कविता संग्रह >> न दैन्यं न पलायनम् न दैन्यं न पलायनम्अटल बिहारी वाजपेयी
|
7 पाठकों को प्रिय 318 पाठक हैं |
अटल बिहारी वाजपेयी जी का जीवन के प्रति दृष्टिकोण। सीधे शब्दों में न क्लांत होंगे और न छोड़कर भागेंगे!
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपने आदर्शों और विश्वासों के लिए काम करते-करते मृत्यु का वरण करना सदैव
ही स्पृहणीय है। किन्तु वे लोग सचमुच धन्य है जिन्हें लड़ाई के मैदान में,
आत्माहुति देने का अवसर प्राप्त हुआ है। शहीद की मौत मरने का सौभाग्य सब
को नहीं मिला करता।
अटल बिहारी बाजपेयी
सचाई यह है कि कविता और राजनीति साथ-साथ नहीं चल सकती। ऐसी राजनीति,
जिसमें प्राय: प्रतिदिन भाषण देना जरूरी है और भाषण भी ऐसा जो श्रोताओं को
प्रभावित कर सके, तो फिर कविता की एकान्त साधना के लिए समय और वातावरण ही कहाँ मिल पाता है। मैंने जो थोड़ी-सी कविताएँ लिखी हैं, वे
प्रतिस्थिति-सापेक्ष हैं और आसमान की दुनिया को प्रतिबिम्बित करती हैं।
अपने कवि के प्रति ईमानदार रहने के लिए मुझे काफी कीमत चुकानी पड़ी है, किन्तु कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता के बीच मेल बिठाने का मैं निरन्तर प्रयास करता रहा हूँ। कभी-कभी इच्छा होती है कि सब कुछ छोड़-छाड़कर कहीं एकान्त में पढ़ने, लिखने और चिन्तन करने में अपने को खो दूँ, किन्तु ऐसा नहीं कर पाता।
मै यह भी जानता हूँ कि मेरे पाठक मेरी कविता के प्रेमी इसलिए हैं कि वे इस बात से खुश हैं कि मैं राजनीति के रेगिस्तान में रहते हुए भी, अपने हृदय में छोटी-सी स्नेह-सलिला बहाए रखता हूँ।
अपने कवि के प्रति ईमानदार रहने के लिए मुझे काफी कीमत चुकानी पड़ी है, किन्तु कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता के बीच मेल बिठाने का मैं निरन्तर प्रयास करता रहा हूँ। कभी-कभी इच्छा होती है कि सब कुछ छोड़-छाड़कर कहीं एकान्त में पढ़ने, लिखने और चिन्तन करने में अपने को खो दूँ, किन्तु ऐसा नहीं कर पाता।
मै यह भी जानता हूँ कि मेरे पाठक मेरी कविता के प्रेमी इसलिए हैं कि वे इस बात से खुश हैं कि मैं राजनीति के रेगिस्तान में रहते हुए भी, अपने हृदय में छोटी-सी स्नेह-सलिला बहाए रखता हूँ।
-अटल बिहारी बाजपेयी
भारतीय राष्ट्र का मूल स्वरूप
राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने के लिए आवश्यक है कि हम राष्ट्र की स्पष्ट
कल्पना लेकर चलें। राष्ट्र कुछ संप्रदायों अथवा जनसमूहों का समुच्चय मात्र
नहीं; अपितु एक जीवमान इकाई है, जिसे जोड़-तोड़कर नहीं बनाया जा सकता।
इसका अपना व्यक्तित्व होता है, जो उसकी प्रकृति के आधार पर कालक्रम का
परिणाम है। उसके घटकों में राष्ट्रीयता की यह अनुभूति, मातृभूमि के प्रति
भक्ति, उसके जन के प्रति आत्मीयता और उसकी संस्कृति के प्रति गौरव के भाव
में प्रकट होती है। इसी आधार पर अपने-पराये का, शत्रु-मित्र, अच्छे-बुरे
