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ज्यों मेहँदी को रंग

मृदुला सिन्हा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5346
आईएसबीएन :81-7315-359-0

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विकलांगों के जीवन पर आधारित उपन्यास...

Jyon mehendi ko rang

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

समाज-सेवा न वक्त काटने का साधन है, न वक्त गँवाने का जरिया, न किसी के व्यक्तित्व में चार चाँद लगाने की सीढ़ियाँ। यह महज सेवा है-उनकी, जो सेवा के लायक हैं—उनके द्वारा, जिनमें सेवा का भाव है—जिन्होंने अपनी कई रातों की नींद उनकी चिन्ता में गँवाई है, जिनकी वे सेवा करना चाहते हैं।
विकलांगों के लिए जीने के अनेक रास्ते बंद हो जाते हैं, तो भला मरने के क्यों खुले रहें ? उनके लिए मरना भी कितना कठिन होता है !
एक के लिए जी-जीकर थक चुकी थी शालिनी। उसने निश्चय किया—एक के लिए नहीं, अब जिंदा रहेगी अनेक के लिए।

इसी पुस्तक से

‘विकलांगों को आधार बनाकर लिखा गया संभवतः यह हिन्दी का प्रथम उपन्यास है। सरकारी और गैर- सरकारी प्रयत्नों से भी बढ़कर स्वयं विकलांगों की मानसिकता में परिवर्तन की राह दिखाता यह उपन्यास जीवंत और समाजोपयोगी है।
सुपरिचित लेखिका मृदुला सिन्हा की सहज-सरल शैली और विकलांग पुत्र के संग-संग जीने से उत्पन्न स्वानुभूति से भरपूर यह उपन्यास पाठकों को अवश्य प्रेरित करेगा। उपन्यास में लेखिका ने विकलांगों की समस्याओं पर बड़ी ही हृदयस्पर्शिता व मार्मिकता से अपनी लेखनी चलाई है। इस तरह यह एक शोधपरक उपन्यास है।’

पूर्वकथन

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व भर में अस्सी करोड़ से अधिक विकलांग हैं। इन्हें किसी-न-किसी रूप में हमारे-आपके सहारे की आवश्यकता होती है, मात्र करूणा ही नहीं। थोड़ी-बहुत मदद से ये कुछ-से-कुछ कर दिखाते हैं। कोई आवश्यक नहीं कि इनके लिए कुछ करने के लिए बड़ी संस्था बने, बड़े पैमाने पर ही काम हो। जिंदगी भर इनके लिए कुछ करने का ढोंग रचाने की बजाय अपनी पूरी जिंदगी में तहेदिल से एक अंधे की लाठी बन जाना ही सही समाज-सेवा है। जिस सेवा से आनंद मिलता है।

