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बदलते रिश्ते

कृष्ण गोपाल रस्तोगी

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :116
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5164
आईएसबीएन :81-7721-088-2

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भारतीय परिवारों का पारंपरिक परिवेश आज बदल रहा है। बदलते परिवेश में परिवार के सदस्यों के परस्पर ‘रिश्ते’ भी बदल रहे हैं। प्रस्तुत हैं उन्हीं बदलते हुए रिश्तों की अनूठी और हृदयस्पर्शी कहानियाँ।

Badalate Rishte a hindi book by Krishana Gopal Rastogi - बदलते रिश्त - कृष्ण गोपाल रस्तोगी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत कहानी-संग्रह में कुल इक्कीस कहानियाँ संग्रहीत हैं। प्रत्येक कहानी जीवंत अनुभव है। इनके संदर्भ हैं-व्यक्ति परिवार और समाज। ये एक-दूसरे की रचना करते हैं और एक-दूसरे का निर्माण भी। यों तो विश्व के सभी समाजों में परिवार महत्त्वपूर्ण होता है, पर भारतीय समाज में इसका योगदान अनूठा है। परिवार में परस्पर सहयोग अथवा असहयोग की स्थितियाँ होती हैं, जो परिवार का रहन-सहन सँवारती और बिगाड़ती हैं, जिनके प्रभाव से व्यक्ति और समाज प्रभावित होते ही हैं। अतएव परिवार का महत्त्व सर्वाधिक है। परिवार के सदस्य एक-दूसरे से कुछ अपेक्षाएँ रखते हैं, जिनकी पूर्ति से आनंद का सर्जन होता है और पूरा न होने पर पीड़ाएँ जन्म लेती हैं।

भारतीय परिवारों का पारंपरिक परिवेश आज बदल रहा है। बदलते परिवेश में परिवार के सदस्यों के परस्पर ‘रिश्ते’ भी बदल रहे हैं। प्रस्तुत हैं उन्हीं बदलते हुए रिश्तों की अनूठी और हृदयस्पर्शी कहानियाँ-इन्हें पढ़कर पाठकगण प्रेम, विश्वास संबंधों के यथार्थ और भावनाओं के आलोड़न-विलोड़न का दिग्दर्शन करेंगे।


भूमिका
प्रेरणा-पुरुष और स्त्री संगम



मानव के दो रूप हैं-पुरुष और स्त्री। ये परस्पर पूरक माने जाते हैं। विज्ञान की सहायता से पुरुष और स्त्री के शरीर के जन्म उसकी रचना के कारणों और विकास की व्याख्या की जा सकती है, पर परमात्मा का अंश मानी जानेवाली कौन सी आत्मा किस शरीर में प्रवेश कर उसमें निवास करेगी, अभी भी इस प्रश्न का उत्तर नहीं खोजा जा सका है। इसके लिए भाग्यवादी भाग्य का परिणाम बताते हैं और कर्मवादी कर्मों का। कारण न जानने पर भी पुरुष और स्त्री का अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता। इन दोनों का अपना अलग-अलग जगत् है और इनके परस्पर संबंधों से जगत् की रचना होती है।

परिवार में पुरुष और स्त्री का संबंध पुत्र-पुत्री, भाई-बहन, माता-पिता, पति-पत्नी, ससुर-बहू आदि और धनार्जन करने के लिए समाज में इनका संबंध स्वामी-नौकर, वरिष्ठ-कनिष्ठ, भागीदार आदि के रूप में होता है। इन संबंधों के आधार पर एक का कर्तव्य या अधिकार दूसरे का अधिकार या कर्तव्य हो जाता है। जब तक प्रत्येक भागीदार अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाता है तब तक पारिवारिक या सामाजिक व्यवस्था चलती रहती है; पर जब उसमें कोताही होती है तब संबंधों में दरार पड़ जाती है और पारिवारिक तथा सामाजिक ढाँचा टूटने लगता है। इस समय वह भागीदार पुरुष या स्त्री एक-दूसरे को संबंधों के दर्पण में नहीं देखते हैं। पुरुष केवल पुरुष और स्त्री केवल स्त्री रह जाती है। उनमें दूसरे पक्ष की वेदना को महसूस कर उसके प्रति संवेदना का भाव समाप्त हो जाता है। एक भागीदार दूसरे से भौतिक रूप से भले ही अलग रहने लगे, पर मानसिक संबंध उनका पीछा नहीं छोड़ पाते। फिर या तो वे विकल्प ढूँढने लगते हैं या अपनी जीवन-नौका में लंगर डालकर नदी के किनारे खड़े हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में सामान्यतया स्त्री को अधिक कष्ट होता है, क्योंकि उसकी बहुत सी विवशताएँ हैं। केवल संवेदनशील पुरुष ही उसके कष्टों को महसूस करते हैं। इस कमी का दोष समाज की रचना तथा उसके रीति-रिवाजों पर डाला जाता है।

