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गौरवशाली भारतीय वीरांगनाएँ

शान्ति कुमार स्याल

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5102
आईएसबीएन :81-7043-698-2

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भारतीय इतिहास की डेढ़ सौ से अधिक बहादुर महिलाओं के अद्भुत शौर्य और साहस की कहानियाँ एवं उनका संक्षिप्त जीवन परिचय

Ghavravshali Virangana

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

भारतीय समाज में नारी की भूमिका सदैव से अत्यंत गरिमामयी और महत्त्वपूर्ण रही है। परिवार और समाज की धुरी है—केन्द्र बिन्दु है। वह देवी है। नारी की कोमलता, सुन्दरता, मोहकता ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति है। इसी शक्ति के बल पर वह बड़े-से-बड़े वीर, महान, विद्वान और कलाकार को पैदा करती है। नारी महान है। वह एक शक्ति है। एक महान शक्ति है। वह शक्ति स्वरूप है।
नारी ने एक ओर कुशल गृहणी बनकर परिवार का संचालन किया तो दूसरी ओर समय पड़ने पर उसने अपनी शक्तियों का प्रदर्शन भी किया है।
अपने मान-सम्मान तथा राज्य की स्वतंत्रता के लिए प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से नारी का त्याग और बलिदान पुरुषों की अपेक्षा कम नहीं रहा। नारी के त्याग और बलिदान ने भारत के इतिहास को शून्य नहीं होने दिया। उनके रक्त से लिखा इतिहास आज भी हमें वे पन्ने खोलकर दिखाता है जिस पर नारी रक्त के छींटे अभी भी सूखे नहीं। सोने के अक्षरों में लिखा आजादी का इतिहास नारी के त्याग को सदा दोहराता रहेगा। लेखक श्री शान्ति कुमार स्याल द्वारा प्रस्तुत पुस्तक में भारतीय इतिहास की ऐसी ही डेढ़ सौ से अधिक बहादुर महिलाओं को उभारा गया है। उनके अद्भुत शौर्य, साहस और पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए उनका संक्षिप्त जीवन परिचय दिया गया है। जो इतिहास में लुप्त होती जा रही हैं।
रचनाकार श्री शांति कुमार स्याल ने लेखन की हर विधा पर अपनी लेखनी चलाई है। इनके द्वारा स्त्री-विमर्श विषय पर अनेक पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। उसी श्रृंखला को जारी रखते हुए उन्होंने प्रस्तुत पुस्तक के रूप में एक और सफल प्रयास किया है। श्री स्याल इसके लिए बधाई के पात्र हैं। आशा है कि इस दिशा में शोध करने वाले छात्र-छात्राओं के लिए पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी और सामान्य पाठक-पाठिकाओं की जिज्ञासा को भी आकर्षित करेगी। अपनी समस्त शुभ-कामनाओं के साथ।

भूमिका


भारतीय सभ्यता और संस्कृति का आरंभ वैदिक संस्कृति में निहित है। वेदों में नारी को मूलतः धरित्री और कल्याणी कहा गया है। परन्तु धर्म, उत्तरवैदिक संस्कृति और सभ्यता में नारी का एक नया रूप ‘शक्ति’ प्रमुख रूप से सामने आता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आदिकाल से ही नारी शक्ति की पूजा भारतीय संस्कृति और सभ्यता का मूल स्वर है। देवता, किन्नर और गंधर्व इत्यादि भी नारी को शक्ति का पर्याय ही मानते आए हैं। सृष्टिकर्ता ने भी समाज को संचालित करने के लिए तीन महत्त्वपूर्ण काम नारी को ही दिए हैं जिनके द्वारा भारतीय संस्कृति में नारी देवी की पदवी से शोभायमान हुई है। धन की देवी के रूप में लक्ष्मी जी प्रतिष्ठित की गई हैं। शिक्षा एवं ज्ञान की देवी के रूप में सरस्वती जी सर्वत्र विद्यमान हैं। देवी दुर्गा को शक्ति की देवी माना गया है।

