रहस्य-रोमांच >> एक भूत और दो सपनों का रहस्य एक भूत और दो सपनों का रहस्यएल डी. पांडेय
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रोमांच और सस्पेंस से भरे इस उपन्यास में बच्चों के लिए मज़ा भी है और कुछ कर ग़ुजरने की प्रेरणा भी।...
आहट चाहे सिर्फ़ अनिता ने ही सुनी हो, लेकिन दरवाज़ा खुलने के साथ ही छपाक
की आवाज़ सबने सुनी जैसे कोई ऊंचाई से नदी में कूदा हो। सबके दिल फिर
तेज़ी से धड़कने लगे...
रोमांच और सस्पेंस से भरे इस उपन्यास में बच्चों के लिए मज़ा भी है और कुछ कर ग़ुजरने की प्रेरणा भी। पुश्तैनी हवेली में छिपे राज़ों को परत-दर-परत खोलते बच्चे दूसरे कई रहस्यों की तह तक पहुंच जाते हैं, जिनका अहसास उन्हें सपने में भी नहीं था। इस कोशिश में उन्हें कई ख़तरों से भी जूझना पड़ता है।
सतीश दत्त पांडेय का लिखा यह दिलचस्प जासूसी उपन्यास किशोरों के लिए ही नहीं, हर आयु वर्ग के पाठकों के लिए रुचिकर साबित होगा।
आवरण फ़ोटो : पार्था पाल
रोमांच और सस्पेंस से भरे इस उपन्यास में बच्चों के लिए मज़ा भी है और कुछ कर ग़ुजरने की प्रेरणा भी। पुश्तैनी हवेली में छिपे राज़ों को परत-दर-परत खोलते बच्चे दूसरे कई रहस्यों की तह तक पहुंच जाते हैं, जिनका अहसास उन्हें सपने में भी नहीं था। इस कोशिश में उन्हें कई ख़तरों से भी जूझना पड़ता है।
सतीश दत्त पांडेय का लिखा यह दिलचस्प जासूसी उपन्यास किशोरों के लिए ही नहीं, हर आयु वर्ग के पाठकों के लिए रुचिकर साबित होगा।
आवरण फ़ोटो : पार्था पाल
अनुक्रम
इम्तहानों के बाद अलीपुर
आख़िरी इम्तहान ख़त्म हुआ नहीं कि अनिता ने अपना हर गर्मी की छुट्टी वाला
सवाल पेश किया, ‘हां, पापा, तो इन छुट्टियों में कहां जाएंगे हम
लोग ?’
‘जिसकी छुट्टी हो जाए,’ पापा ने हंसकर जवाब दिया, ‘हमारे तो ये और ज़्यादा काम करने के दिन हैं।’
पापा डॉक्टर हैं। गर्मियों में ककड़ी, ख़रबूज़े, तरबूज़ और सस्ती आइसक्रीम खाकर लोग ख़ूब बीमार पड़ते हैं। डॉक्टरों के ये काम के दिन होते हैं। काम के भी, कमाई के भी।
अनिता बाप की लाड़ली थी। उसकी ज़िद तो पूरी होनी ही थी। आख़िर डॉक्टर साहब इतने पर राज़ी हुए, ‘तुम और मां तय कर लो कि कहां जाना है।’
‘तय तो, पापा, मिनटों में हो जाएगा। असल में जहां जाना है, वह जगह तो मैंने काफ़ी दिनों से तय कर रखी है, लेकिन आपको बताऊंगी तीन-चार दिन बाद।’ अनिता ने गंभीरता से कहा।
‘तीन-चार दिन बाद क्यों ?’ पापा ने पूछा तो अनिता ने स्पष्ट किया कि तीन-चार दिन उसे ख़ूब सोकर नींद पूरी करनी है। और फिर पापा के कान के पास मुंह लगाकर अनिता ने धीरे से कहा, ‘गैंग के मेंबरों से भी तो कॉन्टैक्ट करना है।’
