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गूँगा जहाज

विवेकी राय

प्रकाशक : अनुराग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5238
आईएसबीएन :81-902534-2-5

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स्वातंत्र्योत्तर गाँवों व ग्रामीण समाज के बदलते रूप का वर्णन

Goona Jahaj

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

डॉ. विवेकी राय ने आम लोगों की बातें, आम लोगों के लिए, आम लोगों को समझने लायक भाषा में, आम आदमी बनकर लिखा, लगातार...! उम्र व परिस्थितियों से बिना थके, बिना घबराये, शांत-गम्भीर व जिज्ञासु भाव से लिखने को ‘सौ रोगों की एक दवा’ मानकर डॉ. राय ने अधिकांशतः ऐसे आम आदमी की बातें कीं जो भारत की स्वतन्त्रता की रजत जयन्ती कालीन नये व बदलते हुए गाँवों के दमित, उपेक्षित व श्रमिक वर्ग के हैं। गूँगा जहाज डॉ. विवेकी राय की प्रतिनिधि कहानियों का ऐसा संग्रह है जिसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्राम्यांचल (गाजीपुर, बलिया) की सटीक पड़ताल है, स्वातंत्र्योत्तर गाँवों व ग्रामीण समाज के बदलते रूप की उनकी आधुनिक मुद्रा और विविध अन्तर्विरोधी टकराहटों सहित बड़ी ही गहराई से पहचान है, ग्रामीण किसानों-श्रमजीवियों की समस्याओं, दुःखों व शोषण से उत्पन्न छटपटाहटों पर केन्द्रित दृष्टि है और ग्रामवासियों का परिस्थितिजन्य व पारम्परिक विनोद व मनोरंजन का चित्रण भी।


गूँगा जहाज में इक्कीस कहानियों द्वारा डॉ. विवेकी राय ने अपनी स्थानीयता, संस्कृति व भोगे हुए यथार्थ के प्रति निष्ठा व समर्पण का वही प्रमाण पुष्ट किया है जो उनके सम्पूर्ण लेखक व्यक्तित्व में पोर-पोर है ‘‘डॉ. राय ने इन कहानियों के माध्यम से हास्य-विनोद का पुट देते हुए स्वातन्त्र्योत्तर ग्रामीण समाज के बदलते रूप, उनकी अभावग्रस्तता, उनके धूमिल वस्त्रों से आवेष्ठित सूखे-जर्जर शरीर में आप्लावित रसधारा जिसे करुणा का क्षणिक और सामान्य स्पर्श भी नैराश्य के गहन अंधकार से ऊपर ला देता है, बहुत बारीकी से प्रस्तुत किया है राजनीतिक दूकानदारी से उत्पन्न ग्रामीण बौद्धिक तनाव तथा ह्रासमान पूँजीवादी सांस्कृतिक रुग्णता को लेकर नगरों से गाँव को लौटने वाले शिक्षित बाबू (सामन्त) वर्ग द्वारा देहातों को कस्बाई रंग में रँग देने की लालसा, किसान का प्रकृति से संघर्ष और निराशा के झूले पर झूलती हुई जीजीविषा से सम्पृक्त इन कहानियों में पाठकों को मर्माहत कर देने की क्षमता है। ‘गरीबी हटाओ’ की नपुंसक नारेबाजी तथा विकास, प्रगति और क्रान्ति के अर्थहीन पोस्टरों से ऊबे जनमानस की घुटन, किन्तु जागरूक रहकर आने वाली पीढ़ी को सचेत करने का स्वर घण्टे की टनटनाहट की भाँति संकलन की कहानियों से मुखर है।’’ पूँजीवादी युग की अर्थकेन्द्रित मानसिकता का उभार ‘रामलीला’ कहानी में व्यक्त हुआ है, जिसमें खुराँव मठ के बादशाह-महन्त और उनके चिलमचट्टू भक्त मर्दाना बाबा की क्रमशः हनुमान और रावण की भूमिकाएँ लंकादहन का दृश्य उपस्थित कर, धन मद के पागलपन या उन्माद को व्यंजित करती है।

