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उगते सूर्य की लाली

नरेन्द्र राजगुरु

प्रकाशक : हिन्दी बुक सेन्टर प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :133
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5350
आईएसबीएन :81-85244-85-5

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मेरी माँ मुझे अँधेरे में स्नान कराती है, वह मुझे चमकती सूरज की रोशनी में कपड़े पहनाती है और बिजली की रोशनी में मेरे बाल संवारती है, लेकिन अगर मुझे चाँदनी के प्रकाश में घूमने की इच्छा होती है तो वह मेरी कमर में कमरनाल की दुहरी गांठ बांध देती है।

Ugte Suraj Ki Lali

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

अपनी बात

मैंने अपनी विगत प्रकाशित पुस्तकों पर आजतक जो भी लिखा है, उसे साहित्यिक परंपराओं के दायरे में रहकर ही लिखा है। वैसे परंपराओं को तोड़कर एक लेखक अन्यथा क्या लिख सकता है ? लेकिन इस वक्त मैं लीक से हटकर ही अपने पाठकों को यह बताना चाहता हूँ कि इस बार बंदिश में रहकर कुछ भी नहीं लिखा है और जो भी लिखा है, वह युवा मन की तरंगों का अक्स मात्र ही है और है वृद्धावस्था या मरणावस्था के भावों को गद्यगीतों में उतारना। यह मैंने कैसे लिखा, ऐसे विचार मेरे मन में कब और क्यों आए यह मैं नहीं जानता, लेकिन जो भी लिखा है, वह कोरी कल्पनाएँ ही नहीं है, इन गद्यगीतों में जो भाव दर्शाए हैं, वह मानव के एक कमजोर मन की वास्तविकता से कुछ परे नहीं है। जो देखा, महसूस किया उसे ही कमलबद्ध किया है। मैं तो एक कहानीकार ही बना रहना चाहता हूँ, लेकिन यह मन न जाने क्यों भटकता रहता है और उस भटकन के कारण ही आज गद्यगीतों का यह गुलदस्ता आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। मेरे गुरु डॉ. सत्येन्द्र जी ने एक बार कहा था कि पाठक जितना अधिक पढ़े वह उसके लिए अच्छा है; क्योंकि वह पाठक ही आगे चलकर लेखक बनता है।

मानव मन के दबे भावों को कागज़ के पन्नों पर उतारना ही लेखक बनने की प्रथम पायदान है। एक कवि, लेखक या कलाकार माँ के पेट से पैदा नहीं होता। यह तो उसके आस पास की परिस्थितियाँ ही हैं, जो उसे अपने मन में उठे तूफान को कलमबद्ध करते हुए ही उसे लेखक की परिस्थितियों में ले आती हैं। दूध में शक्कर के मिल जाने से उसके स्वाद में काफी सुधार आ जाता है। इसी प्रकार अगर लेखक की विचारधारा में यदि किसी बड़े नामचीन लेखक की बातों या विचारों का थोड़ा सा भी अक्स पड़ जाता है तो नवोदित की लेखनी में निखार आ जाता है। इस निखार को हमारे कुछ साथी गलत अर्थ में लेकर उस साथी की खिल्ली उड़ाने में अपनी शान समझते हैं। मैं इसे ठीक नहीं समझता। वर्णाक्षर सीखने की बेला में क्या उन बड़े लेखकों के मन पर अपने अध्यापक के तौर-तरीकों या विचारों का अक्स नहीं पड़ा था। उसके जीवन में भी अवश्य ही ऐसा कोई आया होगा, जिसके विचारों का प्रतिबिंब उनके मानस पर पड़ते हुए लेखनी के जरिए उन्होंने समाज के सामने रखा होगा और यह उसी अक्स की महत्ता इतनी बढ़ गई कि उसके द्वारा लेखक की वही प्रतिछाया आज एक ग्रंथ बन गई और कालांतर में वही लेखक बड़ा हो गया और अमर हो गया। तुलसी, सूरदास और कालीदास जी ने जो भी लिखा है, वह अब आज अमर साहित्य की परिधि में आ गया है। टाल्सटॉय, शेक्सपियर और बर्नाडशा ने जो लिखा वह भी अमर हो गया। रवि बाबू को कौन भूल सकता है ? महादेवी वर्मा, त्रिपाठी जी या दिनकर जी की कलाकृतियों को हम कभी भुला सकते हैं। कृशन चंदर की लेखनी या यशपाल की पुस्तकों को हम अमर परिधि में नहीं रखते हैं। सहादत हसन मंटो या मिरजा गालिब भी तो मन की बात को कलम के जरिये कागज के पन्नों पर उतारते आए हैं। इन सब में कहीं न कहीं विचारों की साम्यता क्या किसी संकरी गली के नुक्कड़ पर आकर नहीं ठहरती। मन का यही वह एक अक्स हैं, जो मन के विचारों की दरिया से नितर कर समाज के सामने आकर पाठक के मन को प्रफुल्लित करता है, तो क्या ये हमारे प्रेरणास्रोत नहीं हैं।