और योग्य-अयोग्य का निर्णय होता है। जीवन की इन निष्ठाओं तथा मूल्यों के
चारों ओर विकसित इतिहास, राष्ट्रीयत्व की भावना घनीभूत करता हुआ, उसे बल
प्रदान करता है। उसी से व्यक्ति को त्याग और समर्पण की, पराक्रम और
पुरुषार्थ की, सेवा और बलिदान की प्रेरणा मिलती है।
भारत एक प्राचीन राष्ट्र है। स्वतंत्रता की प्राप्ति से, इसके चिरकालीन इतिहास में एक नये अध्याय का आरंभ हुआ। किसी नवीन राष्ट्र का जन्म नहीं। भारतीय राष्ट्र का मूल स्वरूप राजनीतिक नहीं सांस्कृतिक है। सांस्कृतिक एकता की अनुभूति ही राजनैतिक एकता के पक्ष की प्रेरक शक्ति रही है। राजनीतिक एकता के अभाव ने देश की सांस्कृतिक धारा को कभी खण्डित नहीं होने दिया। जहाँ एक ओर हम भारत की संस्कृति से अभिन्न रूप से संबद्ध अनेक राजनीतिक इकाइयों के प्रति उदासीन तथा सहिष्णु रहे हैं, वहाँ दूसरी ओर भारतीय संस्कृति से भिन्न उसके विकृत अथवा विरोधी भाव पर आधारित, कोई भी राजनीतिक सत्ता हमें मान्य नहीं हुई। हम सदैव उसके विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं।
विवधता में एकता भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। हमने एकरूपता की नहीं, अपितु एकता की कामना की है। फलतः देश में अनेक उपासना पद्धतियों, पंथों, दर्शनों, जीवन-प्रणालियों, भाषाओं, साहित्यों और कलाओं का विकास हुआ, जो सम्पन्नता की द्योतक हैं। हमें उनके प्रति अपनत्व और गौरव का भाव लेकर चलना होगा। किन्तु, विविधता के नाम पर विभाजन को प्रोत्साहन देना भूल होगी। भारतीय संस्कृति कभी किसी एक उपासना पद्धति से बँधी नहीं रही और न उसका आधार प्रादेशिक ही रहा है। मजहब अथवा क्षेत्र के आधार पर पृथक् संस्कृति की चर्चा तर्क-विरुद्ध ही नहीं, भयावह भी है, क्योंकि वह राष्ट्रीय एकता की जड़ पर ही कुठाराघात करती है।
क्षेत्र, प्रदेश, जाति, पंथ, भाषा, भूषा आदि के आधार पर भारतीय जन की पृथकता की कल्पना भ्रामक है। उनके आधार पर भारत में अनेक राष्ट्रों अथवा राष्ट्रीयताओं के अस्तित्व का विचार भी मूलतः अशुद्ध है। हम एक राज्य में रहने के कारण एक नहीं हैं, अपितु हम एक हैं, इसलिए भारत एक राष्ट्र है।
भारत एक प्राचीन राष्ट्र है। स्वतंत्रता की प्राप्ति से, इसके चिरकालीन इतिहास में एक नये अध्याय का आरंभ हुआ। किसी नवीन राष्ट्र का जन्म नहीं। भारतीय राष्ट्र का मूल स्वरूप राजनीतिक नहीं सांस्कृतिक है। सांस्कृतिक एकता की अनुभूति ही राजनैतिक एकता के पक्ष की प्रेरक शक्ति रही है। राजनीतिक एकता के अभाव ने देश की सांस्कृतिक धारा को कभी खण्डित नहीं होने दिया। जहाँ एक ओर हम भारत की संस्कृति से अभिन्न रूप से संबद्ध अनेक राजनीतिक इकाइयों के प्रति उदासीन तथा सहिष्णु रहे हैं, वहाँ दूसरी ओर भारतीय संस्कृति से भिन्न उसके विकृत अथवा विरोधी भाव पर आधारित, कोई भी राजनीतिक सत्ता हमें मान्य नहीं हुई। हम सदैव उसके विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं।
