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नारी विमर्श >> दूर बहुत दूर

दूर बहुत दूर

शीतांशु भारद्वाज

प्रकाशक : इण्डियन बुक बैंक प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5328
आईएसबीएन :81-8115-010-4

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धुर देहात की एक अनपढ़ युवती के जीवन पर आधारित उपन्यास...

Door bahut door

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

धुर देहात की एक अनपढ़ युवती किस प्रकार सामाजिक अवरोधों को फ्लांगती हुई जीवन में आगे-ही-आगे बढ़ती है, प्रस्तुत उपन्यास का यही प्रमुख कथ्य है।
सामाजिक सरोकारों में मालती का पाला अनेक उजले चरित्रों से पड़ता रहता है। लेकिन वह उनके काले कारनामों को धत्ता बतलाती हुई अपने सतीत्व की रक्षा करने में सफल रहती है। डॉ. शीतांशु भारद्वाज ने मालती के माध्यम से नारी-समाज को जुझारू-जीवन जीने की प्रेरणा दी है।

1

समूची झोंपड़पट्टी के ऊपर रात की सियाही कभी की पुत चुकी थी। वहाँ के सारे मजदूर रात ढले ही अपनी झोपड़ियों में लौट आए थे। एक रामनाथ ही था जिसका अभी भी कोई अता-पता न था। उसके लिए मालती चिंतित होने लगी। वह आस-पास के लोगों से पति के बारे में पूछताछ करने लगी।

    —भाभी ! वे तो मनमौजी जीव हैं। रहमत ने बताया, चले गये होंगे किसी यार-दोस्त के पास।
    —वे ठेके पर भी हो सकते हैं। जगमाल ने बत्तीसी दिखला दी, बिना वहाँ जाए तो उन्हें खाना भी हजम नहीं होता।
    मालती उन टिप्पणियों को चुपचाप पी गई। उधर से वह अपनी झोंपड़ी में चली आई। उससे अंदर नहीं रहा गया। वह बाहर चबूतरे पर बैठ गई। आधी रात हो चली थी। वहीं से दूर आश्रम की ओर देखने लगी। पति की चिंता उसे दुखी करने लगी। तभी सामने से झूमता-झामता हुआ रामनाथ घर की ओर आता हुआ दिखाई दिया। उसके सिर के बाल उड़ते हुए से नजर आ रहे थे। जरूर वह आज भी अड्डे से पीकर आया होगा ! देखकर मालती का मन खराब होने लगा।
    रामनाथ बहकते हुए कदमों से घर की ओर चला आ रहा था। इस पर मालती ने उसकी बाहें झकझोर कर पूछा, आज तुम फिर से पीकर आए हो न ? तुम्हें शर्म नहीं आती ?

    रामनाथ ने कुछ नहीं कहा। उन्हीं लड़खड़ाते हुए कदमों से पत्नी के कंधों पर हाथ रखे हुए वह झोंपड़ी के अंदर चला आया। उसके मुँह से अब भी कच्ची के भभाके उठ रहे थे। मालती ने उसे पुआल के बिस्तर पर लिटा दिया।
    हाथों का सिरहाना बनाए हुए रामनाथ बिस्तर पर लेट गया। उसे अपने सामने दो-दो मालतियाँ नजर आ रही थीं। कमर पर हाथ रखे हुए मालती उस पर बरसने ही लगी, बहरे हो आए हो क्या ? जब देखो पिनक में ही डूबे रहते हो !
    —ह्याँ तो मुझे....। रामनाथ कुछ कह न पाया।
    रामनाथ का नशा अब असर दिखलाने लगा था। मालती ने ढिबरी की बत्ती तेज कर दी। कोने में जाकर वह पति के लिए स्टोव पर खाना गरम करने लगी। रामनाथ बड़बड़ाने लगा, साले सब-के-सब मादरचो....। चंदे के नाम पर कामगारों को लूटते-खसोटते रहते हैं। चंदा बटोरकर उससे अपनी लुगाइयों के लिए लहँगे बनावे हैं।

    — कौन बनावे हैं लहँगे ? दाल गरम करती हुई मालती ने वहीं से पूछा।
    पति उसी प्रकार अनर्गल प्रलाप करता रहा। मालती चुपचाप उसके लिए खाना गरम करती रही। उसके बाद वह उसके पास थाली परोस कर ले आई, लो, अब खाना खा लो।
    रामनाथ बिस्तर पर उठ कर बैठ गया। उसने अपने आगे की थाली एक ओर सरका दी, मैं धर्मा भाई के ह्याँ गया था। उन्होंने अपने प्रमोशन की दावत दी थी। मैं वहीं से खा-पी के आ रहा हूँ।

