नारी विमर्श >> मुखर रात्रि मुखर रात्रिआशापूर्णा देवी
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नारी जीवन पर आधारित उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका आशापूर्ण देवी का एक नया उपन्यास।
आशापूर्ण देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है वे हमारे आस-पास फैंले संसार का विस्तारमात्र है।
इनके उपन्यास मूलत: नारी केन्द्रित होते हैं। सृजन की श्रेष्ठ सहभागी होते हुए भी नारी का पुरुष के समान मूल्यांकन नहीं ? पुरुष की बड़ी सी कमजोरी पर समाज में कोई हलचल नहीं, लेकिन नारी की थोड़ी सी चूक उसके जीवन को रसातल में डाल देती है। यह एक असहाय विडम्बना !
बंकिम, रवीन्द्र, शरत् के पश्तात् आशा पूर्ण देवी हिन्दी भाषी आँचल में एक सुपरिचित नाम है- जिसका हर कृति एक नयी अपेक्षा के साथ पढ़ी जाती है।
मकान नहीं हवेली !
वर्तमान नहीं अतीत !
अब तो इसकी जो दशा है उसमें इसे हवेली समझना कठिन है, मकान समझने में भी बड़ी मुश्किल होगी। किस्मत के हाथों पिटते-पिटते बेचारी हवेली ने अपना वैभव खो दिया है, खो दिया है रूप, परिचय। अब इसकी निचली मंजिल को चीर-काट कर, टुकड़ों में बांटकर दूकानें बनाई गई हैं। ऐसी दुकानें जिनकी न जाति है, न गोत्र-जूतों की दुकान से फूलों की दुकान तक। अंदर आंगन में जहां पहले ठाकुरद्वारा था, और था पूजा देखने आए लोगों के बैठने की जगह, जिसके चारों ओर कमरे-ही-कमरे थे, उस आंगन में आज कल पता नहीं कब, कैसे सब्जी, फल वगैरह, की दूकानें भी लगने लगी हैं। बाहर से देखने पर अब लोहे के उस खाटक का भी पता नहीं चलेगा। हर वक्त खुले रहनेवाला पल्लों के इस पार, दाहिनी तरफ जरा मुड़ने से, ऐसी बढ़िया सब्जी-बाज़ार मिल जाएगा। जब दिख जाता है तब लगता है कि वह एक महान आविष्कार है अपना। किसे पता था कि इधर पांव-रखते ही लाल, हरे, पीले, गुलाबी का ऐसा समारोह अपने सारे सौंदर्य के साथ हमारा इंतजार कर रहा है। आपको जो कुछ भी खाने की इच्छा है, पकाने का मन है, यहां अवश्य मिल जाएगा। मांस- मछली, आलू-गोभी, बैंगन टमाटर, साग-सब्जी, किराना-मसाला सब है। यह नहीं मालूम कि यह बाजार कार्पोरेशन द्वारा चलाया गया है या दूकानदार-खरीददार की आवश्यकता ही इसका लाइसेंस है।
खरीद-फरोख्त खूब होती है, आना-जाना लगा ही रहता है, पर सब कुछ होता है धीरे-आहिस्ते। बाजार जरूर है, पर बाजार का शोर-शराबा नहीं है, नहीं है बाजार के दंगे-हंगामे। इस सन्नाटे का अवश्य ही कोई कारण है। यहां दूकान लगाने या सामान खरीदने जो लोग आते हैं उनमें से किसी ने क्या इस ऊंचे फाटक की तरफ देखा न होगा, या देखकर यह सोचा न होगा कि फाटक को इतना ऊंचा, इतना चौड़ा बनाने की वजह यह थी इसमें से दुर्गा-प्रतिमा लाई-ले जाई जाएगी। क्या कभी किसी ने सोचने की कोशिश न की होगी कि किस साल से यहां देवी की प्रतिमा का आगमन-निर्गमन रुक गया ? नहीं, ये बातें अब कोई नहीं सोचता।
दूसरी और तीसरी मंजिल के वे कमरे जो कभी काट-कूटकर दूकानें या दफ्तर नहीं बनाए गए हैं, उस हवेली में रहने वाले लोग ही क्या कभी इस बात पर सोच-विचार करते हैं सवाल तो यह कि वे इन बातों को ले मगजपच्ची करेंगे ही क्यों ?