एक विकलांग के कारण उसके घरवाले अपने भाग्य को ही खोटा समझने लगते हैं, और सच्चाई यही है कि उनके जीवन का दृष्टिकोण बदल जाता है। जिसपर बीतती है, वही समझ सकता है ! और जिस पर बीतती है, वह इनके लिए कुछ करता है तो वह स्वाभाविक होता है, उपयोगी भी।
इस उपन्यास के लिए मैंने ‘भगवान् महावीर विकलांग सहायता समिति’, जयपुर के कार्य एवं उपलब्धियों का सहारा लिया है। लेकिन इसके सभी पात्र काल्पनिक हैं।
मैं श्री देवेंद्रराज मेहता, तत्कालीन सचिव, भगवान् महावीर विकलांग सहायता समिति (वर्तमान में ‘सैबी’ के अध्यक्ष) साहित्यकार श्री उपेंद्रकुमार के सहयोग के प्रति आभारी हूँ। साथ ही अपने तीनों पुत्र एवं नन्ही बिटिया मीनाक्षी की भी, जिनके लिए अर्पित अपने समय में से ही कुछ क्षण चुराकर इस पुस्तक की रचना कर सकी।
अपने पुत्र स्व. परिमल के प्रति किस भाव की भाषा में अपना आभार व्यक्त करूँ। यह सच है कि उसकी उस स्थिति ने ही मुझे इस उपन्यास की रचना के लिए बाध्य किया, कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अपना शरीर क्या, उँगली भी एक इंच हिला पाने में असमर्थ परिमल अपने अठारह वर्षीय जीवन में दस वर्षों तक हमारे ऊपर पूर्णरूपेण निर्भर था। परंतु न मैं, न उसके पिता, चाचा अभय सिंह, न दोनों भाई और न नन्ही बहन मीनाक्षी, किसीने भी उसकी विकलांगता कबूल नहीं की। हम उसके लिए सामान्य स्थिति निर्माण करने में सक्षम हुए, उसे दीन-हीन समझने की बजाय एक सामान्य बच्चा समझा, ईश्वर कृपा। उसके अंदर जिजीविषा जगाए रखने में उसके पिता की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। उसे तो जाना ही था। उस सुबह के आने के पहले वह पूर्व सूचना देकर चला गया, ‘आज अंतिम रात है। माँ, मुझे गोद में ले लो।,.
सच यह है कि उसके साथ बिताए दस वर्षों के कालखंड की अनुभूतियों को ही उपन्यास के पन्नों पर उतारा है। ये अनुभूतियां मेरी ही नहीं, उन सब माँ-बापों की हैं जिनकी स्थित मेरी जैसी थी, है या होगी।
 उपन्यास के प्रथम संस्करण का विमोचन (1981 विकलांग वर्ष) में करने से पूर्व साहित्यकार स्व. जैनेंद्रजी ने पूछा था, ‘इतने सारे विषय हैं उपन्यास लिखने के लिए, तुमने विकलांगों की समस्याएँ ही क्यों चुनीं ?’ अनायास मेरी आंखों से अश्रुधारा बह चली थी। उन्होंने कहा, ‘समझ गया मैं। तभी यह रचना अपने भाव, भाषा और कथानक पर खरी उतरी  है।’ उस स्थिति को भोगते हुए यह भी सच है कि मेरी स्थिति ग्रीक साहित्य की ‘किंग मिदास’ कथा के पात्र उस नाई जैसी हो रही थी, जिसमें राजा के गधे के कान होने की कहानी, बिना किसीको सुनाए उसका पेट फूल रहा था। राजा के द्वारा किसीसे बताने की सख्त मनाही थी। उसने झाड़ियों को सुनाकर राहत की सांस ली। अपनी अनुभूतियों को उपन्यास के रूप में आप सब तक पहुंचाना भी मेरी मजबूरी थी।
हाल ही में दूरदर्शन पर प्रसारित ‘जयों मेहँदी को रंग’ धारावाहिक पर आई प्रतिक्रियाओं ने मुझे राहत दिलाई है। दर्शकों ने मेरी अनुभूति को सही-सही समझा है, आत्मसात् किया है। यही आदि और अंत है इस रचना का।

