पारिवारिक >> बुनियाद बुनियादमनोहर श्याम जोशी
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दूरदर्शन धारावाहिक पर आधारित उपन्यास बुनियाद...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दूरदर्शन-धारावाहिक के रूप में ‘बुनियाद’ को देश के
लाखों-करोड़ों दर्शकों ने देखा और सराहा। उसकी इस सफलता को लेकर मेरी खुशी
स्वाभाविक है, खासकर इसलिए भी कि इसके माध्यम से मैंने जो कहा, लोगों ने
उसे पूरे मन से सुना – समझा।
लेकिन ‘बुनियाद’ पर काम करते हुए जिन मित्रों का सहयोग मिलता रहा, वह न मिलता तो ऐसी सफलता सन्दिग्ध थी। खासतौर से लेखन – कार्य में सलाहकार रहीं सुप्रसिद्ध कथाकार कृष्णा सोबती तथा शोध-कार्य के लिए डॉ. पुष्पेश पन्त के प्रति मैं हृदय से आभारी हूँ। दृश्यालोक को पुस्तक-रूप देने में श्री भूपेन्द्र अबोध ने जो कार्य किया उसके लिए मैं उनका आभारी हूँ।
लेकिन ‘बुनियाद’ पर काम करते हुए जिन मित्रों का सहयोग मिलता रहा, वह न मिलता तो ऐसी सफलता सन्दिग्ध थी। खासतौर से लेखन – कार्य में सलाहकार रहीं सुप्रसिद्ध कथाकार कृष्णा सोबती तथा शोध-कार्य के लिए डॉ. पुष्पेश पन्त के प्रति मैं हृदय से आभारी हूँ। दृश्यालोक को पुस्तक-रूप देने में श्री भूपेन्द्र अबोध ने जो कार्य किया उसके लिए मैं उनका आभारी हूँ।
मनोहर श्याम जोशी
कहानी लाहौर से शुरू होती है, जहाँ लाला गेंदामल सन् 1857-गदर के बाद के
दशक में पिंडी बहाउद्दीन से आकर बसे। पिंडी बहाउद्दीन लाहौर से सौ-एक मील
दूर तक कस्बा है, जहाँ के खत्री काफी संपन्न हुआ करते थे। मेवों का
व्यापार उनका मुख्य धंधा था। लाला गेंदामल उसी खत्री खानदान से आते हैं।
गेंदामस के माता-पिता का देहांत तभी हो गया था,
जब वह बच्चे थे। रिश्ते के एक दादा जी ने उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया। दादाजी महाराज रणजीतसिंह के दरबार में मुलाजिम थे और पंजाब पर अंग्रेजों की विजय उन्होंने अपनी आँखों देखी थी। अंग्रेजों की बुद्धि-कौशल के अनगिनत किस्से उन्हें याद थे, जिन्हें वे बचपन में गेंदामल को सुनाया करते और कहते - ‘अंग्रेजों की विद्या सीख और अंग्रेज के बराबर पहुँच।’ उन किस्सों को गेंदामल के मन-मस्तिष्क पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा। फिर एक दिन दादा जी का देहांत हो गया। गेंदामल अनाथ हो गए। सगे-संबंधियों की मेहरबानियों पर कुछ दिन कटे, फिर किसी दिन किस्मत आजमाने वह पिंडी बहाउद्दीन को अलविदा कह लाहौर आ गए।
लाहौर में अपनी जिंदगी की शुरूआत उन्होंने फेरी लगाने वाले की हैसियत से की थी, मगर लगन और मेहनत की बदौलत एक दिन मेवों के बहुत बड़े तिजारती बन गए। पिंडी बहाउद्दीन स्थित अपने पुश्तैनी मकान का जीर्णोद्धार कराया, जमीन-जायदाद बनाई और लाहौर के कूचा राधाकिशन में अपना बड़ा-सा मकान खड़ा किया। अब वह गेंदामल से लाला गेंदामल कहलाने लगे।
मेहनत और ऊपरवाले की मेहरबानी ने तमाम खुशियाँ दीं गेंदामल को, मगर रुलाया भी कम नहीं। एक के बाद एक-तीन बेटे बड़ी माता, प्लेग तथा हैजे से गुजर गए। कुल दो जिंदा बचे – रलिया तथा हवेली। बचपने में अपने दादा से मिली सीख को – कि अंग्रेजों की विद्या सीख और अंग्रेजों के बराबर पहुँच – गेंदामल ने अपने इन दोनों बेटों पर भरपूर आजमाना चाहा, मगर दोनों ही से निराशा हाथ लगी। रलिया से तो एक हद तक संतोष भी रहा कि किसी तरह कुल जमा मिडिल पास करके उसने आधुनिक व्यापार का रास्ता पकड़ा, अंग्रेज भक्त बना, पुश्तैनी तिजारत के साथ-साथ ठेकेदारी का भी धंधा अपनाया, मगर हवेली !
बचपन से ही पढ़ने-लिखने में तेज हवेली से लाला गेंदामल ने ढेरों उम्मीदें लगा रखी थीं। शुरू से हवेली सब दिन अपने क्लास में फर्स्ट आता रहा और वजीफे लेता रहा। जब बी.ए. में था, गेंदामल की इच्छा थी कि वह आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चला जाए और लाट साहबी या बैरिस्टरी का इम्तहान दे। मगर नहीं। हवेली पर स्वदेश-प्रेम का भूत सवार हो आया। उस पर ‘हिंटस् ऑफ सेल्फ-कल्चर’ के लेखक, विलायत में शिक्षित लाला हरदयाल का गहरा असर पड़ा और बी.ए., बी.टी. करके उसने टीचरी पकड़ ली। वह लाला लाजपतराय का अनुयायी बना और आर्यसमाज तथा क्रांतिकारी दल का एक सक्रिय सदस्य। टीचरी के बाद का उसका अधिकांश समय खतरनाक किस्म के आंदोलनबाज़ी में बीत रहा था। रलिया जहाँ उसे गैर-जिम्मेदार समझता है, लाला गेंदामल भी उससे नाउम्मीद हो चले हैं।
लाला गेंदामल की तीसरी तथा सबसे छोटी संतान है वीराँवाली। घर-भर की मुँहलगी तथा शादी की उम्र हो जाने पर भी कुँवारी। लाला गेंदामल अपनी इस इकलौती बेटी की शादी ऊँचे खानदान में करना चाहते हैं।
विच्छोवाली गली में भाई आत्मानंद का मकान है। पक्के आर्यसमाजी होने के साथ-साथ वह गदर पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता भी हैं। कह लीजिए, होल-टाइमर। चालीस-बयालीस की उम्र तक उन्होंने शादी सिर्फ इसलिए नहीं की कि आजादी की लड़ाई में पता नहीं किस दिन काम आ जाएँ। घर में आत्मानंद के अलावा उनकी एक कुँवारी भांजी है – लाजवंती, जिसके माता-पिता के देहांत के बाद आत्मानंदजी मिंटगुमरी स्थित उसके ताया-ताई से लड़-झगड़कर अपने पास लाहौर लिवा लाए थे कि पढ़ा-लिखाकर उसे अपने पैरों पर खड़ा होने योग्य बनाएँगे। हवेलीराम भाई आत्मानंद के पास आता-जाता रहता है। उनकी बहन वीराँवाली भी। थोड़े ही दिनों में वीराँवाली तथा लाजवंती अच्छी सहेलियों हो चली हैं।
सन् 1915 की एक शाम।
भाई आत्मानंद अपने मकान की छत पर नए खरीदे गए कैमरे को टेस्ट करने के ख्याल से हवेलीराम तथा वीराँवाली की इक्ट्ठी तस्वीर खींचने की तैयारियाँ कर रहे हैं। लाजवंती अलग खड़ी फोटो खींचने-खिंचाने की तैयारियाँ देख रही है।
वीराँवाली: आ नी लाजो, तू भी बैठ जा साथ।
लाजो : नहीं, आप भाई-बहिन खिंचवाओ।
मगर जब भाई आत्मानंद भी लाजो को साथ बैठने के लिए कहते हैं तो वह अनमनी-सी, मगर भीतर-ही-भीतर खुश होकर हवेलीराम-वीराँवाली के साथ बैठ जाती है और कहती है – मुझे शर्म आती है मामाजी !