कौन हैं वे ? उन्हें कौन-सी आफत आई है कि यह सब सोचेंगे ? इस मकान के ईंट-पत्थरों और बल्लियों-शहतीरों से उन्हें क्या लेना-देना ? किराएदार हैं। हिन्दुस्तान के विभिन्न प्रांतों के रहनेवाले लोग हैं, वे लोग रोजगार-धंधे के कारण य़हां आए हैं। उन्हें रैन-बसेरा चाहिए, रहने को जगह चाहिए, महज इस खयाल से वे यहां रह रहे हैं। हवेली के इतिहास में उन्हें क्या आकर्षण हो सकता है भला ?
कौन हैं वे ? वे क्यों सोचेंगे भला ?
इस मकान के पिछवाड़े के हवा-रोशनी-हीन हिस्से के चारेक कमरों में कुछ लोग रहते हैं। उन लोगों के यहां रहने का कारण यह है कि जन्मसूत्र से वे इस मकान के इतिहास से जुड़े हैं। वे लोग बेशक इस मुद्दे पर सोचते हैं। लेकिन वे क्या यहां सिर्फ इसलिए रहते हैं कि वे इसके इतिहास से जुड़े हैं ? क्या इतिहास से जुड़े होने की मजबूरी के कारण ही वे यहां रहते हैं ? नहीं, यह तो निहायत बेकार बात हैं। वे यहां रहते हैं महज इसलिए कि उनके रहने को और कोई जगह नहीं। उनमें मजबूरी तनिक भी नहीं, इसी कारण वे सोचते रहते हैं। घर-भर सब सोचते रहते हैं-दिन-रात-रात-दिन।
लगता है सोचते रहना ही उनका पेशा है। मां-बाप, बेटे-बेटियां, यहां तक कि नौकर-नौकरानियां भी। सोचते हैं और मन-ही-मन बात करते रहते हैं।
रात जब गहरी होती है, मुखरा पृथ्वी जब स्तब्ध हो जाती है, जब आकाश बोल उठता है, उस वक्त इन लोगों के मन में कही बातें इस जीर्ण हवेली की पीली पड़ी चारुशिल्प से सजाई दीवारों से टकरा-टकराकर मुक्त होती हैं, उच्चारित होती हैं। लेकिन क्या ये दीवारें भी सुखलता के साथ, देवेश व अनिलेश के साथ चारु नाम की दाई और वैकुण्ठ नाम के नौकर के साथ हंसती हैं, रोती हैं, सोचती हैं ? शायद कुछ भी नहीं करतीं। संभव है कि ये दीवारें महाकाल के समान निर्लिप्त हैं। काम न होने पर नींद न आने के कारण ही ये दीवारें सुनती रहती हैं। क्या यह भी सुनती रहती हैं कि आधी रात को जब नींद खुल जाती है तब ये लोग मन-ही-मन क्या कहते रहते हैं ? सुखलता क्या कहती है ?
आशापूर्ण देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है वे हमारे आस-पास फैंले संसार का विस्तारमात्र है।
इनके उपन्यास मूलत: नारी केन्द्रित होते हैं। सृजन की श्रेष्ठ सहभागी होते हुए भी नारी का पुरुष के समान मूल्यांकन नहीं ? पुरुष की बड़ी सी कमजोरी पर समाज में कोई हलचल नहीं, लेकिन नारी की थोड़ी सी चूक उसके जीवन को रसातल में डाल देती है। यह एक असहाय विडम्बना !
बंकिम, रवीन्द्र, शरत् के पश्तात् आशा पूर्ण देवी हिन्दी भाषी आँचल में एक सुपरिचित नाम है- जिसका हर कृति एक नयी अपेक्षा के साथ पढ़ी जाती है।
मकान नहीं हवेली !
वर्तमान नहीं अतीत !