ग्यारह साल की अनिता बड़ी शरारती, बड़ी हंसमुख है। पढ़ने-लिखने में जितनी तेज़, खेलने-कूदने में भी उतनी ही। ख़ासतौर से बाहर घूमने-फिरने, पिकनिक, हाइकिंग वग़ैरह में हमेशा आगे रहती है। कोर्स के अलावा दुनिया भर की और किताबें भी पढ़ती है, उनकी कहानियों की तरह कुछ न कुछ करने का सोचा करती है। छुट्टियों में ख़ासतौर से। तभी तो डॉक्टर साहब उसके गैंग का मतलब भी समझते हैं। उसके गैंग के मेंबर थे—अनिता का भाई अरविंद, जो नैनीताल के स्कूल में सीनियर कैंब्रिज में था और अन्य चार मौसेरे भाई-बहन—बड़ी मौसी का लड़का राकेश—यों किताबी कीड़ा लेकिन अनिता के इसरार करने पर गैंग में शामिल होने को तैयार; छोटी मौसी का लड़का रघुबर—देशी टाइप, तगड़ा, सिनेमा देखने का शौक़ीन, 11वीं कक्षा का विद्यार्थी, गैंग का पुलिसमैन; मंझली मौसी का लड़का विवेक—17 साल का, मोटा-ताज़ा, थोड़ा डरपोक, रईस वकील पिता का लाड़ला पुत्र, गैंग का विज्ञानिक, कैमरा, टेपरिकॉर्डर, ट्रांजिस्टर वग़ैरह से हमेशा लैस, इंटर फाइनल में था; और विवेक की बहन उमा—अनिता की उम्र की, लेकिन न उतनी स्मार्ट है, न अनिता की तरह अंग्रेज़ी बोल सकती है, इसलिए हमेशा अनिता को अपना ‘बो आइडियल’ मानती है।
अनिता ने गैंग का नाम ‘द कज़िन गैंग’ रखा है। अरविंद जब तक बोर्डिंग-स्कूल में नहीं गया था, तब तक गैंग का निर्विवाद लीडर वही था। उसके स्कूल जाने के बाद गैंग में कोई एक लीडर नहीं उभर पाया। ख़्रुश्चेव के बाद के सूर की तरह इस गैंग में भी सामूहित लीडरशीप से काम चल रहा था।
तीन-चार दिन सोने की बात कहने भर को थी। नींद की कमी उसने एक ही दिन में पूरी कर ली थी, और फिर पापा को बता दिया कि उसका प्रस्ताव छुट्टियों में अलीपुर जाने का है।
‘मां से भी पूछा है ?’—डॉक्टर साहब ने पत्नी की ओर मुस्कराकर देखते हुए पूछा।
‘अरे, इस प्रस्ताव के लिए मां से पूछने का तो सवाल ही नहीं उठता,’ अनिता झट से बोली, ‘पहाड़ पर मम्मी को रहना ज़्यादा पसंद नहीं, लेकिन पहाड़ नैनीताल में हो और उसके पास मैदान में कोई ऐसी जगह हो, जहां से तीन घंटे में नैनीताल जा सकते हों, और अगर नैनीताल में मां का लाड़ला बेटा पढ़ता हो, तो ऐसी जगह जाने में उन्हें कभी एतराज़ नहीं हो सकता। और अलीपुर एक ऐसी ही जगह है।’ अनिता ने नाटकीय ढंग से अपना वक्तव्य समाप्त किया।
हिमालय की तराई में बसा अलीपुर बड़ा रमणीक शहर है। न बहुत छोटा, न बड़ा। पहाड़ और मैदान दोनों की अच्छाइयां वहां पाई जाती हैं। गर्मियों में लू नहीं चलती। शामें तो ख़ासतौर से इतनी ख़ुशगवार हो जाती हैं कि स्थानीय लोगों के मुहावरें में ‘नैनीताल पाजी’। दूसरी अच्छाई है, वहां की प्राकृतिक सुंदरता।
अलीपुर एक बड़ी पहाड़ी नदी के किनारे बसा हुआ है। नदी के तेज बहाव से पैदा होने वाली गरज दिन-रात गूंजती रहती है। ख़ामोश रातों में लगभग प्रतिदिन चलने वाली उत्तरी हवा की सनसनाहट के साथ उस पहाड़ी नदी की गर्जन एक अजीब से रहस्य-रोमांच का वातावरण पैदा कर देती है।
और फिर अलीपुर के जंगल, अलीपुर की छोटी-छोटी पहाड़ियां, वहां से दिखने वाला कुमायूं की पर्वत-श्रृंखलाओं का मनोहर दृश्य !
