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चिंता छोड़ो सदा खुश रहो

कलीम आनंद

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5320
आईएसबीएन :81-8133-167-2

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चिन्तामुक्त होकर मुस्कराते रहने का गुरुमंत्र...

Chita Chodo Sada Khush Raho

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विश्व प्रसिद्ध विचारक ‘स्वेट मार्डेन’ द्वारा सुझाए गए वह व्यावहारिक नुस्खे जिन्हें अपनाकर आप तत्क्षण चिन्ताओं से मुक्त होकर सदा खुश रहने का गुर प्राप्त कर लेंगे।
इस विश्व प्रसिद्ध कृति में छिपा है आपका सुखद भविष्य। थोड़ी-सी मानसिक रद्दोबदल से सदा खुश और मुस्कराते रहने का गुरुमंत्र है यह पुस्तक। जिन खोजा, तिन पाइयां।

1
चिंता : एक परिचय

मनुष्य और चिंता का चोली-दामन का साथ है, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और इन्हें एक-दूसरे से अलग करना प्रायः असंभव है। हम यह भी कह सकते हैं कि चिंता और मनुष्य का जन्म एक साथ ही हुआ है। प्रथम मनुष्य के धरती पर पदार्पण करते ही उसे पहली चिंता यही सताई होगी कि क्या खाया जाए, कैसे खाया जाए। फिर उसे वस्त्र एवं आवास की चिंता हुई होगी। प्रथम मनुष्य की तरह ही यह चिंता आज विश्व के हर मानव के साथ चिपकी हुई है। किसी को रोटी की चिंता है तो किसी को रोजी की, कोई व्यापार के प्रति चिंतित है तो कोई परिवार के प्रति। सभी चिंता के साये में अपना जीवनयापन कर रहे हैं।

चिंता प्रत्येक मनुष्य को हर समय घेरे रहती है। समय और परिस्थितियों के अनुसार यह घट-बढ़ जाती है, मगर पूर्णतः समाप्त नहीं होती। कभी-कभी तो यह चिंता मनुष्य की चिता में परिवर्तित हो जाती है। अर्थात् चिंता मनुष्य के जन्म से लेकर उसकी मृत्यु तक उसके साथ रहती है और उसे मनमाने ढंग से अपनी उंगलियों पर नचाती रहती है। वर्तमान युग में तो चिंताओं की कोई सीमा ही नहीं रह गई है। हर व्यक्ति परेशान और चिंतित है। संसार में शायद ही कोई ऐसा मनुष्य होगा, जिसे कोई चिंता न हो।

चिंता के कारण मनुष्य को काफी हानि उठानी पड़ती है। इससे अनेक मानसिक व शारीरिक रोगों की उत्पत्ति होती है तथा आर्थिक क्षति अवश्यंभावी हो जाती है। सामाजिक स्तर पर उसे कोई लाभ नहीं होता, उसमें अनेक प्रकार की निम्न भावनाएं जाग्रत हो जाती हैं। इसलिए मनोविज्ञान की दृष्टि में दुनिया का हर व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ है। इस कारण उसका व्यवहार असंतुलित हो जाता है। ऐसे में मनुष्य का मन अस्थिर व अशांत होता है। वह अपने को शक्तिहीन और असहाय महसूस करने लगता है तथा किसी भी कार्य को करने में अक्षम होता है।

चिंता का कारण आज का भौतिकवादी युग माना गया है। आज मनुष्य की आवश्यकताएं, आकांक्षाएं और इच्छाएं इतनी ज्यादा बढ़ गई हैं कि उनकी पूर्ति हो पाना असंभव हो गया है। इसी कारण मनुष्य उद्विग्न और परेशान रहता है कि कैसे उन समस्याओं का समाधान हो ? यहां तक कि वह राह चलते, भोजन करते और विश्राम के समय भी अपनी चिंताओं में उलझा रहता है।

