नाटक-एकाँकी >> बच्चों के उत्तम नाटक बच्चों के उत्तम नाटकगिरिराजशरण अग्रवाल
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शिक्षाप्रद और बाल-मनोविज्ञान के अनुकूल नाटक
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
काला चोर
केशवचंद्र वर्मा
पात्र-परिचय
सुरेश
जग्गू
काला चोर
(जग्गू बैठा हुआ किताब के पन्ने उलट रहा है। सुरेश आता है।)
सुरेश: अरे ओ जंगली ! क्या पढ़ता है हर वक़्त बैठा-बैठा ? चल उठ तुझे बड़ी मज़ेदार....!
जग्गू: अरे तुम क्या मज़ेदार बताओगे। देखो, देखो, यह किताब नई लाया हूँ। सचमुच बड़ी मज़ेदार है। जब काला चोर निकलकर छत पर से कूदा, तब यह पुलिस इंस्पेक्टर भी उसके साथ धड़ाम से कूद पड़ा...बस उसने धड़ से पिल्तौल चला दी और पु....पुलिस।
सुरेश: (हँसता हुआ) अच्छा, अच्छा; बड़ा मजा आ रहा है। बिस्तर पर लेटे-लेटे पिस्तौल की और चोर की बात पढ़कर बड़ा मज़ा आ रहा है। कहीं सचमुच सामने या धमकता तो फिर हजरत, सिट्टीं-पिटटी गुम हो जाती।
जग्गू: (उत्साह से) क्या कहते हो ? मैं होता....मैं होता तो ऐसा कूद कर पकड़ता कि फिर काला चोर भाग थोड़े ही सकता था ....मैं झटपट उसकी गर्दन नाप लेता। क्या समझते हो जग्गू को।
सुरेश (हँसते हुए) कुछ नहीं। ठीक ही समझता हूँ जग्गू को। अच्छा, आप तैयार हो जाइए, मैं अभी सबको लेकर आता हूँ। खेलने चलेंगे।
जग्गू: हाँ हाँ, चलूँगा। तुम तैयार होकर आ जाओ।बस किताब में अब दस ही पन्ने रह गए हैं। मैं तब तक इसे समाप्त कर लूँगा। तुम आ जाओगे तब तक न ?
सुरेश: (बाहर जाते हुए) तैयार रहना।
(जग्गू किताब के पन्ने पलटता रहता है और भुनभुन करके पढ़ता है। धीमे-धीमे उसे नींद आ जाती है। वह सो जाता है। पृष्ठभूमि में गंभीर वाद्यसंगीत की आवाज, जो कि बताता है कि स्वप्न चल रहा है। स्टेज पर प्रकाश बहुत हलका पड़ जाता है।
जग्गू: (कुछ बड़बड़ाते हुए) चोर...काला चोर...चाचाची...वह काला चोर...काला चोर ऊपर चढ़ रहा है। आँखों पर काली नकाब डाली है...यह काली पतलून। चाचाजी हाथों में पि....पि.....पिस्तौल म..म..मैं...
(काला चोर आता है और वह जग्गू को एक लात मारकर उठाता है।)
काला चोर: (गरजकर) तू कौन है लड़के ?
(घबराकर उठता है।)
जग्गू: मैं...मैं..मैं जग्गू...मेरे पास कु...कुछ नहीं। यही कमीज...पा पाजामा है। चाहे ले लो।
काला चोर: (डाँटकर) चुप रे। मैं काला चोर हूँ। मैं कमीज-पाजामा नहीं लेता हूँ, मैं तो आदमियों की जान लेता हूँ, जान। यह देखता है भरी पिस्तौल
जग्गू: (घिग्घी बंध जाती है) म...म..मेरी जान.. न लो...मेरा...मेरे दोस्त....अभी आते होंगे....मैं खेलने कैसे जाऊँगा ? सुनो, मैं पाँव छूता हूँ। (रोने लगता है।)
काला चोर: (हँसते हुए) अच्छा। मगर बता तेरे चाचा की तिजोरी कहाँ पर है ? मैं तुझे जान से मार डालूँगा अगर तूने नहीं बताया। कुंजी लाकर मुझे दे दो, नहीं तो...फिर।
जग्गू: (घबराकर) हाँ-हाँ, मैं तुझे अभी कुंजी लाकर देता हूँ....मेरी जान छोड़ दो। (रोते हुए) तुम अगर मुझे मार डालोगे तो चाचाजी बहुत नाराज़ होंगे मुझ पर कि कालाचोर की किताब घर पर क्यों लाया था...?
