धर्म एवं दर्शन >> भ्रमरगीतसार भ्रमरगीतसारआचार्य रामचंद्र शुक्ल
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महाकवि सूरदास के श्रेष्ठतम गीत
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
महाकवि सूरदास
हिंदुओं के स्वातंत्र्य के साथ ही वीरगाथाओं की परंपरा भी काल के अँधेरे
में जा छिपी। उस हीन दशा के बीच वे अपने पराक्रम के गीत किस मुँह से गाते
और किस कानों से सुनते ? जनता पर गहरी उदासी छा गई थी। राम और रहीम को एक
बतानेवाली बानी मुरझाए मन को हरा न कर सकी; क्योंकि उसके भीतर उस कट्टर
एकेश्वरवाद का सुर मिला हुआ था जिसका ध्वंसकारी स्वरूप लोग नित्य अपनी
आँखों से देख रहे थे। सर्वस्व गँवाकर हिंदू जाति अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाए
रखने की वासना नहीं छोड़ सकी थी। इससे उसने अपनी सभ्यता, अपने चिरसंचित
संस्कार आदि की रक्षा के लिए राम और कृष्ण का आश्रय लिया; और उनकी भक्ति
का स्रोत देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फैल गया। जिस प्रकार बंग देश
में कृष्ण चैतन्य ने, उसी प्रकार उत्तर भारत में वल्लभाचार्यजी ने परम भाव
से उस आनंदविधायनी कला का दर्शन कराकर, जिसे प्रेम कहते हैं, जीवन में
सरसता का संचार किया। दिव्य प्रेमसंगीत की धारा में इस लोक का सुखद पक्ष
निखर आया और जमती हुई उदासी या खिन्नता बह गई।
जयदेव की देववाणी की स्निग्ध पीयूषधारा जो काल की कठोरता में दब गई थी, अवकाश पाते ही लोकभाषा की सरसता में परिणत होकर मिथिला की अमराइयों में, विद्यापति के कोकिलकंठ से प्रकट हुआ और आगे चलकर ब्रज के करील कुंजों के बीच फैले मुरझाए मनों को सींचने लगी। आचार्यों की छाप लगी हुई आठ वीणाएँ श्रीकृष्ण की प्रेमलीला का कीर्तन करने उठीं, जिनमें सबसे ऊँची, सुरीली और मधुर झनकार अंधे कवि सूरदास की वीणा की थी। ये भक्त कवि सगुण उपासना का रास्ता साफ करने लगे। निर्गुण उपासना की नीरसता और अग्राह्यता दिखाते हुए ये उपासना का हृदयग्राही स्वरूप सामने लाने में लग गए। इन्होंने भगवान का प्रेममय रूप ही लिया; इससे हृदय की कोमल वृत्तियों के ही आश्रय और आलंबन खड़े किए। आगे जो इनके अनुयायी कृष्णभक्त हुए वे भी उन्हीं वृत्तियों में लीन रहे। हृदय की अन्य वृत्तियों (उत्साह आदि) के रंजनकारी रूप भी यदि वे चाहते, तो कृष्ण में ही मिल जाते; पर उनकी ओर वे न बढ़े। भगवान का वह व्यक्त स्वरूप यद्यपि एकदेशीय था—केवल प्रेममय था—पर उस समय नैराश्य का कारण जनता के हृदय में जीवन की ओर से एक प्रकार की जो अरुचि उत्पन्न हो रही थी उसे हटाने में उपयोगी हुआ।
मनुष्यता के सौन्दर्यपूर्ण और माधुर्यपूर्ण पक्ष को दिखाकर इन कृष्णोपासक वैष्णव कवियों ने जीवन के प्रति अनुराग जगाया, या कम-से-कम जीने की चाह बनी रहने दी।
बाल्यकाल और यौवनकाल कितने मनोहर हैं ! उनके बीच नाना मनोरम प्रस्थितियों के विशद चित्रण द्वारा सूरदास जी ने जीवन की जो रमणीयता सामने रखी उससे गिरे हुए हृदय नाच उठे। ‘वात्सल्य’ और ‘श्रृंगार’ के क्षेत्रों का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बंद आँखों से किया, उतना किसी और कवि ने नहीं। इन क्षेत्रों का कोना-कोना वे झाँक आए। उक्त दोनों रसों के प्रवर्तक रतिभाव के भीतर की जितनी मानसिक वृत्तियों और दशाओं का अनुभव और प्रत्यक्षीकरण सूर कर सके, उतना और कोई नहीं। हिंदी साहित्य में श्रृंगार का रसराजत्य यदि किसी ने पूर्णरूप से दिखाया तो सूर ने। उनकी उमड़ती हुई वाग्धारा उदाहरण रचनेवाले कवियों के समान गिनाए हुए संचारियों से बंधकर चलनेवाली न थी। यदि हम सूर के केवल विप्रलंभ श्रृंगार को ही लें।
