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एक आसमान के नीचे

विष्णु प्रभाकर

प्रकाशक : आर्य प्रकाशन मंडल प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5148
आईएसबीएन :0000

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प्रस्तुत है विष्णु प्रभाकर की छः श्रेष्ठ कहानियों का संकलन

Ek Asman Ke Neeche

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

कहानी-संग्रह के लिये दो शब्द लिखने की आवश्यकता क्यों हो और वह भी अपने कहानी-संग्रह के लिए, फिर भी मैं दो शब्द लिख रहा हूं।
इस संग्रह में मेरी सोलह कहानियां संकलित हुई हैं। उनका रचनाकाल सन् 1940 से सन् 1995 तक फैला हुआ है। कालक्रम से देखें तो स्थिति इस प्रकार है :
1.    छाती के भीतर             1940            चौथा दशक
2.    निशिकान्त                  1943            पांचवां दशक
3.    क्रान्तिकारी                  1945            पांचवां दशक
4.    बीमार                        1947            पांचवां दशक    
5.    मार्ग में                        1948            पांचवां दशक
6.    अपना-अपना सुख          1957            छठा दशक
7.    छोटा चोर, बड़ा चोर      1961            सातवां दशक
8.    चितकबरी बिल्ली          1966            सातवां दशक
9.    धरती का स्पर्श              1966            सातवां दशक
10.  भटकन और भटकन        1977            आठवां दशक
11.  पैड़ियों पर उठते पदचाप  1986            नवां दशक
12.  नींव के पत्थर                1987            नवां दशक
13.   अर्द्धनारीश्वर                1987            नवां दशक
14.   एक आसमान के नीचे    1987            नवां दशक
15.   कैसी हो मरियम्मा        1988            नवां दशक
16.   अंधेरी सुरंग                 1995            दसवां दशक
इस विवरण से स्पष्ट है कि पहले तीन दशकों की, जब मैंने अधिक से अधिक लिखा, केवल छः कहानियां ही इस संकलन में आ पाई हैं। विषय भी केवल दो ही हैं। तीन कहानियां व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक अध्ययन से सम्बन्ध रखती हैं और तीन देश के मुक्ति आन्दोलन से।

लेकिन जब मैंने बहुत ही कम कहानियां लिखीं उस काल की नौ कहानियां इस संग्रह में आ गई हैं। इनके विषय भी विविध हैं। दो कहानियां व्यक्ति का मनोवैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत करती हैं। वे भी मात्र मनोवैज्ञानिक नहीं है। ‘धरती का स्पर्श’ कहानी में धरती से बिछुड़ने की व्यथा तो है ही, देश के विभाजन और दो राष्ट्रों के सिद्धान्त की व्यर्थता को भी यह पूरी शिद्दत से रेखांकित करती है।

दो कहानियां वर्ग चरित्र को उजागर करती हैं : ‘छोटा चोर, बड़ा चोर’ तथा पैड़ियों पर उतरते पदचाप। दूसरी कहानी में तथाकथित निम्न-वर्ग की मानसिक चेतना मुखर हुई है। पहली कहानी में उसी वर्ग के एक व्यक्ति की उदात्त चेतना चकित करने वाली है पर वह सच है। इस कहानी से जुड़ा ‘एक संयोग’ की यदि मैं चर्चा करूं तो उसे आत्मश्लाघा न समझा जाये। एक बार मैं अपने दो मित्रों के साथ देश के एक प्रथम कोटि के उद्योगपति से मिलने गया। वे तभी मेरी यह कहानी पढ़कर चुके थे। बोले, इस कहानी के लेखक ने निम्न वर्ग को बहुत उदात्त दिखाया है। उच्च वर्ग को छोटा कर दिया है। आजकल यह फैशन हो गया है। मैं अच्छी तरह जानता हूं लेखक स्वयं उच्च वर्ग का है।