ज्यों मेहँदी को रंग

एक

सारी रात आँखों में बिताकर भोर के समय शालिनी की आँख लगी ही थी कि सुबह उठने की घंटी के साथ उठ बैठी शालू की निगाहें गोद में दबे पाँवों पर जा अटकीं। हलकी गुलाबी सुडौल दो टाँगें, जिससे लगी उँगलियाँ ईश्वर की बारीक रचनाओं में से एक लग रही थीं। नखों के उतार-चढ़ाव के कहने ही क्या ! और उन नाखूनों पर चढ़ाई लाल नेल-पॉलिश मानो शालिनी के सुहागिन होने का इजहार, दस छोटे-बड़े गवाह बनकर, उन्मुक्त स्वर में निखर-निखरकर कर रहे हों ! उन उँगलियों से लिपटा अपना दामन छुड़ाती उसकी नजरें थोड़ी सी ऊपर उठीं तो पायलों पर जा कर अटक गईं। नन्ही-नन्ही सैकड़ों रीबियाँ लगी पायलें थीं। मीना की हुईं। उन्हें गोद में डाले निरखती-निहारती शालिनी निहाल हो उठी। उन्हें झट अपनी लटकती जाँघों से जोड़ गई। पाँवों में हलकी सी हरकत होते ही पायलें झनक उठी थीं; मात्र उनकी झंकार से उत्पन्न रोमांच पाँवों को झकझोर गया और पायलें राग भैरवी में आलाप कर उठीं। समय भैरवी राग गाने का जो था। आलाप से तन-मन झंकृत हो उठा था शालिनी का। उन्हें लगातार हिलाती, उनसे निकलती स्वर-लहरी में डूब गई शालनी—ऊपर से नीच तक। बाहर से भीतर तक उसका भूत, वर्तमान, भविष्य –सब बिसर गया।
अपने परिवेश को भी भूल गई वह। भूल गई कि दिन चढ़ आया था। संस्था के भी कोई कायदे-कानून थे। एक शख्त दिनचर्या-जिसके साथ सब रोगी, व्यवस्थापक, कर्मचारी तथा डॉक्टर चलते थे। दरअसल संस्था को एक सूत्र में बाँधनेवाली इन श्रेणियों में कोई अंतर ही न था। फिर वही दिनचर्या प्रारंभ हो गई थी।
‘क्या हो रहा है, शालिनी ?’’ दद्दाजी  की समयानुकूल, पर अपेक्षाकृत सख्त आवाज के झटके से शालिनी के साथ-साथ उसकी अनुगामिनी बनी पायलें  भी थम गईं। उनकी झंकार मात्र वातावरण में गूँज रही थी।
‘‘कुछ नहीं...कुछ नहीं, अभी प्रार्थना के लिए चलती हूँ, दद्दाजी,. शालिनी से एक कदम आगे बढ़कर सहम गई थी उसकी आवाज।
एक सारगर्भित मुसकान बिखेर, पूरे परिवेश को उसमें लपेटते हुए दद्दाजी ने अपनी छड़ी की नोक उसके पाँवों पर डाली, जिसकी चुभन के आभास से शालिनी ‘आ ऽऽ-आ ऽऽ’ कर गई। मानों डॉक्टर के हाथ में सिरिंज देखते ही सुई चुभने के भय से रोगी ‘ई-ई ऽऽ’ कर उठा हो। दद्दाजी छड़ी हटाते हुए ठहाके में डूब गए थे।
परिस्थिति के अहसास से सजग होती शालिनी सहमकर सिमट गई। दद्दाजी की ओर मुड़ी, पर उन्हें साधुवाद देने को उसका खुलता मुख उचित शब्दाभाव के कारण पुनः स्थिर गति से होंठो को समेट चुका था। केवल आंखे पूरी-की-पूरी खुली थीं, फैली थीं-जिनमें तैर रहा था आश्चर्य, आनंद और दद्दाजी के लिए उफन आया अपार आभार का सैलाब।
‘‘क्यों, पसंद आ गये न पाँव ! चल, चलके दिखा !’’ दद्दाजी ने बड़े स्निग्ध स्वर से कहा।
शालिनी झट खाट छो़ड़ उन्हीं पाँवों पर खड़ी होने लगी। सहारे के लिए पलंग से लगी बैसाखियाँ उठाने लगी तो दद्दाजी उससे पहले लपककर उन्हें उसकी पहुँच से दूर रख आए। थोड़ी लड़खड़ाहट हुई पंवों में, जिसे स्थिर करने के लिए दद्दाजी का कंधा थाम लिया शालिनी ने। वे चाहकर भी नकार न सके। कमरे में प्रवेश करती महिमा सहायता के लिए लपकी तो उन्होंने इशारे से उसे रोक दिया।
‘‘ऐसा कर, इस खाट के इर्द-गिर्द ही चल !’’ दद्दाजी ने शालू को अपनी छड़ी थमा दी।
उनकी सलाह को हृदयंगम करती शालू एक-दो कदम आगे बढ़, पीछे लौट बिछावन पर धम्म से बैठ गई।
 