कालाचोर: अच्छा इधर ला कुंजी (जग्गू कुंजी लाकर देता है।) (काला चोर तिजोरी खोलता है। तिजोरी में बहुत से गहने रखे हुए हैं।)
कालाचोर: ओहो। यहां बहुत गहने रखे हुए हैं। वाह जग्गू...वाह...तूने तो बड़ी मजेदार चीज़ दिखाई। यह हार तो लाख रुपये से कम का न होगा। (हार उठाता है)
जग्गू: मगर तुम जो इसको ले जाओगे तो हमारी अम्मा क्या पहनेंगी ? अभी कल ही तो उनको मोती की शादी में पहनकर जाना है। तुम चाहो तो परसों आकर ले जाना।
काला चोर : वाह मियाँ ! हमको ही चरका पढ़ाते हो। तुम तो हमारे भी चचा निकलोगे। परसों तक यहाँ इसे रहने भी दोगे?...बस आगे मत बढ़ना नहीं तो ख़ैर नहीं।
जग्गू: (घबराते हुए) नहीं नहीं, तुम इसको नहीं ले जा सकते।
काला चोर: अच्छा, यह बात है तो लो पकड़ो, मैं तो जाता हूँ।
(जग्गू एक डंडा उठाकर टूट पड़ता है और काले चोर के साथ लड़ने लगता है। मारपीट होती है। मंच पर कुछ अँधेरा कुछ उजाला)
काला-चोर: (लड़ते हुए) नहीं मानता जग्गू। तो फिर तेरी जान की ख़ैर नहीं। मैं तुझे जान से मार डालूँगा।
जग्गू: (लड़ते हुए) मैं पहले तुझे ही समाप्त किये देता हूँ। यह ले। (सहसा ज़ोर से डंडा उठाकर मारता है। काला चोर चिल्लाता है।)
काला चोर:(चिल्लाते हुए) आह ! ओह मार डाला...मार डाला....हाय मर गए...यह ले पाजी...(पिस्तौल चला देता है)
(मंच पर पहले अंधकार फिर रोशनी हो जाती है। काला चोर अदृश्य हो जाता है। जग्गू एक तकिए के ऊपर लेटा है।
जग्गू: (कराहता हुआ) अरे...मार डाला, चाचाची, चाचा..जी..(बड़बड़ाते हुए) चाचा जी, मैं क्या करूँ, काला चोर घर में घुस आया था, मैंने उसे डंडे से मारकर बेहोश कर दिया है। उसको पुलिस में पकड़वा दीजिएगा...मुझको तो गोली लग गई है, मैं नहीं बचूँगा...आज गोली चल गई।
(सहसा सुरेश, रमेश, शीला, बिन्नी सब आ जाते हैं। सब एक साथ खिलखिलाकर हँस पड़ते हैं।)
सुरेश: (गाता हुआ) अरे ओ भलेमानस, कह दिया था कि शाम को पाँच बजे बिस्तर पर लेटकर किताब नहीं पढ़ी जाती है। अब ऊँघ रहे हो...ओ जग्गू...
जग्गू: (आधा सोया, आधा जागा हुआ) सुरेश भाई, तुम देर से आए। मैंने कितना इस बदमाश से कहा कि मुझे खेलने जाना है, मगर इस पाजी ने गोली मार ही दी। मैं नहीं बचूंगा ! क्या करूँ !
सुरेश: (हँसते हुए) अरे किसने गोली मार दी है ?
जग्गू: काले चोर ने... मैंने उसे पकड़कर रखा है। यह देखो, बेहोश पड़ा है। तुम पुलिस को बुलाकर लाओ...!
शीला और बिन्नी: अरे जग्गू, यह तो तकिया है तू जिस पर लदा हुआ लेटा है। यहाँ कहाँ है काला चोर ! (हँसती है)
जग्गू: (जैसे चेतते हुए) ऐं, क्या कहती हो, तकिया ?...तो (सोचते हुए) मेरे गोली नहीं लगी... (गले के पास दिखाते हुए) यहीं तो लगी थी, मगर यहाँ तो कुछ नहीं है।
सुरेश: हत्तेरी बौड़म की। रात की कौन कहे, शाम से ही सपने देखने लगे....उठो, चलो, खेलने नहीं चलोगे ?
जग्गू: (सोचते हुए) यह सब सपना था...तो फिर मैं मरा नहीं होऊँगा लेकिन फिर काले चोर को भी तो नहीं पकड़ पाया होऊँगा। यह कैसा क्या हो गया। तो मैं जिंदा हूँ...काला ....काला चोर मुझको नहीं मार पाया।
(सब हँसने लगते हैं।)
शीला: हाँ श्रीमान जग्गू महाशय, आप सही-सलामत जिंदा हैं। आप तशरीफ ले चलिए, शाम हो रही है।
जग्गू: हाँ, हाँ, चलो चलो...क्या कहूँ, अब कभी भी शाम को ऐसी किताबें नहीं पढ़ा करूँगा।
(सब बच्चे ‘चलो चलो’ करते हुए चले जाते हैं।)
सुरेश: अरे ओ जंगली ! क्या पढ़ता है हर वक़्त बैठा-बैठा ? चल उठ तुझे बड़ी मज़ेदार....!
जग्गू: अरे तुम क्या मज़ेदार बताओगे। देखो, देखो, यह किताब नई लाया हूँ। सचमुच बड़ी मज़ेदार है। जब काला चोर निकलकर छत पर से कूदा, तब यह पुलिस इंस्पेक्टर भी उसके साथ धड़ाम से कूद पड़ा...बस उसने धड़ से पिल्तौल चला दी और पु....पुलिस।
सुरेश: (हँसता हुआ) अच्छा, अच्छा; बड़ा मजा आ रहा है। बिस्तर पर लेटे-लेटे पिस्तौल की और चोर की बात पढ़कर बड़ा मज़ा आ रहा है। कहीं सचमुच सामने या धमकता तो फिर हजरत, सिट्टीं-पिटटी गुम हो जाती।
जग्गू: (उत्साह से) क्या कहते हो ? मैं होता....मैं होता तो ऐसा कूद कर पकड़ता कि फिर काला चोर भाग थोड़े ही सकता था ....मैं झटपट उसकी गर्दन नाप लेता। क्या समझते हो जग्गू को।
सुरेश (हँसते हुए) कुछ नहीं। ठीक ही समझता हूँ जग्गू को। अच्छा, आप तैयार हो जाइए, मैं अभी सबको लेकर आता हूँ। खेलने चलेंगे।
जग्गू: हाँ हाँ, चलूँगा। तुम तैयार होकर आ जाओ।बस किताब में अब दस ही पन्ने रह गए हैं। मैं तब तक इसे समाप्त कर लूँगा। तुम आ जाओगे तब तक न ?
