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कविता संग्रह >> चट्टान के फूल

चट्टान के फूल

रामनिवास जाजू

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5260
आईएसबीएन :00000

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कविता-संग्रह...

Chattan Ke Phul

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आजादी के बाद से क्रमश: विकसित होती हुई औद्योगिक संस्कृति ने हमारे सामाजिक रिश्तों और जीवन को झकझोर कर रख दिया है और ऐसे तनावों को जन्म दिया है जो हमारे शान्तिप्रिय और धीमी गति से चलने वाले समाज के लिए एकदम नये थे। रामनिवास जाजू की कविता इन्हीं तनावों की प्रामाणिक और विश्वसनीय अभिव्यक्ति है।

‘‘चट्टान के फूल’’ जाजूजी का चौथा कविता-संग्रह है, और यहाँ तक आते-आते उनकी कविता ने अपना एक निश्चित स्वरूप और व्यक्तित्व प्राप्त कर लिया है। आशा है, पाठकों को उनका यह संग्रह रुचिकर लगेगा।

आज अब असली बात

मुझे कविता करते हुए लगभग पैंतीस वर्ष होने को हैं। इधर कई बार एक बात मन में उठती रही है कि मैं कवि हूँ भी या नहीं। कविता मेरी है या नहीं। कविता में मैं हूँ या नहीं। क्या मैं कविता को अपने अस्तित्व का भाग मान सकता हूँ ? कविता मुझसे निकट होकर भी कितनी दूर है। मेरी पृष्ठभूमि और मेरा परिवेश तो कविता का था ही नहीं। जो पगडंडी मेरे लिए नहीं बनी थी, आखिर मैं उसपर चला कैसे ? वह चलना मात्र एक भुलावा था ? और यदि था, तो आज भी तो उसी भुलावे को एक अस्तित्व मानना, कितना बड़ा और कैसा अनुभव होगा ? यह एक भुलावेदार सच्चाई होगी या सचमुच का भुलावा ?

मुझे अपने मन और परिवेश का अन्तर कभी अजीब और कभी बनावटी लगता है। पर इस अजीब बनावटीपन का दौर इतना लम्बा हो चुका है कि असलियत की उम्र भी बहुधा इससे ज्यादा लम्बी नहीं होती। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि शायद इस अन्तर की बनावट में बनावटीपन कम रहा हो। किन्तु तब बनावट भी क्या बुरी चीज है। मेरे न चाहने पर भी मन और परिवेश तथा चिन्तन और सृजन में कई अलगाव और विरोधाभास उभरे हैं। ऐसे अलगाव और विरोधाभास में जन्मी कविता जिस रूप में बनावटी कहलाती है, वह केवल उस तर्क पर आधारित है कि फूल तो केवल बगीचों में ही हो सकते हैं। पर आजकल तो गलीचों पर भी फूलों के बगीचे देखे जाते हैं और चट्टानों पर भी फूलों की क्यारियां खिलती हैं। प्रयोजन यह है कि कविता केवल छन्द के बन्धन से ही मुफ्त नहीं, विषय-गरिमा और व्यक्ति-गौरव के सिद्धान्त को भी अब वह अस्वीकार चुकी है। आज किसी भी अकिंचन विषय और वस्तु पर श्रेष्ठ कविता हो सकती है, और विषय वस्तु की श्रेष्ठता किसी गिरती कविता को बचा नहीं सकती है। इसी प्रकार कविता किन्तु अपने धरातल पर आने को टिकाए रख सकती है। व्यक्ति-गौरव  की फैंसी-ड्रेस से उसे घुट जाने की आवश्यकता नहीं है।