आत्मानंद: कैमरे से शर्म ?
लाजो: कैमरे से थोड़ी ? इसमें से जो चिड़िया निकलती है, उससे आती है।
आत्मानंद हँसते हैं और हँसते हुए निर्देश देते हैं – हाँ ध्यान से देखो। यहाँ से चिड़िया निकलेगी।
कैमरा क्लिक होता है। आत्मानंद संतोष की साँस लेते हैं – बस जी, धन्यवाद।
वीराँवाली: हाय लाजो, हमारी फोटो तो मुँह फाड़े खिंच गई।
आत्मानंद: जो जैसा है उसका वैसा ही फोटो आना है। हवेलीराम तो बिल्कुल नहीं हँसा।
हवेलीराम: इस माहौल में कौन हँस सकता है ? सब लोग कहते थे कि बर्तानिया जर्मनी से जंग में उलझ गया और इस मौके का फायदा उठाकर हिंदुस्तानी फौज गदर कर देगी। लेकिन हुआ क्या ? भाई परमानंद पकड़े गए। सिपाही करतारसिंह सराबा और अब्दुल्ला-जैसे बहादुर जवान गोली से उड़ा दिए गए।
आत्मानंद: ऐसी मुसीबतों के सामने हँसते-मुस्कराते रहना इन्कलाबियों का धर्म होता है।
हवेलीराम: ये सब ठीक है भाई आत्मानंद, लेकिन लाला लाजपतराय ने तो अमरीका से लिखा है कि जर्मनी की मदद से यहाँ इन्कलाब कभी नहीं हो सकेगा।
आत्मानंद: चाहे जैसे हो, मगर होगा जरूर। याद नहीं, गदर रिसाले के पहले अंक में लाला हरदयाल ने क्या लिखा था ? हमारा नाम क्या है ? गदर। हमारा काम क्या है ? इन्कलाब लाना। इन्कलाब कब होगा ? बस चंद सालों में। पहली नवंबर, 1913 को ये बातें लिखी गई थीं और देखो, दो सालों में ही हालात कितनी तेजी से हमें इन्कलाब की ओर ले जा रहे हैं।
हवेलीराम: तो आप समझते हैं भाई आत्मानंद कि इस कैमरे की आड़ में रहते हुए आप सबकी नजर बचाकर इन्कलाब की मंज़िल तक पहुँच जाएँगे ?
आत्मानंद: कोशिश तो करूँगा।
हवेलीराम: डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट बन जाने के बाद सख्ती बहुत बढ़ गई है, इसलिए सोच लीजिए भाई आत्मानंद !
आत्मानंद: अब क्या सोचना ? मुझे थोड़ी-सी फ्रिक है तो बस अपनी भांजी की। मैं इसे इसके ताया-ताई से लड़ के यहाँ ले आया था कि एन्ट्रेंस पास कराके कहीं नौकरी पर लगवा दूँगा, लेकिन आर्यसमाज और गदर पार्टी दोनों में उलझ गया हूँ, तो इसे पढ़ाने के लिए वक्त बहुत ही कम मिल पाता है। और कहीं जेल चला गया तो...।
वीराँवाली: हम करेंगे इसकी देखभाल और इसे पढ़ाने का काम तो मेरे वीरजी कर देंगे।
आत्मानंद: हवेली को कहाँ फुर्सत है ?
हवेलीराम: अगर आप आदेश करें तो कल ही से स्कूल से सीधा इधर आ जाऊँगा और इन्हें घण्टा-भर पढ़ा दिया करूँगा।
आत्मानंद: मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है। आत्मानंद खुशी ज़ाहिर करते हैं – अब ज़रा नीचे चलो, तुम्हें इन्कलाबी फोटोग्राफी के बारे में कुछ और समझा दूँ।
हवेलीराम और आत्मानंद सीढ़ियों के नीचे चले जाते हैं। उनके जाने के बाद लाजो वीराँवाली को गलबहियाँ डालती हुई कहती है – नी, तूने तो मेरी बड़ी शामत बुला दी।
वीराँवाली: क्यूँ भला ?
लाजो: खुद ही तो कहती है कि मेरे वीरजी बहुत दिमागदार हैं।
वीराँवाली: वो तो हैं ही। एन्ट्रेंस से लेकर बी.ए. तक हमेशा फर्स्ट डिवीजन में पास हुए हैं। हिस्ट्री में तो इतने काबिल कि उनके प्रोफेसर गैरेट ने खुश होकर अपनी जेब-घड़ी उन्हें दे दी।
लाजो: इसलिए तो कहती हूँ, मेरी तो शामत आ गई। मैं तो हूँ पूरी बुद्धू। मेरी कसकर पिटाई होनी है।
वीराँवाली: वीरजी ने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया हुआ है। हाथ उठाना तो दूर, वो तो परायी स्त्री पर नज़र तक नहीं उठाते।
लाजो: हाँ, सच। पता है ? मुझे साल हो गया है मिंटगुमरी से आए, लेकिन आज तक मेरे वीरजी ने नमस्ते से दूसरा हरफ नहीं कहा। आती बारी नमस्ते। जाती बारी नमस्ते। और मुस्कराते तो मैंने इन्हें देखा ही नहीं। कभी हँसते भी हैं तेरे वीरजी ?
वीराँवाली: दिन में एक बारी।
लाजो: दिन में एक बारी।
वीराँवाली: हाँ। कहते हैं, ज्यादा हँसना हल्केपन की निशानी है। मगर दिन में एक बारी हँस लेना सेहत के लिए ठीक रहता है।
- हँसी न हुई, कड़वी दवाई हो गई ! कहकर लाजो तथा वीराँवाली हँसती हैं। दोनों हँस रही होती हैं, तभी नीचे से भाई आत्मानंद पुकारते हैं – लाजो !