गूँगा जहाज की अधिकांशतः कहानियों में स्थान, पात्र व घटनाओं का विवरण कुछ इस प्रकार का है कि पाठक उसे आत्मकथा के रूप में लेता है, कुछ बिल्कुल सच है भी। जन्मभूमि और क्षेत्र के विषयों को (सजीव ढंग से) प्रस्तुत करके डॉ. राय ने अपने को उनके कर्ज से भी मुक्त किया है जिन्होंने इन्हें रचा और पाला-पोषा, जिस लोक जीवन ने इन्हें गढ़ा और अपना सम्पूर्ण प्यार दिया, उर्वरा दी। गाँवों में प्रायः घटित होने वाली चोरी-चमारी व उससे सम्बन्धित प्रसंगों की चर्चा ‘आकाशवृत्ति’ और ‘हाय रे परान’ जैसी कहानियों में करते हुए डॉ. विवेकी राय ने दैवी और मानवीय विपत्तियों का भी उल्लेख किया है और उनसे प्रभावित जनमानस की खिन्नता की एक-एक परत को उभाड़कर पैना बना दिया है। विकास योजनाओं के खोखलेपन को ‘टुकरा मिले बहुरिया’ के डोमराजा की बेहाली, पिटाई और जल-यातना प्रसंगों में देखा जा सकता है। ‘चुनाव-चक्र’ में लोकतांत्रिक चुनाव-पद्धति की जाति-विरादरीबाजी तथा नेताओं की सेवा की जगह स्वार्थी मनोवृत्ति पर तीखा व्यंग्य है। ‘‘ग्रामांचल के छद्मवेशी चुनाव प्रचारकों के रूप में सामन्ती शोषक चेहरों को बेनकाब करने वाली कहानी है। गाँव के गरीबों के लिए चुनाव, शोषकों में से ही किसी एक को चुनने की स्वतन्त्रता का नाम है।’’ घुरहू चमार, छतरू तेतरी की माँ का असंतोष व्यवस्था को हिला देने वाला है।

ग्रामांचल की विविध झाँकियों से परिपूर्ण कहानियों के इस संग्रह में डॉ. राय अपने अन्दर के प्रौढ़ भाषाविद् व कथाशिल्पी को खूब खटाया है, जिसके फलस्वरूप पाठक हमेशा चित्रों के यथार्थ लोक में विचरण करता है। कसावपूर्ण कथ्यों के साथ-साथ लगभग सभी कहानियाँ पाठकों को प्रभाव की गहराई पर लाकर छोड़ती हैं और बिम्बों का ऐसा ऐहसास करती हैं कि कभी-कभी (कहानियों का) रिपोर्ताज होने का भ्रम होने लगता है, ऐसे ही भ्रमों से लैस करने वाली कहानी ‘बाढ़ की यमदाढ़ में’ है, जिसमें बताया गया है कि गरीबों को बेघर बनाने में व्यवस्था का ही दोष नहीं, प्राकृतिक आपदाओं की भी एक भूमिका है। इस कहानी में प्रलयंकारी बाढ़ का चित्रण है, इसमें भूख से जले लोगों के कलेजे पर नमक के लेप के समान दी गयी सरकारी सुविधा प्रजातांत्रिक विफलताओं के नग्न यथार्थ को प्रस्तुत करती है। ‘गोरी का गाँव’ कहानी में अतृप्त काम-कुण्ठा का प्रक्षेपण विविध कोणों से किया गया है। मुकदमेबाज कचहरी सिंह, दिखावटी स्वामीजी और दिशाभ्रांत बसंत बाबू की आक्रोश-आपत्ति के केन्द्र में गौरी का अनिन्द्य सौन्दर्य ही है। आज की व्यवस्था आदमी को नहीं, पोशाकों को मान देती है। मनुष्य की पहचान का संकट उपस्थित हो गया है। ‘दीप तले अंधेरा’ कहानी साफ-सुथरी खद्दर की पोशाक और गांधी टोपी लेखक को एम.एल.ए. की पदवी दिलाकर चुनावी खोखलेपन को नयी अर्थवत्ता के साथ प्रस्तुत करती है। ‘राक्षस’ में बेरोजगारी और फिर सिफारिशों के बाद मिली बाबूगिरी के आर्थिक दबाव सै पैदा हुई कुण्ठा या मानसिक-कथा की अभिव्यक्ति है। ‘घाट-घाट का पानी’ कहानी में शीर्षक के अनुरूप ही विभिन्न सामाजिक यथार्थों की परतें खुलती हैं। स्वार्थ सिद्धि और श्रद्धापकर्षण का नया मुहावरा ‘पदयात्रा’ कहानी का व्यंग्य है।