लेखक तभी अपने आपको सही समझने लगे, जब उसके पाठक उसे स्वीकार कर लें और यही स्वीकारोक्ति लेखक की सफलता है। आज बड़े-बड़े हिन्दी लेखकों की रचनाएँ विदेशी भाषाओं में अवतरित हो रही हैं या उनमें से कुछ को उन्होंने अपने ही साहित्य में आत्मसात् कर लिया है। इससे हमारे साहित्य व साहित्यकारों को ह्रास नहीं हुआ है, या हमारी कला का दमन नहीं किया गया है। उन साहित्य में आत्मा तो आप की है और जब तक वह आत्मा जीवित है, आज का यह लेखक भी जीवित ही रहेगा।

संकुचित दायरे को त्याग कर नये लेखकों को अपनाने की कला से ही तो हमारा साहित्य सारी विषमताओं को लांघ कर आगे बढ़ सकता है। मेरे लेखक मन में इतनी सारी उथल पुथल के बावजूद भी मेरी लेखनी में कभी दुर्बलता नहीं आई और यही वजह है कि आज मैं अपनी लेखनी के तार अपने पाठकों से जोड़ने में शनै:-शनै: सफलता प्राप्त कर रहा हूँ। युवावस्था से लेकर आज जीवन की ढलती शाम तक मैंने जो भी सीखा उसे नि:संकोच अपने पाठकों को परोसता आया हूँ और आगे भी यही करता आऊंगा। मुझे विश्वास है कि मेरे पाठक मुझे स्वीकार करते हुए मुझे साधुवाद दें तो मेरी लेखनी को और संबल मिलेगा। बस यही।
धन्यवाद।

नरेन्द्र राजगुरू

माँ का मन

मेरी माँ मुझे अँधेरे में स्नान कराती है, वह मुझे चमकती सूरज की रोशनी में कपड़े पहनाती है और बिजली की रोशनी में मेरे बाल संवारती है, लेकिन अगर मुझे चाँदनी के प्रकाश में घूमने की इच्छा होती है तो वह मेरी कमर में कमरनाल की दुहरी गांठ बांध देती है।

और तब वह मुझसे कहती है, ‘बाला बेटी, तुम कुमारिकाओं के साथ ही खेलना, छोटे बच्चों के साथ ही नृत्य करना, खिड़की से बाहर मत झांकना, युवकों के शब्दों का तिरस्कार करना और खिड़की की चौखट से दूर हट कर खिड़की बंद कर देना।
एक शाम ऐसी आयेगी, जब कोई एक युवक तुझे भी, जैसे कि और लड़कियों को ले जाया गया है, वह तुम्हें भी अपनी पत्नी बना कर ले जायेगा। तुझे लेने वह अपने घर की देहरी पर गाजे-बाजों के साथ बड़ी भीड़ के साथ आयेगा और संगीत की सुरीली धुनों के साथ तुझे ले जायेगा।