कहा जाता है कि पहले समस्या मनुष्य की चिंता का कारण बनती है, फिर चिंता स्वयं एक समस्या बन जाती है। चिंता मनुष्य की सबसे प्रबल शत्रु, एक भंयकर रोग और सर्वाधिक दुर्बल भावना है, जो मनुष्य के लिए काफी खतरनाक है। चिंता से मनुष्य का स्वभाव एवं व्यवहार भी प्रभावित होता है। आखिर चिंता है क्या, चिंता मनुष्य को क्यों अपना दास बना लेती है, चिंता की उत्पत्ति कैसे होती है आदि प्रश्न विचारणीय हैं।

ईश्वर ने जब सृष्टि की रचना की, तभी काम, क्रोध, मद व लोभ का जन्म हुआ। धार्मिक ग्रंथों में इन्हें मनुष्य का शत्रु कहा गया और इनसे बचने की सलाह दी गई, क्योंकि ये भगवान्-प्राप्ति और चरित्र-निर्माण में बाधक हैं। चिंता इसका एक अंश मात्र है। इसकी रचना लोभ तत्व से मानी जाती है। लोभ का अर्थ लालच है। जब हमारे मन में किसी वस्तु विशेष को प्राप्त करने की कामना जाग्रत होती है तो हमें उसका लोभ आ जाता है। और जब हम उस वस्तु विशेष को नहीं प्राप्त कर पाते या उसके पाने की राह में बाधाएं आ जाती हैं तो हम चिंताग्रस्त हो जाते हैं।

शैतान की सेविका है चिंता

वास्तव में चिंता का जन्म लोभ से ही होता है। अगर हमें किसी चीज को पाने का लोभ न हो तो हमें कोई चिंता नहीं सताएगी। लोभ का आशय इच्छा से है और आज हर व्यक्ति किसी-न-किसी वस्तु की इच्छा, आकांक्षा या कामना अपने मन में पाले हुए है। इसी कारण संसार का हर व्यक्ति चिंतित दिखाई पड़ता है। सुखी जीवन तो हर कोई जीना चाहता है। सभी सुख की खोज करते हैं। सुख की खोज ही तो इच्छा है, कामना है। इसके लिए प्रयत्न करना चिंता का कारण बनता है। यह चिंता जब मनुष्य के दिल में घर कर जाती है तो उसका जीवन अशांत, अस्थिर और खंडित हो जाता है।
आर्क विशप माइकेल ने सन् 1954 में फ्रांस के एक चर्च में एक बोध कथा सुनाई—एक बार ईश्वर के पास एक शैतान रोता हुआ पहुंचा। ईश्वर ने उससे रोने का कारण पूछा। शैतान बोला, ‘‘प्रभु ! आजकल मेरा कार्य ठीक से नहीं हो पा रहा है। पृथ्वी के लोगों पर मेरे अनुचरों का कोई प्रभाव ही नहीं हो रहा है।’’

ईश्वर ने शैतान से पूछा, ‘‘क्या काम, क्रोध और असत्य का कार्य मद्दा पड़ गया है ?’’
‘‘हां प्रभु !’’ शैतान बोला, ‘‘आज के मनुष्य पर इन सबका कोई भी प्रभाव नहीं पड़ रहा है। मुझे कोई ऐसा सेवक दीजिए, जो मनुष्य को दुःखी और परेशान कर सके। उसको मेरे अस्तित्व का भान हो जाए।’’

शैतान की बात सुनकर ईश्वर कुछ देर तक सोच-विचार में लगे रहे। फिर बोले, ‘‘देखो, मनुष्य को सबक सिखाने के लिए मैं तुम्हें एक लड़की देता हूं। इसको साथ ले जाओ, यह तुम्हारी इच्छाओं की पूर्ति करेगी।’’
‘‘उसका नाम क्या है प्रभु ?’’ शैतान जिज्ञासु होकर बोला।
प्रभु ने जवाब दिया, ‘‘इस लड़की का नाम है चिंता। यह मनुष्य को कठपुलती की तरह नचाएगी।’’

चिंता को लेकर शैतान पृथ्वी पर चला आया। फिर वास्तव में इस चिंता ने मानव के साथ खेल करना शुरू कर दिया।
चूंकि चिंता शैतान की सेविका है, इसलिए वह शौतान के इशारे पर कार्य करती है। जो भी मनुष्य एक बार भी उसके जाल में फंस जाता है, बरबाद हो जाता है। काम, क्रोध और असत्य पर मानव द्वारा अधिपत्य प्राप्त करते ही चिंता उसे अपने लपेटे में ले लेती है, जिसे अब लोभ का रूप माना गया है। इससे बच पाना मनुष्य के लिए प्रायः असंभव होता है। चिंता में मनुष्य मन-ही-मन घुटता रहता है, उसको होंठों पर लाना उसका स्वभाव नहीं होता।