मैं चकित रह गया था पर मैंने उस क्षण कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। कोई लाभ भी नहीं था। उनकी प्रतिक्रिया मेरे लिए महत्त्वपूर्ण थी। पर यह बात यहीं तक। ‘चितकबरी बिल्ली’ विशुद्ध प्रतीकात्मक है पर उसका भी अर्थ है। देश की मुक्ति से सम्बन्ध रखने वाली केवल एक ही कहानी है। वैसे यह अपने मूल रूप में लिखी तो उसी काल में गई थी पर यह परिवर्तित परिवर्धित के इस नवें दशक में मिला। ‘अर्द्धनारीश्वर’ के कुछ पात्रों से मेरी भेंट उत्तराखंड की यात्रा में हुई थी। धार्मिक ढोंग पर प्रहार करने वाली यह कहानी उन्हीं पात्रों पर आधारित है। ‘एक आसमान के नीचे’ नारी मुक्ति के मेरे दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है। सभी पात्र वे ही नहीं हैं जिनसे मैं मिला हूं पर घटनाएं वे ही हैं जिनसे मेरे पात्र जुड़े हैं। ‘कैसी हो मरियम्मा’ एक प्रेम कहानी है। उसके पात्रों से भी मैं परिचित हूं।

यह सब किसी योजनाबद्ध तरीके से नहीं हुआ। और न ही मैंने किसी सोच के अन्तर्गत संकलन किया है। इनसे अच्छी और भी कहानियां हैं पर वे सब किसी न किसी पूर्व संकलन में आ चुकी हैं।

‘छोटा चोर, बड़ा चोर’ आकाशवाणी में प्रसारित हुई थी। ‘बीमार’ और ‘धरती का स्पर्श’ के रूपान्तर प्रकाशित हो चुके हैं। ‘नींव का पत्थर’ बंगला में अनूदित होकर बच्चों की प्रसिद्ध पत्रिका ‘बालमेला’ में छपी थी। अनुवाद और भी कहानियों के विभिन्न भाषाओं में हुए। कई कहानियां पाठ्य-पुस्तकों में भी स्वीकृत हुई हैं।

तो यह सब बताने के लिए ही मैंने ये दो शब्द लिखे हैं। जो अध्ययन करना चाहते हैं उनके लिए यह विवरण सहायक हो सकता है। वैसे तो अपनी राय बनाने से पूर्व उन्हें मेरी और भी कहानियां पढ़नी चाहिये। फिर भी परिवर्तन की प्रक्रिया की (यदि वह है) एक मोटी रूपरेखा स्पष्ट हो ही सकती है।

बाकी रही यह बात कि कहानियां कैसी हैं, यह जानें उनके पाठक और समीक्षक। स्वयं मैं तो दृष्टा ही नहीं भोक्ता भी हूं इनके होने की प्रक्रिया में से गुजरा हूं, लिखने और भोगने दोनों की।

विष्णु प्रभाकर

अंधेरी सुरंग


वहाँ का सारा वातावरण मोहक-मेक-अप् दिलकश कहकहों और नाना अर्थ-गर्भित शब्दों से आप्लावित था। सब कुछ मुक्त, अनावरण और उत्तेजक। कहीं नृत्य-संगीत माहौल को सैक्स की गन्ध से आवृत करता तो कहीं फिल्मी सितारों का मदहोश करता शब्दजाल उनके अन्तर को सहज ही आदिम अवस्था की ओर ले जाता। कभी वे अपने ही बोले वार्तालापों का अट्टहास कर उठते। तभी सहसा आकाश में उदित होकर पूरे अस्तित्व पर छा जाने वाले पागल प्रेमी, दीवाने अयन ने प्रगट होकर एक उभरती सिने तारिका के पास जाकर उसे बाँहों के घेरे में लेते हुए, उत्तेजित-कम्पित स्वर में कहा, ‘‘कम ऑन यार ! तुम यहाँ और मौन, कहाँ है तुम्हार जाम ?’’

