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जयशंकर प्रसाद की प्रासंगिकता

प्रभाकर श्रोत्रिय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5348
आईएसबीएन :81-263-1055-3

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जयशंकर प्रसाद समुद्र जैसे गहरे और स्नायुमण्डल की तरह जटिल एवं महान रचनाकार हैं। परन्तु वहाँ फूलों की एक घाटी भी है, जिसमें करूणा की धारा बहती है।

Jaishankar Prasad Ki Prasangikta

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आमुख

जयशंकर प्रसाद समुद्र जैसे गहरे और स्नायुमण्डल की तरह जटिल एवं महान रचनाकार हैं। परन्तु वहाँ फूलों की एक घाटी भी है, जिसमें करूणा की धारा बहती है। इस घाटी को ही उनका कुल संसार मान लिया गया, क्योंकि छायावाद की जो अवधारणा बनी थी उसके लिए यह आदर्श पर्यावरण था ! शायद महाकव्य जैसी पारम्परिक और नाटक जैसी दुर्लभ विधा के नव प्रशिक्षण के लिए वे विश्वविद्यालयों के मान्य कवि हो गये; जहाँ उनकी हालत पिंजरे के शेर जैसी कर दी गयी कि वह शेर दिखे भी, लेकिन चाहे तो बच्चा भी उससे छेड़छाड़ कर ले !

छायावादी आलोचना का शुभारम्भ कुछ ऐसे बेढंगेपन से हुआ कि प्रसाद का विस्तार, गहराई, जटिलता, युगबोध, क्रान्ति-चेतना, विचार, दृष्टि, प्रयोजन, प्रयोग आदि के लिए उसमें समाई नहीं रही। पन्त को केन्द्र में रखकर किसी परदेसी स्वच्छन्दतावाद की नकल पर छायावाद के जो गुण-धर्म तय किये गये, उसमें निराला नहीं अँटे, परन्तु प्रसाद फूलों की घाटी के कारण वहाँ घिर गये। इसलिए निराला को तो छायावाद की परिधि के बाहर पहचान का संसार मिला भी, परन्तु प्रसाद को उतना न्याय भी न मिल सका; दूसरे, निराला से रहित छायावाद के कारण प्रसाद की आलोचना पर सर्वाधिक विपरीत प्रभाव पड़ा। एक विचित्र स्थिति यह बन गयी कि निराला के प्रदाय की छायावादी अवधारणा में नगण्य भूमिका होने पर भी जहाँ कहीं छायावादी कवियों का उल्लेख हुआ, वे उसके प्रमुख स्तम्भों में गिने गये। लिहाजा जैसे-तैसे उन्हें उस चौखट में आड़ा-टेढ़ा बिठा दिया गया; उन जैसे प्राकार व्यक्ति को इसमें कितनी असुविधा होती होगी !

साहित्य-चिन्तन या काव्य-शास्त्र का सर्वमान नियम है कि ‘लक्षण’ हमेशा ‘लक्ष्य’ के आधार पर बनते हैं; प्रारम्भ में छायावाद के बारे में किसी हद तक यह पद्धति अपनायी भी गयी, परन्तु रचनात्मक विकास और मानक अवदान के साथ मूल धारणा विकसित होने के इक्का-दुक्का प्रमाण ही मिले।
छायावादी कवियों के महत्त्व का क्रम तो वैसे अब बदल चुका है; शिखर पर बैठे पन्त अब तीसरे क्रम पर हैं, परन्तु जब तक छायावाद सम्बन्धी अवधारणा आद्योपान्त नहीं बदलती; क्रम का बदलाव बहुत कारगर नहीं होगा, क्योंकि छायावाद किसी एक रचनाकार का नहीं सभी के सम्मिलित अवदान का प्रतिफल है। उसके वैविध्यपूर्ण रचना-क्रम में समूचा युग धड़क रहा है। सत्यान्वेषण में वह अग्रगामी है। क्रान्ति-चेतना, गतिशीलता, जीवन और कला के विशिष्ट संगम की दृष्टि से वह आधुनिक साहित्य की बहुमूल्य निधि है।

आश्चर्य है कि कवियों के अत्यन्त विशिष्ट, विरल और यथार्थचेता गद्य की छायावादी अवधारणा में कोई भूमिका नहीं समझी गयी। ‘अभिव्यंजना प्रणाली’ और ‘काव्यान्दोलन’ जैसे बासी कपड़े आज भी उस पर से उतारने में लोग हिचकते हैं। प्रसाद के पृथक् मूल्यांकन में जब भी उनका गद्य शामिल किया जाता है तो प्रायः कहा जाता है कि वह यर्थाथवादी है, जबकि कविता ‘स्वच्छन्दतावादी’। जाहिर है कि ऐसे लोग ‘दो प्रसाद’ की अवधारणा रखते हैं जो मूलतः अवैज्ञानिक है और लेखक को खण्डित करती है। ये लोग एक तो, स्वयमेव पुष्टि करते हैं कि इनके ‘स्वच्छन्दतावाद’ में यथार्थ की कोई भूमिका नहीं है; दूसरे, गद्य इसकी सीमा में नहीं आता। कुछ लोग यदि छायावाद के अन्तर्गत गद्य की चरचा करते भी हैं तो विवेचन इस प्रकार करते हैं मानो कविता पिघलकर गद्य हो गयी हो !