चिंता ही चिता है

चिंता उत्पन्न होते ही मनुष्य असामान्य हो जाता है। ऐसे में वह परेशान और उद्विग्न होता है। समस्या का निराकरण न होने पर उसकी चिंता बढ़ती चली जाती है। हंसना-बोलना उसे अच्छा नहीं लगता और दिन का चैन व रात की नींद हराम हो जाती है। उसका स्वास्थ्य गिरने लगता है। उसके पास जिस प्रकार की भी पूंजी होती है, चिंता उसे लूट लेती है। इसीलिए कहा गया है कि चिंता चिता के ज्यादा हानिकारक है। चिता पर तो आदमी मरने के बाद जलता है, मगर चिंता उसे तिल-तिलकर जलाती है और जीवित व्यक्ति को मुर्दा बना देती है।

धार्मिक नेताओं, समाजशास्त्रियों एवं मनोवैज्ञानिकों द्वारा चिंता से बचने की चेतावनी दी जाती रही है, लेकिन लाख बुरी और हानिकारक चिंता को भला कौन छोड़ पाता है, सभी चिंता का शिकार बनते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि चिंता से बचने का कोई उपाय नहीं है। आप भी चिंता से बच सकते हैं और अपना सुखमय जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

चिंता की उत्पत्ति

चिंता की उत्पत्ति लोभ या कामना से होती है। इसको भूलने या दबाने से वह समाप्त नहीं हो सकती। चिंता को भोगने का एकमात्र हल यही है कि उस लोभ या कामना की पूर्ति हो जाए। ऐसे में हमें उस कामना की पूर्ति के लिए उपाय सोचना चाहिए, तभी हम चिंतामुक्त हो सकते हैं। चिंता अनायास हानि से भी उत्पन्न होती है, जो उसकी क्षतिपूर्ति के बाद ही दूर होती है। कहने का आशय सिर्फ इतना है कि चिंता के कारणों का नाश करके ही चिंता से छुटकारा पाया जा सकता है।
चिंतातुर व्यक्ति से अगर यह कहा जाए कि ‘छोड़ो यार, चिंता क्या करना ? सब ठीक हो जाएगा’ तो क्या इससे वह व्यक्ति चिंतामुक्त हो जाएगा ? नहीं, कदापि नहीं। हां, यह अवश्य हो सकता है कि वह कुछ देर के लिए चिंता करना भूल जाए। मगर इससे समस्या ज्यो-की-त्यों बनी रहती है। क्योंकि कुछ देर बाद वह फिर अपनी समस्या के प्रति चिंताग्रस्त हो जाता है। अतः चिंता सिर्फ कारणों का नाश करके ही मिटाई जा सकती है, तभी मनुष्य सुख चैन शांति की सांस ले सकता है।
चिंता मनुष्य की अति प्रबल शत्रु है, यह अनेक विद्वान बता चुके हैं-एक बार किसी ने सुकरात से पूछा, ‘‘आप क्रोध को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु बताते हैं ? क्या इससे बड़ा भी कोई मानव शत्रु है ?’’ सुकरात ने जवाब दिया-‘‘हां क्रोध से भी बड़ा खतरनाक और पीड़ा देने वाला मनुष्य का शत्रु है, जिसका नाम है चिंता। यह मनुष्य को अंदर-ही-अंदर खोखला करके उसका नाश कर देती है।’’

वास्तव में, सैकड़ों वर्ष पहले कहे सुकरात के इस कथन में गहरी सच्चाई है। चिंता में मनुष्य एक सुलगती हुई लकड़ी बन जाता है और अपना अंतस जलाकर राख हो जाता है। चिंता में मनुष्य स्वयं से अंतर्द्वन्द्व और तर्क-वितर्क करता है। जब इससे उसकी समस्या का समाधान नहीं होता तो वह परेशान और उद्विग्न हो जाता है। फिर समय बीतने के साथ ही उसकी चिंता बढ़ती जाती है और वह समाधान के रास्तों से विमुख होता चला जाता है।