एक कतार दृष्टि उसने दद्दाजी की ओर डाली। उन्होंने नर्स को आदेश दिया, ‘‘महिमा, देख, इसे कल सवेरे चलकर प्रार्थना भवन तक आना है। आज चाहे जितना अभ्यास करा लो। आज तुम दोनों की प्रातःकालीन वंदना से छुट्टी।’’
महिमा ने अश्वासन दिया, ‘‘ऐसा ही होगा, दद्दाजी ! कल शालिनी अपने पाँवों पर चलके आएगी। मैं आज अभ्यास....’’
दद्दाजी चले गए। जाते-जाते बैसाखियाँ लेते गए। महिमा ने एक हलकी चपत शालिनी की पीठ पर लगाई, ‘‘चल, अभी चलकर दिखा; वरना तेरी जगह मैं पिट जाऊँगी।’’
‘‘थोड़ी देर बैठ तो सही आऽऽ’’ शालिनी ने महिमा का हाथ खींचकर उसे अपनी बगल में बैठा लिया।
‘‘देख महिमा, कितने सुंदर, कितने नाजुक है ये पांव ! केवल गति नहीं है न इनमें; इतना ही तो अंतर है। उनमें गति थी, वे चलते रहते थे, भागते थे।’’
 
भावावेश में अतीत में लौटती शालिनी को महिमा वर्तमान में  खींच लाई-‘‘ये भी चलेंगे, शालू ! तू चलाएगी तब तो। वे पांव भी तो तुम्हारी इच्छा के अनुसार ही चलते थे। ये भी चलेंगे, नाचेंगे, दौड़ेंगे। पहले तुम तो...’’
महिमा की दृष्टि शालू के पाँवों से उठकर उसके चेहरे तक पहुँची। शालिनी दीवार पर नजरे फैलाए, बैक गीयर में भाग रही थी। अतीत की स्मरण-रेखाएँ कहीं चौड़ी थीं, कहीं सँकरी। अनेक मोड़ भी थे। एक मोड़ पर अनायास ही शालिनी ने पीछे की ओर यादों की भागती गाड़ी में ब्रेक लगा दिए।
‘‘महिमा...!’’
‘‘अऽहाँ ऽऽ ! क्या है शालू ?’’ महिमा स्वयं शालू की आँखों में झाँकती, उसमें तैरते अतीत के पतझड़-वसंत के साथ उतरने-चढ़ने लगी थी।
‘‘महिमा, एक बात तो बता, दद्दाजी को कैसे पता चला कि मेरे पाँव हू-ब-हू ऐसे ही थे- आकृति रंग-रूप, साज-सज्जा-कुछ भी भिन्न नहीं है। दद्दाजी अंतर्यामी हैं क्या ? या कहीं गंगा मैया ने इन्हें स्वप्न में मेरे पैर के नक्शे दिखा दिए ? इन्हें कैसे पता चला कि इतने स्वाभाविक पाँवों को ही मेरी सास, मेरे पति स्वीकार कर सकेंगे ?’’
‘‘न तो दद्दाजी अंतर्यामी हैं, न गंगा मैया तुम से छीने गए पाँव ही उन्हें दिखाने वाली हैं। अब उन्हें कैसे मालूम हुआ, यह तो उनसे ही पूछना होगा। वैसे हैं तो वे अंतर्यामी ही ! असली पाँव की रूपरेखा पूछ ही लेते हैं-किसीके रिश्तेदार से, तो किसी-किसी रोगी से ही। उनकी पूरी कोशिश होती है कि पाँव भी असली पाँव की तरह ही दिखें।’’
‘‘पुराने पाँवों की कहानी तो तुम्हें मालूम है न !’’ शालिनी ने पूछा।
‘‘उनकी, जो एक सप्ताह पहले लगे थे ?’’
‘अरी, लगे कहाँ ! वे तो रेखा बहन ने लाकर मेरे कमरे में रखे भर। मैं उन्हें देख, उनपर चलने को उतावली हो उठी। मैंने उससे कहा, ‘जल्दी लगाओ !’ उसने ऐतराज किया, ‘ना बाबा ना ! मैंने उन्हें यहां लाकर रख भर दिया है। अब ये तुम्हारी जाँघों से तभी जुड़ेंगे जब दद्दाजी आ जाएँ। तुम्हें पता है, वे इलाहाबाद किसी रोगी को लाने गए हुए हैं। आज तक इस संस्था में जितने भी पाँव लगे हैं, सब दद्दाजी की उपस्थिति में ही।’
‘‘क्यूँ ? डॉक्टर नहीं लगा सकते क्या ?’
‘‘ ‘लगा क्यों नहीं सकते ! लगाना तो डॉक्टर को ही है। परंतु...’
‘‘ ‘परंतु क्या मेरी रेखा रानी ? देख, कोई बहाना मत बना। जाकर डॉक्टर को बुला ला।’
‘‘ ‘मात्र मेरे गिड़गिड़ाने पर वह डॉक्टर को बुलाने चली गई। न जाने डॉक्टर वास्तव में नहीं थे या मात्र मुझे बहलाने के लिए उसने बहाना बनाया। मैंने उससे आग्रह किया, ‘इधर तो ला ! देखूँ तो, कैसे बने हैं ? रेखा ने उन पाँवों को लाकर मेरे पास रखा ही था कि किसीने उसे पुकार लिया। मुझसे रहा न गया। मैंने उन पाँवों को अपने लटकते-डोलते घुटने से अटका भर लिया। मेरी कल्पना उनके सहारे उड़ानें भरने लगी। तभी एक धमाके की आवाज हुई-‘किसने लगाए ये पाँव ?’ ’’
दद्दाजी के गरजने से शायद संस्था के अहाते में झूमते पेड़-पौधे भी थम गए हों। मैं तो काँप उठी। मेरे काँपने मात्र से वे टाँगें नीचे गिर गईं।
‘दद्दा ऽऽऽ दद्दाजी ऽऽऽ ये मैंने...मैंने स्वयं लगाए हैं।’ मैं रेखा को बचाने की पूरी कोशिश कर गई।