सुरेश: (बाहर जाते हुए) तैयार रहना।
(जग्गू किताब के पन्ने पलटता रहता है और भुनभुन करके पढ़ता है। धीमे-धीमे उसे नींद आ जाती है। वह सो जाता है। पृष्ठभूमि में गंभीर वाद्यसंगीत की आवाज, जो कि बताता है कि स्वप्न चल रहा है। स्टेज पर प्रकाश बहुत हलका पड़ जाता है।
जग्गू: (कुछ बड़बड़ाते हुए) चोर...काला चोर...चाचाची...वह काला चोर...काला चोर ऊपर चढ़ रहा है। आँखों पर काली नकाब डाली है...यह काली पतलून। चाचाजी हाथों में पि....पि.....पिस्तौल म..म..मैं...
(काला चोर आता है और वह जग्गू को एक लात मारकर उठाता है।)
काला चोर: (गरजकर) तू कौन है लड़के ?
(घबराकर उठता है।)
जग्गू: मैं...मैं..मैं जग्गू...मेरे पास कु...कुछ नहीं। यही कमीज...पा पाजामा है। चाहे ले लो।
काला चोर: (डाँटकर) चुप रे। मैं काला चोर हूँ। मैं कमीज-पाजामा नहीं लेता हूँ, मैं तो आदमियों की जान लेता हूँ, जान। यह देखता है भरी पिस्तौल
जग्गू: (घिग्घी बंध जाती है) म...म..मेरी जान.. न लो...मेरा...मेरे दोस्त....अभी आते होंगे....मैं खेलने कैसे जाऊँगा ? सुनो, मैं पाँव छूता हूँ। (रोने लगता है।)
काला चोर: (हँसते हुए) अच्छा। मगर बता तेरे चाचा की तिजोरी कहाँ पर है ? मैं तुझे जान से मार डालूँगा अगर तूने नहीं बताया। कुंजी लाकर मुझे दे दो, नहीं तो...फिर।
जग्गू: (घबराकर) हाँ-हाँ, मैं तुझे अभी कुंजी लाकर देता हूँ....मेरी जान छोड़ दो। (रोते हुए) तुम अगर मुझे मार डालोगे तो चाचाजी बहुत नाराज़ होंगे मुझ पर कि कालाचोर की किताब घर पर क्यों लाया था...?
कालाचोर: अच्छा इधर ला कुंजी (जग्गू कुंजी लाकर देता है।) (काला चोर तिजोरी खोलता है। तिजोरी में बहुत से गहने रखे हुए हैं।)
कालाचोर: ओहो। यहां बहुत गहने रखे हुए हैं। वाह जग्गू...वाह...तूने तो बड़ी मजेदार चीज़ दिखाई। यह हार तो लाख रुपये से कम का न होगा। (हार उठाता है)
जग्गू: मगर तुम जो इसको ले जाओगे तो हमारी अम्मा क्या पहनेंगी ? अभी कल ही तो उनको मोती की शादी में पहनकर जाना है। तुम चाहो तो परसों आकर ले जाना।
काला चोर : वाह मियाँ ! हमको ही चरका पढ़ाते हो। तुम तो हमारे भी चचा निकलोगे। परसों तक यहाँ इसे रहने भी दोगे?...बस आगे मत बढ़ना नहीं तो ख़ैर नहीं।
जग्गू: (घबराते हुए) नहीं नहीं, तुम इसको नहीं ले जा सकते।
काला चोर: अच्छा, यह बात है तो लो पकड़ो, मैं तो जाता हूँ।
(जग्गू एक डंडा उठाकर टूट पड़ता है और काले चोर के साथ लड़ने लगता है। मारपीट होती है। मंच पर कुछ अँधेरा कुछ उजाला)
काला-चोर: (लड़ते हुए) नहीं मानता जग्गू। तो फिर तेरी जान की ख़ैर नहीं। मैं तुझे जान से मार डालूँगा।
जग्गू: (लड़ते हुए) मैं पहले तुझे ही समाप्त किये देता हूँ। यह ले। (सहसा ज़ोर से डंडा उठाकर मारता है। काला चोर चिल्लाता है।)
काला चोर:(चिल्लाते हुए) आह ! ओह मार डाला...मार डाला....हाय मर गए...यह ले पाजी...(पिस्तौल चला देता है)
(मंच पर पहले अंधकार फिर रोशनी हो जाती है। काला चोर अदृश्य हो जाता है। जग्गू एक तकिए के ऊपर लेटा है।
जग्गू: (कराहता हुआ) अरे...मार डाला, चाचाची, चाचा..जी..(बड़बड़ाते हुए) चाचा जी, मैं क्या करूँ, काला चोर घर में घुस आया था, मैंने उसे डंडे से मारकर बेहोश कर दिया है। उसको पुलिस में पकड़वा दीजिएगा...मुझको तो गोली लग गई है, मैं नहीं बचूँगा...आज गोली चल गई।
(सहसा सुरेश, रमेश, शीला, बिन्नी सब आ जाते हैं। सब एक साथ खिलखिलाकर हँस पड़ते हैं।)
सुरेश: (गाता हुआ) अरे ओ भलेमानस, कह दिया था कि शाम को पाँच बजे बिस्तर पर लेटकर किताब नहीं पढ़ी जाती है। अब ऊँघ रहे हो...ओ जग्गू...