संक्षेप में, चिंता से मनुष्य में अकर्मण्यता आती है, स्वास्थ्य बिगड़ जाता है और सुख का लोप हो जाता है। इस कारण चिंता के अंतिम तीन परिणाम होते हैं—आत्महत्या, असफलता और कुंठित जीवन। अतः चिंता से दूर रहना हम सभी के लिए अत्यावश्यक है। चिंता सकारात्मक विचारों, भावनाओं एवं सुखद क्षणों से दूर भागती है। इसलिए मन में आशा, उत्साह आत्मविश्वास प्रसन्नता आनंद और प्रफुल्लता का संचरण कीजिए। यकीन मानिए, चिंता कभी आपके सम्मुख नहीं आएगी।

2
चिंता एक, रूप अनेक

चिंता एक मनःस्थिति अथवा मनोदशा है, जो परिस्थितियों के अनुकूल होने पर जन्म लेती है। इसके अनेक रूप हैं। लेकिन जिन रूपों में भी यह जन्म लेती है, उसकी पीड़ा, कुंठा, वृत्ति, अशांति का रूप एक ही जैसा होता है। चिंताएं चार प्रकार की होती हैं—पारिवारिक चिंताएं, दैविक चिंताएं, दैहिक चिंताएं और भविष्य की चिंताएं।
पारिवारिक चिंताएं मनुष्य के परिवार के कारण उपजती हैं। परिवार में माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी-बच्चे, दादा-दादी होते हैं। चूंकि प्रायः परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होती है, इसलिए वहां अधिक समस्याएं पनपती हैं। यदि इनका समाधान नहीं हो पाता तो वे चिंता का रूप धारण कर लेती हैं। छोटी-छोटी पारिवारिक चिंताएं तो मनुष्य हल कर लेता है, लेकिन कुछ समस्याएं ऐसी होती हैं, जिनका निराकरण जरा मुश्किल होता है। फिर प्रयत्न और साहस हर काम को आसान बना देता है। विभिन्न प्रकार की भैतिक चिंताएं भी पारिवारिक चिंताओं की श्रेणी में आती हैं।

दो भाई बड़े प्रेमपूर्वक रहते थे। दोनों की शादियां हो चुकी थीं। बड़ा भाई किसी के खेत पर काम करता था, जबकि छोटा भाई कपड़ों की दुकान पर नौकरी करता था। घर का खर्च दोनों की आमदनी से चलता था। एक बार छोटा भाई कपड़ों की दुकान पर बैठा अपना काम कर रहा था, तभी किसी बात को लेकर छोटे भाई और मालिक में तू-तू, मैं-मैं हो गई। यह तू-तू, मैं-मैं इतनी बढ़ी कि गाली-गलौज और मारपीट की नौबत तक आ गई।

किसी तरह पड़ोसी दुकानदारों ने छोटे भाई और मालिक को शांत किया। मगर उसके बाद मालिक ने छोटे भाई को नौकरी से हटा दिया। छोटा भाई अन्य दुकानों पर नौकरी की तलाश करने लगा। मगर चूंकि वह एक दुकान के मालिक से झगड़ा कर चुका था, इसलिए उसे अन्य दुकानदारों ने नौकरी नहीं दी। छोटा भाई निराश होकर घर बैठ गया। इस तरह दो माह बीत गए। परिवार के खर्च में अड़चनें आने लगीं।

उधर बड़े भाई की पत्नी ने अपने पति को यह कहकर उकसाना शुरू कर दिया कि छोटा भाई नाकारा और कामचोर है, इसलिए कोई उसे नौकरी पर नहीं रख रहा है। अच्छा होगा कि हम उससे अलग हो जाएं और अपना चूल्हा अलग जलाएं। आखिर हम कब तक उसके कारण अपनी आवश्यकताओं की अवहेलना करेंगे।
पहले तो बड़ा भाई इसके लिए तैयार नहीं हुआ, लेकिन जब देवरानी और जेठानी में छोटी-छोटी बात पर लड़ाई-झगड़ा होने लगा तो उसने छोटे भाई से कह दिया कि कल से वह अपना चूल्हा अलग जलाए।