उस शाम जब तुम मुझे अकेली छोड़कर चली जाओगी, तब बाला, तुम मेरे लिए पीड़ा के कुछ घाव छोड़ जाओगी। उनमें से एक घाव तो सबेरे के लिए होगा, दूसरा दोपहर के लिए और तीसरा सबसे कड़वा घाव-रात के अंधियारे में मुझे सालता रहेगा और उत्सवों के दिनों में मेरे तन को कुरेदता रहेगा-बेटी बाला।...अब तो तुम सयानी होने लगी हो।

माँ बनने की आस

पास बैठी दो बालाएँ आपस में बात कर रही थीं, हम दोनों की माताएँ एक साथ ही गर्भवती हुईं और इसी शाम मेरी प्यारी सहेली माला का विवाह भी हो गया। जिस राह उसे लेकर बारात गयी, वहाँ फूल तो अब भी पड़े दिखाई दे रहे थे और जगमगाते दीपकों की रोशनी अभी भी वहाँ प्रकाश बिखेर रही थी, हाँ उनकी लौ काफी जल चुकी थी और मैं अपनी माँ के साथ रास्ते से लौट रही थी कि विगत के एक सुहावने सपने में मैं खो गयी, जिस प्रकार कि माला आज विवाहित हो किसी की हो गयी, कुछ समय बाद मेरी भी यही हालत होगी तो क्या मैं अब पूर्ण नारी हो गयी हूँ?

बाराती, बाजे-गाजे की धुन, विदाई के गीत और दूल्हे के लिए फूलों से सजाई गई घोड़ा-गाड़ी मोटर कार, यह सारा का सारा माजरा, जुलूस एक शाम को मेरे लिए भी आयेगा और आम के पत्तों की बंदनवारों के बीच में मंडप से मुझे भी कोई इसी तरह गाजे बाजों के साथ उठा ले जायेगा। ठीक इस बाला की ही तरह तब उसी बेला में विवाह के बाद मैं अपने आप युवक के सामने अपना घूँघट उठाऊंगी और उसी रात, प्रेम क्या है मैं जान जाऊँगी और तब समय के साथ ही मैं भी नन्हें-नन्हें बच्चों की माँ बनूंगी और वे नन्हें बच्चे मेरे उरोजों से चिपटे माँ का दूध पीयेंगे और हष्ट-पुष्ट बनेंगे।...और तब हम दोनों के बच्चे भी एक ही साथ खेलेंगे।...

पास बैठी दो बालाएँ भावी कल्पनाओं में ऐसे खो गईं कि पास से गाजे-बाजों की धुन भी उन्हें नहीं सुन पाई।

अबोध बालक

उन दिनों मैं निरी अकेली झाड़ी के तीतर की तरह निर्भय, जंगल में ही सो जाया करती थी। हल्की हवा, पानी की कलकल आवाज, रात की मधुरता ये सब मुझे गहरी नींद में सुलाने के लिए पर्याप्त थे और मैं तब घोड़े बेचकर सो जाया करती थी।
मैं एकदम असावधानी से सो रही थी कि एक हल्की सी रोने की आवाज से मैं जाग उठी और मैंने नींद और जागरण के बीच बड़ा संघर्ष किया और अंत में हार कर मैं भी रो पड़ी, लेकिन इस बार तो उठने में काफी देर हो चुकी थी। पास पड़े एक नन्हें बच्चे के हाथ भला क्या कर सकते थे, वे मेरे तन को सहला रहे थे।