लोककथा शिल्प में मशीनी युग की हृदयहीनता की शिकार तिला-मूँगा और अन्य बहनों की विपत्तिगाथा ‘तिला-मूँगा’ कहानी में है। ‘झगडा’ कहानी विघटित दाम्पत्य जीवन की दास्तान है। ‘गूँगा जहाज’ कहानी में बैलगाड़ी और जेट विमान, इन दो प्रतीकों के माध्यम से क्रमशः किसान मजदूर की ठहरी हुई जिन्दगी और सुविधा भोगी वर्ग के तेज रफ्तार की जिन्दगी के साथ वर्तमान सामाजिक वैषम्य को रेखांकित किया गया है। गरीब किसानों को परम्परा में मिली अज्ञानता का सटीक चित्रण ‘गूँगा जहाज’ में है। अभावग्रस्त ग्राम जीवन की नाटकीय आस्वाद से भरी पड़ताल दन्त-उपचार पर आधारित ‘दन्तरवा’ कहानी में है। लूट-पाट, हत्या डकैती, भ्रष्टाचार, ठगी और छल-छद्म का राष्ट्रव्यापी खेल, जिससे सामाजिक जीवन में ठहराव उत्पन्न हो गया है, इसका आभास ‘मदारी’ के खेल के विज्ञापन से हो जाता है। ‘समझ का प्रयोग’ कहानी में अध्यापकीय खीझ का कलात्मक सम्प्रेषण है। इसमें एक सुखद नाटकीय अन्त नन्हे बाबू के हृदय-परिवर्तन की घटना के रूप में होता है।

‘ग्राम जीवन के कथा शिल्पी डॉ. विवेकी राय’ प्रेमचंद और फणीश्वरनाथ रेणु (राही मासूम रजा भी) के बाद की पीढ़ी के सबसे सशक्त कथाकारों में शिखरस्थ हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता बाद के गाँवों को अपनी रचनाओं में केन्द्रित रखा। डॉ. राय पर केन्द्रित पुस्तक ‘सृजन यज्ञ जारी है’ के सम्पादकीय पर सहज विश्वास होता है कि ‘‘विवेकी राय न रोमाण्टिक-मोहाविष्ट- ग्रामलुब्ध हैं और न तो हीनता की ग्रन्थि से ग्रस्त आत्महंता कुण्ठित साहित्यकार हैं। वे गाँव की जड़ मानसिकता, मिथ्या अहंकारजन्य कुरीतियों और अज्ञान-अंधकारजन्य दुराग्रहों पर निर्मम प्रहार करते हैं। लेकिन गाँव में, गाँव की नैसर्गिक सम्पदा से, खेत-खलिहान से, अमराई से, मूल ग्राम-चरित्र-गाँव की सरलता-सज्जनता आत्मीयता हार्दिकता-आतिथ्य भाव से प्यार भी करते हैं। यह ममत्व, यह हार्दिकता आयातित या आरोपित नहीं है। यह सहज स्वाभाविक है। यह लेखक का अपना संस्कार है।’’ यही कारण है कि उनकी रचनाओं में लोकजीवन की संवेदना के साथ-साथ नैतिक मूल्यों के क्षरण पर चिंता, ग्राम्य विकास के प्रति व्यग्रता, लोकरज्जक तत्त्वों का अन्वेशण एवं किसान-मजदूरों के आर्थिक उन्नयन के प्रयासों को क्रियान्वयन में बदलने की ललक एक हद तक बेचैनी की तरह मिलेगी। एक सजग साहित्यकार के रूप में उन्होंने भी समाज के नकारात्मक तत्त्वों पर हथौड़ा चलाया है, और सकारात्मकता को आत्मसात किया है, यही कारण है कि पाठक इनकी रचनाओं को पढ़ते समय प्रयुक्त भावों के अनुसार भावुक, आक्रोशित या उल्लसित हो उठता है। गूँगा जहाज कथा संग्रह नये आकार व संस्करण सहित आपके हाथ में है।