जग्गू: (आधा सोया, आधा जागा हुआ) सुरेश भाई, तुम देर से आए। मैंने कितना इस बदमाश से कहा कि मुझे खेलने जाना है, मगर इस पाजी ने गोली मार ही दी। मैं नहीं बचूंगा ! क्या करूँ !
सुरेश: (हँसते हुए) अरे किसने गोली मार दी है ?
जग्गू: काले चोर ने... मैंने उसे पकड़कर रखा है। यह देखो, बेहोश पड़ा है। तुम पुलिस को बुलाकर लाओ...!
शीला और बिन्नी: अरे जग्गू, यह तो तकिया है तू जिस पर लदा हुआ लेटा है। यहाँ कहाँ है काला चोर ! (हँसती है)
जग्गू: (जैसे चेतते हुए) ऐं, क्या कहती हो, तकिया ?...तो (सोचते हुए) मेरे गोली नहीं लगी... (गले के पास दिखाते हुए) यहीं तो लगी थी, मगर यहाँ तो कुछ नहीं है।
सुरेश: हत्तेरी बौड़म की। रात की कौन कहे, शाम से ही सपने देखने लगे....उठो, चलो, खेलने नहीं चलोगे ?
जग्गू: (सोचते हुए) यह सब सपना था...तो फिर मैं मरा नहीं होऊँगा लेकिन फिर काले चोर को भी तो नहीं पकड़ पाया होऊँगा। यह कैसा क्या हो गया। तो मैं जिंदा हूँ...काला ....काला चोर मुझको नहीं मार पाया।
(सब हँसने लगते हैं।)
शीला: हाँ श्रीमान जग्गू महाशय, आप सही-सलामत जिंदा हैं। आप तशरीफ ले चलिए, शाम हो रही है।
जग्गू: हाँ, हाँ, चलो चलो...क्या कहूँ, अब कभी भी शाम को ऐसी किताबें नहीं पढ़ा करूँगा।
(सब बच्चे ‘चलो चलो’ करते हुए चले जाते हैं।)
पुस्तक कीट
विष्णु प्रभाकर
पात्र-परिचय
लताः सुलेखा
कुसुमः निर्मिला
मालतीः मुख्याध्यापिका
पहलाः दृश्य
(मंच पर कन्या पाठशाला का दृश्य। धीरे-धीरे लड़कियों का शोर बढ़ता है।
बाहर छोटा-पर्दा पड़ा है। एक ओर से दो-तीन लड़कियाँ तेज़ी मंच
पर आती हैं।)
कुसुमः अरे मालती, तुम इतनी तेज़ी से कहाँ भागी जा रही हो ?
मलती: सुना नहीं, घंटी बज चुकी है। क्लास में जा रही हूँ।
लता: तुम न जाने कहाँ रहती हो ! कुछ पता भी है, आज वहाँ क्या हो रहा है ?
कुसुम: यह क्या जाने बेचारी ! इसे पढ़ने से भी अवकाश मिले। (हँस पड़ती है)
लता: यह भी उसी के समान है।
कुसुम: अजी, उसकी सहेली।
मालती: (क्रोध से) कुछ बताओगी भी या यूँ ही हँसी उड़ाती रहोगी।
लता: ओहो, ओहो मेरी रानी ! क्रोध करना भी जानती हो।
मालती: भई, मैं चली। मैं तुम्हारी तरह हँसी मजाक में समय खोना नहीं जानती। मुझे काम करना है। परीक्षा सिर पर आ रही है।
कुसुम: जी हाँ, जैसे परीक्षा आप ही को देनी है। मालतीजी, क्रोध न करिए। आइए हमारे साथ चलिए।
मालतीः पर कहाँ ? कुछ बताओगी भी।
कुसुमः हाल में।
मालतीः वहाँ क्या है ?
लताः चलो तो पता लग जाएगा। हाँ, तुम्हारी कुछ हानि हो तो हमें दोष देना।
मालती: अच्छा भई, चलो। तुम्हारी जैसी इच्छा।
कुसुम: हाँ, अब ठीक-ठीक बात कही है। आओ जल्दी करो, मुकदमा शुरू होने वाला है।
मालती: मुकदमा कैसा ?
मालतीः तुम निर्मला को जानती हो ?
मालती: निर्मला ! जो आठवीं क्लास में पढ़ती है ?
लता: हाँ, वही निर्मला, उपनाम ‘तोती’, उपनाम ‘भीमसेनी’।
मालती: (हँसकर) भई, तोती, नाम का तो मुझे भी पता था, यह ‘भीमसेनी’ क्या है ?
लताः यह भीमसेन से बना है पर अब चुपचाप इधर आ जाओ, लगभग सारा स्कूल यहाँ जमा हो रहा है।
(छोटा पर्दा हटता है। बहुत से लड़कियाँ बैठी दिखाई देती हैं। एक ओर मेज़ के पास कई कुर्सियाँ हैं। उन पर मुख्याध्यापिका तथा दूसरी अध्यापिकाएँ बैठी हैं। शोर बढ़ता है। मुख्याध्यापिका मेज़ पर रूल बजाती है। वे तीनों एक ओर बैठ जाती हैं।)
मुख्याध्यापिका : शांत हो जाओ। क्या करती हो ? बैठना सीखो। (यह आवाज़ सुनते ही वहाँ शांति छा जाती है।)
मुख्याधयापिकाः हाँ, अब आप कहिए, कुमारी सुलेखा !