अथवा उनके भ्रमरगीत को ही देखें, तो न जाने कितने प्रकार की मानसिक दिशाएँ ऐसी मिलेंगी, जिनके नामकरण तक नहीं हुए हैं। मैं इसी को कवियों की पहुँच कहता हूँ। यदि हम मनुष्य जीवन के संपूर्ण क्षेत्र को लेते हैं, तो सूरदास जी की दृष्टि परिमित दिखाई पड़ती है। पर यदि उनके चुने हुए क्षेत्रों (श्रृंगार और वात्सल्य) को लेते हैं तो उनके भीतर उनकी पहुँच का विस्तार बहुत अधिक पाते हैं। उन क्षेत्रों में इतना अंतर्दृष्टि विस्तार और किसी कवि का नहीं। बात यह है कि सूर को ‘गीतकाव्य’ की जो परंपरा (जयदेव और विद्यापति की) मिली, वह श्रृंगार की ही थी इसी से सूर के संगीत में भी उसी की प्रधानता रही। दूसरी बात है उपासना का स्वरूप। सूरदास जी वल्लभाचार्य जी के शिष्य थे, जिन्होंने भक्तिमार्ग में भगवान का प्रेममय स्वरूप प्रतिष्ठित करके उसके आकर्षण द्वारा ‘सायुज्य मुक्ति का मार्ग दिखाया था। भक्तिसाधना के इस चरम लक्ष्य या फल (सामुज्य) की ओर सूर ने कहीं-कहीं संकेत भी किया है, जैसे—
जयदेव की देववाणी की स्निग्ध पीयूषधारा जो काल की कठोरता में दब गई थी, अवकाश पाते ही लोकभाषा की सरसता में परिणत होकर मिथिला की अमराइयों में, विद्यापति के कोकिलकंठ से प्रकट हुआ और आगे चलकर ब्रज के करील कुंजों के बीच फैले मुरझाए मनों को सींचने लगी। आचार्यों की छाप लगी हुई आठ वीणाएँ श्रीकृष्ण की प्रेमलीला का कीर्तन करने उठीं, जिनमें सबसे ऊँची, सुरीली और मधुर झनकार अंधे कवि सूरदास की वीणा की थी। ये भक्त कवि सगुण उपासना का रास्ता साफ करने लगे। निर्गुण उपासना की नीरसता और अग्राह्यता दिखाते हुए ये उपासना का हृदयग्राही स्वरूप सामने लाने में लग गए। इन्होंने भगवान का प्रेममय रूप ही लिया; इससे हृदय की कोमल वृत्तियों के ही आश्रय और आलंबन खड़े किए। आगे जो इनके अनुयायी कृष्णभक्त हुए वे भी उन्हीं वृत्तियों में लीन रहे। हृदय की अन्य वृत्तियों (उत्साह आदि) के रंजनकारी रूप भी यदि वे चाहते, तो कृष्ण में ही मिल जाते; पर उनकी ओर वे न बढ़े। भगवान का वह व्यक्त स्वरूप यद्यपि एकदेशीय था—केवल प्रेममय था—पर उस समय नैराश्य का कारण जनता के हृदय में जीवन की ओर से एक प्रकार की जो अरुचि उत्पन्न हो रही थी उसे हटाने में उपयोगी हुआ।
मनुष्यता के सौन्दर्यपूर्ण और माधुर्यपूर्ण पक्ष को दिखाकर इन कृष्णोपासक वैष्णव कवियों ने जीवन के प्रति अनुराग जगाया, या कम-से-कम जीने की चाह बनी रहने दी।
बाल्यकाल और यौवनकाल कितने मनोहर हैं ! उनके बीच नाना मनोरम प्रस्थितियों के विशद चित्रण द्वारा सूरदास जी ने जीवन की जो रमणीयता सामने रखी उससे गिरे हुए हृदय नाच उठे। ‘वात्सल्य’ और ‘श्रृंगार’ के क्षेत्रों का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बंद आँखों से किया, उतना किसी और कवि ने नहीं। इन क्षेत्रों का कोना-कोना वे झाँक आए। उक्त दोनों रसों के प्रवर्तक रतिभाव के भीतर की जितनी मानसिक वृत्तियों और दशाओं का अनुभव और प्रत्यक्षीकरण सूर कर सके, उतना और कोई नहीं। हिंदी साहित्य में श्रृंगार का रसराजत्य यदि किसी ने पूर्णरूप से दिखाया तो सूर ने। उनकी उमड़ती हुई वाग्धारा उदाहरण रचनेवाले कवियों के समान गिनाए हुए संचारियों से बंधकर चलनेवाली न थी। यदि हम सूर के केवल विप्रलंभ श्रृंगार को ही लें।
