कविता संग्रह >> स्त्री मेरे भीतर स्त्री मेरे भीतरपवन करण
|
4 पाठकों को प्रिय 355 पाठक हैं |
नारी जीवन पर आधारित कविताएँ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रिय पापा,
कथन के अक्टूबर-नवम्बर 2001 अंक में, आपकी कविता ‘एक खूबसूरत बेटी का पिता’ पढ़ी। आप अत्यन्त संवेदनशील हैं और हर चीज पर गंभीरता से विचार करते हैं, यह तो मुझे पहले से ही पता है। लेकिन मुझे आप इतनी गहरी उधेड़बुन में पड़े हुए हैं, इसका मुझे एहसास तक नहीं था।
चूँकि आपने अपनी इस कविता में सब कुछ खोलकर रखा है इसलिए मैं भी आपको साफ-साफ बताना चाहती हूँ कि आपकी सीख मुझे बहुत देर से मिली। आप चाहते हैं कि मेरी बेटी प्रेम करे तो थोड़ा रुककर क्योंकि ‘प्रेम करने की सही उम्र नहीं है यह’ और ‘मेरी बेटी काँपते और डरते हुए नहीं इस डगर पर/सँभल कर चलते हुए करे प्रेम/अपने भीतर अद्भुत स्वाद लिए बैठे प्रेम के इस फल को/वह हड़बड़ी में नहीं धैर्य से नमक के साथ चखे।
आपकी ही बेटी ठहरी, इसलिए मैंने खूब सोच-समझ कर, जितना पता लगा सकती थी, पता लगाकर अपने स्कूल के राजीव से प्रेम किया था। वह मुझसे एक क्लास आगे है। सुंदर और पढ़ाई में बहुत तेज है।
आज भी हम दोनों प्रेम के आनंद की नदी में बहते होते, अगर उसने एक किताब में रखकर यह चिट न दी होती—‘आइ एम प्राउड दैट द मोस्ट ब्यूटीफुल गर्ल ऑन दिस अर्थ बिलांग्स टू मी।’ इसे पढ़ते ही मेरी शिराएँ तन गईं—तो राजीव भी सिर्फ मेरी सुंदरता को चाहता है ?
पापा, मुझे लगता है कि वे लड़कियाँ जल्दी परिपक्व हो जाती हैं, जो सामान्य से कम या सामान्य से ज्यादा सुंदर होती हैं। शायद दोनों ही हर काम, प्रेम भी ठोक-बजा कर यानी गणित पूर्वक करती हैं। मैं भी अपने को ऐसा ही मानती थी। पर मेरे पहले चुनाव ने ही मुझे बता दिया कि गणित भी हमेशा काम नहीं करता।
लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आता कि अगर मुझसे ‘कुछ’ हो ही जाता है, तो उसे ‘गलती’ कहना कहाँ तक ठीक है। आपसे उम्र और बुद्धि में मैं बहुत छोटी हूँ, पर आपके द्वारा दिये गए भरोसे के आधार पर ही कहना चाहती हूँ कि सोच-समझ कर किया गया कोई भी काम ‘गलती’ के श्रेणी में नहीं आ सकता। किसी काम के नतीजे अच्छे नहीं निकले, तो अपने निर्णय को क्यों कोसना। इमर्सन ने कहा है कि सभी निर्णय सीमित जानकारी के आधार पर किए जाते हैं और यह संसार असीम है। गलती तब है, जब अस्वीकार्य नतीजे आने के बाद भी आदमी अपने निर्णय से चिपका रहे। पापा मुझे आशीर्वाद दो कि अपना ही फैसला जब मेरी त्वचा में चुभने लगे, तो मैं उससे फ्री हो सकूँ।
एक स्त्री मेरे भीतर दीवार से पीठ टिकाए ख़ड़ी है उदास वह मेरे भीतर ही रहती है हमेशा भीतर ही बुदबुदाती है रोती है भीतर ही भीतर अपनी खामोशी बिछाकर चुपचाप लेट जाती है किसी जरा सी बात पर हो उठती है वह द्रवित कोई बात जरा से में भर देती है उसकी आँख किसी बात पर सुबकने लगती है वह किसी बात पर हिचकियाँ भरते हुए करने लगती है विलाप
उसी तरह मेरे भीतर खीजती है
जैसे खूँटे पर बँधे-बँधे एक स्त्री अपने को सड़ता हुआ देखती है