- आवाज सुनकर लाजो जीभ काटती है – हाँजी !
आत्मानंद: वीराँवाली को भेज। हवेलीराम जा रहे हैं, और कल से आएँगे तुझे पढ़ाने। ठीक चार बजे...।
अगली शाम चार बजने में कुछ मिनट बाकी रहते हैं कि आत्मानंदजी के विच्छोवाली गली के मकान का कुंडा खटकता है। रसोई में लाजो बेसन के लड्डू बना रही है। वह आँगन पार करके दरवाजा खोलते हुए हवेलीराम को नमस्ते करती है – नमस्ते मास्टरजी !
फिर हवेलीराम को स्टडी में बिठाते हुए कहती है – आप बैठो जी, मैं अभी आई।
हवेलीराम मेज पर पड़ी किताब उठाकर देखने लगता है। लाजो एक प्लेट में चार लड्डू तथा पानी का गिलास टेबल पर रखते हुए कहती है – मास्टरजी नाश्ता।
हवेलीराम: मैं आपको यहाँ पढ़ाने के वास्ते आया हूँ, नाश्ता करने के वास्ते नहीं।
लाजो: मगर मामाजी ने कहा था, आप स्कूल से सीधा आया करेंगे तो कुछ नाश्ता जरूर करा दिया करो।
हवेलीराम: बहुत तकल्लुफ करते हैं भाई आत्मानंद। खैर, आइंदा ये याद रहे कि मैं खुद वक्त का बहुत पाबंद हूँ और चाहता हूँ कि मुझसे पढ़ने वाले भी वक्त के पाबंद हों। अगर मैं चार बजे का वक्त देता हूँ तो उसका मतलब चार बजे ही होता है। चार बजकर दस मिनट नहीं। वैसे भी आपकी ये घड़ी दो मिनट पीछे है, लाजवंतीजी !
लाजो: मैं बहुत माफी चाहती हूँ मास्टरजी !
हवेलीराम: चक्रवर्ती का गणित निकालिए। सुना, मैथमैटिक्स में आप बहुत कमजोर हैं, लाजवंतीजी ! लाजो: जी, मुझे घर पर सब लाजो पुकारते हैं।
हवेलीराम: तो आज आपको मैं लँगड़ी भिन्न सिखाऊँगा लाजोजी।
लाजो: पहले नाश्ता तो कर लेते मास्टरजी।
हवेलीराम कुछ चिढ़ता हुआ-सा एक लड्डू उठाता है। फिर उसे ख्याल आता है – और आप ?
लाजो: मैं...खा चुकी।
हवेली: खिलाने से पहले खुद खा लेती हैं लाजोजी ?
लाजो: नहीं, मेरा मतलब है मैं बाद में खा लूँगी।
हवेली: पास्ट और फ्यूचर में कोई फ़र्क़ नहीं है आपके लिए ? खा चुकी हूँ का मतलब खा लूँगी होता है ? लगता है, हिन्दी में गणित से भी ज्यादा कमजोर हैं।
लाजो: आपके सामने तो मुझे हर सब्जेक्ट में कमजोर होना ही हुआ।
हवेलीराम तश्तरी लाजो की ओर बढ़ाता है – एक लड्डू उठा के खा लीजिए लाजोजी। मुझे ये पसंद नहीं कि मैं खाता रहूँ और सामने वाला मेरा मुँह देखता रहे।
लाजो मुस्कराकर एक लड्डू उठा लेती है और पूछती है – मास्टरजी, एक बात कहूँ ? बुरा तो नहीं मानोगे ?
हवेली: कहिए।
लाजो: आप मुझे एक फेहरिस्त बना के दे दो जी, कि आपको कौन-सी चीज पसंद है और कौन-सी नापसंद। और आप अपने से पढ़ने वालों से किस-किस बात की उम्मीद रखते हो। हवेली: मुझे मेहनत पसंद है और मसखरापन नापसंद है। और मैं अपने पढ़ने वालों से पहली उम्मीद इसी बात की रखता हूँ कि वो सारा ध्यान पढ़ाई पर लगाएँ, आलतू-फालतू बात पर नहीं।
अगली शाम लाजो रसोई में चाशनी से डूबे शकरपारे और पकौड़े लेकर स्टडी में आती है और मेज पर तश्तरियों को देखकर घड़ी की ओर देखती है। चार बजने में पाँच मिनट बाकी हैं। वह राहत की साँस लेती है और मास्टर हवेलीराम के अंदाज में अपने से कहती है – लाजोजी, आज तो आपने पाँच मिनट पहले नाश्ता बनाके रख दिया। किताबें भी अपनी जगह पर रखी हैं। सबसे बड़ी बात कि आपने राजा राममोहन राय पर निबंध आखिर लिख ही लिया।
तभी दरवाजे पर दस्तक होती है। लाजो दरवाजा खोलकर हवेलीराम को नमस्ते करती है, फिर दोनों स्टडी में आकर बैठते हैं। हवेलीराम सामने पड़ी कापी उठाता है और खोलता है।
हवेली: अच्छा, तो आपने राजा राममोहन राय पर निबंध लिख ही लिया। पर इतना है अंग्रेजी और हिंदी दोनों में ही कमजोर हैं। अंग्रेजी के लिए तो माफ किया जा सकता है, क्योंकि आप कस्बे से आई हैं, लेकिन हिन्दी क्यों पंजाबियों की तरह लिखती-बोलती हैं ?
लाजो: और कैसे लिखूँ ? जी मैं तो हूँ ही ठेठ पंजाबी। आप नहीं हो ?
हवेली: आप नहीं हैं, कहिए। मैं तो पंजाबी हूँ, लेकिन हिन्दी और पंजाबी को मिलाता नहीं। ये सुनिए आपने क्या लिखा है – ‘राजा राममोहन राय ने यह संकल्प किया हुआ था कि....’।
लाजो: इस तरह जोर-जोर से पढ़कर मत सुनाओ। आप कापी में सुधार दो। मैं दस-दस बारी लिख दूँगी।
हवेली: ‘बारी नहीं, बार’।
इसी बीच घड़ी चार बजाती है। हवेलीराम लाजो से कहता है – बहुत हो गई गपशप। अब ज्योमैट्री निकालिए।
ज्योमैट्री पढ़ाने के क्रम में कापी पर एंगल समझाते-समझाते हवेलीराम तथा लाजवंती की अँगुलियाँ आपस में कई-कई बार टकराती हैं। घड़ी में जब पाँच बजते हैं, हवेलीराम पढ़ाने का काम बंद करते हुए उठता है – अच्छा, अब मैं चलता हूँ। आज एक सभा में जाना है।
लाजो: क्रांतिकारियों की ?
हवेली: नहीं, साहित्यकारों की।
लाजो: मास्टरजी, क्या आप भी उन्हीं में से हो जो समझते है कि आर्यसमाज को सियासी मामलों से दूर रहना चाहिए ?
हवेली: नहीं तो।
लाजो: लेकिन आप गदर पार्टी के लिए उस तरह काम नहीं करते जिस तरह मामाजी ?
