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मानस का हंस

अमृतलाल नागर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 519
आईएसबीएन :9788170282495

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‘रामचरितमानस’ के रचयिता संत तुलसीदास के जीवन पर आधारित काल्पनिक उपन्यास

Manas ka Hans - A hindi Book by - Amritlal Nagar मानस का हंस - अमृतलाल नागर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

‘मानस का हंस’ प्रख्यात लेखक अमृतलाल नागर का व्यापक प्रतिष्ठित बृहद् उपन्यास है। इसमें पहली बार व्यापक कैनवास पर ‘रामचरितमानस’ के लोकप्रिय लेखक गोस्मावी तुलसीदास के जीवन को आधार बनाकर रची गई है, जो विलक्षण रूप से प्रेरक, ज्ञानवर्द्धक और पठनीय है। इस उपन्यास में तुलसीदास का जो स्वरूप चित्रित किया गया है, वह एक सहज मानव का रूप है। यही कारण है कि ‘मानस का हंस’ हिन्दी उपन्यासों में ‘क्लासिक’ का सम्मान पा चुका है और हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि माना जाता है।
नागरजी ने इसे गहरे अध्ययन और मंथन के पश्चात अपने विशिष्ट लखनवी अन्दाज़ में लिखा है। बृहद् होने पर भी यह उपन्यास अपनी रोचकता में अप्रतिम है।

 

आमुख

 

गत वर्ष अपने चिरंजीव भतीजों (स्व. रतन के पुत्रों) के यज्ञोपवीत संस्कार के अवसर पर बम्बई गया था। वहीं एक दिन अपने परम मित्र फिल्म निर्माता-निदेशक स्व. महेश कौल के साथ बातें करते हुए सहसा इस उपन्यास को लिखने का संकल्प मेरे मन में जागा। महेश जी बड़े मानस-प्रेमी तुलसी भक्त थे। बरसों पहले एक बार उन्होंने उत्कृष्ट फिल्म सिनेरियो के रूप में ‘रामचरितमानस’ का बखान करके मुझे चमत्कृत कर दिया था, इसीलिए मैंने उनसे मानस-चतुश्शती के अवसर पर तुलसीदास के जीवनवृत्त पर आधारित फिल्म बनाने का आग्रह किया है। महेश जी चौंककर मुझे देखने लगे, कहा, - ‘‘पंडितजी, क्या तुम चाहते हो कि मैं भी चमत्कारबाजी की चूहादौड़ में शामिल हो जाऊं ? गोसाई जी की प्रामाणिक जीवन-कथा कहां है?’’

यह सच है कि गोसाई जी की सही जीवन-कथा नहीं मिलती। यों तो कहने को रघुबरदास, वेणीमाधवदास, कृष्णदत्त मिश्र, अविनाशराय और संत तुलसी साहब के लिखे गोसाईं जी के पाँच जीवन चरित हैं। किन्तु विद्वानों के मतानुसार वे प्रामाणिक नहीं माने जा सकते। रघुबरदास अपने आप को गोस्वामी जी का शिष्य बतलाते हैं लेकिन उनके द्वारा प्रणीत ‘तुलसीचरित’ की बातें स्वयं गोस्वामी जी की आत्मकथा-परक कविताओं से मेल नहीं खातीं। संत वेणीदास माधव लिखित ‘मूल गोसाई चरित’ में गोसाई जी के जन्म, यज्ञोपवीत, विवाह, मानस-समाप्ति आदि से संबंधित जो तिथि, वार और संवत् दिए गए हैं वे भी डॉ. माताप्रसाद गुप्त और डॉ. रामदत्त भारद्वाज की जांच-कसौटी पर खरे नहीं उतरते।

