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अब्दुलगनी का हुक्का

उमा वाचस्पति

प्रकाशक : लिट्रेसी हाऊस प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5331
आईएसबीएन :81-88435-17-1

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एक श्रेष्ठ उपन्यास...

Abdulgani Ka Hukka a hindi book by Uma Vachaspati - अब्दुलगनी का हुक्का - उमा वाचस्पति

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक

‘‘बेग़म, यह तुम्हारा देवर बहुत बदमाश है, फिर ग़ायब हो गया।’’ मुसद्दी ने पेन के निब को कटोरी के पानी में डालते हुए कहा।
‘‘तुम्हें अंदाज़ा है, कितने महीने हुए, पूरा साल नहीं तो आठ महीने तो शर्तिया हो गए ! चिट्ठियाँ कितनी आईं, सिर्फ़ दो। ससुराल का माल खा रहा होगा, पर उसकी शादी का क्या हुआ, वह तो तुम्हें ले जा रहा था !’’ थोड़ी देर बाद मुसद्दी फिर बोले।
मुसद्दी ने लिखकर देखा, पेन एकदम फ़िट हो गया था। अभी वह उसे पेनकेस में रखने ही वाले थे कि धम्म की आवाज़ से चौंककर ऊपर देखा, ‘‘अरे-अरे, यह हमारी किताबें क्यों बाहर फेंक रही हो ? धूप देनी है तो भाई आराम से रखो।’’
‘‘धूप नहीं देनी है, कबाड़ी को देनी है।’’ रूपबाला ने दूसरा बंडल फेंका।’’
‘‘कबाड़ी को, वह कब से बुकसेलर का काम करने लगा ?’’

‘‘बुकसेलर का काम नहीं करने लगा, वह इनके ठोंगे बनाएगा।’’
‘‘ठोंगे, मतलब वह लिफ़ाफ़े बनाने वाले को देगा। लाहौल विला कूवत !’’
‘‘मुसद्दी ने देखा, बेग़म ने बड़े संदूक को झाड़-पोंछकर उसमें गद्दे-लिहाफ़ भरने शुरू कर दिए।
‘‘गद्दे-लिहाफ़ों को खाटों पर ही रहने देतीं।’’
रूपबाला ने बहुत गुस्से से उनकी तरफ़ देखा, ‘‘रात को आप लिहाफ़ ओढ़ते हैं।’’
‘‘हरे राम, लगता है दो-चार दिन में चादर भी नहीं ओढ़ी जाएगी।’’
‘‘फिर, ये लिहाफ़ कहाँ फेंकूँ ?’’
‘‘नीचे बिछे रहने दो।’’
‘‘गर्मी नहीं लगेगी ?’’
‘‘सो तो लगेगी ?’’

‘‘फिर क्या करूँ इनका, कमरे में कोई जगह है इनको रखने की ?’’
‘‘पर बेग़म किताबें एकदम ब्रेंड न्यू हैं, इन्हें भी तो.....।’’
‘‘जब आपको इन्हें बेचने की तमीज़ नहीं थी तो किसने सलाह दी थी अपने आप छपवाने की ? क्या दिल्ली के सब प्रकाशक दिल्ली छोड़कर चले गए थे ?’’
‘‘भाई, सबने कहा कि प्रकाशक बहुत कम पैसा देते हैं तो हमने आप ही छपवाने.....।’’
‘‘कोई भी बुकसेलर इन्हें बेचने को तैयार नहीं हुआ। अरे, आधे दामों पर ही सौदा कर लेते, तब भी तो कुछ मिलता, घर में पड़े-पड़े इन्हें झींगुर तो नहीं चाटते। देखा आपने, नीचे की तो सब सील गईं।’’

‘‘नीचे कोई मोटा कपड़ा या खूब क़ागज़ बिछातीं।’’
‘‘वह दरी का टुकड़ा और अख़बारों की गड्डी तो आपके सामने पड़ी है। आपको यह भी मालूम है कि हर महीने इन्हें निकालकर धूप देती थी। पर अबकी बारिश कितनी हुई। जब हवा का रुख इधर होता था, तो बौछार भी आती ही थी। इतना बड़ा संदूक अंदर रखने की कहीं जगह थी ?’’
‘‘तो तुम इन्हें सचमुच में रद्दी वाले को दे दोगी बेग़म ?’’
रूपबाला गुस्से में कह तो गई थी कि ‘जब आपको बेचने की तमीज़ नहीं थी’ पर उसके बाद से सहम बहुत गई थी, झट बोली, ‘‘यही तो अफ़सोस है कि आपकी हर रचना को मैं जान से ज्यादा प्यार करती हूँ।’’

