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शिवालक की घाटियों में

श्रीनिधि सिद्धान्तालंकार

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :246
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5139
आईएसबीएन :978-81-7043-704

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एक श्रेष्ठ काव्य ...

Shivalak Ki Ghatiyon Main

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तावना

‘‘शिवालक की घाटियों में’’- जहाँ मैंने अपने जीवन का काफी हिस्सा गुजारा, जहाँ, जान हथेली पर ले-मजनू की तरह-शेरों के पीछे मारा-मारा फिरा; जहाँ के हर पेड़, हर जानवर, हर पत्थर को अपना समझा-श्रीनिधि ने एक निराली छटा दिखाई है। आपकी लेखनी, लेखनी नहीं; एक चित्रकार का यन्त्र है। इस रचना में शिवालक का वह चित्र है, जो काव्य व कविता के परदे पर खिंचा है। यह कोई शिकारी की कहानी नहीं; यह किसी ‘अनादि विरही की वाङ्मयी वेदनाध्वनि’ है।

मुझे यही अचम्भा हैं कि क्या प्रकृति देवी, अपनी गोद में बिठाकर; हर बालक को नई कहानी सुनाती है ?-कहीं, ऐसा तो नहीं; कि नदी-नालों, जीव-जन्तुओं, वृक्षों व पक्षियों का सीधा-सादा सन्देश हमेशा एक-सा ही रहता हो; अन्तर केवल सुनने वालों की भावनाओं में हो ?

जब मैं ये मनोरंजक घटनाएँ पढ़ रहा था, मेरे कानों में शिवालक की घाटियों में गूँजती हुई यह आवाज आ रही थी-

 

मजा जब था, जो वह सुनते
मुझी से दास्ताँ मेरी।
कहाँ से लाएगा कासिद
बयाँ मेरा, जबाँ मेरी ?

 

पाठको, यह पुस्तक कोई मामूली पुस्तक नहीं’; यह शिवालक का आपके लिए निमन्त्रण पत्र है।

 

-मनोहरदास चतुर्वेदी
इंस्पेक्टर जनरल ऑव फॉरेस्ट्स,
गवर्नमेण्ट ऑव इंडिया


अपने विषय में

 


किसी राष्ट्र के मानव वर्ग की तरह, उस राष्ट्र के वन-पर्वतों में बसने वाला पशुवर्ग भी, उस राष्ट्र की वैसी ही प्रजा है; उसे भी, वैसे ही संरक्षण पाने और वैसे ही जी सकने का अधिकार है-इस प्राकृतिक सत्य को न समझकर मनुष्य ने पशु-वर्ग पर जिस प्रकार के अत्याचार किए हैं, और आज भी करता चला आ रहा है, उनकी कथा बहुत ही रोमांचपूर्ण और वेदनाभरी है। भारत जो अपने दुर्लभ वन्य पशुओं के लिए भूमण्डल भर में प्रसिद्ध है-आज अपने चिर प्राचीन पशुवर्ग की कितनी ही उपजातियों से शून्य-प्राय हो उठा है।

प्राचीन भारतीय वाङ्मय में जिस ‘केसरी’ (Lion) का इतना अधिक वर्णन उपलब्ध होता है और जिसके उन्नीसवीं शताब्दी तक भी भारत के मध्य पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिमी भागों में पाए जाने के प्रमाण उपलब्ध होते हैं, वह आज सौराष्ट्र के गिरि-जंगलों के अतिरिक्त-जहाँ अब उसकी संख्या शायद दो सौ अस्सी से अधिक नहीं है-भारत के किसी भी अन्य भाग में शेष नहीं रहा है।

चित्रक (Cheta) पुराकाल में भारत का बहुत ही सुन्दर तथा शानदार पशु था। यह बघेरे या तेन्दुए (Leopard or Panther) से अत्यन्त भिन्न एक दूसरा ही पशु है, जो बिल्ली और कुत्ते की जातियों का संमिश्रण है। यह कभी इस देश में प्रचुर मात्रा में पाया जाता था। यह एक बार पहले भी इस देश में से समाप्तप्राय हो उठा था। परन्तु कतिपय भारतीय नरेशों ने शिकार के उद्देश्य से इसे अफ्रीका से मँगवाया था। और उसके बाद इसका वंश भारतीय वनों में एक बार फिर उज्जीवित हो उठा था। परन्तु आज भारतीय जंगलों में से इसका अस्तित्व एक बार फिर नष्ट हो चुका है। कुछ वन पर्यटकों का ऐसा विश्वास है कि भारत के दूरवर्ती वन भागों में यह अब भी विद्यमान है। परन्तु इनके इस कथन को नि:सन्देह सत्य मान लेना कठिन है।