हवेली: मुझे कलम से इन्कलाब लाना है, बम से नहीं। मैं भी लाला लाजपत राय की तरह ये मानता हूँ कि जर्मनी की मदद से कोई इन्कलाब नहीं होनेवाला।
लाजो: लेकिन लालाजी ने यह भी तो कहा है कि बगैर कुर्बानी के आजादी नहीं मिलती। नरम-नरम बातों से काम नहीं बनने का। गरमा-गरम लड़ाई लड़नी पड़ेगी।
हवेली: आप कहाँ पढ़ लेती हैं ये सब ?
लाजो: मामाजी के पास जो भी रिसाला आता है, उसमें।
हवेली: जितने ध्यान से रिसाले पढ़ती हैं, उतने ध्यान से किताबें पढ़ेंगी तो फर्स्ट डिवीजन में पास होंगी।
लाजो: मेरा ध्यान इन्कलाब में ज्यादा लगता है। अच्छा मास्टरजी, आप नरम दल में हो कि गरम दल में ?
हवेली: मैं ?
हवेलीराम के चेहरे पर हँसी उभरती है। वह हँसता है। लाजो भी हँसती है और हँसते हुए पूछती है – आपने कड़वी दवाई पी ली ?
हवेली: क्या मतलब ?
लाजो: वीराँवाली कहती है कि आप दिन में एक बारी ही हँसते हैं, वो भी सेहत के खातिर।
अगली शाम इतिहास की कापी देखते हुए हवेलीराम लाजो को बताता है – आपने सिकंदर के बारे में एक बहुत जरूरी नुक्ता छोड़ दिया, वो ये कि जहाँ-जहाँ सिकंदर गया, वहाँ-वहाँ उसने यूनानी तहजीब की गहरी छाप छोड़ी।
लाजो: सिकंदर ने तो महान बनना था। आप भी तो महान बनोगे मास्टरजी ! हवेलीराम महान। वीराँवाली कहती है कि प्रोफेसर गैरेट ने खुश होकर आपको अपनी घड़ी दी। लाला लाजपतराय ने फ्रांसीसी क्रांति पर आपका लेख पढ़ के आपकी पीठ ठोंकी।
हवेली: दुनिया में मेरे से भी ज्यादा बड़े आदमी हैं, उनके बारे में जानकारी हासिल कीजिए। मेरे बारे में नहीं।
लाजो: दुनिया वास्ते होंगे, मेरे वास्ते नहीं।
तभी पाँच का घंटा बजता है। हवेलीराम पढ़ाने का काम खत्म करके जाने ही वाला है कि वीराँवाली दौड़ती-हाँफती आती है – आप घर आए क्यों नहीं वीरजी ? झाईजी और बाऊजी दोनों बहुत गुस्से हो रहे हैं।
हवेली: बात क्या है ?
वीराँवाली: अरे, आप कैसे भुलक्कड़ हैं ? आपको सवेरे ही बताया था झाईजी ने कि भरजाईजी के चाचाजी आनेवाले हैं आपको रोकने के लिए।
हवेली: कितनी बार कहना पड़ेगा कि मुझे शादी नहीं करनी है।
वीराँवाली: शादी तो आपकी टल नहीं सकती। झाईजी इस बार आपको खूँटे से बँधवा के रहेंगी।
हवेलीराम तथा वीराँवाली की यह बातचीत सुनकर लाजो का चेहरा उतर जाता है।
हवेलीराम के बड़े भाई रलियाराम कि पत्नी है शानो। पाशो छह-सात साल की बच्ची पाशो से पहले शानो के दो बेटे हो के मर चुके हैं। लड़का न होने के गम में दोनों दुखी रहते हैं शानो अंदर-ही-अंदर इस बात से परेशान रहती है कि कल को हवेली की शादी होगी, उसका बेटा होगा और खुद वह कहीं बेटे का मुँह देखने को तरसकर रह न जाए। एक दिन वह अपने कमरे में बैठी श्रृंगार कर रही होती है कि रलियाराम आता है और शानो को खुशखबरी सुनाता है – आज एक ठेका और मिल गया। लालाजी अपनी मेहनत से बड़े व्यापारी बने, मैंने अपनी मेहनत से बड़ा ठेकेदार बन जाना है।
शानो: किसके लिए कर रहे हो इतनी मेहनत ? अपने छोटे भाई हवेलीराम के पुत्तर के लिए ?
रलिया: हवेलीराम ने हाल तक तो शादी ही नहीं ना की। उसका पुत्तर कब हो गया ?
शानो: हो जाएगा किस्मत से ।
रलिया: बगैर शादी किए ? चाचा तेरा यहाँ आया है रिश्ता करने वास्ते, लेकिन हवेली ने तो वही बात दुहरायी कि मैंने ब्रह्मचारी रहना है।
शानो: मेरा ठेंगा ब्रह्मचारी रहना है। चाचे को तो झाईजी के इशारे पर लौटाया देवरजी ने। मैं पूछतीं हूँ कि क्या खराबी नजर आती है मेरी चचेरी बहन में ?
रलिया: एक ही घर से दो लड़कियाँ लाना ठीक नहीं लगता होगा झाईजी को। वो विलायतीरामजी की बेटी पसंद कर बैठे हैं।
शानो: वही है असली बात। और तुम ये समझ लो कि अगर विलायतीरामजी की बेटी आ गई देवरानी बन के तो रोज ही मुझ पर बड़े घर की बेटी होने का रुआब लेना है। जब उसके बेटा हो जाना है, तब उसने मुझे निपूती कहना है। फिर उस बेटे ने हम सबको निकाल देना है यहाँ से। मेरी चचेरी बहन से रिश्ता करा दो, उसी में हम सबका फायदा है।
रलिया: हवेली करने ही कब लगा है शादी ?
शानो: झाईजी करवाएँगे। देवरजी उनके लाड़ले हैं। उन्हें पता है कि देवरजी को धंधा-व्यापार कुछ आता नहीं, विलायतीरामजी के यहाँ रिश्ता कर देंगे तो वो अपने जँवाई की ओर से तुम्हारे कारोबार में दखल देंगे और धीरे-धीरे सबकुछ हथिया लेंगे अपनी बेटी के बेटे के लिए।
हवेलीराम अपने कमरे में कहीं जाने को तैयार खड़ा है। वीराँवाली वहाँ मौजूद है। हवेलीराम सामान उठाता है – अब मुझे जाना है। मेरे पास वक्त नहीं है फालतू बातों के लिए।
वीराँवाली उठकर पास आती है – सवाल का जवाब तो दिया ही नहीं वीरजी ? बताओ ना किससे करनी है शादी ?
हवेली: किसी से नहीं।
वीराँवाली: झाईजी ये जवाब सुनने को तैयार नहीं।
हवेली: तो मैं क्या करूँ ?
वीराँवाली: आप ये करो वीरजी कि मेरी दो सहेलियाँ हैं, उनमें से किसी एक से कर लो शादी। मालदार से करनी हो तो कुंती से कर लो और दिमागदार से करनी है तो लाजवंती से।
पाशो वीराँवाली-हवेलीराम की बातें सुन लेती है और दौड़ी-दौड़ी अपनी माँ शानो को बताने जाती है – भरजाईजी, बताऊँ एक बात ?
