नारी विमर्श >> उदास मन उदास मनआशापूर्णा देवी
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नारी समाज पर केन्द्रित उपन्यास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका आशापूर्णा देवी का एक नया
उपन्यास।
आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है वें हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तामात्र है।
इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते है।
सृजन की श्रेष्ठ सहभागी होते हुए भी नारी का पुरूष के समान मूल्यांकन नहीं ? पुरूष की बड़ी सी कमजोरी पर समाज में कोई हलचल नहीं, लेकिन नारी की थोड़ी सी चूक उसके जीवन को रसातल में डाल देती है। यह है एक असहाय विडम्बना!
बंकिम, रवीन्द्र, शरत् के पश्चात् आशा पूर्णा देवी हिन्दी भाषी आँचल में एक सुपरिचित नाम है- जिनकी हर कृति एक नयी अपेक्षा के साथ पढ़ी जाती है।
जानी-पहचानी वह तेज आवाज नियमित तौर पर दहाड़ मारकर रो पड़ती है—जैसे वायु के स्तर को चीर-फाड़कर दौड़ती हुई आगे निकल गई हो। अवशेष बहुत देर तक गूंजता रहता है।
यद्यपि जानी-पहचानी है, फिर भी आकस्मिक जैसी महसूस होती है। ट्रेन जाने के पहले किसी भी हालत में याद नहीं आता कि एक बजकर पैंतालीस मिनट हो गए।
हां, याद नहीं आता।
उस दहाड़ को सुनकर सिहर उठना पड़ता है। कुछ देर तक अनुभूति जड़-सी हो जाती है, बहुत देर तक प्राणों में हाहाकार मचा रहता है। कोई छोड़कर नहीं गया है, फिर भी मन बेचैन हो उठता है; किसी ने बुरा बर्ताव नहीं किया है, फिर भी दुःख उफनकर उभरना चाहता है; किसी ने अपेक्षा नहीं की है, फिर भी उपेक्षा की पीड़ा पछाड़ खाती रहती है।
और-और ट्रेनें भी तो अक्सर जाती-आती रहती हैं, मगर ऐसा अहसास नहीं होता। इस भरी दुपहरिया में—सबको क्या ऐसा ही अहसास होता है ?
हैमवती हर रोज सोचती है। जो लोग इस रेल लाइन के मुहल्ले में हैं, वे सभी क्या इस ‘एक बजकर पैंतालीस’ होते ही चौंककर बेमन हो जाते हैं ? बहुत देर तक कोई काम-धंधा नहीं कर पाते ? काम रहने पर भी हाथ समेटकर बैठे रहते हैं ?
आज तक अपना यह सन्देश किसी के सामने जाहिर नहीं कर पायी है हैमवती। पूछा नहीं है कि ‘एक बजकर पैंतालीस’ में तुम लोग क्या करते हो ?
लेकिन पूछे भी तो किससे ?
इस मुहल्ले में आकर किससे उस तरह की घनिष्ठता बढ़ायी है !
सोचने पर सोच का ओर-छोर नहीं मिलता; बल्कि यह सोचकर अवाक् हो जाती है कि वे क्या करते हैं। बचपन से देख चुकी है कि कितनी ही लड़कियों की गले के हार जैसी अन्तरंग सहेलियां हैं।
हैमवती बहुत बड़े परिवार की लड़की रही है, इसलिए बहुत कुछ देख चुकी है। ‘सहेली’, ‘गंगाजल’, ‘इत्र, लैवेंडर’ से शुरू कर ‘मैगनोलिया’, ‘आइसक्रीम’ तक देखने को बाकी नहीं रहा है।
यों दोस्त-मित्र बनाना, सहेली बनाना एक तरह से घर-घर का रिवाज है, फिर भी छोटी-छोटी लड़कियों को उपलक्ष्य बना, उनकी मांएं ही इस विचित्रता का आस्वादन करतीं। इस उपलक्ष्य में उत्सव का आयोजन करतीं।
एकमात्र हैमवती की कोई सहेली नहीं थी—शैशवकाल से ही नहीं। हैमवती की ताइयों की लड़कियां, बुआओं की लड़कियां, चाची की लड़की कहीं-न-कहीं आंतरिक रूप से जुड़ गई हैं, एकमात्र हैमवती ही शुरू से संगीहीन रही है।
किसी लड़की से घनिष्ठता होना संभव है, यह बात जान ही नहीं सकी हैमवती।
ऐसा होने पर भी किसी से हैमवती की जान-पहचान नहीं है क्या ? जान-पहचान है और बहुतों से है। वह जान-पहचान केवल भलमनसाहत के आदान-प्रदान तक ही सीमित है, उससे अधिक अंतर तक पैठने की बात सोच नहीं पाती है। उस बहुत बड़े परिवार के बीच भी हैमवती अकेले ही चक्कर काटती थी, यह बात उसे अच्छी तरह याद है।
ताई कहती, ‘‘बाप रे ! आज के जमाने से बिलकुल अलग-थलग जिद्दी लड़की है यह। मानती हूं, मां नहीं है, मगर कितने दिन पहले चल बसी है। मां की उसे इतनी याद आती है ? हम लोगों ने क्या मां के अभाव की पूर्ति नहीं की है ? फिर भी सबसे अलग-थलग रहती है, किनाराकशी करती रहती है। मां ने तो एक दिन भी छाती का दूध नहीं पिलाया, मगर अपने स्वभाव के सांचे में ढाल गई।’’
बचपन से ही हैमवती अपनी मां की आलोचना सुनती आयी है। यहां तक कि पिता भी बीच-बीच में कह बैठता, ‘‘बिलकुल मां का स्वभाव मिला है तुम्हें। देखने में भोली-भाली मगर अन्दर से अव्वल दर्जे की जिद्दी।’’
पिताजी इसी तरह की बात कहते।
हैमवती वगैरह के ढेर सारे लोगों के घर-परिवार के किसी व्यक्ति की बातचीत में शालीनता का आभास नहीं रहता। चाहे जैसे हो बोल जाता था।
साधारण, सहज बात, हर रोज उपयोग में लायी जाने वाली बातें कितनी सुन्दर हो सकती हैं, उसकी जानकारी हैमवती को बाद में हुई थी।
उस सुन्दर के प्रति शैशव से ही हैमवती के अन्दर क्यों एक असीम आकुलता थी ? हैमवती भी तो उसी घर की लड़की है। बचपन से ही जो कुछ देखने की अभ्यस्त थी उससे ही क्या अपने स्वभाव को पुष्ट नहीं कर पाती ?