बाघ (Tiger) जो भारतीय जंगलों के सभी पशुओं में सबसे अधिक दर्शनीय तथा तेजस्वी पशु है, वह भी आज क्रमश: अपनी सत्ता खोता जा रहा है। समूचे भारत में आज इसकी संख्या अठारह सौ से अधिक नहीं है। और कितने ही प्रकृतिज्ञों का ख्याल है कि यदि इसके संरक्षण की तरफ विशेष ध्यान नहीं दिया गया तो निकट भविष्य में ही भारतीय जंगल इस पशु से विहीन हो उठेंगे।

गैंडे की भी ऐसी ही कथा है। इस देश में कभी इसकी तीन उपजातियाँ होती थीं। एक, लघुकाय एक सींग का गैंडा, जिसे यवद्वीपी गैंडा कहते थे। दूसरा, दो सीगों वाला स्वर्णद्वीपी गैंडा और तीसरा, दीर्घकाय वह एक सींग वाला भारतीय गैंडा होता था। इनमें से प्रथम श्रेणी का गैंडा प्रायः नष्ट ही हो गया है। सम्भव है, बरमा के सीमान्तवर्ती वनों में उसका एकाध जोड़ा कहीं पर बच रहा हो।

यद्यपि भारत सरकार के ‘गैंडा-संरक्षण-अधिनियम’ के कारण आसाम तथा बंगाल के सरकारी बन्द जंगलों में लगभग तीन सौ पचास की संख्या में यह अब भी उपलब्ध है; परन्तु किसी काल में यह भारतीय वनों में बहुतायत से पाया जाता था। हिमालय से निकलकर पटना की निकटवर्ती गंगा की धारा में मिल जाने वाली बिहार की प्रसिद्ध नदी ‘गण्डकी’ से सघन वनों में’ जो बंगाल के वनों में से दो सौ-ढाई सौ मील से अधिक दूर नहीं है, कभी यह गैंडा बहुतायत से उपलब्ध होता था और सम्भवत: इस नदी का गंडकी नाम भी इसी कारण पड़ा था।

अरण्य महिष भी भारत का एक विशिष्ट वन्य पशु है। पालतू भैसों का यही उद्भव-मूल है। कभी किसी प्राचीन काल में इनकी संख्या हमारे देश में बहुत अधिक होती थी।2 परन्तु आज ये केवल केन्द्रीय तथा उत्तरपूर्वी भारत में ही उपलब्ध होते हैं।

जंगली गर्दभ की कहानी भी ऐसी ही है। कच्छ के रान में उपलब्ध होने के अतिरिक्त अब यह भारत के किसी भी जंगली भाग में नहीं पाया जाता, और इसका एक बड़ा कारण है कि शिकारी नामधारी हिंसक लोगों के लिए उन स्थानों में पहुँच सकना सुगम नहीं रहा है और ये बेचारे जंगली गर्दभ इसी कारण अपनी सत्ता बचाए हुए हैं।

इनके अतिरिक्त सरल, सीधे और निरपराध हरिणों की कितनी ही उपजातियाँ, आसाम से कुमाऊँ तक के पर्वत भागों में, पुष्कल में प्राप्त होनेवाला जंगली बकरा (गोराल), नेपाल के पहाड़ों में उपलब्ध होने वाला कस्तूरी मृग तथा चमरी गाय, भारत के उत्तरी-पश्चिमी, मध्य तथा दक्षिणी भागों में मिलने वाला बस्टार्ड तथा इसी प्रकार के अन्य वन्य पशु या तो अपनी सत्ता खो बैठे हैं या धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं। टाकिन (Takin) उत्तर-पूर्वी भारत में विशेष रूप से पाया जाता है और यह अधिक संख्या में नहीं होता। समय-समय पर शिकारी लोग इसे नष्ट करते रहे हैं। अब यह कहीं उपलब्ध हो भी सकता है या नहीं, इसका निश्चित उत्तर फोटो कैमराधारी वन-पर्यटकों के हाथ की बात है।
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1.आज इसे गंडक नदी कहते हैं।
2.‘अभिज्ञान-शाकुन्तल’ में अरण्य महिष का जो वर्णन आता है (गाहन्तां महिषा निपान सलिलं..) उससे पता चलता है कि शिवालक की घाटियों में और वर्तमान नजीबाबाद के जंगलों में ये प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते थे। आसाम की अभी हाल की बाढ़ों तथा भूकम्पों में भी इनका बड़ी संख्या में विनाश हो गया है।