मुसद्दी को मुस्कराकर उठते देखा तो घबराकर कहा, ‘‘आप बुकसेलर से आधे दामों पर सौदा कर लो। चलो वह भी न दे, सिर्फ़ बेच दे, लोग तो पढ़ेंगे, हमारे लिए यही बहुत बड़ा संतोष है।’’
‘‘अरे भाई, हमने सब कहा था, यह भी कहा था कि तू बस इन्हें बेच दे, हमें कुछ नहीं चाहिए, फिर भी वह...तुम्हारे सामने ही तो यहाँ लाकर पटक गया कि नहीं बिकतीं।’’
‘‘ताज्जुब की बात है। इस किताब का नाम ‘अब्दुलग़नी का हुक्का’ पढ़कर ही मैं इसे ख़रीद लेती, अंदर के पृष्ठ खोलकर भी नहीं देखती।’’
‘‘बेग़म, नाम तो ठीक है पर अब हमारी समझ में आ गया कि यह बिकी क्यों नहीं। ऊपर का कवर इतना डल है, रंग इतने बेहूदे लगे हैं कि कोई इसकी तरफ़ आकर्षित हो ही नहीं सकता था।’’

‘‘तो अब फिर से टाइटिल पेज बनवा लो, यह बदले तो जा सकते हैं न ?’’
‘‘वह तो सब हो सकता है, पर इसके लिए पैसा चाहिए। जो कुछ था, वह तो छपवाने में लगा दिया, अब जल्दी तो कुछ नहीं हो सकता। लाओ देखें, कितनी ख़राब हुईं ?’’
‘‘अरे चिंता मत कीजिए, मुश्किल से चार-पाँच।’’ अब आप यह कीजिए कि इन्हें झाड़-पोंछ अख़बार के काग़ज़ों में लपेट दीजिए पर फिर वह समस्या। लिहाफ़-गद्दे तो इस संदूक में रखने ही पड़ेंगे, उनका ढेर कमरे के एक कोने में लगाऊँ तो बहुत बुरा लगेगा।’’
‘‘पर किताबों का ढेर तो बुरा नहीं लगेगा, यही कहेगा कि मुसद्दी के पास कितनी किताबें हैं। ठहरो मैं देखता हूँ। ऐसे रख दूँगा कि जगह भी ज्यादा नहीं घिरेगी और कमरा भी देखने में बुरा नहीं लगेगा।’’
‘‘ठीक है, मैं नहाकर खाना बनाती हूँ, खिचड़ी बनाऊँगी।’’
‘‘खिचड़ी, न बाबा, बढ़िया-सा कुछ बनाओ।’’

‘‘अब आगे से दाल-रोटी या खिचड़ी, यही बनेगा।’’ बेग़म ने हँसते हुए कहा।
‘‘क्यों ?’’
‘‘इसलिए कि कवर, के मतलब टाइटिल पेज के लिए पैसे नहीं ज़मा करने ?’’
‘‘पैसों का इन्तज़ाम हो जाएगा, खिचड़ी खाने की ज़रूरत नहीं।’’ किताब को कपड़े से पोंछते हुए मुसद्दी ने कहा।
‘‘कहाँ से ?’’
‘‘जहाँ से अब तक आए हैं।’’
‘‘फिर सरस्वती जी से माँगोगे, राम-राम ! अब नहीं माँगना चाहिए, किसी के अच्छे होने का यह मतलब नहीं की उसे...।’’ रूपबाला को उपयुक्त शब्द नहीं मिल रहे थे।
‘‘हम समझ गए, अब बिल्कुल नहीं माँगेंगे।’’
‘‘अरे भाई क्या हो रहा है, देख, तेरे लिए क्या लाया हूँ। देखो भाभी, मैंने तुम्हारे लिए कैसी अच्छी नौकरानी का इन्तज़ाम किया है।’’ कहते हुए वीरेन्द्र ऊपर आ गया, पीछे-पीछे एक तेईस-चौबीस वर्षीया सुन्दर-सी लड़की भी शरमाती हुई आ गई। रूपबाला देखते ही पहचान गई, खुशी से आगे बढ़ती हुई बोली, ‘‘वाह भैया, सब अकेले-अकेले ही कर लिया, अरे इतनी भी क्या जल्दी थी। बैठो-बैठो !’’