छोटा भाई तो अपनी नौकरी को लेकर पहले ही चिंतित था। अब बड़े भाई द्वारा चूल्हा अलग कर दिए जाने के कारण उसके समक्ष एक और चिंता सिर उठाकर खड़ी हो गई। इस कारण उसका स्वास्थ्य दिनोंदिन गिरने लगा। उसकी पत्नी ने उसे कई बार उत्साहित करने का प्रयत्न किया, मगर वह नाकाम रही।

भगवान पर भरोसा रखो

एक दिन छोटे भाई का एक मित्र उसके घर आया और उसकी हालत देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ। सारा मामला जानने के बाद वह बोला, ‘‘भाई, कभी-न-कभी तो तुम्हें अपने बड़े भाई से अलग होना ही था, चलो आज ही अलग हो गए। इसमें चिंता की क्या बात है ? रही भरण-पोषण हेतु आजीविका की बात तो वह भी बहुत आसान है। तुम छोटी-सी पूंजी से एक टोकरी में पान-बीड़ी-सिगरेट का सामान खरीद लो और कसबे में जाकर बेचो। भगवान पर भरोसा रखो, अगर उसने चाहा तो तुम्हारे सभी कष्ट जल्दी ही दूर हो जाएंगे।’’
मित्र की बात छोटे भाई की समझ में आ गई। नौकरी की तलाश में हाथ-पर-हाथ रखकर बैठाना उसे अच्छा नहीं लगता था। फिर भरण-पोषण की भी समस्या थी। उसने किसी तरह व्यवस्था करके एक टोकरी व पान-बीड़ी-सिगरेट आदि खरीद लिए और उन्हें कसबे में जाकर बेचना शुरू कर दिया।

आज छोटे भाई की उसी कसबे में पान-बीड़ी-सिगरेट की अपनी दुकान है। यही नहीं, अब वह चाय-बिस्कुट आदि भी अपनी दुकान पर रखता है। इस प्रकार वह अपने बड़ा भाई की अपेक्षा कहीं ज्यादा मजे में है। अगर उसे अपने मित्र की बात समझ में न आई होती तो यकीनन वह अपने को रोगग्रस्त बना लेता या उसे टोकरी में पान-बीड़ी सिगरेट रखकर बेचने में शर्म आती तो वह कभी अपने को चिंतामुक्त न कर पाता और अपना-अपने परिवार का नाश कर देता।
पारिवारिक समस्याएं अनेक होती हैं, जिनके कारण मनुष्य चिंतित और परेशान हो जाता है। ऐसी स्थिति में उन समस्याओं का निराकरण करके ही चिंता को दूर भगाया जा सकता है, न कि उन समस्याओं के प्रति कुंठित, अशांत व भयभीत होकर।

समस्याओं का निराकरण जरूरी

पारिवारिक समस्याएं प्रायः धन, पत्नी, बच्चों और परिजनों के कारण उत्पन्न होती हैं। लेकिन ऐसा नहीं कि उन समस्याओं का निराकरण न किया जा सके। समस्या का समाधान ही चिंता सो धूल-धूसरित करता है। एक उदाहरण देखिए-रामपाल एक रिटायर अध्यापक थे। उनके परिवार में सिर्फ दो जवान बेटियां थीं। पत्नी प्रायः बीमार रहती थी। एक दिन सौभाग्य से बड़ी बेटी का अच्छा रिश्ता आ गया। उन्होंने चट मँगनी-पट ब्याह कर उससे फुर्सत पा ली। लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। दो माह बाद ही एक सड़क दुर्घटना में दामाद की मृत्यु हो गई। ससुराल वालों ने इस घटना के कारण बहू को अभागी और कुलच्छिनी समझा तथा अपने घर से बाहर कर दिया। बेटी रोती-कलपती पिता के घर लौट आई और स्वयं को अभागी समझने लगी।