शानो को यह कतई पसंद नहीं कि पाशो उसे ‘भरजाईजी’ कहकर पुकारे। वह पाशो को जैसे डाँटती है – भरजाईजी, भरजाईजी मत कहा कर मेरे को, सुना ! औलाद के नाम पर एक लड़की जिंदा रखी रब ने, और उसके मुँह में भी माँ का लफ्ज सुनने को तरस गई। बता क्या बताना है ?
पाशो: बुआजी चाचे से कह रही थीं कि मेरी दो सहेलियों में से किसी एक से कर लो शादी। जो मालदार चाहिए तो कुंती से कर लो, जो दिमागदार चाहिए तो लाजवंती से।
रलिया: कुंती तो विलायतीरामजी की बेटी है, ये लाजवंती कौन ?
शानो: वो जो देवरजी का आर्यसमाजी गुरु है भाई आत्मानंद, उसकी भांजी।
रलिया: वीराँवाली ने हवेलीराम के लिए उसका रिश्ता कैसे सुझा दिया ?
जब वह बच्चे थे। रिश्ते के एक दादा जी ने उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया। दादाजी महाराज रणजीतसिंह के दरबार में मुलाजिम थे और पंजाब पर अंग्रेजों की विजय उन्होंने अपनी आँखों देखी थी। अंग्रेजों की बुद्धि-कौशल के अनगिनत किस्से उन्हें याद थे, जिन्हें वे बचपन में गेंदामल को सुनाया करते और कहते - ‘अंग्रेजों की विद्या सीख और अंग्रेज के बराबर पहुँच।’ उन किस्सों को गेंदामल के मन-मस्तिष्क पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा। फिर एक दिन दादा जी का देहांत हो गया। गेंदामल अनाथ हो गए। सगे-संबंधियों की मेहरबानियों पर कुछ दिन कटे, फिर किसी दिन किस्मत आजमाने वह पिंडी बहाउद्दीन को अलविदा कह लाहौर आ गए।
लाहौर में अपनी जिंदगी की शुरूआत उन्होंने फेरी लगाने वाले की हैसियत से की थी, मगर लगन और मेहनत की बदौलत एक दिन मेवों के बहुत बड़े तिजारती बन गए। पिंडी बहाउद्दीन स्थित अपने पुश्तैनी मकान का जीर्णोद्धार कराया, जमीन-जायदाद बनाई और लाहौर के कूचा राधाकिशन में अपना बड़ा-सा मकान खड़ा किया। अब वह गेंदामल से लाला गेंदामल कहलाने लगे।
मेहनत और ऊपरवाले की मेहरबानी ने तमाम खुशियाँ दीं गेंदामल को, मगर रुलाया भी कम नहीं। एक के बाद एक-तीन बेटे बड़ी माता, प्लेग तथा हैजे से गुजर गए। कुल दो जिंदा बचे – रलिया तथा हवेली। बचपने में अपने दादा से मिली सीख को – कि अंग्रेजों की विद्या सीख और अंग्रेजों के बराबर पहुँच – गेंदामल ने अपने इन दोनों बेटों पर भरपूर आजमाना चाहा, मगर दोनों ही से निराशा हाथ लगी। रलिया से तो एक हद तक संतोष भी रहा कि किसी तरह कुल जमा मिडिल पास करके उसने आधुनिक व्यापार का रास्ता पकड़ा, अंग्रेज भक्त बना, पुश्तैनी तिजारत के साथ-साथ ठेकेदारी का भी धंधा अपनाया, मगर हवेली !
बचपन से ही पढ़ने-लिखने में तेज हवेली से लाला गेंदामल ने ढेरों उम्मीदें लगा रखी थीं। शुरू से हवेली सब दिन अपने क्लास में फर्स्ट आता रहा और वजीफे लेता रहा। जब बी.ए. में था, गेंदामल की इच्छा थी कि वह आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चला जाए और लाट साहबी या बैरिस्टरी का इम्तहान दे। मगर नहीं। हवेली पर स्वदेश-प्रेम का भूत सवार हो आया। उस पर ‘हिंटस् ऑफ सेल्फ-कल्चर’ के लेखक, विलायत में शिक्षित लाला हरदयाल का गहरा असर पड़ा और बी.ए., बी.टी. करके उसने टीचरी पकड़ ली। वह लाला लाजपतराय का अनुयायी बना और आर्यसमाज तथा क्रांतिकारी दल का एक सक्रिय सदस्य। टीचरी के बाद का उसका अधिकांश समय खतरनाक किस्म के आंदोलनबाज़ी में बीत रहा था। रलिया जहाँ उसे गैर-जिम्मेदार समझता है, लाला गेंदामल भी उससे नाउम्मीद हो चले हैं।
लाला गेंदामल की तीसरी तथा सबसे छोटी संतान है वीराँवाली। घर-भर की मुँहलगी तथा शादी की उम्र हो जाने पर भी कुँवारी। लाला गेंदामल अपनी इस इकलौती बेटी की शादी ऊँचे खानदान में करना चाहते हैं।
विच्छोवाली गली में भाई आत्मानंद का मकान है। पक्के आर्यसमाजी होने के साथ-साथ वह गदर पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता भी हैं। कह लीजिए, होल-टाइमर। चालीस-बयालीस की उम्र तक उन्होंने शादी सिर्फ इसलिए नहीं की कि आजादी की लड़ाई में पता नहीं किस दिन काम आ जाएँ। घर में आत्मानंद के अलावा उनकी एक कुँवारी भांजी है – लाजवंती, जिसके माता-पिता के देहांत के बाद आत्मानंदजी मिंटगुमरी स्थित उसके ताया-ताई से लड़-झगड़कर अपने पास लाहौर लिवा लाए थे कि पढ़ा-लिखाकर उसे अपने पैरों पर खड़ा होने योग्य बनाएँगे। हवेलीराम भाई आत्मानंद के पास आता-जाता रहता है। उनकी बहन वीराँवाली भी। थोड़े ही दिनों में वीराँवाली तथा लाजवंती अच्छी सहेलियों हो चली हैं।
सन् 1915 की एक शाम।
भाई आत्मानंद अपने मकान की छत पर नए खरीदे गए कैमरे को टेस्ट करने के ख्याल से हवेलीराम तथा वीराँवाली की इक्ट्ठी तस्वीर खींचने की तैयारियाँ कर रहे हैं। लाजवंती अलग खड़ी फोटो खींचने-खिंचाने की तैयारियाँ देख रही है।
वीराँवाली: आ नी लाजो, तू भी बैठ जा साथ।
लाजो : नहीं, आप भाई-बहिन खिंचवाओ।
मगर जब भाई आत्मानंद भी लाजो को साथ बैठने के लिए कहते हैं तो वह अनमनी-सी, मगर भीतर-ही-भीतर खुश होकर हवेलीराम-वीराँवाली के साथ बैठ जाती है और कहती है – मुझे शर्म आती है मामाजी !