थोड़ी देर में ही दोनों पक्की सहेलियाँ बन गईं और अलग बैठकर बातें करने लगीं।
‘‘बड़ा ज़बरदस्त हाथ मारा है।’’ मुसद्दी ने वीरेन्द्र का हाथ पकड़ पास बैठते हुए कहा।
‘‘पहले यह बता, तूने मेरे पीछे क्या तीर मारा ?’’
‘‘तेरे पीछे जब तीर मारता हूँ, ठिकाने पर नहीं लगता। अब निश्चय कर लिया है, जो करूँगा तेरे सामने, पीछे कुछ भी करके बुद्धू बन जाता हूँ।’’
‘‘फिर किसी....?’’
‘‘नहीं भाई, अबकी बार एक किताब छपवा डाली।’’
‘‘तो बुरा क्या किया ?’’ वीरेन्द्र ने कहा।
‘‘अरे, किसी पब्लिशर से न छपवाकर खुद छापी, वह देख, कोने में ढेर !’’
‘‘नाम क्या है ?’’
‘‘अब्दुलग़नी का हुक्का ! अब समस्या यह है कि बेची कैसे जाएँ।’’

कमीशन पर किसी पब्लिशर को क्यों नहीं दी ?’’
‘‘अरे बात की थी, कोई लेने को तैयार नहीं ! मैं तो आधे पर भी राज़ी था।’’
उसी समय दोनों का ध्यान रूपबाला और रजनी की तरफ़ गया। दोनों हँस-हँसकर लोटपोट हो रही थीं।
‘‘क्या बात है भाई, हम भी तो मज़ा लें।’’ मुसद्दी ने कहा।
‘‘पहली बात तो यह है कि मैंने इनका नाम बदल दिया। रजनी नाम बिल्कुल उल्टा था, मैंने इनका रखा है चाँद, चाँद रानी समझ लो।’’
‘‘और हँस क्यों रही थीं भाभी, मैंने इतना हँसते हुए तुम्हें कभी नहीं देखा।’’ वीरेन्द्र ने पूछा।
‘‘खुशी की बात तो है ही, पहली बार इतनी मीठी-मीठी सहेली मिली। ये मुझे हमेशा डाँटते थे कि मैं वह चीज़ें पसंद न आने पर भी उठा लाती हूँ, जिसके साथ कुछ मिलता है। जैसे डालडा हम लोग नहीं खाते, पर एक सुंदर टोकरी साथ में मिलेगी, इस लालच में डिब्बा ले आती हूँ। यह भी बता रही हैं कि बहुत-सी चीज़ें यह भी बिना ज़रूरत ख़रीद लेती हूँ कि साथ में कुछ मिल रहा है। हँसे इस बात पर कि वह बिना ज़रूरत की चीज़ें मुफ्त में देनी पड़ती हैं। पैसे किसी ने दे दिए तो ठीक, नहीं दिए तो माँगे नहीं जाते।’’
‘‘मार लिया पापड़ वाले को !’’ वीरेन्द्र बैठे से उछल पड़ा, ‘‘मुसद्दी, अब तेरी किताबों का ढेर यहाँ नहीं होगा।’’
‘‘कैसे ?’’ मुसद्दी आश्चर्य से वीरेन्द्र को देख रहे थे।
‘‘भाभी, तुम समझीं ?’’

