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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान


और ये दासियां भी न जाने कैसा जीवन व्यतीत करती थीं। उनकी क्या स्थिति थी यहां? विभिन्न रानियों-स्वामियों तथा इन प्रेम अथवा विलासी युगलों को घेरकर सोई हुई ये अर्धनग्न नारियां, मनुष्य कम इन विलासियों के विलास में उद्दीपन-तत्व अधिक दिखाई पड़ती थीं। रात- भर वे इन कक्षों में सोती हैं तो इनका अपना पारिवारिक जीवन क्या होगा, उनके माता-पिता, भाई-बहन अथवा पति एवं सन्तानें...क्या इनका कोई नहीं है? या उन सबके होते हुए भी ये लोग इस प्रकार के कर्त्तव्यों के लिए बाध्य हैं? आर्थिक दबाव के कारण अथवा सत्ता की शक्ति के सम्मुख असमर्थ होने के कारण? समस्त कक्षों में अनेक दासियां सोईं थीं-किन्तु मनुष्य के समान सोने का समुचित प्रबन्ध कर, आस्तरण पर नहीं-पशुवत् नींद आ जाने पर बाध्य होकर भूमि पर ही।

हनुमान के मस्तिष्क में, राक्षस सेनाओं के द्वारा आक्रमण पर अपहृत की गई कन्याओं की समस्त कहानियां साकार होने लगीं। ये वे ही स्त्रियां होंगी जो लंका में या तो सम्राट को उपकार-स्वरूप भेंट की गई होंगी अथवा सम्राट ने उन्हें क्रय किया होगा अथवा स्वयं सम्राट ने ही उनका अपहरण किया होगा। और तब उनके वय, रूप-वैभव तथा यौवन-सम्पदा के अनुसार

विभिन्न कार्यों में उन्हें नियुक्त किया होगा...या फिर ये निर्धन जातियों तथा राज्यों की वे कन्याएं होंगी, जो अपनी आजीविका की खोज में इस वैभवशाली लंका में आई होंगी, और यहां स्वयं को इस प्रकार बेचने को बाध्य हुई होंगी। हनुमान का मन वितृष्णा से भर गया: कैसे पशु हैं ये राक्षसराज। पशुओं से भी निकृष्टतर। ये सृष्टि का अभिशाप है या मानव-जाति के साथ विधाता का परिहास।...पशु से भी मनुष्य वही कार्य लेता है, जो उपयुक्त होता है। इन राक्षसों ने मनुष्य को पशु बना दिया है। मानव शरीर क्या केवल दासत्व और भोग के लिए है? यह तो बहुमूल्य मणियों से पथ में पड़े साधारण रोड़े का कार्य लेने की पद्धति है।...ये पशु न अपनी आत्मा का विकास करते हैं और न अन्य मानवों के भीतर छिपी असंख्य शक्तियों और संभावनाओं का विकास होने देते हैं...मनुष्य मात्र को एक शरीर मात्र इन्द्रियां मान बैठे हैं ये। इन अनिवार्य पाशविक गुणों के पार उसमें कहीं विवेक भी है, उसका एक सूक्ष्म भावनात्मक जीवन भी है-जिसमें त्याग, बलिदान, ममता, समता का भी स्थान है...ये बातें इन राक्षसों ने कभी नहीं सोचीं।

सहसा हनुमान का चिन्तन-प्रवाह रुक गया। वे जिस कक्ष के सम्मुख खड़े थे, वह कुछ विशिष्ट था। यह कक्ष अन्य कक्षों की अपेक्षा आकार में बहुत बड़ा तथा उनसे कहीं अधिक सुसज्जित था। उसकी छत और दीवारों पर बहुत कलात्मक किन्तु श्रृंगारिक एवं अत्यन्त उत्तेजक चित्र बने हुए थे।...यहां आकर कला भी पशुत्व की चेरी हो गई थी। पता नहीं प्रकृति ने ही, उन चित्रों के बनाने वाले कलाकारों को चित्रकार हाथ और पशु का मन दे दिया था; या इस राक्षस साम्राज्य ने उस कलाकर की बाध्यता का लाभ उठाकर बलात् उससे यह पशु-कर्म करवाया था; अथवा कलाकार का महत्त्वाकांक्षी और लोलुप मन धन-बल के हाथों बिककर पशुता को ही गौरवान्वित करने पर तुल गया था?...उस सारे कक्ष में ऐश्वर्य और वैभव बिखरा पड़ा था,  किन्तु उद्दात्तता कहीं नाम को भी नहीं थी।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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