इसी प्रकार गोस्वामी जी के अन्य जीवनचरित भी सच से अधिक झूठ से जड़े हुए हैं। परन्तु यह मानते हुए भी कवितावली, हनुमानबाहुक, और विनयपत्रिका आदि रचनाओं में तुलसी के संघर्षों-भरे जीवन की ऐसी झलक मिलती है जिसे नजरअन्दाज़ नहीं किया जा सकता है। किंवदंतियों में जहाँ अन्धश्रद्धा-भरा झूठ मिलता है वहां ही ऐसी हकीकतें भी नज़र आती हैं और गोसाई जी की आत्म-परक कविताओं का ताल-मेल बैठ जाता है। इसके अलावा मेरे मन में तुलसीदासजी का ‘ड्रामा प्रोड्यूसर’ और कथावाचक वाला रूप भी था, जिसके कारण मैं मित्रवर महेश जी की बात के विरोध में चमत्कारी तुलसी से अधिक यथार्थवादी तुलसी की वकालत करने लगा।

लगभग पांच-छ: वर्ष पहले एक दिन बनारस में मित्रमण्डली में गोसाई जी द्वारा आरम्भ की गई रामलीला से संबंधित बातें सुनते-सुनते एकाएक मेरे मन में यह प्रश्न उठा कि तुलसी बाबा ने किसी एक स्थान को अपनी रामलीला के लिए न चुनकर पूरे नगर में उसका जाल क्यों फैलाया-कहीं लंका, कहीं राजगद्दी, कहीं नककटैया-अलग-अलग मुहल्लों में अलग-अलग लीलाएं कराने के पीछे उनका खास उद्देश्य रहा होगा ? शौकिया तौर से रंगमंच के प्रति कभी मुझे भी सक्रिय लगाव रहा है। एक पूरे शहर को रंगमंच बना देने का खयाल अपने-आप में ही बड़ा शानदार लगा, लेकिन मेरा मन मानने को तनिक भी तैयार नहीं होता था कि तुलसीदास जी ने ‘प्रयोग के लिए प्रयोग वाले’ सिद्धान्त के अनुसार ऐसा किया होगा। खैर, तभी यह भी जाना कि रामलीला कराने से पहले गोसाईं जी ने बनारस में नागनथैयालीला, प्रह्लादलीला और ध्रुवलीलाएं भी कराई थीं। इनमें ध्रुवलीला को छोड़कर बाकी लीलाएं आज तक बराबर होती हैं। यह तीनों लीलाएं किशोरों और नवयुवकों से संबंधित हैं। यह बात उसी समय ध्यान में आई थी।

अपने प्रियबंधु अशोक जी, जो इन दिनों लखनऊ से प्रकाशित होनेवाले दैनिक समाचारपत्र ‘स्वतंत्र भारत’ के संपादक हैं, से एक बार प्रसंगवश यह जानकारी मिली कि बनारस की रामलीला में केवट, अहिर, ठठेरे, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जातियों के लोग अभिनय करते हैं। काशी में अनेक हनुमान मंदिरों के अलावा जनश्रुतियों के अनुसार कसरत-कुश्ती में अखाड़ों में भी बाबा की प्रेरणा से ही हनुमान जी की मूर्तियां प्रतिष्ठापित करने का चलन चला। मुझे लगा कि तुलसी और तुलसी के राम आचार्य रामचन्द्रशुक्ल के सुझाए शब्द के अनुसार निश्चय ही ‘लोकधर्मी’ थे। ‘सियाराम मय जग’ की सेवा करने के लिए गोस्वामी तुलसीदास संगठनकर्ता भी हो सकते थे। रूढ़िपंथियों से तीव्र विरोध पाकर यदि ईसा आर्त जन-समुदाय को संगठित करके अपने हक की आवाज बुलन्द कर सकते थे तो तुलसीदास भी कर सकता था। समाज संगठन-कर्ता की हैसियत से भी सभी को कुछ न कुछ व्यावहारिक समझौते भी करने पड़ते हैं, तुलसी और गाँधी जी ने हमारे समय में वर्णाश्रमियों से कुछ समझौते किए पर उनके बावजूद इनका जनवादी दृष्टिकोण स्पष्ट है। तुलसी ने वर्णाश्रम धर्म का पोषण भले किया हो पर संस्कारहीन, कुकर्मी ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि को लताड़ने में वे किसी से पीछे नहीं रहे। तुलसी का जीवन संघर्ष, विद्रोह और समर्पण-भरा है। इस दृष्टि से वह अब भी प्रेरणादायक है।

