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हस्तलिपि विज्ञान

बालकृष्ण मिश्र

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5173
आईएसबीएन :81-85828-68-7

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हस्तलिपि विज्ञान के संबंध में

HASTILIPI VIGYAN

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हस्तलिपि विज्ञान का लेखक के स्वभाव, व्यक्तित्व और मानसिक अवस्था से सीधा सम्बन्ध होता है। इसके द्वारा लिखने वाले की लिखावट के चिह्नों अधोगामी, अग्रगामी ऊर्ध्वगामी, वक्राकार व सीधी रेखाएं, विसर्ग और विराम आदि के विवेचन द्वारा व्यक्ति का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सकता है।
कुछ भी लिखते समय व्यक्ति के स्वभाव मन तथा चरित्र में जो भी प्रवृत्तियों प्रधान होती हैं, विशेष चिह्नों, लाइनों, घुमाव, बिन्दुओं मात्राओं व उसकी लिखावट पर उसकी उन प्रवृत्तियों का स्पष्ट एवं शुद्ध प्रभाव पड़ता है, जिनसे उसके स्वभाव, मानसिक गठन तथा चरित्र के अनेक लक्षणों का पता चल जाता है।

वास्तव में यह विद्या विज्ञान पर आधारित व्यक्ति के चरित्र का दर्पण है जिसके द्वारा हम यह जान सकते हैं कि अमुक व्यक्ति कितने गहरे पानी में है, उस पर कितना भरोसा किया जा सकता है तथा क्या वह कोई जिम्मेदारी संभालने के योग्य है अथवा नहीं ?

व्यक्ति अपनी भाषा, वाणी, हाव-भाव इत्यादि को समयानुकूल नाटकीय बनाकर, तो किसी को धोखे में डाल सकता है, परन्तु अपनी लिखावट में वह अपने अन्तःकरण की अज्ञात प्रेरणाओं को स्पष्ट होने से नहीं रोक सकता।

विशेषज्ञों ने लाखों व्यक्तियों की लिखावटों के चिह्नों का मिलान करके यह सिद्ध कर दिया है कि कोई भी दो लिखावटें पूर्ण रूप से समान नहीं हो सकतीं तथा हस्तलिपि के द्वारा आप किसी भी व्यक्ति का यथार्थ विश्लेषण कर सकते हैं।

प्रस्तावना

कुछ वर्ष हुए मैंने हस्तलिपि विज्ञान के विषय में एक लेख लिखा था। वह विज्ञानशाला पत्रिका ग्वालियर में प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत पुस्तक की वास्तविक भूमिका वही लेख है। कुछ संशोधन के साथ वही लेख इस पुस्तक के प्रारम्भ में दिया गया है। विषय की सहज व्याख्या उसमें मिलेगी। हस्तलिपि विज्ञान की उपयोगिता, इसके सामाजिक एवं व्यावसायिक जीवन में प्रयोग तथा उसके प्रति मेरा अपना दृष्टिकोण आदि मूल प्रश्नों का संक्षिप्त विवेचन भी उसी लेख में मिलेगा।

उस लेख के प्रकाशन के उपरान्त अनेक गम्भीर प्रश्न मेरे सामने आये। हस्तलिपि विज्ञान की वैज्ञानिकता के विषय में बहुत सी शंकाएं व आलोचनाएं प्रस्तुत हुईं। जो विद्वान व गम्भीर विचारक महानुभाव इस विषय की ओर आकर्षित हुए और जिन पाठकों के सम्मुख इस विषय की मनोवैज्ञानिक क्षमता प्रदर्शित की गयी तथा जिन्हें इसका कुछ अनुभव हुआ, उन्होंने समय-समय पर मुझे यथोचित प्रोत्साहन दिया। उन महानुभावों से मुझे ऐसी प्रेरणा मिली कि हस्तिलिपि विज्ञान के विषय पर और अधिक प्रकाश डाला जाये तथा इस विषय की विधिवत् प्रक्रिया का विस्तृत विवेचन किया जाये। इसी उद्देश्य से प्रस्तुत पुस्तक की रचना का प्रयास किया गया है।