आइए, जरा स्त्री के जीवन पर दृष्टि डालें। पुत्री के रूप में जन्म लेने पर परिवार में उसकी स्वीकृति नहीं होती। उसके जन्म पर परिवार के सदस्यों के चेहरे ऐसे उतर जाते हैं जैसे कोई अपशकुन हो गया हो। कुछ परिवारों में तो पुत्र और पुत्री के पालन-पोषण में भी अंतर किया जाता है। वह ज्यों-ज्यों बड़ी होती है तो उसके शरीर का विकास और उसकी प्रक्रियाएँ विस्मयकारी और कष्टदायी होती हैं और यदि वह तनिक सुंदर और आकर्षक हुई तो लोगों की कुदृष्टि उस पर पड़ने लगती है। इस पर भी जिस शरीर को सजा-सँवारकर वह सुरक्षित रखती है उसे खुशी-खुशी आनाकानी किए बिना अपने जीवन साथी को सुपुर्द कर देती हैं। उसके शरीर के कष्ट की पराकाष्ठा उस समय देखी जा सकती है जब वह शिशु को जन्म देती है। पुरुष की कामवासना की तृप्ति उसकी प्रसव पीड़ा में परिणत हो जाती है। धन्य है मातृ-शक्ति !

यह तो हुई कुशल-क्षेम की स्थिति। यदि कहीं वह विधवा हो जाए तो उसके पति की मृत्यु का दोषारोपण उसी पर करने का दुस्साहस कुछ लोग करते हैं। ऐसे समाज भी हैं, जिनमें पुरुष एक से अधिक पत्नियाँ रख सकता है। फिर यह रिवाज तो सभी समाजों में है कि पत्नी की मृत्यु के बाद विधुर दूसरी और तीसरी शादी भी कर लेता है, जब तक वह वृद्ध न हो जाए। स्त्री कभी लज्जा के कारण और कभी अपने मृत पति की संतान के पोषण के भार हेतु शेष जीवन विधवा के रूप में बिताती है। क्या कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है ?

अब तनिक आधुनिक व्यवस्था पर दृष्टि डालें। विवाह हो गया, युवती अपने ससुराल गई। सामान्यता वह आर्थिक दृष्टि से मातृ-परिवार से कम आर्थिक संपन्नता वाले घर में बहू बनकर जाती है। अपने मातृ-परिवार की सुख-सुविधाओं से वंचित युवती से अपेक्षा की जाती है कि वह पति के परिवार के सभी सदस्यों की आज्ञा का पालन करे। पति चाहता है कि मेरी पत्नी नौकरी या व्यवसाय करके धनार्जन करे, सुबह को उसकी चाय बनाए और नाश्ता तैयार करे, शाम का खाना भी बनाए और रात्रि को उसका मनोरंजन करे। वह सास-ससुर की सेवा करे और उनकी आज्ञा का पालन करे, और यदि सास-ससुर के छोटे पुत्र-पुत्री भी साथ रह रहे हैं तो उनकी सेवा करे। दिन में नौकरी और घर के काम की व्यस्तता से थककर वह मनोरंजन का साधन भी बनी रहे। विडंबना यह है कि आजकल मध्यम वर्ग का प्रत्येक युवक ऐसी पत्नी चाहता है जो धनार्जन भी करती हो। फिर युवती ससुराल के सदस्यों की बोली बोले और उनकी हाँ में हाँ भी मिलाए। मध्यम वर्ग की स्त्री आजकल तनाव में रह रही है। उसके प्रति लोगों में संवेदना भी नहीं है। इसलिए उसके टूट जाने पर परिवार टूट जाते हैं, जिससे ऐसे टूटे हुए परिवारों की संख्या बढ़ रही है और भावी संतान पर इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है।
सावधान ! आइए इसे रोंके, जिससे स्वस्थ समाज की रचना हो।


अपेक्षाएँ


स्त्री क्या चाहती है ?