अथवा उनके भ्रमरगीत को ही देखें, तो न जाने कितने प्रकार की मानसिक दिशाएँ ऐसी मिलेंगी, जिनके नामकरण तक नहीं हुए हैं। मैं इसी को कवियों की पहुँच कहता हूँ। यदि हम मनुष्य जीवन के संपूर्ण क्षेत्र को लेते हैं, तो सूरदास जी की दृष्टि परिमित दिखाई पड़ती है। पर यदि उनके चुने हुए क्षेत्रों (श्रृंगार और वात्सल्य) को लेते हैं तो उनके भीतर उनकी पहुँच का विस्तार बहुत अधिक पाते हैं। उन क्षेत्रों में इतना अंतर्दृष्टि विस्तार और किसी कवि का नहीं। बात यह है कि सूर को ‘गीतकाव्य’ की जो परंपरा (जयदेव और विद्यापति की) मिली, वह श्रृंगार की ही थी इसी से सूर के संगीत में भी उसी की प्रधानता रही। दूसरी बात है उपासना का स्वरूप। सूरदास जी वल्लभाचार्य जी के शिष्य थे, जिन्होंने भक्तिमार्ग में भगवान का प्रेममय स्वरूप प्रतिष्ठित करके उसके आकर्षण द्वारा ‘सायुज्य मुक्ति का मार्ग दिखाया था। भक्तिसाधना के इस चरम लक्ष्य या फल (सामुज्य) की ओर सूर ने कहीं-कहीं संकेत भी किया है, जैसे—
सीत उष्न सुख दुख नहिं मानै, हानि भए कुछ सोच न राँचै।
जाय समाय सूर वा निधि में बहुरि न उलटि जगत मैं नाचै।।
जाय समाय सूर वा निधि में बहुरि न उलटि जगत मैं नाचै।।
जिस प्रकार ज्ञान की चरम सीमा ज्ञाता और ज्ञेय की एकता है, उसी प्रकार
प्रेमभाव की चरमसीमा आश्रय और आलंबन की एकता है। अतः भगवद्भक्ति की साधना
के लिए इसी प्रेमत्व को वल्लभाचार्य ने सामने रखा; और उनके अनुयायी
कृष्णभक्त कवि इसी को लेकर चले। गोस्वामी तुलसीदास जी की दृष्टि व्यक्तिगत
साधना के अतिरिक्त लोकपक्ष पर भी थी; इसी से वे मर्यादापुरुषोत्तम के
चरित्र को लेकर चले; और उसमें लोक रक्षा के अनुकूल जीवन की और वृत्तियों
का भी उन्हें उत्कर्ष दिखाया और अनुरंजन किया।
उक्त प्रेमतत्व की पुष्टि में ही सूर की वाणी मुख्यतः जान पड़ती है। रतिभाव के तीनों प्रबल और प्रधान रूप—भगवद्विषयक रति, वात्सल्य रति और दांपत्य रति-सूर ने लिए हैं। यद्यपि पिछले दोनों प्रकार के रति भाव भी कृष्णोन्मुख होने के कारण तत्वतः भगवत्प्रेम के अंतर्भूत ही हैं, पर निरूपण भेद से और रचना-विभाग की दृष्टि से वे अलग रखे गए हैं। इस दृष्टि से विभाग करने से विनय के जितने पद है, वे भगवद्विषयक रति के अंतर्गत आवेंगे; बाललीला के पद वात्सल्य के अंतर्गत और गोपियों के प्रेमसंबंधी पद दांपत्य रतिभाव के अंतर्गत होंगे। हृदय से निकली हुई प्रेम की इन तीनों प्रबल धाराओं से सूर ने बड़ा भारी सागर भरकर तैयार किया है।