महेश जी की बात के उत्तर में यह तमाम बातें उस समय कुछ यों संवर के उतरीं कि खुद मेरा मन ही उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित हो उठा। महेश जी भी ऐसे जोश में आ गए कि अपनी लाटसाहबी अदा में मुझे दो महीनों में फिल्म-स्क्रिप्ट लिख डालने का हुक्म फरमा दिया। मैंने कहा, ‘‘पहले उपन्यास’’ लिखूंगा। तब तक तुम अपनी हाथ लगी पिक्चर ‘अग्निरेखा’ पूरी करो।’’ किन्तु नियति ने महेश जी को ‘अग्निरेखा’ लांघने न दी। गत 2 जुलाई को उनका देहावसान हो गया। किताब के प्रकाशन के अवसर पर महेश कौल का न रहना कितना खल रहा है, यह शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाता।

इस उपन्यास को लिखने से पहले मैंने ‘कवितावली’ और ‘विनयपत्रिका’ को खास तौर से पढ़ा। ‘विनयपत्रिका’ में तुलसी के अंतसंघर्ष के ऐसे आनेवाले क्षण संजोए हुए हैं कि उसके अनुसार ही तुलसी के मनोव्यक्तित्व का ढांचा खड़ा करना मुझे श्रेयकर लगा। ‘रामचरितमानस’ की पृष्ठ भूमि में मानसकार की मनोछवि निहारने में भी मुझे ‘पत्रिका’ के तुलसी ही से सहायता मिली। ‘कवितावली’ और ‘हनुमानबाहुक’ में खास तौर से और ‘दोहावली’ तथा ‘गीतावली’ में कहीं-कहीं तुलसी की जीवन-झांकी मिलती है। मैंने गोसाई जी से संबंधित अगणित किवंदतियों में से केवल उन्हीं को अपने उपन्यास के लिए स्वीकारा जो कि इस मानसिक ढांचे पर चढ़ सकती थी।
तुलसी के जन्म-स्थान तथा सूकरखेत बनाम सोरों विवाद में दखलंदाजी करने की ज़ुअरत करने की नीयत न रखते हुए भी किस्सागो की हैसियत से मुझे इन बातों के संबंध में अपने मन का ऊंट किसी करवट बैठाना ही था। चूंकि स्वर्गीय डॉ. माताप्रसाद गुप्त और डॉ. उदयभानु सिंह के तर्कों से प्रभावित हुआ इसलिए मैंने राजापुर को ही जन्म-स्थान के रूप में चित्रित किया है।