बचपन में नहीं, लेकिन बड़ी हो जाने के बाद हैमवती ने अपने आप से बहुत बार यह सवाल किया है। बचपन में समझ नहीं पाती, सिर्फ बुरा लगता था उसे। घर के बड़े-बुजुर्गों की अकारण चिल्लाहट, बेवजह की कर्कशता, औरताना किस्म की बातें और केवल बड़े बुजुर्ग होने के कारण बड़प्पन दिखाने की चेष्टा हैमवती को अन्दर-ही-अन्दर पीड़ित करती, विद्रोही बनाती, संकुचित करती। घर की गृहणियों की क्षुद्रता, संकीर्णता, छोटी-छोटी बात पर लड़ना-झगड़ना उसे जैसे अपवित्र स्पर्श से जर्जर कर देते। उसे इच्छा होती कि अपनी अभिरुचि लिये कहीं छिप जाए तो उसकी जान-में-जान आए।
बावजूद इसके हैमवती वगैरह का घर-संसार, उसके बचपन के आत्मीय स्वजन—सभी क्या बुरे थे ? उन लोगों का रुचि-बोध क्या गंदा और घटिया किस्म का था ?
बिलकुल नहीं।
वे लोग सिर्फ मानसिक तौर पर मंझले तबके के थे।
वे लोग और उनके तीन पुश्त के आत्मीय स्वजन एक ही जैसे थे। किसी खानदानी अमीर आदमी का घर उन लोगों ने अपनी आंख से भी नहीं देखा था।
दुर्गा-पूजा के समय रास्तों में मूर्तियां देखने के निमित्त घूमने-फिरने के अलावा उन्हें और कोई गौरव नसीब नहीं होता। किसी पूजाघर में भोग के प्रसाद के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया हो, हैमवती को यह याद नहीं आता।
दुर्गा का उत्सव मनाया जाए, इस तरह के उनके सगे-सम्बन्धी कहां हैं ? उन लोगों के रिश्तेदारों में से कोई सुप्रसिद्ध या विशिष्ट, गुणवान या विद्वान, कवि या कलाकार देखने को नहीं मिलता था।
था ही नहीं।
नाम लेते ही पहचान ले, वैसा कोई नहीं था उन लोगों में।
फिर भी वे बड़े ही अहंकारी थे। बात-बात में कहते, ‘‘हम लोग क्या और-और लोगों की तरह फैशनपरस्त हैं ?’’
यानी उन लोगों के इस घेरे के बाहर जो लोग हैं, वे फैशनपरस्त हैं और इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं।
और फैशनपरस्त होने का मतलब ही है बुरा।
वे लोग कहते, ‘‘फैशनपरस्ती छोड़ो।’’ कोई बेवक्त साफ-सुथरा कपड़ा पहनता तो कहते, ‘‘यह फैशनपरस्ती है।’’ घर को जरा सजाने-संवारने से कहते, ‘‘यह फैशनपरस्ती है।’’
हम लोग इतने फैशन परस्त नहीं हैं, ऐसा खोखला अहांकर लिये हैम के ताऊ-चाचा-पिता घर के बाहर बरामदे पर पांच हाथ की धोती पहन बैठ जाते और हिलते-डुलते हुए तेल-मालिश करते, फुटपाथ के किनारे ईंट पर बैठ नाई से दाढ़ी बनवाते और नौकर रहने के बावजूद खुद ही बाजार जाकर एक बड़ी-सी भेटक, रोहू या गंगा को एक जोड़ी हिलसा मछली खरीद, गर्व के साथ हाथ में लटकाते हुए ले आते ताकि लोगों की नजर उस पर न पड़ सके।
हैम ने एक दिन अपने पिता से कहा था, ‘‘रास्ते में बैठकर तेल-मालिश क्यों करते हो, बापू ? शर्म नहीं लगती ?’’
हैम का वह सवाल घर के लोगों की हंसी की खुराक बनकर बहुत दिनों तक मौजूद था।
हां, हैम की बात पर बीच-बीच में हंसी का रेला दौड़ जाता। हैम ने एक दिन अपनी ताई से कहा था, ‘‘रात दिन सिर्फ खाना ही पकाना—इसके अलावा तुम लोगों को और कोई काम अच्छा नहीं लगता है ?’’ यह बात पूरे मुहल्ले में फैल गयी थी।
हैम की मंझली ताई हंसी से लहालोट हो गयी थी और बोली थी, ‘‘खाना पकाना अच्छा काम नहीं है क्या ? तो फिर अच्छा काम कौन-सा है री हैम ? कुर्सी पर बैठ कार्पेट पर बेलबूटे काढ़ना ? ऊन बुनना ?’’
हैम की ताइयों को यह सब काम अत्यन्त हास्यकर प्रतीत होता, इसीलिए इस तरह की तुलना प्रस्तुत की थी।
हैम को सोचने पर कोई कूल-किनारा नहीं मिलता कि वह सब काम क्यों हास्यास्पद है और खाना पकाना सबसे श्रेष्ठ काम। उसकी बात पर सभी हंस क्यों देते हैं, यह सोचकर किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाती वह।
हैम की ताई की लड़की शैल ने कहा था, ‘‘हंसूगी क्यों नहीं ? तुम परले दर्जे के बेवकूफ हो। किससे क्या कहना चाहिए, इस पर ध्यान नहीं देती हो। ऊन बुनना, लेस बुनना बुरा नहीं है। निमली की मां ने कितनी सुंदर बुनाई के काम किये हैं कि देखने पर आखें जुड़ जाती हैं। ऐसा हो तो भी आकर मां से कहूंगी यह बात ? मां से बल्कि निंदा करते हुए कहती हूं। निंदा करने पर मां को खुशी होती है। मां सुनकर लहालोट हो जाती है, खोद-खोदकर पूछती है और कहती है, तो फिर उन लोगों की घर-गहस्थी कौन चलाता है ?