स्त्री के रूप में समाज से सुरक्षा एवं सम्मान की अपेक्षा करती है।
पुत्री के रूप में माता-पिता से पुत्रों के समान व्यवहार चाहती है।
बहन के रूप में वह भाई से स्नेह और सहयोग चाहती है।
पत्नी के रूप में पति से असीम प्यार व संरक्षण चाहती है।
पुत्र-वधू के रूप में वह सास-ससुर से पुत्री जैसा व्यवहार चाहती है
वधू के रूप में ससुराल के अन्य सदस्यों से सहयोग चाहती है।
माता के रूप में वह संतान को प्यार देती है और उनसे सेवा की अपेक्षा करती है।
सास के रूप में वह पुत्र-वधू से आज्ञा-पालन और सेवा की अपेक्षा करती है।


पुरुष क्या चाहता है ?



व्यक्ति के रूप में स्वतंत्रता और अधिकार चाहता है।
पुत्र के रूप में पैतृक संपत्ति पर अधिकार चाहता है।
भाई के रूप में वह भाई और बहन से सहयोग की अपेक्षा करता है।
पति के रूप में वह पत्नी से असीस प्रेम और आज्ञा-पालन की अपेक्षा करता है।
पिता के रूप में संतान से आज्ञा पालन और सेवा की अपेक्षा करता है।
दामाद के रूप में वह ससुरालवालों से सम्मान चाहता है।
ससुर के रूप में वह पुत्र-वधू से आज्ञा पालन व सेवा की अपेक्षा करता है।
ऐसी ही अनेक अपेक्षाओं की पूर्ति न होने पर पीड़ाएँ उपजती हैं जो प्रस्तुत कहानियों में प्रतिबिंबित हैं। ये पीड़ाएँ साथ में दी गई हैं।


पीड़ाएँ



परिवार भारतीय समाज की शक्तिशाली इकाई है। दुर्भाग्यवश, आज परिवार टूट रहे हैं। टूटे हुए परिवारों के बहुत से रूप हैं। आइए देखें, परिवार किस रूप में टूट रहे हैं-

1. माता अकेली रहती हो और स्वार्थी पिता पुत्र के साथ रहता हो।
2. स्त्री विवाह होने से पूर्व ही गर्भ धारण कर ले।
3. सेवा का फल या अंधकारपूर्ण भविष्य।
4. विवाह के लिए संतान को जन्म देना आवश्यक नहीं हो।
5. पति के प्रति अत्यंत उदार होने पर भी निबाह नहीं हुआ।
6. धन कमाने के लिए पति पत्नी को केवल एक स्त्री के रूप में देखता है।
7. पति सदा अपनी माँ के साथ रहता है और पति-पत्नी नहीं मिल पाते हैं।
8. कमाऊ बेटी होने के कारण परिवार की ओर से विवाह में बाधा थी।
9. लड़कीवाले लड़केवालों से आर्थिक सहायता लेते रहते हैं और न मिलने पर परस्पर झगड़ा होता है।
10. अलग तो हुए, पर अपना उत्तरदायित्व निभाया।
11. पति-पत्नी का विवाद घर से बाहर जाने पर परेशानी बढ़ती है।
12. आज्ञा-पालन न करने पर पति पत्नी पर हाथ उठाता है।
13. पति अपने माता-पिता के पास रहता है और पत्नी व पुत्री नाना-नानी के साथ रहते हैं।
14. पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य के साथ संबंध बनाने से आदमी कहीं का नहीं रहता है। संबंधों का गलत लाभ उठाया जाता है।
15. संबंधों का गलत लाभ उठाया जाता है।
16. पुत्री, दामाद आदि सबको निभाया, फिर भी बात नहीं बनी।
17. झूठ पर आधारित पारिवारिक संबंध नहीं चल पाते हैं।
18. पारिवारिक संबंध स्वार्थी बुद्धि से नहीं निभाए जाते।
19. पत्नी के व्यय पर पति का अधिकार है।
20. अपराधी पति से दुःखी होकर विकल्प ढूँढ़ा।
21. प्यार पर शंका करना हितकारी नहीं है।
22. पति-पत्नी के विवाद सामाजिक ढंग से अच्छी तरह से निपटते हैं, न्यायालय में नहीं।