    — धर्मा ! धर्मा ! मालती का क्रोध उफनाने लगा, वो मुवा तुम्हें कहीं का भी नहीं रख छोड़ेगा। जब देखो चौबीसों घंटे नशे में ही धुत पड़ा रहता है। उसका क्या है ! वो तो शुरू से ही छड़ा साँड़ रहा है। उसका आगे-पीछे कुछ भी तो नहीं है।
    — ज्यादे लेक्चर न झाड़ ! रामनाथ मे मर्दानगी आ गई, क्यों मेरे यार पे कीचड़ उछाल रही है। अब चुपचाप सो जा।
    दोनों पुआल के बिछौनों पर सोने के लिए लेट गए। रात का एक बजने को था। बाहर गलियों में झोंपड़पट्टी के आवारा कुत्तें भौंक-भौंककर बस्ती की शांति भंग कर रहे थे। मालती खाने की थाली को ढककर एक ओर रख चुकी थी। उसने ढिबरी की लौ मंद की। रामनाथ जल्द ही नींद में खर्राटें भरने लगा। लेकिन मालती की आँखों से तो नींद कोसों दूर थी। उस नीम अँधेरे में उसकी आँखों के आगे गाँव-जवार के दिन उजागर होने लगे।
    मेरठ के उस गाँव में मालती अच्छी-भली खेती-बाड़ी का काम करती आ रही थी। वहाँ उसे किसी प्रकार का अभाव नहीं था। एक दिन उनके यहाँ पड़ोसी गाँव का धर्मदास चला आया था। उसने क्रीम कलर का सफारी सूट पहना हुआ था। पिछले चार-पाँच वर्ष से वह दिल्ली की किसी कपड़ा मिल में नौकरी कर रहा था। उसके उस ठाट-बाट को देखकर वे दोनों ही औचक रह गए थे।

    धर्मदास उनके मनोभाव ताड़ गया था। वह मुस्करा दिया था, अरे भई, मैं शहरी हो आया हूँ न ! अब शहरी जैसा तो रहना ही है।
    रामनाथ ने सिर हिलाकर उसका समर्थन कर दिया था।
    धर्मदास ने सिगरेट सुलगाकर पैकिट रामनाथ की ओर बढ़ाकर कहा था, मेहनतकश लोगों के लिए शहरों में काम की कोई कमी नहीं होती। काम करने की नियत हो तो करने वालों को भतेरे काम मिल जाया करते हैं। हाँ, निठल्लों की बात ही और है।

    – तो वहाँ हम जैसों को भी काम मिल जाएगा ? रामनाथ ने सिगरेट सुलगाकर पूछा था। शहर का लालच उसे अपनी ओर खीचनें लगा था। वह भी ख्याली पुलाव पकाने लगा था।
-    बताया न ! धर्मदास की रीठे की-सी आँखें मालती के शरीर की गोलाइयों पर फिरने लगी थीं, न हो तो मैं तुम्हें अपनी ही मिल में नौकरी दिलवा दूगाँ। हर छह महीने बाद वहाँ नई भर्ती होती है।
    -क्यों जी ! मालती के माथे पर बल पड़ गए थे, फिर ह्याँ गाँव की खेती-बाड़ी कौन करेगा ?
    -वाह भाभी ! धर्मदास ने जोर का ठहाका लगा दिया था, गाँव के खेतों-खलिहानों में क्या धरा है ? वह नाक-भौं, सिकोड़ने लगा था, सारे साल अपनी-अपनी हड्डी-पसलियाँ तोड़ते रहो तब जाके कहीं कुछ दाने हाथ लगा करते हैं। वो भी पेट भरने के लिए पूरा नहीं पड़ता।
    धर्मदास ने पते की बात कह दी थी। उनके खेतों में कोई विशेष उपज नहीं होती थी। जी तोड़ मेहनत करने पर भी उन दोनों का पेट खेती से नहीं भर पाता था। रामनाथ गहरे सोच-विचार में डूबने लगा था।

