘मशहूरी’’ तथा ‘‘ईमानदारी’’ इसी कोटि के व्यंग्य हैं जो दोहरी मानसिकता में जीते हैं।

पाश्चात्य मनीषी ‘‘जैफर’’ का कथन है-
-कि व्यंग्य में आरी की तरह नहीं तलवार की तरह एक ही झटके में काट देने की विशेषता होनी चाहिए। वह आरी की तरह धीरे-धीरे रेते नहीं।
‘‘प्रतिबिम्ब’ के अन्तर्गत ‘‘पहली बरसात का मजा’’ ‘‘बिजली जाने के फायदे’’ ऐसे ही व्यंग्य हैं जो एक ही झटके में अपना काम बेखटके कर जाते हैं।
बस अधिक क्या कहूँ ? मुझे पूर्ण आशा है कि प्रस्तुत संग्रह का प्रत्येक व्यंग्य अपने लक्ष्य बेध में सफल सिद्ध होगा।


तेरा तीर जिसके भी सीने में उतर जाएगा।
आप जायेगा निकल दिल में घर कर जाएगा।।


मैं अपने परमात्मीय श्री नरेन्द्र आहूजा ‘‘विवेक’’ की भावी साहित्य साधना से यही आशा करता हूँ कि वे स्वस्थ हास्य व्यंग्य के सृजन के द्वारा युग की रुग्ण मानसिकता को स्वस्थ कर पाने में सफल हों। उनका हास्य व्यंग्य लेखन ‘‘सत्यं ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात’’ एवं ‘‘श्रेय’’ तथा ‘‘प्रेय’’ के धर्म का पालन करता रहे।

आचार्य बलदेवराज ‘‘शान्त’’

विवेक के व्यंग्य

प्रस्तुत पुस्तक ‘प्रतिबिम्ब’ में विभिन्न व्यंग्य रचनाओं के माध्यम से समाज के विभिन्न चरित्रों में व्याप्त नकारात्मक सोच एवं व्यवहार को तीखे व्यंग्यों द्वारा प्रतिबिम्बित किया है।
पात्रों की सामाजिक व्यवस्था में बदलाव की सोच, व्यवस्था के दकियानूसी ठेकेदारों की अप्रासंगिक रूढ़िवादी निष्ठा, नए-पुराने का टकराव, विध्वंसात्मक शैली, कुचक्र षड्यंत्र और इससे उत्पन्न कौतुहल से आनन्द की प्राप्ति, कथनी करनी की भिन्नता, दोहरा चरित्र आदि-आदि अनेक सामाजिक विसंगतियों को उभार कर उनको नकारने और सकारात्मक सोच अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं।

विवेक के व्यंग्य के पात्र जैसे ‘खबरची ताई’, ‘चीफ गेस्ट’, ‘चमचा’, ‘डाक्टर’, ‘निरीक्षक’, ‘फैशन शो की माडल’, ‘नेता जी’, ‘वी.आई.पी. कुत्ते’, ‘रामलाल’, ‘रसिक जी’, ‘समीक्षक’, आदि-आदि आज के समाज में हर किसी के आस-पास होते हैं। परन्तु उनकी कार्यशैली कार्यक्षेत्र उनके मनोविज्ञान और दंभ आदि का गहराई से अध्ययन करके चित्रण करने का साहस नरेन्द्र ‘विवेक’ जैसे व्यंग्यकार ही कर सकते हैं।
विवेक इसी प्रकार व्यंग्य के तीखे नश्तर से सामाजिक विद्रूपताओं पाखंडों, अंधविश्वासों, नित नई जन्म लेती कुरीतियों का एक कुशल सर्जन की भांति आप्रेशन करते रहें। अंत में मैं विवेक के लिए आशीर्वाद सहित यह कह सकता हूं-