1
अपना-अपना सपना


सुधा एक महाविद्यालय में शिक्षिका थी। वह शिक्षण कार्य को केवल नौकरी मानती थी, जिसके लिए उसे प्रति मास वेतन मिलता था। परिवार में उसको अपेक्षित सम्मान नहीं मिलता था। वह महत्त्वाकांक्षी थी, इसलिए सम्मान की इच्छुक भी थी। उस कमी को पूरा करने के लिए वह एक दिन पिता के एक मित्र के पास गई। उसने अपने आने का उद्देश्य बताया कि वह कोई सम्मानपूर्ण सामाजिक कार्य करना चाहती है।

पिता के मित्र के पास आने के दो दिन पूर्व उसके परिवार में एक घटना घटी थी। उसके पति सूर्य प्रकाश ने किसी दैनिक समाचार-पत्र में एक लेख लिखा था। उसमें उन्होंने सभी शिक्षकों की आलोचना की थी कि आजकल शिक्षक अपना विकास करने के लिए बिलकुल अध्ययन नहीं करते हैं। इसके प्रमाण के रूप में उन्होंने अपनी पत्नी का उदाहरण भी दिया था। उसमें उन्होंने अपनी पत्नी का नाम तो नहीं लिखा था, पर अपना नाम लेखक के रूप में दिया था। जब सुधा के सहयोगियों ने वह लेख पढ़ा तो वे उसे लेकर सुधा के पास आईं और उस पर ताना कसा कि तुम्हारे पति शिक्षा और शिक्षकों के संबंध में ऐसी बात क्यों लिखते हैं ? उन्होंने इस संबंध में सुधा पर भी आक्षेप लगाया कि तुम्हारे कारण हम लोगों का अपमान हुआ है। सुधा को यह स्वीकार करना पड़ा कि लेख उसके पति द्वारा लिखा गया है और उसके कारण सभी शिक्षकों का अपमान हुआ है।

इसी बात को लेकर दो दिन पूर्व सुधा और उसके पति सूर्य प्रकाश में विवाद भी हो गया था। सूर्य प्रकाश को यह स्वीकार करना पड़ा था कि वह लेख समाचार-पत्र में उसने ही छपवाया था। उसने ही शिक्षकों के बारे में लिखा था। सुधा ने अपनी असहमति जताते हुए पति को लेख दिखाकर पूछा, ‘‘क्या तुम्हारी कोई और पत्नी है ? इससे साफ है कि तुमने मेरी आलोचना की है।’’ सूर्य प्रकाश सुधा के इस तर्क का उत्तर न दे सका। इस पर सुधा ने उनकी भर्त्सना की और उनसे बदला लेने की चेतावनी दी। इस पर सूर्य प्रकाश तिलमिला उठा और उसने सुधा को तीन चार घूँसे जड़ दिए। यह सारी घटना उनका बीस वर्ष का पुत्र भी देख रहा था। सुधा ने बदला लेने की अपनी असामर्थ्य जानकर पुत्र से कहा, ‘‘बेटे क्या तुम अपने पिता को इस तरह मारने-पीटने से नहीं रोक सकते।’’

इसका उत्तर देते हुए बेटे ने अपनी विवशता दिखाई और कहा, ‘‘मम्मी, मुझे तो आप दोनों से ही कुछ-कुछ लेना है, इसलिए मैं किसी का पक्ष नहीं ले सकता। दूसरे, आपकी सीमाएँ हैं। आप मुझे वर्तमान में केवल भोजन और प्यार दे सकती हैं, पर मेरे भावी जीवन के निर्माता तो पिताजी ही होंगे; क्योंकि आपकी अपेक्षा पिताजी अधिक साधन-संपन्न हैं।’’ इस उत्तर को सुनकर सुधा स्तब्ध रह गई। वह अपने पति और पुत्र से कुछ नहीं कह सकी, पर उसका मन अत्यंत क्षुब्ध हुआ और वह आत्म-सम्मान आधारित संतोष तथा शांति की खोज करने लगी। उसके पारिवारिक जीवन में ऐसा प्रसंग कई बार आया था। इसलिए पिता-पुत्र दोनों के व्यवहार से तंग आकर वह अपने पति का घर छोड़कर उनसे अलग किराए के मकान में रहने लगी।


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