कविता की कोई क्षेत्र-सीमा तो पहले भी नहीं थी। पर अब उसका कोई क्षितिज विशेष भी कोई नहीं है। आज हर क्षितिज पर कविता खिल सकती है। पुर्जों व मशीनों को लपेटती हुई आज की गम्भीर कविता कारखानों और उसकी उत्पादन-क्षमता या शिथिलता को घेरने लगी है। ये सब वर्तमान जीवन के अभिन्न अंग है। प्रशासन व अनुशासन, चपरासी व बड़े साहब ब्यूरोक्रेट व निर्णय-विलम्ब काला धन व कर-बचत आदि विषयों पर होने वाला काव्य-सर्जन रस-सिद्धान्त की परिपाटी से अलग रहकर भी यदि क्रान्तिकारी और प्रभावोत्पादक हो जाए तो आश्चर्य की क्या बात है ? नयी अनूभूतियों और प्रतीतियों को नकारने से उनकी सार्वजनिक विद्यमानता नहीं घटती। यदि श्रमिक, शिल्पी, राजनेता आदि काव्य-शरीर के अंग बन सकते हैं तो औद्योगीकरण, यंत्रीकरण स्वचालित-पद्धति आदि प्रयास अनायास ही कविता के नये बिम्ब क्यों नहीं बन सकते हैं ? काव्य में ढलकर ये विषय अधिक चित्ताकर्षक बन सकते हैं। जैसे कि आत्मा और शरीर का सम्बन्ध एक-दूसरे के महत्व को सिद्ध करता रहता है वैसे ही धर्म-नियोजन और पूंजी-नियोजन को समानान्तर भी तो माना जा सकता है। श्रेष्ठता और भ्रष्टता तो भाव और कर्म-प्रेरित है। विषयगत नहीं है। फिर विषय-विकास की परिधि को बढ़ने और बदलने से रोक पाना असंभव है। आध्यात्मिकता केवल हवा में नहीं होती। इसीलिए आध्यात्मिक भौतिकता की बात अधिक समाजोपयोगी मानी जाने लगी है। प्रकृति-प्रेम से मनुष्य सदैव आप्लावित रहेगा पर प्रकृति के आधिपत्य को चुनौती देकर प्राकृतिक साधनों को वश में करने का प्रयास प्रकृति-प्रेम का विरोधी नहीं, मानव-शक्ति की विजय का चिन्ह है। अब तक मेघाच्छन्न आकाश, पर्वतमाला और पक्षी दल को काव्यधारा में बहाया जा सका था तो कल स्पेसक्राफ्टों, क्रेनों और फ्लाईओवरों के निर्माण और कम्प्यूटर के उपयोग की प्रक्रिया को रचना-प्रक्रिया से अछूता रखना कहाँ तक उचित होगा ? सही बात तो यह है कि काव्य-शिल्पी के चित्त पर चढ़ने के बाद इन नई विधाओं पर होने वाला काव्य-सृजन, काव्य-सौंदर्य का एक नया क्षितिज बनकर रहेगा, काव्य-उदात्तता का एक सर्वथा सशक्त स्थल बनकर प्रखर रूप धारण करेगा।

अनुभूतियां होंगी तो उन्हें आत्मसात भी करना ही होगा। जीवन आगे बढ़ रहा है तो अभिव्यक्ति भी आगे की धुन टेरेगी ही। पुरातनता अक्सर नवीनता से छुआछूत और भेदभाव करती है, पर नवीनता बेचारी पुरातन को नमन करती हुई निरन्तता से जुड़ी रहना चाहती है। बदलता नवीन ही निरंतता का प्रतीक है। बदलने का अर्थ बिगड़ना नहीं। पर नहीं बिगडने का आशय बंधे रहना नहीं। बंधे रहना तो एक घुटन है। धर्म और दर्शन का अध्ययन चाहे जितना कर लें पर जीवन के यथार्थ को भोगे बिना हमें उनका सम्यक बोध नहीं होता। भोगने के लिए चलना अनिवार्य है।

जीवन में जो पहले था वह सब तो आज भी है। पर उसके अतिरिक्त जो कुछ आ घुला है, वह इतना व्यापक है कि अब वही अधिक नजर आता है। इस नई प्रचुरता को पचाने के लिए नई अनुभूतियों से बचना नहीं, उनसे निपटना होगा। उनसे भागना नहीं, उनको भोगना होगा। उन्हें सृजन का माध्यम बनाना होगा। उन्हें भी संस्कार पाने का सुयोग मिलना चाहिए। नये प्रतीकों को विस्थापित करने के बजाय, उन्हें सार्थक ढंग से संस्थापित करना होगा ताकि उनकी निरंतता अनंतता में सुरक्षित रह सके।