‘‘तुम कुछ बात कहो और मैं न समझूँ, ऐसा कभी हुआ है। तुम हरेक किताब के साथ कुछ दोगे और उसके लालच में लोग किताबें खरीदेंगे। हमारी बातें सुनने के बाद तुम्हारे दिमाग़ में आई। है न चाँद, यही बात ?’’
‘‘बिल्कुल यही बात है, जीजी।’’ चाँद ने हँसते-हँसते कहा।
‘‘मुसद्दी, तेरा कल दस बजे कोई प्रोग्राम तो नहीं। अरे हाँ, भाभी, तुम लोगों ने यह भी नहीं पूछा कि कहाँ ठहरे हो, कहाँ से आए हो ?’’
‘‘भैया, इतनी खुशी में कहीं होश रहता है, बताओ, अब ध्यान से सुनूँगी।’’
‘‘कुछ नहीं, बस इतना ही कि कल ग्यारह बजे सब तैयार रहना, अपना नया घर दिखाने ले जाऊँगा और खाना-पीना भी वहीं होगा। और मुसद्दी, तेरा काम परसों होगा, देखेंगे किताब के साथ क्या दिया जा सकता है। वह तो मैंने सोच लिया है पर काम हो जाने के बाद ही इन लोगों को पता लगना चाहिए।’’
‘‘पहले क्यों नहीं ?’’ रूपबाला और चाँद ने साथ-साथ कहा।


‘‘इसलिए कि औरतों के पेट में बात पचती नहीं, काम होने से पहले ढिंढोरा पीट देती हैं और फिर काम ठप्प।’’
‘‘चाँद, यह तो बहुत बड़ा इल्ज़ाम हम पर लगा दिया। ख़ैर, समझेंगे इन्हें किसी दिन !’’
जब मुसद्दी और रूपबाला वीरेन्द्र के बँगले के पास ऑटोरिक्शा से उतरे तो मुसद्दी बँगलों के नम्बर पढ़ने लगे पर रूपबाला का पूरा ध्यान चारों तरफ़ के इलाके पर था, देखिए तो, क्या सुन्दर बँगले हैं, कितने फूल है। कभी आपने इतना बड़ा सूरजमुखी का फूल देखा है ?’’
‘‘चौबीस नं., आओ बेग़म !’’ मुसद्दी ने कहा।
गेट पर ही चौकीदार ने सलाम झाड़ा, ‘‘आइए साहब।
वीरेन्द्र और चाँदरानी लॉन में ही बैठे थे, इन्हें देखते ही दौड़ आए।
‘‘भैया, बहुत बढ़िया जगह रहते हो। अरे, इतनी जल्दी फूल भी लगा लिए।’’ रूपबाला ने क्यारियों पर नज़र डालते हुए कहा।
‘‘अंदर बैठोगे या यहीं बाहर ?’’ वीरेन्द्र ने मुसद्दी से पूछा।

‘‘यहाँ तो अभी धूप तेज़ हो जाएगी ! अंदर ही चलिए, भाई साहब !’’ चाँद साहब ने कहा।
‘‘भैया, तुम्हारा घर देखकर सचमुच तबियत बाग़-बाग़ हो गई।’’ रूपबाला ने कहा तो बाग़’, ‘बाग़’ पर सब हँसने लगे।
‘‘भाभी, ‘तुम्हारा घर’ मत कहो, ‘हमारा घर’ कहो। अब तुम लोग भी यहीं रहने आ रहे हो।’’
‘‘न बाबा, अब ऐसे बँगलों में रहने की आदत छूट गई है। वह झोंपड़िया ही ठीक है।’’ रूपबाला ने घबराकर कहा।
‘‘सच भाभीजी, आपका वह कमरा तो गर्मियों में बहुत तपता होगा और जाड़ों में....’’चाँद का वाक्य रूपबाला ने पूरा किया, ‘‘वह मज़ेदार ठंडी हवाएँ चलती हैं कि....’’
‘‘अरे भई, इन्हें चाय तो पिलाओ, इतनी दूर से आए हैं। भाभी, तुम तो बहुत थक गई होगी, घर से बाहर निकलने की आदत भी तो नहीं।’’ वीरेन्द्र ने रूपबाला को काउच पर बैठाते हुए कहा।

