बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - अभियान राम कथा - अभियाननरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान
भोजन समाप्त करते ही, अंगद ने चलने की इच्छा प्रकट की।
वृद्धा पुनः हँसी, ''क्यों रे! भागने की बड़ी जल्दी है?''
''हमें, देवी वैदेही का पता लगाकर शीघ्र किष्किंधा लौटना है।'' अंगद वृद्धा के समान हँस नहीं सके, ''देवी! आप यदि हमें मार्ग...।''
''मुझे देवी क्यों कहता है,'' वृद्धा ने उग्र स्वर में कहा, ''माता क्यों नहीं कहता? तू युवराज है, इसलिए?
''नहीं माता।'' अंगद वृद्धा के रोष से तरल हो उठे, ''तुम सचमुच माता हो, वात्सल्यमयी! मुझे क्षमा करना।''
''अच्छा चल! तुझे मार्ग दिखाऊं। वृद्धा बोली, ''तू बहुत ही उतावला हो रहा है। किन्तु अंधकार घिर रहा है। कहीं मार्ग में भटक गए तो यह उतावली महंगी पड़ेगी।'' अंगद के साथ अन्य लोगों का भी ध्यान समय की ओर गया। सूर्यास्त हो चुका था और अंधकार में इन अनजाने तथा भ्रांति-तत्पर मार्गों पर यात्रा अनावश्यक थी।
थोड़े से विचार-विमर्श के पश्चात् उन्होंने रात को वहीं विश्राम करने का निश्चय किया।
उनका निश्चय सुनकर वृद्धा जोर से हँसी, ''क्यों रे हनुमान, विश्राम मेरे गांव में करेगा या कि हेमा के प्रासाद में? तेरा मन उस प्रासाद में रहने को बहुत ललचाता है न!''
हनुमान किंचित् संकुचित हुए, किन्तु अंततः अपनी गम्भीर वाणी में बोले, ''माता, यदि अपने कुटुम्ब के साथ तुम उस प्रासाद में रहना स्वीकार कर लो, तो मैं प्रासाद में विश्राम करूंगा; किन्तु तुम लोगों को यहां छोड़कर, मुझसे प्रासाद में सोया नहीं जाएगा।''
''तो फिर आज रात अपनी इस निर्धन माता के कुटुम्ब का ही आतिथ्य ग्रहण कर।'' वृद्धा प्रसन्न-वदन बोली।
प्रातः हल्के से अल्पाहार के पश्चात् यात्रा के लिए तत्पर हो वृद्धा ने मुड़कर अपने कुटुम्ब की ओर देखा और बिना किसी विशेष व्यक्ति को सम्बोधित किए कहा, ''मैं इन्हें मार्ग बताकर अभी आती हूं।''
वह आगे-आगे चली और अपने दल का नेतृत्व करते हुए अंगद उसके पीछे-पीछे चलते गए। वृद्धा ने उन्हें शिलाओं के अनेक घुमावदार मोड़ पार कराए, दो-एक छोटी-छोटी गुफाएं भी मार्ग में आईं और वह रुक गई, ''इन पहाड़ियों के बीच का मार्ग तुम्हें सीधे सागर-तट तक पहुंचा देगा। नयन मूंदे, सीधे चलते जाना, जहां मोड़ सहज लगें, वहां भी मत मुड़ना। यदि एक भी मोड़ ले लिया, तो पुनः इसी मायानगरी में भटकते फिरोगे।''
दल के सारे सदस्यों ने हाथ जोड़कर वृद्धा को प्रणाम किया और आगे बढ़ गए।
स्वयंप्रभा ने ठीक कहा था। मार्ग में उन्हें अनेक सहज लगने वाले मोड़ मिले, यदि उन्हें पहले से सावधान न किया गया होता, तो वे लोग कहीं-न-कहीं अवश्य मुड़ गए होते। कदाचित् मय दानव ने सायास ऐसे भ्रांति-तत्पर मोड़ बनाए थे। रात को स्वयंप्रभा के ग्राम में रुक जाना भी सार्थक ही था। यह मार्ग ऐसा नहीं था, जिस पर अंधकार में यात्रा की जा सके। भ्रामक मोड़ों के साथ-साथ अनेक आकस्मिक आरोह तथा अवरोह भी थे। वे लोग स्वयंप्रभा के निर्देशों के अनुसार धैर्यपूर्वक चलते रहे और वह मार्ग उन्हें सीधे सागर-तट पर ले गया। अनेक गुफाओं में से होती हुई उस पगडंडी को समाप्त कर, जब वे पहाड़ों से बाहर खुले आकाश के नीचे पहुंचे, तो उनके पांव सागर-तट की छोटी-बड़ी शिलाओं पर थे और सामने अथाह-अनन्त सागर लहरा रहा था। एक-के-बाद एक मदांध लहर आती थी और चट्टानों पर पछाड़ खाकर गिरती थी तथा असंख्य बूंदों में विभाजित होकर कहीं जल और कहीं झाग के रूप में बिछ जाती थी।
अंगद थोड़ी देर तक खड़े, चिंतित दृष्टि से उन लहरों को देखते रहे। लहरों में कोई समाधान न पाकर, उन्होंने दृष्टि घुमाई और दूर तक कुछ खोजने का प्रयत्न करते रहे। अन्य लोग भी आस-पास की भूमि और सागर का निरीक्षण कर रहे थे। थोड़ी ही देर में अंगद के चेहरे पर हताशा के भाव उभर आए। ''इस वृद्धा तापसी ने हमें कहीं का नहीं रखा।'' वे अत्यन्त उदास स्वर में बोले, ''कहां है लंका? यह तो अथाह सागर है। अब इस सागर में हम लंका को कहां खोजें?''
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