जो अनन्त और अमर है उसे अब जन्म नहीं लेना है। किन्तु उसे तरंगित रहना होगा। नया जन्म तो कवियों और काव्य-पाठकों का होना है ताकि नये यथार्थ के अनुसार वे कविता को तरंगित रख सकें। विविधता में जीने से रस-दर्शन होता है और विरोधाभास में जीने से संघर्ष-दर्शन। एक शोभा का प्रतीक है और दूसरा क्षमता का, हर प्रकार की क्षमता का। शोभा-कक्ष अब दुर्लभ हो रहे हैं और क्षमता की सड़के चौड़ी और लम्बी हो रही हैं। इन पर परेशानियां हो सकती हैं पर वीरानियां नहीं। अतएव, परेशानियों से भरी क्षमता की सड़कों पर ही अब नया जन्म होना है। इक्कीसवीं सदी में प्रवेश हो पाने के पहले काफी कुछ टूट जाना और छूट जाना है। तभी तो बहुत कुछ बन सकेगा। साफ लगता कि नई-नई मृत्युएं होंगी और नये-नये जनम भी। कविता को यह सब देखना ही नहीं, भोगना भी होगा। यह संकलन ऐसे ही नये जनम की कठिन पगडंडियों और तंग गलियों की एक बानगी है।

रामनिवास जाजू

द्वंद्व-गीत

ढालूं या ढल जाऊं-
पहले यह उलझन सुलझाऊं,
गाता रहूं स्वयं के या अब
गीत जगत के गाऊं ?

थकने पर थम जाऊं या फिर
चल-चलकर गिर जाऊं,
हटूं तनिक पीछे, या बढ़कर
स्वाभिमान दिखालाऊं ?

सीमाएं अब पथ ने बांधी,
मर्यादा पर छाई आंधी,
भावुकता में राह तजूं या
भौतिकता की राह बनाऊं ?

बहुत दिनों के बाद आज
झुकने की बारी आई,
कठिनाई ने पैर जमाकर
अपनी शर्त सुनाई !

उसको सुनकर मन में गुनकर
झुकने की क्षमता दिखलाऊं,
या धर धीरज, तजूं न साहस
मौन प्रतीक्षा करता जाऊं ?

11 जून, 1971


मानवोचित


कलियां
बंद की बंद रहे
खिलें ही नहीं
दो हृदय
बारीकी से जीकर भी
सिलें ही नहीं
पुतलियों की झपकन पर
हिलें ही नहीं
यौवन के झोंकों से
झिलें ही नहीं
तब वे
वैज्ञानिक शरीर हैं
जिनमें गति है
पर धड़कन नहीं
संयुक्त या पृथक् रहना
विधि है
पर स्पंदन नहीं
वे मुक्त ही मुक्त हैं
रस के बंधन नहीं
वे कैमिकल हैं
चंदन नहीं

जुलाई, 1972


शांति समझौता


युद्ध एक नाटक
शांति महानाटक
युद्ध में सबको उभारो
शांति के लिए
रहो प्रथम शांत
फिर मित्र देशों को
बुलाओ मिलाओ
घावों को सहलाओ
गुप्त-गीत गाओ
शिखर वार्ता रचाओ
मतभेद को गहराओ
दूरियां दिखाओ
निकट नहीं आओ
फिर हठात्
लोक-लज्जा की बात
दुनिया क्या कहेगी
शिखर-वार्ता की
खुशबू क्या रहेगी
अत: एक सहमति सजाओ
संयुक्त विज्ञप्ति बनाओ
बर्फ की सफेदी
कलम में दिखाओ
शहीदों की याद को
सरहद से लाओ
गंगा में बहाओ
स्थायी शांति के
समर्थक बन जाओ
वे आये तुम भी जाओ
युद्ध की कब्र पर फूल चढ़ाओ
महाशांति के चांद पर
उठाओ-बिठाओ
युद्ध एक नाटक
शांति महानाटक

साम्य तंत्र


एक चपरासी ने आज
रोक दिया बाबू को
घंटी बजाने से
इस तरह बुलाने से !