मैं कहती हूं, निमली की दादी मां को रात-दिन रसोईघर में देखती हूं। यह सुनकर मां ही-ही कर हंसने लगती है। मां ने हम लोगों की दादी मां को उन लोगों की खिल्ली उड़ाते हुए सुनाया।’’
हैम की बेवकूफी का एक और प्रमाण देखने को मिला। हैम ने अवाक् होकर कहा, ‘‘खिल्ली उड़ाते हुए ? किसकी खिल्ली ?’’
तीन-चार लड़कियां खिलखिलाकर हंस दीं।
‘‘खिल्ली ? अरे, किसकी खिल्ली ? दीवार की ! बेवकूफ कहीं की !’’
इस तरह बेवजह मजाक उड़ाना, बेवजह हैम को नीचा दिखाना, बेवजह हंसी से लहालोट हो जाना हैम को जहर जैसा लगता है।
इससे बेहतर है, अलग-थलग ही रहे। अकेले रहना ही बेहतर है।
उन लोगों के घर की लड़कियों को स्कूल में पढ़ाने का रिवाज नहीं था। हैम की दादी मां कहती, ‘‘चोटी झुलाते हुए स्कूल जाने से कौन-सा फायदा होगा ? सीखेगी तो सिर्फ फैशन ही। दफ्तर में नौकरी करने जाना नहीं है।’’
दादी मां की बात ही अंतिम बात हुआ करती थी।
दादी मां का ही निर्णय आखिरी निर्णय हुआ करता था।
इसलिए लड़कियों का वह झुंड सुबह-दोपहर-शाम घर में ही रहता। सुबह, दोपहर और शाम के वक्त बड़े-बुजुर्गों की दृष्टि के घेरे के अंदर रहना पड़ता। गृहस्थी का भी थोड़ा-बहुत काम करना पड़ता। छोटी चाची के पांच छोटे-छोटे बच्चे थे, उसकी बड़ी लड़की को भाई-बहनों के ढेर सारे काम करने पड़ते थे। ताइयों की लड़कियां पान बनातीं, बिस्तर उठातीं, गीले कपड़े सूखने देतीं। इसके अलावा जो भी फरमाइश की जाती, उसे पूरा करना पड़ता। घर के सिर्फ उम्रदार व्यक्तियों की ही नहीं, किशोरवय के चचेरे भाइयों की फरमाइशों का कोई अंत नहीं था।
फिर भी दोपहर में काफी कुछ अवकाश मिल जाता।
लड़कियां एक साथ बैठ ‘गोलोक धाम’ खेलतीं, इमली का बीज ले ‘घेरा पार करने’ का खेल खेलतीं; नहीं तो फिर बैठे-बैठे बड़बोली औरतों की तरह बातें करतीं।
हैम को याद है, उन लोगों की निरर्थक हंसी, गृहणियों जैसी बातें, एक किस्म की रहस्यमयी अदा के साथ आंखों-आंखों में एक-दूसरे की ओर इशारा करना हैम को उबाऊ महसूस होता है। वे भी हैम को अपने दल में शामिल करना नहीं चाहतीं। कहतीं ‘‘तुम यहां से कटो, तुम गंवार हो। मां वगैरह के सामने कौन-सी बात कह दोगी, मालूम नहीं।’’
उन लोगों के दल में शामिल न हो पाने से हैम ऐसा महसूस नहीं करती कि उसका कोई नुकसान हुआ हो। फिर भी उस तरह की बात सुनकर उसका चेहरा अपमान से रक्तिम हो उठता है।
हैम को याद है, एक दिन गुस्से में आकर उसने कहा था, ‘‘बड़ों को कहने से यदि गुनाह होगा तो फिर इस तरह की बातें क्यों करती हो ? अच्छी बातें नहीं कर सकतीं ? असभ्य, गंदी, ओछी कहीं की !’’
वे बड़े-बुजुर्गों की तरह ही हंसते-हंसते लहालोट हो गयी थीं। हैम की हमउम्र कमली बोली थी, ‘‘आओ, संझली दी, आज हम हरि-कथा कहें।’’
दुबारा उसी हंसी का रेला।
पर हां, हैम को बाद में, बहुत बाद में, समझ में आया था कि छोटी-छोटी वे लड़कियां उस समय ही दुनिया के तमाम सार तत्त्वों को समझ गयी थीं। वह सब जानकारी उन लोगों के मां-बाप से संबंधित रहस्यमयी जानकारी थी। संझली चाची का इतने सारे बाल-बच्चों के होने के बावजूद पुनः गर्भवती होना हास्यकर और लज्जाजनक विषय है, यह बात संझली चाची की लड़की की तकलीफदेह राय से जाहिर हुई थी।
शोभा ने कहा था, ‘‘गले में फंदा डाल लेना चाहिए। फिर प्रसव-घर में ! उन लोगों का क्या बिगड़ेगा ? कष्ट तो मुझे ही झेलना है।’’
‘‘हां,’’ उस दिन भी हैम ने कहा था, ‘‘यदि भगवान दे रहे हैं तो वे लोग क्या करेंगी ? तुझे तकलीफ होगी तो भगवान नहीं देंगे ?
भगवान !
छोटी दी शोभा ‘भगवान’ शब्द पर जोर डालते हुए कितनी व्यंग्यपूर्ण हंसी हंस दी थी ! उसे धक्का मारकर गिरा दिया था और कहा था, ‘‘लो, मेरी गंवार सहेली आ धमकी। सीधी-सी बात भी उसकी समझ में नहीं आती। देख रही हो न, संझली दी, हैम कितनी शैतान है। ऐसा भाव दिखाती है जैसे अभी-अभी मां की कोख से बाहर निकली है...अरी, एकदिन हम लोगों के कमरे में लेटकर देखना। देखने को मिलेगा कि कौन भगवान देता है।
हैम को झटके जैसे महसूस हुआ था।
सिर्फ देह में ही नहीं, मन में भी।
हैम को भय का अहसास हुआ था।
हैम ने भागकर दादी मां के घर में शरण ली थी। लेकिन आंख खोलकर नहीं, आंख मूंदकर।
दादी मां की दोपहर की नींद कितनी अरुचि उभारने वाली होती। अकसर खाना खाने के बाद पैर धोकर कपड़ा फींचती और सूखने डाल देती। उसके बाद एक अंगोछा पहन लेट जाती। सूखा, बटी हुई डोरी वाला अंगोछा।
दादी मां के उस सुप्त शरीर को देखते ही हैम को तसवीर में देखी हुई पूतना राक्षसी का स्मरण हो आता।
पोपले मुंह से एक प्रकार की अजीब आवाज निकलती। यह देखकर हैम का शरीर भय से कांप उठता।
लेकिन नियति के परिहास के कारण एक ऐसा वक्त आया कि उसी दादी मां के कमरे में हैम के लिए रात में सोने का प्रबंध चालू कर दिया गया। दादी मां ने ही कहा, ‘‘अब तू बड़ी हो गयी है, अब तेरे अपने बाप के कमरे में सोना ठीक नहीं। अपना तकिया लेकर मेरे कमरे में चली आना।’’
अकस्मात अपने कमरे से निर्वासन-दंड का आदेश मिलने पर हैम की आंखों में आंसू भर आये थे और उसने अपनी गंवार जैसी भंगिमा के साथ कहा, ‘‘बड़ी हो जाने से क्या होता है। मंझली दी, संझली दी और छोटी दी क्या अपने पिता के कमरे में नहीं सोतीं ?’’