और सपनों को सड़ता हुआ देखती है और सलाखों को अपने दाँतों से काटने की करती है कोशिश आधी रात को आकाश उसकी नींद में विषैला होकर बरसता है निरन्तर
वह मेरे भीतर उसी तरह खाली हाथ रहती है
जैसे खाली हाथ बाहर दुनिया की सारी स्त्रियाँ उसे इस तरह रहता देख लगता है जैसे
उसने अपने बदन पर जो कपड़े पहन रखे हैं। वे कपडे़ भी न हों उसके, उसने जो चप्पलें पहन रखी हैं।
अपने पैरों में, वे भी न हों उसके नाप की
कथन के अक्टूबर-नवम्बर 2001 अंक में, आपकी कविता ‘एक खूबसूरत बेटी का पिता’ पढ़ी। आप अत्यन्त संवेदनशील हैं और हर चीज पर गंभीरता से विचार करते हैं, यह तो मुझे पहले से ही पता है। लेकिन मुझे आप इतनी गहरी उधेड़बुन में पड़े हुए हैं, इसका मुझे एहसास तक नहीं था।
चूँकि आपने अपनी इस कविता में सब कुछ खोलकर रखा है इसलिए मैं भी आपको साफ-साफ बताना चाहती हूँ कि आपकी सीख मुझे बहुत देर से मिली। आप चाहते हैं कि मेरी बेटी प्रेम करे तो थोड़ा रुककर क्योंकि ‘प्रेम करने की सही उम्र नहीं है यह’ और ‘मेरी बेटी काँपते और डरते हुए नहीं इस डगर पर/सँभल कर चलते हुए करे प्रेम/अपने भीतर अद्भुत स्वाद लिए बैठे प्रेम के इस फल को/वह हड़बड़ी में नहीं धैर्य से नमक के साथ चखे।
आपकी ही बेटी ठहरी, इसलिए मैंने खूब सोच-समझ कर, जितना पता लगा सकती थी, पता लगाकर अपने स्कूल के राजीव से प्रेम किया था। वह मुझसे एक क्लास आगे है। सुंदर और पढ़ाई में बहुत तेज है।
आज भी हम दोनों प्रेम के आनंद की नदी में बहते होते, अगर उसने एक किताब में रखकर यह चिट न दी होती—‘आइ एम प्राउड दैट द मोस्ट ब्यूटीफुल गर्ल ऑन दिस अर्थ बिलांग्स टू मी।’ इसे पढ़ते ही मेरी शिराएँ तन गईं—तो राजीव भी सिर्फ मेरी सुंदरता को चाहता है ?
पापा, मुझे लगता है कि वे लड़कियाँ जल्दी परिपक्व हो जाती हैं, जो सामान्य से कम या सामान्य से ज्यादा सुंदर होती हैं। शायद दोनों ही हर काम, प्रेम भी ठोक-बजा कर यानी गणित पूर्वक करती हैं। मैं भी अपने को ऐसा ही मानती थी। पर मेरे पहले चुनाव ने ही मुझे बता दिया कि गणित भी हमेशा काम नहीं करता।
लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आता कि अगर मुझसे ‘कुछ’ हो ही जाता है, तो उसे ‘गलती’ कहना कहाँ तक ठीक है। आपसे उम्र और बुद्धि में मैं बहुत छोटी हूँ, पर आपके द्वारा दिये गए भरोसे के आधार पर ही कहना चाहती हूँ कि सोच-समझ कर किया गया कोई भी काम ‘गलती’ के श्रेणी में नहीं आ सकता। किसी काम के नतीजे अच्छे नहीं निकले, तो अपने निर्णय को क्यों कोसना। इमर्सन ने कहा है कि सभी निर्णय सीमित जानकारी के आधार पर किए जाते हैं और यह संसार असीम है। गलती तब है, जब अस्वीकार्य नतीजे आने के बाद भी आदमी अपने निर्णय से चिपका रहे। पापा मुझे आशीर्वाद दो कि अपना ही फैसला जब मेरी त्वचा में चुभने लगे, तो मैं उससे फ्री हो सकूँ।
एक स्त्री मेरे भीतर दीवार से पीठ टिकाए ख़ड़ी है उदास वह मेरे भीतर ही रहती है हमेशा भीतर ही बुदबुदाती है रोती है भीतर ही भीतर अपनी खामोशी बिछाकर चुपचाप लेट जाती है किसी जरा सी बात पर हो उठती है वह द्रवित कोई बात जरा से में भर देती है उसकी आँख किसी बात पर सुबकने लगती है वह किसी बात पर हिचकियाँ भरते हुए करने लगती है विलाप