विवधता में एकता भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। हमने एकरूपता की नहीं, अपितु एकता की कामना की है। फलतः देश में अनेक उपासना पद्धतियों, पंथों, दर्शनों, जीवन-प्रणालियों, भाषाओं, साहित्यों और कलाओं का विकास हुआ, जो सम्पन्नता की द्योतक हैं। हमें उनके प्रति अपनत्व और गौरव का भाव लेकर चलना होगा। किन्तु, विविधता के नाम पर विभाजन को प्रोत्साहन देना भूल होगी। भारतीय संस्कृति कभी किसी एक उपासना पद्धति से बँधी नहीं रही और न उसका आधार प्रादेशिक ही रहा है। मजहब अथवा क्षेत्र के आधार पर पृथक् संस्कृति की चर्चा तर्क-विरुद्ध ही नहीं, भयावह भी है, क्योंकि वह राष्ट्रीय एकता की जड़ पर ही कुठाराघात करती है।
क्षेत्र, प्रदेश, जाति, पंथ, भाषा, भूषा आदि के आधार पर भारतीय जन की पृथकता की कल्पना भ्रामक है। उनके आधार पर भारत में अनेक राष्ट्रों अथवा राष्ट्रीयताओं के अस्तित्व का विचार भी मूलतः अशुद्ध है। हम एक राज्य में रहने के कारण एक नहीं हैं, अपितु हम एक हैं, इसलिए भारत एक राष्ट्र है।
अटल बिहारी बाजपेयी
संपादक के शब्द
कवि-प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की कविताओं का यह संग्रह पाठकों के
हाथों में सौंपते हुए मुझे विशेष हर्ष का अनुभव हो रहा है। उनका पहला
कविता संग्रह ‘मेरी इक्यावन कविताएँ’ ऐसा लोकप्रिय
हुआ कि कुछ
ही समय में उसके नौ संस्करण हाथोंहाथ बिक गए। देश की अन्य कई भाषाओं में
उसका अनुवाद भी प्रकाशित हो गया। बलगारियन भाषा में भी कविताएँ अनूदित हो
गईं। संगीत-जगत की कई महत्त्वपूर्ण हस्तियों ने अटल जी की कविताओं को
संगीतबद्ध करके कैसेटों में भरकर देश के सम्मुख प्रस्तुत किया। उक्त कृति
के संपादक के नाते मेरे उत्साह का बढ़ना स्वाभाविक था। अस्तु मैंने उनकी
अन्य कविताओं को इकट्ठा करना शुरू कर दिया। कविताओं को एकत्रित करके
पाण्डुलिपि उन्हें दिखाकर प्रकाशन की अनुमति प्राप्त कर ली।
प्रधानमंत्री के व्यस्तता-भरे जीवन में उन्होंने मुझे समय दिया, इसके लिए मैं उनसे आशीर्वाद-प्राप्ति की ही कामना करता हूँ। मैंने पाया कि उनके मानस में बैठा कवि साहित्य-चर्चा के समय अपने प्रधानमंत्री–पद को भी कुछ क्षणों के लिए भूल जाता है और साहित्य रस में अपने को निमग्न कर लेता है।
प्रस्तुत संग्रह को चार खण्डों में विभक्त किया गया है—आस्था के स्वर, चिन्तन के स्वर, आपातकाल के स्वर, तथा विविध स्तर। ‘आस्था के स्वर’ खंड में राष्ट्रीय अस्मिता, राष्ट्रभाषा तथा दर्शन विषयक कविताएँ प्रस्तुत की गई हैं। ‘चिन्तन के स्वर’ खंड के अंतर्गत विचार-प्रधान और युगबोध संबंधी कविताएँ दी गई हैं। ‘आपातकाल के स्वर’ खंड में देश में शासन द्वारा लगाए गए आपातकाल के दिनों में कवि द्वारा भोगे गए यथार्थ से संबंधित कुण्डलियाँ प्रस्तुत की गई हैं और ‘विविध स्वर’ खंड में विभिन्न विषयों पर लिखी गई कविताएँ दी गई हैं।