ऐसे अलीपुर में अमिता के मामा मोहनचंद विष्ट रहते थे। अनिता के क्या, पूरे गैंग के मामा। मामा जी के पुरखे पुराने ज़माने के राजदरबार के ख़ास विशिष्ट लोगों में रहे होंगे। विशिष्ट से होते-होते विष्ट हो गए। ख़ासे बड़े पुश्तैनी ज़मींदार थे। सरकार ज़मींदारी ख़त्म करे, इससे पहले उन्होंने ख़ुद ही ज़मींदारी ख़त्म कर दी थी। कुछ ज़मीन बेच डाली, कुछ असामियों में बांट दी। अपने पास रखा बस एक बिचौले आकार का फ़ार्म और एक ख़ासा बड़ा बाग़, और इन दोनों के बीच में स्थित था उनका पुश्तैनी क़िले जैसा मकान।
उनके लिए इतना ज़रूरत से ज़्यादा ही था। मामा जी की बस एक लड़की थी–शीला, जिसका ब्याह वे चार-पांच साल हुए कर चुके थे। ज़मींदारी का काम सब ख़ुद ही देखना होता था। अवस्था पचास के क़रीब हो चली थी। उस पुराने पुश्तैनी मकान को छोड़कर पिछले कुछ वर्षों से विष्ट साहब अलीपुर रहने लगे थे। एक छोटा सा बंगला शहर में बना लिया था।
अपना पुराना मकान छोड़कर शहर में उनका आ बसना एक रहस्य सा बन गया था। तरह-तरह की बातें अलीपुर में ही नहीं, उनके अपने परिवार में भी कही जाती थीं—कि उस मकान में कोई भूत रहता है, कि किसी साधू का श्राप है कि उस मकान में रहने वाला ख़ानदान का ख़ानदान ही ख़त्म हो जाएगा, आदि।
पता नहीं इन अफ़वाहों के कारण या किसी और वजह से अनिता तथा अन्य बच्चों के पिछले कई साल से अलीपुर नहीं आने दिया गया था। वैसे आमतौर से गर्मियों की छुट्टी में हमेशा विष्ट साहब के घर में भानजे, भानजियों, साले-सालियों का जमघट होता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह सब नहीं हो पा रहा था। उनके ज़िद करने पर कारण यही बताया जाता था कि मामा जी ने उस पुराने मकान को छोड़ दिया है और शहर में नया मकान बनवा रहे हैं। जब वह बन जाएगा, तब जाना।
कई साल बाद इस साल अलीपुर जाने का योग आया। अनिता बहुत ख़ुश थी। इस बार अलीपुर में ख़ूब मज़ा करेंगे। वहां की पहाड़ियों पर चढ़ेंगे, जंगलों में घूमंगे, नदी में नहाएंगे। और मामा जी के बग़ीचे में पेड़ों पर चढ़ेंगे। और हां, इस रहस्य का पता लगाएंगे कि गांव वाले उस इतने अच्छे मकान को मामा जी ने क्यों छोड़ा।
‘जिसकी छुट्टी हो जाए,’ पापा ने हंसकर जवाब दिया, ‘हमारे तो ये और ज़्यादा काम करने के दिन हैं।’
पापा डॉक्टर हैं। गर्मियों में ककड़ी, ख़रबूज़े, तरबूज़ और सस्ती आइसक्रीम खाकर लोग ख़ूब बीमार पड़ते हैं। डॉक्टरों के ये काम के दिन होते हैं। काम के भी, कमाई के भी।
अनिता बाप की लाड़ली थी। उसकी ज़िद तो पूरी होनी ही थी। आख़िर डॉक्टर साहब इतने पर राज़ी हुए, ‘तुम और मां तय कर लो कि कहां जाना है।’