उसी तरह मेरे भीतर खीजती है
जैसे खूँटे पर बँधे-बँधे एक स्त्री अपने को सड़ता हुआ देखती है
और सपनों को सड़ता हुआ देखती है और सलाखों को अपने दाँतों से काटने की करती है कोशिश आधी रात को आकाश उसकी नींद में विषैला होकर बरसता है निरन्तर
वह मेरे भीतर उसी तरह खाली हाथ रहती है
जैसे खाली हाथ बाहर दुनिया की सारी स्त्रियाँ उसे इस तरह रहता देख लगता है जैसे
उसने अपने बदन पर जो कपड़े पहन रखे हैं। वे कपडे़ भी न हों उसके, उसने जो चप्पलें पहन रखी हैं।
अपने पैरों में, वे भी न हों उसके नाप की
प्यार में डूबी हुई माँ ने पहली बार हिन्दी कविता में प्रवेश पाया है।
नयों में पवन करण मेरे प्रिय कवि हैं। वह उन कवियों में है जिनके माध्यम
से हमारे समाज के दबे-कुचले वर्गों को उनका हमदर्द नहीं, उनका प्रतिनिधि
नहीं, बल्कि उन्हीं से निकला एक कवि मिला है, जो एक सहानुभूतिशील व्यक्ति
की तरह उन्हें पीडित व्यक्तियों के समूह के रूप में नहीं, एक समूची
शख्सियत की तरह, अपनी तरह, अपनों में से ही एक मानकर उन्हें देखता है इतना
ही नहीं ग्वालियर जैसे सामाजिक रूप से पिछड़े इलाके से आए इस कवि ने एक
ऐसी अग्रगामी-संवेदनशील और एक अर्थ में क्रान्तिकारी सामाजिक दृष्टि पाई
है, जो क्षमा कीजिए बहुत पढ़े-लिखे, महानगरीय और संवेदनशील कवियों के पास
भी नहीं हैं वरना ऐसा नहीं होता कि ‘प्यार में डूबी
माँ’ जैसे
कविता पवन करण ने लिखी होती। पवन करण के काव्यात्मक खजाने में ऐसी ढ़ेरों
कविताएं हैं जिन पर आज तक किसी भी हिन्दी कवि ने लिखने का साहस न किया न
उनमें वह समझ, सहानुभूति और कल्पना शक्ति दीखती है।
उनकी कविता एक तरह से हमारे समाज का नया आख्यान है। इन कविताओं को सिर्फ कविता होने की वजह से ही नहीं उनमें निहित गहरे सामाजिक आशयों के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए। मुझे नहीं मालूम हिन्दी के किस कवि के पास ‘दरअसल उसको समझना खुद को समझना है’ जैसी कोई कविता है जिसमें से एक पुरुष अपनी पत्नी के उसके प्रेमी के साथ रँगे हाथों पकड़े जाने के बाद की स्थिति पर अपने मित्र के साथ विचार कर रहा है और दूसरा मित्र उससे कह रहा है कि उस स्त्री को समझना दरअसल खुद को समझना भी है। यहाँ कोई नैतिक निर्णय नहीं है और अगर है तो उस औरत के पक्ष में ही है। ऐसी साहसिक दृष्टि उनकी कई कविताओं में है जिनमें बहन के प्रेमी के बारे में या एक खूबसूरत बेटी के पिता के बारे में जैसी कविताएं भी हैं। ‘पुरुष शीर्षक कविता एक ऐसे पुरुष के बारे में है जो पिता नहीं बन सकता उसकी पत्नी इस तथ्य को मानने को तैयार नहीं है और इसलिए किसी बच्चे को गोद लेने को तैयार नहीं और इसके कारण पुरुष के अन्दर जो तमाम तरह की उधेड़बुन मची रहती है वह कविता का विषय पहली बार बनी है। पवन ने दरअसल अपनी कविताओं के जरिए जो पुरुष और स्त्री विमर्श शुरू किया हैं। वह कई मायनों में मुझे अभी तक जारी स्त्री विमर्श में महत्त्वपूर्ण लगता है। नई उभरती स्त्री के सन्दर्भ में कोई नया पुरुष विमर्ष तो अभी तक हिन्दी कविता में उभरा ही नहीं हैं। अगर इसे अत्योक्ति न समझा जाए तो पवन करण इसके पुरोधाओं में से है। अगर और कोई भी पुरोधा होने का दावेदार कहीं हो तो।