वैदिक काल में नारी का स्थान पुरुष समान ही नहीं बल्कि उससे श्रेष्ठ था। नारी की यह श्रेष्ठता जीवन के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में थी। आरंभिक काल में नारी को पुरुषों की भाँति न केवल शास्त्रों की वरन् शास्त्र-संचालन की शिक्षा भी दी जाती थी। वीर स्त्रियाँ स्वयं धनुषवाण लेकर योद्धाओं से युद्ध करने युद्ध-क्षेत्र में जाती थीं।

भारतीय इतिहास के महासागर में नारी रत्नों की भरमार है। यहाँ असंख्य मणि मुक्ताएँ छिपी हैं। जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में धैर्य धारण कर तथा साहस से काम लिया और समय-समय पर बहुमुखी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। नारी असीम शक्तियों की स्वामिनी है और समय पड़ने पर उसने अपनी शक्ति का प्रयोग किया। भारतीय महिलाओं का उल्लेख अक्सर अबला के रूप में किया जाता है। शारीरिक दृष्टि से नारी कोमलांगी है, परन्तु इतिहास साक्षी है कि प्रत्येक युग में ऐसी अनेक महिलाएँ अवतरित हुई हैं जिन्होंने अपनी मेधा एवं शौर्य का परिचय दिया है।

भारतीय नारी अनेक अर्थों में वीरांगना है। उन्होंने वीरता और साहस के साथ-साथ अपनी बुद्धि का परिचय भी दिया है। अपने निर्दोष माता-पिता और भाई की हत्या का बदला लेने के लिए कूटनीति का आश्रय लिया है। अपने हाथों में नंगी तलवार लेकर दुश्मन को सबक सिखाया है। कभी विषपान करके अपने परिवार और अपने राज्य को बर्बाद होने से बचाया है। आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया है। वह पुरुष एवं देश-द्रोहियों को सबक सिखाने में भी सबसे आगे रही हैं।

प्रस्तुत पुस्तक में ऐसी ही गौरवशाली वीरांगनाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। पुस्तक में पाँच अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में प्राचीन युग (1200 ई. तक) की वीरांगनाओं को शामिल किया गया है। इन वीरांगनाओं ने परिस्थिति के अनुसार अपनी बहादुरी और साहस का परिचय दिया है। दूसरे अध्याय में मध्यकालीन (1200 ई. से 1500 ई. तक) वीरांगनाओं को दर्शाया गया है। यह काल मुगलशासकों की लूटपाट, बर्बरता और उनकी विलासिता के लिए प्रसिद्ध है। तीसरा अध्याय मुगलकालीन (1500 ई. से 1800 ई. तक) वीरांगनाओं का है इसमें अनेक नारी रत्नों ने त्याग, बलिदान, साहस और कूटनीति को प्रदर्शित किया है। चौथे अध्याय में स्वतंत्रता संग्राम (1800 ई. से 1947 ई. तक) के इतिहास में स्वाधीनता आन्दोलन को सफल बनाने में सैकड़ों देश-भक्त वीरांगनाओं ने योगदान देकर अपार स्नेह, वात्सल्य, करुणा आदि स्त्रियोचित गुणों के साथ-साथ अदम्य साहस, शौर्य, त्याग आदि वीरोचित गुणों का भी परिचय दिया है। ऐसी असंख्य महिलाओं को चुन सकते हैं जो परंपरागत रीति-रिवाजों का भी पालन करती हुई अपने पति की जीवन-संगनियाँ बनकर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से सत्याग्रह सम्बन्धी आन्दोलनात्मक कार्यक्रम में भी सहयोग देती रहीं। नारी ने पुरुष को बराबर ही नहीं और सामूहिक स्तर पर अपनी शक्ति का अहसास कराया। अनेक संगठनों में स्त्रियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके सामने ऐसे उदाहरण थे जो महलों का सुख छोड़कर जेल की कोठरी आबाद कर रहे थे। रेशमी कपड़ों का मोह त्याग खुरदरी खादी अपना रहे थे। ऐसे आदर्श तब एक नहीं अनेक थे। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान प्रभात-फेरियाँ लगाने वाली, चरखे पर सूत कातने वाली, विदेशी कपड़ों की होलियाँ जलाने वाली, गहनों का दान देने वाली वह वीरांगना घर-घर में थी। पाँचवा अध्याय आधुनिक भारत की उन वीरांगनाओं पर है जिन्होंने स्वतंत्र भारत के निर्माण को एक नई दिशा दी।