इधर जब प्रकृति-उपासकों की तरफ से जंगलों की इन सुन्दर प्रजाओं के लिए इस तरह स्नेह व्यक्त किया जाता है उनके ह्रास के लिए इतनी चिन्ता प्रकट की जाती है, इस देश में ऐसे स्वतन्त्र विचारकों की भी कमी नहीं है जो यह कहते हैं कि इन वन्य पशुओं के सुरक्षित रखने की आवश्यकता ही क्या है ? इनके नष्ट हो जाने से संसार को कुछ भी हानि नहीं है-ऐसा कहने वालों में अधिसंख्यक प्राय: वे लोग हैं, जो यह नहीं मानते हैं कि सृष्टि का कोई भी पदार्थ-चाहे वह कितना ही तुच्छ क्यों न दीख पड़ता हो-व्यर्थ नहीं है।

प्रकृति ने उसे मनुष्य का खिलौना या उनके मनोरंजन का साधन बनाकर उत्पन्न नहीं किया, बल्कि इस संसार रूपी मशीनरी का कोई बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग बनाकर उसकी सृष्टि की है। संसार में सन्तुलन की व्यवस्था को सुरक्षित रखने सरीखे गम्भीर उद्देश्य से ही उसकी रचना की है। ऐसे लोग मानव जगत् को ही एकमात्र उपयोगी वर्ग मानते हुए या तो पशु-जगत् की उपयोगिता के सम्बन्ध में जानते ही नहीं, या जानकर भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहते।

पूछे जाने पर यह बताना तो सचमुच ही कठिन होगा कि अमुक पशु संसार में किस अभाव की पूर्ति कर रहा है, या संसार के लिए उसका क्या उपयोग है; क्योंकि यह सृष्टि इतने रहस्यों से भरी पड़ी है कि उसके प्रत्येक तत्त्व को समझ लेना एक प्रकार से असम्भव ही है, तो भी केवल इसलिए कि किसी पशु की उपयोगिता प्रतिपादित नहीं की जा सकती, उसे नष्ट कर देने का भी कोई अर्थ नहीं जान पड़ता। संसार के विशेषज्ञ इन पशु-पक्षियों तथा जलचरों की उपयोगिता के सम्बन्ध में दिन प्रतिदिन अनुसन्धान करने में लगे हैं और उस अनुसन्धान के आधार पर ही वे लोग इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि विश्व की कोई भी वस्तु व्यर्थ नहीं है। किसे पता था कि समुद्र में ग्रसने वाले शार्क तथा सील1 (सिंहिका) भी हमें ‘इन्सुलिन’ सरीखी एक ऐसी औषधि दे सकेंगे, जो मधुमेह जैसे संहारक रोग में फँसे हुए करोड़ों मनुष्यों को मृत्यु का ग्रास बनने से बचा सकेगी।

यथार्थ बात तो यह है कि यह समस्त ब्रह्माण्ड एक विराटकाय कलायन्त्र के तुल्य है जिसमें सृष्टि के ये छोटे-बड़े प्राणी उसके पुर्जे बनकर बैठे हुए हैं। उस कलायन्त्र की सत्ता वनस्पति-जगत् तथा पशु-जगत् (मनुष्य भी इसमें सम्मिलित हैं) के सन्तुलन पर आश्रित है। जैसे किसी मशीनरी के छोटे से पुर्जे के भी बिगड़ जाने, स्थान-भ्रष्ट हो जाने या खो जाने से उस मशीनरी का कार्य बन्द हो जाता है, इसी प्रकार किसी वनस्पति या पशु के औचित्य में ह्रास आ जाने से इस विराटकाय कलायन्त्र में भी ऐसा विपर्यास आ जाता है कि उनके भयंकर दुष्परिणाम उत्पन्न हो जाते है।
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1.वाल्मिकी रामायण में लंका के समुद्र में इस जल-प्राणी के बड़ी भारी संख्या में पाए जाने का वर्णन है।