हो सकता है यह कोरा मेरा अज्ञान हो मगर मेरी जानकारी के अनुसार हिन्दी में प्यार में डूबी हुई माँ जैसी कविता पहले नहीं लिखी गई। आजकल निबन्धों की तरह नए विषय ढूँढकर उन पर कविताएँ अक्सर संवेदनशील ढंग से लिखे गए लघु निबन्धों या रिपोर्ट बनकर रह जाती है, कविता नहीं बन पातीं, मगर पवन करण का अनुभव और संवेदना एकदम ताजा है और उन्हें विषय की नवीनता दिखाने के प्रयास से लिए निबन्ध या रिपोर्ट नुमा कविता लिखने पर उतर आने की जरूरत नहीं। इसलिए जब मैं कहता हूँ कि प्यार में डूबी हुई माँ जैसी कविता हिन्दी में पहले कभी नहीं लिखी गई तो मेरा आशय हिन्दी कविता को एक नया विषय देने का श्रेय पवन करण को देने का नहीं है (क्योंकि वह मेरी नजर में इतनी बड़ी बात नहीं हैं और कविता के नाम पर कुल मिलाकर कुलीगिरी है।) मैं दरअसल कहना यह चाहता हूँ कि उन्होंने खासकर इस कविता के रूप में हमें एक ऐसी संवेदना-दृष्टि दी है, जो हमारे पास इससे पहले नहीं थी।
एक औरत जो अपनी युवावस्था में अचानक विधवा हो, जिसने वर्षों उस अकेलेपन और निराशा में गुजारे हों, जिसमें दुनिया की हर खुशी में सिर्फ अपने व्यक्तिगत दुख की छाया ही नजर आती है, उसके जीवन में अचानक चुपके से कोई पुरुष आए (वह पुरुष विवाहित है या अविवाहित, यह मायनें नहीं रखता और बहुत उचित ही पवन ने इस बारे में कविता में मौन बरता है) और उसके इस तरह आने का सिर्फ मौन स्वागत ही उसकी बेटी करे, इस कारण अपने को केवल दुनिया की सबसे खुशनशीब लड़की ही न समझे, बल्कि इस वजह से वौराई-पगलाई-सी भी रहे और उसे अपनी प्रेम करती हुई माँ उसके स्कूल की ही कोई शरारती, चंचल और हँसमुख लड़की लगने लगे, इस तरह की बात इससे पहले कहने और समझाने का साहस किसी कवि ने नहीं किया।
स्त्रीवाद ने जाहिर है एक विधवा स्त्री के इस तरह के प्यार के लिए स्पेस को वैध बनाया है, इसे नैतिकता-अनैतिकता के दायरे से बाहर रखा है, मगर इसके बावजूद इस बात को संवेदना के स्तर पर इतने साहस के साथ स्वीकार करना, इसे एक खुशनशीबी की तरह मानना अभी तक हमें नहीं आया हैं, हमारी कुठिंत सामाजिक दृष्टि हमारी संवेदनशीलता को घेरे रहती है, उसे कुचलती रही है। हिन्दी कवि सामान्यतः सामाजिक रूप से सबसे अग्रगामी दस्ते का सदस्य है। मगर फिर भी वे अभी इस मामले में संवेदनात्मक रूप से पिछडे ही बने रहे हैं। उनके इस पिछड़ेपन को पवन करण ने जोरदार ढंग से झकझोर दिया है। यह जानना और भी दिलचस्प हो सकता है कि उन्हें इस तरह की अग्रगामी संवेदनशीलता के तन्तु कहाँ से मिले हैं।