स्त्री-विमर्श आधुनिक चिंतन का प्रमुख बिंदु है। स्त्री-विमर्श पर सम्बन्धित लेखक द्वारा कई पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं जिनमें नारी मुक्ति संग्राम, नारीत्व, नारी अधिकार, महिलाओं के कानूनी, धार्मिक और सामाजिक अधिकार, प्रगतिशील नारी आदि प्रमुख हैं। इसी श्रृंखला को जारी रखते हुए ‘गौरवशाली भारतीय वीरांगनाएँ’ प्रस्तुत हैं। उम्मीद है सामान्य पाठकों तथा अध्येताओं को यह पुस्तक समान रूप से उपयोगी लगेगी।

हमेशा की तरह प्रस्तुत पुस्तक लिखने में सबसे अधिक प्रेरणा व महत्त्वपूर्ण सुझाव मुझे आदरणीय मित्र श्री शील पुरी जी तथा श्री सुभाष तनेजा जी से मिला। मैं उनका हृदय से आभारी हूँ।

इस कृति के लेखन कार्य को पूरा करने के लिए अपने विशेष सहयोगी राजभाषा विभाग अनुसंधान अधिकारी डॉ. राजेन्द्र प्रताप सिंह जी का विशेष रूप से आभारी हूँ जिन्होंने तकनीकी दृष्टि से मुझे सहयोग दिया। पाण्डुलिपि तैयार करने में अपने आदरणीय मित्रों में श्री शिवसिंह बिष्ट जी तथा श्रीमती दक्षा बिष्ट जी के मार्ग-दर्शन के सहयोग के लिए आभारी हूँ। अतिरिक्त सामग्री जुटाने व समय-समय पर सहयोग करने वाले साथियों व मित्रों में नेत्र सिंह रावत जी, श्री गजराज सिंह तथा श्री राकेश कुमार जायसवाल जी का भी मैं आभारी हूँ।

अंत में अर्धांगिनी श्रीमती रमा स्याल, बेटी रीतू, बेटे ललित, भतीजी निशा, नमिता तथा अनुज नन्द किशोर स्याल पर मेरी व्यस्तता का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है और वे सहर्ष मौन रूप में इसे स्वीकार कर लेते हैं। मैं उनके सहयोग को नहीं भुला सकता।
पुस्तक में किसी प्रकार की त्रुटि के लिए मैं आदरणीय पाठकों से क्षमा याचना करता हूँ और उनके सुझाव आमन्त्रित करता हूँ।
स्वतंत्रता दिवस, 2006