कवि कर्मविधान के दो पक्ष होते हैं—विभावपक्ष और भावपक्ष। कवि एक ओर तो ऐसी वस्तुओं का चित्रण करता है जो मन में कोई भाव उठाने या उठे हुए भाव को और जगाने में समर्थ होती है; और दूसरी ओर उन वस्तुओं के अनुरूप भावों के अनेक स्वरूप शब्दों द्वारा व्यक्त करता है। एक विभावपक्ष है, दूसरा भाव पक्ष है। कहने की आवश्यकता नहीं कि काव्य में ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं, अतः दोनों रहते हैं। जहाँ एक ही वर्ण का वर्णन रहता है, वहाँ भी दूसरा पक्ष अव्यक्त रूप में रहता है। जैसे, नायिका के रूप या नखशिख का कोरा वर्णन लें, तो उसमें भी आश्रय का रति भाव अव्यक्त रूप में वर्तमान रहता है। भाव पक्ष में सूर की पहुँच का उल्लेख ऊपर हो चुका है। सूरदास जी ने श्रृंगार और वातसल्य ये ही दो रस लिए हैं। अतः विभावपक्ष में भी उनका वर्णन उन्हीं वस्तुओं तक परिमित हैं, जो उक्त दोनों रसों के आलंबन या उद्दीपन के रूप में आ सकती हैं; जैसे राधा और कृष्ण के नाना रूप, वेश और चेष्टाएँ तथा करीलकुंज, उपवन, यमुना, पवन चंद्र, ऋतु इत्यादि।
विभावपक्ष के अंतर्गत भी वस्तुएँ दो रूपों में लाई जाती हैं—वस्तु रूप में और अलंकार रूप में; अर्थात् प्रस्तुत रूप में और अप्रस्तुत रूप में। मान लीजिए कि कोई कवि कृष्ण का वर्णन कर रहा है। पहले वह कृष्ण के श्याम या नीलवर्ण शरीर को, उस पर पड़े हुए पीतांबर को, त्रिभंगी मुद्रा को, स्मित आनन को, हाथ में ली हुई मुरली को, सिर के कुंचित केश और मोर मुकुट आदि को समाने रखता है। यह विन्यास वस्तु रूप में हुआ। इसी प्रकार का विन्यास यमुना तट, निकुंज की लहराती लताओं, चंद्रिका, कोकिलकूजन आदि का होगा। इनके साथ ही यदि कृष्ण के शोभावर्णन में घन और दामिनी, सनाल कमल आदि उपमान के रूप में वह लाता है, तो यह विन्यास अलंकार रूप में होगा।
वर्ण्यविषय की परिमिति के कारण वस्तु-विन्यास का जो संकोच सूर की रचना में दिखाई पड़ता है उसकी बहुत कुछ कसर अलंकार रूप में लाए हुए पदार्थों के प्राचुर्य द्वारा पूरी हो जाती है। कहने का तात्पर्य यह कि प्रस्तुत रूप में लाए हुए पदार्थों की संख्या सूर में कम, पर अलंकार रूप में लाए हुए पदार्थों की संख्या बहुत अधिक है। यह दूसरे प्रकार की (आलंकारिक) रूपयोजना या व्यापार योजना किसी और (प्रस्तुत) रूप के प्रभाव को बढ़ाने के लिए ही होती है, अतः इसमें लाए हुए रूप या व्यापार ऐसे ही होने चाहिए, जो प्रभाव में उन प्रस्तुत रूपों या व्यापार के समान हों। सूर अलंकार योजना के लिए अधिकतर ऐसे ही पदार्थ लाए हैं।
सारांश यह कि यदि हम ब्राह्य सृष्टि से लिए रूपों और व्यापारों के संबंध में सूर की पहुँच का विचार करते हैं, तो यह बात स्पष्ट देखन में आती है कि प्रस्तुत रूप में लिए हुए पदार्थों और व्यापारों की संख्या पिरमिति है। उन्होंने कृष्ण और राधा के अंगप्रत्यंग, मुद्राओं और चेष्टाओं, यमुनातट, वंशीवट, निकुंज, गोचारण, वनविहार, बाललीला, चोरी नटखटी तथा कविपरिपाटी में परिगणित ऋतुसुलभ वस्तुओं तक ही अपने को रखा है।
इसके कारण दो हैं—पहली बात तो यह है कि इनकी रचना ‘गीत-काव्य’ है जिसमें मधुर ध्वनिप्रवाह के बीच कुछ चुने हुए पदार्थों और व्यापारों की झलक भर काफी होती है। गोस्वामी तुलसीदास जी के रामचरितमानस के समान सूरसागर प्रबंध काव्य नहीं है, जिसमें कथाक्रम से अनेक पदार्थों और व्यापारों की श्रृंखला जुड़ती चलती है। सूरदास जी ने प्रत्येक लीला या प्रसंग पर फुटकर पद कहे हैं; एक पद दूसरे पद से संबद्ध नहीं है। प्रत्येक पद स्वतंत्र है। इसी से किसी एक प्रसंग पर कहे हुए पदों को हम लेते हैं, तो एक ही घटना से संबंध रखनावेली एक ही बात भिन्न-भिन्न रागिनियों में कुछ फेरफार के साथ बहुत से पदों में मिलती है, जिससे पढ़नेवाले का जी कभी-कभी ऊब सा जाता है। यह बात प्रकृत प्रबंध-काव्य में नहीं होती।