‘तय तो, पापा, मिनटों में हो जाएगा। असल में जहां जाना है, वह जगह तो मैंने काफ़ी दिनों से तय कर रखी है, लेकिन आपको बताऊंगी तीन-चार दिन बाद।’ अनिता ने गंभीरता से कहा।
‘तीन-चार दिन बाद क्यों ?’ पापा ने पूछा तो अनिता ने स्पष्ट किया कि तीन-चार दिन उसे ख़ूब सोकर नींद पूरी करनी है। और फिर पापा के कान के पास मुंह लगाकर अनिता ने धीरे से कहा, ‘गैंग के मेंबरों से भी तो कॉन्टैक्ट करना है।’
ग्यारह साल की अनिता बड़ी शरारती, बड़ी हंसमुख है। पढ़ने-लिखने में जितनी तेज़, खेलने-कूदने में भी उतनी ही। ख़ासतौर से बाहर घूमने-फिरने, पिकनिक, हाइकिंग वग़ैरह में हमेशा आगे रहती है। कोर्स के अलावा दुनिया भर की और किताबें भी पढ़ती है, उनकी कहानियों की तरह कुछ न कुछ करने का सोचा करती है। छुट्टियों में ख़ासतौर से। तभी तो डॉक्टर साहब उसके गैंग का मतलब भी समझते हैं। उसके गैंग के मेंबर थे—अनिता का भाई अरविंद, जो नैनीताल के स्कूल में सीनियर कैंब्रिज में था और अन्य चार मौसेरे भाई-बहन—बड़ी मौसी का लड़का राकेश—यों किताबी कीड़ा लेकिन अनिता के इसरार करने पर गैंग में शामिल होने को तैयार; छोटी मौसी का लड़का रघुबर—देशी टाइप, तगड़ा, सिनेमा देखने का शौक़ीन, 11वीं कक्षा का विद्यार्थी, गैंग का पुलिसमैन; मंझली मौसी का लड़का विवेक—17 साल का, मोटा-ताज़ा, थोड़ा डरपोक, रईस वकील पिता का लाड़ला पुत्र, गैंग का विज्ञानिक, कैमरा, टेपरिकॉर्डर, ट्रांजिस्टर वग़ैरह से हमेशा लैस, इंटर फाइनल में था; और विवेक की बहन उमा—अनिता की उम्र की, लेकिन न उतनी स्मार्ट है, न अनिता की तरह अंग्रेज़ी बोल सकती है, इसलिए हमेशा अनिता को अपना ‘बो आइडियल’ मानती है।
अनिता ने गैंग का नाम ‘द कज़िन गैंग’ रखा है। अरविंद जब तक बोर्डिंग-स्कूल में नहीं गया था, तब तक गैंग का निर्विवाद लीडर वही था। उसके स्कूल जाने के बाद गैंग में कोई एक लीडर नहीं उभर पाया। ख़्रुश्चेव के बाद के सूर की तरह इस गैंग में भी सामूहित लीडरशीप से काम चल रहा था।
तीन-चार दिन सोने की बात कहने भर को थी। नींद की कमी उसने एक ही दिन में पूरी कर ली थी, और फिर पापा को बता दिया कि उसका प्रस्ताव छुट्टियों में अलीपुर जाने का है।
‘मां से भी पूछा है ?’—डॉक्टर साहब ने पत्नी की ओर मुस्कराकर देखते हुए पूछा।
‘अरे, इस प्रस्ताव के लिए मां से पूछने का तो सवाल ही नहीं उठता,’ अनिता झट से बोली, ‘पहाड़ पर मम्मी को रहना ज़्यादा पसंद नहीं, लेकिन पहाड़ नैनीताल में हो और उसके पास मैदान में कोई ऐसी जगह हो, जहां से तीन घंटे में नैनीताल जा सकते हों, और अगर नैनीताल में मां का लाड़ला बेटा पढ़ता हो, तो ऐसी जगह जाने में उन्हें कभी एतराज़ नहीं हो सकता। और अलीपुर एक ऐसी ही जगह है।’ अनिता ने नाटकीय ढंग से अपना वक्तव्य समाप्त किया।