अब तो इसकी जो दशा है उसमें इसे हवेली समझना कठिन है, मकान समझने में भी बड़ी मुश्किल होगी। किस्मत के हाथों पिटते-पिटते बेचारी हवेली ने अपना वैभव खो दिया है, खो दिया है रूप, परिचय। अब इसकी निचली मंजिल को चीर-काट कर, टुकड़ों में बांटकर दूकानें बनाई गई हैं। ऐसी दुकानें जिनकी न जाति है, न गोत्र-जूतों की दुकान से फूलों की दुकान तक। अंदर आंगन में जहां पहले ठाकुरद्वारा था, और था पूजा देखने आए लोगों के बैठने की जगह, जिसके चारों ओर कमरे-ही-कमरे थे, उस आंगन में आज कल पता नहीं कब, कैसे सब्जी, फल वगैरह, की दूकानें भी लगने लगी हैं। बाहर से देखने पर अब लोहे के उस खाटक का भी पता नहीं चलेगा। हर वक्त खुले रहनेवाला पल्लों के इस पार, दाहिनी तरफ जरा मुड़ने से, ऐसी बढ़िया सब्जी-बाज़ार मिल जाएगा। जब दिख जाता है तब लगता है कि वह एक महान आविष्कार है अपना। किसे पता था कि इधर पांव-रखते ही लाल, हरे, पीले, गुलाबी का ऐसा समारोह अपने सारे सौंदर्य के साथ हमारा इंतजार कर रहा है। आपको जो कुछ भी खाने की इच्छा है, पकाने का मन है, यहां अवश्य मिल जाएगा। मांस- मछली, आलू-गोभी, बैंगन टमाटर, साग-सब्जी, किराना-मसाला सब है। यह नहीं मालूम कि यह बाजार कार्पोरेशन द्वारा चलाया गया है या दूकानदार-खरीददार की आवश्यकता ही इसका लाइसेंस है।
खरीद-फरोख्त खूब होती है, आना-जाना लगा ही रहता है, पर सब कुछ होता है धीरे-आहिस्ते। बाजार जरूर है, पर बाजार का शोर-शराबा नहीं है, नहीं है बाजार के दंगे-हंगामे। इस सन्नाटे का अवश्य ही कोई कारण है। यहां दूकान लगाने या सामान खरीदने जो लोग आते हैं उनमें से किसी ने क्या इस ऊंचे फाटक की तरफ देखा न होगा, या देखकर यह सोचा न होगा कि फाटक को इतना ऊंचा, इतना चौड़ा बनाने की वजह यह थी इसमें से दुर्गा-प्रतिमा लाई-ले जाई जाएगी। क्या कभी किसी ने सोचने की कोशिश न की होगी कि किस साल से यहां देवी की प्रतिमा का आगमन-निर्गमन रुक गया ? नहीं, ये बातें अब कोई नहीं सोचता।
दूसरी और तीसरी मंजिल के वे कमरे जो कभी काट-कूटकर दूकानें या दफ्तर नहीं बनाए गए हैं, उस हवेली में रहने वाले लोग ही क्या कभी इस बात पर सोच-विचार करते हैं सवाल तो यह कि वे इन बातों को ले मगजपच्ची करेंगे ही क्यों ?
कौन हैं वे ? उन्हें कौन-सी आफत आई है कि यह सब सोचेंगे ? इस मकान के ईंट-पत्थरों और बल्लियों-शहतीरों से उन्हें क्या लेना-देना ? किराएदार हैं। हिन्दुस्तान के विभिन्न प्रांतों के रहनेवाले लोग हैं, वे लोग रोजगार-धंधे के कारण य़हां आए हैं। उन्हें रैन-बसेरा चाहिए, रहने को जगह चाहिए, महज इस खयाल से वे यहां रह रहे हैं। हवेली के इतिहास में उन्हें क्या आकर्षण हो सकता है भला ?
कौन हैं वे ? वे क्यों सोचेंगे भला ?