मेरी विनम्र राय में छायावाद, स्वच्छन्दतावाद नहीं है। मैंने विस्तार से दोनों का भेद दिखाया है। प्रसाद जैसे भारतीय अस्मिता के खोजी रचनाकार पर स्वच्छन्दतावाद चस्पा करना वैसे भी तथ्यहीन है। मुझे लगता है कि छायावाद सम्बधी धारणा आमूलचूल बदली जानी चाहिए और गद्य-रचनाओं को उसमें शामिल कर गद्य और कविता का परस्पर परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन किया जाना चाहिए। प्रसाद के सन्दर्भ में ऐसी कोशिश मैंने यहाँ की है। इतना ही नहीं, लेखक की विभिन्न रचनाएँ एक-दूसरे की पूरक होती हैं, अतः रचना-संसार को खण्डित करके लेखक को समग्र रूप में समझना सम्भव नहीं है।
यदि किसी सृजनान्दोलन का बड़ा लेखक उसके अन्तर्गत विवेचित नहीं होता, तो उसका पृथक् मूल्यांकन करने की अपेक्षा यह जाँच लेना अधिक उचित होता है कि कहीं रचना-प्रवृति का निरूपण ही तो अधूरा या अपर्याप्त नहीं हुआ है ?

क्योंकि यदि लेखक की समस्त उपस्थितियाँ उसमें दर्ज होतीं तो वह उसमें अंशतः विवेचित कैसे होता ? मुझे लगा कि प्रचलित छायावादी अवधारणा में प्रसाद के एकांगी और अधूरे मूल्यांकन के कारण छायावाद को ही नये सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। छायावाद का ऐसा निरूपण जिसमें सभी रचनाकारों के अवदान सुपरिभाषित हों, स्वयं प्रसाद की विशिष्टता को भी अपने युग-सन्दर्भ में रेखांकित कर सकता है। इसलिए मैंने प्रसाद के नवमूल्यांकन को सर्वत्र छायावाद के नवनिरूपण से गूँथने की कोशिश की है। इस तरह लेखक-केन्द्रित पुस्तक से यह कुछ हटकर लग सकती है और सन्देह पैदा कर सकती है कि यह छायावाद पर लिखी गयी है या प्रसाद पर ? परन्तु मेरी मुख्य चिन्ता रचनाकार को समूचे युग और रचना-परिप्रेक्ष्य में पहचानने की है।

प्रसाद पर मेरी पहेली पुस्तक 1975 में छपी थी, इसके बाद मैं अगले पड़ावों की ओर निकल पड़ा था-अपने समय की रचनाओं से बतियाते हुए। आज भी समानान्तर यात्रा जारी है।... तो क्या प्रसाद की ओर लौटना जहाँ से चले वहीं लौटना है ? ऐसा भी कोई सोच सकता है ? परन्तु मुझे तो नये सिरे से उन पर लिखते हुए वही रोमांच हुआ है; फिर मैं कैसे मान लूँ कि प्रसाद आधुनिकतम रचना-यात्रा के सहयात्री नहीं हो सकते ? इस बीच उन पर कई अच्छी पुस्तकें आयीं, बहुत-सी नादान प्रस्तुतियों और फतवों ने लिखने को उकसाया भी, परन्तु चाहने और लिखने का अन्तराल पाटना आसान कहाँ होता है ? अब जब लिख सका हूँ तो बड़ा सन्तोष है, जैसे करने योग्य कोई काम हुआ है।

पुस्तक का पहला पृष्ठ पढ़ते ही आप समझ लेंगे कि किन चीजों ने मुझे सबसे अधिक उद्वेलित किया है। अप्रासंगिकता के आरोप से मेरी पहली टक्कर नाटक के मंचन को ले कर हुई है। फिर ऐतिहासिक विषयों पर लिखी रचनाओं का प्रसंगवत्ता और व्यापक काल-यात्रा को चुनौती देनेवाली टिप्पणियों से। मुझे अजब लगा है कि जो लेखक इतिहास का इस्तेमाल वर्तमान की आँख और भविष्य दृष्टि की तरह करता हो; जिसका सृजनात्मक आचरण नितान्त समकालीन हो; जिसका इतिहास-बोध इतना सजग हो कि जरूरत पड़ने पर वह इतिहास से खेलने या उसका अतिक्रमण करने का माद्दा रखता हो-उसे केवल ऐतिहासिक विषय-ग्रहण के कारण प्रासंगिकता से खारिज करना किस तरह की साहित्य-दृष्टि है ! नवजागरण युग की जागरूकता के साथ जो लेखक समय तक को इन माध्यमों से दृष्टि देता हो और तत्परतापूर्वक अपने साहित्य की ऐतिहासिक भूमिका को पिछले युग की ऐतिहासिक भूमिका से अलग करता हो, उसका आधुनिक-बोध, साहित्य-दृष्टि और इतिहास-चिन्तन कितना समेकित होगा ?