दादी मां झुंझलाकर बोली थीं, ‘‘तमाम बातें खुलकर कहे बगैर इस गंवार के दिमाग में कुछ नहीं घुसता। उन लोगों के कमरे में उनकी मांएं रहती हैं, तेरी है ?’’
नहीं है, जानती है हैम। लेकिन न रहने के एक नुकसान के बाद फिर एक और नुकसान क्यों बरदाश्त करेगी हैम ?
एकाएक बोली, ‘‘तुम्हारे कमरे में सोने में बड़ा बुरा लगता है। तुम्हारी नाक से इतनी आवाज निकलती है कि ....।’’
‘‘क्या, क्या कहा ?’’ दादी मां बोली थीं, ‘‘तो फिर बूढ़ी धिंगड़ी तू बाप के कमरे में ही रह ! सभ्यता-शोहबत की तुम्हें तालीम देना मुश्किल है। गंवार, जंगली, जानवर कहीं की !’’
इतना ही नहीं।
उस दिन हैम को बेहद लांछना का शिकार होना पड़ा था। अपने से बड़े का अपमान करने के कारण घर के हर सदस्य ने उसको भरपूर खरी-खोटी सुनाई थी। बेचारे पिताजी अकेले रहेंगे, यह सोचकर बड़ी ही ममता जग रही थी हैम के हृदय में। लेकिन उसी पिता ने रात के वक्त उससे कहा था, ‘‘जा, इस कमरे से चली जा। दादी मां का पैर पकड़कर क्षमा मांग और उसी कमरे में सो रह।’’
‘‘बड़ी हो गयी’ दस साल की उस लड़की का रोते हुए, हाथ में तकिया थामे, दादी मां के कमरे में प्रवेश करने का दृश्य हैम को मानो अब भी दिखाई पड़ रहा है।
निरुपाय, उत्पीड़ित उस छोटी बालिका के बारे में सोचते ही हैमवती के प्राणों में हाहाकार की आंधी चलने लगती है।
वे लोग क्या निष्ठुर थे ?
बिलकुल हृदयहीन ?
नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। वे लोग सिर्फ प्रचलित प्रथा के गुलाम थे।
उस समय समझ नहीं पाती थी हैम नामक वह लड़की, लेकिन अब हैमवती समझ पाती है।
प्रथा अत्यन्त शक्तिशालिनी स्वामिनी हुआ करती है।
प्रथा प्रतापशाली शासक है।
प्रथा के सामने स्नेह खड़ा नहीं हो सकता, न ही ‘हृदय’ नामक वस्तु।
लड़की बड़ी हो जाय तो वह एक अपराध है, इसका अहसास उसी दिन पहले-पहल हुआ हैम को।
उसके बाद फिर एक दिन, कुछ ही दिनों बाद एक दिन।
हैम को जैसे किसी और ही दुनिया का सुखद अहसास हुआ था।
वही पहला दिन था कि हैम ने पहले-पहल ‘सुन्दर’ को देखा था। देखा था ‘शोभनीय’ को।
उसका उतने दिनों से दिन-रात असुन्दर के स्पर्श से पीड़ित चित्त मानो एकाएक प्रकाश से जगमगा उठा था।
दुर्गा-पूजा की पंचमी का दिन—
फुफेरी बड़ी बहन तरु नयी-नयी शादी के बाद मामा के घर घूमने-फिरने आयी, साथ में था उसका पति गौतम। हैम का वह ग्यारह-बारह साल का मन वहीं पछाड़ खाकर दिग्भ्रमित हो गया।
शुरू में उसके नाम पर ही निछावर हो गई।
किसी आदमी का नाम इतना सुन्दर हो सकता है।
हैम के घर में तमाम पुरुषों का और भावी पुरुषों का नाम देवताओं के नाम पर है। एकबारगी कृष्ण, विष्णु, हरि, हर सभी को उन लोगों ने धर-पकड़कर रख लिया है।
उन कृष्ण-विष्णु वगैरह के घर में ‘गौतम’ जैसा नाम एक दूसरी ही दुनिया की हवा ढोकर ले आया।
सिर्फ नाम ही क्यों ? चेहरा क्यों नहीं ? उस पर जमाई बाबू की प्रत्येक भंगिमा, बातचीत, हंसने और देखने की कला, खाना खाने और बैठने का तौर-तरीका बेजोड़ है।
हैम के प्यासे मन को जैसे स्फटिक भृंगारि का जल प्राप्त हुआ। इतने दिनों के क्षूधार्त्त मन को स्वर्ग का अमृत-फल प्राप्त हुआ।
ऐसे में जमाई बाबू की संगति को हैम कैसे विसर्जित करे ?
अबोध हैम सवेरे से रात में सोने के पहले तक जमाई बाबू के इर्द-गिर्द मंडराती रहती है। जमाई बाबू जब बातचीत करते हैं तो अपलक ध्यान से देखती रहती है। जमाई बाबू हंसते हैं तो खुशियों से झूम उठती है।
इसके अतिरिक्त जमाई बाबू से ही पहले-पहल हैम को स्वीकृति मिली थी। बुद्धि की स्वीकृति।
हां, गौतम ने कहा था, ‘‘तरु तुम्हारी यह बहन बहुत ही बुद्धिमत्ती है।’’
‘‘बुद्धिमत्ती !
आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है वें हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तामात्र है।
इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते है।
सृजन की श्रेष्ठ सहभागी होते हुए भी नारी का पुरूष के समान मूल्यांकन नहीं ? पुरूष की बड़ी सी कमजोरी पर समाज में कोई हलचल नहीं, लेकिन नारी की थोड़ी सी चूक उसके जीवन को रसातल में डाल देती है। यह है एक असहाय विडम्बना!
बंकिम, रवीन्द्र, शरत् के पश्चात् आशा पूर्णा देवी हिन्दी भाषी आँचल में एक सुपरिचित नाम है- जिनकी हर कृति एक नयी अपेक्षा के साथ पढ़ी जाती है।
जानी-पहचानी वह तेज आवाज नियमित तौर पर दहाड़ मारकर रो पड़ती है—जैसे वायु के स्तर को चीर-फाड़कर दौड़ती हुई आगे निकल गई हो। अवशेष बहुत देर तक गूंजता रहता है।
यद्यपि जानी-पहचानी है, फिर भी आकस्मिक जैसी महसूस होती है। ट्रेन जाने के पहले किसी भी हालत में याद नहीं आता कि एक बजकर पैंतालीस मिनट हो गए।
हां, याद नहीं आता।
उस दहाड़ को सुनकर सिहर उठना पड़ता है। कुछ देर तक अनुभूति जड़-सी हो जाती है, बहुत देर तक प्राणों में हाहाकार मचा रहता है। कोई छोड़कर नहीं गया है, फिर भी मन बेचैन हो उठता है; किसी ने बुरा बर्ताव नहीं किया है, फिर भी दुःख उफनकर उभरना चाहता है; किसी ने अपेक्षा नहीं की है, फिर भी उपेक्षा की पीड़ा पछाड़ खाती रहती है।
और-और ट्रेनें भी तो अक्सर जाती-आती रहती हैं, मगर ऐसा अहसास नहीं होता। इस भरी दुपहरिया में—सबको क्या ऐसा ही अहसास होता है ?
हैमवती हर रोज सोचती है। जो लोग इस रेल लाइन के मुहल्ले में हैं, वे सभी क्या इस ‘एक बजकर पैंतालीस’ होते ही चौंककर बेमन हो जाते हैं ? बहुत देर तक कोई काम-धंधा नहीं कर पाते ? काम रहने पर भी हाथ समेटकर बैठे रहते हैं ?
आज तक अपना यह सन्देश किसी के सामने जाहिर नहीं कर पायी है हैमवती। पूछा नहीं है कि ‘एक बजकर पैंतालीस’ में तुम लोग क्या करते हो ?
लेकिन पूछे भी तो किससे ?
इस मुहल्ले में आकर किससे उस तरह की घनिष्ठता बढ़ायी है !
सोचने पर सोच का ओर-छोर नहीं मिलता; बल्कि यह सोचकर अवाक् हो जाती है कि वे क्या करते हैं। बचपन से देख चुकी है कि कितनी ही लड़कियों की गले के हार जैसी अन्तरंग सहेलियां हैं।
हैमवती बहुत बड़े परिवार की लड़की रही है, इसलिए बहुत कुछ देख चुकी है। ‘सहेली’, ‘गंगाजल’, ‘इत्र, लैवेंडर’ से शुरू कर ‘मैगनोलिया’, ‘आइसक्रीम’ तक देखने को बाकी नहीं रहा है।
यों दोस्त-मित्र बनाना, सहेली बनाना एक तरह से घर-घर का रिवाज है, फिर भी छोटी-छोटी लड़कियों को उपलक्ष्य बना, उनकी मांएं ही इस विचित्रता का आस्वादन करतीं। इस उपलक्ष्य में उत्सव का आयोजन करतीं।
एकमात्र हैमवती की कोई सहेली नहीं थी—शैशवकाल से ही नहीं। हैमवती की ताइयों की लड़कियां, बुआओं की लड़कियां, चाची की लड़की कहीं-न-कहीं आंतरिक रूप से जुड़ गई हैं, एकमात्र हैमवती ही शुरू से संगीहीन रही है।
किसी लड़की से घनिष्ठता होना संभव है, यह बात जान ही नहीं सकी हैमवती।
ऐसा होने पर भी किसी से हैमवती की जान-पहचान नहीं है क्या ? जान-पहचान है और बहुतों से है। वह जान-पहचान केवल भलमनसाहत के आदान-प्रदान तक ही सीमित है, उससे अधिक अंतर तक पैठने की बात सोच नहीं पाती है। उस बहुत बड़े परिवार के बीच भी हैमवती अकेले ही चक्कर काटती थी, यह बात उसे अच्छी तरह याद है।
ताई कहती, ‘‘बाप रे ! आज के जमाने से बिलकुल अलग-थलग जिद्दी लड़की है यह। मानती हूं, मां नहीं है, मगर कितने दिन पहले चल बसी है। मां की उसे इतनी याद आती है ? हम लोगों ने क्या मां के अभाव की पूर्ति नहीं की है ? फिर भी सबसे अलग-थलग रहती है, किनाराकशी करती रहती है। मां ने तो एक दिन भी छाती का दूध नहीं पिलाया, मगर अपने स्वभाव के सांचे में ढाल गई।’’
बचपन से ही हैमवती अपनी मां की आलोचना सुनती आयी है। यहां तक कि पिता भी बीच-बीच में कह बैठता, ‘‘बिलकुल मां का स्वभाव मिला है तुम्हें। देखने में भोली-भाली मगर अन्दर से अव्वल दर्जे की जिद्दी।’’
पिताजी इसी तरह की बात कहते।
हैमवती वगैरह के ढेर सारे लोगों के घर-परिवार के किसी व्यक्ति की बातचीत में शालीनता का आभास नहीं रहता। चाहे जैसे हो बोल जाता था।
साधारण, सहज बात, हर रोज उपयोग में लायी जाने वाली बातें कितनी सुन्दर हो सकती हैं, उसकी जानकारी हैमवती को बाद में हुई थी।
उस सुन्दर के प्रति शैशव से ही हैमवती के अन्दर क्यों एक असीम आकुलता थी ? हैमवती भी तो उसी घर की लड़की है। बचपन से ही जो कुछ देखने की अभ्यस्त थी उससे ही क्या अपने स्वभाव को पुष्ट नहीं कर पाती ?