    - क्यों भई, क्या सोचने लगा ? धर्मदास का हाथ रामनाथ के कंधे पर आ लगा था।
    -अम् ! रामनाथ मुस्करा दिया था, कुछ भी तो नहीं।
    -जानता नहीं कि ज्यादा सोचने से सेहत खराब हुआ करती है। धर्मदास ने हँस दिया था।
    -ठीक है। रामनाथ बोला था, मैं भी वहीं चल देने की सोचूँगा।
    -अरे ! इसमें सोचना क्या है ? धर्मदास ने सिगरेट के ठूँठ को मसल कर कहा था, घर पे ताला डाल और मेरे साथ चला चल। वहाँ राजधानी में मौज के साथ रहेगा।
    -अच्छी बात है। रामनाथ उससे सहमत हो आया था, अबकी फसल काँट लूँ। उसके बाद मैं तेरे पास ही जाऊँगा।
    - अब आया न सही राह पर ! धर्मदास मुस्करा दिया था।
    - लेकिन...। रामनाथ सिर खुजलाने लगा था।

    - लेकिन-वेकिन कुछ नहीं, मेरे यार ! धर्मदास ने कंधे उचका दिए थे, मालती भाभी को भी अपने ही साथ ले चल। मुझे मिल की ओर से क्वार्टर मिला हुआ है। वहीं तीनों एक साथ रह लेंगे।
    - ठीक है। रामनाथ मान गया था, जरूर चलेंगे।
    - ये हुई न बात ! धर्मदास ने अपनी जाँघ पर हाथ मारकर कहा था, तू जब चाहे, चले आना। पर आने से पहले एक चिट्ठी जरूर डाल देना।
    रामनाथ तो बोदा था। उसके जहन में प्यारे-प्यारे सपने कुलबुलाने लगे थे। उसने कहा था, भगवान ने चाहा तो अबकी सर्दियों में हम लोग वहीं चले आएँगे।
    - ठीक है। धर्मदास जाने के लिए उठ खड़ा हुआ था, तब तक मैं तेरे लिए नौकरी का बंदोबस्त भी कर लूँगा।
    धूर्त धर्मदास ने रामनाथ को कुछ ऐसे सब्ज बाग दिखलाए थे कि दिन-रात वह अपने सपनों को हवा देने लगा था। सारे गाँव-जवार में बात फैल गई थी कि वह गाँव छोड़कर दिल्ली जा रहा है। लोग उससे तरह-तरह के प्रश्न पूछने लगे थे। उसके चचेरे भाई अजीत ने पूछा था, क्यों रे रामू ! तुम लोग सचमुच में गाँव छोड़कर शहर जा रहे हो ?
    - हाँ, दद्दा ! रामनाथ बोला था, ह्याँ खेती में कुछ न होवे है। वहाँ जाके मजदूरी करके दो रोटी तो खाएँगे।

    - और बहू ?
    - वो भी मेरे संग ही रहेगी।
    - लेकिन....। अजीत ने आशंका जतलाई थी, परदेश में लुगाई को साथ लेकर....वहाँ रहने के लिए तेरा कोई ठौर-ठिकाना भी तो नहीं है न !
    - वहाँ पड़ोसी गाँव के धर्मा भाई रहते हैं न ! रामनाथ ने कहा था, उन्हें मिल की ओर से क्वार्टर मिला है। हम उन्ही के साथ रह लेंगे।
    अजीत माचिस की तीली से दाँत खोदने लगा था। गाँव के किसी सयाने ने उसे समझाया था, आगे-पीछे, भले-बुरे की भी सोच ले, रामनाथ ! शहरी लोग चालाक हुआ करे हैं। कहीं.....।
    - इसमें सोचना क्या है, काका ? रामनाथ मुस्करा दिया था, साल-छह महीने वहीं रह लेंगे। मन न लगा तो गाँव लौट आएँगे।