लगभग एक क्रांतिकारी विषय को पवन करण अपनी कविता में बहुत शान्त और संयत ढंग से उठाते हैं। इसमें कहीं क्रोध नहीं है, कहीं विकलता का गाजेबाजे के साथ चकाचौंध भरा प्रदर्शन नहीं है, बस व्यक्तिगत दुख की हल्की-सी छाया है जिस पर वह खुशी अधिक हावी है, जो इस प्रेम प्रसंग के पनपने के कारण उस बेटी के मन में उमगी है, जो अपने आजकल दुनिया की सबसे खुशनशीब लड़की मानती है और इसलिए मानती है क्योंकि उसकी माँ की दुनिया में बरसों बाद प्रेम की एक तीली जली, जो देखते ही देखते उस कमरे में सूरज की तरह फैल गई, जिसकी एक दीवार पर फूलों से सजी उस प्रेम करती औरत के पति की तस्वीर भी टँगी है। जिस समाज में माँ भी अपनी युवा बेटी के प्रेम-प्रसंगों के कारण आशंकाओं से दहल जाती हो, वहाँ पवन करण की कविता में बेटी अपनी माँ द्वारा (बेटी से भी) छुपाकर-बचाकर किए जा रहे प्रेम से आह्लादित है, बौराई हुई और प्रेम करने के कारण इस (अधेड़) उम्र में माँ के बेहद खूबसूरत हो जाने का बखान अपने मृत पिता को सम्बोधित करते हुए कहती है (यानी संकेत में कहती है कि ऐसी विधवा मां का प्रेम करना उस पति से बेवफाई नहीं है, जिससे वह बहुत प्रेम करती थी। और जिसकी याद में इतने बरस उसने सिर्फ अकेलेपन और उदासी में बिताए है) यह अपने आप में दिलचस्प बात है।
यह बेटी खुश है क्योंकि वह इस बात की संवेदनशील गवाह रही है। कि किस तरह माँ उसके पिता की याद में सारे रंगों को भूल चुकी थी, चटख रंग को देखकर भी कहती थी कि यह फीका है, मीठे को कड़ुवा कहकर उगल देती थी, गीत सुनकर भी कानों पर हाथ रख लेती थी। अपनी माँ के सामाजिक रूप से वर्ज्य समझे जानेवले प्रेम के प्रति बेटी की यह उदारता, यह उछाह पहले शायद ही कहीं कविता में दिखा हो, क्योंकि हमारे कवि अभी भी कहीं न कहीं एक अधेड़ विधवा को किसी परपुरुष से प्रेम करते नहीं देख सकते, जब तक कि वह पुरुष वे स्वयं न हों। इस कविता में सबसे दिलचल्प और पुरुषों की पीड़ा देनेवाली बात यह है कि बेटी अपनी माँ को दुनिया की सबसे खूबसूरत माँ ही नहीं बताती, अपने पिता को याद करते हुए अपनी माँ के देह के वेग, उसकी कामुक चंचलता, उसके संसर्ग-संयम की बात भी करती है और यह लड़की अभी स्कूल में पढ़ती बताई गयी है, जिन्हें एक स्तर पर तो पिता सिर्फ बच्ची ही समझते हैं। मगर दूसरे स्तर पर उसके संभावित प्रेम-प्रंसगों से, किसी लड़के से उनके शारीरिक संसर्गों का आशंका से डरे और घबराएँ रहते हैं।
इस कविता को पढ़ते हुए कहीं भी यह नहीं लगता है कि पवन करण ने स्त्री के प्रति यह उदार संवेदनशीलता किसी विदेशी कविता से चुराकर हमारे सामने परोस दिया यानी यह उस जमीन से नहीं आई है। जहाँ से कवि आया है। इस कविता में वे सारे सामाजिक बन्धन संकेत के रूप में विद्यमान दिखते हैं, जो समाज में एक स्त्री को विधवा हो जाने के बाद फिर से जीवन से खुशी हासिल करने से रोकते हैं, उसे पंगु बनाकर रख देते हैं। इस कविता की प्रेम करती स्त्री के लम्बे अकेलेपन और उदासी में उसका अपने मृत पति से गहरा प्रेम और समर्पण ही नहीं दिखता है, इस बात का तीव्र अहसास भी नजर आता है कि विधवा स्त्री को दुबारा खुशी सामाजिक उत्पीड़न के खतरे उठाकर और कुलटा कहलाकर ही हासिल हो सकती है। इसलिए उसे ऐसे प्रेम को सबसे छुपाना पड़ा है। यहाँ तक की बेटी से भी क्योकि क्या पता सामाजिक जकड़नों में पली उसकी बेटी ही कहीं उसकी दुश्मन न बन जाए।