इस मकान के पिछवाड़े के हवा-रोशनी-हीन हिस्से के चारेक कमरों में कुछ लोग रहते हैं। उन लोगों के यहां रहने का कारण यह है कि जन्मसूत्र से वे इस मकान के इतिहास से जुड़े हैं। वे लोग बेशक इस मुद्दे पर सोचते हैं। लेकिन वे क्या यहां सिर्फ इसलिए रहते हैं कि वे इसके इतिहास से जुड़े हैं ? क्या इतिहास से जुड़े होने की मजबूरी के कारण ही वे यहां रहते हैं ? नहीं, यह तो निहायत बेकार बात हैं। वे यहां रहते हैं महज इसलिए कि उनके रहने को और कोई जगह नहीं। उनमें मजबूरी तनिक भी नहीं, इसी कारण वे सोचते रहते हैं। घर-भर सब सोचते रहते हैं-दिन-रात-रात-दिन।
लगता है सोचते रहना ही उनका पेशा है। मां-बाप, बेटे-बेटियां, यहां तक कि नौकर-नौकरानियां भी। सोचते हैं और मन-ही-मन बात करते रहते हैं।
रात जब गहरी होती है, मुखरा पृथ्वी जब स्तब्ध हो जाती है, जब आकाश बोल उठता है, उस वक्त इन लोगों के मन में कही बातें इस जीर्ण हवेली की पीली पड़ी चारुशिल्प से सजाई दीवारों से टकरा-टकराकर मुक्त होती हैं, उच्चारित होती हैं। लेकिन क्या ये दीवारें भी सुखलता के साथ, देवेश व अनिलेश के साथ चारु नाम की दाई और वैकुण्ठ नाम के नौकर के साथ हंसती हैं, रोती हैं, सोचती हैं ? शायद कुछ भी नहीं करतीं। संभव है कि ये दीवारें महाकाल के समान निर्लिप्त हैं। काम न होने पर नींद न आने के कारण ही ये दीवारें सुनती रहती हैं। क्या यह भी सुनती रहती हैं कि आधी रात को जब नींद खुल जाती है तब ये लोग मन-ही-मन क्या कहते रहते हैं ? सुखलता क्या कहती है ?
सुखलता की बात
एक दिन वह भी थी जब इन कमरों में ही पूरा पड़ा जाता था, काम निकल जाता था।
आज मगर पूरा नहीं पड़ रहा, काम नहीं निकल रहा। अंदर-ही-अंदर, पता नहीं
कहां चोटें की जा रही हैं, लगता है मालूम नहीं कब दरार दिखाई पड़ जाएगी।
और उस दरार के रास्ते वह बात निकलकर फैल जाएगी। मेरे खून के एक-एक कतरे से
खड़ा किया गया मेरा घर, मेरी गृहस्थी सब उसी दरार में फंसकर उसी में समा
जाएगी।
इसके पीछे मैंने अपनी जिन्दगी लगा दी है। हां, सारी जिंदगी। पर जिंदगी का क्या अर्थ होता है ?
जिंदगी का अर्थ क्या मेरे चौदह साल से आज तक की पूरी चौवालीस साल की उम्र के बीच के वक्त का दरमियान है ? और कुछ नहीं ? क्या जिंदगी का मतलब मेरी आप्राण चेष्टा नहीं ? पागलों जैसे जो संग्राम करती रही, वह नहीं ? यह कठोर तपस्या ? असहनीय प्रतीक्षा ? जीवन का अर्थ शरीर में खून की बहती धारा की एक-एक बूंद नहीं ? लज्जा और बेहयाई की खींचतान नहीं ? तिल-तिल कर यह बनाना और तिल-तिल का मरना जीवन नहीं है ?
औरों के जीवन कैसे होते हैं, मैं नहीं जानती। मैं तो सिर्फ अपने जीवन को जानती हूं। जानती हूं कि पल-पल मरकर जीवन गढ़ना पड़ता है। अपने जीवन को सारा-का-सारा निचोड़-निचोड़कर मैंने इस गृहस्थी को खड़ा किया है, आज तक खड़ा रखा है इसे। ऐसा किया है शक्ति से, दर्प से, अहंकार से। लेकिन क्या हो गया मेरे अहंकार को ? कहां खो गया वह ? मुझे आजकल हर वक्त यह क्यों लगने लगा है कि किसी-न-किसी जगह मैं हारने ही वाली हूं। मुझे आजकल ऐसा क्यों लगने लगा है कि मेरी शक्ति की, दर्प की नाव में तले से पानी पहुंचने लगा है ? क्यों ? ऐसा क्यों लगता है ? इस घर में, इस गृहस्थी में नई बात तो कोई नहीं हुई है। यहां कोई परिवर्तन नहीं आया है, इसकी श्रृंखला की कोई कड़ी टूटी नहीं है, यहां किसी ने बगावत नहीं की है। आज भी मेरे अपने हाथ से बनी लक्ष्मण रेखा के अनुसार, मेरी पसंद से चुने गए छंद के अनुसार, मेरी निर्देशना से ही तो चल रही है गृहस्थी, जैसे अब तक चली है; पिछले इतने सारे सालों से चलती चली आ रही है।
फिर ? फिर आजकल यह डर क्यों समाया है मेरे मन में ? क्यों लगता रहता है कि किसी भी पल सब टूटकर बिखर जाएगा ? यह कैसी चिंता ने घेर रखा है मुझे ? इस चिंता ने मुझे कब से घेरना शुरू किया ? समझ में नहीं आ रहा, याद नहीं कर पा रही कब से, लेकिन आजकल यहीं चिन्ता मेरे अंदर हर वक्त जाग रही है, मेरे शरीर-मन को खोखला किए दे रही है।
क्या मैं अपने बच्चों से डरने लगी हूं ? कैसी विचित्र बात है यह ! ऐसा क्यों करूंगी मैं ? क्या उनके साथ मैंने कभी कोई गलत सुलूक किया है ? क्या मैं कभी अपने कर्तव्य से चूकी हूं ? कहें यह बात वे मेरे सामने। कहें। कह चुके वे यह बात-कहेंगे कैसे ? हैं उनमें ऐसी बेजा बातें कहने की हिम्मत ? उनके लिए क्या मां के कर्तव्य से कहीं अधिक नहीं किया हैं मैंने ? उन्हें पालने का दस लोगों के बीच उठने-बैठने लायक बनाने का गौरव क्या अकेली मुझे ही नहीं मिलना चाहिए ?
