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			 कहानी संग्रह >> दो सखियाँ दो सखियाँशिवानी
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साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूँगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
      उपप्रेती
      
      साइबेरिया के सीमांत पर बसे, चारों ओर सघन वन-अरण्य से घिरे, उस अज्ञात शहर
      में अपने किसी देशबंधु को ऐसे अचानक देखूगी, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं
      सोचा था। वह भी ऐसे व्यक्ति को, जिसके मृत्युभोज में चालीस वर्ष पूर्व बड़ी
      अनिच्छा से ही सम्मिलित होना पड़ा था। पति के पीपल पानी की प्रेतमुक्ति से
      मुरझाई रमा, दोनों घुटनों में सिर छिपाए स्तब्ध बैठी थी। उसकी आँखों का
      अश्रुउत्स ही शायद सूख गया था। एक बार भी उसने मेरी ओर आँख उठाकर नहीं देखा।
      सब सोच रहे थे, शायद मुझे देख उसकी अस्वाभाविक स्तब्धता रुदन की सहस्र धाराओं
      में फूट उठेगी-इसीलिए मुझे बुलाया गया था। जब से उस मनहूस दुर्घटना की खबर
      मिली है, लड़की एकदम बत बनी बैठी है, न चीखी, न सिर पटका, न रोयी-बस, फटी-फटी
      आँखों से न जाने क्या देख रही है। उसके नाना यह कह मुझे स्वयं साथ ले गए, “तू
      चल बेटी, तू ही तो उसके बचपन की एकमात्र सहेली है। शायद तुझे देख दिल का
      गुबार निकाल ले।"
      
      पर उसने मेरी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा।
      
      “रमा!” मैंने भर्राए कंठ से उसे पुकारा और उसका हाथ थाम लिया।
      
      “जो होना था सो हो गया बेटी, यही तो मैं इससे कह रही हूँ-जोर-जोर से रो-रोकर
      दिल का गुबार निकाल डाल!" उसकी विमाता बोलती चली जा रही थी, "किसने सोचा था
      मुझ अभागिन को यह दुर्दिन भी देखना पड़ेगा!" फिर वह आँखों पर आँचल धर सशब्द
      रोने लगी। उसकी विमाता का वह नाटकीय विलाप सुन मेरी हाड़मज्जा भस्म हो उठी
      थी। मैं जानती थी कि उसने मातृहीना निरीह रमा पर कैसे-कैसे अत्याचार किए थे।
      हाईस्कूल में प्रथम आने पर भी उसकी पढ़ाई रुकवा दी गई थी, दोनों वक्त का खाना
      बनाना, झाड़-बुहारी, ढेर-के-ढेर कपड़े धोना। महीनों से आ रहे उसके महीन ज्वर
      की भी किसी को चिंता नहीं थी। जितनी बार मैं उसे देखती वह मुझे पहले से और
      दुबली लगती। और फिर उसकी वह नित्य लगी रहनेवाली रहस्यमय खाँसी। और उन दिनों
      कुमाऊँ का कौन-सा घर ऐसा था जहाँ इसी खाँसी के बहाने क्षय का तक्षक घर की
      बहू-बेटियों की छाती पर चोर की भाँति सरकता, कुंडली मारकर नहीं बैठ जाता था!
      
      एक दिन मैंने ही साहस कर उसकी कैंजा (विमाता) से कहा था, "कैंजा, रमा का
      एक्सरे करवा दीजिए न एक बार। आप कहें तो मैं डॉ. खजान से बात करूँ, वे मेरे
      जीजा के मित्र हैं, फिर इसकी माँ को भी तो...”
      
      "बाप रे बाप!" भड़क उठी थीं कैंजा, “क्या कहा, एक बार और तो कह! हाँ-हाँ,
      मुझे पता है क्या था उसकी माँ को। साल में छह महीने तो सैनेटोरियम में रहती
      थी। इसका एक्सरे कराऊँ, ऐसी मूर्ख नहीं हूँ मैं। कहीं माँ की बीमारी निकल आई
      तो कोई घास भी नहीं डालेगा इसे। वैसे ही या इसके विवाह में कम अड़चनें लग रही
      हैं!"
      
      उनकी दृष्टि में रमा का सबसे बड़ा अवगुण था उसका दबा रंग।
      
      "अरी पहाड़ के तो कौवे भी सफेद होते हैं। यह करमजली न जाने कहाँ से मडुवे की
      जली रोटी का-सा रंग लेकर जन्मी है। इसके साथ की सब लडकियाँ तो गोद में बच्चे
      खिला रही हैं।"
      
      "कैंजा, मैं भी तो इसी के साथ की हूँ। कहाँ हुई मेरी शादी?'' मैंने हँसकर कहा
      तो वे और भड़क गईं।
      
      "बस-बस, अपनी बात क्यों करती है? तू तो पढ़ रही है अभी!"
      