आत्मानंद: कैमरे से शर्म ?
लाजो: कैमरे से थोड़ी ? इसमें से जो चिड़िया निकलती है, उससे आती है।
आत्मानंद हँसते हैं और हँसते हुए निर्देश देते हैं – हाँ ध्यान से देखो। यहाँ से चिड़िया निकलेगी।
कैमरा क्लिक होता है। आत्मानंद संतोष की साँस लेते हैं – बस जी, धन्यवाद।
वीराँवाली: हाय लाजो, हमारी फोटो तो मुँह फाड़े खिंच गई।
आत्मानंद: जो जैसा है उसका वैसा ही फोटो आना है। हवेलीराम तो बिल्कुल नहीं हँसा।
हवेलीराम: इस माहौल में कौन हँस सकता है ? सब लोग कहते थे कि बर्तानिया जर्मनी से जंग में उलझ गया और इस मौके का फायदा उठाकर हिंदुस्तानी फौज गदर कर देगी। लेकिन हुआ क्या ? भाई परमानंद पकड़े गए। सिपाही करतारसिंह सराबा और अब्दुल्ला-जैसे बहादुर जवान गोली से उड़ा दिए गए।
आत्मानंद: ऐसी मुसीबतों के सामने हँसते-मुस्कराते रहना इन्कलाबियों का धर्म होता है।
हवेलीराम: ये सब ठीक है भाई आत्मानंद, लेकिन लाला लाजपतराय ने तो अमरीका से लिखा है कि जर्मनी की मदद से यहाँ इन्कलाब कभी नहीं हो सकेगा।
आत्मानंद: चाहे जैसे हो, मगर होगा जरूर। याद नहीं, गदर रिसाले के पहले अंक में लाला हरदयाल ने क्या लिखा था ? हमारा नाम क्या है ? गदर। हमारा काम क्या है ? इन्कलाब लाना। इन्कलाब कब होगा ? बस चंद सालों में। पहली नवंबर, 1913 को ये बातें लिखी गई थीं और देखो, दो सालों में ही हालात कितनी तेजी से हमें इन्कलाब की ओर ले जा रहे हैं।
हवेलीराम: तो आप समझते हैं भाई आत्मानंद कि इस कैमरे की आड़ में रहते हुए आप सबकी नजर बचाकर इन्कलाब की मंज़िल तक पहुँच जाएँगे ?
आत्मानंद: कोशिश तो करूँगा।
हवेलीराम: डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट बन जाने के बाद सख्ती बहुत बढ़ गई है, इसलिए सोच लीजिए भाई आत्मानंद !
आत्मानंद: अब क्या सोचना ? मुझे थोड़ी-सी फ्रिक है तो बस अपनी भांजी की। मैं इसे इसके ताया-ताई से लड़ के यहाँ ले आया था कि एन्ट्रेंस पास कराके कहीं नौकरी पर लगवा दूँगा, लेकिन आर्यसमाज और गदर पार्टी दोनों में उलझ गया हूँ, तो इसे पढ़ाने के लिए वक्त बहुत ही कम मिल पाता है। और कहीं जेल चला गया तो...।
वीराँवाली: हम करेंगे इसकी देखभाल और इसे पढ़ाने का काम तो मेरे वीरजी कर देंगे।
आत्मानंद: हवेली को कहाँ फुर्सत है ?
हवेलीराम: अगर आप आदेश करें तो कल ही से स्कूल से सीधा इधर आ जाऊँगा और इन्हें घण्टा-भर पढ़ा दिया करूँगा।
आत्मानंद: मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है। आत्मानंद खुशी ज़ाहिर करते हैं – अब ज़रा नीचे चलो, तुम्हें इन्कलाबी फोटोग्राफी के बारे में कुछ और समझा दूँ।
हवेलीराम और आत्मानंद सीढ़ियों के नीचे चले जाते हैं। उनके जाने के बाद लाजो वीराँवाली को गलबहियाँ डालती हुई कहती है – नी, तूने तो मेरी बड़ी शामत बुला दी।
वीराँवाली: क्यूँ भला ?
लाजो: खुद ही तो कहती है कि मेरे वीरजी बहुत दिमागदार हैं।
वीराँवाली: वो तो हैं ही। एन्ट्रेंस से लेकर बी.ए. तक हमेशा फर्स्ट डिवीजन में पास हुए हैं। हिस्ट्री में तो इतने काबिल कि उनके प्रोफेसर गैरेट ने खुश होकर अपनी जेब-घड़ी उन्हें दे दी।
लाजो: इसलिए तो कहती हूँ, मेरी तो शामत आ गई। मैं तो हूँ पूरी बुद्धू। मेरी कसकर पिटाई होनी है।
वीराँवाली: वीरजी ने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया हुआ है। हाथ उठाना तो दूर, वो तो परायी स्त्री पर नज़र तक नहीं उठाते।
लाजो: हाँ, सच। पता है ? मुझे साल हो गया है मिंटगुमरी से आए, लेकिन आज तक मेरे वीरजी ने नमस्ते से दूसरा हरफ नहीं कहा। आती बारी नमस्ते। जाती बारी नमस्ते। और मुस्कराते तो मैंने इन्हें देखा ही नहीं। कभी हँसते भी हैं तेरे वीरजी ?
वीराँवाली: दिन में एक बारी।
लाजो: दिन में एक बारी।
वीराँवाली: हाँ। कहते हैं, ज्यादा हँसना हल्केपन की निशानी है। मगर दिन में एक बारी हँस लेना सेहत के लिए ठीक रहता है।
- हँसी न हुई, कड़वी दवाई हो गई ! कहकर लाजो तथा वीराँवाली हँसती हैं। दोनों हँस रही होती हैं, तभी नीचे से भाई आत्मानंद पुकारते हैं – लाजो !
- आवाज सुनकर लाजो जीभ काटती है – हाँजी !
आत्मानंद: वीराँवाली को भेज। हवेलीराम जा रहे हैं, और कल से आएँगे तुझे पढ़ाने। ठीक चार बजे...।
अगली शाम चार बजने में कुछ मिनट बाकी रहते हैं कि आत्मानंदजी के विच्छोवाली गली के मकान का कुंडा खटकता है। रसोई में लाजो बेसन के लड्डू बना रही है। वह आँगन पार करके दरवाजा खोलते हुए हवेलीराम को नमस्ते करती है – नमस्ते मास्टरजी !
फिर हवेलीराम को स्टडी में बिठाते हुए कहती है – आप बैठो जी, मैं अभी आई।
हवेलीराम मेज पर पड़ी किताब उठाकर देखने लगता है। लाजो एक प्लेट में चार लड्डू तथा पानी का गिलास टेबल पर रखते हुए कहती है – मास्टरजी नाश्ता।
हवेलीराम: मैं आपको यहाँ पढ़ाने के वास्ते आया हूँ, नाश्ता करने के वास्ते नहीं।
लाजो: मगर मामाजी ने कहा था, आप स्कूल से सीधा आया करेंगे तो कुछ नाश्ता जरूर करा दिया करो।
हवेलीराम: बहुत तकल्लुफ करते हैं भाई आत्मानंद। खैर, आइंदा ये याद रहे कि मैं खुद वक्त का बहुत पाबंद हूँ और चाहता हूँ कि मुझसे पढ़ने वाले भी वक्त के पाबंद हों। अगर मैं चार बजे का वक्त देता हूँ तो उसका मतलब चार बजे ही होता है। चार बजकर दस मिनट नहीं। वैसे भी आपकी ये घड़ी दो मिनट पीछे है, लाजवंतीजी !