बड़े प्रयत्न से उसी मुक्त स्वर में उत्तर दिया यौवन की दहलीज पर कदम बढ़ाती उस लड़की ने, ‘‘अभी-अभी तो खाली किया है।’’
खाली शब्द यहाँ गुनाह है जानेमन। भरो और भरो। भरते रहो जब तक कि....
अयन ने स्वयं अपना जाम उसे पकड़ा दिया। नयी तारिका बड़ी ही कामुक अदा से मुस्करायी और जाम को ओठों से लगा लिया।
तभी सामने की ओर से एक मादक, मोहक नारी का स्वर गूँजता हुआ पास आया, ‘‘कम यार, उस मासूम के पीछे क्यों पड़े हो, मेरे साथ टकराओ न जाम।’’

सबकी दृष्टि उसी ओर उठी। अब तक वह चंचल शोख हसीना शिल्पा के हाथ से भरा गिलास लिये और दूसरे में सिगार का धुआँ उड़ाती अयन के पास आ चुकी थी। दोनों हाथों की सामग्री उसने मेज पर रखी और अयन को सोफे पर बैठाकर खुद उसकी गोद में बैठ गयी। फिर बेतहाशा कई चुम्बन अंकित कर दिये उसके गालों पर। फिर उठकर रम के दो गिलास भर लायी।

दोनों ने यन्त्रवत् जाम टकराये और पी गये। सारा वातावरण तालियों की गड़गड़ाहट और मादक खिलखिलाहट से गूँज-गूँज उठा और शिल्पा फिर अयन की गोद में जा बैठी। एक अहम गहरा चुम्बन लेकर उसकी आँखों में झाँकने लगी।
यद्यपि सभी अपनी-अपनी दुनिया में डूबे, अपनी-अपनी बहकती बहस में लीन थे तो भी सिने जगत् के आकाश पर धूमकेतु की तरह छा जाने वाला नवागंतुक नवयुवती ने उन्हें एकाएक अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। संगीत की मादक धुन प्रत्येक अंतराल के बाद बदल जाती थी और उसी के साथ बदल जाते थे नृत्य के लिए आतुर जोड़े।

शिल्पा के इस सहज मुक्त व्यवहार पर किसी के मन में प्रश्न नहीं कौंधा। स्वीकृति में ही जाम टकराये। शिल्पा की इस मुक्तता के पीछे एक राज छिपा था। प्रारम्भिक असफलता के बाद अभी-अभी उसकी तीन फिल्में हिट हुई थीं। 18 वर्ष की आयु में ही उसने सफलता की ऊँचाइयों को छू लिया। फिल्म जगत् में अब उसके भाव बढ़ गये। स्वभाव से वह शरारतपसंद और खतरों में जीने की आदी थी। चलती कार से सिर बाहर निकलना और नसें काट लेने तक में उसे जरा-भी संकोच नहीं होता था।

तभी न जाने किसने हकलाते-हकलाते कह दिया, ‘‘शी इज टू सैक्सी।’’
आवाज कुछ ऊँची थी। सहसा अनेक भृकुटियाँ तन गयीं। कोई व्यंग्य से मुस्कराया, किसी ने अपेक्षा से मुँह फेर लिया। प्रसिद्ध चरित्र अभिनेता गोमांगो ने उसे दयनीय करुणा से देखा, फुसफुसाया, ‘‘पन्द्रहवीं सदी का दकियानूसी है। मानता हूँ ये नया खुल्लम-खुल्ला सैक्स का रिवाज अभी बिल्कुल नया ही है पर मैं इसका समर्थक हूँ।’’

अनायास ही कुछ अभिनेता और अभिनेत्रियाँ गुटों में बँट गए। वे सिगरेट-सिगार का धुआँ उड़ाते, शराब की चुस्कियाँ लेते परम तत्ववेत्ताओं की तरह अपने विचार प्रगट करने लगे, ‘‘सैक्स का आगमन हो गया। यह एक नयी शानदार शुरुआत है, इसको लेकर ज्यादा नीतिवान न बनो।’’
एक प्रसिद्ध अभिनेता जो तथाकथित प्रबुद्ध वर्ग के माने जाते थे, बोले, ‘‘जी हाँ, अपनी सैक्युएलिटी को छिपाने के स्थान पर खुलकर अभिव्यक्त करना बेहतर है।’’