एल.उमाशंकर सिंह

रामलीला


गोबरहा और खुराँव-ये दोनों गाँव एकदम पास-पास हैं-अन्तर केवल एक बगीचे का है। दोनों में एक ही गोत्र के किसान हैं और प्रायः समान हसब-हैसियत के हैं। दोनों गाँव मिलकर रहते हैं, कोई दुराव नहीं रहता। परन्तु गोबरहा गाँव वालों के समान खुराँव का जिक्र आता है तब वे ऐसा भाव प्रकट करते हैं जैसे उनके सामने वे ‘कुछ नहीं’ के बराबर हैं। कहते हैं, ‘‘अजी इन खुराँव वालों को तो हमारे गाँव का एक अदना बच्चा भी खड़े-खड़े चौराहे पर बेच देगा।’’ ऐसे अवसरों पर गोबरहा गाँव का हर आदमी यह भी कहते पाया जाता है कि हमारे गाँव का पागल भी उस गाँव के पागल को पाठ पढ़ा देता है।

आखिर एक दिन इस रहस्य का परदा खुल गया। मालूम हुआ कि बीस वर्ष पहले सचमुच गोबरहा में एक ऐसा सनकी व्यक्ति था जो अपने गाँव वालों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ-बढ़कर बातें करने का काफ़ी दिलचस्प मसाला छोड़ गया।
बात उन दिनों की है जब खुराँव की मठिया पर एक महंतजी बड़े मशहूर थे। देखने में एकदम दिव्य, परन्तु परम सनकी। सच बात तो यह है कि ऐसे लोगों को होश में रहने की ज़रूरत भी नहीं। अकेला शरीर। लम्बी ज़मींदारी। अपार सम्पत्ति। गद्दी का ऊँचा ओहदा यानी भगवान् से भी एक सीढ़ी ऊँचा गुरुपद प्राप्त। समस्त गाँव के कुलपूज्य, तिस पर भी गाँजे की संगति। गाँजा तो जैसे इस गद्दी की परम्परा ही रही और इसीलिए गाँव वालों के इस कथन में अचरज की कोई बात नहीं कि इस मठिया का जो भी महंत होता है, सनक जाता है।

तो हमारे महंतजी ने इस परम्परा की खूब रक्षा की। अन्तर इतना ही है कि चिलम के दाँव पर खेत के बीघों के कुछ अंक झुक गये और जमाने के फेर से प्रतिष्ठा पर भी थोड़ी आँच आयी। तब भी लक्ष्मी पैर तोड़ कर पड़ी रहती थीं। वैशाख में जब अन्न खलिहान से आता, कहीं रखने की जगह नहीं रह जाती। किसी ने पूछा कि गुरुजी इतना अन्न कैसे खर्च करेंगे ? महंतजी ने चट चिलम का मुँह दिखा दिया और कहा, ‘‘बच्चा ! इस पर रखते ही सब धुआँ बनकर उड़ जायगा।’’

ठाकुरजी का वह दरबार सबके लिए खुला रहता था। यह बात दूसरी थी कि भगवान् के लिए कम, परन्तु उनका राग-भोग पाने के लिए ही अधिकांश लोग मँडराते रहते थे। गाँव-देहात के सारे चिलमचट्टू, सनकी बेकार, बातफ़रोश, खाऊमल और शरीफ़ निकम्मों का वह अड्डा था। चिलम की सोहबत से महंतजी की महफ़िल सदा रौशन रहती थी। बाबा की गद्दी के नीचे, उनकी चरण-सेवा में भक्तों की यह भीड़ उस समय तक लगी रहती थी जब तक उनके सनकने का सीज़न नहीं आ जाता था।

जब लात, मुक्का, पनही, थप्पड़ और डण्डों के साथ चुनी हुई गालियों की मूसलाधार वर्षा होने लगती तो बड़े-बड़े धीर भक्तों का धीरज भी छूट जाता था। ऐसे में भी कुछ गाँजे के विकट रसिक बाबा के समस्त प्रहारों को आशीर्वाद स्वरूप झेलकर भी डटे रहते थे। महंतजी के ऐसे ही भक्तों में एक थे-गोबरहा गाँव के मर्दाना बाबाजी।

एक दिन कार्तिक के महीने में मर्दाना बाबा को ऐसा लगा कि वे भाँड हो गये और गाँव के पूरब बगीचे में अकेले कूद-कूद कर लगे घोड़ा छोड़ने। कहीं से एक लड़का आ गया। महाराज को इस विकट स्थिति में देखकर सिर पर पैर रखकर भाग खड़ा हुआ, पर क्षण-भर भी नहीं बीता कि उसके नेतृत्व में बालकों का एक भरपूर दल आ धमका। अब पूरी जमात जम गयी और रंग आ गया। ताली बजने लगी। लकड़ी के डण्डे और सिकटे बजने लगे। संयोग की बात थी, एक पुराना टीन भी मिल गया। अब बाबा की भँडैती पूरे ज़ोर पर थी। वे अपनी इस कला का प्रदर्शन गुरु महाराज के पास भी करना चाहते थे और यह पूरा जुलूस शंकरजी की बारात की भाँति खुराँव गाँव की ओर चला। चलना था ही कितनी दूर ? बात-की-बात में पहुँच गये।

