कविता संग्रह >> कारवां गीतों का कारवां गीतों कानीरज
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नीरज की कविताओं का संग्रह...
जब लिखने के लिए लिखा जाता है तब जो कुछ लिख जाता है उसका नाम है, गद्य,
पर जब लिखे बिना न रहा जाए और जो ख़ुद लिख-लिख जाए उसका नाम है कविता।
मेरे जीवन में कविता लिखी नहीं गई, ख़ुद ‘लिख-लिख’ गई
है, ऐसे ही जैसे पहाड़ों पर निर्झर और फूलों पर ओस की कहानी लिख जाती है।
जिस प्रकार ‘जल-जलकर बुझ जाना’ दीपक के जीवन की
विवशता है, उसी प्रकार ‘गा-गाकर चुप हो जाना’ मेरे
जीवन की मजबूरी है। मजबूरी यानी वह मेरे अस्तित्व की शर्त है, अनिवार्यता
है, और इसीलिए मैं उसे नहीं, वह मुझे बांधे हुए है।
–नीरज
लोकप्रिय कवि व फ़िल्म-गीतकार नीरज का गीत-जगत में अपना एक मुक़ाम है।
उदासी, दर्द व अकेलापन नीरज की कविताओं में मुखर है। कवि के दिल में बसा
शाश्वत दुख उनकी लेखनी में आकार पाता है।
कारवां गुज़र गया
स्वप्न झरे फूल से,
मीत-चुभे शूल से,
लुट गए सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे !
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पांव जब तलक उठे कि ज़िंदगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिये धुआं पहन-पहन गए
और हम झुके-झुके
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे !
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आईना सिहर उठा,
इस तरफ़ ज़मीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहां,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे
वक़्त से पिटे-पिटे
सांस की शराब का ख़ुमार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे !
हाथ थे मिले कि जुल्फ चांद की संवार दूं,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूं,
दर्द था कि दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूं,
और सांस यूं कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूं,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि ढह गए क़िले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे !
मांग भर चली कि एक जब नई-नई किरन,
झोलकें धुनक उठीं, ठुमक उठे चरन-चरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गांव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी
गाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर, तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान-से,
पालकी लिए हुए कहार देखते रहें !
कारवा गुज़र गया, गुबार देखते रहे !
मीत-चुभे शूल से,
लुट गए सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे !
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पांव जब तलक उठे कि ज़िंदगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिये धुआं पहन-पहन गए
और हम झुके-झुके
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे !
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आईना सिहर उठा,
इस तरफ़ ज़मीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहां,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे
वक़्त से पिटे-पिटे
सांस की शराब का ख़ुमार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे !
हाथ थे मिले कि जुल्फ चांद की संवार दूं,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूं,
दर्द था कि दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूं,
और सांस यूं कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूं,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि ढह गए क़िले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे !
मांग भर चली कि एक जब नई-नई किरन,
झोलकें धुनक उठीं, ठुमक उठे चरन-चरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गांव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी
गाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर, तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान-से,
पालकी लिए हुए कहार देखते रहें !
कारवा गुज़र गया, गुबार देखते रहे !