    - ठीक है। वे दोनों अपने घर चल दिए थे।
    खरीफ की फसल काटी जाने लगी थी। रामनाथ ने धर्मदास को पत्र भेज दिया था कि वह दिल्ली आ रहा है। उसने सारा अनाज औने-पौने में बेचकर घर-द्वार की चाभी चाचा को थमा दी थी। गाय-भैंस भी उसने सस्ते में ही बेच डाले थे।
    - अरे ओ रामनाथ ! उसके चाचा ने कहा था, इस बात का ध्यान रखना कि पैतृक संपत्ति न बेची जाए !
    -मैं समझा नहीं। वह सिर खुजलाने लगा था।
    -यही कि बाप-दादा की जमीन न बेच डालना। चाचा बोले थे, उस पर पहला हक हमारा बनता है।
    - घर-द्वार, जमीन-जायदाद तो मैं आप लोगों को ही सौंपकर जा रहा हूँ न ! उसने कहा था।
    - फिर ठीक है। चाचा ने उसे सावधान किया था, वैसे तू जो भी कर रहा है, गलत कर रहा है। दो खेत पड़े हैं। वे तुम दोनों के लिए काफी हैं।

    - नहीं, चाचू ! रामनाथ अपने निश्चय से टस-से-मस नहीं हुआ था, शहर तो मुझे जाना ही जाना है।
    - ठीक है। चाचा ने कहा था, मेरी भी अधिक बोलने की आदत नही हैं। जो चाहे, कर !
    मालती को उस घर-बार को छोड़ते हुए अत्यधिक आंतरिक पीड़ा हो रही थी। रात को उसने रामनाथ को बहुत समझाया था। लेकिन उसका हठ तो जैसे हमीर हठ ही था। उसने एक भी न मानी।
    - क्यों री ! ऊपर की गली की शरबती अम्मा ने उससे पूछा था, तू वहाँ शहर में अकेली रह लेगी ?
    - वो मेरा कहा नहीं मान रहे हैं, अम्मा ! मालती ने मायूसी में डूब कर कहा था, मैं भी तो उन्हीं के संग बँधी हुई हूँ न !
    उस रात मालती गाँव की सहेलियों से गले मिली थी। कौन जाने फिर गाँव आना हो न हो ! यह विचार उसे बहुत दुखी कर रहा था।

रामनाथ नींद में बड़बड़ाने लगा, वाह धर्मा भाई ! ये लालपरी तो बहुत ही मतवाली है। थोड़ी-सी और देना !
    मालती अतीत से वर्तमान में लौट आई। वह पति को देखने लगी। वह नींद में न जाने क्या-क्या बड़बड़ाए जा रहा था। उसने करवट बदलकर सोने की चेष्टा की। लेकिन निंदिया रानी तो उससे रूठ चली थी।
    मालती ने उबासी ली। झोंपड़ी से निकलकर वह बाहर चबूतरे पर चली आई। वहीं से वह अपने आस-पास देखने लगी। सारी बस्ती गहरी नींद में डूबी हुई थी। सामने ही सरकारी बस्ती का चौकीदार लाठी ठकठकाता हुआ सीटियाँ दिए  जा रहा था — स्वीं....स्वीं....। 
    दूर आश्रम की ओर की सड़क पर भारी-भरकम वाहनों की आवाजाही हो रही थी। पूर्व दिशा में विहान तारा निकल आया था। रात खुलने ही वाली थी। तभी उसके पास पार्वती ताई आ पहुँची। उसने पूछा, क्यों री ! बाहर कैसे चली आई ?
    - नींद नहीं आ रही थी, ताई ! मालती ने कहा। उसने पूछा, आप ?
    - मंडी से सब्जी लाने जा रही हूँ न ! कहकर ताई उधर से मेन रोड की ओर मुड़ गई।
    चबूतरे पर बैठी-बैठी मालती फिर से अतीत की वादियों में विचरने लगी।

2


रामनाथ की नींद खुली तो उसके बगल में मालती नहीं थी। सहसा ही उसका मन मितलाने लगा। बिस्तर से उठ कर वह भी बाहर चबूतरे की ओर चला आया। उसने वहाँ ढेर सारी उल्टियाँ कर डालीं। मालती उस पर फिर से लाल-पीली होने लगी, मैं कब से कह रही हूँ कि यह मुई शराब तुम्हारी जान लेकर ही रहेगी ! पर तुम तो ....।
    रामनाथ ने कुर्तें की बाह से मुँह पोंछा और चुपचाप अंदर चला आया।
    मालती चबूतरे पर बैठी-बैठी ऊँघने लगी थी। बीते हुए दिन अब भी उसका पीछा नहीं छोड़ रहे थे।
    उस वर्ष फसल बेच अंटी में रूपये रखकर रामनाथ ने उसके साथ दिल्ली आने का निश्चय कर लिया था। घर-द्वार पर ताला जड़कर उसने उसकी चाभी चाचा को थमा दी थी, लो चाचू, हमारा घर-द्वार भी देखते रहना।
    उन्होंने अपना बोरिया-बिस्तर रात को ही बाँध लिया था। घर से निकलकर वे सड़क के किनारे जा खड़े हुए थे। वहाँ भूरा का ताँगा खड़ा था। उसी पर बैठ कर वे समीप के रेलवे स्टेशन  चले आए थे। चारेक घंटे बाद वे दिल्ली स्टेशन पर उतर आए थे।