घोड़े की भाँति हिनहिनाते और उछलते हुए जिस समय मर्दाना बाबा मठिया पर पहुँचे, महंतजी दम लगा रहे थे। यह उनकी मौजों का प्रलयकाल था, अतः बिहारी लोगों ने किनारा कस लिया था। यही कारण था कि वे अकेले थे। उन्होंने आव देखा न ताव, चट चिलम रख कर गरदन पर सवार हो गये। यही नहीं, ‘‘बड़ा कटहा घोड़ा है’’ कहकर एकाध एड़ जमा भी दिया। लड़कों का दल सहमा-सहमा-सा दूर से ही आनन्द लूट रहा था। बाबा ने दो चार चक्कर लगाये और अन्त में पसर गये।

‘‘इसी ताक़त पर फुर्र-फुर्र करता था रे, ऊँट की औलाद।’’ महंतजी बोले और धूल झाड़ कर खड़े हो गये। मर्दाना बाबा कब चूकने वाले थे। बोले-

दाना घास जब पाऊँ,
तब दुलकी चाल दिखाऊँ।

‘‘अच्छा तब आ।’’ और दोनों धीर धर्मटाट पर जुट गये, तमाम कारपरदाज और नौकर चाकर बाहर खेत की बुआई पर गये थे। अब थी बस मठिया और उसके बादशाह। खोल-खोल कर लगे निकालने-दही, चीनी, किशमिश, लड्डू, भूँजा, गुड़-बताशा, मुरब्बा घी और अचार आदि। लड़कों की थोड़ी हिम्मत बढ़ी और थोड़ा सरक कर पास आ गये। बाबा की जीभ से पानी गिरने लगा।

‘‘ऐसा इन्तज़ाम तो राजा जनक ने भी जानकी की शादी में नहीं किया था’’, बोले।
‘‘तूने जानकी की शादी देखी है ?’’
‘‘हाँ, देखी है।’’
‘‘कहाँ देखी है ?’’
‘‘रामनगर में।’’
‘‘हम भी जानकी की शादी करेंगे। पहले लो यह प्रसादी।’’ और हर चीज महंतजी खुले हाथों बाँटने लगे। बालवृन्द को मुँहमाँगी मुराद मिली और कहने की आवश्यकता नहीं कि बाबा भी खूब डँटे।
अब निकली एक हाथ की चाँदी की मढ़ी हुई काली चमकती चिलम और मला गया भरपूर गाँजा।

‘‘बम-बम शंकर, गड़े न काँटा-कंकर।’’ महंतजी ने जम कर दम लगाया और चिलम से एक बालिश्त ऊँची लपट उठ गयी। मुँह मानो भट्ठे की चिमनी हो गया और धुआँ जैसे बादलों के बच्चे, जो घर में घुस आये हों। बाबा की अब बारी रही। चिलम दबोच कर ज़ोर मारा कि चिलम पर ही लट गये। महंतजी ने एक लड़के को बुलाया-‘‘लौ बच्चा ! बूटी है।’’
लड़का पीछे सरकने लगा। अब महंतजी गरम हो उठे-‘‘ऐं ! फतिंगे की जात, कहाँ जाता है ? धत्तेरी...।’’ बिजली की तरह झपटे, परन्तु पहले से ही सजग बालमण्डली हवा हो गयी।

‘‘जाओ साले, अकेले ही रामलीला होगी।’’ महंतजी बड़बड़ाये और फाटक बन्द कर लौट आये।
‘‘हाँ, महाराज, कुतिया तो है ही।’’ बाबा ने मुस्करा कर अर्ज़ किया।
‘‘अरे मुरादाबाद का मल्लू ! हनुमान तो मैं हूँ। जानता नहीं है ?’’ महंतजी ने सीना तान दिया।
‘‘तब आज कौन लीला होगी ?’’
‘‘जो भी हो। लगे लंकाकाण्ड।’’
बरामदे में एक दरी बिछ गयी। उस पर एक चौकी रखी गयी। चौकी पर कालीन डाल दिया गया और रामायण की एक पोथी रख दी गयी। महंतजी ने एक लाल रंग की जाँघिया कस ली। एक कच्चे बाँस की छड़ी से पूँछ बना ली और गदा लेकर फाँदने लगे।
मर्दाना बाबा ने ज़ोर लगाकर पूरी लय बाँधते हुए चौपाई बोलकर रामलीला का शुभारम्भ किया-