बचपन में नहीं, लेकिन बड़ी हो जाने के बाद हैमवती ने अपने आप से बहुत बार यह सवाल किया है। बचपन में समझ नहीं पाती, सिर्फ बुरा लगता था उसे। घर के बड़े-बुजुर्गों की अकारण चिल्लाहट, बेवजह की कर्कशता, औरताना किस्म की बातें और केवल बड़े बुजुर्ग होने के कारण बड़प्पन दिखाने की चेष्टा हैमवती को अन्दर-ही-अन्दर पीड़ित करती, विद्रोही बनाती, संकुचित करती। घर की गृहणियों की क्षुद्रता, संकीर्णता, छोटी-छोटी बात पर लड़ना-झगड़ना उसे जैसे अपवित्र स्पर्श से जर्जर कर देते। उसे इच्छा होती कि अपनी अभिरुचि लिये कहीं छिप जाए तो उसकी जान-में-जान आए।
बावजूद इसके हैमवती वगैरह का घर-संसार, उसके बचपन के आत्मीय स्वजन—सभी क्या बुरे थे ? उन लोगों का रुचि-बोध क्या गंदा और घटिया किस्म का था ?
बिलकुल नहीं।
वे लोग सिर्फ मानसिक तौर पर मंझले तबके के थे।
वे लोग और उनके तीन पुश्त के आत्मीय स्वजन एक ही जैसे थे। किसी खानदानी अमीर आदमी का घर उन लोगों ने अपनी आंख से भी नहीं देखा था।
दुर्गा-पूजा के समय रास्तों में मूर्तियां देखने के निमित्त घूमने-फिरने के अलावा उन्हें और कोई गौरव नसीब नहीं होता। किसी पूजाघर में भोग के प्रसाद के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया हो, हैमवती को यह याद नहीं आता।
दुर्गा का उत्सव मनाया जाए, इस तरह के उनके सगे-सम्बन्धी कहां हैं ? उन लोगों के रिश्तेदारों में से कोई सुप्रसिद्ध या विशिष्ट, गुणवान या विद्वान, कवि या कलाकार देखने को नहीं मिलता था।
था ही नहीं।
नाम लेते ही पहचान ले, वैसा कोई नहीं था उन लोगों में।
फिर भी वे बड़े ही अहंकारी थे। बात-बात में कहते, ‘‘हम लोग क्या और-और लोगों की तरह फैशनपरस्त हैं ?’’
यानी उन लोगों के इस घेरे के बाहर जो लोग हैं, वे फैशनपरस्त हैं और इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं।
और फैशनपरस्त होने का मतलब ही है बुरा।
वे लोग कहते, ‘‘फैशनपरस्ती छोड़ो।’’ कोई बेवक्त साफ-सुथरा कपड़ा पहनता तो कहते, ‘‘यह फैशनपरस्ती है।’’ घर को जरा सजाने-संवारने से कहते, ‘‘यह फैशनपरस्ती है।’’
हम लोग इतने फैशन परस्त नहीं हैं, ऐसा खोखला अहांकर लिये हैम के ताऊ-चाचा-पिता घर के बाहर बरामदे पर पांच हाथ की धोती पहन बैठ जाते और हिलते-डुलते हुए तेल-मालिश करते, फुटपाथ के किनारे ईंट पर बैठ नाई से दाढ़ी बनवाते और नौकर रहने के बावजूद खुद ही बाजार जाकर एक बड़ी-सी भेटक, रोहू या गंगा को एक जोड़ी हिलसा मछली खरीद, गर्व के साथ हाथ में लटकाते हुए ले आते ताकि लोगों की नजर उस पर न पड़ सके।
हैम ने एक दिन अपने पिता से कहा था, ‘‘रास्ते में बैठकर तेल-मालिश क्यों करते हो, बापू ? शर्म नहीं लगती ?’’
हैम का वह सवाल घर के लोगों की हंसी की खुराक बनकर बहुत दिनों तक मौजूद था।
हां, हैम की बात पर बीच-बीच में हंसी का रेला दौड़ जाता। हैम ने एक दिन अपनी ताई से कहा था, ‘‘रात दिन सिर्फ खाना ही पकाना—इसके अलावा तुम लोगों को और कोई काम अच्छा नहीं लगता है ?’’ यह बात पूरे मुहल्ले में फैल गयी थी।
हैम की मंझली ताई हंसी से लहालोट हो गयी थी और बोली थी, ‘‘खाना पकाना अच्छा काम नहीं है क्या ? तो फिर अच्छा काम कौन-सा है री हैम ? कुर्सी पर बैठ कार्पेट पर बेलबूटे काढ़ना ? ऊन बुनना ?’’
हैम की ताइयों को यह सब काम अत्यन्त हास्यकर प्रतीत होता, इसीलिए इस तरह की तुलना प्रस्तुत की थी।
हैम को सोचने पर कोई कूल-किनारा नहीं मिलता कि वह सब काम क्यों हास्यास्पद है और खाना पकाना सबसे श्रेष्ठ काम। उसकी बात पर सभी हंस क्यों देते हैं, यह सोचकर किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाती वह।
हैम की ताई की लड़की शैल ने कहा था, ‘‘हंसूगी क्यों नहीं ? तुम परले दर्जे के बेवकूफ हो। किससे क्या कहना चाहिए, इस पर ध्यान नहीं देती हो। ऊन बुनना, लेस बुनना बुरा नहीं है। निमली की मां ने कितनी सुंदर बुनाई के काम किये हैं कि देखने पर आखें जुड़ जाती हैं। ऐसा हो तो भी आकर मां से कहूंगी यह बात ? मां से बल्कि निंदा करते हुए कहती हूं। निंदा करने पर मां को खुशी होती है। मां सुनकर लहालोट हो जाती है, खोद-खोदकर पूछती है और कहती है, तो फिर उन लोगों की घर-गहस्थी कौन चलाता है ?