इस संग्रह में अटल जी के छात्र-जीवन की एक दुर्लभ कविता भी दी गई है। यह कविता उन्होंने सन् 1939 में रची थी। उन दिनों वे ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेजिएट हाई स्कूल की कक्षा 9 के छात्र थे। कविता कॉलेज की पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। 60 वर्ष पुरानी पत्रिका के जीर्ण-शीर्ण दो पृष्ठों पर जब अटल जी ने अपनी यह कविता देखी तो वे उसे एक ही साँस में पढ़ गए और कुछ क्षणों के लिए अतीत में खो गए, बोले—‘‘उन दिनों और भी कविताएँ लिखी थीं, किंतु सहेजकर नहीं रखा।’’
प्रस्तुत संग्रह में ‘कैदी कविराय की कुण्डलियाँ’ पुस्तक से भी कुछ कुण्डलियाँ ली गई हैं। इसके लिए मैं साहित्यकार-पत्रकार बंधुवर श्री दीनानाथ मिश्र जी के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।
विश्वास है कि सुधी पाठकों को यह संग्रह पसंद आएगा।
प्रधानमंत्री के व्यस्तता-भरे जीवन में उन्होंने मुझे समय दिया, इसके लिए मैं उनसे आशीर्वाद-प्राप्ति की ही कामना करता हूँ। मैंने पाया कि उनके मानस में बैठा कवि साहित्य-चर्चा के समय अपने प्रधानमंत्री–पद को भी कुछ क्षणों के लिए भूल जाता है और साहित्य रस में अपने को निमग्न कर लेता है।
प्रस्तुत संग्रह को चार खण्डों में विभक्त किया गया है—आस्था के स्वर, चिन्तन के स्वर, आपातकाल के स्वर, तथा विविध स्तर। ‘आस्था के स्वर’ खंड में राष्ट्रीय अस्मिता, राष्ट्रभाषा तथा दर्शन विषयक कविताएँ प्रस्तुत की गई हैं। ‘चिन्तन के स्वर’ खंड के अंतर्गत विचार-प्रधान और युगबोध संबंधी कविताएँ दी गई हैं। ‘आपातकाल के स्वर’ खंड में देश में शासन द्वारा लगाए गए आपातकाल के दिनों में कवि द्वारा भोगे गए यथार्थ से संबंधित कुण्डलियाँ प्रस्तुत की गई हैं और ‘विविध स्वर’ खंड में विभिन्न विषयों पर लिखी गई कविताएँ दी गई हैं।
इस संग्रह में अटल जी के छात्र-जीवन की एक दुर्लभ कविता भी दी गई है। यह कविता उन्होंने सन् 1939 में रची थी। उन दिनों वे ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेजिएट हाई स्कूल की कक्षा 9 के छात्र थे। कविता कॉलेज की पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। 60 वर्ष पुरानी पत्रिका के जीर्ण-शीर्ण दो पृष्ठों पर जब अटल जी ने अपनी यह कविता देखी तो वे उसे एक ही साँस में पढ़ गए और कुछ क्षणों के लिए अतीत में खो गए, बोले—‘‘उन दिनों और भी कविताएँ लिखी थीं, किंतु सहेजकर नहीं रखा।’’
प्रस्तुत संग्रह में ‘कैदी कविराय की कुण्डलियाँ’ पुस्तक से भी कुछ कुण्डलियाँ ली गई हैं। इसके लिए मैं साहित्यकार-पत्रकार बंधुवर श्री दीनानाथ मिश्र जी के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।
विश्वास है कि सुधी पाठकों को यह संग्रह पसंद आएगा।
चन्द्रिका प्रसाद शर्मा
सी-10 के रोड, महानगर (विस्तार)
लखनऊ-226006
लखनऊ-226006
मैंने जन्म नहीं माँगा था !