कुछ लोग इतिहास के माध्यम से यथार्थ की व्यंजना को लेखक के आत्मगोपन-विधान से जोड़कर (दूसरे शब्दों में) उस पर कायरता का आरोप लगाते हैं। यह एक नैतिक प्रश्न है जिसका उत्तर मैंने प्रसाद की आधुनिक जीवन पर लिखी यथार्थपरक रचना से दिया है, क्योंकि जैसा पहले कहा गया है कि एक लेखक की विभिन्न रचनाएँ परस्पर प्रमाण होती हैं और मिलकर लेखक की प्रामाणिकता को रेखांकित करती हैं।
यथार्थवाद के सारे बीज प्रसाद-साहित्य में है, ये भारतीय साहित्य और संस्कृति के आद्य-बीजों का विकसित रूप हैं अर्थात् देश-काल-यात्रा के अनेक पूरक तत्वों के सम्मिलन और संरक्षण से विकसित। जब तक प्रसाद का मूल्यांकन पाश्चात्य लेखकों के द्वारा किये गये स्वच्छन्दतावाद और यथार्थवाद के सम्बन्धों के आधार पर किया गया अथवा आयातित गढ़ी हुई मानसिकता से उन्हें जाँचा गया, तब तक वे बराबर यथार्थविरोधी, सामन्तवादी और जाने क्या-क्या दिखाई देते रहे। परन्तु जब से उनमें भारतीय परिवेश और जीवन-धारा को समझने की कोशिश की गयी, उनके साहित्य में निहित यथार्थ चेतना अधिकाधिक महत्त्वपूर्ण होती गयी। परन्तु अब भी कुछ लेखक अपनी गडार में ही गाड़ी चलाना चाहते हैं।

वे प्रसंग से काटकर प्रसाद से मार्क्सवादी ढर्रे के उदाहरण चुनते हैं और उन्हें प्रगतिशील घोषित करते हैं। जिस तरह प्रसाद की यथार्थ चेतना से किया गया इनकार गलत था, वैसे ही यह नव-स्वीकार भी अयथार्थ है, क्योंकि दोनों की अप्राकृतिक हैं। प्रसाद मार्क्सवादी नहीं, आत्मवादी चिन्तक हैं; और आत्मवाद व्यक्ति की ‘सामाजिक रूढ़ियों से मुक्ति’ और ‘सर्वसमतावाद’ का चिन्तन है। प्रसाद ने इसे नया सन्दर्भ, नयी प्रखरता और नव यथार्थ-दृष्टि दी है। उनका पूरा साहित्य अनेक स्तरों पर किये जानेवाले मानवीय शोषण के विरूद्ध है; उसमें हर जगह असहाय, दुःखी, गरीब के प्रति गहरी संवेदना है; प्रसाद सामाजिक विषमताओं के, सत्ता और धन के षड्यन्त्रों के प्रबल विरोधी हैं। रूढ़ियाँ चाहे सामाजिक हों, चाहे धार्मिक या फिर वे आर्थिक और नैतिक ही क्यों न हों-प्रसाद इन तमामों के खिलाफ हैं। उनका यथार्थ अपनी सांस्कृतिक चेतना सहित जीवनानुभूति और मानवीय संवेदना से परिपक्व यथार्थ है, जिसका बीज-भाव ‘करूणा’ है, जो किसी भी यथार्थवाद का मूल बीज है।

प्रगतिवादोत्तर नवलेखन ने भी प्रसाद और छायावाद का विरोध किया। मुझे यह देखकर हैरत होती है कि नवलेखन की अनेक प्रवृत्तियाँ छायावाद जैसी ही हैं, फिर भी यह अस्वीकार किन मनोवैज्ञानिक कारणों से किया गया होगा ? मैंने इसकी पड़ताल करने की कोशिश की है।
आगामी धारा के सर्जकों और आलोचकों ने प्रसाद का चाहे जैसा अर्थ लगाया हो या उनका विरोध किया हो, परन्तु सर्जना झूठ नहीं बोलती। उस पर दिखावटी इनकार या स्वीकार का; भाषणों और वक्तव्यों का कोई असर नहीं होता; हाँ, इन सबसे एक माहौल बनता है जिसमें दोयम लेखक या कार्यकर्ता वीरोचित उत्साह से निकल पड़ते हैं। इन सारी गतिविधियों से साभिप्राय और सचेत रूप में पूर्व सृजन का जो लाभ मिल सकता है उससे नव-धाराएँ वंचित हो जाती हैं छायावाद और प्रसाद के प्रभाव के बारे में भी यही हुआ, परन्तु श्रेष्ठ सृजन उनकी चेतना को अन्तरंग और सूक्ष्म रूप में ग्रहण करता रहा। पुस्तक में इसकी यथोचित चर्चा है।

छायावादी आलोचना की ऐतिहासिक भूल के कारण पन्त के साथ प्रसाद भी अगली धारा को स्वीकार नहीं हुए, परन्तु इसी भूल या अपने व्यक्तित्व और सृजन के कारण निराला आगामी काव्यधाराओं के प्रिय और प्रेरक कवि समझे गये। असल में प्रसाद की प्रेरणा इतनी आन्तरिक, लयात्मक महीन रही कि उसे पहचाना न जा सका। जैसे बिना प्रयास के कोई स्वस्थ आदमी साँस लेता है और जानता नहीं कि किस संघर्षपूर्ण स्नायविक और जैविक क्रिया से वह चल रही है, वह स्वाभाविक रूप से साँस लेता है- उसके महत्त्व से अपरिचित-सा, ठीक वही प्रसाद की प्रेरणा के साथ चुपचाप घटित हुआ। जिसने सीखा वह भी सीखना जान न सका—यहाँ तक कि अज्ञेय भी। इसलिए मुझे लगा कि प्रसाद की अन्तरंग प्रेरणा और प्रभाव को आगामी युगों में पहचानने की कोशिश की जाय।
यदि परिवर्ती युगों का साहित्य तमाम दबावों के बावजूद एकान्ततः विदेशीवादों के गिरफ्त में नहीं आया, आलोचना दृष्टि भी इस ओर से चौकन्नी बनी रही तो क्या इसमें जातीय अस्मिता की खोज करने वाली अन्तर्दृष्टि की प्रेरणा नहीं है ? आत्मगौरव की राष्ट्रीय चेतना क्या आगामी युगों का पाथेय नहीं बनी ? इन्हें छायावाद या प्रसाद के स्पष्ट प्रभावों के रूप में नहीं देखा जा सकता, परन्तु सर्जनामानस भी लोकमानस की तरह किसी-न-किसी स्तर पर अतीत की समष्टि होता है, इसे इनकारने का क्या तर्क है ?