मैं कहती हूं, निमली की दादी मां को रात-दिन रसोईघर में देखती हूं। यह सुनकर मां ही-ही कर हंसने लगती है। मां ने हम लोगों की दादी मां को उन लोगों की खिल्ली उड़ाते हुए सुनाया।’’
हैम की बेवकूफी का एक और प्रमाण देखने को मिला। हैम ने अवाक् होकर कहा, ‘‘खिल्ली उड़ाते हुए ? किसकी खिल्ली ?’’
तीन-चार लड़कियां खिलखिलाकर हंस दीं।
‘‘खिल्ली ? अरे, किसकी खिल्ली ? दीवार की ! बेवकूफ कहीं की !’’
इस तरह बेवजह मजाक उड़ाना, बेवजह हैम को नीचा दिखाना, बेवजह हंसी से लहालोट हो जाना हैम को जहर जैसा लगता है।
इससे बेहतर है, अलग-थलग ही रहे। अकेले रहना ही बेहतर है।
उन लोगों के घर की लड़कियों को स्कूल में पढ़ाने का रिवाज नहीं था। हैम की दादी मां कहती, ‘‘चोटी झुलाते हुए स्कूल जाने से कौन-सा फायदा होगा ? सीखेगी तो सिर्फ फैशन ही। दफ्तर में नौकरी करने जाना नहीं है।’’
दादी मां की बात ही अंतिम बात हुआ करती थी।
दादी मां का ही निर्णय आखिरी निर्णय हुआ करता था।
इसलिए लड़कियों का वह झुंड सुबह-दोपहर-शाम घर में ही रहता। सुबह, दोपहर और शाम के वक्त बड़े-बुजुर्गों की दृष्टि के घेरे के अंदर रहना पड़ता। गृहस्थी का भी थोड़ा-बहुत काम करना पड़ता। छोटी चाची के पांच छोटे-छोटे बच्चे थे, उसकी बड़ी लड़की को भाई-बहनों के ढेर सारे काम करने पड़ते थे। ताइयों की लड़कियां पान बनातीं, बिस्तर उठातीं, गीले कपड़े सूखने देतीं। इसके अलावा जो भी फरमाइश की जाती, उसे पूरा करना पड़ता। घर के सिर्फ उम्रदार व्यक्तियों की ही नहीं, किशोरवय के चचेरे भाइयों की फरमाइशों का कोई अंत नहीं था।
फिर भी दोपहर में काफी कुछ अवकाश मिल जाता।
लड़कियां एक साथ बैठ ‘गोलोक धाम’ खेलतीं, इमली का बीज ले ‘घेरा पार करने’ का खेल खेलतीं; नहीं तो फिर बैठे-बैठे बड़बोली औरतों की तरह बातें करतीं।
हैम को याद है, उन लोगों की निरर्थक हंसी, गृहणियों जैसी बातें, एक किस्म की रहस्यमयी अदा के साथ आंखों-आंखों में एक-दूसरे की ओर इशारा करना हैम को उबाऊ महसूस होता है। वे भी हैम को अपने दल में शामिल करना नहीं चाहतीं। कहतीं ‘‘तुम यहां से कटो, तुम गंवार हो। मां वगैरह के सामने कौन-सी बात कह दोगी, मालूम नहीं।’’
उन लोगों के दल में शामिल न हो पाने से हैम ऐसा महसूस नहीं करती कि उसका कोई नुकसान हुआ हो। फिर भी उस तरह की बात सुनकर उसका चेहरा अपमान से रक्तिम हो उठता है।
हैम को याद है, एक दिन गुस्से में आकर उसने कहा था, ‘‘बड़ों को कहने से यदि गुनाह होगा तो फिर इस तरह की बातें क्यों करती हो ? अच्छी बातें नहीं कर सकतीं ? असभ्य, गंदी, ओछी कहीं की !’’
वे बड़े-बुजुर्गों की तरह ही हंसते-हंसते लहालोट हो गयी थीं। हैम की हमउम्र कमली बोली थी, ‘‘आओ, संझली दी, आज हम हरि-कथा कहें।’’
दुबारा उसी हंसी का रेला।
पर हां, हैम को बाद में, बहुत बाद में, समझ में आया था कि छोटी-छोटी वे लड़कियां उस समय ही दुनिया के तमाम सार तत्त्वों को समझ गयी थीं। वह सब जानकारी उन लोगों के मां-बाप से संबंधित रहस्यमयी जानकारी थी। संझली चाची का इतने सारे बाल-बच्चों के होने के बावजूद पुनः गर्भवती होना हास्यकर और लज्जाजनक विषय है, यह बात संझली चाची की लड़की की तकलीफदेह राय से जाहिर हुई थी।
शोभा ने कहा था, ‘‘गले में फंदा डाल लेना चाहिए। फिर प्रसव-घर में ! उन लोगों का क्या बिगड़ेगा ? कष्ट तो मुझे ही झेलना है।’’
‘‘हां,’’ उस दिन भी हैम ने कहा था, ‘‘यदि भगवान दे रहे हैं तो वे लोग क्या करेंगी ? तुझे तकलीफ होगी तो भगवान नहीं देंगे ?
भगवान !
छोटी दी शोभा ‘भगवान’ शब्द पर जोर डालते हुए कितनी व्यंग्यपूर्ण हंसी हंस दी थी ! उसे धक्का मारकर गिरा दिया था और कहा था, ‘‘लो, मेरी गंवार सहेली आ धमकी। सीधी-सी बात भी उसकी समझ में नहीं आती। देख रही हो न, संझली दी, हैम कितनी शैतान है। ऐसा भाव दिखाती है जैसे अभी-अभी मां की कोख से बाहर निकली है...अरी, एकदिन हम लोगों के कमरे में लेटकर देखना। देखने को मिलेगा कि कौन भगवान देता है।
हैम को झटके जैसे महसूस हुआ था।
सिर्फ देह में ही नहीं, मन में भी।
हैम को भय का अहसास हुआ था।
हैम ने भागकर दादी मां के घर में शरण ली थी। लेकिन आंख खोलकर नहीं, आंख मूंदकर।
दादी मां की दोपहर की नींद कितनी अरुचि उभारने वाली होती। अकसर खाना खाने के बाद पैर धोकर कपड़ा फींचती और सूखने डाल देती। उसके बाद एक अंगोछा पहन लेट जाती। सूखा, बटी हुई डोरी वाला अंगोछा।
दादी मां के उस सुप्त शरीर को देखते ही हैम को तसवीर में देखी हुई पूतना राक्षसी का स्मरण हो आता।
पोपले मुंह से एक प्रकार की अजीब आवाज निकलती। यह देखकर हैम का शरीर भय से कांप उठता।
लेकिन नियति के परिहास के कारण एक ऐसा वक्त आया कि उसी दादी मां के कमरे में हैम के लिए रात में सोने का प्रबंध चालू कर दिया गया। दादी मां ने ही कहा, ‘‘अब तू बड़ी हो गयी है, अब तेरे अपने बाप के कमरे में सोना ठीक नहीं। अपना तकिया लेकर मेरे कमरे में चली आना।’’
अकस्मात अपने कमरे से निर्वासन-दंड का आदेश मिलने पर हैम की आंखों में आंसू भर आये थे और उसने अपनी गंवार जैसी भंगिमा के साथ कहा, ‘‘बड़ी हो जाने से क्या होता है। मंझली दी, संझली दी और छोटी दी क्या अपने पिता के कमरे में नहीं सोतीं ?’’