वह नन्हा रोता ही जाता था और वह मुझे अपने से अलग करने को तनिक भी तैयार नहीं था, वह तो और अधिक कोमलता से मुझे जकड़े जा रहा था। और मुझे अपने करीब खींच रहा था और तब मैंने गौर से देखा तो पता चला, सारे विश्व में न तो मुझे पृथ्वी ही दिखायी दी और न पेड़ों की झुरमुट ही और बस वहाँ जो भी देखा वह केवल उस नन्हे की आंखों से चमकती रोशनी को ही देखा। तब उसकी आँखें कितनी चमक रहीं थीं। इस विजयी वीर नन्हे के नींद भंग के उपहार को मैं शबनम की बूंदों से धोकर पवित्र करना चाहती हूँ, मेरे कौमार्य के कारण मैं उसे वह नहीं दे पा रही थी, जिसकी उसे तलाश थी। अत: अपने उन दु:खों के अवशेषों से उसका स्वागत ही कर सकती थी। मैं अपनी नींद और प्रतिबंधों की साक्षी देकर उसका स्वागत करना चाहती थी।

...तब मैं निरी अकेली ही झाड़ी के तीतर की तरह सो जाया करती थी। पर अब इस अबोध की किलकारियों ने मेरी नींद में बाधा डाल दी। क्या करूं और क्या नहीं।

माँ का प्यार

हे मेरी नन्हीं, तुम अब सो जाओ। तुम्हारे खिलौनों के लिए मैंने तुम्हारे भाई को बाजार भेज दिया है और तुम्हारे वस्त्रों के लिए मैंने तुम्हारी बड़ी बहन को दर्जी के पास भेज दिया है। अब तो तुम सो जाओ। हे अप्सरा की बेटी, उगते सूर्य की लालपरी सो जा। मीठी, तुम अब मीठी नींद में सो जा।

यह जंगल है और वह महल है, जिसका निर्माण केवल तुम्हारे लिए ही हुआ है और आज उस जंगल को भी मैंने तुम्हें दिया है। देवदार वृक्ष के तने तुम्हारे महल के शहतीर हैं और उसकी लम्बी डालियों से महल के मेहराबों का निर्माण किया गया है। अब तो तू सो जा ! मैं उगते सूर्य को समुद्र के हाथों बेच दूंगी, ताकि उसकी गर्मी तुम्हें कभी जगा न पाये। सांसों से भी हल्की ठंडी हवा कबूतरों के उड़ते पंखों से आ रही है, जिससे तुम्हारी नींद में कोई बाधा नहीं आ सके।

मेरी बेटी, मेरे जिगर का टुकड़ा, जब तुम अपनी आंखें खोलो तो उसी समय मुझे यह बताना कि तुम्हें मैदान की चाह है कि तुम नगर में रहना चाहती हो या तुम पहाड़ पर निवास करोगी या चंदा मामा के पास जाओगी या फिर स्वर्ग लोक के देवताओं की श्वेत अप्सरा बनना चाहोगी।

...अब तो सो जा- मैं सूर्य को समुद्र के हाथों बेच दूंगी, ताकि उसकी गर्मी से तुम्हारी नींद भंग न हो जाये।..और कबूतर के पंखों की ठंडी हवा के झोंकों में तुम्हें सुलाने का प्रयत्न करूंगी।

माँ को विदा

मेरे लिए तो वह लड़की बड़ी भारी खजाना सा लगी। वह मेरे पास इस बीहड़ जंगल में मेंहदी की झाड़ी के नीचे पीले रंग के दो परिधानों में लिपटी, जिस पर नीले रंग का कशीदा किये हुए खड़ी थी। ऐसे सुंदर वस्त्रों में लिपटी वह मेरे पास आई और बोली-

‘‘मेरा कोई मित्र नहीं है।’’ उसने आगे कहा-‘‘क्योंकि यहाँ से नजदीक कोई भी घर शहर से चालीस मील की दूरी पर बना है। मैं यहाँ अपनी विधवा माँ के साथ अकेली रहती हूँ और मेरी माँ सदा गमगीन व उदास रहती है। अगर तुम चाहोगे तो मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूं।’’
मैं तुम्हारे साथ तुम्हारे घर तक चलूंगी, शायद तुम्हारा घर उस द्वीप की दूसरी ओर बना है और उसी में मैं तुम्हारे साथ उस समय तक रहूंगी, जब तक कि तुम मुझे धक्के मार कर बाहर न निकाल दो लेकिन मैं जानती हूँ कि तुम्हारा मन कोमल है और तुम्हारी आँखें नीली हैं, तुममें दया भरी पड़ी है।

