बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - अभियान राम कथा - अभियाननरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान
पण्यों और हाटों को पीछे छोड़ते हुए, हनुमान आगे बढ़ते चले गये। उधर, जिधर उन्होंने बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं देखी थीं...किन्तु सहसा उनके पग रुक गए। ऐसे ही बढ़ते जाने का क्या अर्थ? किसी से पता तो कर ले कि रावण का महामहालय है किस ओर; अन्यथा यदि उसकी विपरीत दिशा में ही बढ़ते चले गए तो लौटने में ही उषाकाल हो जाएगा।
उन्हें इस प्रकार स्तंभित-से खड़े देख, सहसा एक सशस्त्र राजपुरुष आकर उनके सम्मुख रुक गया, ''ऐ वानर, यहां क्या कर रहा है?''
हनुमान कुछ चकित हुए। बिना कोई प्रश्न किये ही उस राजपुरुष ने उन्हें पहचान लिया था। इसका अर्थ हुआ कि ये लोग वानर जाति के व्यक्ति को अलग से पहचान लेते हैं। तो वानर यहां आते-जाते रहते होंगे।...पर उस राजपुरुष के स्वर में तनिक भी शिष्टता नहीं थी।
''मैं एक निर्धन परदेसी हूं भाई!''
''वह तो देख रहा हूं।'' राक्षस कठोर स्वर में बोला, ''इस समय यहां व्यर्थ डोलते मत फिरो। चोरी के आरोप में धरकर कोई दास बना लेगा,
तो सारा जीवन उसकी सेवा में हड्डियां घिसते रहोगे।'' उसने रुककर अंगुली से एक ओर इंगित किया, ''जाओ उधर, सागर-तट पर निर्धनों और दासों के मुहल्ले में कहीं पड़कर रात काट लो। इस समय यह स्थान लंका के धनाढ्य निशाचरों के विलास का है।''
हनुमान को लगा, वे तत्काल टल नहीं गए तो बात बढ़ जाएगी। वह राजपुरुष शस्त्र निकाल लेगा। वे चुपचाप आगे बढ़ गए। वे स्वयं किसी से पूछने की सोच रहे थे और यहां बिना पूछे ही स्थिति यह हो गई कि एक स्थान पर रुकने में भी खतरा लगता था। यदि हनुमान के मन में एक लक्ष्य न होता, यदि वे सीता के संधान की दृष्टि से यहां न आये होते, तो उन्हें इन राक्षसों से तनिक भी घबराहट न होती। इस राजपुरुष को भी उन्होंने उपयुक्त पाठ पढ़ाया होता...किन्तु उनके सामने अपना लक्ष्य है। वे न तो अपने लक्ष्य से तनिक भी हट सकते हैं और न ही किसी भी ऐसे काम में उलझना चाहते हैं, जिससे लक्ष्य प्राप्ति में व्यवधान उपस्थित होने की संभावना हो। जीवन में अपना लक्ष्य लेकर चलने वाला व्यक्ति इधर-उधर के स्फुट आकर्षणों तथा संघर्षों में नहीं उलझता। वह तो वन्य शूकर के समान सिर झुकाए चलता है और सीधा अपने लक्ष्य पर ही प्रहार करता है।...बात बड़ी सीधी है : या तो छोटे-मोटे झंझटों को सुलझाते चलो, या फिर सीधे अपने महान् लक्ष्य तक पहुंचो। दोनों बातें एक साथ तो संभव नहीं हैं। अनेक कण्ठों के सम्मिलित हास्य की ध्वनि से हनुमान चौंके।
वे एक दीवार के साथ-साथ चलते जा रहे थे। हास्य की ध्वनि उस दीवार की दूसरी ओर से आ रही थी। दीवार बहुत दूर तक चलती चली गई थी। हनुमान ने रुककर इधर-उधर देखा, कहीं कोई न था। पथ निर्जन था। हनुमान ने उचककर दीवार पर अपनी अंगुलियां जमाईं और भुजाओं के बल अपने शरीर को ऊपर उठाया। वे भीतर का दृश्य देखने में सफल हो गए : अन्दर एक बहुत विस्तृत उपवन था। रात के इस समय भी वहां उल्काओं के बल पर दिन का-सा प्रकाश जगमगा रहा था। सैकड़ों स्त्री-पुरुष, सुन्दर वस्त्राभूषण पहने, परस्पर हास-विलास में मग्न थे। उनके हाथों में या तो चषक थे या कुछ नये प्रकार के पात्र। प्रत्येक व्यक्ति कुछ-न-कुछ खा-पी रहा था। अनेक दास विभिन्न प्रकार के व्यंजन लिये, परोसने का कार्य कर रहे थे। हनुमान नीचे उतर आए। क्या यह रावण का प्रासाद है? सामने से किसी के आने के आभास से उनका ध्यान भंग हुआ। सिर उठाकर देखा-आगंतुक, अपनी वेश-भूषा से किसी का भृत्य अथवा दास दिखाई पड़ता था। उससे पूछने में हानि की कोई संभावना नहीं थी। वह न राजपुरुष था न सैनिक।
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