हिमालय की तराई में बसा अलीपुर बड़ा रमणीक शहर है। न बहुत छोटा, न बड़ा। पहाड़ और मैदान दोनों की अच्छाइयां वहां पाई जाती हैं। गर्मियों में लू नहीं चलती। शामें तो ख़ासतौर से इतनी ख़ुशगवार हो जाती हैं कि स्थानीय लोगों के मुहावरें में ‘नैनीताल पाजी’। दूसरी अच्छाई है, वहां की प्राकृतिक सुंदरता।
अलीपुर एक बड़ी पहाड़ी नदी के किनारे बसा हुआ है। नदी के तेज बहाव से पैदा होने वाली गरज दिन-रात गूंजती रहती है। ख़ामोश रातों में लगभग प्रतिदिन चलने वाली उत्तरी हवा की सनसनाहट के साथ उस पहाड़ी नदी की गर्जन एक अजीब से रहस्य-रोमांच का वातावरण पैदा कर देती है।
और फिर अलीपुर के जंगल, अलीपुर की छोटी-छोटी पहाड़ियां, वहां से दिखने वाला कुमायूं की पर्वत-श्रृंखलाओं का मनोहर दृश्य !
ऐसे अलीपुर में अमिता के मामा मोहनचंद विष्ट रहते थे। अनिता के क्या, पूरे गैंग के मामा। मामा जी के पुरखे पुराने ज़माने के राजदरबार के ख़ास विशिष्ट लोगों में रहे होंगे। विशिष्ट से होते-होते विष्ट हो गए। ख़ासे बड़े पुश्तैनी ज़मींदार थे। सरकार ज़मींदारी ख़त्म करे, इससे पहले उन्होंने ख़ुद ही ज़मींदारी ख़त्म कर दी थी। कुछ ज़मीन बेच डाली, कुछ असामियों में बांट दी। अपने पास रखा बस एक बिचौले आकार का फ़ार्म और एक ख़ासा बड़ा बाग़, और इन दोनों के बीच में स्थित था उनका पुश्तैनी क़िले जैसा मकान।
उनके लिए इतना ज़रूरत से ज़्यादा ही था। मामा जी की बस एक लड़की थी–शीला, जिसका ब्याह वे चार-पांच साल हुए कर चुके थे। ज़मींदारी का काम सब ख़ुद ही देखना होता था। अवस्था पचास के क़रीब हो चली थी। उस पुराने पुश्तैनी मकान को छोड़कर पिछले कुछ वर्षों से विष्ट साहब अलीपुर रहने लगे थे। एक छोटा सा बंगला शहर में बना लिया था।
अपना पुराना मकान छोड़कर शहर में उनका आ बसना एक रहस्य सा बन गया था। तरह-तरह की बातें अलीपुर में ही नहीं, उनके अपने परिवार में भी कही जाती थीं—कि उस मकान में कोई भूत रहता है, कि किसी साधू का श्राप है कि उस मकान में रहने वाला ख़ानदान का ख़ानदान ही ख़त्म हो जाएगा, आदि।
पता नहीं इन अफ़वाहों के कारण या किसी और वजह से अनिता तथा अन्य बच्चों के पिछले कई साल से अलीपुर नहीं आने दिया गया था। वैसे आमतौर से गर्मियों की छुट्टी में हमेशा विष्ट साहब के घर में भानजे, भानजियों, साले-सालियों का जमघट होता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह सब नहीं हो पा रहा था। उनके ज़िद करने पर कारण यही बताया जाता था कि मामा जी ने उस पुराने मकान को छोड़ दिया है और शहर में नया मकान बनवा रहे हैं। जब वह बन जाएगा, तब जाना।