उन्हीं के समकक्ष दूसरे अभिनेता ने तुरन्त उसका समर्थन किया, ‘‘हम पिछड़े और दकियानूसी दिमाग के तो नहीं हैं कि जरा जोरदार सैक्सुएलिटी का कोई नजारा देखा नहीं कि लगे बलात्कार और हत्याएँ करने। हम निश्चय ही इतने परिपक्व तो हो ही गए हैं कि उसका अर्थ समझ सकें।’’
मानो उन्हीं का समर्थन करते हुए दूसरे ग्रुप में से एक ग्लैमरस तारिका बोल उठी, ‘‘सैक्स भारतीय संस्कृति का एक अंग रहा है। खजुराहो के मंदिरों को देखिए, आप समझ जाएँगे कि मैं क्या कहना चाहती हूँ।’’

‘‘हाँ, हाँ मैं समझ गया, ‘‘एक नटखट चरित्र अभिनेता ने कहा, ‘‘सैक्स और ग्लैमर साथ-साथ चलते हैं क्योंकि उन दोनों में परस्पर सम्बन्ध होता है। मर्दों का अंग प्रदर्शन हमेशा अपील करता रहा है।’’
यह सुनकर एक हसीना चहक उठी जो मोहक भी थी और एक सीमा तक अभिनेत्री भी, ‘‘होता है और स्त्री हो या पुरुष, बदन दिखाने में हर्ज ही क्या है ? देखिए, यह मेरी जिन्दगी है। मैं जो करना चाहूँगी करूँगी उसका।’’
‘‘हाँ, हाँ’’ स्वीकृति में कई जाम एक साथ टकराये। वहाँ खड़े सितारों में से एक और अभिनेता ने बड़े ही रोमांटिक अंदाज में एक लम्बा घूँट भरकर कहा, ‘‘नग्नता वाकई खूबसूरत होती है...’’

‘‘बेशक होती है’’ झूमते हुए भड़कीली पोशाक पहने एक युवती तारिका ने उसके कन्धे पर हाथ मारकर कहा, ‘‘इसलिए अंग-प्रदर्शन एक जरूरत है। बदन की उघड़न खूबसूरती ऐसी होती है। मुझे विश्वास है कि कपड़ों का बहिष्कार ऐसे व्यक्ति ने किया होगा जिसका बदन निहायत ही भद्दा रहा होगा।’’
तभी आ गये फिल्म जगत के चिर युवक अपनी चिर-परिचित बाँकी अदा में गुनगुनाते हुए, ‘‘सैक्सुएलिटी तो अभिव्यक्तियों की स्वतन्त्रता है।’’

‘‘है’’, निश्चय ही है सोनी दादा। आप ठीक कहते हैं। थ्री चीयर्स फॉर ग्रैण्ड ओल्ड मैन ऑफ फिल्म इन्डस्ट्रीज। मेरे पास अच्छा बदन है और मैं उसे दिखाना पसन्द करता हूँ। जब मुझे अपनी मिल्कियत दिखाने में मजा आता है तो औरत क्यों नहीं कर सकती है यह काम।’’

‘‘बेशक, बेशक’’, एक और मोहिनी सूरत ने व्हिस्की का घूँट भरा और फिर नाटकीय अंदाज में मुस्कराते हुए उसका समर्थन किया, ‘‘हीरोईन तो फैंटेसी का विषय होती ही है। उसे सैक्सी दिखना ही चाहिए। उसे मर्दों को उन्मत्त करने में कामयाब होना ही चाहिए।’’

तभी सहसा दूसरे दल में गुरु गम्भीर स्वर गूँजता हुआ पास आया, ‘‘ये नयी खुल्लम-खुल्ला सैक्सुएलिटी तो दरअसल असली कम्पन से पहले होने वाला कम्पन भर है। असली कम्पन उस वक्त होगा जब हमारा समाज खुल्लम खुल्ला सैक्सुएलिटी को अपना लेगा। बेहतर हो हम भारतीयों को खुल्लम-खुल्ला सैक्सुएलिटी का आदी होना चाहिए बजाये अपने दोहरे मापदण्डों को अपनाये रखने के।’’