चाहे निराला को छायावादी अवधारणा में शामिल न किया गया हो, परन्तु क्या सिर्फ इससे वे छायावादी रचनाकार नहीं रहे ? इसलिए निराला का स्वीकार किसी-न-किसी रूप में छायावाद का स्वीकार है, इसमें प्रसाद का स्वीकार मुख्यताः अन्तर्हित है-परन्तु ऊपरी तौर पर लेखकों के द्वारा उन्हें स्वीकार न करने के क्या कारण हो सकते हैं, इसकी पड़ताल भी की गयी है। इसमें अनायास ही निराला और प्रसाद के व्यक्तित्व की तुलना हो गयी, जो मेरा अभिप्राय नहीं था, अभिप्राय उस मानसिकता की तालाश थी जो स्वीकार और अस्वीकार में निहित होती है।
प्रसाद एक संश्लिष्ट रचनाकार हैं। इस संश्लेलेषण को विच्छिन्न कर जब भी उन्हें देखा गया, स्वयं देखनेवाली प्रक्रिया ही विसंगत हुई। ऐसी विसंगतियों का हवाला देते हुए यह खोज भी यहाँ जरूरी हुई कि प्रसाद की सर्जना का ऐसा कौन-सा केन्द्र है जो उनके भीतर ‘विरोधों का सामंजस्य’ घटित करता है ?

मैं तो चाहता था कि प्रसाद का नयी और साफ दृष्टि से मूल्यांकन करूँ; दंगल का मेरा इरादा नहीं था। फिर भी इस पुस्तक ने प्रसाद और छायावाद विरोधी ‘आलोचना के विरूद्ध आलोचना’ का रूप ले लिया। जैसे लेखक के द्वारा गढ़े हुए पात्र यात्रा-गति में कथा-सूत्र का संचालन अपने हाथ में ले लेते हैं, वैसे ही जब असंगतियों के प्रतिकार से बात शुरू हुई तो ‘प्रतिकार’ ने ही मंच सँभाल लिया और विवेचना का एक तेवर बन गया जो अन्त तक जारी रहा। ‘प्रतिकार’ का तर्क भी सही है कि अगर उसे रास्ता तय करना है तो झाड़-झंखाड़ या अवरोध हटाये बिना वह कैसे आगे बढे़ ! फिर भी मैं पूर्व आलोचना और सोच के प्रति अकृतज्ञ नहीं हूँ, विरोध उसी सीमा तक है जहाँ तक वह है। मसलन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कई बार ‘सन्दर्भ’ आया है, इन्हीं सन्दर्भों तक मेरा विरोध सीमित है, अन्यथा तो मैं मानता हूँ कि उन जैसे आलोचक के पैदा होने के आसार अभी कम-से-कम 50 साल तक तो भारतीय भाषाओं में नहीं हैं।

किसी को लग सकता है कि यह पुस्तक प्रसाद का बचाव करने के लिए लिखी गयी है। ऐसे दुस्साहसी, बड़बोले, अहम्मन्य आलोचक हिन्दी में बहुत मिल जाएँगे। कम-से-कम मैं इस महत्त्व का अधिकारी नहीं, न वह मेरी आकांक्षा है। प्रसाद को किसी के बचाव की जरूरत नहीं है। पिछले 60 वर्षों की सतत आँधियों में भी वे नहीं उखड़े-बल्कि ज्यादा जमे, तो अपने बूते पर, किसी के बचाव के बल पर नहीं। उनका गहरा, उदात्त और दृष्टि-सम्पन्न साहित्य किसी के बचाव का मोहताज नहीं है। मैंने तो अपने सोच और प्रासंगिक दृष्टि को प्रसाद की तुला पर तोला है।
कोई भी लेखक अपने में न तो पूर्ण होता है और न निर्दोष-चाहे जितना बड़ा वह हो। परन्तु किसी विशेष सन्दर्भ में लिखी पुस्तक का अपना तेवर होता है। प्रसाद की समग्र आलोचना इस पुस्तक का मुद्दा नहीं है और जो है वह मैं स्पष्ट कर चुका हूँ। इसलिए सम्भव है यहाँ प्रसाद के अभाव, त्रुटियाँ आदि न दिखें, क्योंकि उन पर अगर यहाँ विचार होता तो पुस्तक ही अप्रासंगिक हो जाती।
यदि यह पुस्तक बीसवीं शती के अन्तिम दशक के पाठक की नव-चेतना को थोड़ा भी आश्वस्त कर सकेगी तो मैं अपने को कृतकार्य समझूँगा।
उन सभी रचनाओं, विचारों, लेखकों, दोस्तों का ऋणी हूँ जिन्होंने इस पुस्तक को लिखने या मेरे लेखकीय मानस को ज्ञात-अज्ञात रूप में परिपक्व करने में मदद दी है।