लाजो: मैं बहुत माफी चाहती हूँ मास्टरजी !
हवेलीराम: चक्रवर्ती का गणित निकालिए। सुना, मैथमैटिक्स में आप बहुत कमजोर हैं, लाजवंतीजी ! लाजो: जी, मुझे घर पर सब लाजो पुकारते हैं।
हवेलीराम: तो आज आपको मैं लँगड़ी भिन्न सिखाऊँगा लाजोजी।
लाजो: पहले नाश्ता तो कर लेते मास्टरजी।
हवेलीराम कुछ चिढ़ता हुआ-सा एक लड्डू उठाता है। फिर उसे ख्याल आता है – और आप ?
लाजो: मैं...खा चुकी।
हवेली: खिलाने से पहले खुद खा लेती हैं लाजोजी ?
लाजो: नहीं, मेरा मतलब है मैं बाद में खा लूँगी।
हवेली: पास्ट और फ्यूचर में कोई फ़र्क़ नहीं है आपके लिए ? खा चुकी हूँ का मतलब खा लूँगी होता है ? लगता है, हिन्दी में गणित से भी ज्यादा कमजोर हैं।
लाजो: आपके सामने तो मुझे हर सब्जेक्ट में कमजोर होना ही हुआ।
हवेलीराम तश्तरी लाजो की ओर बढ़ाता है – एक लड्डू उठा के खा लीजिए लाजोजी। मुझे ये पसंद नहीं कि मैं खाता रहूँ और सामने वाला मेरा मुँह देखता रहे।
लाजो मुस्कराकर एक लड्डू उठा लेती है और पूछती है – मास्टरजी, एक बात कहूँ ? बुरा तो नहीं मानोगे ?
हवेली: कहिए।
लाजो: आप मुझे एक फेहरिस्त बना के दे दो जी, कि आपको कौन-सी चीज पसंद है और कौन-सी नापसंद। और आप अपने से पढ़ने वालों से किस-किस बात की उम्मीद रखते हो। हवेली: मुझे मेहनत पसंद है और मसखरापन नापसंद है। और मैं अपने पढ़ने वालों से पहली उम्मीद इसी बात की रखता हूँ कि वो सारा ध्यान पढ़ाई पर लगाएँ, आलतू-फालतू बात पर नहीं।
अगली शाम लाजो रसोई में चाशनी से डूबे शकरपारे और पकौड़े लेकर स्टडी में आती है और मेज पर तश्तरियों को देखकर घड़ी की ओर देखती है। चार बजने में पाँच मिनट बाकी हैं। वह राहत की साँस लेती है और मास्टर हवेलीराम के अंदाज में अपने से कहती है – लाजोजी, आज तो आपने पाँच मिनट पहले नाश्ता बनाके रख दिया। किताबें भी अपनी जगह पर रखी हैं। सबसे बड़ी बात कि आपने राजा राममोहन राय पर निबंध आखिर लिख ही लिया।
तभी दरवाजे पर दस्तक होती है। लाजो दरवाजा खोलकर हवेलीराम को नमस्ते करती है, फिर दोनों स्टडी में आकर बैठते हैं। हवेलीराम सामने पड़ी कापी उठाता है और खोलता है।
हवेली: अच्छा, तो आपने राजा राममोहन राय पर निबंध लिख ही लिया। पर इतना है अंग्रेजी और हिंदी दोनों में ही कमजोर हैं। अंग्रेजी के लिए तो माफ किया जा सकता है, क्योंकि आप कस्बे से आई हैं, लेकिन हिन्दी क्यों पंजाबियों की तरह लिखती-बोलती हैं ?
लाजो: और कैसे लिखूँ ? जी मैं तो हूँ ही ठेठ पंजाबी। आप नहीं हो ?
हवेली: आप नहीं हैं, कहिए। मैं तो पंजाबी हूँ, लेकिन हिन्दी और पंजाबी को मिलाता नहीं। ये सुनिए आपने क्या लिखा है – ‘राजा राममोहन राय ने यह संकल्प किया हुआ था कि....’।
लाजो: इस तरह जोर-जोर से पढ़कर मत सुनाओ। आप कापी में सुधार दो। मैं दस-दस बारी लिख दूँगी।
हवेली: ‘बारी नहीं, बार’।
इसी बीच घड़ी चार बजाती है। हवेलीराम लाजो से कहता है – बहुत हो गई गपशप। अब ज्योमैट्री निकालिए।
ज्योमैट्री पढ़ाने के क्रम में कापी पर एंगल समझाते-समझाते हवेलीराम तथा लाजवंती की अँगुलियाँ आपस में कई-कई बार टकराती हैं। घड़ी में जब पाँच बजते हैं, हवेलीराम पढ़ाने का काम बंद करते हुए उठता है – अच्छा, अब मैं चलता हूँ। आज एक सभा में जाना है।
लाजो: क्रांतिकारियों की ?
हवेली: नहीं, साहित्यकारों की।
लाजो: मास्टरजी, क्या आप भी उन्हीं में से हो जो समझते है कि आर्यसमाज को सियासी मामलों से दूर रहना चाहिए ?
हवेली: नहीं तो।
लाजो: लेकिन आप गदर पार्टी के लिए उस तरह काम नहीं करते जिस तरह मामाजी ?
हवेली: मुझे कलम से इन्कलाब लाना है, बम से नहीं। मैं भी लाला लाजपत राय की तरह ये मानता हूँ कि जर्मनी की मदद से कोई इन्कलाब नहीं होनेवाला।
लाजो: लेकिन लालाजी ने यह भी तो कहा है कि बगैर कुर्बानी के आजादी नहीं मिलती। नरम-नरम बातों से काम नहीं बनने का। गरमा-गरम लड़ाई लड़नी पड़ेगी।
हवेली: आप कहाँ पढ़ लेती हैं ये सब ?
लाजो: मामाजी के पास जो भी रिसाला आता है, उसमें।
हवेली: जितने ध्यान से रिसाले पढ़ती हैं, उतने ध्यान से किताबें पढ़ेंगी तो फर्स्ट डिवीजन में पास होंगी।
लाजो: मेरा ध्यान इन्कलाब में ज्यादा लगता है। अच्छा मास्टरजी, आप नरम दल में हो कि गरम दल में ?
हवेली: मैं ?
हवेलीराम के चेहरे पर हँसी उभरती है। वह हँसता है। लाजो भी हँसती है और हँसते हुए पूछती है – आपने कड़वी दवाई पी ली ?