उदाहरणार्थ-जिन परामर्शदाताओं ने अन्न को ही सर्वस्य मानकर उसके लिए जंगलों को काट गिराने का परामर्श दे डाला था; बाद में जब नदियों की भयंकर बाढ़ों तथा प्राकृतिक स्रोतों के पृथ्वी की गहराई में उतर जाने के कारण धरती के बंजर तथा उत्वावच व विकृत हो उठने की घटनाओं ने उन्हें आश्चर्य में डाल दिया; तब उन्हें यह समझना पड़ा कि देश के कल्याण के लिए अधिक अन्न उत्पादन की आवश्यकता तो अवश्य है परन्तु उसका उपाय जंगलों को नष्ट करना नहीं है। इससे तो उनके अपने ही लक्ष्य को व्याघात पहुँचता है।

केवल प्रकृति में ही इस सन्तुलन की आवश्यकता नहीं है, वनस्पति तथा पशु-जगत् के पारस्परिक सन्तुलन के बनाए रखने की भी वैसी ही आवश्यकता है, जिसे यदि भंग किया जाएगा तो उसके भी वैसे ही भयंकर परिणाम निकले बिना न रहेंगे और इस सन्तुलन का नाश करने वाले मानव को ही एक दिन उसका दण्ड भोगना पड़ेगा।
इन पिछले कुछ वर्षों में ही जंगलों के निकटवर्ती ग्रामों में बसने वाले इतने अधिक मनुष्य बाघों व तेन्दुओं के हाथों मार डाले गए हैं कि तंग आकर वे लोग यह परामर्श दे उठे हैं कि पशुओं के संरक्षण की दुहाई देना बन्द कर उनका शीघ्र वध किया जाना ही उचित है।

परन्तु, यदि इन हत्याओं के मूल कारणों पर विचार किया जाए-जैसा कि अनेक विशेषज्ञों ने किया है-तो बहुत ही अच्छी तरह समझ आ जाता है कि स्वयं मनुष्य की अपनी भूल ने ही इस महान् संकट को पैदा किया है। बाघ या शेर सामान्यतया वनों में ही रहना पसंद करते हैं, बस्तियों में नहीं आते। यदि उन्हें छेड़ा न जाए या आहत न किया जाए तो साधारणत: वे मनुष्य पर आक्रमण भी नहीं करते। परन्तु जंगलों को काटकर जब हमीं लोगों ने हरिणों और नीलगायों को वहाँ से भाग जाने के लिए बाधित कर दिया, अथवा गोली का निशाना बनाकर उन्हें नष्ट कर दिया, तो अपना प्राकृतिक खाद्य न पाने के कारण बाघों को भी अपनी क्षुधा का प्रश्न हल करने के लिए या तो गाँवों के पालतू पशुओं की ओर या वहाँ मनुष्यों की ओर आकर्षित हो जाना पड़ा। वनस्पतिवर्ग तथा पशुवर्ग के पारस्परिक सन्तुलन को भंग कर देने से ही इस प्रकार के दुष्टपरिणाम मानव जाति को भोगने पड़ रहे हैं।

इसलिए शासन के कन्धे पर इस समय एक गुरुतर बोझ आ पड़ा है। एक तरफ जहाँ अधिक अन्नोत्पादन के लिए अधिक धरती को हल के नीचे लाना आवश्यक हो उठा है, दूसरी तरफ, राष्ट्र के प्राकृतिक, स्रोतों, निर्झरों, जलाशयों तथा नदियों के बहाव को अक्षुण्य बने रहने देने, मरुस्थल की वृद्धि को रोकने, भवनोपयोगी काष्ठ तथा शहतीरों के उत्पादन का प्रबन्ध करने, पशुओं के लिए चरागाहों की व्यवस्था करने, वनोषधियों के उत्पादन में वृद्धि करने तथा पशुओं के रहने देने के लिए जंगलों की उन्नति करने के आवश्यक कार्यों का सम्पादन भी अनिवार्य हो उठा है।

इसमें कुछ सन्देह नहीं कि वन्य पशुओं के ह्रास का एक मुख्य कारण उनका शिकार है। शिकारी लोग पशु की उपयोगिता, उसकी विशिष्टता, उसकी आयु तथा उसके लिंग भेद का परिज्ञान किए बिना ही, जिस प्रकार के अविचारितापूर्ण ढंग से उनका शिकार करने में लगे हैं, यह एक ऐसी निन्दनीय प्रथा है, जिस पर बहुत ही कठोरता से नियन्त्रण रखने की आवश्यकता है।