वे और भी सख्त बौछार से बरस पड़े-‘‘ये तुम्हारे पाँव हैं ? क्या ऐसे ही मर्दाने पाँव थे तुम्हारे ? इतने बड़े-बड़े नाखून...इतने काले ? ये उभरी नसें ? तुमने इसे अपना पाँव माना कैसे ? दद्दाजी क्रोध से काँप उठे थे।
मैंने उन्हें शांत करने के उद्देश्य से धृष्टता की, ‘दद्दाजी, ये तो...कृ...त्रिम...ये तो बनावटी पाँव हैं न ! जैसे ...भी...हों...क्या फर्क...’
‘चुप करऽऽऽ ! मैं नहीं लगाता कृत्रिम पाँव ! बनावटी लगवाना है तो कहीं और चली...’वे गरज उठे थे।

मेरी सफाई उनकी क्रोधाग्नि में घी का काम कर गई। मैंने चुप रहना ही उचित समझा। नीची निगाह किए ही मैंने अनुभव किया- दद्दाजी का क्रोध व्यथित हो उठा था।
शायद वहाँ खड़े-खड़े उन दो परस्पर विरोधी उग्र भावों पर नियंत्रण पाना उन्हें मुश्किल लगा। क्रोध के झटके से ही वे पीछे मुड़ गए। रेखा ने बाद में बताया, वे बड़ी द्रुत गति से अपने कमरे में लौट गए। दिन भर वही बंद रहे। शाम से पुनः यथावत् उनकी दिनचर्या चलती रही। तब से राउंड लगाते समय मेरे पास आते-आते उनकी गति ठमक भर जाती है। ऐसा लगता है, उस दिन का उनका व्यवहार स्वयं उन्हें भी अप्रत्याशित लगा था।
उसके बाद तो मैं हिम्मत भी न कर पाई कि उनसे अपने पाँव के लिए कभी पूछूँ। सहज, सहृदय, सरल, हँसमुख व्यक्ति के अंदर भी क्रोध था-यह मैंने क्या, संस्था के सब लोगों ने उसी दिन जाना। और ठीक एक सप्ताह बाद रेखा ये पाँव ले आई। ये ढके हुए थे। मैंने सहमकर तटस्थ भाव से रेखा से पूछा, ‘दद्दाजी को दिखा तो लिया ?’’
‘‘दिखाना क्या उन्होंने स्वयं अपने हाथ से दिए हैं। अभी आ ही...’’
तभी दद्दाजी डॉक्टर को साथ लिए मेरे कमरे में आ पहुँचे। प्रथम तो ये दोनों पाँव ढके थे। इनके बाहर आते ही मेरी चीख निकल गई। ठीक वही दो टाँगें, जो गंगा मैया ले गई थी। मुझे तो ऐसा लगा, निश्चय ही दृढ़ संकल्प दद्दाजी ने अपनी साधना के बल से गंगा मैया को भी पिघला दिया होगा और शायद तब गंगा मैया ने मेरे पाँव वापस कर दिए होंगे।