मैंने जन्म नहीं माँगा था,
किन्तु मरण की माँग करुँगा।
जाने कितनी बार जिया हूँ,
जाने कितनी बार मरा हूँ।
जन्म मरण के फेरे से मैं,
इतना पहले नहीं डरा हूँ।
अन्तहीन अँधियार ज्योति की,
कब तक और तलाश करूँगा।
मैंने जन्म नहीं माँगा था,
किन्तु मरण की माँग करूँगा।
बचपन, यौवन और बुढ़ापा,
कुछ दशकों में खत्म कहानी।
फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना,
यह मजबूरी या मनमानी ?
पूर्व जन्म के पूर्व बसी—
दुनिया का द्वारचार करूँगा।
मैंने जन्म नहीं माँगा था,
किन्तु मरण की माँग करूँगा।
किन्तु मरण की माँग करुँगा।
जाने कितनी बार जिया हूँ,
जाने कितनी बार मरा हूँ।
जन्म मरण के फेरे से मैं,
इतना पहले नहीं डरा हूँ।
अन्तहीन अँधियार ज्योति की,
कब तक और तलाश करूँगा।
मैंने जन्म नहीं माँगा था,
किन्तु मरण की माँग करूँगा।
बचपन, यौवन और बुढ़ापा,
कुछ दशकों में खत्म कहानी।
फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना,
यह मजबूरी या मनमानी ?
पूर्व जन्म के पूर्व बसी—
दुनिया का द्वारचार करूँगा।
मैंने जन्म नहीं माँगा था,
किन्तु मरण की माँग करूँगा।
न दैन्यं न पलायनम्
कर्तव्य के पुनीत पथ को
हमने स्वेद से सींचा है,
कभी-कभी अपने अश्रु और—
प्राणों का अर्ध्य भी दिया है।
किन्तु, अपनी ध्येय-यात्रा में—
हम कभी रुके नहीं हैं।
किसी चुनौती के सम्मुख
कभी झुके नहीं हैं।
आज,
जब कि राष्ट्र-जीवन की
समस्त निधियाँ,
दाँव पर लगी हैं,
और,
एक घनीभूत अँधेरा—
हमारे जीवन के
सारे आलोक को
निगल लेना चाहता है;
हमें ध्येय के लिए
जीने, जूझने और
आवश्यकता पड़ने पर—
मरने के संकल्प को दोहराना है।
आग्नेय परीक्षा की
इस घड़ी में—
आइए, अर्जुन की तरह
उद्घोष करें :
‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’
हमने स्वेद से सींचा है,
कभी-कभी अपने अश्रु और—
प्राणों का अर्ध्य भी दिया है।
किन्तु, अपनी ध्येय-यात्रा में—
हम कभी रुके नहीं हैं।
किसी चुनौती के सम्मुख
कभी झुके नहीं हैं।
आज,
जब कि राष्ट्र-जीवन की
समस्त निधियाँ,
दाँव पर लगी हैं,
और,
एक घनीभूत अँधेरा—
हमारे जीवन के
सारे आलोक को
निगल लेना चाहता है;
हमें ध्येय के लिए
जीने, जूझने और
आवश्यकता पड़ने पर—
मरने के संकल्प को दोहराना है।
आग्नेय परीक्षा की
इस घड़ी में—
आइए, अर्जुन की तरह
उद्घोष करें :
‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’
स्वाधीनता के साधना पीठ
अपने आदर्शों और विश्वासों
के लिए काम करते-करते,
मृत्यु का वरण करना
सदैव ही स्पृहणीय है।
किन्तु