चाय पीने के बाद वीरेन्द्र ने मुसद्दी से कहा, ‘‘इन्हें आपस में गपशप करने दो, हम अपना काम कर आएँ।’’
‘‘नहीं-नहीं, कहीं नहीं जाना, आज पूरी छुट्टी।’’ चाँद ने कहा तो वीरेन्द्र ने उठते हुए कहा, ‘‘भई, इनके ‘अब्दुलग़नी के हुक्के’ का भी तो इन्तज़ाम करना है। नहीं तो इनके कमरे के कोने में ही वह हुक्का पीते रहेंगे।’’
‘‘ओह, किताब के साथ क्या देना है, वह देखने मार्किट जाना है ?’’ चाँद ने पूछा।
‘‘हाँ, आज यह काम हो जाए तो ठीक रहेगा।’’
‘‘पर देखो, जल्दी आना। खाना सब साथ खाएँगे।’’
‘‘देखो, जब बाहर निकलते हैं तो अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल होता है कि कब लौट सकेंगे। तुम लोग जब भूख लगे, खा लेना।’’ वीरेन्द्र ने कहा।
‘‘बस चाँद जी, हमारे हिस्से का भी बातों-बातों में दोनों चट मत कर जाइएगा।’’ मुसद्दी ने जब कहा तो चाँद ने हँसते हुए कहा, ‘‘हम कोई वायदा नहीं कर सकतीं।’’

मुसद्दी और वीरेन्द्र पहले एक फर्नीचर वाले के यहाँ पहुँचे, ‘‘भाई, तुम्हारे यहाँ कुर्सी, मेज़, अलमारी तो मिलती हैं, नै वाला हुक्का भी मिल सकता है ?’’
‘‘हुक्का ?’’ दुकानदार चौंका।
‘‘आपने कभी नै वाला हुक्का नहीं देखा, जैसा वाजिद अलीशाह पीते थे। हम चित्र बनाकर समझाएँ ?’’ मुसद्दी ने अपने थैले को खोलना चाहा।
‘‘चित्र बनाने की ज़रूरत नहीं, हम समझ गए, हमारे यहाँ वैसा हुक्का है। हमारे नाना....पर हम वैसे हुक्के बेचते नहीं।’’ दुकानदार ने मुस्कराते हुए कहा।

‘‘जब आपका बढ़ई, आपके कारीगर ऐसे सुंदर-संदुर सोफ़े बना सकते हैं तो हुक्का भी बना सकते हैं। हमें एक नहीं छः सौ, सात सौ बनवाने हैं पर बड़े नहीं, छोटे।’’ वीरेन्द्र ने समझाया।
‘‘हुक्कों की दुकान खोलनी है, पर इतने छोटे हुक्के खरीदेगा कौन ? हुक्के बच्चों को प्रेजेन्ट में भी तो देने ठीक नहीं।’’ दुकानदार ने कहा तो वीरेन्द्र ने गुस्से से कहा, ‘‘मियाँ, बनवा सकते हो या नहीं, यह बताओ। हम क्या करेंगे, इससे आपको मतलब नहीं।’’

‘‘कितने बड़े चाहिए ?’’ दुकानदान ने पूछा।
‘‘यही साढ़े पाँच-छः-इंच का।’’ वीरेन्द्र ने बताया।
‘‘एक हुक्का आपको सवा सौ में पड़ेगा।’’ दुकानदार ने एक काग़ज़ पर हिसाब लगाकर बताया।
‘‘सवा सौ ? छः इच का हुक्का सवा सौ ?’’ वीरेन्द्र ने गुस्से से कहा।
‘‘साहब, जितनी देर में एक कारीगर पूरी अलमारी बनाकर खड़ी कर देगा, उतनी देर में आधा हुक्का बनेगा। आप कितना देंगे ?’’ दुकानदार ने दोनों के खादी कुरतों-पाजामों की निगाह डालते हुए पूछा।
‘‘आपने तो पहले ही इतना बता दिए, कितना कम करेंगे हम ?’’ मुसद्दी ने कहा।
दुकान में दो ग्राहक आए और दुकानदार उनसे बातचीत में लग गया। वीरेन्द्र ने मुसद्दी से कहा, ‘‘चलो, यहाँ बात नहीं बनेगी।’’

दोनों इधर-उधर निगाह डालते जा रहे थे कि वीरेन्द्र की निगाह एक बहुत बड़ी खिलौनों की दुकान पर पड़ी।
‘‘चल देखते हैं, माल कई किस्म का है।’’
‘‘पर खिलौनों की दुकान पर हुक्का कहाँ मिलेगा।’’ मुसद्दी ने कहा।
‘‘देखने में क्या हर्ज़ है।’’
इन दोनों के दुकान में घुसते ही दुकानदार की निगाह वीरेन्द्र पर पड़ी, ‘‘अरे वीरेन्द्र ! और दूसरे ही क्षण वह एक-दूसरे की बाँहों में थे।
‘‘मैंने तो सुना था, तू फिरंगी हो गया है, इसलिए कभी मिलने की सोची ही नहीं।’’ वीरेन्द्र ने हँसते हुए कहा।
‘‘हो तो गया था, पर जब यह काम सीख लिया तो सोचा अपने देश में जाकर ही यह काम करूँगा।’’