पूरी कविता में कवि कहीं हस्तेक्षेप करता नहीं दीखता, अंधेरे में दिया लेकर चलने का अभिनय करता नहीं दीखता वह अपनी कविता को पूरी तरह प्यार मे डूबी हुई माँ की बेटी के हवाले कर देता है और उसे ही बोलने देता है। यह कविता उस लड़की की कविता हैं या कहे गीत है, उसकी गुनगुनाहट है उसके बौरायपन का संगीत है। क्या यह संभव न था कि पवन करण की कविता में नरेदर बेटी के बजाय बेटा ? शायद नहीं हो सकता था। बेटी अपनी माँ को किसी और मर्द से प्यार करते हुए नहीं देख सकता था, वह उस पीड़ा को महसूस नहीं कर सकता था, जिससे इस बीच उसकी माँ लम्बें अर्सें कर गुजरी है, उसे तो इसमें अपनी माँ की मृत पिता के प्रति बेवफाई, उसकी कामच्छा को दबाने में असमर्थता ही नजर आती, उसे शायद कभी दिखता कि प्रेम उसकी माँ के लिए कितनी बड़ी राहत और नेमत लेकर आया है।
उनकी कविता एक तरह से हमारे समाज का नया आख्यान है। इन कविताओं को सिर्फ कविता होने की वजह से ही नहीं उनमें निहित गहरे सामाजिक आशयों के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए। मुझे नहीं मालूम हिन्दी के किस कवि के पास ‘दरअसल उसको समझना खुद को समझना है’ जैसी कोई कविता है जिसमें से एक पुरुष अपनी पत्नी के उसके प्रेमी के साथ रँगे हाथों पकड़े जाने के बाद की स्थिति पर अपने मित्र के साथ विचार कर रहा है और दूसरा मित्र उससे कह रहा है कि उस स्त्री को समझना दरअसल खुद को समझना भी है। यहाँ कोई नैतिक निर्णय नहीं है और अगर है तो उस औरत के पक्ष में ही है। ऐसी साहसिक दृष्टि उनकी कई कविताओं में है जिनमें बहन के प्रेमी के बारे में या एक खूबसूरत बेटी के पिता के बारे में जैसी कविताएं भी हैं। ‘पुरुष शीर्षक कविता एक ऐसे पुरुष के बारे में है जो पिता नहीं बन सकता उसकी पत्नी इस तथ्य को मानने को तैयार नहीं है और इसलिए किसी बच्चे को गोद लेने को तैयार नहीं और इसके कारण पुरुष के अन्दर जो तमाम तरह की उधेड़बुन मची रहती है वह कविता का विषय पहली बार बनी है। पवन ने दरअसल अपनी कविताओं के जरिए जो पुरुष और स्त्री विमर्श शुरू किया हैं। वह कई मायनों में मुझे अभी तक जारी स्त्री विमर्श में महत्त्वपूर्ण लगता है। नई उभरती स्त्री के सन्दर्भ में कोई नया पुरुष विमर्ष तो अभी तक हिन्दी कविता में उभरा ही नहीं हैं। अगर इसे अत्योक्ति न समझा जाए तो पवन करण इसके पुरोधाओं में से है। अगर और कोई भी पुरोधा होने का दावेदार कहीं हो तो।
हो सकता है यह कोरा मेरा अज्ञान हो मगर मेरी जानकारी के अनुसार हिन्दी में प्यार में डूबी हुई माँ जैसी कविता पहले नहीं लिखी गई। आजकल निबन्धों की तरह नए विषय ढूँढकर उन पर कविताएँ अक्सर संवेदनशील ढंग से लिखे गए लघु निबन्धों या रिपोर्ट बनकर रह जाती है, कविता नहीं बन पातीं, मगर पवन करण का अनुभव और संवेदना एकदम ताजा है और उन्हें विषय की नवीनता दिखाने के प्रयास से लिए निबन्ध या रिपोर्ट नुमा कविता लिखने पर उतर आने की जरूरत नहीं। इसलिए जब मैं कहता हूँ कि प्यार में डूबी हुई माँ जैसी कविता हिन्दी में पहले कभी नहीं लिखी गई तो मेरा आशय हिन्दी कविता को एक नया विषय देने का श्रेय पवन करण को देने का नहीं है (क्योंकि वह मेरी नजर में इतनी बड़ी बात नहीं हैं और कविता के नाम पर कुल मिलाकर कुलीगिरी है।) मैं दरअसल कहना यह चाहता हूँ कि उन्होंने खासकर इस कविता के रूप में हमें एक ऐसी संवेदना-दृष्टि दी है, जो हमारे पास इससे पहले नहीं थी।