    मेन गेट पर टिकट देकर उधर से वे बाहर चले आए थे। सीढियों पर उन्हें तीन-चार स्कूटर वालों ने घेर लिया था। वे उनका दिमाग ही चाटने लगे थे। उस अनदेखी दिल्ली में वे कहाँ जाते ! रामनाथ ने जेब से एक पोस्ट कार्ड निकालकर एक स्कूटर वाले को थमा दिया था। उस ड्राइवर ने पूछा था, तुम्हें किशनगंज जाना है ?
    - हाँ। रामनाथ ने सिर हिला कर पूछा था, वहाँ के कित्ते रूपये लेगा ?
    - ले चलेंगे। ड्राइवर ने कहा था, रूपये तो मीटर बताएगा।
    उनमे स्कूटर का भावताव चल ही रहा था कि किसी ग्रामीण आदमी का हाथ रामनाथ के कंधे पर आ लगा था, ऐ भैया ! इन स्कूटर वालों से बच कर रहना। ये तुझे सगरी दिल्ली की सैर करवा देंगे। किशनगंज जाना है तो सामने से मिनी बस पकड़ लो। सामने ही तो वो बस खड़ी है।

    - हाँ।  एक दूसरे आदमी ने भी कहा था, ये लोग बहुत चालू होते हैं।
    रामनाथ मालती को देखने लगा था। उस आदमी की बात उनकी समझ में आ गई थी। सीढ़ियाँ उतर कर वे लोग सड़क पार कर सामने ही दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी की ओर चल दिए थे। वहाँ आठ-दस मिनी बसें खड़ी थीं। कुछ छोकरे फुटपाथ पर खड़े-खड़े पुकार-पुकार कर सवारियाँ बटोरते आ रहे थे। वे उधर ही चल दिए थे। रामनाथ ने एक छोकरे से पूछा था, क्यों भैये ! हमें किशनगंज जाना है कौन-सी बस में बैठें ?
    - बैठो। उस छोकरे ने कहा था, यही बस जा रही है। वह फिर से सवारियाँ बटोरने के लिए गुहार लगाने लगा था।
    पत्नी के साथ रामनाथ उसी बस में बैठ गया था। वहाँ भी वह दूसरी सवारियों से पूछताछ करने लगा था। एक सवारी ने कहा था, भैया, घबड़ाए मती। हम तुम्हें वहीं उतरवा देंगे।

    बस सवारियों से ठसाठस भर चली थी। उसके बाद वह बस पश्चिम दिशा की ओर दौड़ने लगी थी। बीसेक मिनट बाद एक यात्री ने रामनाथ से कहा था, उठो पहलवान ! तुम्हारा स्टॉप आ गया है।
    बस रुकी तो रामनाथ मालती के साथ उसके फुटबोर्ड से नीचे उतर आया था। वहाँ सड़क पर ट्रैफिक की भीड़ थी। रामनाथ ने एक चलते आदमी को हाथ का पोस्टकार्ड दिखलाया था। देखकर वह आदमी बोला था, क्लाथ मिल का स्टॉप तो यही है।
    - भैया ! रामनाथ ने किसी और राहगीर से पूछा था, क्लाथ मिल के क्वार्टर किधर हैं ?
    - ये सामने रहे। उस आदमी ने कहा था, तिकोने पार्क के उस पार के सारे क्वार्टर मिल के ही तो हैं।
    रामनाथ पत्नी को देखने लगा था।
    - किसके यहाँ जाना है ? उस राहगीर ने पूछा था।
    - धर्मदास के घर। रामनाथ ने उसे पोस्टकार्ड पकड़ा दिया था।
    - आओ उस अदमी ने कहा था, मैं तुम्हें वहाँ पहुँचा आता हूँ।