-शान्ति कुमार स्याल


1
प्राचीन कालीन  वीरांगनाएँ
(1200 ई. तक)
विश्पला


ऋगवैदिक कालीन साहित्य के अनुसार अफगानिस्तान (तत्कालिक गंधार) देश के राजा रवेल की पुत्री विश्पला थी जिसने युद्ध में शत्रु को पराजित किया था। जब गंधार पर शत्रु ने आक्रमण किया तो उनका सेनापति शत्रु की भारी सेना का मुकाबला न कर सका। राजा बड़ी चिंता में था। बहुत परेशान था कि क्या किया जाए। तभी राजकुमारी विश्पला ने आकर कहा—‘‘यह समय रोने, बैठने का नहीं, पराक्रम करने का है। मैं सेना लेकर शत्रु का सामना करना चाहती हूँ, आज्ञा दीजिए, आपको चिंता करने की आवश्यकता नहीं।’’ आज्ञा मिलने पर राजकुमारी विश्पला ने शत्रु पर चढ़ाई कर दी। बड़ी बहादुरी से डटकर मुकाबला किया। लेकिन शत्रु की सेना अधिक सबल थी। युद्ध में विश्पला की टांग कट गई, अतः युद्ध जीत न सकी। इसी अवस्था में घर पहुँची। राजा यह देखकर बहुत दुःखी हुए। परन्तु राजकुमारी ने फिर साहस का परिचय दिया कहा, कि—‘‘यह रोने का समय नहीं, आप मेरा इलाज करवाइए, जिससे मैं खड़ी हो सकूँ और फिर मैं वापस शत्रु से सामना कर सकूँ।’’
‘‘आयसी जंघा विश्पलाए अद्यन्तम्’’ (ऋग्वेद 1/116)
अर्थात् विश्पला का पैर ठीक किया और उस पर लोहे का पैर जोड़कर उसको वापस खड़ा किया।
इसके बाद विश्पला पुनः युद्ध में कूद गई। पूरी बहादुरी से लड़ी और शत्रु को पराजित किया।

मंदालसा


वैदिककाल के एक राजा ऋतध्वज का राज्य गोमती नदी के तट पर बसा हुआ था। रानी मंदालसा, राजा ऋतध्वज की पत्नी थी। उनके आठ पुत्र थे। उस समय हिन्दू समाज कर्मकाण्ड प्रधान हो गया था। देश छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था जिनमें परस्पर भीषण युद्ध हुआ करते थे। उस समय देश व समाज को त्यागी-तपस्वियों की आवश्यकता थी जो राज-सत्ता पर अंकुश रखकर समाज को सही दिशा दे सके। देश की विकट स्थिति को देखते हुए महारानी मंदालसा ने अनुभव किया कि समाज को राजाओं की नहीं बल्कि संन्यासियों की आवश्यकता है और इस आवश्यकता को पूरा करने तथा समाज के जागरण हेतु उन्होंने अपने पुत्रों को संन्यासी बनाने का निश्चय किया, जो समाज में फैले अंधकार को दूर कर धर्म, अर्थ और मोक्ष का सही अर्थ समझे। वे बचपन से ही अपने पुत्रों को त्याग, तपस्या और धर्म की शिक्षा देने लगीं, उस तेजस्वी माता ने अपने सातों पुत्रों को संन्यासी बना दिया। जब आठवें पुत्र को भी वह संन्यास की ओर प्रेरित करने लगी तो राजा ऋतध्वज ने सारे राज्य और वंश संचालन के लिए एक पुत्र को राजा बनाने का आग्रह किया। पति की इच्छा जानकर मंदालसा ने आठवें पुत्र अलर्क को योग्य शासक बनाया तथा उचित समय पर अलर्क को राज्य सौंपकर पति के साथ वन को प्रस्थान कर गई। जाने से पहले वह एक यंत्र अलर्क को दे गई जिसमें संकट के समय उसे खोलकर उसके अनुसार आचरण करने का निर्देश दिया। उसने वह यंत्र सुरक्षित रख लिया। कुछ दिनों बाद अलर्क के बड़े संन्यासी भाई सुबाहु ने उसे अपना राजपाट सौंप देने का आदेश दिया। वह संकट से घिर गया। उसे माता के दिए हुए यंत्र की याद आई। उसने उसे खोलकर देखा जिसमें संदेश लिखा था—‘‘संसार के सभी ऐश्वर्य अस्थिर हैं। तू शरीर मात्र नहीं है, इससे ऊपर उठ।’’ इससे उसका ज्ञान जागृत हो उठा। उसने राज्य अपने बड़े भाई को सौंप देने का निश्चय किया। इससे उसका भाई सुबाहु अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने उसे ही राज्य करते रहने का आदेश दिया और स्वयं वन चले गए। राजा अलर्क ने राज्य प्रबंध सँभाल लिया। उसका शासन आदर्श माना जाने लगा। उसे राजर्षि की पदवी मिली। यह सब मंदालसा की तेजस्विता का ही परिणाम था कि उसने आठ ऋषि तुल्य पुत्र समाज को दिए।