एक औरत जो अपनी युवावस्था में अचानक विधवा हो, जिसने वर्षों उस अकेलेपन और निराशा में गुजारे हों, जिसमें दुनिया की हर खुशी में सिर्फ अपने व्यक्तिगत दुख की छाया ही नजर आती है, उसके जीवन में अचानक चुपके से कोई पुरुष आए (वह पुरुष विवाहित है या अविवाहित, यह मायनें नहीं रखता और बहुत उचित ही पवन ने इस बारे में कविता में मौन बरता है) और उसके इस तरह आने का सिर्फ मौन स्वागत ही उसकी बेटी करे, इस कारण अपने को केवल दुनिया की सबसे खुशनशीब लड़की ही न समझे, बल्कि इस वजह से वौराई-पगलाई-सी भी रहे और उसे अपनी प्रेम करती हुई माँ उसके स्कूल की ही कोई शरारती, चंचल और हँसमुख लड़की लगने लगे, इस तरह की बात इससे पहले कहने और समझाने का साहस किसी कवि ने नहीं किया।
स्त्रीवाद ने जाहिर है एक विधवा स्त्री के इस तरह के प्यार के लिए स्पेस को वैध बनाया है, इसे नैतिकता-अनैतिकता के दायरे से बाहर रखा है, मगर इसके बावजूद इस बात को संवेदना के स्तर पर इतने साहस के साथ स्वीकार करना, इसे एक खुशनशीबी की तरह मानना अभी तक हमें नहीं आया हैं, हमारी कुठिंत सामाजिक दृष्टि हमारी संवेदनशीलता को घेरे रहती है, उसे कुचलती रही है। हिन्दी कवि सामान्यतः सामाजिक रूप से सबसे अग्रगामी दस्ते का सदस्य है। मगर फिर भी वे अभी इस मामले में संवेदनात्मक रूप से पिछडे ही बने रहे हैं। उनके इस पिछड़ेपन को पवन करण ने जोरदार ढंग से झकझोर दिया है। यह जानना और भी दिलचस्प हो सकता है कि उन्हें इस तरह की अग्रगामी संवेदनशीलता के तन्तु कहाँ से मिले हैं।
लगभग एक क्रांतिकारी विषय को पवन करण अपनी कविता में बहुत शान्त और संयत ढंग से उठाते हैं। इसमें कहीं क्रोध नहीं है, कहीं विकलता का गाजेबाजे के साथ चकाचौंध भरा प्रदर्शन नहीं है, बस व्यक्तिगत दुख की हल्की-सी छाया है जिस पर वह खुशी अधिक हावी है, जो इस प्रेम प्रसंग के पनपने के कारण उस बेटी के मन में उमगी है, जो अपने आजकल दुनिया की सबसे खुशनशीब लड़की मानती है और इसलिए मानती है क्योंकि उसकी माँ की दुनिया में बरसों बाद प्रेम की एक तीली जली, जो देखते ही देखते उस कमरे में सूरज की तरह फैल गई, जिसकी एक दीवार पर फूलों से सजी उस प्रेम करती औरत के पति की तस्वीर भी टँगी है। जिस समाज में माँ भी अपनी युवा बेटी के प्रेम-प्रसंगों के कारण आशंकाओं से दहल जाती हो, वहाँ पवन करण की कविता में बेटी अपनी माँ द्वारा (बेटी से भी) छुपाकर-बचाकर किए जा रहे प्रेम से आह्लादित है, बौराई हुई और प्रेम करने के कारण इस (अधेड़) उम्र में माँ के बेहद खूबसूरत हो जाने का बखान अपने मृत पिता को सम्बोधित करते हुए कहती है (यानी संकेत में कहती है कि ऐसी विधवा मां का प्रेम करना उस पति से बेवफाई नहीं है, जिससे वह बहुत प्रेम करती थी। और जिसकी याद में इतने बरस उसने सिर्फ अकेलेपन और उदासी में बिताए है) यह अपने आप में दिलचस्प बात है।