मेरा आश्चर्य, मेरी अजहद खुशी फूटते-फूटते एक अनकहा दर्द दे गई। मैं बिसुर उठी-‘‘दा दी...माँऽऽऽ’’

सारा परिवेश दर्द में सन गया था। मैंने खुद पर नियंत्रण किया। आँसू पोंछ दद्दाजी के लिए कृतज्ञता भरकर आँखें उठाईं। वह उठी-की-उठी रह गईं, विस्मृत हो गईं, और पता नहीं दद्दाजी उसमें क्या ढूँढ़ते रहे ? इतना अवश्य हुआ कि उन्हें वहां वही सागर-रत्न मिल गया, जिसके लिए उन्होंने गहरे समुद्र में गोते लगाए थे। तभी तो अपनी उपलब्धि की गौरव-रेखा खिंच आई उनके चेहरे पर !
वे मेरी पीठ थपथपा, बड़ी तत्परता से डॉक्टर से बोले, ‘‘रूक क्यों गए ? लगाओ न !’’
कुछ मेरी, कुछ दद्दा की नजरों में खिलते-झरते पुष्प बटोरकर अपनी आँखों के कोटरों में भर, डॉक्टर भी आह्लादित हो भींग उठा। मुझे पाँव पहनाने लगा। मैं उन्हें पहन, मंत्रमुग्ध हो निहार रही थी। घुटनों में थोड़ी सी हरकत  से पायल गुनगुना उठी।
दद्दाजी फट पड़े। बोले, ‘‘बजने दो...बजने दो...रोको मतऽऽऽ’’
अकस्मात मैंने दाँतो-पर-दाँत बिठा उन्हें रोक लिया। उनका कहा न माना। क्या पता, उन्हें बुरा लगा हो ! भारी मन से ही सब दद्दाजी के पीछे बाहर चले गए। मैंने सोचा, शायद दद्दाजी गुस्सा हो गए...लेकिन नहीं....नहीं वे तो आज फिर आए। कल फिर आएँगे। मुझे पता है महिमा, वे फिर आएँगे...लेकिन...लेकिन...मैं इन्हें तब तक नहीं बजने दूँगी जब तक...
दिन के भोजन के लिए भोजनालय से घंटी की आवाज आई। महिमा की तंद्रा भंग हुई। वह शालिनी के साथ, उसी के अतीत से जाने क्या ढूँढ़ रही थी।

‘‘शालू, दस बज गए। चल तुझे कुछ खिलाऊँ।’’ विलंबानुभूति से महिमा थोड़ी घबरा सी गई।
शालिनी ने बड़ी निश्चिंतता से दर्शन बघारा, ‘‘जल्दी भी क्या है, महिमा ? खाऊँगी...पीऊँगी...चलूँगी, शायद...दौड़ूँगी भी...लेकिन...ले...कि...न...’’
‘‘चल, चल ! बड़ी दार्शनिक बनी है। चलने का भी अभ्यास न किया और मुझे भी फँसाए रखा।’’
‘‘मैंने फँसाया ?’’साश्चर्य से पूछ बैठी शालिनी।
‘‘और क्या ?’’ बड़ी तत्परता से शिकायत थोपते हुए महिमा उसे उठाने लगी, ‘‘थोड़ा अभ्यास कर ले, फिर खिलाएँगे।’’