वेदना का उत्तराधिकार

महाकवि भवभूति ने शायद गहन हताशा के क्षणों में ही कहा होगा कि : मेरे काव्य मार्मिक/समानधर्मा, कभी, कहीं तो जन्मेगा ही, क्योंकि काल अनन्त है और पृथ्वी भी कोई छोटी नहीं है :

‘‘उत्पत्स्यते मम तु कोऽपि समानधर्मा
कालो ह्ययं-निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ।

कुछ लोगों ने अनुमान लगाया कि भवभूति समकालीन पण्डितों की हृदयहीनता से दुःखी थे; कुछ ने इसे अपनी सर्जना पर कवि के अटूट विश्वास की तरह लिया; कुछ ने कहा की भवभूति को तत्कालीन प्रतिक्रियाओं की परवाह नहीं थी, वे करते भी क्यों ? आखिर वे कोई सामयिक नहीं कालजयी कवि थे ! पर इन सम्मतियों में वह आन्तरिक पीड़ा कहाँ, जो एक सर्जक को हर पल सालती रहती है ! वास्तव में भवभूति न तो कोई दर्पोक्ति कर रहे थे, न तत्कालीन पण्डितों की आलोचना से क्रुद्ध थे, उल्टे वे तो व्यथित थे-इसलिए कि उन्हें अपने समय से काटा जा रहा था, और वे समय में रहना चाहते थे। अन्यथा इसी श्लोक की पहली दो पंक्तियों में वह सघन उदासी क्यों झलकती, जिसे ढाँकने के लिए उन्हें दर्पोक्ति का सहारा लेना पड़ा ? बहुत ठण्डे लहजे में, लेकिन बेहद सन्तप्त होते हुए पहले तो उन्होंने यही कहा- ‘‘न जाने क्यों लोग मेरी सर्जना का अनादर करते हैं ! कारण शायद वे ही बताएँ।’’ फिर उन्हें लगा होगा कि वे ज्यादा ही निरीहता दिखा गये हैं तो उन्होंने प्रति उपेक्षा के सहारे अपने सर्जक को आत्म-सन्ताप से मुक्त करना चाहा-‘‘मैंने प्रयत्न भी नहीं किया कि (अनादर का) कारण जानूँ।’’ :

‘‘ये नाम केचिदिह नः प्रथयत्यवज्ञां
जानन्ति ते किमपि तान्प्रति नेषयत्नः ।।’’

अपनी भूमि और काल से निराश होकर ही तो कोई कवि ‘किसी देश’ या ‘किसी काल’ की अनन्त परीक्षा के लिए विवश होता है। यदि अपने ही देश-काल में भवभूति को आदर मिल जाता तो क्या उन्हें अन्य देश-कालों का मुँह जोहना पड़ता ? रचनाकर अपनी सरस्वती को, अपने समय में, अपनी आँखों के आगे फलवती देखना चाहता है, जीते-जी उसकी दुर्गति देखने से बड़ा कोई सन्ताप लेखक को नहीं होता। बाद में आप उसे कालजयी माने या कितने ही ऊँचे आसन पर बिठाएँ, उससे लेखक को क्या लाभ-

‘‘मूवा पीछे देहुगे सो दरसन किहि काम ?’’

भवभूति के साथ जो घटा वह संसार की अनोखी घटना नहीं थी; बड़े-बड़े कालजयी रचनाकर अपने समय में उपेक्षित और तिरस्कृत हुए हैं, परन्तु परवर्ती कालों में उनकी प्रतिष्ठा और अपरिहार्यता ने दिखा दिया है कि अपने समय में उनके साथ अन्याय हुआ है। क्योंकि सार्थक जीवनानुभव के बिना कोई रचना वह दर्पण हो नहीं सकती जिसमें अनेक युग अपने चेहरे देख लिया करते हैं। सामयिक मूल्यांकन और जन-प्रतिक्रिया कई बार भ्रान्त तात्कालिकता, अन्तर्बाधा या उत्तेजना के कारण गम्भीर महत्त्व के साहित्य का भी अवमूल्यन या अल्पमूल्यन कर देती है जिसका परिहार इतिहास को करना पड़ता है। अपने समय के चमचमाते सितारों को हमने इतिहास के प्रकाश में लुप्त होते और कई धुमैली आकृतियों को निरन्तर तेजस्वी होते देखा है।
क्योंकि गतिशील समय से बड़ा कोई बुलडोजर या झाड़ू नहीं होता और न इतिहास से अधिक निष्करुण और तटस्थ कोई न्यायाधीश होता है। इसलिए जो रचनाएँ इतिहास की अग्नि में से कुन्दन बनकर निकलती हैं वे सिद्ध करती हैं कि अपने समय में भी प्रासंगिक थीं। लेकिन समय ने उन्हें ठीक से नहीं पहचाना, जिसमें रचना या रचनाकार का कोई दोष नहीं होता है। जिस वृक्ष की शाखें फूटती हैं और फल देती हैं-उसकी जड़ों का पृथ्वी में गहरा स्वयमेव सिद्ध है।
छायावादी-युग में निराला और जयशंकर प्रसाद को भी बहुत कुछ भवभूति जैसा सन्ताप झेलना पड़ा। निराला ने तो ‘सरोज स्मृति’ और अन्यत्र खुलकर अपनी वेदना और असन्तोष प्रकट कर दिया, परन्तु प्रसाद सारी अवहेलना और आरोप चुपचाप पीते रहे। स्वयं निराला ने उनके बारे में लिखा है-