परिमित का दूसरा कारण पहले ही कहा जा चुका है कि सूरदास जी ने जीवन की वास्तव में दो ही वृत्तियाँ ली हैं—बालवृत्ति और यौनवृत्ति।
इन दोनों के अंतर्गत आए हुए व्यापार क्रीड़ा, उमंग और उद्रेक के रूप में ही हैं। प्रेम भी घटनापूर्ण नहीं है। उसमें किसी प्रकार की प्रयत्न विस्तार नहीं है जिसके भीतर नई-नई वस्तुओं और व्यापारों का संनिवेश होता चलता है। लोकसंघर्ष से उत्पन्न विविध व्यापारों की योजना सूर का उद्देश्य नहीं है। उनकी रचना जीवन की अनेकरूपता की ओर नहीं गई है; बालक्रीड़ा, प्रेम के रंगरहस्य और उसकी अतृप्त वासना तक ही रह गई है। जीवन की गंभीर समस्याओं से तटस्थ रहने के कारण उसमें वह वास्तुगांभीर्य नहीं है जो गोस्वामी जी की रचनाओं में है। परिस्थित की गंभीरता के अभाव से गोपियों के वियोग में भी वह गंभारती दिखायी नहीं पड़ती जो सीता के वियोग में है।
उनका वियोग खाली बैठे का सा काम दिखाई पड़ती है। सीता अपने प्रिय से वियुक्त होकर कई सौ कोस दूर दूसरे द्वीप के राक्षसों के बीच पड़ी हुई थीं। गोपियों के गोपाल केवल दो चार कोस दूर के एक नगर में राजसुख भोग रहे थे। सूर का वियोगवर्णन वियोगवर्णन के लिए ही है, परिस्थिति के अनुरोध से नहीं। कृष्ण गोपियों के साथ क्रीड़ा करते-करते कुंज में या झाड़ी में छिपते हैं; या यों कहिए कि थोड़ी देर के लिए अन्तर्ध्यान हो जाते हैं। बस गोपियाँ मूर्च्छित हो कर गिर पड़ती हैं। उनकी आँखों में आँसुओं की धारा उमड़ चलती है। पूर्ण वियोगदशा उन्हें आ घेरती है। यदि परिस्थिति का विचार करें तो ऐसे विरहवर्णन असंगत प्रतीत होगा। पर जैसा कहा जा चुका है, सूरसागर प्रबंध काव्य नहीं है, जिसमें वर्णन की उत्सुक्ता या अनुपयुक्तता के निर्णय में घटना या परिस्थित के विचार का बहुत कुछ योग रहता है।
पारिवारिक और सामाजिक जीवन के बीच हम सूर के बालकृष्ण को ही थोड़ा बहुत देखते हैं। कृष्म के केवल बालचरित्र का प्रभाव नंद, यशोदा आदि परिवार के लोगों और पड़ोसियों पर पड़ता दिखायी देता है। सूर का बाललीला वर्णन ही पारिवारिक जीवन से संबद्ध है। कृष्ण के छोटे-छोटे पैरों से चलने, मुँह में मक्खन लिपटाकर भागने या इधर-उधर नटखटी करने पर नंद बाबा और यशोदा मैया का कभी पुलकित होना, कभी खीझना, कभी पड़ोसियों का प्रेम उलाहना देना आदि बातें एक छोटे से जनसमूह के भीतर आनंद का संचार करती दिखाई गई हैं। इसी बाललीला के भीतर कृष्णचरित का लोकपक्ष अधिकतर आया है; जैसे कंस के भेजे हुए असुरों के उत्पात से गोपों को बचाना, काली नाग को नाथकर लोगों का भय छुड़ाना। इंद्र के कोप से डूबी हुई बस्ती की रक्षा करने और नंद को वरुणलोक से लाने का वृतांत यद्यपि प्रेमलीला आरम्भ होने के पीछे आया है, पर उससे संबंध नहीं है, कृष्ण के चरित्र में जो यह थोड़ा बहुत लोक संग्रह दिखाई पड़ता है, उसके स्वरूप में सूर की वृत्ति लीन हुई है, जिस शक्ति से उस बाल्यवस्था में ऐसे प्रबल शत्रुओं का दमन किया गया उसके उत्कर्ष का अनुरंजनकारी और विस्तृत वर्णन उन्होंने नहीं किया है।