दादी मां झुंझलाकर बोली थीं, ‘‘तमाम बातें खुलकर कहे बगैर इस गंवार के दिमाग में कुछ नहीं घुसता। उन लोगों के कमरे में उनकी मांएं रहती हैं, तेरी है ?’’
नहीं है, जानती है हैम। लेकिन न रहने के एक नुकसान के बाद फिर एक और नुकसान क्यों बरदाश्त करेगी हैम ?
एकाएक बोली, ‘‘तुम्हारे कमरे में सोने में बड़ा बुरा लगता है। तुम्हारी नाक से इतनी आवाज निकलती है कि ....।’’
‘‘क्या, क्या कहा ?’’ दादी मां बोली थीं, ‘‘तो फिर बूढ़ी धिंगड़ी तू बाप के कमरे में ही रह ! सभ्यता-शोहबत की तुम्हें तालीम देना मुश्किल है। गंवार, जंगली, जानवर कहीं की !’’
इतना ही नहीं।
उस दिन हैम को बेहद लांछना का शिकार होना पड़ा था। अपने से बड़े का अपमान करने के कारण घर के हर सदस्य ने उसको भरपूर खरी-खोटी सुनाई थी। बेचारे पिताजी अकेले रहेंगे, यह सोचकर बड़ी ही ममता जग रही थी हैम के हृदय में। लेकिन उसी पिता ने रात के वक्त उससे कहा था, ‘‘जा, इस कमरे से चली जा। दादी मां का पैर पकड़कर क्षमा मांग और उसी कमरे में सो रह।’’
‘‘बड़ी हो गयी’ दस साल की उस लड़की का रोते हुए, हाथ में तकिया थामे, दादी मां के कमरे में प्रवेश करने का दृश्य हैम को मानो अब भी दिखाई पड़ रहा है।
निरुपाय, उत्पीड़ित उस छोटी बालिका के बारे में सोचते ही हैमवती के प्राणों में हाहाकार की आंधी चलने लगती है।
वे लोग क्या निष्ठुर थे ?
बिलकुल हृदयहीन ?
नहीं, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। वे लोग सिर्फ प्रचलित प्रथा के गुलाम थे।
उस समय समझ नहीं पाती थी हैम नामक वह लड़की, लेकिन अब हैमवती समझ पाती है।
प्रथा अत्यन्त शक्तिशालिनी स्वामिनी हुआ करती है।
प्रथा प्रतापशाली शासक है।
प्रथा के सामने स्नेह खड़ा नहीं हो सकता, न ही ‘हृदय’ नामक वस्तु।
लड़की बड़ी हो जाय तो वह एक अपराध है, इसका अहसास उसी दिन पहले-पहल हुआ हैम को।
उसके बाद फिर एक दिन, कुछ ही दिनों बाद एक दिन।
हैम को जैसे किसी और ही दुनिया का सुखद अहसास हुआ था।
वही पहला दिन था कि हैम ने पहले-पहल ‘सुन्दर’ को देखा था। देखा था ‘शोभनीय’ को।
उसका उतने दिनों से दिन-रात असुन्दर के स्पर्श से पीड़ित चित्त मानो एकाएक प्रकाश से जगमगा उठा था।
दुर्गा-पूजा की पंचमी का दिन—
फुफेरी बड़ी बहन तरु नयी-नयी शादी के बाद मामा के घर घूमने-फिरने आयी, साथ में था उसका पति गौतम। हैम का वह ग्यारह-बारह साल का मन वहीं पछाड़ खाकर दिग्भ्रमित हो गया।
शुरू में उसके नाम पर ही निछावर हो गई।
किसी आदमी का नाम इतना सुन्दर हो सकता है।
हैम के घर में तमाम पुरुषों का और भावी पुरुषों का नाम देवताओं के नाम पर है। एकबारगी कृष्ण, विष्णु, हरि, हर सभी को उन लोगों ने धर-पकड़कर रख लिया है।
उन कृष्ण-विष्णु वगैरह के घर में ‘गौतम’ जैसा नाम एक दूसरी ही दुनिया की हवा ढोकर ले आया।
सिर्फ नाम ही क्यों ? चेहरा क्यों नहीं ? उस पर जमाई बाबू की प्रत्येक भंगिमा, बातचीत, हंसने और देखने की कला, खाना खाने और बैठने का तौर-तरीका बेजोड़ है।
हैम के प्यासे मन को जैसे स्फटिक भृंगारि का जल प्राप्त हुआ। इतने दिनों के क्षूधार्त्त मन को स्वर्ग का अमृत-फल प्राप्त हुआ।
ऐसे में जमाई बाबू की संगति को हैम कैसे विसर्जित करे ?
अबोध हैम सवेरे से रात में सोने के पहले तक जमाई बाबू के इर्द-गिर्द मंडराती रहती है। जमाई बाबू जब बातचीत करते हैं तो अपलक ध्यान से देखती रहती है। जमाई बाबू हंसते हैं तो खुशियों से झूम उठती है।
इसके अतिरिक्त जमाई बाबू से ही पहले-पहल हैम को स्वीकृति मिली थी। बुद्धि की स्वीकृति।
हां, गौतम ने कहा था, ‘‘तरु तुम्हारी यह बहन बहुत ही बुद्धिमत्ती है।’’
‘‘बुद्धिमत्ती !
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