तेरे तरकश में अनोखे तंज के कुछ तीर हैं।
जिनपे सदियों के मजामी खून से तहरीर हैं।।

सतपाल सिंह चौहान ‘भारत’
वरिष्ठ अधिवक्ता

आलाप


अब क्या कहूं जो कहने को था वह इस ‘प्रतिबिम्ब’ में स्वयं दिखाई दे जाएगा। बस इसकी पृष्ठभूमि के बारे में सुधि पाठकों से कुछ निवेदन कर रहा हूं। यह निवेदन मेरा आत्मालाप है।
दरअसल आईना (व्यंग्य-संग्रह) वर्ष 2004 में प्रकाशन के उपरांत मेरे साहित्यिक जीवन में एक तूफान सा आ गया। मुझे व्यवस्था के प्रतिबंधित हमाम को सार्वजनिक करने का दोषी करार दिया गया। इस प्रतिबंधित हमाम में हर व्यक्ति नग्न अपने वास्तविक स्वरूप में मग्न था। लेकिन अचानक उन्हें आभास हुआ जैसे किसी ने इस हमाम के दरो-दीवार तोड़ दिए हैं और उनका यह निजी स्वरूप सार्वजनिक हो गया है। एक बारगी वह शरमाये घबराये लेकिन फिर आपसी मतभेद भुलाकर आक्रामक हो गए। किसने तोड़ा यह अतिरिक्त समझौता, किसने दिखाया यह ‘आईना’ जिसमें अपना ‘प्रतिबिम्ब’ देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे। यह कौन है जो हमारे चेहरों पर लगे चेहरों को नोचने का दु:साहस कर रहा है आओ हम सब मिलकर इसे अभी घेर लें और इसे ऐसा दंड दें ताकि कोई अन्य ऐसा दु:साहस ना कर सकें। ‘‘भय बिनु होत न प्रीत’’ इस  अपराधी को ऐसी दर्दनाक सजा दी जाए कि देखने वालों के मन में भी हमारा डर बैठ जाए। बस फिर क्या था जिसे भी ‘आईना’ में अपना ‘प्रतिबिम्ब’ दिखाई दिया उसने व्यूह रचना करके मुझे घेर लिया और मैंने खुद को एक चक्रव्यूह में घिरा पाया और मेरे चारों तरफ मेरे ही व्यंग्य लेखों के पात्र मुझे घेरे खडे़ थे मुझ अपराधी को दंड देने के लिए सन्नद्ध।

परन्तु सुधि पाठकों की प्रतिक्रियाएं मेरा संबल थीं जिसने न केवल इस कुंठा वर्जना को सहने की शक्ति प्रदान की अपितु निरंतर लिखते रहने की प्रेरणा दी। इस उत्प्रेरणा ने मुझे जितना दर्द दिया उसी दर्द की अनुभूति मेरे लेखन की प्रेरणा बनी। ‘आईना’ में दिखाई दे रहे ‘प्रतिबिम्ब’ और स्पष्ट होकर सामने आए। इसी दर्द के दंश से ‘संवेदनाएँ’ पैदा हुई और प्रस्तुत व्यंग्य संग्रह ‘प्रतिबिम्ब’ से पूर्व एक लघुकथा संग्रह ‘संवेदनाएँ’ पाठकों को समर्पित कर पाया।

अंत में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रथम आभार परमपिता परमेश्वर सर्वशक्तिमान का जिसने मुझे अपनी असीम अनुकम्पा का पात्र बनाया और मुझे माध्यम मात्र बनाकर भावों की अभिव्यक्ति करने की क्षमता प्रदान की। मैं आभारी हूं उन सभी का जिन्होंने ‘आईना’ में स्वयं को देखा और अपना ‘प्रतिबिम्ब’ देखकर मुझे प्रताड़ित किया और उस दर्द की अनुभूति से उत्पन्न ‘संवेदनाएं’ और अब प्रस्तुत व्यंग्य संग्रह ‘प्रतिबिम्ब’ आपको समर्पित कर पाया। आभारी हूं उन सभी का जो जाने-अनजाने इन व्यंग्य लेखों के पात्र बन गए। मेरे पास शब्द नहीं है आभार व्यक्त करने के लिए आचार्य बलदेव राज ‘शान्त’ लक्ष्मी चन्द आर्य, अमर साहनी एवं माननीय सतपाल सिंह चौहान ‘भारत’ का जिन्होंने सदैव मुझे प्रेरणा दी एवं मेरे लेखन को दिशा प्रदान करते रहे। मैं आभारी हूं, उन सभी पत्र-पत्रिकाओं, गृहनंदनी, जाह्नवी, मेरी संगिनी, लफ्ज, महाप्राण, पंजाबी संस्कृति, न्यामती, नई गुदगुदी, हरिगन्धा, शिवम्, रैन-बसेरा, शब्द सरोकार, साहित्य-क्रान्ति, तुलसी-प्रभा, सरस्वती सुमन एवं इनके यशस्वी संपादकों का जिन्होंने मेरे व्यंग्य लेखों को स्थान देकर पाठकों के लिए उपलब्ध करवाया। उन सभी सुधि पाठकों का आभारी हूं जिनकी प्रतिक्रियाएं सदैव मेरा संबल बनीं और प्रेरणा देती रहीं। मैं आभारी हूं स्टार पब्लिकेशंस प्राइवेट लिमिटेड दिल्ली विशेषरूप से श्री अनिल वर्मा जी का जिनके कारण यह पुस्तक इस स्वरूप में आपके हाथों में है।