उपन्यास में मैंने एक जगह नवयुवक तुलसी और काशी की एक वेश्या का असफल प्रेम चित्रित किया है। वह प्रसंग शायद किसी तुलसी-भक्त को चिढ़ा सकता है लेकिन ऐसा करना मेरा उद्देश्य नहीं हैं। ‘तन तरफत तुव मिलन बिन’ आदि दो दोहे पढ़े, जिनके बारे में यह लिखा था कि यह दोहे तुलसीदास जी ने अपनी पत्नी के लिए लिखे थे। जनश्रुतियों के अनुसार गोसाईं बाबा अपनी बीवी से ऐसे चिपके हुए थे कि उन्हें मैके तक नहीं जाने देते थे, फिर बाबा उन्हें यह दोहेवाली चिट्ठी भला क्यों भेजने लगे ? खैर, यों मान लें कि जवानी की उमंग में तुलसी ने अपने बैठके में यह दोहे रचकर किसी दास या दासी की मार्फत किसी बात पर कई दिनों से रूठी हुई पत्नी को मनाने के लिए खुशामद में लिखकर अन्त:पुर में भिजवाएं थे पर एक दोहे में प्रयुक्त ‘तरुणी’ शब्द मेरी इस कल्पना के भी आड़े आया। पत्नी के लिए लिखते तो शायद ‘भामिनी’ शब्द का प्रयोग करते, ‘तरुणी’ शब्द थोड़े अपरिचय का बोध करता है। वैसे भी पंडित तुलसीदास ने, बकौल बंधुवर डॉ. रामविलास शर्मा, कालिदास को खूब घोंटा होगा। वे कभी रसिया भी रहे होंगे। ‘विनय पत्रिका’ में वे अपनी ‘मदन बाय’ से खूब जूझे हैं। कलियुग के रूप में उन्हें पद और पैसे का लोभ तो सता नहीं सकता, सताया होगा कामवृत्ति ने। मुझे लगता है कि तुलसी ने काम ही से जूझ-जूझ कर राम बनाया है। ‘मृगनयनी के नयन सर, को अस लागि न जाहि’ उक्ति भी गवाही देती है कि नौजवानी में वे किसी के तीरे-नीमकश से बिंधे होंगे। नासमझ जवानी में काशी निवासी विद्यार्थी तुलसी का किसी ऐसे दौर से गुजरना अनहोनी बात भी नहीं है।

संत बेनीमाधवदास के संबंध में भी एक सफाई देना आवश्यक है। संत जी ‘मूल गोसाई चरित’ के लेखक माने जाते हैं। उनकी किताब के बारे में भले की शक-शुब्हे हों, मुझे तो अपने कथा-सूत्र के लिए तुलसी का एक जीवनी-लेखक एक पात्र के रूप में लेना अभीष्ट था इसलिए कोई काल्पनिक नाम न रखकर संत जी का नाम रख लिया। तुलसी के माता, पिता, पत्नी, ससुर आदि के प्रचलित नामों का प्रयोग करना ही मुझे अच्छा लगा।

यह उपन्यास 4 जून सन् 1971 ई. को तुलसी स्मारक भवन, अयोध्या में लिखना प्रारंभ करके 23 मार्च’ 72, रामनवमी के दिन लखनऊ में पूरा किया। चि. भगवंतप्रसाद पाण्डेय ने मेरे लिपिक का काम किया।
इस उपन्यास को लिखते समय मुझे अपने दो परमबंधुओं, रामविलास शर्मा और नरेन्द्र शर्मा के बड़े ही प्रेरणादायक पत्र अक्सर मिलते रहे। उत्तर प्रदेश राजस्व परिषद् के अध्यक्ष श्रीयुत जनार्दनदत्त जी शुक्ल ने अयोध्या के तुलसी स्मारक में मेरे रहने की आरामदेह व्यवस्था कराई। बंधुवर ज्ञानचंद्र जैन सदा की भांति इस बार भी पुस्तकालयों से आवश्यक पुस्तकें लाकर मुझे देते रहे। इन बंधुओं के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूं।

डॉ. मोतीचन्द्र लिखित ‘काशी का इतिहास’ तथा राहुल सांकृत्यायन लिखित ‘अकबर’ पुस्तकों ने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि संजोने में तथा स्व. डॉ. उदयभानु सिंह कृत ‘तुलसी काव्य मीमांसा’ ने कथानक का ढांचा बनाने में बड़ी सहायता दी। प्रयाग के मित्रों ने ‘परिमल’ संस्था में इस उपन्यास के कतिपय अंश सुनाने के लिए मुझे साग्रह बुलाया और सुनकर कुछ उपयोगी सुझाव दिए। मैं इन सबके प्रति कृतज्ञ हूं।