पाश्चात्य देशों में प्रायः गत एक शताब्दी से इस विषय पर गम्भीर खोज हो रही है तथा आज भी अनेक प्रयोग एवं अनुसन्धान कार्य चल रहे हैं। फलस्वरूप वहां इस विषय का पर्याप्त एवं गम्भीर साहित्य प्रकाशित हो चुका है। यह साहित्य मूलतः जर्मन एवं फ्रेंच भाषाओं में है। अंग्रेजी में भी इस विषय का पर्याप्त साहित्य उपलब्ध है। उन देशों में यह विषय विशिष्ट ज्ञान के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुका है तथा इसे मनोविज्ञान शास्त्र का एक आवश्यक एवं उपयोगी अंग मान लिया गया है। हैम्बर्ग, बोन एवं म्यूनिख़ आदि कई महाविद्यालयों के पण्डितों ने केवल रोमन लिपि का ही उपयोग किया है। जो मूल तत्त्व रोमन लिपि पर सिद्ध हो सकते हैं, वे अथवा उस प्रकार के अन्य सिद्धान्त, अन्य लिपि-लेखों पर भी सामान्यतः लागू हो सकते हैं। इस प्रकार के विचार से मैंने हस्तलिपि विज्ञान का उपयोग देवनागरी आदि उत्तर भारतीय लिपियों पर प्रारम्भ किया है।

हिन्दी में इस विषय की कोई पुस्तक प्राप्त न हो सकने में इस अनुसन्धान, प्रयोग एवं लेखन कार्य में अनेक असुविधाएं रहीं, जिनको सुलझाने का प्रयास मैंने किया है। अपने इस प्रयास में मुझे कहां तक सफलता मिल सकी है, इसका उचित अंकन पाठकगण ही कर सकेंगे। मेरा मूल प्रयास इस विषय से सम्बन्धित ज्ञान एवं प्रारम्भिक सामग्री का संचय करना रहा है और मुझे आशा है कि यह सामग्री आगे आने वाले जिज्ञासु मनोविज्ञान के विद्वानों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।

पाश्चात्य देशों में हस्तलिपि विज्ञान का लक्ष्य जीवनोपयोगी, व्यावसायिक एवं औद्योगिक आदि अनेक क्षेत्रों में रहा है, जिनमें मानव स्वभाव के मनोवैज्ञानिक सूक्ष्म निरीक्षण की महत्ता है, जैसे कि विभिन्न प्रकार के पदों के लिए प्रार्थी आवेदकों का चुनाव, छात्रों के लिए शिक्षा सम्बन्धी सलाह, नवयुवतियों एवं नवयुवकों के लिए व्यवसाय सम्बन्धी मार्गदर्शन, मानसिक स्वास्थ्य एवं सेवाकार्य में सलाह तथा बाल मनोविकार सम्बन्धी परामर्श आदि। अतः यदि भारतीय विद्वान, समीक्षक इस विषय का लक्ष्य निर्धारित करके इसकी गम्भीरता में प्रवेश करेंगे, तो निश्चय ही विषय परिचय एवं तत्सम्बन्धी उपयोगिता अधिक सफल सिद्ध होगी।

प्रायः पिछले पैंतीस वर्षों से यह कार्य धीरे-धीरे व अवकाशानुकूल चलता रहा है। इस काल में अनेक विद्वान्, महानुभावों, शिक्षकों तथा मनोविज्ञान के वरिष्ठ अधिकारियों तथा सहृदय मित्रों ने मुझे प्रोत्साहन एवं योगदान किया है। इसके लिए मैं उनका आभार प्रदर्शित करता हूं। श्री प्रफुल्ल चन्द्र चटर्जी, भूतपूर्व प्रधानाचार्य विपिन बिहारी विद्यालय, झांसी तथा श्री एफ. सी. चौथिया, वरिष्ठ अधिकारी, व्यावसायिक परामर्श संस्था, महाराष्ट्र राज्य, बम्बई का मैं विशेष आभारी हूं। इनके निर्देशन, प्रेरणा एवं सहयोग के बिना सम्भवतः प्रस्तुत कार्य सम्पन्न नहीं हो पाता।