कपि बन्धन सुनि निशिचर धाये,
कौतुक लागि सभा ले आये।

फिर बोले-‘‘देखो हनुमान, तुम बँधकर आ गये। मैं रावण हूँ। तुम बहुत बक-बक करोगे तो तुरन्त फाँसी पर लटकवा दिये जाओगे।’’
महंतजी ने एक पैंतरा बदलते हुए कहा-‘‘एकदम गलत ! अरे रावण के बच्चे, तुमको यह पूछना चाहिए कि तुम कौन हो और किसके बल से हमारा बगान चौपट कर दिया तथा हमारे सिपाहियों को भी मारा। खैर आगे चौपाई बोलो।

जिन मोंहि मारा तिन्ह मैं मारा,
तापर बाँधे तनय तुम्हारा।

चौपाई बोलकर बाबा ने व्याख्या शुरू की-‘‘हे दस मूड़ी वाले रावण ! जिन्होंने हमको मारा उन्हें हमने पीटा। इस पर तुम्हारा बेटा हमको पकड़ लाया। अगर तुम खैरियत चाहते हो तो जानकी को दे दो। अन्यथा तुमको और तुम्हारी लंका को....।’’
‘‘क्या कर लोगे ? अभी चाहूँ तो गरदन बाँधकर तुम्हें समुद्र में फिकवा दूँ। रावण को तू मामूली समझता है ?’’ महंतजी ने कहा।
‘‘सब गड़बड़ हो गया। पता नहीं चल रहा है कि तुम रावण हो अथवा मैं हूँ। फिर यह कथा कहाँ की आ गयी ?’’ बाबाजी ने कहा।
‘‘अच्छा, फिर से ठीक हो जाय। मैं रामचन्द्रजी का दूत वीर हनुमान और तुम लंका के राक्षसराज रावण ! बस ! आगे चौपाई बोलो ।’’ महंतजी गदा ठीक करते हुए बोले।
‘‘आगे तो क्षेपक आ गया।’’
‘‘उसके बाद की कथा बोलो।’’
‘‘उसके बाद तो लंका ही जल गयी है।’’
‘‘तब उसे जल जाने दो।’’ महंतजी गरजे।

रहा न नगर बसन घृत तेला,
बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला।

मर्दाना बाबा बोले-‘‘देखो हनुमान, नगर में बसन, घृत और तेल नहीं रह गया।’’
‘‘तो मैं क्या करूँ ? मैं तो रामचन्द्र के गोल का हूँ। तू ही निशाचर है न ? लाओ घी-तेल सब खोज कर।’’
महंतजी की आज्ञा पाकर बाबा मठिया में से खोज-खोज कर कपड़ा, चिरकुट, मिट्टी का तेल, कड़ुआ तेल, रेंडी का तेल, तिल का तेल और घी सब उठा लाये।
‘‘यह छोटी-सी पूँछ में कैसे बाँधा जायगा।’’
‘‘अरे उल्लू के औजार ! हमारी पूँछ तो लग्गी जैसी बढ़ती चली जायगी ? लाओ वह लाठी। उसी में बाँधों। बोलो एक बार, राजा रामचन्द्र की जै।’’
‘‘जै ! जै !! जै !!!’’ बाबा ने दुहराया।
‘‘तू हमारी जै क्यों बोलता है ? अपने बादशाह की जै बोल।’’
मर्दाना बाबा ने जोर लगाया, ‘‘बोलो, बोलो पण्डित जवाहरलाल नेहरू की जै !’’
‘‘लुच्चा कहीं का ! रामलीला हो रही है कि वोट हो रहा है। फिर से बोलो !’’ महंतजी ने डाँटा।
बाबा ने रावण की जय-जयकार की। तमाम कपड़ा लाठी में लपेट दिया। उसे रस्सी से लपेटते भी गये। ऊपर से सारा तेल और घी गिरा दिया।
अब हनुमानजी एक हाथ से कन्धे पर रखी गदा और एक से तेज-पट निर्मित लाठी को पूँछ पकड़े बरामदे में पैंतरा बदलने लगे। इसी समय मर्दाना बाबा चौपाई की लय में झूम उठे-