इस प्रकार तीन-चार माह बीत गए। बेटी के कारण मास्टर रामपाल पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा था। अतः वह मानसिक रूप से अस्वस्थ रहने लगे कि अब क्या होगा। घर का बोझ तो फिर बढ़ गया। लेकिन उन्हीं दिनों मास्टरजी ने एक पुस्तक में एक प्रेरक कथा पढ़ी। उसे पढ़कर उनकी सारी चिंता और दुःख दूर हो गए। वे अपनी विधवा बेटी को घर पर पढ़ाने लगे। फिर उसे इंटर व बी.ए. की परीक्षा पास कराई। शीघ्र ही बड़ी बेटी को एक ऑफिस में नौकरी मिल गई।
इस प्रकार मास्टर रामपाल की आर्थिक स्थिति सुधरने लगी। बड़ी बेटी की शादी में उन्होंने सारी पूंजी खर्च कर दी थी। छोटी बेटी का जब रिश्ता तय हुआ तो उन्हें धन की जरूरत पड़ी। बड़ी बेटी ने अपनी तनख्वाह से कुछ पैसे बचाकर रखे थे। उसने वे पैसे पिता के हाथ पर रख दिए तथा ऑफिस से कुछ और धनराशि लाकर देने का वायदा किया।

बड़ी बेटी कंपनी के चेयरमैन से मिली और अपनी समस्या बताई। चेयरमैन ने तत्काल आवश्यक धनराशि उपलब्ध करा दी। इस प्रकार छोटी-बेटी की शादी बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हो गई। इस घटना के कुछ दिनों बाद बड़ी बेटी ने अपनी शादी अपने ऑफिस के एक युवक से कर ली। इस प्रकार रामपाल अपनी सारी चिंताओं से मुक्त हो गए।

अगर मास्टर रामपाल पुस्तक की उस प्रेरक कथा से न प्रभावित हुए होते तो उनकी चिंता उन्हें अब तक मौत के मुंह में धकेल चुकी होती। बेटी को आगे शिक्षा दिलाने और उसे अपने पैरों पर खड़ा कराने की योजना ने ही उनके सभी कष्ट दूर कर दिए। यही नहीं, विधवा बेटी द्वारा अपने ऑफिस के युवक के शादी कर लेने की घटना ने तो उनके मुर्झाए चेहरे पर बहार ला दी। क्या उन्होंने कभी सोचा था कि उनकी बड़ी बेटी दोबारा गृहस्थ जीवन में प्रवेश करेगी। सच है, मनुष्य की इच्छा, लगन और आत्मविश्वास उसे मात्र चिंताओं से ही छुटकारा नहीं दिलाते, अपितु जीवन को सुखमय भी बना देते हैं।
इसी प्रकार परिवार में समय-समय पर विभिन्न समस्याएं सिर उठाती हैं। कभी छोटी समस्याएं तो कभी बड़ी। अगर आपने इन समस्याओं का सूझबूझ के साथ निपटारा कर लिया तो आपकी चिंताएं दूर हो जाएंगी। पारिवारिक समस्याएं पति-पत्नी के बीच मतभेद, पड़ोसियों से जमीन-जायदाद का मामला, लड़ाई-झगड़ा सुविधाओं का अभाव, आवास, बीमारी आदि के कारण उत्पन्न होती हैं। कभी-कभी ये समस्याएं अति सूक्ष्म रूप में होती हैं, लेकिन समय के साथ इनका आकार-प्रकार बढ़ता जाता है। फिर एक चिंता अनेक चिंताओं को जन्म देकर मनुष्य का सुख-चैन समाप्त कर देती है। अतः पारिवारिक समस्याओं के प्रति अत्यधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता होती है।

अगर आप परिवार की किसी समस्या से ग्रस्त होकर चिंतित हैं तो आपका मन न तो अपनी नौकरी में लगेगा और न ही व्यवसाय में। ऐसे में किसी कार्य में त्रुटि होने की संभावना हो सकती है। फिर आप उस त्रुटि और उससे होने वाली हानि के प्रति चिंताग्रस्त हो जाएंगे। इसलिए हमें चाहिए कि हम पारिवारिक समस्या का निदान त्वरित गति से करके चिंता से मुक्त हो जाएं, ताकि इसका असर अन्य कार्यों पर न पड़े।


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