सुलेखा : जी, मुझे आपसे इस लड़की के बारे में निवेदन करना है।
मुख्याध्यापिका : इसका नाम क्या है ?
सुलेखा: जी, इसके माता-पिता ने इसका नाम निर्मला रखा है। वैसे इसे ‘भीमसेनी’ और तोती भी कहते हैं।
(हँसी उड़ती है।)
मुख्याध्यापिका: शांत ! मैं समझी नहीं, ‘भीमसेनी’ क्या नाम है ?
सुलेखाः (हँसी रोकती हुई) जी भीमसेन बहुत बलवान थे न। इसी प्रकार यह भी बलवान है।
मुख्याध्यापिकाः (हँसती है। उन्हें हँसते देखकर सब हँस पड़ते हैं।) मैं समझी। बेटी निर्मला ! ये सब तुम्हरी हँसी उड़ा रही हैं। यह बुरी बात है। परंतु बेटी ! क्या करूँ, हँसी मुझे भी आ रही है, तब इन्हें क्या कहूँ। देखो न तुमने क्या हाल बना रखा है। तुम्हारे हाथ-पैर सींक-सलाई-से हो रहे हैं। तुम्हारी आँखें अंदर घुस गई हैं। कभी शीशा देखती हो। चोटी करते समय तो देखती ही होगी।
निर्मला: जी !
मुख्याध्यापिका : फिर यह क्या हाल है ? घूमने जाती हो ?
निर्मलाः जी नहीं ! जो वक़्त सैर करने का है वही पढ़ने का है।
मुख्याध्यापिका।: खेलती हो ?
निर्मला ! जी नहीं।
मुख्याध्यापिका : घर का काम तो करती होगी ?
निर्मला: जी, समय ही नहीं मिलता।
मुख्याध्यापिका: समय ही नहीं मिलता। आख़िर क्या करती रहती हो ?
निर्मला: जी, पढ़ती हूँ।
सुलेखा: इसकी माँ कहती थी, अकसर रात को उठकर सोते-सोते पाठ रटने लगती है !
मुख्याध्यापिका: इतना पढ़ती है ?
सुलेखा: पूछो न जी, स्कूल में भी आकर आँखें नहीं उठाती। आधी छुट्टी की घंटी में भी इसके हाथ में किताब रहती है। जब कभी कोई सहेली बाहर बुलाती है, तो कह देती है—न बहन, मुझे तो पाठ याद करना है। न कभी पिकनिक पर जाती है और न यात्रा पर। मुख्याध्यापिका: पढ़ना तो बहुत अच्छा है, निर्मला ! तुम इतना पढ़ती हो, तुम्हें तो अपने सब पाठ याद होंगे।
सुलेखा: पूछ कर देखिए।
निर्मला: जी, मुझे सबकुछ याद है। आप जो चाहे पूछ लें।
मुख्याध्यापिका: भूगोल पढ़ा है ?
निर्माल: जी, सारी दुनिया का याद है।
मुख्याध्यापिका: पेरिस जानती हो कहाँ है ?
निर्मला: (एकदम रटे हुए पाठ की तरह) पेरिस अमेरिका की राजधानी है। दुनिया का सबसे बड़ा नगर है। यहाँ पर दुनिया की सबसे ऊँची इमारतें हैं। यहाँ फ़ैशन का जन्म होता है और यह टेम्स नदी के किनारे पर है।
(हलकी और फिर तेज़ हँसी उठती है। लड़कियाँ खिल-खिला पड़ती हैं। मुख्याध्यापिक रूल बजाती है।)
मुख्याध्यापिका: शांत! हाँ, तो निर्मला, हिमालय पहाड़ कहाँ है ?
निर्मला: (एकदम) इंग्लैंड में।
मुख्याध्यापिका: दुनिया में सबसे पड़ा पहाड़ कौनसा है ?
निर्मला: विंध्याचल। यह भारत के उत्तर में है। यह भारत के लिए बड़ा लाभदायक है। उधर से कोई दुश्मन नहीं आ सकता। इसके कारण वर्षा होती है।
मुख्याध्यापिका: उत्तरप्रदेश की राजधानी कौनसी है ?
निर्मला: कटक। यह समुद्र के किनारे है। यहाँ मछलियों का व्यापार होता है।
(लड़कियाँ किसी तरह मुँह में आँचल दबाकर हँसी रोक रही हैं। अब नहीं रोक पातीं। मुख्याध्यापिका फिर रूल बजाती है। हँसी फिर फूट पड़ती है।)
मुख्याध्यापिका: शांत ! कुमारी सुलेखा। आप इन सब प्रश्नों के उत्तर लिखती जाइए, निर्मला ने बड़ी योग्यता से सबकुछ याद किए हैं। कितनी फुर्ती से बोलती है।
(सुलेखा लिख रही है।)
सुलेखा: जी, मैं सब कुछ लिख रही हूँ।
निर्मला: जी, ये सब लड़कियाँ मुझे देखकर हँस रही हैं। इन्हें मना कर दीजिए। ये मुझे हमेशा इसी तरह चिढ़ाती हैं।
मुख्याध्यापिका: नहीं, यह बुरी बात है। जो लड़की हँसी नहीं रोक सकती, वह उठकर चली जाए।
लता: जी, हँसी की बात पर भी हँसी न आए, यह कैसे हो सकता है ?
निर्मला: मैं हँसी की बात करती हूँ ! पढ़ना हँसी की बात है !
मालती: इतना पढ़ती हो, तो तुम फेल क्यों हो गई हो ?