यह जानकर प्रसन्नता होती है कि नवम्बर 1952 में भारतीय वन्य पशु बोर्ड का जो प्रथम अधिवेशन मैसूर में हुआ था, उसमें इस शिकार प्रथा के विरुद्ध जोरदार आवाज उठाई गई थी और केन्द्रीय सरकार ने भी उस सम्बन्ध में कतिपय उपयोगी कदम उठाए हैं। शेर आदि की खालों के बिकने तथा जीवित पशु-पक्षियों के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगाकर अन्य पशुओं के संरक्षण को प्रोत्साहन देने का निश्चय किया गया है। अन्य सरकारों ने भी अपने राज्य में वन्य पशु तथा वन्य पक्षी संरक्षण अधिनियम लागू कर दिए हैं।
परन्तु इस सम्बन्ध में एक गंभीर प्रश्न और भी आ खड़ा होता है। शिकारी सम्प्रदाय का कहना है कि शिकार प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाने से संसार के एक महानतम मनोरंजन को ठेस पहुँचने का भय है। शिकार को व्यसन बताकर उसकी निन्दा करना, या उन पर पशुहत्या का आरोप लगाकर उन्हें अपराधी ठहराना उसकी वास्तविकता से अपरिचित होना है। उनका दावा है कि जंगल ‘सौन्दर्य से अटूट सम्बन्ध बनाए रखने, भाग दौड़ और अनेक प्रकार के व्यायामों द्वारा स्वास्थ्य को स्थिर रखने, हिंस्र पशुओं का सामना कर निर्भयता सम्पादन करने, और उनके चरित्र का अध्ययन करने आदि अनेक जीवनोपयोगी बातों का लाभ इस शिकार के बहाने ही तो प्राप्त होता है।

हम उनके इस कथन को स्वीकार करते हैं। परन्तु वे जिन जीवनोपयोगी बातों पर इतना बल देते हैं, उनकी प्राप्ति तो वन्य पशुओं का वध किए बिना भी हो सकती है। बल्कि, हमारा तो यह अनुभव है कि शिकार के लक्ष्य से जो शिकारी जंगलों में कैम्प लगाते हैं, उन्हें उपर्युक्त जीवनोपयोगी बातों की यथार्थ प्राप्ति बहुत ही कम होती है। इसका कारण यह है कि हिंसा की भावना उन्हें उस आनन्द से वंचित कर देती है। वन्य जीवन से जीवनोपयोगी बातों का वास्तविक लाभ उठाने के लिए हमें वनों को संसार की दिव्यतम विभूति मानकर ही उनमें प्रवेश करना होगा। वन देवता को अप्रसन्न करने का कोई भी कार्य वहाँ न होना चाहिए। वन भूमियाँ सौन्दर्य के अक्षय भण्डार हैं; अहिंसा, प्रेम और शान्ति के प्रतीक हैं, वैराग्य के उद्दीपक है; आनन्द के स्रोत हैं पवित्रताओं के निकेतन हैं..उनके लिए हमारे हृदय में ऐसी ही सम्मान भावना रहनी चाहिए, तभी तो रस आएगा।

गत 35 वर्ष से ‘आरण्यक संघ’ इसी विचार-धारा को प्रोत्साहित करता आ रहा है। वन्य प्रेम के इन्हीं उदात्त सिद्धान्तों को लेकर उसके सदस्यों ने जो अनेक यात्राएँ की हैं, प्रस्तुत पुस्तक में उन्ही की एक सूक्ष्म और वास्तविकतापूर्ण झाँकी प्रदर्शित की गई है।

यह सत्य है कि वन शान्ति के स्रोत हैं परन्तु यह भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि वे विभीषिका के निकेतन भी हैं और इस विभीषिका या रसास्वादन भी इन वन यात्राओं का एक उद्देश्य है, आज यह मानने में मुझे कुछ भी संकोच नहीं है। इन भयों के रहते हुए यात्रा प्रसंगों में ऐसे अवसर भी प्राय: आते रहते हैं जब पर्यटक को हिंस्र पशुओं की हिंसा वृत्ति और क्रोध का लक्ष्य भी बनना पड़ जाता है। तब किस अवस्था में, कैसे आत्मरक्षा करनी चाहिए, रायफल का सहारा लिये बिना भी आक्रमण को कैसे विफल बना देना चाहिए यह एक ऐसा गूढ़ विषय है, जिसका ज्ञान निरन्तर अभ्यास से ही मिल सकता है।