दो


उन दिनों पूरी संस्था का ध्यान इलाहाबाद से उठाकर लाए गए यूनुस मियाँ ने खींच रखा था। चर्चा यही थी कि पिछले पाँच वर्षों में संस्था के जीवनकाल में वहाँ ऐसा कोई रोगी नहीं आया था। उसके दोनों हाथ और दोनों पाँव कटे थे। हाथ कुहनियों से ऊपर और पाँव घुटनों से ऊपर तक। सिर से जुड़ा माँस का लोथड़ा भर लगता था उसका पूरा शरीर।
‘‘इसके अंग कैसे बनेंगे ?’’ एक ही प्रश्न उभरा था-डॉक्टर से रोगी तक, व्यवस्थापक से कर्मचारी तक के मन में। और यूसुफ मियाँ थे कि देखते-देखते चंद दिनों में ही अपने परिवेश से अनेक परिवर्तन बटोरकर शरीर के अंगों को आभूषित कर लिए थे। चेहरा गुलाबी हो रहा था, आँखों में एक अजीब आशा की चमक आ गई थी। बचे हुए थुल-थुल शरीर को पूरी ताकत से हिला, नतमस्तक हो जब कभी पास से गुजरनेवालों को आदाबर्ज अथवा खुदा हाफिज करते तो सामनेवाला अपनी तरल आँखों को छुपाते हुए, होंठो को थोड़ा फैलाव के लिए अवश्य बाध्य करता।
 
‘कैसे हो, यूनुफ भाई ?’ कहता हुआ चलता बनता। जब तक यूसुफ मियाँ अपना बदला हुआ हाले-दिल बयान करते, जागती हुई जिजीविषा की झलक उसे दिखाते, वह जा चुका होता। जीने के प्रति यूसुफ मियाँ की जागती हुई लालसा की अँगड़ाइयाँ खुली नजरों से देख सकने की किसीमें हिम्मत ही नहीं थी।

जो उसके पास जाकर रूकते, बैठते, बातें करते, उससे भी पहले सलाम ठोंकते-उसकी जिजीविषा की सुप्त चिनगारी को अपने दृढ़ विश्वास की फूँक से सुलगाते रहते, वे इस संस्था के संस्थापक दद्दाजी ही थे। उन्होंने उसे पूरा विश्वास दिलाया था, ‘‘तुम्हारे अंग बनवाकर रहूँगा !’’
‘‘दद्दाजी कही मेरे हाथ-पाँव न बन पाए तो...?’’
‘‘यूनुफ मियाँ, उधर देखो !’’ दद्दाजी उसे दीवार पर लिखी पंक्तियों में अटकाकर चलते बनते। यूसुफ मियाँ धीरे-धीरे पढ़ने की कोशिश करते-
मू...क...मू...क...मू...क...हो...ई
वा...वा...चा...चा...ल...वा...चा...ल
दो-तीन शब्द ही घसीट पाते कि दद्दाजी जा चुके होते। बार-बार अभ्यास से उन दो पंक्तियों को पढ़ने में लगनेवाला समय काफी कम हो गया था। एक दिन पूरा दोहा एक साँस में पढ़ उन्होंने अपने बगल वाले व्यक्ति से अर्ज किया, ‘‘अलबर्ट भाई, इस शेर में क्या फरमाया है शायर ने ?’’
अलबर्ट बड़े अहंकार से कंधे उचकाता हुआ पूरी दो पंक्तियों को बिना देखे पढ़कर उगल गया। बार-बार सुने अर्थ भी सुना गया, जिसे हृदयंगम करने में यूनुस मियाँ की कई नमाजें गुजर गईं। फिर क्या था ! दोनों मिलकर सस्वर उन पंक्तियों का पाठ करते। पूरे हॉल के रोगी, साफ-सफाई करते कर्मचारी, सेवा-सुश्रूषा करती नर्स-बहनें और आने-जानेवाले लोग भी उसका साथ दे देते-

मूक होई वाचाल, पंगु चढ़इ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल, द्रवउ सकल कलि-मल दहन ।।