जिस ओज और उत्साह से तुलसीदास जी ने मारीच, ताड़का, खरदूषण आदि के निपात का वर्णन किया है उस ओज और उत्साह से सूरदास जी ने बेकासुर, अघासुर, कंस आदि के वध और इंद्र के गर्वमोचन का वर्णन नहीं किया है। कंस और उसके साथी असुर भी कृष्ण के शत्रु के रूप में ही सामने आते हैं, लोकशत्रु या लोकपीड़क के रूप में नहीं। रावण के साथी राक्षसों के सामने वे ब्राह्मणों को चबा-चबाकर उनकी हड्डियों का ढेर लगानेवाले या स्त्री चुराने वाले नहीं दिखाई पड़ते। उसके कारण वैसा हाहाकार नहीं सुनाई पड़ता। उनका अत्याचार ‘सभ्य अत्याचार’ जान पड़ता है। शक्ति, शील और सौंदर्य, भगवान की इन विभूतियों में से सूर ने केवल सौंदर्य तक ही अपने को रखा है, जो प्रेम को आकर्षित करता है। शेष दो विभूतियों को भी लेकर भगवान् के लोकरंजनकारी स्वरूप की पूर्ण प्रतिष्ठा हमारे हिंदी साहित्य में गोस्वामी तुलसीदास जी ने की। श्रद्धा या महत्व बुद्धि पुष्ट करने के लिए कृष्ण की शक्ति या लौकिक महत्व की प्रतिष्ठा में आग्रह न दिखाने के कारण ही सूर की उपासना सख्य भाव की कही जाती है।
उक्त प्रेमतत्व की पुष्टि में ही सूर की वाणी मुख्यतः जान पड़ती है। रतिभाव के तीनों प्रबल और प्रधान रूप—भगवद्विषयक रति, वात्सल्य रति और दांपत्य रति-सूर ने लिए हैं। यद्यपि पिछले दोनों प्रकार के रति भाव भी कृष्णोन्मुख होने के कारण तत्वतः भगवत्प्रेम के अंतर्भूत ही हैं, पर निरूपण भेद से और रचना-विभाग की दृष्टि से वे अलग रखे गए हैं। इस दृष्टि से विभाग करने से विनय के जितने पद है, वे भगवद्विषयक रति के अंतर्गत आवेंगे; बाललीला के पद वात्सल्य के अंतर्गत और गोपियों के प्रेमसंबंधी पद दांपत्य रतिभाव के अंतर्गत होंगे। हृदय से निकली हुई प्रेम की इन तीनों प्रबल धाराओं से सूर ने बड़ा भारी सागर भरकर तैयार किया है।
कवि कर्मविधान के दो पक्ष होते हैं—विभावपक्ष और भावपक्ष। कवि एक ओर तो ऐसी वस्तुओं का चित्रण करता है जो मन में कोई भाव उठाने या उठे हुए भाव को और जगाने में समर्थ होती है; और दूसरी ओर उन वस्तुओं के अनुरूप भावों के अनेक स्वरूप शब्दों द्वारा व्यक्त करता है। एक विभावपक्ष है, दूसरा भाव पक्ष है। कहने की आवश्यकता नहीं कि काव्य में ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं, अतः दोनों रहते हैं। जहाँ एक ही वर्ण का वर्णन रहता है, वहाँ भी दूसरा पक्ष अव्यक्त रूप में रहता है। जैसे, नायिका के रूप या नखशिख का कोरा वर्णन लें, तो उसमें भी आश्रय का रति भाव अव्यक्त रूप में वर्तमान रहता है। भाव पक्ष में सूर की पहुँच का उल्लेख ऊपर हो चुका है। सूरदास जी ने श्रृंगार और वातसल्य ये ही दो रस लिए हैं। अतः विभावपक्ष में भी उनका वर्णन उन्हीं वस्तुओं तक परिमित हैं, जो उक्त दोनों रसों के आलंबन या उद्दीपन के रूप में आ सकती हैं; जैसे राधा और कृष्ण के नाना रूप, वेश और चेष्टाएँ तथा करीलकुंज, उपवन, यमुना, पवन चंद्र, ऋतु इत्यादि।
विभावपक्ष के अंतर्गत भी वस्तुएँ दो रूपों में लाई जाती हैं—वस्तु रूप में और अलंकार रूप में; अर्थात् प्रस्तुत रूप में और अप्रस्तुत रूप में। मान लीजिए कि कोई कवि कृष्ण का वर्णन कर रहा है। पहले वह कृष्ण के श्याम या नीलवर्ण शरीर को, उस पर पड़े हुए पीतांबर को, त्रिभंगी मुद्रा को, स्मित आनन को, हाथ में ली हुई मुरली को, सिर के कुंचित केश और मोर मुकुट आदि को समाने रखता है। यह विन्यास वस्तु रूप में हुआ। इसी प्रकार का विन्यास यमुना तट, निकुंज की लहराती लताओं, चंद्रिका, कोकिलकूजन आदि का होगा। इनके साथ ही यदि कृष्ण के शोभावर्णन में घन और दामिनी, सनाल कमल आदि उपमान के रूप में वह लाता है, तो यह विन्यास अलंकार रूप में होगा।