बेशरम समय शरमा ही जाएगा
बूढ़े अंबर से मांगो मत पानी
मत टेरो भिक्षुक को कहकर दानी
धरती की तपन न हुई अगर कम तो
सावन का मौसम आ ही जाएगा।
मिट्टी का तिल-तिलकर जलना ही तो
उसका कंकड़ से कंचन होना है
जलना है नहीं अगर जीवन में तो
जीवन मरीज़ का एक बिछौना है
अंगारों को मनमानी करने दो
लपटों को हर शैतानी करने दो
समझौता कर न लिया गर पतझर से
आंगन फूलों से छा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
वे ही मौसम को गीत बनाते जो
मिज़राब पहनते हैं विपदाओं की
हर ख़ुशी उन्हीं को दिल देती है जो
पी जाते हर नाख़ुशी हवाओं की
चिंता क्या जो टूटा हर सपना है
परवाह नहीं जो विश्व न अपना है
तुम ज़रा बांसुरी में स्वर फूंको तो
पपीहा दरवाज़े गा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
जो त्रतुओं की तक़दीर बदलते हैं
वे कुछ-कुछ मिलते हैं वीरानों से
दिल तो उनके होते हैं शबनम के
सीने उनके बनते चट्टानों से
हर सुख को हरजाई बन जाने दो,
हर दुख को परछाई बन जाने दो,
यदि ओढ़ लिया तुमने ख़ुद शीश कफ़न,
क़ातिल का दिल घबरा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
दुनिया क्या है, मौसम की खिड़की पर
सपनों की चमकीली-सी चिलमन है,
परदा गिर जाए तो निशि ही निशि है
परदा उठ जाए तो दिन ही दिन है,
मन के कमरों के दरवाज़े खोलो
कुछ धूप और कुछ आंधी में डोलो
शरमाए पांव न यदि कुछ कांटों से
बेशरम समय शरमा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
मत टेरो भिक्षुक को कहकर दानी
धरती की तपन न हुई अगर कम तो
सावन का मौसम आ ही जाएगा।
मिट्टी का तिल-तिलकर जलना ही तो
उसका कंकड़ से कंचन होना है
जलना है नहीं अगर जीवन में तो
जीवन मरीज़ का एक बिछौना है
अंगारों को मनमानी करने दो
लपटों को हर शैतानी करने दो
समझौता कर न लिया गर पतझर से
आंगन फूलों से छा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
वे ही मौसम को गीत बनाते जो
मिज़राब पहनते हैं विपदाओं की
हर ख़ुशी उन्हीं को दिल देती है जो
पी जाते हर नाख़ुशी हवाओं की
चिंता क्या जो टूटा हर सपना है
परवाह नहीं जो विश्व न अपना है
तुम ज़रा बांसुरी में स्वर फूंको तो
पपीहा दरवाज़े गा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
जो त्रतुओं की तक़दीर बदलते हैं
वे कुछ-कुछ मिलते हैं वीरानों से
दिल तो उनके होते हैं शबनम के
सीने उनके बनते चट्टानों से
हर सुख को हरजाई बन जाने दो,
हर दुख को परछाई बन जाने दो,
यदि ओढ़ लिया तुमने ख़ुद शीश कफ़न,
क़ातिल का दिल घबरा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
दुनिया क्या है, मौसम की खिड़की पर
सपनों की चमकीली-सी चिलमन है,
परदा गिर जाए तो निशि ही निशि है
परदा उठ जाए तो दिन ही दिन है,
मन के कमरों के दरवाज़े खोलो
कुछ धूप और कुछ आंधी में डोलो
शरमाए पांव न यदि कुछ कांटों से
बेशरम समय शरमा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
गीत
सेज पर साधें बिछा लो,
आंख में सपने सजा लो
प्यार का मौसम शुभे ! हर रोज़ तो आता नहीं है।
यह हवा यह रात, यह
एकांत, यह रिमझिम घटाएं,
यूं बरसती हैं कि पंडित–
मौलवी पथ भूल जाएं,
बिजलियों से मांग भर लो
बादलों से संधि कर लो
उम्र-भर आकाश में पानी ठहर पाता नहीं है।
प्यार का मौसम...
दूध-सी साड़ी पहन तुम
सामने ऐसे खड़ी हो,
जिल्द में साकेत की
कामायनी जैसे मढ़ी हो,
लाज का वल्कल उतारो
प्यार का कंगन उजारो,
‘कनुप्रिया’ पढ़ता न वह ‘गीतांजली’ गाता नहीं है।
प्यार का मौसम...
आंख में सपने सजा लो
प्यार का मौसम शुभे ! हर रोज़ तो आता नहीं है।
यह हवा यह रात, यह
एकांत, यह रिमझिम घटाएं,
यूं बरसती हैं कि पंडित–
मौलवी पथ भूल जाएं,
बिजलियों से मांग भर लो
बादलों से संधि कर लो
उम्र-भर आकाश में पानी ठहर पाता नहीं है।
प्यार का मौसम...
दूध-सी साड़ी पहन तुम
सामने ऐसे खड़ी हो,
जिल्द में साकेत की
कामायनी जैसे मढ़ी हो,
लाज का वल्कल उतारो
प्यार का कंगन उजारो,
‘कनुप्रिया’ पढ़ता न वह ‘गीतांजली’ गाता नहीं है।
प्यार का मौसम...
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