‘‘कार्यलय है बाबू
रण-स्थल नहीं
बिगुल मत बजाइए
काम है तो आइए
आकर समझाइए।

तर्क


एक का सुख
बो देता है
कही न कहीं
छोटा-मोटा दुख

काश ! मेरा दुख भी
बांट पाता औरों में
सुख ही सुख !

काश ! दुख की डालियां भी
फैली देतीं
सुख ही सुख !

जुलाई 1972


वर्तमान भूख-प्यास


जोरदार भूख लगी है
जोरदार प्यास लगी है
जोरदार भूख में यों
जोरदार प्यास नहीं लगती

भूख लेकिन अपनों को सत्ता दिलाने की है
प्यास भीतर-बाहर जमाने की है
भूख दूसरों को भूखे मारने की है
प्यास टुकड़ा फेंक-फेंक तरसाने की है
भूख पेट को नहीं, प्रतिष्ठा को लग रही है
प्यास कंठ में नहीं, कुंठा में जग रही है
भूख बड़ी अनयंत्रित है
प्यास तो विकृत ही विकृत है
जोरदार भूख लगी है
जोरदार प्यास लगी है

जोरदार प्यास में यों
जोरदार भूख खड़ी नहीं होती
प्यास लेकिन दूसरों को झुकाने की है
और भूख तब कृपा-दृष्टि दिखाने की है
प्यास अपनी नीतियां चलाने की है
भूख उनको आदर्श मनवाने की है
प्यास के होंठ सूखे नहीं, खूब तर हैं हठ से
भूख है नया व्यूह रचने की, पुराने कपट से
प्यास बही नागिन
भूख बड़ी डायन है

जोरदार प्यास लगी है
जोरदार भूख लगी है
जोरदार भूख लगी है
जोरदार प्यास लगी है

15 दिसंबर, 1973


जरूरतों के नाम पर


उत्पादन उत्पादन आप चिल्लाते हैं
कौन-सा घट गया है, कौन-सा बढ़ गया है
यही नहीं बतलाते हैं
प्रश्नों के समाधान नहीं
केवल उत्तर दिये जाते हैं
रोगों के निदान नहीं
दवाओं के नाम लिये जाते हैं
संघर्ष का महात्म्य घट रहा है
षड्यंत्र की महिमा हो रही है
वर्तमान के व्याकरण में
भविष्य की भाषा खो रही है
जहर अब दवा से निकलकर
हवा में जा रहा है
मुख्य द्वार की गतिविधि
घट चुकी है
पिछला दरवाजा
ज्यादा काम आ रहा है
संतरी तैनात खड़ा है
कि कोई ईमानदार आदमी
भीतर न आने पावे
जानदार को फंसाकर मगर
इस्तेमाल किया जावे
उत्पादन उत्पादन आप चिल्लाते हैं
कौन-सा घट गया है, कौन-सा बढ़ गया है
यही नहीं बतलाते हैं
सही पौध यदि कुछ बची है
तो उसको उल्टा बोते हैं
पत्तों को जमीन में गाड़कर
जड़ को ऊपर खोते हैं
पत्तों की खाद हो गई
जड़ बरबाद हो गई
फिर भी कोई बोल सकते नहीं है
योजना को तराजू पर तोल सकते नहीं है
सच बात समर्थक भी
कहकर पछताते हैं
भिन्न कहने पर
अभिन्न भी
कायल किये जाते है
तब नये मर्द, पुराने महारथी
किस संकल्प से हटें
किस विकल्प पर बढ़ें
उत्पादन उत्पादन आप चिल्लाते हैं
कौन-सा घट गया है, कौन-सा बढ़ गया है
यही नहीं बतलाते हैं
टहनियों को नहीं, शाखाओं को नहीं
तने को नहीं, जड़ को आप
काट चुके हैं
सच को सूली पर चढ़ाकर
झूठ सब जगह
बांट चुके हैं
बोओगे तो वही जो बट चुका है
फूल उसके कहां
जो कट चुका है
फल तो लगने से पहले
निपट चुका है
उत्पादन उत्पादन आप चिल्लाते हैं
कौन-सा घट गया है, कौन-सा बढ़ गया है
यही नहीं बतलाते हैं

18 दिसंबर, 1973




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