बालकृष्ण मिश्र


हस्तलिपि विज्ञान



हस्तलिपि विज्ञान का लेखक के स्वभाव, व्यक्तित्व और मानसिक अवस्था से सीधा सम्बन्ध है। इस सत्य का अनुभव हम सब नित्य ही करते हैं। लिखने वालों की लिखावट पहचानी जाती है। उदाहरणार्थ, जैसी मेरी लिखावट है, वैसी आपकी नहीं है, और जैसा आप लिखते हैं, वैसा केवल आप ही लिखते हैं। आपकी लिखावट का अपना मौलिक रूप है, जिसे आपके परिचित व्यक्ति भली भांति पहचानते हैं।

लिखावट के थोड़े से चिह्नों अधोगामी, अग्रगामी, ऊर्ध्वगामी, वक्राकार, सीधी रेखाएं, कुछ विसर्ग और विराम आदि को सब लिखने वाले अपने विशेष ढंग से लिखते हैं। ऐसा क्यों ? हस्तलिपि विज्ञान की उत्पत्ति इस ‘क्यों’ के सहारे ही होती है जैसा आप लिखते हैं, आप वैसा ही क्यों लिखते हैं, आपके इस विशेष ढंग से लिखने में अवश्य ही कोई रहस्य छिपा है। उस रहस्य का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करना ही हस्तलिपि विज्ञान का ध्येय है।


ध्येय



हस्तलिपि विज्ञान से लिखने वाले के स्वभाव, मानसिक गठन तथा चरित्र के ऐसे विशेष लक्षणों का पता चलता है, जो उसके व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। यह विधा भूत अथवा भविष्य बताने वाली ज्योतिष विद्या नहीं है, वरन् विज्ञान पर आधारित मनुष्य के चरित्र का दर्पण है। इसके द्वारा हम यह देखते हैं कि अमुक व्यक्ति वास्तव में क्या है तथा कितने गहरे पानी में हैं ?

बात यह है कि मनुष्य के स्वभाव में, उसके मन में तथाचरित्र में जो भी शक्तियां अथवा भली-बुरी प्रवृत्तियां प्रधान होती हैं, वे मनुष्य की प्रत्येक क्रिया पर अपना प्रभाव व अपनी छाया डालती हैं। क्रोधी अथवा अशान्त प्रकृति का मनुष्य विशेष प्रकार से चलता फिरता है अथवा विशेष हाव भाव से बातचीत करता है, उसी प्रकार वह विशेष ढंग से, विशेष चिह्नों, लाइनों, घुमाव बिन्दुओं, मात्राओं द्वारा लिखता भी है। उसका अन्तःकरण उसे बाध्य करता है कि वह अपनी हस्तलिपि में अपनी विशेषता की छाप लगा दे।

इस प्रकार से भिन्न-भिन्न मानसिक अवस्था में लिखे गये पत्रों को देखते हुए तथा एक ही प्रकार के चरित्र गुण वाले भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की लिपि को देखते हुए इस विद्या को वैज्ञानिक रूप मिलता है और हम विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि अमुक प्रकार की लेखन शैली वाला व्यक्ति अमुक प्रकार की मानसिक विशेषता रखता है या अमुक प्रकार का आचरण करता है। उदाहरण के लिए हम कह सकते हैं कि विभिन्न प्रकार के व्यक्ति जैसे कि आत्मनिर्मित व्यक्ति, उत्साही व्यक्ति, लोभी तथा कायर व्यक्ति, चंचल व्यक्ति विभिन्न प्रकार की लिखावटें लिखते हैं। इन लिखावटों पर उनकी सामयिक एवं मानसिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। भय, घबराहट, क्रोध दुःख निराशा आदि उत्तेजना की अवस्था में लिखी गयी पंक्तियां तथा अक्षर अपने स्वभाव के अनुरूप विभिन्नता प्रदर्शित कर देते हैं। जो व्यक्ति स्वभाव से गम्भीर और स्थिर चित्त है उसमें अपने उत्तेजनाजनित आवेश तथा घबराहट को रोक लेने की आदत होती है। उसे अपने मन पर अधिकार होता है। उसकी आत्मशक्ति दृढ़ होती है। परिस्थितियां उसे हिला नहीं सकतीं।