यूनुस मियाँ की मनःस्थिति अप्रत्याशित ढंग से प्रगति कर रही थी।
सांध्य वेला थी। सूरज पश्चिम में लाल हो चला था। मुख्य भवन के पीछे मैदान में रेखा और महिमा शालिनी को नए पाँव पर चलने का अभ्यास करवा रही थीं। रोगियों के मुख्य हॉल की खिड़की से लगा मैदान है। खिड़की के सामने अपने  बिछावन पर बैठे यूनुस मियाँ नवाज पढ़ रहे थे। नमाज की अंतिम प्रक्रिया पूरी करते-करते उन्होंने आँखें खोलीं। सामने दो सफेद परियों के बीच एक हरी परी पर उनकी नजरें ठमक गईं-जिसकी माँग में सिंदूर और ललाट की सुर्ख लाल बिंदिया उन तक अपनी लालिमा बिखेर रही थी। पाँवों की लड़खड़ाती गति से उन्होंने सही अनुमान लगाया-इसके पाँव शायद हाल ही में बने हैं। उनके अंदाज में तेईस-चौबीस वर्ष की छरहरी, गौर वदनवाली सुंदर युवती किसी संपन्न घराने से थी। संभवतः निकाह के बाद ही इसके पांव कटे होंगे। क्या गुजरी होगी तब इसके पति के दिल पर ? उसके पति का दिल तोड़नेवाले आधुनिक द्रुतगति वाहनों को ही कोसने लगे यूनुस मियाँ। ये रेलगाड़ियाँ, मोटरें, बसें, ये कल-कारखानों में लगी मोटी-मोटी दानवाकार मशीनें जहाँ एक ओर हमारी सुविधाएँ बढ़ा रही हैं वहीं असंख्यों की पूरी-की-पूरी जिंदगी हड़प रही हैं ! पाँव कटने से कहीं इसकी जिंदगी की शुरूआत ही अंत न बन गई हो ! क्या पता, इसके पति के दिल में खुदा ने मुरौवत दी भी है या नहीं।
यूनुस मियाँ हथेलियों की बजाए आँखें पसार परवरदिगार उस हसीना के लिए दुआ और उसके पति के लिए धैर्य माँगने लगे। तभी मैदान में गूँजती एक खिलखिलाती गिड़गिड़ाहट ने उनका ध्यान भंग किया। नजर उस आवाज तक पहुँचते ही वे आज्ञा देने के लहजे में चिल्ला पड़े, ‘‘नर्स ! ओ नर्स !! पकड़ लो उन्हें।’’
रहमदिल यूनुस मियाँ का बचा हुआ शरीर दौड़ने की पूरी प्रक्रिया संपन्न कर चुका था। यह देख महिमा और रेखा की हँसी फूट गई। यूनुस मियाँ झेंप गए। उन्होंनें झट से मैदान की ओर पीठ कर ली। वे थोड़ा अलग हटकर शालिनी को हिला-डुलाकर छेड़ भर रही थीं। दोनों ने शालिनी को दोनों ओर से थामते हुए कानों में कुछ शब्द डाले जो उसे गुदगुदा भर गए। गुदगुदाहट को समेटते हुए उसने धीरे से पूछा, ‘‘यह तो नई आवाज सुन रही हूँ, महिमा !’’
‘‘यही यूनुस मियाँ है।’’ दोनों एक साथ आवाज दबा कर बोल पड़ीं।
‘‘चलो, चलकर मिलें इनसे।’’
‘‘चलते हैं।’’
यूनुस, मियाँ को अपनी अकस्मात् चिल्लाहट पर स्वयं क्षोभ हुआ था। नाहक नर्स को डाँट दिया था उन्होंने। एक और भूल हो गई थी। यहाँ आने पर संस्था के कुछ उसूल बता दिए गए थे उन्हें। उनमें एक यह भी था-नर्स को नर्स नहीं कहना। उनके नाम के साथ ‘बहन’ लगाना है। यहाँ तक की साफ-सफाई करनेवाले भी भैया थे। लेकिन उन्होंनें तो साफ ...
तभी तीनों लड़कियाँ उनकी खिड़की के पास आ गईं। आवाज शालिनी ने ही दी, यूनुस भाईजान...

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