    धर्मदास तो आजीवन कुवाँरा जीव था। जवानी में उसने विवाह करने से इंकार कर दिया था। गाँव में उसके माँ-बाप उसको विवाह करने के लिए बहुत जोर देते रहे थे। लेकिन वह अपने निश्चय पर ही डटा रहा था। वर्ष-पर-वर्ष बीतते गए थे। वह वहाँ मिल की बस्ती में ‘ब्रह्मचारीजी’ के नाम से जाना जाता था।
    रामनाथ जब मालती के साथ धर्मदास के क्वार्टर के आगे पहुँचा तो उस समय वह सिल-बट्टे पर मिर्च-मसाले घोटता आ रहा था। उन पर दृष्टि पड़ते ही उसके मुँह से निकल पड़ा था, धन भाग ! आओ, चले आओ !
    चौखट से वे दोनों अंदर चल दिए थे। धर्मदास कुर्ता-पायजामा पहनने लगा था। उसने कहा था, रामनाथ भाई, तुम भी अच्छे समय पर आए।
    - वो कैसे, भाई ?
    - आज मेरा साप्ताहिक छुट्टी है। कहकर वह स्टोव पर चाय का पानी चढ़ाने लगा था, यों सुबह से ही मेरे हाथ से बर्तन छूटते आ रहे थे। लगा था जैसे आज कोई-न-कोई मेहमान आएगा।

    - मेरी चिट्ठी तो मिल गई थी न ? रामनाथ ने खाट पर बैठकर पूछा था।
    - हाँ। पिछले महीने मिल गई थी। धर्मदास चाय छानने लगा था।
    चाय-नाश्ते के बाद धर्मदास भोजन की व्यवस्था करने लगा था। स्टोव पर दाल चढ़ाकर धर्मदास आटा गूँथने को हुआ था। ऐसे में मालती ने उसे टोक दिया था, आप रहने दें। आटा मैं मल लूँगी। चूल्हे-चौके का काम मैं कर लिया करूँगी।
    - अब आगे से इसे आपको ही तो सँभालना है। धर्मदास आटा गूँथने लगा था। उसने दाँत निपोड़ दिए थे, अब तो हमे आपके हाथ के गरमागरम फुल्के खाने को मिला करेंगे।
    रात्रि भोज के बाद वे सभी सोने के लिए बिस्तरों पर लेट गए। रामनाथ ने काम की बात छेड़ दी थी, धर्मा भाई, मेरा कुछ बंदोबस्त किया ?

    - हाँ। धर्मदास बोला था, मैंने कपूर साहब को बोल दिया है। उनके लिए तो यह काम चुटकियों का है।
    रामनाथ चुप हो आया था। धर्मदास ने कहा था, अभी इतनी जल्दी भी क्या है ! दो-चार दिन दिल्ली घूम-फिर लो। उसके बाद काम-ही-काम है।
    - तो मुझे सच में काम मिल जाएगा ?
    - ये लो ! धर्मदास ने जोर का ठहाका लगा दिया था, कल ही तो मैंने कपूर साहब से बात की थी। वे बोले कि पहली तारीख से रख लेंगे।
    यात्रा के थके-हारे वे दोनों गहरी नींद सोए थे।
    सुबह हुई तो धर्मदास उनसे पहले ही उठ गया था। बाजार से दूध लाकर वह चाय बना रहा था। मालती उठ खड़ी हुई थी, चाय मैं बनाती हूँ।

    - एक ही बात है, भाभी ! धर्मदास चाय छानने लगा था। उन्हें चाय थमाकर उसने एक-एक रस भी दे दिया था।
    - लो भाभी ! धर्मदास फिर उसकी गिलास में चाय उँडेलने लगा था, मर्द के हाथ की बनी चाय का स्वाद ही कुछ और हुआ करता है।
    उनके आने पर धर्मदास की खुशी का कोई पारावार न था। उन्हें घुमाने के लिए उसने दो दिन की छुट्टियाँ ले ली थीं। अगले दिन वह उन्हें घुमाने के लिए शहर-बाजार की ओर निकल गया था। तीनों पैदल ही घंटाघर की ओर चल दिए थे।
    बाजारों की वह चमक-दमक मालती को चुँधियाने ही लगी थी। एक दुकान पर लटकी हुई साड़ी को वह हसरतभरी निगाहों से देखने लगी थी। जीवन में उसने कभी साड़ी नहीं पहनी थी। गाँव में तो वह लँहगे में ही रहा करती थी। वह वहीं ठिठक गई थी।
        

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