जाम उठे, जाम खनके। संगीत की मादक धुन ने मादकता को बदन के रेशे-रेशे में पैबस्त कर दिया और साबित कर दिया कि सैक्स हर चीज को बेच सकता है। तभी जैसे निर्णय देते हुए एक स्टार ने अंतिम घूँट भरा, ‘‘सैक्स तो अब जैसे दरवाजे तोड़कर बाहर निकल रहा है। मुझे नहीं लगता कि आज कोई नंगा होकर पोज देने से इंकार करेगा।’’

‘‘नहीं, नहीं करेगा’’, सहसा अयन की गोद में जा बैठी शिल्पा जैसे घोषणा कर रही हो। वह अपनी जुल्फों से अयन के गाल सहला रही थी कि तभी उसके पति डायरेक्टर-एक्टर अंकित ने अपने साथियों के साथ प्रवेश किया। शिल्पा ने देखा और कूदकर उसकी ओर दौड़ी, ‘‘ओ डार्लिंग, माई डार्लिंग, तुमने बहुत देर कर दी। कहाँ थे अब तक जाने जां।’’

अंकित ने शिल्पा को बाँहों की गुंजल में बाँधते हुए एक चुंबन अंकित कर दिया उसके होठों पर फिर उसका हाथ, हाथों में लेकर थपथपाते हुए कहा, ‘‘अपनी नयी फिल्म के बारे में योजना बनाते-बनाते बहुत देर हो गयी और मैं...’’ फिर एकदम बात को वहीं समाप्त करते हुए उसने कहा, ‘‘खैर छोड़ो, अभी इन बातों को। इनसे मिलो, यह मेरे मित्र परवेज हैं, बम्बई के सबसे बड़े उद्योगपतियों में से एक। देश-विदेश में इनका व्यापार चलता है, विशेषकर विदेशों में...’’

वह आगे और कुछ कहता कि आज के आतिथेय ने रात्रि-भोज के तैयार होने की घोषणा कर दी। दूसरे ही क्षण वातावरण नाना मादक संगीत, सुरा-सिगार, सिगरेट की गन्ध और फिल्मी हस्तियों के वैसे ही नानारूप स्वरों और शब्दों से आलोड़ित होने लगा।
कुछ ही क्षणों में सब रात्रि-भोज की मेजों पर जा चुके थे और चुहलबाजी करते हुए विभिन्न प्रकार की वाइन और खाद्य-सामग्री लिये बैरों से घिर गये थे।

रात को वे बहुत देर से घर लौटे। अपनी सेविका सखी माधुरी की मदद से शिल्पा ने कपड़े बदले तब तक अंकित भी कपड़े बदलकर शयनकक्ष में आ गया था। फिर दोनों पहले तो अपने-अपने में, फिर एक दूसरे में इस तरह खो गये कि सवेरे नाश्ते के समय ही एक-दूसरे को पहचान सके। शिल्पा शरारत से मुस्करा रही थी पर अंकित अभी भी अपने को समेट नहीं पा रहा था। शिल्पा ने उसकी आँखों में झाँका और बोली, ‘‘डार्लिंग, इतना गम्भीर तो मैंने तुम्हें पहले कभी नहीं देखा।’’
अंकित के स्वर में किंचित् रूखापन था, ‘‘मुझे तुमसे कुछ बातें करनी हैं।’’
हँस आयी शिल्पा—‘‘मुझसे बाते करने के लिए मुझसे इजाजत चाहोगे ? मैं तो समूची सारी तुम्हारी हूँ और तुम मेरे रेशे-रेशे में समा चुके हो।’’

‘‘और अयन !’’
चौंकी शिल्पा, ‘‘अयन ! यह अयन हम दोनों के बीच में कहाँ से आ गया।’’
‘‘अपने से पूछो। कल पार्टी में उसकी गोद में बैठी कैसे चूम रही थी उसे।’’
शिल्पा एकदम ठिठकी फिर गौर से अंकित की तरफ देखती हुई बोली, एक-एक शब्द पर जोर देते हुए बोली, ‘‘मैंने तुमसे शादी ही नहीं की है अंकित, मैंने रोम-रोम से प्रेम किया है तुम्हें लेकिन अपने को बेचा नहीं है। अयन मात्र मेरा दोस्त है और दोस्त...’’

