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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान

वे वापस मुड़े और दूसरी दिशा में घूम कर, महामहालय के पिछले भाग की ओर लौटे। पिछले भाग में न तो उतना प्रकाश था, न उतनी रक्षा-व्यवस्था। किन्तु इधर न कोई प्रवेशद्वार था, न कोई गवाक्ष। कदाचित् इसीलिए यहां रक्षा-व्यवस्था की आवश्यकता नहीं समझी गई थी। दूर-दूर पर टिमटिमाते हुए कुछ दीपक उन्हें दिखाई पड़ रहे थे, किन्तु उनका प्रकाश, वहां कुछ देखने में सहायक नहीं था। हां ,चन्द्रमा का प्रकाश इतना तो दिखा ही जाता था, इस ओर परिखा अपेक्षाकृत अधिक चौड़ी थी और प्राचीर कुछ अधिक ऊंची। परिखा की गहराई का  अनुमान, उसमें उतरे बिना नहीं लगाया जा सकता था।...किन्तु हनुमान के सम्मुख संकट परिखा की गहराई का नहीं था। जो व्यक्ति समुद्र को तैरकर पार कर आया था, वह परिखा की गहराई से क्या डरेगा; किन्तु जल में उतरने से यदि शब्द हुआ तो और ऊपर प्राचीर पर यदि शब्द-भेदी बाण छोड़ने वाले धनुर्धारी बैठे हुए हों तो सचमुच संकट की बात होगी। परिखा में मानव-भक्षी जन्तु भी छोड़े गए हो सकते हैं...वैसे वहां की स्तब्धता देखकर तो वह स्थान निर्जन ही लगता है। न प्राचीर पर मानवों की हलचल थी, न जल में जंतुओं की।

हनुमान धीरे से परिखा में उतर गये। जल ठंडा और बदन को चुभने वाला था; किन्तु इतना ठण्डा भी नहीं था कि सहा ही न जा सके। वे परिखा पार कर प्राचीर के निकट जा पहुंचे; किन्तु प्राचीर में अथवा उसके साथ लगता हुआ ऐसा कोई स्थान नहीं था, जिस पर वे खड़े हो सकते, अथवा जिसे पकड़ कर प्राचीर के ऊपर तक पहुंचने का प्रयत्न करते।

वे प्राचीर के साथ-साथ तैरते चले गये और हाथों तथा दृष्टि की सहायता से परीक्षण करते गये कि कहीं कोई ऐसा स्थान हो, जहां से प्राचीर के ऊपर चढ़ने का प्रयत्न किया जा सके।...तैरते-तैरते वे काफी आगे निकल गए और उनकी दृष्टि दूर टिमटिमाते हुए प्रकाश और उसमें दिखाई पड़ने वाले सैनिकों पर पड़ी। उनके हाथ-पैर थम गए...इसका अर्थ यह हुआ कि वे महामहालय के तोरण की ओर चले आए हैं। वे तत्काल पलट कर, पुनः पीछे की ओर तैरने लगे।

हनुमान का मन उदास हो गया। यदि सब स्थानों से यह परिखा और प्राचीर ऐसी ही है तो वे कदापि प्रासाद के भीतर प्रवेश नहीं कर सकेंगे। सीता की खोज के लिए, यदि वे महामहालय के भीतर नहीं घुस सके तो सागर-संतरण का पराक्रम भी व्यर्थ हो जाएगा...क्या विडम्बना है कि जो व्यक्ति इतनी दूर से सागर और पर्वतों को पार कर आया हो, वह एक परिखा और प्राचीर के सम्मुख विवश होकर असफल सिद्ध हो रहा हो...सुग्रीव द्वारा दी गई अवधि के समाप्त हो चुकने के बहुत बाद वापस किष्किंधा पहुंचकर, क्या वे यह सूचना देंगे कि लंका में प्रविष्ट हो गये थे; किन्तु रावण के महामहालय प्रासाद में प्रवेश करने में असमर्थ रहे?...और हनुमान की इस असफलता का राम पर क्या प्रभाव पड़ेगा? कहां खोजेंगे वे सीता को? उन्होंने तो सुग्रीव को दिया गया वचन तत्काल पूरा कर दिया; किन्तु सुग्रीव अपना वचन कैसे पूरा करेंगे? राम के मन में सुग्रीव का क्या सम्मान रह जाएगा?...इस समय हनुमान पर मात्र अपनी सफलता-असफलता का ही बोझ नहीं है। सुग्रीव का सम्मान, राम का प्रतिशोध, संसार में राक्षसी अनाचार का नाश, सीता का उद्धार, वानरों को राक्षसों के शोषण से मुक्ति-सबका बोझ आज हनुमान के कंधों पर है। हनुमान इतनी सरलता से हार नहीं मान सकते।

सहसा हनुमान को लगा कि कदाचित् भूख, थकान तथा नींद से भी उनका उत्साह मंद पड़ रहा है...अन्यथा वे इतनी जल्दी हार मानने वाले हतोत्साहित नहीं होते, आज वे पराजय की संभावना से ही उत्साहशून्य हो रहे हैं। हनुमान में पुनः ऊर्जा का संचार हो गया। वे तैरते-तैरते पुनः वहीं लौट आये, जहां से उन्होंने अभियान आरम्भ किया था। वे आगे बढ़ते गये। उनकी इच्छा विपरीत दिशा में तब तक प्रयत्न करते जाने की थी, जब तक कि तोरण के प्रकाश में रक्षकों द्वारा देख लिए जाने की सीमा नहीं आ जाती।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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