वे लोग सचमुच धन्य हैं
जिन्हें लड़ाई के मैदान में,
आत्माहुति देने का
अवसर प्राप्त हुआ है।
शहीद की मौत मरने
का सौभाग्य
सब को नहीं मिला करता।
जब कोई शासक
सत्ता के मद में चूर होकर
या,
सत्ता हाथ से निकल जाने के भय से
भयभीत होकर
व्यक्तिगत स्वाधीनता और स्वाभिमान को
कुचल देने पर
आमादा हो जाता है,
तब
कारागृह ही स्वाधीनता के
साधना पीठ बन जाते हैं।
के लिए काम करते-करते,
मृत्यु का वरण करना
सदैव ही स्पृहणीय है।
किन्तु
वे लोग सचमुच धन्य हैं
जिन्हें लड़ाई के मैदान में,
आत्माहुति देने का
अवसर प्राप्त हुआ है।
शहीद की मौत मरने
का सौभाग्य
सब को नहीं मिला करता।
जब कोई शासक
सत्ता के मद में चूर होकर
या,
सत्ता हाथ से निकल जाने के भय से
भयभीत होकर
व्यक्तिगत स्वाधीनता और स्वाभिमान को
कुचल देने पर
आमादा हो जाता है,
तब
कारागृह ही स्वाधीनता के
साधना पीठ बन जाते हैं।
धन्य तू विनोबा !
जन की लगाय बाजी गाय की बचाई जान,
धन्य तू विनोबा ! तेरी कीरति अमर है।
दूध बलकारी, जाको पूत हलधारी होय,
सिंदरी लजात मल – मूत्र उर्वर है।
धास – पात खात दीन वचन उचारे जात,
मरि के हू काम देत चाम जो सुघर है।
बाबा1 ने बचाय लीन्ही दिल्ली दहलाय दीन्ही,
बिना लाव लस्कर समर कीन्हो सर है।
धन्य तू विनोबा ! तेरी कीरति अमर है।
दूध बलकारी, जाको पूत हलधारी होय,
सिंदरी लजात मल – मूत्र उर्वर है।
धास – पात खात दीन वचन उचारे जात,
मरि के हू काम देत चाम जो सुघर है।
बाबा1 ने बचाय लीन्ही दिल्ली दहलाय दीन्ही,
बिना लाव लस्कर समर कीन्हो सर है।
1. बाबा विनोबा भावे
कवि आज सुना वह गान रे
कवि आज सुना वह गान रे,
जिससे खुल जाएँ अलस पलक।
नस – नस में जीवन झंकृत हो,
हो अंग – अंग में जोश झलक।
ये - बंधन चिरबंधन
टूटें – फूटें प्रासाद गगनचुम्बी
हम मिलकर हर्ष मना डालें,
हूकें उर की मिट जायँ सभी।
यह भूख – भूख सत्यानाशी
बुझ जाय उदर की जीवन में।
हम वर्षों से रोते आए
अब परिवर्तन हो जीवन में।
क्रंदन – क्रंदन चीत्कार और,
हाहाकारों से चिर परिचय।
कुछ क्षण को दूर चला जाए,
यह वर्षों से दुख का संचय।
हम ऊब चुके इस जीवन से,
अब तो विस्फोट मचा देंगे।
हम धू - धू जलते अंगारे हैं,
अब तो कुछ कर दिखला देंगे।
अरे ! हमारी ही हड्डी पर,
इन दुष्टों ने महल रचाए।
हमें निरंतर चूस – चूस कर,
झूम – झूम कर कोष बढ़ाए।
रोटी – रोटी के टुकड़े को,
बिलख–बिलखकर लाल मरे हैं।
इन – मतवाले उन्मत्तों ने,
लूट – लूट कर गेह भरे हैं।
पानी फेरा मर्यादा पर,
मान और अभिमान लुटाया।
इस जीवन में कैसे आए,
आने पर भी क्या पाया ?