चंदनबाला


जैन साहित्य के अनुसार भगवान महावीर के समय चम्पा नगरी (बिहार) में दधिवाहन नामक राजा की बसुमती नामक पुत्री थी जिसका बाद में ‘चंदनबाला’ नाम पड़ा। उसकी माँ का नाम धारिणी था, जो बड़ी रूपवती एवं गुणवती थी। बसुमती भी अपनी माँ के समान रूपवती, गुणवती एवं बुद्धिमती थी। उसे धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा दी गई थी। राजा ने उसका विवाह नहीं किया ताकि वह ब्रह्मचारिणी रह कर एक आदर्श महिला बने।

चम्पापुरी की सीमा पर स्थित कौशाम्बी नामक नगरी का राजा शतानीक चम्पापुरी पर कब्जा करना चाहता था, अतः उसने आक्रमण कर दिया। शतानीक की विजय हुई। उसका एक रथी राजमहल को लूटने पहुँचा। वहाँ पर रानी का सौंदर्य देखकर उसे बलपूर्वक प्राप्त करने के लिए मारने व अपने वश में करने लगा। रानी ने अपनी पुत्री की रक्षा के लिए उसके साथ जाना स्वीकार कर लिया। रानी ने मार्ग में जाते समय अपनी जीभ पकड़ कर बाहर खींच ली और इससे उसकी मृत्यु हो गई। उसके इस बलिदान से वह हतप्रभ हो गया और उसे अपने कर्मों का पश्चाताप भी हुआ। उसने वसुमती से अपने कृत्य के लिए क्षमा मांगी और अपनी पुत्री समान रखने को तैयार हो गया। जब वह उसे लेकर घर आया तो उसकी पत्नी को उस पर शक होने लगा। वह उसे तरह-तरह से प्रताड़ित करती पर वसुमती धैर्यपूर्वक यह सब सहती। उसकी पत्नी ने उसे बेचकर बीस लाख मोहरें लाने के लिए उकसाया। उसके हठ के आगे उसे झुकना पड़ा और वह उसे बाजार ले गया। बाजार में बसुमती स्वयं अपने आप को बेचने के लिए चिल्लाने लगी। कई लोग उसे खरीदना चाहते थे। एक वैश्या भी उसे खरीदना चाहती थी लेकिन वह उसके साथ जाने को तैयार नहीं हुई। वेश्या जबर्दस्ती करने लगी तभी बंदरों के एक झुंड ने उस पर हमला बोल दिया व उसे घायल कर दिया। वसुमती को उस पर दया आ गई। उसने बंदरों को डाँटकर भगा दिया व वेश्या को स्पर्श किया। उसके स्पर्श मात्र से वह तुरंत ठीक हो गई व उसका लहुलुहान शरीर पुनः स्वस्थ हो गया। यह बात बिजली के समान सारे शहर में फैल गई। यह सुनकर कौशाम्बी का धनावह नामक धर्मात्मा सेठ उसे खरीदने पहुँचा। वह निःसंतान था। उस धर्मात्मा के साथ जाने के लिए वह तैयार हो गई। रथी को बीस लाख मोहरें दे दी गईं। सेठ जी उसे घर ले आए और उसके नाम तथा गुण के अनुसार उनका नाम ‘चंदनबाला’ रखा क्योंकि चंदन काटने वाले को भी सुगंध और शांति देता है।