अगर उन्हें उनके बदकिस्मत, बदसुलूक, कर्तव्यबोधहीन उत्तरदायित्वबोधहीन पिता के भरोसे छोड़ दिया जाता तो क्या होता उनका ? और-तो-और जिन्दा ही रह जाते, लेकिन सड़क पर डोलने वाले भिखारियों के बच्चों से उनका क्या कोई अंतर होता ? कुछ नहीं ! बिलकुल नहीं ! भिखारियों के अलावा और कुछ न होते वे। क्या इस बात को नहीं जानते, नहीं समझते हैं वे ? मेरे बुद्धिमान, विद्वान बच्चे ? क्या वे, इस कारण, चिरकृतज्ञ नहीं हैं ? होना तो चाहिए। फिर ?
फिर मैं झूठमूठ ही इतना घबड़ा क्यों रही हूं ? डरती क्यों हूं ? नहीं, नहीं ; यह डर या घबराहट नहीं है। अवश्य ही यह मेरी शारीरिक दुर्बलता का फल है। पिछले कुछ दिनों से ही कमजोरी ने धर दबाया है मुझे। शरीर कमजोर होने से मन भी कमजोर हो जाता है। क्या मेरे बच्चे इस बात को नहीं समझेंगे कि इस गृहस्थी की तरह वे भी मेरे शरीर को निचोड़कर ही बनाए गए हैं ! क्या वे इस बात को नहीं समझेंगे कि शक्ति क्रमश: घटती रहती है ! समझेंगे, अवश्य समझेंगे। जरूर समझते होंगे।
क्यों नहीं ? जरूर समझते हैं। इस कमरे में सो रहे हैं मेरे दोनों बेटे देवेश और अनिलेश। मुहल्ले के जाने-माने लड़के। विद्या, बुद्धि, स्वास्थ्य, सौन्दर्य में लाखों में शायद ऐसे दो और मिल पाएं। इन्हें देख लोगों के दिलों पर सांप लोटते हैं। अरे, और-तो-और, इनकी सगी बुआ, मौसी, वगैरह के दिलों पर लोटने लगे हैं सांप। इसी वजह से मुंह बिचकाकर वे कहती रहती हैं, ‘‘खूब कर दिखाया !’’