‘‘रहित बुद्धि से लोग असंयत हुए अनर्गल
किन्तु नहीं तुम हिले, तुम्हारे उमड़े बादल।’’

वेदना उन्हें अवश्य ही रह-रहकर टीसती रही होगी, परन्तु कभी उन्होंने उसे उघाड़कर नहीं दिखाया; न अहंकार प्रदर्शित किया, न याचना की और न प्रतिवाद किया। वे गम्भीर विद्वता और विचारशील सर्जक-चेतना से अपनी मौलिक स्थापनाएँ रखते रहे। उदाहरण के लिए समय की आवश्यकता पहचानकर जब वे उत्तरदायी उत्साह से निरन्तर नाटक लिख रहे थे, तब लोग उनके नाटकों की मंचन क्षमता पर उतने ही उत्साह से प्रश्न चिन्ह लगा रहे थे, प्रकारान्तर से उन्हें नाटक मानने से ही इनकार कर रहे थे। वे कह रहे थे कि नाटकों की भाषा पात्रानुकूल नहीं है, दृश्य-योजना अव्यावहारिक है, गीतों का समावेश आधुनिक नाट्य-विधि के अनुरूप नहीं है—आदि-आदि। प्रसाद ने आरोपों का कोई व्यक्तिगत उत्तर नहीं दिया; बल्कि इस विषय पर व्यापक और तटस्थ लेख लिखा-‘रंगमंच’।

उसमें उन्होंने कहा कि ‘‘रंगमंच के सम्बन्ध में यह भारी भ्रम है कि नाटक रंगमंच के लिए लिखे जाएँ। प्रयत्न यह होना चाहिए कि नाटक के लिए रंगमंच हो, जो व्यावहारिक है।’’ लोगों ने अर्थ लगाया कि प्रसाद ने मान लिया है कि उनके नाटक वर्तमान रंगमंच के उपयुक्त नहीं हैं; उनके लिए अलग रंगमंच बनाना पड़ेगा जो सौ साल से कम में तो क्या बनेगा ! लिहाजा तब तक उन्हें पाठ्य-नाटक मानकर विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाए गौर ‘गोष्ठी-नाटकों’ के रूप में उन पर बहस हो ! वे नहीं समझ पाये कि प्रसाद के उक्त कथन के पीछे कितनी तीखी वेदना थी ! वह कथन प्रतिरोधात्मक था, प्रतिपादक नहीं। क्योंकि इसी लेख में उन्होंने मंचन के लिए वैज्ञानिक साधनों के उपयोग की सलाह दी थी, ‘मर्मज्ञ सूत्रधार’ (निर्देशक) की माँग की थी। कच्चे आधुनिकों पर इब्सनिज़्म का भूत सवार होने से वे खिन्न थे। उन्होंने संवाद-भाषा के बारे में कहा कि, ‘‘सरलता और क्लिष्टता पात्रों के भावों और विचारों के अनुसार भाषा में होगी ही।’’

ये सब रंगमंच के लिए सर्जनात्मक निर्देश थे या भावी रंगमंच की प्रतीक्षा ? भला बताइए कि क्या एक दर्जन से अधिक नाटक लिखने वाला, युग का सर्वश्रेष्ठ नाटककार यह नहीं जानेगा कि नाटक के लिए अपने समय में मंचित होने की योग्यता का कोई विकल्प नहीं है ? इसीलिए वे मंच से इनकार नहीं कर रहे थे, बल्कि उसकी सर्जनात्मक योग्यता को चुनौती दे रहे थे, उसे उत्प्रेरित कर रहे थे। उन्होंने पारसी रंगमंच के द्वारा फैलाये प्रदूषण से क्षुब्ध होकर, सामूहिक और व्यापक अपील के लिए जो नाटक लिखे थे, वे ‘पाठ्य-नाटक’ या ‘गोष्ठी-नाटक’ बनाकर विश्वविद्यालयों की चीरफाड़ टेबल के मेंढक बनाने के लिए नहीं थे। वे वास्तव में घटिया और सस्ते रंगमंच को अपदस्थ कर गम्भीर स्तर के ‘प्रति रंगमंच’ की सर्जना का आह्वान कर रहे थे। उन्होंने स्वयं रंगमंच की परिकल्पना भी की थी और भारतीय तथा पाश्चात्य रंग-दृष्टि के संयोजन का नया प्रतिमान स्थापित किया था, यहाँ तक कि जिस पारसी थिएटर के विरोध में उन्होंने नाटक लिखे थे, उसके भी कुछ तत्वों का अपने नाटकों में (खासकर प्रारम्भिक नाटकों में ) समावेश किया था।

परन्तु उस समय हिन्दी रंगकर्म बहुत शिथिल था और उसमें ऐसे ‘मर्मज्ञ सूत्रधारों’ का प्रवेश नहीं हुआ था जो प्रसाद की गतिशील परिकल्पना को चाक्षुष करते और जरूरत पड़ने पर नाटक में यथोचित फेरबदल करके उसमें निहित मंचन-क्षमता को उजागर करते। प्रसाद यदि भारतेन्दु होते तो सम्भवतः वे यह सब कर सकते थे, परन्तु उन्होंने अपने दायित्व को लेखन तक सीमित रखा। यह उनकी सीमा थी।