अतः लेखनी भी उसके अधिकार में चलती है। उसके बनाये हुए अक्षर स्थिर रहते हैं। इसका कारण यही है कि उसमें भावुकता के आवेग से आत्मशक्ति की मात्रा कहीं अधिक बलवान् होती है। भावुकता में मनुष्य क्या नहीं कर डालता, क्या नहीं त्याग देता। तो क्या वही व्यक्ति लेखनी चलाते समय स्याही अथवा स्थान की कंजूसी करेगा ? उसकी लेखनी स्याही का उसकी भावुकता के प्रवाह की तरह प्रचुर मात्रा में बहना स्वाभाविक ही है भावुकता प्रधान व्यक्ति की लिखावट में परिवर्तनशीलता की मात्रा अधिक पायी जाती है। उसमें आत्मनिर्माण की शक्ति निर्बल रहती है। आध्यात्मिक वृत्ति वाला व्यक्ति अपने मन को, अपने विचारों को, ऊपर अनन्त की ओर उठाने का प्रयत्न करता है। इसलिए जब वह लिखता है, तो उसके अक्षरों का ऊपरी भाग अधिक स्पष्ट और अन्नत होता है।

अपने आपको कुछ विशेष महत्त्वपूर्ण समझने वाला व्यक्ति अपनी बात को असाधारण और आवश्यक जोर देकर कहता अथवा दोहराता है। इसका कारण यह है कि वह अपने अन्तर्मन की दुर्बलता को जानता है कि उसकी बात को साधारण ढंग से वह महत्त्व नहीं मिलेगा, जो कि वह प्राप्त करना चाहता है। उसमें आत्मविश्वास की कमी होती है। ऐसा व्यक्ति जब कुछ लिखता है अथवा अपने हस्ताक्षर करता है, तो उसके नीचे लेखनी पर विशेष दबाव देकर एक रेखा अथवा एक से अधिक रेखाएं खींच देता है अथवा ऐसा कोई अन्य व्यक्ति बड़े आकार के अक्षर बनाता है। प्रायः देखा गया है कि ऐसे व्यक्ति अपने अक्षर बड़े आकार के तथा अस्पष्ट बना देता हैं। ये आचरण किसी प्रकार की विलक्षणता के चिह्न बनाने के लिए होते हैं, जिससे पाठकों का ध्यान उनकी ओर विशेष रूप से आकर्षित हो सके मानो वह चिल्लाकर कहता है कि देखिये, श्रीमानजी, यह मैं हूं, मैं यहां हूं, मुझे भी देखिये, मेरे महत्त्व की ओर ध्यान दीजिये। इस तरह हम देखते हैं कि लिखावट मनुष्य की एक ऐसी क्रिया है, जिस पर उसकी मानसिक अवस्था का तुरन्त एवं शुद्ध प्रभाव पड़ता रहता है।


वैध तत्त्व



इस प्रकार के मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस विषय का अध्ययन तथा शुद्ध वैज्ञानिक आधार तैयार होता है, जिस पर सन्देह नहीं किया जा सकता। मनुष्य के व्यक्तिगत मूल्यांकन व उसकी वास्तविक पहचान करने का सबसे अच्छा और सही माध्यम उसकी लिखावट ही है। मनुष्य अपना काम निकालने के लिए एक बार अपनी भाषा, वाणी, हाव भाव मुख चेष्टा इत्यादि को समयानुकूल नाटकीय बनाकर आपको धोखे में डाल सकता है, परन्तु अपनी लिखावट में वह अपने अन्तःकरण की अज्ञात प्रेरणाओं को स्पष्ट होने से नहीं रोक सकता। तभी तो लिखावट के द्वारा यह पहचान होती है लिखने वाला व्यक्ति किस प्रकार का है तथा कितने गहरे पानी में है।


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