बात तो बिल्कुल सच है। साधारण नियम से जिन्हें आज सड़कों पर भीख मांगना था, बेहाली-गरीबी के बीच जिनका पालन-पोषण होना था, उनको देखो, क्या ठाठ से रह रहे हैं ! क्या शान से जिंदगी बिता रहे हैं ! अगल-बगल बिछे दो पलंग पर सो रहे हैं, देखो जैसे दो राजकुमार हों। नरम गद्दे, चिकन के गिलाफ चढ़े तकिए, कीमती जाली की मच्छरदानी से सजे हैं उनके बिस्तर। सस्ती चीज ये इस्तेमाल करना जानते ही नहीं। जूते की पालिश भी ये लोग सस्ती नहीं खरीदते।
हां, इस तरीके से पाला है मैंने इन्हें। अमीरों के बेटे की तरह। मेरे जीवन की एकमात्र कामना थी कि बच्चों को ठाठ से पालूं। नहीं, विलास-व्यसन से नहीं, सभ्य, मार्जित, सुरुचि संपन्न ढंग से। विलासिता से मुझे घृणा है। ब्याह कर जब मैं यहां आई तब मैंने बहुत विलासिता इनके घर में देखी, और उसके अवश्यंभावी परिणाम को भी अपनी आँखों से प्रत्यक्ष देखा। शादी के बाद मैं जब ससुराल आई, तब ससुर के घर तो नहीं आई। आई थी ननियाससुर के घर। मेरे ससुर थे घरजमाई। यहां आकर मैंने ममियाससुर और ननियाससुर के बड़े-बड़े ठाठ, बड़ी शान-बान देखी। लेकिन बस इतना ही। तीन पीढ़ी तक उन्होंने सिर्फ लक्ष्मी की उपासना की थी, सरस्वती को कभी नहीं पूछा। सिर्फ लक्ष्मी की बदौलत वे अधिक दिन टिक न सके। शायद टिक जाते, अगर सिर्फ उपासना ही करते लक्ष्मी को ले बचकानी हरकतें करने लगे। बस फिर क्या था, सब कुछ समाप्त हो गया देखते-ही-देखते।
अपने दोनों बेटों को मैंने बी.ए., एम.ए. पास कराया है। हां, मैंने ही। दस आदमियों के बीच खड़े होकर मैं यह बात कहने की हिम्मत रखती हूं कि यह मैंने क्या किया है, और किसी ने नहीं। नहीं तो और है ही कौन ? होने के नाम पर है उनका निकम्मा बाप और यह विषाक्त परिवेश।
इन बच्चों को मैंने विलासिता से नहीं गढ़ा है गढ़ा सुरुचि से। मकान तो इतने ठाठदार हैं, घर के सारे कमरे, दालान बरामदे सबके फर्श संगमरमर के है। पर दीवार में, छत में, छत की एक-एक बल्ली में, काल के हाछों का स्पर्श लगा है। सब कुछ कितना विवर्ण, रंगहीन, असुंदर, दयनीय ! थोड़ी-बहुत देर मरम्मत कराने से काम नहीं बनेगा। कमरों की विवर्ण दीवारों को खुरचकर दुबारा रंग-रोगन लगाने में जो मजदूरी देनी पड़ेगी, वह तो सोचते ही दिल कांप जाता है। इनका अब कुछ भी होने का नहीं। दिन फिरने की उम्मीद से मैं दिन कांटे जा रही हूं। फिर भी, इतनी मुसीबतों के बीच मैंने इसके कमरे को कितने करीने से सजाया है। खाटों के सिरों पर रखे हैं अखरोट की लकड़ी से बनी कश्मीरी कार्नर टेबल्स, उन पर, रात को प्यास लगे तो कटग्लास के गिलासों में पानी। गिलासों पर बेंत के सुंदर-सुंदर ढ़क्कन, खाट के नीचे स्पंज की चप्पलें, उनके कपड़ों के लिए दो अलमारियां, दो अलगनियां, दो बुककेस और एक तरफ लिखने-पढ़ने के लिए मेज-कुर्सी।
इसके पीछे मैंने अपनी जिन्दगी लगा दी है। हां, सारी जिंदगी। पर जिंदगी का क्या अर्थ होता है ?
जिंदगी का अर्थ क्या मेरे चौदह साल से आज तक की पूरी चौवालीस साल की उम्र के बीच के वक्त का दरमियान है ? और कुछ नहीं ? क्या जिंदगी का मतलब मेरी आप्राण चेष्टा नहीं ? पागलों जैसे जो संग्राम करती रही, वह नहीं ? यह कठोर तपस्या ? असहनीय प्रतीक्षा ? जीवन का अर्थ शरीर में खून की बहती धारा की एक-एक बूंद नहीं ? लज्जा और बेहयाई की खींचतान नहीं ? तिल-तिल कर यह बनाना और तिल-तिल का मरना जीवन नहीं है ?