नाटकों पर टिप्पणी करने के लिए उस समय तीन तरह के लोग उपलब्ध थे- एक तो वे जिनका सम्बन्ध अकादमिक काव्यशास्त्र से था; दूसरे जिन पर ‘इब्सनिज़्म’ का भूत सवार था; तीसरे वे जो रूढ़िवादी मंच से जुड़े थे। ऐसे ज्ञानियों की राय में प्रसाद के नाटकों का मंच की दृष्टि से अनुपयुक्त होना अपरिहार्य था। उनके नाटकों का सही मूल्यांकन और मंचन, सृजनधर्मा नाट्यकर्मी ही कर सकते थे, और उन्होंने किया भी; परन्तु बहुत बाद में। प्रसाद-युग में तो उनके नाटक कभी-कभार ही खेले गये-और वे भी इस तरह कि- डॉ. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ बता रहे थे कि जब वाराणसी में स्कन्दगुप्त का मंचन हुआ, तो अगली पंक्ति में बैठे आचार्य शुक्ल ऊँघने लगे थे। क्या ब.व. कारन्त, शान्ता गाँधी, रामगोपाल बजाज आदि के स्कन्दगुप्त-मंचन को देखकर शुक्लजी ऊँघ सकते थे ? गम्भीर आदमी थे, उछलते तो नहीं, लेकिन रह-रहकर रोमांचित होते और हिन्दी-नाट्य-सर्जना की क्षमता पर गर्व भी करते।

पिछले दिनों ब.व. कारन्त ने स्कन्दगुप्त का शानदार प्रदर्शन किया (उनकी टिप्पणी ‘निर्देशक की डायरी से’ में उपलब्ध है) उन्होंने प्रसाद के नाटकों की रंगमंचीयता पर महत्त्वपूर्ण व्याख्यान दिया तो उपस्थित डॉ. नगेन्द्र को कहना पड़ा कि इसके प्रकाश में प्रसाद के नाटकों की मंचीयता सम्बन्धी धारणा बदलना आवश्यक हो गया है। शायद वे लोग होते (या अब भी हों), तो यह देखकर खुश होते कि उनकी वह भविष्यवाणी आज किसी हद तक सही सिद्ध हो गयी है, जिसमें उन्होंने कहा था कि प्रसाद के नाटक सौ साल बाद के नाटक हैं। उन्हें अब यह कौन बताए कि यह प्रसाद की समकालीनता को आघात पहुँचाने वाली वाचाल टिप्पणी और नादान भलमनसाहत थी। क्योंकि प्रसाद सौ साल बाद के लिए नहीं, अपने समय के लिए, समय में मंचन के लिए नाटक लिख रहे थे-‘सफलता के संकलित विलम्ब’ के लिए नहीं।

प्रसाद के नाटकों का अपने समय में और बाद में भी काफी समय तक सफल मंचन न हो पाना नाटक से अधिक रंगमंच की असफलता थी; क्योंकि यदि वे-ही नाटक बाद में, लगभग उन्हीं साधनों से सफलतापूर्वक मंचित हुए, तो उस समय क्यों नहीं किये जा सके ? मुझे लगता है कि जो लोग उनके नाटकों को मंचीयता के विरूद्ध तर्क दे रहे थे, या उदार सौजन्यवश उन्हें पाठ्य-नाटकों की परम्परा में गिन रहे थे (स्वयं नन्ददुलारे वाजपेयी तक) अथवा सौ साल बाद के लिए धका रहे थे-साथ ही सर्जनात्मक उपलब्धि पर मुग्ध भी थे, उन्हें सम्भवतः पता नहीं था कि नाटक को मंच से हटाने का अर्थ उसे समय की प्रासंगिकता से हटाना होता है। क्योंकि यदि नाटक नाटक ही नहीं है तो उसकी क्या प्रासंगिकता और क्या अप्रासंगिकता ?

प्रसाद का सर्जक यह भली-भाँति जानता था, इसलिए खिन्न था और इसीलिए रंगमंच सम्बन्धी भ्रमों का निवारण करके श्रेष्ठ रंगमंच की अवधारणा प्रस्तुत कर रहा था। इतना अवश्य है कि मंच से नाटक को छोटा करके देखना प्रसाद को उचित नहीं लगा; क्योंकि जो गम्भीर अभिप्राय नाटक धारण करता है, उसे मंच पर सार्थकता से व्यक्त होना उसकी सर्जनात्मक आवश्यकता होती है। यह लेखक की मौलिक और अनिवार्य माँग है। खैर, अन्ततः तत्कालीन समझ और सक्रियता के स्तर से निराश होकर प्रसाद को भी भावी रंगमंच की प्रतीक्षा के लिए उसी तरह विवश होना पड़ा जैसे भवभूति को किसी ‘देश’ अथवा किसी ‘काल’ की प्रतीक्षा के लिए।