चलो हम यहाँ से चलें। मैं अपने साथ यहाँ से कुछ भी नहीं ले चल रही हूँ। सिवाय मेरे गले के एक हार के, क्योंकि उस हार में एक कीमती नीलम है। मैं उसे भगवान के पैरों में रख लूंगी और प्रत्येक रात हम उस पर फूल चढ़ाएंगे।
....मैं तुम्हारे साथ तुम्हारे घर चलूंगी।...क्योंकि मेरी माँ यहाँ अकेली रहती है और वह सदा गम में डूबी रहती है।

माँ की मूरत

शिम्पाली नामक कलाकार ने अपनी कारीगरी के नमूने को मूर्त रूप देकर देवी की एक छोटी मूर्ति का निर्माण किया। मूर्ति का निर्माण पीली मिट्टी से किया गया था। मनमोहक मूर्ति की बनावट व उसका आकार ठीक मानव की तरह सुंदर रूप में किया गया था।

उस मूर्ति के लंबे-लंबे बाल पीछे की ओर मुड़े हुए थे और उसकी काली काली लटें बाहों व कंधों पर उलझ सी रही थीं। उस मूर्ति की आंखें ठीक हिरनी सी मदमाती एक अनोखी कारीगरी के साथ बनायी गयी थी और उसका मुखड़ा ऐसा सुंदर व छोटा सा बनाया गया था, मानो वह स्वर्ग में बसे प्राय: देवताओं में सुंदरतम है।

उसने अपना एक हाथ आशीर्वाद के रूप में ऊपर उठाये रखा है और दूसरे हाथ में एक लंबी आकृति में गोल फूलदान ले रखा है, जिसमें से सतत पानी बहता रहता है और वह पानी उसकी गोल नाभी से चलता हुआ आगे बढ़ता सा दिखाई देता है; क्योंकि वह संसार की सर्वश्रेष्ठ माँ है।

उसने कमरे में उन्माद भरे भाव से प्रवेश किया। उसकी आँखें अधखुली थीं, उसने अपने होठों को मेरे नन्हे होंठों से सटा लिए और हमारी नाक की नोंक एक दूसरी नाक से छूने लगी। मैंने अपनी जिंदगी में इस प्रकार के प्यार का अनुभव कभी नहीं किया।

अपने संपूर्ण प्यार और संतोष के साथ वह मेरे सम्मुख लग कर खड़ी थी। मेरा एक कोमल हाथ धीरे धीरे उसके गर्म दूध के कटोरों के ऊपर बढ़ने लगा, उसके हाथों ने प्रेमवश उसे उस रास्ते जाते रोका भी नहीं, क्योंकि वह दुनिया की सबसे प्यारी माँ जो थी।

फिर मेरे हाथ धीरे धीरे उसके कुर्ते के अंदर ऊपर उस दैविक गुण वाले अंग को ढूँढ़ने में लगे, जो स्वयं एक जीवंत स्पर्श था। मेरे हाथ कांपने लगे, अपने आप उसके अधीन होने लगे, या गोल दूध के कटोरे छूने लगे, तब पता चला कि उसे भी कंपन का अहसास होने लगा है।...शिम्पाली नामक मूर्तिकार ने एक महान माँ की मूर्ति को आकार दिया है।

लंबी आयु की कल्पना

देवताओं द्वारा मेरी अबोध शिम्पाली की रक्षा हो जाये, इसलिए मैंने देवी अम्बा को दो बकरों की बलि चढ़ाई है।
और मैंने शक्ति के देवता पवनसुत को तेल और सिंदूर भी चढ़ा दिया है और संहारक भगवान शिव को आडू व धतूरे के फूलों की माला भी अर्पण की है।