‘‘और दोस्त को अधिकार है...’’
‘‘अंकित !’’ शिल्पा का स्वर एकाएक तल्खी से भर उठा, ‘‘अब एक शब्द नहीं। मैंने तुम्हें अपना बनाया है पर गुलामी की शर्त पर नहीं।
एक-दूसरे के होते हुए भी हमारी अपनी-अपनी जरूरतें हैं, अपनी-अपनी जिन्दगी है और उसे हम किसी भी तरह जी सकते हैं।’’

‘‘एक तरफ तो कहती हो कि मैं तुम्हारे अन्तर में समा गयी हूँ दूसरी ओर आजादी भी चाहती हो।’’
‘‘तुम नहीं चाहते क्या ? तुम्हें याद नहीं कि जब हम शादी से पहले हनीमून पर गये थे तब तुम्हारा दोस्त विलि डिसूजा भी उसी होटल में ठहरा, क्यों ? हम दोनों के उन सघन क्षणों, निजी क्षणों में उसकी परछाई का अर्थ !’’
स्तब्ध-सा देखता रहा अंकित शिल्पा की ओर। कई क्षण लगे उसे अपने को सहेजने में, फिर बोला, ‘‘धीरे-धीरे ‘‘ओह डार्लिंग ! तुम अभिनय में इतनी पारंगत हो गयी हो कि यथार्थ तुम्हारी नजरों से एकदम ओझल हो जाता है।’’

‘‘कौन-सा यथार्थ ?’’
‘‘जीने का यथार्थ।’’
‘‘क्या कहना चाहतो हो तुम ?’’
‘‘मैं क्या कहना चाहता हूँ यह तुम अच्छी तरह जानती हो फिर भी सुनना चाहती हो तो सुनो, जो ऐश्वर्यशाली जीवन तुम जी रही हो और जीना चाहती हो, उसकी नींव पैसे पर टिकी है।’’

एक बार तो शिल्पा अविश्वास से हिल उठी फिर एक-एक शब्द को चबाती हुई बोली, ‘‘यह तुम कह रहे हो ! तुम ! यह जानकर भी कि मैं....’’
‘‘न, न’’, एकदम उसके मुँह पर हाथ रख दिया अंकित ने, ‘‘यह सब क्या मैं नहीं जानता मेरी जान...’’ वह सहसा रुका, शिल्पा ने उसे गौर से देखा, ‘‘पर क्या, बोलो न !’’

अंकित के स्वर में दर्द भी था और कूटनीति भी। उसने बताया, ‘‘मैं जो पिक्चर बना रहा हूँ उसके लिए मुझे बहुत पैसा चाहिए, पर वह है कि कहीं नजर नही आ रहा है। अब तुम ही मेरी मदद कर सकती हो...’’
शिल्पा हताश-सी बोली, ‘‘मैं समझी नहीं तुम मुझसे कैसी मदद चाहते हो ?’’

अंकित जवाब देता है कि दूसरे ही क्षण उसे चौंकाते हुए खिलखिला पड़ी, ‘‘मुझे बेचना चाहते हो ?’’
अंकित बिल्कुल नहीं चौंका। वह अपनी शिल्पा को जानता है। वह कभी भी, किसी भी क्षण कुछ भी कह सकती है। इस क्षण उल्लास और उमंग की चरम सीमा लाँघ जाती है तो दूसरे ही क्षण सीप में मोती की तरह बन्द हो जाती है।


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