प्रसाद को समय से निरस्त करना केवल इसी तरह नहीं हुआ। समकालीन मुंशी प्रेमचन्द ने मानो खीझकर कहा था-‘‘क्या गड़े मुर्दे उखाड़ते हो ? जीता-जागता साहित्य लिखो।’’ यह प्रेरक उद्बोधन एक तरह से पौराणिक और ऐतिहासिक विषयों पर लिखे प्रसाद के नाटकों और अन्य रचनाओं पर उनकी आलोचनात्मक टिप्पणी थी। स्पष्ट ही प्रेमचन्द ने प्रसाद पर अतीतजीवी होने का आरोप लगाया था। शायद वे चाह रहे होंगे कि प्रसाद जैसे समर्थ लेखक को यथार्थ का सीधा सामना करना चाहिए।1 इसमें दुर्भावना नहीं थी, परन्तु यह सद्भावना अनेक पल्लवग्राहियों के हाथ में पड़कर, प्रसाद को अपने समय से काटने का मुहावरा बन गयी। आचार्य शुक्ल ने वल्लरियाँ, पराग, मधु, मकरन्द, अप्सराएँ, रश्मियाँ आदि में प्रसाद को उतनी ही सरलता से परिमित कर दिया, जितनी आसानी से भिखारीदास ने ‘सीखि लीनो खंजन, कमल, मृग’ आदि कहकर रीति-कवियों को उपमा के कठघरे में खड़ा कर दिया था ! कुछ

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1. अक्तूबर, 1928 की ‘माधुरी’ में प्रेमचन्द ने ‘स्कन्दगुप्त’ की आलोचना करते हुए प्रसाद से जो अपील की थी, उससे इस कथन की पुष्टि होती है :
‘‘हम प्रसाद जी से यहाँ निवेदन करेंगे कि आप को ईश्वर ने जो शक्ति दी है, उसका उपयोग वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं के हल करने में लगाइए। स्टेज का आज यही ध्येय माना जाता है। इन गड़े मुर्दों को उखाड़ने से आज कोई फायदा नहीं।’’
2. ‘कंकाल’ पर बधाई देते हुए 24 जनवरी, 1930 को प्रेमचन्द ने प्रसाद को जो पत्र लिखा था, उसमें भी उनकी यही भावना व्यक्त हुई है। ‘जो लेखनी वर्तमान समस्याओं को इतने आकर्षक ढंग से जनता के सामने रख सकती है, इस तरह दिलों को हिला सकती है’ उससे वे ‘नये सिरे से दुनियाँ बनाने’ की अपेक्षा करते थे, ‘पूर्वजों की कीर्ति’ का गायन करने की नहीं। (प्रेमचन्द का अप्राप्य साहित्य, खण्ड दो : सम्पा. कमलकिशोर गोयनका, पृ.25-26 (दे.))
लोगों ने उनके एकाध गीत का टुकड़ा उठाकर उन्हें पलायनवादी कह डाला, जिसे हिन्दी की शुक-परम्परा ने रट-रटकर पक्का कर लिया। नयी कविता के अज्ञेय ने फतवा दिया कि-‘प्रसाद विश्वविद्यालयों के कवि हैं। यानी, नये कवि के लिए उनका कोई सर्जनात्मक अर्थ नहीं था। (अज्ञेय के मुँह से यह सुनना यह अटपटा लगता है, क्योंकि नयी कविता में प्रसाद के गुण-धर्म सबसे अधिक उन्हीं में हैं।)

कुल मिलाकर विश्वविद्यालय के प्राध्यापक/ आलोचक प्रसाद के नाटकों को सौ साल बाद के लिए विश्वविद्यालयों के पिरामिडों में सुरक्षित कर रहे थे। आचार्य शुक्ल को किसी दूसरे ठन-गन, शिल्प-छाया वगैरह में आया रीतियुग उनमें दिख रहा था; कुछ पल्लवग्राही उन्हें पलायनवादी कह रहे थे; समकालीन प्रेमचन्द को वे गड़े मुर्दे उखाड़ते लग रहे थे परवर्ती अज्ञेय की राय में वे गतिशील सर्जनात्मकता के लिए निरर्थ थे। अगर इन टिप्पणियों को विश्वसनीय माना जाए तो निष्कर्ष निकलेगा की प्रसाद एक पलातक, अतीतजीवी, मधुचर्या में मग्न कवि थे जो न अपने जमाने में प्रासंगिक थे, न आगे आने वाले युगों में किसी काम के।

परन्तु आज परिदृश्य बदल चुका है। प्रसाद कालजयी स्रष्टा माने जा रहे हैं। यह स्वर केवल विश्वविद्यालयों से नहीं, आलोचकों, रचनाधर्मियों और रंगकर्मियों के बीच से उभर रहा है। उनके नाटकों के सफल प्रयोग हो रहे हैं, उन्हें समग्रता से देखा जाने लगा है। वामपन्थी शिविर में उपेक्षित प्रसाद को अब वहाँ भी सोत्साह स्वीकार किया जा रहा है। परवर्ती वामपन्थी स्वयं अपने पूर्ववर्तियों के आरोप खारिज कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में प्रसाद पर सम्पूर्णतः पुनर्विचार अपरिहार्य हो उठा है।

प्रसाद का साहित्य यदि कालजयी है तो सबसे पहले विचारणीय यह है कि वह अपने समय में प्रासंगिक था या नहीं ? क्योंकि कालजयी या क्लैसिकल साहित्य वही हो सकता है जो अपने रचनाकाल में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक रहा हो तथा आनेवाले समयों में भी किसी-न-किसी अर्थ में अनिवार्य, प्रासंगिक और मूल्यवान बना हुआ हो। साहित्येतिहास प्रमाण है कि वही साहित्य परवर्ती युगों में महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ है जो अपने समय का केन्द्रीय साहित्य रहा हो। क्योंकि बड़ी रचना अपने काल में पूरी अर्थवत्ता में उपस्थित रहकर ही कालातीत होती है (यह बात बिलकुल अलग है कि लोग अपने समय में उसे न पहचानें या महत्त्व न द

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