औरों के जीवन कैसे होते हैं, मैं नहीं जानती। मैं तो सिर्फ अपने जीवन को जानती हूं। जानती हूं कि पल-पल मरकर जीवन गढ़ना पड़ता है। अपने जीवन को सारा-का-सारा निचोड़-निचोड़कर मैंने इस गृहस्थी को खड़ा किया है, आज तक खड़ा रखा है इसे। ऐसा किया है शक्ति से, दर्प से, अहंकार से। लेकिन क्या हो गया मेरे अहंकार को ? कहां खो गया वह ? मुझे आजकल हर वक्त यह क्यों लगने लगा है कि किसी-न-किसी जगह मैं हारने ही वाली हूं। मुझे आजकल ऐसा क्यों लगने लगा है कि मेरी शक्ति की, दर्प की नाव में तले से पानी पहुंचने लगा है ? क्यों ? ऐसा क्यों लगता है ? इस घर में, इस गृहस्थी में नई बात तो कोई नहीं हुई है। यहां कोई परिवर्तन नहीं आया है, इसकी श्रृंखला की कोई कड़ी टूटी नहीं है, यहां किसी ने बगावत नहीं की है। आज भी मेरे अपने हाथ से बनी लक्ष्मण रेखा के अनुसार, मेरी पसंद से चुने गए छंद के अनुसार, मेरी निर्देशना से ही तो चल रही है गृहस्थी, जैसे अब तक चली है; पिछले इतने सारे सालों से चलती चली आ रही है।
फिर ? फिर आजकल यह डर क्यों समाया है मेरे मन में ? क्यों लगता रहता है कि किसी भी पल सब टूटकर बिखर जाएगा ? यह कैसी चिंता ने घेर रखा है मुझे ? इस चिंता ने मुझे कब से घेरना शुरू किया ? समझ में नहीं आ रहा, याद नहीं कर पा रही कब से, लेकिन आजकल यहीं चिन्ता मेरे अंदर हर वक्त जाग रही है, मेरे शरीर-मन को खोखला किए दे रही है।
क्या मैं अपने बच्चों से डरने लगी हूं ? कैसी विचित्र बात है यह ! ऐसा क्यों करूंगी मैं ? क्या उनके साथ मैंने कभी कोई गलत सुलूक किया है ? क्या मैं कभी अपने कर्तव्य से चूकी हूं ? कहें यह बात वे मेरे सामने। कहें। कह चुके वे यह बात-कहेंगे कैसे ? हैं उनमें ऐसी बेजा बातें कहने की हिम्मत ? उनके लिए क्या मां के कर्तव्य से कहीं अधिक नहीं किया हैं मैंने ? उन्हें पालने का दस लोगों के बीच उठने-बैठने लायक बनाने का गौरव क्या अकेली मुझे ही नहीं मिलना चाहिए ?
अगर उन्हें उनके बदकिस्मत, बदसुलूक, कर्तव्यबोधहीन उत्तरदायित्वबोधहीन पिता के भरोसे छोड़ दिया जाता तो क्या होता उनका ? और-तो-और जिन्दा ही रह जाते, लेकिन सड़क पर डोलने वाले भिखारियों के बच्चों से उनका क्या कोई अंतर होता ? कुछ नहीं ! बिलकुल नहीं ! भिखारियों के अलावा और कुछ न होते वे। क्या इस बात को नहीं जानते, नहीं समझते हैं वे ? मेरे बुद्धिमान, विद्वान बच्चे ? क्या वे, इस कारण, चिरकृतज्ञ नहीं हैं ? होना तो चाहिए। फिर ?
फिर मैं झूठमूठ ही इतना घबड़ा क्यों रही हूं ? डरती क्यों हूं ? नहीं, नहीं ; यह डर या घबराहट नहीं है। अवश्य ही यह मेरी शारीरिक दुर्बलता का फल है। पिछले कुछ दिनों से ही कमजोरी ने धर दबाया है मुझे। शरीर कमजोर होने से मन भी कमजोर हो जाता है। क्या मेरे बच्चे इस बात को नहीं समझेंगे कि इस गृहस्थी की तरह वे भी मेरे शरीर को निचोड़कर ही बनाए गए हैं ! क्या वे इस बात को नहीं समझेंगे कि शक्ति क्रमश: घटती रहती है ! समझेंगे, अवश्य समझेंगे। जरूर समझते होंगे।
क्यों नहीं ? जरूर समझते हैं। इस कमरे में सो रहे हैं मेरे दोनों बेटे देवेश और अनिलेश। मुहल्ले के जाने-माने लड़के। विद्या, बुद्धि, स्वास्थ्य, सौन्दर्य में लाखों में शायद ऐसे दो और मिल पाएं। इन्हें देख लोगों के दिलों पर सांप लोटते हैं। अरे, और-तो-और, इनकी सगी बुआ, मौसी, वगैरह के दिलों पर लोटने लगे हैं सांप। इसी वजह से मुंह बिचकाकर वे कहती रहती हैं, ‘‘खूब कर दिखाया !’’