अन्त में मित्रवर स्व. रुद्ध काशिकेय का सादर सप्रेम स्मरण करता हूं। वे बेचारे ‘रामबोला बोले’ अधूरा छोड़कर ही चले गए। रुद्ध जी काशी के चलते-फिरते विश्वकोष थे। स्व. डॉ. रांगेय राघव भी ‘रत्ना की बात’ लिखकर तुलसी के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त कर गए हैं। मानस चतुश्शती मनाने का सुझाव सबसे पहले ‘धर्मयुग’ में देने वाले डॉ. शिवप्रसाद सिंह और समारोह के आयोजक, काशी नागरी प्रचारिणी सभा के प्रधान मंत्री श्री सुधाकर पाण्डेय तथा वे परिचित-अपरिचित लोग जो गोस्वामी जी के सबल व्यक्तित्व को अन्ध श्रद्धा के दलदल से उबार कर सही और स्वस्थ रीति से जनमानस में प्रतिष्ठित कराने के लिए प्रयत्नशील है, चाहे आयु में मुझसे बड़े हों या छोटे, मेरी श्रद्धा के पात्र हैं।

 

अमृतलाल नागर

 

1

 

श्रावण कृष्णपक्ष की रात। मूसलाधार वर्षा, बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की कड़कन से धरती लरज-लरज उठती है। एक खण्डहर देवालय के भीतर बौछारों से बचाव करते सिमटकर बैठे हुए तीन व्यक्ति बिजली के उजाले में पलभर के लिए तनिक उजागर होकर फिर अंधेरे में विलीन हो जाते हैं। स्वर ही उनके अस्तित्व के परिचायक हैं।
‘‘बादल ऐसे गरज रहे हैं मानो सर्वग्रासिनी काम क्षुधा किसी संत के अंतर आलोक को निगलकर दम्भ-भरी डकारें ले रही हो। बौछारें पछतावे के तारों-सी सनसना रही है।.....बीच-बीच में बिजली भी वैसे ही चमक उठती है जैसे कामी के मन में क्षण-भर के लिए भक्ति चमक उठती है।’’

‘‘इस पतित की प्रार्थना स्वीकारें गुरु जी, अब अधिक कुछ न कहें। मेरे प्राण के भीतर-बाहर कहीं भी ठहरने का ठौर नहीं पा रहे हैं। आपके सत्य वचनों से मेरी विवशता पछाड़े खा रही है।’’
‘‘हां ऽ, एक रूप में विवशता इस समय हमें भी सता रही है। जो ऐसे ही बरसता रहा तो हम सबेरे राजापुर कैसे पहुंच सकेंगे रामू ?’’

‘‘राम जी कृपालु है प्रभु। राजापुर अब अधिक दूर नहीं है। हो सकता है, चलने के समय तक पानी रुक जाय।’’
तीसरे स्वर की बात सच्ची सिद्ध हुई। घड़ी-भर में ही बरखा थम गई। अंधेरे में तीन आकृतियां मन्दिर के बाहर निकलकर चल पड़ी।
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मैना कहारिन सबेरे जब टहल-सेवा के लिए आई तो पहले कुछ देर तक द्वारे की कुण्डी खटखटाती रही, सोचा नित्य की तरह भीतर से अर्गल लगी होगी, फिर औचक में हाथ का तनिक-सा दबाव पड़ा तो देखा कि किवाड़े उढ़के-भर थे। भीतर गई, ‘दादी-दादी’ पुकारा, रसोई वाले दालान में झांका, रहने वाले कोठे में देखा पर मैया कहीं भी न थीं। मैना का मन ठनका। बाकी सारा घर तो अब धीरे-धीरे खण्डहर हो चला है और कहां देखे ! पुकारे से भी तो नहीं बोलीं। कहां गई ? मैना ने एक बार सारा घर छानने की ठानी, तब देखा कि वे ऊपरवाले अध-खण्डहर कमरे में अचेत पड़ी तप रही हैं।


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