रोना, भूखों मरना, ठोकर खाना,
क्या यही हमारा जीवन है ?
हम स्वच्छंद जगत में जन्मे,
फिर कैसा यह बंधन है ?
मानव स्वामी बने और—
मानव ही करे गुलामी उसकी।
किसने है यह नियम बनाया,
ऐसी है आज्ञा किसकी ?
सब स्वच्छंद यहाँ पर जन्मे,
और मृत्यु सब पाएँगे।
फिर यह कैसा बंधन जिसमें,
मानव पशु से बँध जाएँगे ?
अरे ! हमारी ज्वाला सारे—
बंधन टूक-टूक कर देगी।
पीड़ित दलितों के हृदयों में,
अब न एक भी हूक उठेगी।
हम दीवाने आज जोश की—
मदिरा पी उन्मत्त हुए।
सब में हम उल्लास भरेंगे,
ज्वाला से संतप्त हुए।
रे कवि ! तू भी स्वरलहरी से,
आज आग में आहुति दे।
और वेग से भभक उठें हम,
हद् – तंत्री झंकृत कर दे।<
जिससे खुल जाएँ अलस पलक।
नस – नस में जीवन झंकृत हो,
हो अंग – अंग में जोश झलक।
ये - बंधन चिरबंधन
टूटें – फूटें प्रासाद गगनचुम्बी
हम मिलकर हर्ष मना डालें,
हूकें उर की मिट जायँ सभी।
यह भूख – भूख सत्यानाशी
बुझ जाय उदर की जीवन में।
हम वर्षों से रोते आए
अब परिवर्तन हो जीवन में।
क्रंदन – क्रंदन चीत्कार और,
हाहाकारों से चिर परिचय।
कुछ क्षण को दूर चला जाए,
यह वर्षों से दुख का संचय।
हम ऊब चुके इस जीवन से,
अब तो विस्फोट मचा देंगे।
हम धू - धू जलते अंगारे हैं,
अब तो कुछ कर दिखला देंगे।
अरे ! हमारी ही हड्डी पर,
इन दुष्टों ने महल रचाए।
हमें निरंतर चूस – चूस कर,
झूम – झूम कर कोष बढ़ाए।
रोटी – रोटी के टुकड़े को,
बिलख–बिलखकर लाल मरे हैं।
इन – मतवाले उन्मत्तों ने,
लूट – लूट कर गेह भरे हैं।
पानी फेरा मर्यादा पर,
मान और अभिमान लुटाया।
इस जीवन में कैसे आए,
आने पर भी क्या पाया ?
रोना, भूखों मरना, ठोकर खाना,
क्या यही हमारा जीवन है ?
हम स्वच्छंद जगत में जन्मे,
फिर कैसा यह बंधन है ?
मानव स्वामी बने और—
मानव ही करे गुलामी उसकी।
किसने है यह नियम बनाया,
ऐसी है आज्ञा किसकी ?
सब स्वच्छंद यहाँ पर जन्मे,
और मृत्यु सब पाएँगे।
फिर यह कैसा बंधन जिसमें,
मानव पशु से बँध जाएँगे ?
अरे ! हमारी ज्वाला सारे—
बंधन टूक-टूक कर देगी।
पीड़ित दलितों के हृदयों में,
अब न एक भी हूक उठेगी।
हम दीवाने आज जोश की—
मदिरा पी उन्मत्त हुए।
सब में हम उल्लास भरेंगे,
ज्वाला से संतप्त हुए।
रे कवि ! तू भी स्वरलहरी से,
आज आग में आहुति दे।
और वेग से भभक उठें हम,
हद् – तंत्री झंकृत कर दे।<
वैभव के अमिट चरण-चिह्न
विजय का पर्व !