      रमा सात ही वर्ष की थी कि उसकी माँ की मृत्यु हो गई, कुछ दिनों ननिहाल में
      पली, फिर साल बीतते-न-बीतते विमाता आ गई। एक तो स्वभाव से ही रमा गम्भीर थी,
      न पहनने-ओढ़ने का शौक, न खेलने-खाने का। उस पर विमाता के अन्याय-पिता की सतत
      उदासीनता ने उसे असमय ही प्रौढा बना दिया था। मैं ही छुट्टियों में घर आती तो
      उसे खींच-खाँच कभी कोई पिक्चर दिखा लाती। उन दिनों शहर में एक ही सिनेमा हॉल
      था। एक बड़ी-सी पोस्टर लगी हाथगाड़ी को जोकर की टोपी लगाए दो छोकरे हाथ का
      घंटा हिलाते-खींचते गुहार लगाते, “आज शाम को, साढ़े पाँच बजे, मुरली मनोहर के
      पास मोहन टाकीज में अमृत मंथन-शांता आपटे, नलिनी तखट बी.ए.।" साथ ही छपे
      पर्चे लूटने मुहल्ले-टोलों की भीड़ बेतहाशा उस मंथर गति से जा रही गाड़ी के
      पीछे भागती। वहीं रमा को मैंने उसके जीवन का पहला चलचित्र 'अछूत कन्या'
      दिखाया तो उसकी बड़ी-बड़ी आँखें, आश्चर्य से फैलती उसके पूरे चेहरे पर फैल गई
      थीं।
      
      "क्यों री, क्या यह सचमुच ही इतनी सुन्दर होती होगी?'
      
      उसका कंठ अत्यन्त सुरीला था। यद्यपि कभी किसी ने उसे गाना नहीं सिखाया पर
      किसी भी गीत को तत्काल सीख ज्यों-का-त्यों दोहरा देने में उसे कमाल हासिल था।
      उन दिनों पहाड़ी लोकगीत का एक रेकॉर्ड बेहद लोकप्रिय था :
      
      मार झपैका सुरम्याली 
      
      कौतिका लागो मार झपैका 
      
      मार झपैका, मैं के लै जाँण
      
      दियो ज्यूहो मार झपैका। 
      
      (सुरम्याली का मेला लगा है, हे मेरी सासूजी, मुझे भी मेले में जाने दो न।)
      
      रमा के वंशी के-से कंठस्वर में वह गीत एकांत में मैंने न जाने कितनी बार सुना
      था। "तेरी आवाज रेकॉर्ड में भरी जाती तो लोग इस रेकॉर्ड की गानेवाली को भूल
      जाते," मैंने कहा।
      
      "चल हट!" मुझे क्या गाना-वाना आता है। तू कैंजा को सुन कभी, कोयल-सी टहूकती
      है, कितने गाने आते हैं उसे!'
      
      “भाड़ में जाए तेरी कैंजा, दिन-रात तो तुझे जूतियों की ठोकर मारती रही है। एक
      तू है कि उसी के गुणगान गाती है!" 
      
      उसके मुँह से मैंने कभी कैंजा की निंदा नहीं सुनी। दो ही दिन पूर्व जलती
      लकड़ी से उसकी सुकोमल पीठ को दाग देनेवाली उस कर्कशा को मैं देख नहीं सकती
      थी। दोष भी क्या था कि दूध उबलने धर बेचारी रमा अचानक आ गई वर्षा में भीग रहे
      कपड़े उठाने चली गई थी, लौटी तो जरा-सा दूध उबलकर छलक गया था। फिर एक दिन
      सुना, रमा का विवाह तय हो गया, लड़का इंजीनियर है। रमा की रिश्ते की मौसी ने
      ही बताया तो मुझे आश्चर्य हुआ।
      
      "कैसे यह सुमति आ गई उसकी कैंजा को? मैं तो सोचती थी कि अभागिनी को किसी
      दुहेजू के पल्ले ही बाँध देगी वह भूतनी।"
      
      "अरी, इससे तो दुहेजू को ही ब्याही जाती,” मौसी ने एक दीर्घश्वास लेकर कहा,
      “संबंधों की तो लुटिया ही डुबो दी जीजा ने। आज तक कभी हम ऊँची धोतीवालों की
      ऐसी नाक नहीं कटी। एकदम गए-बीते खानदान में दे दिया छोकरी को। लड़के का बाप
      तो उप्रेती है, पर माँ के वंश में दोष है।"
      
      "सच?" 
      
      “और नहीं तो क्या!"
      			
						
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