यह बेटी खुश है क्योंकि वह इस बात की संवेदनशील गवाह रही है। कि किस तरह माँ उसके पिता की याद में सारे रंगों को भूल चुकी थी, चटख रंग को देखकर भी कहती थी कि यह फीका है, मीठे को कड़ुवा कहकर उगल देती थी, गीत सुनकर भी कानों पर हाथ रख लेती थी। अपनी माँ के सामाजिक रूप से वर्ज्य समझे जानेवले प्रेम के प्रति बेटी की यह उदारता, यह उछाह पहले शायद ही कहीं कविता में दिखा हो, क्योंकि हमारे कवि अभी भी कहीं न कहीं एक अधेड़ विधवा को किसी परपुरुष से प्रेम करते नहीं देख सकते, जब तक कि वह पुरुष वे स्वयं न हों। इस कविता में सबसे दिलचल्प और पुरुषों की पीड़ा देनेवाली बात यह है कि बेटी अपनी माँ को दुनिया की सबसे खूबसूरत माँ ही नहीं बताती, अपने पिता को याद करते हुए अपनी माँ के देह के वेग, उसकी कामुक चंचलता, उसके संसर्ग-संयम की बात भी करती है और यह लड़की अभी स्कूल में पढ़ती बताई गयी है, जिन्हें एक स्तर पर तो पिता सिर्फ बच्ची ही समझते हैं। मगर दूसरे स्तर पर उसके संभावित प्रेम-प्रंसगों से, किसी लड़के से उनके शारीरिक संसर्गों का आशंका से डरे और घबराएँ रहते हैं।
इस कविता को पढ़ते हुए कहीं भी यह नहीं लगता है कि पवन करण ने स्त्री के प्रति यह उदार संवेदनशीलता किसी विदेशी कविता से चुराकर हमारे सामने परोस दिया यानी यह उस जमीन से नहीं आई है। जहाँ से कवि आया है। इस कविता में वे सारे सामाजिक बन्धन संकेत के रूप में विद्यमान दिखते हैं, जो समाज में एक स्त्री को विधवा हो जाने के बाद फिर से जीवन से खुशी हासिल करने से रोकते हैं, उसे पंगु बनाकर रख देते हैं। इस कविता की प्रेम करती स्त्री के लम्बे अकेलेपन और उदासी में उसका अपने मृत पति से गहरा प्रेम और समर्पण ही नहीं दिखता है, इस बात का तीव्र अहसास भी नजर आता है कि विधवा स्त्री को दुबारा खुशी सामाजिक उत्पीड़न के खतरे उठाकर और कुलटा कहलाकर ही हासिल हो सकती है। इसलिए उसे ऐसे प्रेम को सबसे छुपाना पड़ा है। यहाँ तक की बेटी से भी क्योकि क्या पता सामाजिक जकड़नों में पली उसकी बेटी ही कहीं उसकी दुश्मन न बन जाए।
पूरी कविता में कवि कहीं हस्तेक्षेप करता नहीं दीखता, अंधेरे में दिया लेकर चलने का अभिनय करता नहीं दीखता वह अपनी कविता को पूरी तरह प्यार मे डूबी हुई माँ की बेटी के हवाले कर देता है और उसे ही बोलने देता है। यह कविता उस लड़की की कविता हैं या कहे गीत है, उसकी गुनगुनाहट है उसके बौरायपन का संगीत है। क्या यह संभव न था कि पवन करण की कविता में नरेदर बेटी के बजाय बेटा ? शायद नहीं हो सकता था। बेटी अपनी माँ को किसी और मर्द से प्यार करते हुए नहीं देख सकता था, वह उस पीड़ा को महसूस नहीं कर सकता था, जिससे इस बीच उसकी माँ लम्बें अर्सें कर गुजरी है, उसे तो इसमें अपनी माँ की मृत पिता के प्रति बेवफाई, उसकी कामच्छा को दबाने में असमर्थता ही नजर आती, उसे शायद कभी दिखता कि प्रेम उसकी माँ के लिए कितनी बड़ी राहत और नेमत लेकर आया है।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book