जीवन संग्राम की काली घड़ियों में
क्षणिक पराजय के छोटे-छोट क्षण
अतीत के गौरव की स्वर्णिम गाथाओं के
पुण्य स्मरण मात्र से प्रकाशित होकर
विजयोन्मुख भविष्य का
पथ प्रशस्त करते हैं।
अमावस के अभेद्य अंधकार का—
अन्तःकरण
पूर्णिमा का स्मरण कर
थर्रा उठता है।
सरिता की मँझधार में
अपराजित पौरुष की संपूर्ण
उमंगों के साथ
जीवन की उत्ताल तरंगों से
हँस-हँस कर क्रीड़ा करने वाले
नैराश्य के भीषण भँवर को
कौतुक के साथ आलिंगन
आनन्द देता है।
पर्वतप्राय लहरियाँ
उसे
भयभीत नहीं कर सकतीं
उसे चिन्ता क्या है ?
कुछ क्षण पूर्व ही तो
वह स्वेच्छा से
कूल-कछार छोड़कर आया
उसे भय क्या है ?
कुछ क्षण पश्चात् ही तो
वह संघर्ष की सरिता
पार कर
वैभव के अमिट चरण-चिह्न
अंकित करेगा।
हम अपना मस्तक
आत्मगौरव के साथ
तनिक ऊँचा उठाकर देखें
विश्व के गगन मंडल पर
हमारी कलित कीर्ति के
असंख्य दीपक जल रहे हैं।
युगों के बज्र कठोर हृदय पर
हमारी विजय के स्तम्भ अंकित हैं।
अनंत भूतकाल
हमारी दिव्य विभा से अंकित हैं।
भावी की अगणित घड़ियाँ
हमारी विजयमाला की
लड़ियाँ बनने की
प्रतीक्षा में मौन खड़ी हैं।
हमारी विश्वविदित विजयों का इतिहास
अधर्म पर धर्म की जयगाथाओं से बना है।
हमारे राष्ट्र जीवन की कहानी
विशुद्ध राष्ट्रीयता की कहानी है।
जीवन संग्राम की काली घड़ियों में
क्षणिक पराजय के छोटे-छोट क्षण
अतीत के गौरव की स्वर्णिम गाथाओं के
पुण्य स्मरण मात्र से प्रकाशित होकर
विजयोन्मुख भविष्य का
पथ प्रशस्त करते हैं।
अमावस के अभेद्य अंधकार का—
अन्तःकरण
पूर्णिमा का स्मरण कर
थर्रा उठता है।
सरिता की मँझधार में
अपराजित पौरुष की संपूर्ण
उमंगों के साथ
जीवन की उत्ताल तरंगों से
हँस-हँस कर क्रीड़ा करने वाले
नैराश्य के भीषण भँवर को
कौतुक के साथ आलिंगन
आनन्द देता है।
पर्वतप्राय लहरियाँ
उसे
भयभीत नहीं कर सकतीं
उसे चिन्ता क्या है ?
कुछ क्षण पूर्व ही तो
वह स्वेच्छा से
कूल-कछार छोड़कर आया
उसे भय क्या है ?
कुछ क्षण पश्चात् ही तो
वह संघर्ष की सरिता
पार कर
वैभव के अमिट चरण-चिह्न
अंकित करेगा।
हम अपना मस्तक
आत्मगौरव के साथ
तनिक ऊँचा उठाकर देखें
विश्व के गगन मंडल पर
हमारी कलित कीर्ति के
असंख्य दीपक जल रहे हैं।
युगों के बज्र कठोर हृदय पर
हमारी विजय के स्तम्भ अंकित हैं।
अनंत भूतकाल
हमारी दिव्य विभा से अंकित हैं।
भावी की अगणित घड़ियाँ
हमारी विजयमाला की
लड़ियाँ बनने की
प्रतीक्षा में मौन खड़ी हैं।
हमारी विश्वविदित विजयों का इतिहास
अधर्म पर धर्म की जयगाथाओं से बना है।
हमारे राष्ट्र जीवन की कहानी
विशुद्ध राष्ट्रीयता की कहानी है।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book