हवेली: क्या मतलब ?
लाजो: वीराँवाली कहती है कि आप दिन में एक बारी ही हँसते हैं, वो भी सेहत के खातिर।
अगली शाम इतिहास की कापी देखते हुए हवेलीराम लाजो को बताता है – आपने सिकंदर के बारे में एक बहुत जरूरी नुक्ता छोड़ दिया, वो ये कि जहाँ-जहाँ सिकंदर गया, वहाँ-वहाँ उसने यूनानी तहजीब की गहरी छाप छोड़ी।
लाजो: सिकंदर ने तो महान बनना था। आप भी तो महान बनोगे मास्टरजी ! हवेलीराम महान। वीराँवाली कहती है कि प्रोफेसर गैरेट ने खुश होकर आपको अपनी घड़ी दी। लाला लाजपतराय ने फ्रांसीसी क्रांति पर आपका लेख पढ़ के आपकी पीठ ठोंकी।
हवेली: दुनिया में मेरे से भी ज्यादा बड़े आदमी हैं, उनके बारे में जानकारी हासिल कीजिए। मेरे बारे में नहीं।
लाजो: दुनिया वास्ते होंगे, मेरे वास्ते नहीं।
तभी पाँच का घंटा बजता है। हवेलीराम पढ़ाने का काम खत्म करके जाने ही वाला है कि वीराँवाली दौड़ती-हाँफती आती है – आप घर आए क्यों नहीं वीरजी ? झाईजी और बाऊजी दोनों बहुत गुस्से हो रहे हैं।
हवेली: बात क्या है ?
वीराँवाली: अरे, आप कैसे भुलक्कड़ हैं ? आपको सवेरे ही बताया था झाईजी ने कि भरजाईजी के चाचाजी आनेवाले हैं आपको रोकने के लिए।
हवेली: कितनी बार कहना पड़ेगा कि मुझे शादी नहीं करनी है।
वीराँवाली: शादी तो आपकी टल नहीं सकती। झाईजी इस बार आपको खूँटे से बँधवा के रहेंगी।
हवेलीराम तथा वीराँवाली की यह बातचीत सुनकर लाजो का चेहरा उतर जाता है।
हवेलीराम के बड़े भाई रलियाराम कि पत्नी है शानो। पाशो छह-सात साल की बच्ची पाशो से पहले शानो के दो बेटे हो के मर चुके हैं। लड़का न होने के गम में दोनों दुखी रहते हैं शानो अंदर-ही-अंदर इस बात से परेशान रहती है कि कल को हवेली की शादी होगी, उसका बेटा होगा और खुद वह कहीं बेटे का मुँह देखने को तरसकर रह न जाए। एक दिन वह अपने कमरे में बैठी श्रृंगार कर रही होती है कि रलियाराम आता है और शानो को खुशखबरी सुनाता है – आज एक ठेका और मिल गया। लालाजी अपनी मेहनत से बड़े व्यापारी बने, मैंने अपनी मेहनत से बड़ा ठेकेदार बन जाना है।
शानो: किसके लिए कर रहे हो इतनी मेहनत ? अपने छोटे भाई हवेलीराम के पुत्तर के लिए ?
रलिया: हवेलीराम ने हाल तक तो शादी ही नहीं ना की। उसका पुत्तर कब हो गया ?
शानो: हो जाएगा किस्मत से ।
रलिया: बगैर शादी किए ? चाचा तेरा यहाँ आया है रिश्ता करने वास्ते, लेकिन हवेली ने तो वही बात दुहरायी कि मैंने ब्रह्मचारी रहना है।
शानो: मेरा ठेंगा ब्रह्मचारी रहना है। चाचे को तो झाईजी के इशारे पर लौटाया देवरजी ने। मैं पूछतीं हूँ कि क्या खराबी नजर आती है मेरी चचेरी बहन में ?
रलिया: एक ही घर से दो लड़कियाँ लाना ठीक नहीं लगता होगा झाईजी को। वो विलायतीरामजी की बेटी पसंद कर बैठे हैं।
शानो: वही है असली बात। और तुम ये समझ लो कि अगर विलायतीरामजी की बेटी आ गई देवरानी बन के तो रोज ही मुझ पर बड़े घर की बेटी होने का रुआब लेना है। जब उसके बेटा हो जाना है, तब उसने मुझे निपूती कहना है। फिर उस बेटे ने हम सबको निकाल देना है यहाँ से। मेरी चचेरी बहन से रिश्ता करा दो, उसी में हम सबका फायदा है।
रलिया: हवेली करने ही कब लगा है शादी ?
शानो: झाईजी करवाएँगे। देवरजी उनके लाड़ले हैं। उन्हें पता है कि देवरजी को धंधा-व्यापार कुछ आता नहीं, विलायतीरामजी के यहाँ रिश्ता कर देंगे तो वो अपने जँवाई की ओर से तुम्हारे कारोबार में दखल देंगे और धीरे-धीरे सबकुछ हथिया लेंगे अपनी बेटी के बेटे के लिए।
हवेलीराम अपने कमरे में कहीं जाने को तैयार खड़ा है। वीराँवाली वहाँ मौजूद है। हवेलीराम सामान उठाता है – अब मुझे जाना है। मेरे पास वक्त नहीं है फालतू बातों के लिए।
वीराँवाली उठकर पास आती है – सवाल का जवाब तो दिया ही नहीं वीरजी ? बताओ ना किससे करनी है शादी ?
हवेली: किसी से नहीं।
वीराँवाली: झाईजी ये जवाब सुनने को तैयार नहीं।
हवेली: तो मैं क्या करूँ ?
वीराँवाली: आप ये करो वीरजी कि मेरी दो सहेलियाँ हैं, उनमें से किसी एक से कर लो शादी। मालदार से करनी हो तो कुंती से कर लो और दिमागदार से करनी है तो लाजवंती से।
पाशो वीराँवाली-हवेलीराम की बातें सुन लेती है और दौड़ी-दौड़ी अपनी माँ शानो को बताने जाती है – भरजाईजी, बताऊँ एक बात ?
शानो को यह कतई पसंद नहीं कि पाशो उसे ‘भरजाईजी’ कहकर पुकारे। वह पाशो को जैसे डाँटती है – भरजाईजी, भरजाईजी मत कहा कर मेरे को, सुना ! औलाद के नाम पर एक लड़की जिंदा रखी रब ने, और उसके मुँह में भी माँ का लफ्ज सुनने को तरस गई। बता क्या बताना है ?
पाशो: बुआजी चाचे से कह रही थीं कि मेरी दो सहेलियों में से किसी एक से कर लो शादी। जो मालदार चाहिए तो कुंती से कर लो, जो दिमागदार चाहिए तो लाजवंती से।
रलिया: कुंती तो विलायतीरामजी की बेटी है, ये लाजवंती कौन ?
शानो: वो जो देवरजी का आर्यसमाजी गुरु है भाई आत्मानंद, उसकी भांजी।
रलिया: वीराँवाली ने हवेलीराम के लिए उसका रिश्ता कैसे सुझा दिया ?
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