बात तो बिल्कुल सच है। साधारण नियम से जिन्हें आज सड़कों पर भीख मांगना था, बेहाली-गरीबी के बीच जिनका पालन-पोषण होना था, उनको देखो, क्या ठाठ से रह रहे हैं ! क्या शान से जिंदगी बिता रहे हैं ! अगल-बगल बिछे दो पलंग पर सो रहे हैं, देखो जैसे दो राजकुमार हों। नरम गद्दे, चिकन के गिलाफ चढ़े तकिए, कीमती जाली की मच्छरदानी से सजे हैं उनके बिस्तर। सस्ती चीज ये इस्तेमाल करना जानते ही नहीं। जूते की पालिश भी ये लोग सस्ती नहीं खरीदते।
हां, इस तरीके से पाला है मैंने इन्हें। अमीरों के बेटे की तरह। मेरे जीवन की एकमात्र कामना थी कि बच्चों को ठाठ से पालूं। नहीं, विलास-व्यसन से नहीं, सभ्य, मार्जित, सुरुचि संपन्न ढंग से। विलासिता से मुझे घृणा है। ब्याह कर जब मैं यहां आई तब मैंने बहुत विलासिता इनके घर में देखी, और उसके अवश्यंभावी परिणाम को भी अपनी आँखों से प्रत्यक्ष देखा। शादी के बाद मैं जब ससुराल आई, तब ससुर के घर तो नहीं आई। आई थी ननियाससुर के घर। मेरे ससुर थे घरजमाई। यहां आकर मैंने ममियाससुर और ननियाससुर के बड़े-बड़े ठाठ, बड़ी शान-बान देखी। लेकिन बस इतना ही। तीन पीढ़ी तक उन्होंने सिर्फ लक्ष्मी की उपासना की थी, सरस्वती को कभी नहीं पूछा। सिर्फ लक्ष्मी की बदौलत वे अधिक दिन टिक न सके। शायद टिक जाते, अगर सिर्फ उपासना ही करते लक्ष्मी को ले बचकानी हरकतें करने लगे। बस फिर क्या था, सब कुछ समाप्त हो गया देखते-ही-देखते।
अपने दोनों बेटों को मैंने बी.ए., एम.ए. पास कराया है। हां, मैंने ही। दस आदमियों के बीच खड़े होकर मैं यह बात कहने की हिम्मत रखती हूं कि यह मैंने क्या किया है, और किसी ने नहीं। नहीं तो और है ही कौन ? होने के नाम पर है उनका निकम्मा बाप और यह विषाक्त परिवेश।
इन बच्चों को मैंने विलासिता से नहीं गढ़ा है गढ़ा सुरुचि से। मकान तो इतने ठाठदार हैं, घर के सारे कमरे, दालान बरामदे सबके फर्श संगमरमर के है। पर दीवार में, छत में, छत की एक-एक बल्ली में, काल के हाछों का स्पर्श लगा है। सब कुछ कितना विवर्ण, रंगहीन, असुंदर, दयनीय ! थोड़ी-बहुत देर मरम्मत कराने से काम नहीं बनेगा। कमरों की विवर्ण दीवारों को खुरचकर दुबारा रंग-रोगन लगाने में जो मजदूरी देनी पड़ेगी, वह तो सोचते ही दिल कांप जाता है। इनका अब कुछ भी होने का नहीं। दिन फिरने की उम्मीद से मैं दिन कांटे जा रही हूं। फिर भी, इतनी मुसीबतों के बीच मैंने इसके कमरे को कितने करीने से सजाया है। खाटों के सिरों पर रखे हैं अखरोट की लकड़ी से बनी कश्मीरी कार्नर टेबल्स, उन पर, रात को प्यास लगे तो कटग्लास के गिलासों में पानी। गिलासों पर बेंत के सुंदर-सुंदर ढ़क्कन, खाट के नीचे स्पंज की चप्पलें, उनके कपड़ों के लिए दो अलमारियां, दो अलगनियां, दो बुककेस और एक तरफ लिखने-पढ़ने के लिए मेज-कुर्सी।
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