कई साल बाद इस साल अलीपुर जाने का योग आया। अनिता बहुत ख़ुश थी। इस बार अलीपुर में ख़ूब मज़ा करेंगे। वहां की पहाड़ियों पर चढ़ेंगे, जंगलों में घूमंगे, नदी में नहाएंगे। और मामा जी के बग़ीचे में पेड़ों पर चढ़ेंगे। और हां, इस रहस्य का पता लगाएंगे कि गांव वाले उस इतने अच्छे मकान को मामा जी ने क्यों छोड़ा।
बुढ़िया-पुराण
बच्चों के आने से मामा-मामी ख़ूब खुश थे। अब घर कुछ भरा-भरा सा लगा। मामी
ने कहा, ‘शीला से भी बात करने को इतने लोग हो गए घर में। उसका
भी मन बहलेगा।’ शीला को डिलीवरी के लिए मां-बाप ने यहां बुलवा
लिया था। अपनी इकलौती लड़की की शादी में विष्ट साहब ने अपनी बस एक शर्त
रखी थी—उसके पहले लड़के को वे गोद लेंगे, वही उनका वारिस होगा।
लड़के वालों ने भी मान लिया था। उनके परिवार में लड़कों की कमी नहीं थी।
‘आम की फ़सल कैसी हुई, मामा जी ? करोंदों की वे झाड़ियां आपने कटवाई तो नहीं ? अरे हां, अंगूर आने लगे उस बेल में, जो आप तब लगवा रहे थे ?’ अनिता ने सवालों की झड़ी लगा दी।
यह घर अच्छा है, साफ़-सुथरा है, लेकिन वह बात थोड़ी ही हो सकती है जो उस क़िले जैसे पुराने मकान में थी। ‘आपने वह मकान क्यों छोड़ा, मामा जी ?’ उमा ने पूछा। विष्ट साहब कुछ कहें इससे पहले अनिता बोली, ‘सुना है उसमें भूत आता है। क्यों, मामा जी ?’ ‘आता होगा भी तो अब तू आ गई है, अब वह ज़रूर भाग जाएगा।’ मामा जी ने बात टालते हुए कहा, ‘और आम की, करोंदों की, अंगूर की, लीची की फ़सल कैसी हुई है, इसका अंदाज़ा ख़ुद ही लगा लेना। परसों ही तो हमारे बग़ीचे में वन-महोत्सव होगा। बड़ी दावत है। तुम लोग भी चलना।’
‘आम की फ़सल कैसी हुई, मामा जी ? करोंदों की वे झाड़ियां आपने कटवाई तो नहीं ? अरे हां, अंगूर आने लगे उस बेल में, जो आप तब लगवा रहे थे ?’ अनिता ने सवालों की झड़ी लगा दी।
यह घर अच्छा है, साफ़-सुथरा है, लेकिन वह बात थोड़ी ही हो सकती है जो उस क़िले जैसे पुराने मकान में थी। ‘आपने वह मकान क्यों छोड़ा, मामा जी ?’ उमा ने पूछा। विष्ट साहब कुछ कहें इससे पहले अनिता बोली, ‘सुना है उसमें भूत आता है। क्यों, मामा जी ?’ ‘आता होगा भी तो अब तू आ गई है, अब वह ज़रूर भाग जाएगा।’ मामा जी ने बात टालते हुए कहा, ‘और आम की, करोंदों की, अंगूर की, लीची की फ़सल कैसी हुई है, इसका अंदाज़ा ख़ुद ही लगा लेना। परसों ही तो हमारे बग़ीचे में वन-महोत्सव होगा। बड़ी दावत है। तुम लोग भी चलना।’
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