और मैंने जो भी कार्य किया है, वह सकारण है; क्योंकि मैंने इन तीनों देवताओं को कारणवश ही भेंट चढ़ाई है, क्योंकि मैंने देखा, शिम्पाली के चेहरे पर इन त्रिमूर्ति की दैविक ज्योत चमक रही थी।
मेरी नन्हीं शिम्पाली के होंठ तांबे की तरह लाल हैं, उसके केश काले नाग की तरह घने काले हैं और उसकी आँखें काले घनस्याम की तरह कजरारी हैं।

अत: देवताओं द्वारा मैं अपनी शिम्पाली की रक्षा के लिए बकरे की बलि भेंट चढ़ाऊंगी, ताकि वह लंबा जीवन जी सके।

अप्सरा की सखी

उस आसमान पर विचरण करती अप्सरा के पैर कोमल कमल की पंखुड़ियों से भी अधिक मुलायम हैं। उसकी लंबी चिकनी बांहों के बीच बढ़ते स्तनों को बांधे हुए वह अप्सरा उन्हें इस कोमलता से झुला रही है, मानो पवन के हल्के झौंके में जंगल की अनोखी लता वल्लरी झूल रही हो।

गहरी काली भौंहों के ठीक नीचे दो मादक, आँखें, कांपते, फड़कते हुए होंठ और गुलाब की पंखुड़ियों से भी कोमल कान, इन सबमें से कोई भी मुझे उससे प्यार करने से रोक नहीं सकता और स्पर्श से उसकी गर्म सांसें एक नृत्य की मुद्रा छेड़ देती हैं।

और चूंकि उसने शरीर के कुछ भाग में, जो भी छुपा रखा है। वह और कोई नहीं शिम्पाली का खलिस अपना प्यार है। वहाँ अप्सराओं की टोलियां आसमान से उड़ती हुई भूतल की बालाओं की रक्षा हेतु उन्हें छाया प्रदान करती है। उसके विषय में सब लोग यही कहते सुनने में आया है कि यही वह स्थान है जहाँ जलपरी अपने लिए पीत वस्त्र बुनती है।

यह वह स्थल है जहाँ से अब बसंत धीरे-धीरे खिसकता जा रहा है और इसके उत्तरी द्वार से पावस अवतरित होता है और दक्षिणी द्वार से देवता प्रवेश करने को आतुर हैं।
उनके पैर कोमल कमल की तरह नर्म और सुंदर हैं; क्योंकि वह अप्सराओं की प्यारी सखी है।

गुड़िया

मैंने उसे एक गुड़िया, मोम की एक गुड़िया भेंट में दी है, जिसके होंठ गुलाबी हैं और सिर पर बाल भूरे हैं। इसके छोटे सुंदर हाथ, नरम धागों से जुड़े हुए से हैं, और उसके पैरों में हलचल काफी है।

जब हम दोनों साथ होते हैं, तो मेरी शिम्पाली इसे हम दोनों के बीच सुला देती है-और तब हम इसे अपना बच्चा मान लेते हैं। शाम वह उसे पालने में झुला देती है और सुलाने से पूर्व यह उसे अपने स्तनों से दूध पिलाने का अभिनय भी करती है।
उसने अपनी इस गुडि़यां के लिए तीन कुर्ते भी सिल दिये हैं और दीपावली जैसे त्योहारों पर उसे हीरे-मोतियों से जड़कर चमका देने का कार्य भी करती रहती है तथा वक्त-बेवक्त वह उसे फूलों की मालाएँ भी पहनाती हैं।

वह गुड़िया की हर खास निगरानी रखती हैं और वह इसे अकेला कहीं छोड़ती भी नहीं क्योंकि उसे कहीं धूप न लग जाएं; क्योंकि यह मोम की गुड़िया है तेज गर्मी में कहीं पिघल ही न जाये।...क्योंकि मोम की बनी वह हर वस्तु उगते सूरज की तपन में पिघल जाती है, इसलिए मैं उसे कहीं बाहर नहीं जाने देती।

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