निर्मला: वह मैं क्या जानूँ ! बहनजी जानें। ये सब मुझसे इतनी चिढ़ती हैं कि...
मुख्याध्यापिका: शांत हो जाओ, कोई लड़की बीच में न बोले। और निर्मला, तुम भी उनसे बात न करो।
निर्मला: जी, वे ही मुझे छेड़ती हैं।
मुख्याध्यापिका: अब कोई नहीं छेड़ेगा। हाँ, तुमने इतिहास पढ़ा है !
निर्मला: जी हाँ, भारत का सारा इतिहास मुझे याद है।
मुख्याध्यापिका: भारत के आदिवासी कौन हैं ? उनके बारे में तुम क्या जानती हो ?
निर्मला: (एकदम) भारत के आदिवासी आर्य हैं। इनका रंग काला होता है, नाक चपटी और क़द ठिगना। इनकी आँखें चमकती हैं।
(हँसी फिर एकदम फूट पड़ती है)
मुख्याध्यापिका: (क्रुद्ध) निर्मला, होश में हो !
निर्मला: जी...जी...(रो पड़ती है) जी, सब मेरे दुश्मन हैं। सब मुझे गिराना चाहती हैं। मैं इतना पढ़ती हूँ...(आगे बोला नहीं जाता)
मुख्याध्यापिका: (एकदम शांत) निर्मला, इधर आओ। (निर्मला पास आती है) इधर आओ। हाँ, बेटी ! इस तरह रोने से काम नहीं चलेगा।
निर्मला: (सुबकती हुई) जी...जी...जी...., मैं तो...मैं तो...
मुख्याध्यापिका: अब शांत हो जाओ। विश्वास रखो, हम तुम्हारा अपमान नहीं करना चाहतीं। हम तो यही चाहती हैं कि तुम स्वस्थ, प्रसन्न और होशियार बनो।
निर्मला: (रोती हुई) मैं हमेशा ही कोशिश करती हूँ।
मुख्याध्यापिका: पर ग़लत रास्ते से। देखती नहीं, तुम्हारा स्वास्थ्य बिगड़ गया है। तुम सदा चिड़चिड़ाती रहती हो। तुमने आज एक भी सवाल का ठीक उत्तर नहीं दिया। मैं ऐसी लड़कियों को अपने स्कूल में नहीं रख सकती। मैं तुम्हें ऐसा दंड दूँगी कि तुम सदा याद रखो।
(निर्मला सुबकती रहती है, बोलती नहीं।)
मुख्याध्यापिका: (गंभीर स्वर में) कुमारी सुलेखा ! मैंने तुम्हारी शिकायत की पूरी खोज कर ली है। यद्यपि मैं तुम्हारे बर्ताव से संतुष्ट नहीं हूँ, पर तुम्हारी बात ठीक है। मैं निर्मला को दोषी ठहराती हूँ। मैं उसे आज्ञा देती हूँ कि तीन महीने तक किताबों की सूरत न देखे। अपनी सब किताबें मेरे पास जमा कर दे और इस अरसे में वह किसी पहाड़ी पर जाकर रहे।
(निर्मला एकदम चुप हो जाती है। लड़कियाँ अचरज से फुसफुसाती हैं।)
मुख्याध्यापिका: शांति। पहाड़ से लौटकर निर्मला को एक घंटा घूमना और दो घंटे खेलना होगा। इसी शर्त पर वह स्कूल में रह सकती है। अब स्कूल दो महीने के लिए बंद हो रहा है। मैं शिमला जा रही हूं, निर्मला चाहे तो वह मेरे साथ चल सकती है।
निर्मला: (एकदम हाथ जोड़कर) मैं आपके साथ चलूँगी। आप मुझे अपने साथ ले चलिए।
मु्ख्याध्यापिका: अवश्य ले चलूँगी। जाओ, अब शांत होकर घर जाओ।
(वह उठती है और छोटा परदा गिरता है। सभा समाप्त होती है। सब जाते हैं। शोर फैलता है। लता, कुसुम और मालती हँसती हुई जाती हैं।)
कुसुमः अरे मालती, तुम इतनी तेज़ी से कहाँ भागी जा रही हो ?
मलती: सुना नहीं, घंटी बज चुकी है। क्लास में जा रही हूँ।
लता: तुम न जाने कहाँ रहती हो ! कुछ पता भी है, आज वहाँ क्या हो रहा है ?
कुसुम: यह क्या जाने बेचारी ! इसे पढ़ने से भी अवकाश मिले। (हँस पड़ती है)
लता: यह भी उसी के समान है।
कुसुम: अजी, उसकी सहेली।
मालती: (क्रोध से) कुछ बताओगी भी या यूँ ही हँसी उड़ाती रहोगी।
लता: ओहो, ओहो मेरी रानी ! क्रोध करना भी जानती हो।
मालती: भई, मैं चली। मैं तुम्हारी तरह हँसी मजाक में समय खोना नहीं जानती। मुझे काम करना है। परीक्षा सिर पर आ रही है।
कुसुम: जी हाँ, जैसे परीक्षा आप ही को देनी है। मालतीजी, क्रोध न करिए। आइए हमारे साथ चलिए।
मालतीः पर कहाँ ? कुछ बताओगी भी।
कुसुमः हाल में।
मालतीः वहाँ क्या है ?