‘संघ’ की तरफ से जंगलों में जो कैम्प प्रतिवर्ष लगाए जाते हैं, उनसे एतद्विषयक शिक्षाएँ सुविधा से प्राप्त की जा सकती हैं। उसके अतिरिक्त वहाँ लक्ष्यवेध, वृक्षारोहण, तैरने की शिक्षा, पर्वतारोहण, दैनिक व्यायाम आदि का जो अभ्यास कराया जाता है, वह उसकी अपनी एक ऐसी अतिरिक्त विशेषता है, जिसकी आज देश में अत्यन्त आवश्यकता है। रायफल के स्थान पर फोटो कैमरे द्वारा पशुओं की भयंकर मुद्राओं के फोटो-चित्र ले सकने के अवसर भी कैम्प जीवन में प्राप्त कराए जाते हैं, और मचान पर बैठकर शेर आदि हिंसक पशुओं के दिखाने का प्रबन्ध भी कैम्प जीवन की एक अपनी विशेषता है।
अभिप्राय यह कि शिकार किए बिना ही शिकार के समस्त उपयोगी आनन्द केवल वन-पर्यटक बनकर ही प्राप्त किए जा सकते हैं। इनके लिए पशु हिंसा और उनके शिकार की आवश्यता नहीं

-श्रीनिधि

 

 

पूर्व-पीठिका

 

 

(1)
एक बार फिर आज
-कितने ही वर्ष बाद-
मैं आया हूँ,
शिवालक की इस-
हस्ति-व्याघ्र-समाकुल,
सूनी, भीषण, परिचित घाटी में।

-कभी यहाँ बीता था
मेरे जीवन का उष:काल-
मेरा शैशव;
और, हुआ था यहीं वह
-मृग शावों के, खग-शिशुओं के साथ-साथ-
किशोर वयस में परिणत।
ये है, मेरे उन दिवसों के-
संस्मरणों का पुण्यतीर्थ;
यहीं निहित हैं, मेरे जागरणों की आकांक्षाएँ,
निद्रा के स्वप्न सुनहरे;
इन्हें कर न सके नष्ट
नगरों के मादक, आकर्षण;
हैं आज भी मेरे लिए, ये-
वैसे ही प्रिय, वैसे ही रोमांचपूर्ण,
वैसे ही आकर्षक।
हैं-आज भी याद मुझे,
वे, वनवासी शुक-तापस,
जिनके कोटर-पतित-फलोच्छिष्ट कण,
दिया करते थे मुझको शैशव में,
वन्य-फलास्वादन मौन निमन्त्रण।
आज भी अंकित है मेरे मानस-पट पर
वे ग्रीष्म मध्याह्नों के-
शीतल लता-गृह;
जिनकी धूसर पत्र-शय्याओं पर
लिया करता था मैं, कितनी ही बार
वन्य निद्राओं के स्वर्गीय-आनन्द। कैसे विस्मृत हो सकते हैं,
वे, प्रशान्त-सरिता-तट-शायी-
विस्तीर्ण सैकत पुलिन;
जिन पर ज्योत्स्नामयी रजनियाँ
कराया करती थीं निद्रामग्न हरिणयूथों को
निर्मल चन्द्रिकाओं के अजल-स्नान।

हैं आ रहे याद मुझे
वे झिल्ली-झंकार पूर्ण, निस्तब्ध जलासय,
-जिनके आर्द्र-सैकत तटों पर अंकित
निशीथ-जलापानार्थी-सिंहों के अभिनव पद चिह्न-
बना दिया करते थे,
पार्श्व भूमियों को दिन में भी आतंक-पूर्ण।
क्या भूल सकूँगा कभी,
उस, शोभांजन-द्रुम-वासिनी,
वन पुजारिणी माधवी लता को’
जो, घाटी के वार्षिक कुसुमोत्सवों पर,
किया करती थी स्तुति गायक-भ्रमरों कों, अपने अभिनव पुण्य-पात्रों में
मकरन्द चरणामृत वितीर्ण !



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