बाजहिं ढोल देहिं सब तारी,
नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी।

महंतजी बोले-‘‘देखो, मैं नगर में घूम रहा हूँ। तुम मेरे पीछे बाजा बजवा दो। बोलो, बजरंग बली की जै।’’
वहाँ ढोल बजाने वाला कौन था ? बाबा स्वयं उनके पीछे-पीछे देर तक ढोल बजाते रहे। जब थक गये तो बोले-
‘‘ठहरो हनुमान। अब तुम्हारी पूँछ जलायी जायगी।’’
‘‘जलायी जायगी ?’’ महंतजी चौंक पड़े। पुनः धीरे से कहा-‘‘देखो यार, बड़ी वस लीला लग रही है। देखते नहीं, पसीना छूट रहा है। मैं तो थक गया। अब एक चिलम बादशाही कट जाय। क्यों ?’’
‘‘ठीक है। हमारा भी दम फूल रहा है।’’
अब दोनों वीर चिलम पर जम गये। तमाखू बना। चिलम पर रखा गया। रस्सी की बिठई जलाकर लाल हो गयी और चिलम पर बैठा दी गयी। मुँह का इंजन चालू हुआ। एक गहरा सर्राटा और धुएँ के छल्ले से बरामदा भर गया। महावीरजी लाल हो गये और रावण पीला।
‘‘अब बोल चौपाई,’’ महंतजी ने उठकर अपनी पूँछ सँभाली।
महाराज ने ज़ोर से उठाया-

जरइ नगर भा लोग बेहाला,

.....................................
और महंतजी आधे में ही चौपाई काटकर मर्दाना बाबा के पास जाकर चिढ़ाने की मुद्रा में चौपाई मिलाकर बोले-

आ पावक देहु लगाई कृपाला।

बाबा को अपनी भूल मालूम हुई। ‘‘अरे....रे....रे....रे....यह तो भूल ही गया।’’ और चट से दियासलाई की जलती तीली कृत्रिम पूँछ में लगा दी।
महंतजी दूनी ताक़त से बजरंग बली की जै बोलकर उछल पड़े। आगे भूसे की बखारवाली छानी थी। लुकाड़ के स्पर्श से वह आकाश चूमने लगी। बरामदे के पास रखे पुआल के बोझ धधक उठे। बरामदे की अगली और दो जगह फनफनाने लगीं। वह उत्तर का छज्जा बारूद हो गया। आनन-फ़ानन में चारों ओर आग फैल गयी। महंतजी और हुंकार भरने लगे। चौपाई बोलने की डाँट पर बाबा डरते-डरते बोले-

उलटि-पलटि कपि लंका जारी।

‘‘बोल...बो....आगे क्यों नहीं बोलता है ?’’
‘‘महाराज, सिन्धु तो कहीं दिखाई ही नहीं पड़ता है, आगे क्या बोलूँ ?’’
अब सिन्धु का बेटा सिन्धौटा ! जल्दी से कहीं सिन्धु खोजो, नहीं तो तुम्हें भी इसी पूँछ से पोंछ दूँगा।’’ महंतजी ने कहा और फिर पैंतरे पर लौट गये। उनके आने तक बाबा को उत्तर देना था। जान मुसीबत में पड़ गयी।
‘‘खोजा कहीं कि नहीं ?’’
‘‘नहीं...महाराज...पर हाँ...याद आया। सिन्धु तो आपके दरवाजे पर ही है, सरकार ! काफ़ी गहरा ! पक्का ! पानी भी खूब है।’’ बाबा ने कहा।
‘‘तब ठीक ! बोल चौपाई !

उलटि-पलटि कपि लंका जारी।
कूदि परे तब सिन्धु मँझारी।

मर्दाना बाबा ने फाटक खोल कर महंतजी को ‘सिन्धु’ दिखा दिया और वे कुएँ में जलती लाठी फेंककर कूद पड़े।
मठिया कार्तिक के सुनसान में धाँय-धाँय जल रही थी। जब तक कोई आवे, मर्दाना बाबा जैसे आये थे वैसे ही घोड़ा छोड़ते अपने गोबरहा गाँव की ओर चल पड़े।

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