‘‘वह तो बहुत अच्छा किया, खै़र, तू पहले अपने ग्राहकों को निबटा, फिर आराम से बात करेंगे।’’
वीरेन्द्र का दोस्त विप्लव अपने ग्राहकों को पी.वी.सी. के तरह-तरह के गुड्डे, गुड़िया, पशु-पक्षी दिखाता रहा और मुसद्दी, वीरेन्द्र आपस में बहस करते रहे कि यहां उन्हें हुक्का मिल सकता है या नहीं।
आखिर दुकान के बाहर आधे घंटे के अवकाश का बोर्ड टाँग दिया गया।
‘‘अब बोलो, तुम लोगों की क्या सेवा कर सकता हूँ।’’ विप्लव ने सामने बैठते हुए कहा।
‘‘पहले तो यह बता दूँ कि यह मेरे परम मित्र मुसद्दी लाल हैं जो लेखक...।’’
‘‘इन्हें मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ, कई पुस्तकें पढ़ चुका हूँ। मिलकर तो खुशी होनी ही है। हाँ, पहले तुम मेरे साथ लंच करो।’’

‘‘नहीं-नहीं, हम घर पर वायदा कर आए हैं कि खाना घर आकर ही खाएँगे।’’
‘‘वह भी खाना, जाते-जाते भूख तो लग ही आएगी।’’ विप्लव ने दुकान के नौकर को पानी और तश्तरियाँ लाने को कहा।
थोड़ी ही देर में नौकर ने थालियों में कुलचे, छोले, दही लाकर सबके सामने रख दिया।
‘‘विदेश में रहा और प्लेटों की जगह यह....।’’
‘‘होटल की प्लेटें और गिलास तुझे तो पता ही है। थालियों को तो माँजना ही पड़ेगा, फिर यह भी मैं अपनी रखता हूँ। अब खाते-खाते बता अपना सब हाल।’’
विप्लव ने कहा।

‘‘देख विप्लव, यह गप्प-शप्प तो किसी दिन आराम से बैठकर होगी। आज तो हम एक ख़ास मुहिम पर निकले हैं। यह तो बता कि तेरी दुकान में हुक्के हैं ?’’ वीरेन्द्र ने दुकान के हर कोने पर नज़र डाली।
‘‘हुक्के ? भाई यह खिलौनों की दुकान है, इसमें हुक्के कहाँ ?’’
‘‘अरे मैं बड़े हुक्के नहीं माँग रहा हूँ, छोटे ही चाहिएँ।’’
‘‘पर भैया, छोटे हुक्के ख़रीदेगा कौन, कोई माँ-बाप अपने बच्चे को हुक्का ख़रीद कर नहीं देगा।’’
‘‘वह तो ठीक है। अच्छा, तेरे यह खिलौने तो कोई कारीगर ही बनाता होगा, तू तो बनाता नहीं होगा।’’

‘‘बिल्कुल, इस समय मेरी फैक्टरी में पच्चीस कारीगर काम कर रहे हैं। मैं और मेरी वाइफ़ डिजाइन खुद बनाते हैं।’’
‘‘तो यह बता कि तू ऑर्डर पर सात सौ, आठ सौ छोटे हुक्के बना सकता है या नहीं ?’’
‘‘डाई बनवानी पड़ेगी पहले !’’ विप्लव ने कुछ सोचते हुए कहा।
‘‘देख विप्लव, बिज़नेस में दोस्ती नहीं आनी चाहिए, दोस्ती की बात घर पर। यह दुकान है, मैं भी एक खिलौना ख़रीदने नहीं आया हूँ जो तू पैसे लिए बिना मुझे दे देगा। ख़ैर, पहले यह समझ ले कि कैसा हुक्का हमें चाहिए।’’ वीरेन्द्र ने बात पूरी होने से पहले मुसद्दी ने काग़ज़-पेंसिल थैले से निकाल ली।


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