लताः चलो तो पता लग जाएगा। हाँ, तुम्हारी कुछ हानि हो तो हमें दोष देना।
मालती: अच्छा भई, चलो। तुम्हारी जैसी इच्छा।
कुसुम: हाँ, अब ठीक-ठीक बात कही है। आओ जल्दी करो, मुकदमा शुरू होने वाला है।
मालती: मुकदमा कैसा ?
मालतीः तुम निर्मला को जानती हो ?
मालती: निर्मला ! जो आठवीं क्लास में पढ़ती है ?
लता: हाँ, वही निर्मला, उपनाम ‘तोती’, उपनाम ‘भीमसेनी’।
मालती: (हँसकर) भई, तोती, नाम का तो मुझे भी पता था, यह ‘भीमसेनी’ क्या है ?
लताः यह भीमसेन से बना है पर अब चुपचाप इधर आ जाओ, लगभग सारा स्कूल यहाँ जमा हो रहा है।
(छोटा पर्दा हटता है। बहुत से लड़कियाँ बैठी दिखाई देती हैं। एक ओर मेज़ के पास कई कुर्सियाँ हैं। उन पर मुख्याध्यापिका तथा दूसरी अध्यापिकाएँ बैठी हैं। शोर बढ़ता है। मुख्याध्यापिका मेज़ पर रूल बजाती है। वे तीनों एक ओर बैठ जाती हैं।)
मुख्याध्यापिका : शांत हो जाओ। क्या करती हो ? बैठना सीखो। (यह आवाज़ सुनते ही वहाँ शांति छा जाती है।)
मुख्याधयापिकाः हाँ, अब आप कहिए, कुमारी सुलेखा !
सुलेखा : जी, मुझे आपसे इस लड़की के बारे में निवेदन करना है।
मुख्याध्यापिका : इसका नाम क्या है ?
सुलेखा: जी, इसके माता-पिता ने इसका नाम निर्मला रखा है। वैसे इसे ‘भीमसेनी’ और तोती भी कहते हैं।
(हँसी उड़ती है।)
मुख्याध्यापिका: शांत ! मैं समझी नहीं, ‘भीमसेनी’ क्या नाम है ?
सुलेखाः (हँसी रोकती हुई) जी भीमसेन बहुत बलवान थे न। इसी प्रकार यह भी बलवान है।
मुख्याध्यापिकाः (हँसती है। उन्हें हँसते देखकर सब हँस पड़ते हैं।) मैं समझी। बेटी निर्मला ! ये सब तुम्हरी हँसी उड़ा रही हैं। यह बुरी बात है। परंतु बेटी ! क्या करूँ, हँसी मुझे भी आ रही है, तब इन्हें क्या कहूँ। देखो न तुमने क्या हाल बना रखा है। तुम्हारे हाथ-पैर सींक-सलाई-से हो रहे हैं। तुम्हारी आँखें अंदर घुस गई हैं। कभी शीशा देखती हो। चोटी करते समय तो देखती ही होगी।
निर्मला: जी !
मुख्याध्यापिका : फिर यह क्या हाल है ? घूमने जाती हो ?
निर्मलाः जी नहीं ! जो वक़्त सैर करने का है वही पढ़ने का है।
मुख्याध्यापिका।: खेलती हो ?
निर्मला ! जी नहीं।
मुख्याध्यापिका : घर का काम तो करती होगी ?
निर्मला: जी, समय ही नहीं मिलता।
मुख्याध्यापिका: समय ही नहीं मिलता। आख़िर क्या करती रहती हो ?
निर्मला: जी, पढ़ती हूँ।
सुलेखा: इसकी माँ कहती थी, अकसर रात को उठकर सोते-सोते पाठ रटने लगती है !
मुख्याध्यापिका: इतना पढ़ती है ?
सुलेखा: पूछो न जी, स्कूल में भी आकर आँखें नहीं उठाती। आधी छुट्टी की घंटी में भी इसके हाथ में किताब रहती है। जब कभी कोई सहेली बाहर बुलाती है, तो कह देती है—न बहन, मुझे तो पाठ याद करना है। न कभी पिकनिक पर जाती है और न यात्रा पर। मुख्याध्यापिका: पढ़ना तो बहुत अच्छा है, निर्मला ! तुम इतना पढ़ती हो, तुम्हें तो अपने सब पाठ याद होंगे।
सुलेखा: पूछ कर देखिए।
निर्मला: जी, मुझे सबकुछ याद है। आप जो चाहे पूछ लें।
मुख्याध्यापिका: भूगोल पढ़ा है ?
निर्माल: जी, सारी दुनिया का याद है।
मुख्याध्यापिका: पेरिस जानती हो कहाँ है ?
निर्मला: (एकदम रटे हुए पाठ की तरह) पेरिस अमेरिका की राजधानी है। दुनिया का सबसे बड़ा नगर है। यहाँ पर दुनिया की सबसे ऊँची इमारतें हैं। यहाँ फ़ैशन का जन्म होता है और यह टेम्स नदी के किनारे पर है।
(हलकी और फिर तेज़ हँसी उठती है। लड़कियाँ खिल-खिला पड़ती हैं। मुख्याध्यापिक रूल बजाती है।)
मुख्याध्यापिका: शांत! हाँ, तो निर्मला, हिमालय पहाड़ कहाँ है ?
निर्मला: (एकदम) इंग्लैंड में।
मुख्याध्यापिका: दुनिया में सबसे पड़ा पहाड़ कौनसा है ?
निर्मला: विंध्याचल। यह भारत के उत्तर में है। यह भारत के लिए बड़ा लाभदायक है। उधर से कोई दुश्मन नहीं आ सकता। इसके कारण वर्षा होती है।
मुख्याध्यापिका: उत्तरप्रदेश की राजधानी कौनसी है ?