अंत में आभारी हूं अर्धागिनी अंजू का जिसके सहयोग के बिना यह लेखन संभव नहीं था। वह सदैव मेरे लेखों की प्रथम श्रोता एवं समालोचक बनी अपितु उसी ने इन्हें कम्पयूटर पर टंकित किया। पारिवारिक जिम्मेदारियों को अपने कंधों पर लेकर मुझे घर पर वह वातावरण प्रदान किया जिसमें मैं लेखन कार्य कर पाया। आभारी हूं पल्लव और चिराग का जिनकी बाल सुलभ चेष्टाओं ने कभी भी लेखन में व्यवधान नहीं डाला।
अब यह पुस्तक पाठकों को समर्पित इस आशा आकांक्षा के साथ कि आपकी प्रतिक्रिया समीक्षा, समालोचना, सुझाव सदैव मुझे ऊर्जा, संबल एवं दिशा प्रदान करेंगे।

नरेन्द्र आहूजा ‘विवेक’

।।तमसो मा ज्योतिर्गमय।।

‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ आओ अन्धकार से प्रकाश की ओर चलें। यह तो हुआ इसका शाब्दिक अर्थ जो सर्वविदित है, सबको दिखाई पड़ता है। परन्तु विद्वान तो वह है जो उस निहितार्थ को भांप ले जो किसी को दिखाई नहीं पड़ता। यही तो अन्तर है एक सामान्य आदमी और पहुंचे हुए ज्ञानी में। अब इसी वेद वाक्य का निहितार्थ समझें अन्धकार से प्रकाश की ओर चलें। इसके लिए पहले आवश्यक है कि हम अन्धकार में घिर सकें। हम गहन अंधकार में जाएंगे तभी तो प्रकाश की ओर जाने की सार्थकता को, इस वेद वाक्य की सत्यता को सिद्ध कर पायेंगे। इसीलिए ज्ञानी वही है जो इस वेद वाक्य की सत्यता को सिद्ध कर पायेंगे। इसीलिए ज्ञानी वही है जो कि पहले प्रकाश से अंधकार की ओर चले। वैसे भी भोजन की आवश्यकता भूख लगने पर ही होती है। अब यदि आपको भूख नहीं है तो कितना भी स्वादिष्ट भोजन क्यों न परोसा जाये आपको व्यर्थ प्रतीत होगा परन्तु भूख लगने पर रूखा-सूखा भी स्वादिष्ट प्रतीत होगा। इसीलिए यदि अंधकार है तो प्रकाश का उपयोग है। गहरी रात में ही तो दीपक जलाने की आवश्यकता पड़ती है। कभी किसी को दिन के समय लालटेन लेकर जाते देखा है। अब लालू के बिहार में अंधकार है तबी तो लालटेन की सार्थकता है। इसीलिए बिहार में सर्वाधिक लोकप्रिय चुनाव चिह्न लालटेन ही तो है। अब यदि बिहार में प्रकाश हो जाए तो लालटेन और लालू को कौन पूछेगा।