सेठ जी जितने धर्मात्मा थे उनकी पत्नी मूला उतनी ही कठोर, कपटी एवं निर्दयी थी। उसके रूप सौंदर्य से वह उसे सौत के रूप में देखने लगी व शक करने लगी। वह उसे तरह-तरह के कष्ट देती। परन्तु चंदनबाला धैर्यपूर्वक रहती। एक बार सेठ जी घर पर नहीं थे तब उसकी पत्नी मूला ने उसके सुंदर बालों को मुंडवा दिया। वस्त्रों को उतारकर पुराने वस्त्रों की कांछ लगा दी। उसके हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ी डालकर पुराने भौरे (तहखानों) में बंदकर ताला लगा दिया और स्वयं पीहर चली गई। सेठ जी जब घर पहुँचे तो उनके एक नौकर ने सब बता दिया। सेठ जी ने ताला खोला। तीन दिन से चंदनबाला ने कुछ नहीं खाया था। फिर भी चंदनबाला ने शिकायत नहीं की। उसे भूख लग रही थी। उसने खाने के लिए जो भी वस्तु सबसे पहले उनके हाथ में आए उसे खाने की इच्छा प्रकट की। सेठ जी ने सूप में पड़े उड़द के बकाले दे दिए। वह उन्हें लेकर देहली पर बैठ गई। उसका एक पैर देहली के भीतर था और दूसरा बाहर। उस समय भगवान महावीर वहाँ पधारे थे। उन्होंने प्रण कर रखा था कि वह उसी कन्या के हाथों से भोजन ग्रहण करेंगे जिनमें निम्न बातें हों।

‘‘राज कन्या हो, अविवाहित हो, सदाचारिणी हो, निर्दोष होने पर भी पावों में बेड़ियाँ और हाथों में हथकड़ियाँ हों, सिर मुंडा हुआ हो, शरीर पर काछ लगी हो, तीन दिन का उपवास किए हो, पारणे के लिए उड़द के बाकले हो, दान देने की भावना से अतिथि की प्रतीक्षा कर रही हो और आँखों में आँसू भी हों—इन तेरह बातों के मिलने पर ही मैं आहार ग्रहण करूँगा। अगर ये बातें न मिलें तो आजीवन अनशन है।’’

आहार की खोज में वे पाँच मास पच्चीस दिन तक भटकने के बाद उस सेठ के यहाँ पहुँचे। उन्होंने चंदनबाला को इस रूप में देखा परंतु आंखों में आंसू नहीं थे। वे लौटने ही वाले थे कि उसकी आँखों में आँसू आ गए। भगवान ने सहर्ष उससे उड़द के बाकले ले लिए। यह घटना बिजली की तरह कौशाम्बी में फैल गई। मूला ने भी अपने किए पर पश्चाताप प्रकट किया, पर उसने इसका तनिक भी बुरा ना माना, बल्कि सांत्वना दी कि इसी तरह से भगवान महावीर ने उसके हाथों से भोजन ग्रहण किया।

भगवान महावीर को ‘केवल ज्ञान’ हो चुका था। वे संसार के कल्याणार्थ ग्राम-ग्राम में विचरने लगे। चंदनबाला ने जब उनका आगमन सुना, तो वह भी उनके पास पहुँची और उनसे दीक्षा ग्रहण की। स्त्रियों में सर्वप्रथम दीक्षा लेने वाली चंदनबाला ही थी। उसी से साध्वीरूप तीर्थ का प्रारंभ हुआ। भगवान ने उसे साध्वी संघ की नेत्री बनाया।
मिगार माता विशाखा

विशाखा श्रावस्ती से दूर साकेत नगर के एक करोड़पति धनंजय सेठ की सुंदर व गुणवती कन्या थी। उसका विवाह श्रावस्ती के सेठ मिगार के पुत्र पूर्णवर्धन के साथ हुआ था। धनंजय ने अपनी कन्या का आठ कुलीन ब्राह्मणों के सम्मुख यह कहकर विवाह कर दिया—‘‘यदि मेरी कन्या में कोई दोष देखा जाए तो उसकी देखभाल आप लोग करेंगे।’’ विशाखा अपने ससुर के घर आ गई। एक बार भोजन करते समय विशाखा ने द्वार पर पधारे भिक्षु से यह कह दिया कि उसके ससुर बासी भोजन कर रहे हैं। यह सुनकर वह अप्रसन्न हो गया कि उसकी पुत्र वधू ने उसका अपमान कर दिया है। वे उसे घर से निकाल देने पर उतारू हो गए। विशाखा ने तर्क द्वारा अपने आपको निर्दोष साबित करने का प्रयत्न किया पर वह नहीं माना और उसने आठों ब्राह्मणों को बुलाया। उनके सम्मुख उसने समझदारी दिखाते हुए अपने कहने का अर्थ बताया कि मेरे ससुर नवीन पुण्य संपादन न करके पुराने पुण्य पर ही निर्वाह करते हैं, इसलिए उसने उन्हें बासी अन्न खाने वाला बताया। इस बात से पंच प्रसन्न हो गए व उसे निर्दोष कहा। तब मिगार ने उससे पिता द्वारा दिए गए दस नियमों की शिक्षा की व्याख्या करने को कहा। जिसका आपने अत्यंत सुन्दर ढंग से वर्णन किया। इस बुद्धिमता से आठों कुलीन ब्राह्मणों ने उसकी प्रशंसा की व उसका सत्कार करने के लिए कहा। मिगार सेठ ने अपनी भूल स्वीकार कर ली और उससे क्षमा माँगी।