निर्मला: कटक। यह समुद्र के किनारे है। यहाँ मछलियों का व्यापार होता है।
(लड़कियाँ किसी तरह मुँह में आँचल दबाकर हँसी रोक रही हैं। अब नहीं रोक पातीं। मुख्याध्यापिका फिर रूल बजाती है। हँसी फिर फूट पड़ती है।)
मुख्याध्यापिका: शांत ! कुमारी सुलेखा। आप इन सब प्रश्नों के उत्तर लिखती जाइए, निर्मला ने बड़ी योग्यता से सबकुछ याद किए हैं। कितनी फुर्ती से बोलती है।
(सुलेखा लिख रही है।)
सुलेखा: जी, मैं सब कुछ लिख रही हूँ।
निर्मला: जी, ये सब लड़कियाँ मुझे देखकर हँस रही हैं। इन्हें मना कर दीजिए। ये मुझे हमेशा इसी तरह चिढ़ाती हैं।
मुख्याध्यापिका: नहीं, यह बुरी बात है। जो लड़की हँसी नहीं रोक सकती, वह उठकर चली जाए।
लता: जी, हँसी की बात पर भी हँसी न आए, यह कैसे हो सकता है ?
निर्मला: मैं हँसी की बात करती हूँ ! पढ़ना हँसी की बात है !
मालती: इतना पढ़ती हो, तो तुम फेल क्यों हो गई हो ?
निर्मला: वह मैं क्या जानूँ ! बहनजी जानें। ये सब मुझसे इतनी चिढ़ती हैं कि...
मुख्याध्यापिका: शांत हो जाओ, कोई लड़की बीच में न बोले। और निर्मला, तुम भी उनसे बात न करो।
निर्मला: जी, वे ही मुझे छेड़ती हैं।
मुख्याध्यापिका: अब कोई नहीं छेड़ेगा। हाँ, तुमने इतिहास पढ़ा है !
निर्मला: जी हाँ, भारत का सारा इतिहास मुझे याद है।
मुख्याध्यापिका: भारत के आदिवासी कौन हैं ? उनके बारे में तुम क्या जानती हो ?
निर्मला: (एकदम) भारत के आदिवासी आर्य हैं। इनका रंग काला होता है, नाक चपटी और क़द ठिगना। इनकी आँखें चमकती हैं।
(हँसी फिर एकदम फूट पड़ती है)
मुख्याध्यापिका: (क्रुद्ध) निर्मला, होश में हो !
निर्मला: जी...जी...(रो पड़ती है) जी, सब मेरे दुश्मन हैं। सब मुझे गिराना चाहती हैं। मैं इतना पढ़ती हूँ...(आगे बोला नहीं जाता)
मुख्याध्यापिका: (एकदम शांत) निर्मला, इधर आओ। (निर्मला पास आती है) इधर आओ। हाँ, बेटी ! इस तरह रोने से काम नहीं चलेगा।
निर्मला: (सुबकती हुई) जी...जी...जी...., मैं तो...मैं तो...
मुख्याध्यापिका: अब शांत हो जाओ। विश्वास रखो, हम तुम्हारा अपमान नहीं करना चाहतीं। हम तो यही चाहती हैं कि तुम स्वस्थ, प्रसन्न और होशियार बनो।
निर्मला: (रोती हुई) मैं हमेशा ही कोशिश करती हूँ।
मुख्याध्यापिका: पर ग़लत रास्ते से। देखती नहीं, तुम्हारा स्वास्थ्य बिगड़ गया है। तुम सदा चिड़चिड़ाती रहती हो। तुमने आज एक भी सवाल का ठीक उत्तर नहीं दिया। मैं ऐसी लड़कियों को अपने स्कूल में नहीं रख सकती। मैं तुम्हें ऐसा दंड दूँगी कि तुम सदा याद रखो।
(निर्मला सुबकती रहती है, बोलती नहीं।)
मुख्याध्यापिका: (गंभीर स्वर में) कुमारी सुलेखा ! मैंने तुम्हारी शिकायत की पूरी खोज कर ली है। यद्यपि मैं तुम्हारे बर्ताव से संतुष्ट नहीं हूँ, पर तुम्हारी बात ठीक है। मैं निर्मला को दोषी ठहराती हूँ। मैं उसे आज्ञा देती हूँ कि तीन महीने तक किताबों की सूरत न देखे। अपनी सब किताबें मेरे पास जमा कर दे और इस अरसे में वह किसी पहाड़ी पर जाकर रहे।
(निर्मला एकदम चुप हो जाती है। लड़कियाँ अचरज से फुसफुसाती हैं।)
मुख्याध्यापिका: शांति। पहाड़ से लौटकर निर्मला को एक घंटा घूमना और दो घंटे खेलना होगा। इसी शर्त पर वह स्कूल में रह सकती है। अब स्कूल दो महीने के लिए बंद हो रहा है। मैं शिमला जा रही हूं, निर्मला चाहे तो वह मेरे साथ चल सकती है।
निर्मला: (एकदम हाथ जोड़कर) मैं आपके साथ चलूँगी। आप मुझे अपने साथ ले चलिए।
मु्ख्याध्यापिका: अवश्य ले चलूँगी। जाओ, अब शांत होकर घर जाओ।
(वह उठती है और छोटा परदा गिरता है। सभा समाप्त होती है। सब जाते हैं। शोर फैलता है। लता, कुसुम और मालती हँसती हुई जाती हैं।)
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