अंधकार समाजवादी व्यवस्था का सबसे बडा़ प्रतीक है। बड़े-बड़े सिद्धांत, बड़ी-बड़ी विचारधारायें समाजवाद नहीं ला पातीं परन्तु अंधकार क्षण भर में समाजवाद ला देता है। अंधेरा छोटे-बड़े, गरीब-अमीर, महल-झोपड़ी सभी को निगल जाता है। सभी तो समा जाते हैं अंधेरे के आगोश में बिल्कुल एक से होकर कहीं कोई अंतर नहीं रहता। ऐसा लगता है मानो पल भर में समाजवाद का अवतरण हो गया हो। वहीं दूसरी ओर प्रकाश की एक किरण जहां अंधेरों की चट्टानों को तोड़ देती है वहीं प्रकाश में सब कुछ साफ दिखाई देने लगता है। अमीरों का महल, गरीब की झोपड़ी रोशनी होते ही अलग-अलग दिखाई पड़ती है। सारी विषमतायें विद्रूपतायें जो अंधकार में छुपी रहती हैं प्रकाश में सामने आ जाती हैं, समाजवाद की अवधारणा को झुठलाती विषमताओं को अलग-अलग दिखलाती। इसीलिए अंधकार का महत्त्व प्रकाश से अधिक बतलाया गया है। अंधकार प्रकाश से पूर्व आया है और प्रकाश की ओर जाने वाला रास्ता अंधकार से होकर गुजरता है। इस प्रकाश ने भी तो अंततोगत्वा अंधकार में परिवर्तित होना है फिर प्रकाश की इतनी लंबी तलाश की क्या आवश्यकता है।

विकसित पाश्चात्य जगत ने अंधकार के महत्त्व को बखूबी समझा है। विकास के प्रतीक इन देशों में नव वर्ष का अभिनन्दन मध्य रात्रि के गहन अंधकार में रोशनी बुझाकर किया जाता है। देश को आजादी भी तो मध्य रात्रि में ही मिली थी। अँधकार में मानव का स्वंय का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। अंधेरा सभी को निगल कर मानव के शक्ति के दंभ को तोड़ देता है। अंधेरे में ही तो मनुष्य को रिश्तों का बेमानीपन दिखाई पड़ता है। कौन किसकी पत्नी कौन किसकी बहन, अंधेरे में तो मानव का आदम रूप नर और मादा ही रह जाता है। ऐसे में जागता है तो बस प्रेम भाव कहीं कोई विद्वेष नहीं रहता। यह तो मानव की अल्पज्ञता है कि इस प्रेम भाव को वासना का नाम दे दे। सृष्टि विकास के क्रम की निरन्तरता इसी से ही तो बनी रहती है। अंधकार के इस प्रेमभाव को सहजता से जीवन में अपना हमारे देश ने जनसंख्या वृद्धि की दर में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर लिया है। इसी का नजीता है कि हमारे पास सौ करोड़ से अधिक हाथों की ताकत है। अंधकार में उत्पन्न होने वाले इस प्राकृतिक प्रेम भाव को हेय दृष्टि से देखने वालों की दृष्टि में दोष है। रात्रि के अंधकार में होने वाले कामों को काला काम समझना मानव के अल्प ज्ञान का परिचायक है। प्रत्येक वह काम जिससे अर्थ का अर्जन हो वह विकास की दिशा में बढ़ता कदम ही तो है। आखिर विकास का प्रथम चरण धन ही तो है।

अब धन तो धन है काला या सफेद कैसे हो सकता है। धन को काला या सफेद समझना मानव की मूर्खता है। लक्ष्मी तो देवी है फिर लक्ष्मी का कोई भी रूप असुर कैसे हो सकता है। धन के महत्त्व को समझाते हुए ही तो जूदेव जी नोटों के बंडलों को माथे से लगाकर कहते हैं ‘‘खुदा की कसम, पैसा खुदा तो नहीं, पर खुदा से कम भी नहीं।’’ वैसे भी मान्यता है कि लक्ष्मी रात्रि को ही विचरण करती है। इसीलिए दीपावली वाले दिन लक्ष्मी के इंतजार में सभी अपने दरवाजे खुले रखते हैं। उच्च वर्ग में सभी अपना जन्मदिवस मोमबत्तियां बुझा कर अंधकार करके मनाते हैं। जन्मदिवस मनाने का यह तरीका उच्चवर्ग के विकास का प्रतीक है।



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