विशाखा बौद्ध धर्म की उपासक थी और उसके ससुराल वाले दिगम्बर जैन। विशाखा ने एक बार भगवान बुद्ध और उनके भिक्षु संघ को अपने घर आमंत्रित किया। दिगम्बरों की मान्यता थी कि गौतम का मुँह देखने से पाप लगता है। अतः उसने पर्दे की आड़ में से उनका उपदेश सुना। पर जब भगवान के अमृत-उपदेश उनके कान में पड़े और दान और शील के विषय में ज्ञान हुआ तो वह उनके सम्मुख जाकर श्रद्धावनत् हो गया और अपने-आपको उनके चरणों में समर्पित कर क्षमा माँगी। चूँकि उसे यह सौभाग्य पुत्र वधू विशाखा के कारण मिला था, उसने उसे माता के समान माना। तभी से विशाखा का नाम मिगार माता पड़ गया।

प्रभावती गुप्त


पूना-तामपत्र के अनुसार गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह संभवतः 380 ई. में पाटिल पुत्र में नागपुर की वाकाटक शाक रुद्रसेन द्वितीय के साथ हुआ था। इस विवाह से दोनों राजवंशों में घनिष्ठता स्थापित हुई। रुद्रसेन शैव था, प्रभावती वैष्णव थी। वह अपनी राजधानी नन्दिवर्धन के समीपस्थ रामगिरि पर प्रतिष्ठित भगवान रामचन्द्र की पादुकाओं की भक्त थी। इसके परिणाम-स्वरूप रुद्रसेन वैष्णव हो गया। लगभग चौथी शती के अन्त में रुद्रसेन द्वितीय की मृत्यु हो गई और 13 वर्ष की प्रभावती ने अपने अल्प-व्यस्क पुत्रों की संरक्षिका के रूप में शासन किया। उसका पुत्र दिवाकर सेन ज्येष्ठ (पाँच वर्ष) था तथा दामोदर  सेन (दो वर्ष) नाबालिग, अतः वह उसकी संरक्षिका बनी। ज्येष्ठ पुत्र दिवाकर सेन की मृत्यु उसके संरक्षण-काल में ही हो गई और दामोदर सेन व्यस्क होने पर सिंहासन पर बैठा। यही 410 ई. में प्रवर सेन द्वितीय के नाम से वाकाटक शासक बना। उसने राजधानी नन्दिवर्धन को बदल कर प्रवरपुर बनाई। शकों के उन्मूलन का कार्य प्रभावती गुप्त के संरक्षण काल में संपन्न हुआ। इस विजय के फलस्वरूप गुप्त सत्ता गुजरात एवं काठियावाड़ में स्थापित हो गई। उसने व्यावहारिक कठिनाइयों को शासन कार्य का अनुभव न होने पर भी अपनी व्यक्तिगत योग्यता और पिता की सहायता से दूर कर शासन किया। उसने अपने पितृगोत्र को ही धारण किया तथा अपने अभिलेखों में पति की वंशावली न देकर पिता की वंशावली दी। वह अपने पिता के राज्य और पुत्र की रक्षा के उद्देश्य से पिता की सहायता व मंत्रणा लेती थी। विधवा राजमाता प्रभावती गुप्त सौ वर्षों से अधिक उम्र तक जीवित रहीं और उसे अपने कम-से-कम दो पुत्रों की मृत्यु का दुःख सहना पड़ा।