वर्ण्यविषय की परिमिति के कारण वस्तु-विन्यास का जो संकोच सूर की रचना में दिखाई पड़ता है उसकी बहुत कुछ कसर अलंकार रूप में लाए हुए पदार्थों के प्राचुर्य द्वारा पूरी हो जाती है। कहने का तात्पर्य यह कि प्रस्तुत रूप में लाए हुए पदार्थों की संख्या सूर में कम, पर अलंकार रूप में लाए हुए पदार्थों की संख्या बहुत अधिक है। यह दूसरे प्रकार की (आलंकारिक) रूपयोजना या व्यापार योजना किसी और (प्रस्तुत) रूप के प्रभाव को बढ़ाने के लिए ही होती है, अतः इसमें लाए हुए रूप या व्यापार ऐसे ही होने चाहिए, जो प्रभाव में उन प्रस्तुत रूपों या व्यापार के समान हों। सूर अलंकार योजना के लिए अधिकतर ऐसे ही पदार्थ लाए हैं।
सारांश यह कि यदि हम ब्राह्य सृष्टि से लिए रूपों और व्यापारों के संबंध में सूर की पहुँच का विचार करते हैं, तो यह बात स्पष्ट देखन में आती है कि प्रस्तुत रूप में लिए हुए पदार्थों और व्यापारों की संख्या पिरमिति है। उन्होंने कृष्ण और राधा के अंगप्रत्यंग, मुद्राओं और चेष्टाओं, यमुनातट, वंशीवट, निकुंज, गोचारण, वनविहार, बाललीला, चोरी नटखटी तथा कविपरिपाटी में परिगणित ऋतुसुलभ वस्तुओं तक ही अपने को रखा है।
इसके कारण दो हैं—पहली बात तो यह है कि इनकी रचना ‘गीत-काव्य’ है जिसमें मधुर ध्वनिप्रवाह के बीच कुछ चुने हुए पदार्थों और व्यापारों की झलक भर काफी होती है। गोस्वामी तुलसीदास जी के रामचरितमानस के समान सूरसागर प्रबंध काव्य नहीं है, जिसमें कथाक्रम से अनेक पदार्थों और व्यापारों की श्रृंखला जुड़ती चलती है। सूरदास जी ने प्रत्येक लीला या प्रसंग पर फुटकर पद कहे हैं; एक पद दूसरे पद से संबद्ध नहीं है। प्रत्येक पद स्वतंत्र है। इसी से किसी एक प्रसंग पर कहे हुए पदों को हम लेते हैं, तो एक ही घटना से संबंध रखनावेली एक ही बात भिन्न-भिन्न रागिनियों में कुछ फेरफार के साथ बहुत से पदों में मिलती है, जिससे पढ़नेवाले का जी कभी-कभी ऊब सा जाता है। यह बात प्रकृत प्रबंध-काव्य में नहीं होती।
परिमित का दूसरा कारण पहले ही कहा जा चुका है कि सूरदास जी ने जीवन की वास्तव में दो ही वृत्तियाँ ली हैं—बालवृत्ति और यौनवृत्ति।
इन दोनों के अंतर्गत आए हुए व्यापार क्रीड़ा, उमंग और उद्रेक के रूप में ही हैं। प्रेम भी घटनापूर्ण नहीं है। उसमें किसी प्रकार की प्रयत्न विस्तार नहीं है जिसके भीतर नई-नई वस्तुओं और व्यापारों का संनिवेश होता चलता है। लोकसंघर्ष से उत्पन्न विविध व्यापारों की योजना सूर का उद्देश्य नहीं है। उनकी रचना जीवन की अनेकरूपता की ओर नहीं गई है; बालक्रीड़ा, प्रेम के रंगरहस्य और उसकी अतृप्त वासना तक ही रह गई है। जीवन की गंभीर समस्याओं से तटस्थ रहने के कारण उसमें वह वास्तुगांभीर्य नहीं है जो गोस्वामी जी की रचनाओं में है। परिस्थित की गंभीरता के अभाव से गोपियों के वियोग में भी वह गंभारती दिखायी नहीं पड़ती जो सीता के वियोग में है।
