| बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - साक्षात्कार राम कथा - साक्षात्कारनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान
''राम!'' शूर्पणखा ने भुजा थाम ली। आंखें गीली हो उठीं। चेहरे के भाव ऐसे थे, जैसे वक्ष पीड़ा से फट रहा हो, ''रहने दो विवाह! एक बार मेरा रति-निमंत्रण स्वीकार कर लो।''
राम के मन में तीव्र इच्छा उठी की इस साक्षात् वासना को झटककर अपना हाथ छुड़ा लें; किंतु उसकी आंखों का पानी उन्हें कठोर बनने नहीं दे रहा था। भला इस स्त्री को कैसे समझाया जा सकता था, जिसमें न विवेक था, न स्वाभिमान, न संस्कार, न कोई सामाजिक नैतिकता...कितनी कातर और दयनीय हो रही थी, जैसे कोई विवेकहीन पशु अपनी प्राकृतिक भूख की पीड़ा से व्याकुल हो, शिलाओं पर सिर पटकने को तत्पर हो...तो क्या करें राम? सहसा उनके मन में सीता और लक्ष्मण में हो रहा परिहास जागा...क्या इस ढंग से इसे टाला जा सकता है...?
''मैं विवाहित हूं,'' उनका स्वर कोमल हो गया, ''तुम्हें अंगीकार नहीं कर सकता, मेरा छोटा भाई अविवाहित है, सौमित्र।''
सौमित्र का नाम सुनते ही शूर्पणखा की आंखों के सम्मुख गौर वर्ण का वह चंचल, उग्र तथा सुन्दर युवक साकार हो उठा...तो वह राम का भाई ही है....राम के पग उठे तो उठते चले गए। उन्होंने पलटकर देखा...शूर्पणखा उनका पीछा नहीं कर रही थी। वह शांतिपूर्वक वहीं बैठी थी, जहां राम ने उसे छोड़ा था...कदाचित् वह लक्ष्मण की कल्पना कर रही थी या...उसने लक्ष्मण को कभी देखा है क्या?
राम समझ नहीं पा रहे थे कि शूर्पणखा के प्रति वे कैसा भाव रखें...उसकी इस मूढ़ पाशविक वासना पर दया करें अथवा क्रोध? पशु की मूढ़ता पर तो दया ही की जा सकती है; किंतु जब वह अपने पशुत्व से न टले, तो क्रोध भी करना पडता है...पर क्या किया उन्होंने? शूर्पणखा को लक्ष्मण की ओर प्रेरित करना, कर्ही सौमित्र के लिए कठिनाई उत्पन्न न करे। अपना पीछा छुड़ाने के लिए किया गया परिहास कहीं कोई और रूप न ले ले...सहसा राम को जटायु का ध्यान आया...वे ठीक कह रहे थे, शूर्पणखा सचमुच बहुत अविवेकी, स्वार्थी और हठी है। उसका हठ भयंकर भी हो सकता है...जटायु ने ठीक समय पर चेतावनी दी थी-यदि शूर्पणखा अपने हठ से नहीं टली और उग्र होती गयी तो कोई भी दुर्घटना हो सकती है।
शूर्पणखा लौटकर अपने प्रासाद में आयी, तो राम का तर्क उसके मन में बहुत दूर तक धंस चुका था।...संभव है कि इन आर्यों में एक विवाह के सिद्धांत का इतनी कठोरता से पालन किया जाता हो कि वह व्यक्ति का संस्कार बन जाता हो; और व्यक्ति के मन में किसी अन्य स्त्री के प्रति कामाकर्षण जागता ही न हो। कहीं राम इस जड़ता का ही तो बंदी नहीं है? यदि ऐसा ही है, तो वह सरलता से न शूर्पणखा का समर्पण स्वीकार करेगा और न स्वयं समर्पित होगा। उसकी इस जड़ता को तोड़ना सरल नहीं होगा; और शूर्पणखा प्रतिदिन अपने आयोजन में असफल होकर, अपने रूप और यौवन को कोसती रहेगी तथा अपने श्रृंगार-शिल्पियों से रुष्ट होती रहेगी...किंतु इन लोगों का यही जड़ संस्कार सौमित्र को प्राप्त करने में सहायक हो सकता है...
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