कण्णगी (कन्नगि, कन्नकि)


संगम साहित्य का प्रमुख महाकाव्य ‘‘शिल्पादिकारम्’’ है। तमिल साहित्य में सर्वोच्च स्थान रखने वाले महाकाव्य ‘‘शिल्पादिकारम्’’ का शाब्दिक अर्थ ‘नुपुर’ है। इस महाकाव्य का लेखक इलानगो आडियल (राजकुमार संन्यासी) बताया जाता है जो चेर सम्राट सेन गुट्टवन का भाई था। इसमें दक्षिण भारत में मातृसत्तात्मक समाज व दक्षिण भारत और श्री लंका में कन्नगि की पूजा से संबन्धित विवरण है। इसमें प्रस्तुत कथा में कोवलम् और उसकी पत्नी कण्णगि के लोकप्रिय आख्यान को प्रस्तुत किया गया है। कोवलम् राजकुमार व्यापारी है, जो अपनी पत्नी कण्णनी की उपेक्षा करता है और अपनी उपपत्नी माधवी (मादवी) के प्रेम के चक्कर में पड़कर अपनी सम्पत्ति से हाथ धो बैठता है, प्रेमियों के बीच झगड़े के फलस्वरूप कोवलम् पुनः अपनी कण्णगी के पास लौट आता है और दोनों पुहार से मदुरा चले आते हैं। वे वहाँ कण्णगी के एक मात्र बचे आभूषण नूपुर (शिलाम्बुर या पायल) की बिक्री से प्राप्त धन से एक नई जिंदगी शुरू करना चाहते हैं। राजवंश के राज स्वर्णकार (सुनार) के षड्यंत्र के फलस्वरूप कोवलम् पर संदेह किया जाता है कि उसने महल से रानी की पायल चुरा ली है। जबकि सुनार ने ही रानी का वैसा ही नुपुर चुरा लिया था। कोवलम् संदेह के आधार पर पकड़ा जाता है और राजा भी किसी जाँच के उसे फाँसी की सजा सुना देता है। उसे राजा के अधिकारी मदुरा की सड़कों पर तलवार से काट डालते हैं। जब कण्णगी यह खबर सुनती है, तो वह तुरंत अपनी दूसरी पायल के साथ महल में उपस्थित होती है और कोवलम् की निर्दोषता का सबूत पेश करती है। राजा अपने द्वारा किए गए अन्याय को महसूस करता है और पाण्डया नरेश शोकग्रस्त होकर मृत्यु का शिकार होता है। कण्णगी के शाप के कारण मदुरा नगर पर विपत्ति आती है, सारा नगर जलकर भष्म हो जाता है, कण्णगी चेर देश चली जाती है और वहीं उनकी मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के बाद वह स्वर्ग में अपने पति से मिलती है। शनैगुटर बन उसे पवित्रता की देवी के रूप में उसे मान्यता देता है।

दक्षिण के प्रथम चेर शासक उदियन जोल (लगभग 130 ई.) के लड़के नेदुजोल आदन के दूसरे पुत्र शेनगुट्टुवन (लगभग 180 ई.) द्वारा पत्तिनी (पत्नी) पूजा अर्थात् एक आदर्श तथा पवित्र पत्तिनी को देवी रूप में मूर्ति बनाकर पूजा जाने का विशेष महत्त्व वर्णित है। ‘पत्तिनी पूजा’ के लिए पत्थर किसी आर्य शासक से युद्ध के बाद प्राप्त किया गया और उसे गंगा में स्नान कराकर चेर देश में लाया गया। शेनगुट्टुवन ने पत्तिनी के संगठन का नेतृत्व अपने हाथ में लिया तथा इस प्रयास में पाण्ड्य एवं चोल देशों का तथा श्री लंका के समसामयिक शासकों का समर्थन उसे मिला।
           

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