उनका वियोग खाली बैठे का सा काम दिखाई पड़ती है। सीता अपने प्रिय से वियुक्त होकर कई सौ कोस दूर दूसरे द्वीप के राक्षसों के बीच पड़ी हुई थीं। गोपियों के गोपाल केवल दो चार कोस दूर के एक नगर में राजसुख भोग रहे थे। सूर का वियोगवर्णन वियोगवर्णन के लिए ही है, परिस्थिति के अनुरोध से नहीं। कृष्ण गोपियों के साथ क्रीड़ा करते-करते कुंज में या झाड़ी में छिपते हैं; या यों कहिए कि थोड़ी देर के लिए अन्तर्ध्यान हो जाते हैं। बस गोपियाँ मूर्च्छित हो कर गिर पड़ती हैं। उनकी आँखों में आँसुओं की धारा उमड़ चलती है। पूर्ण वियोगदशा उन्हें आ घेरती है। यदि परिस्थिति का विचार करें तो ऐसे विरहवर्णन असंगत प्रतीत होगा। पर जैसा कहा जा चुका है, सूरसागर प्रबंध काव्य नहीं है, जिसमें वर्णन की उत्सुक्ता या अनुपयुक्तता के निर्णय में घटना या परिस्थित के विचार का बहुत कुछ योग रहता है।
पारिवारिक और सामाजिक जीवन के बीच हम सूर के बालकृष्ण को ही थोड़ा बहुत देखते हैं। कृष्म के केवल बालचरित्र का प्रभाव नंद, यशोदा आदि परिवार के लोगों और पड़ोसियों पर पड़ता दिखायी देता है। सूर का बाललीला वर्णन ही पारिवारिक जीवन से संबद्ध है। कृष्ण के छोटे-छोटे पैरों से चलने, मुँह में मक्खन लिपटाकर भागने या इधर-उधर नटखटी करने पर नंद बाबा और यशोदा मैया का कभी पुलकित होना, कभी खीझना, कभी पड़ोसियों का प्रेम उलाहना देना आदि बातें एक छोटे से जनसमूह के भीतर आनंद का संचार करती दिखाई गई हैं। इसी बाललीला के भीतर कृष्णचरित का लोकपक्ष अधिकतर आया है; जैसे कंस के भेजे हुए असुरों के उत्पात से गोपों को बचाना, काली नाग को नाथकर लोगों का भय छुड़ाना। इंद्र के कोप से डूबी हुई बस्ती की रक्षा करने और नंद को वरुणलोक से लाने का वृतांत यद्यपि प्रेमलीला आरम्भ होने के पीछे आया है, पर उससे संबंध नहीं है, कृष्ण के चरित्र में जो यह थोड़ा बहुत लोक संग्रह दिखाई पड़ता है, उसके स्वरूप में सूर की वृत्ति लीन हुई है, जिस शक्ति से उस बाल्यवस्था में ऐसे प्रबल शत्रुओं का दमन किया गया उसके उत्कर्ष का अनुरंजनकारी और विस्तृत वर्णन उन्होंने नहीं किया है।
जिस ओज और उत्साह से तुलसीदास जी ने मारीच, ताड़का, खरदूषण आदि के निपात का वर्णन किया है उस ओज और उत्साह से सूरदास जी ने बेकासुर, अघासुर, कंस आदि के वध और इंद्र के गर्वमोचन का वर्णन नहीं किया है। कंस और उसके साथी असुर भी कृष्ण के शत्रु के रूप में ही सामने आते हैं, लोकशत्रु या लोकपीड़क के रूप में नहीं। रावण के साथी राक्षसों के सामने वे ब्राह्मणों को चबा-चबाकर उनकी हड्डियों का ढेर लगानेवाले या स्त्री चुराने वाले नहीं दिखाई पड़ते। उसके कारण वैसा हाहाकार नहीं सुनाई पड़ता। उनका अत्याचार ‘सभ्य अत्याचार’ जान पड़ता है। शक्ति, शील और सौंदर्य, भगवान की इन विभूतियों में से सूर ने केवल सौंदर्य तक ही अपने को रखा है, जो प्रेम को आकर्षित करता है। शेष दो विभूतियों को भी लेकर भगवान् के लोकरंजनकारी स्वरूप की पूर्ण प्रतिष्ठा हमारे हिंदी साहित्य में गोस्वामी तुलसीदास जी ने की। श्रद्धा या महत्व बुद्धि पुष्ट करने के लिए कृष्ण की शक्ति या लौकिक महत्व की प्रतिष्ठा में आग्रह न दिखाने के कारण ही सूर की उपासना सख्य भाव की कही जाती है।
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