लोगों की राय

गजलें और शायरी >> अदम और उनकी शायरी

अदम और उनकी शायरी

प्रकाश पंडित

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4998
आईएसबीएन :9788170283460

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

362 पाठक हैं

अदम की जिन्दगी और उनकी बेहतरीन शायरी गजलें, नज्में, शेर

Adam Aur Unki Shayari a hindi book by Prakash Pandit - अदम और उनकी शायरी - प्रकाश पंडित

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नागरी लिपि में उर्दू के लोकप्रिय शायरों व उनकी शायरी पर आधारित पहली सुव्यवस्थित पुस्तकमाला। इसमें मीर, गालिब से लेकर साहिर लुधियानवी-मजरूह सुलतानपुरी तक सभी प्रमुख उस्तादों और लोकप्रिय शायरों की चुनिंदा शायरी, उनकी रोचक जीवनियों के साथ अलग-अलग पुस्तकों में प्रकाशित की गई हैं। इस पुस्तक माला की प्रत्येक पुस्तक में संबंधित शायर के संपूर्ण लेखन से चयन किया गया है और प्रत्येक रचना के साथ कठिन शब्दों के अर्थ भी दिये गये हैं। इसका संपादन अपने विषय के दो विशेषज्ञ संपादकों-सरस्वती सरन कैफ व प्रकाश पंडित-से कराया गया है। अब इस पुस्तकमाला के अनगिनत संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और पाठकों द्वारा इसे सतत सराहा जा रहा है।

 

‘अदम’

 

‘अदम’ की ग़ज़लें भाषा तथा शैली की दृष्टि से उर्दू की श्रेष्ठ ग़ज़लें हैं और तीव्र भावनाओं की दृष्टि से बेमिसाल भी। अदम की अपनी शैली है, अपना रंग है, अपना तेवर है। अपनी ग़ज़लों में अपनी बात बड़ी शिद्दत से कहते हैं। युवा वर्ग उनकी शायरी के दीवाने रहे हैं।

आपने अपने कुछ मित्रों को विशेष रूप से अपने यहां निमंत्रित किया है और एक विशेष आकर्षण के वशीभूत लगभग सब के सब समय से कुछ पूर्व ही आ पधारे हैं और बड़ी बेचैनी से बार-बार पूछ रहे हैं—वह क्या है ?
वह—अर्थात् वह मानवीय अतिथि जिसके सम्मान में आपने इस दावत का आयोजन किया और जिसने वायदा किया था कि ठीक सात बजे आपके यहाँ उपस्थित हो जायेगा। लेकिन सात के साढ़े सात, फिर आठ और फिर नौ बज जाते रहे लेकिन आपके अतिथि का कुछ भी अता-पता नहीं है। आप परेशान हैं। आपके मित्र परेशान हैं। महफ़िल बर्ख़ास्त हुआ चाहती है कि एक दोहरे बदन का व्यक्ति लड़खड़ाता-संभलता कमरे में प्रवेश करता है और महफ़िल के वातावरण में चारों ‘प्रश्न-चिह्न’ सा लटकता देखकर बड़ी लापरवाही से इतना भर कहता है :
‘‘आख़िर पीना तो शराब ही थी। यहां क्या और वहां क्या ? मेरे कुछ दोस्त मिल गये थे और रास्ते में शराब-ख़ाना था।’’
आपका यह बे-तुका अतिथि आधुनिक-काल का प्रसिद्ध ग़ज़ल-गो शायर अब्दुल हमीद ‘अदम’ है; और शराबख़ाना, जो हर जगह उसके रास्ते में आन पड़ता है, उसकी पूरी ज़िन्दगी और पूरी शायरी है। यहीं से शुरू होती है और यहीं पर ख़त्म हो जाती है।
उनकी शायरी के सम्बन्ध में तो ख़ैर, मैं जैसे चाहूं बहस कर सकता हूं और आगे चलकर करूंगा भी, लेकिन उसकी ज़िन्दगी के बारे में मुझे अधिकतर सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करना पड़ रहा है। उदाहरणतः यह कि उसका जन्म जून 1909 ई. में तलवंडी, मूसा-ख़ां (सरहद प्रान्त, पाकिस्तान) में हुआ। बाल्य और युवावस्था कहां व्यतीत हुई, कुछ मालूम नहीं। शिक्षा अलबत्ता बी.ए. तक है। कुछ वर्ष पूर्व एक इन्डो-पाकिस्तान मुशायरे के सिलसिले में वह दिल्ली आया था और मैं पत्र-व्यवहार द्वारा उससे पहले से तै कर चुका था कि यहां जी-भर कर बातें होंगी और मैं वह सब कुछ उससे पूछ लूंगा जिसकी मुझे इस पुस्तक के लिए आवश्यकता थी। लेकिन जब मुशायरे में तो क्या, वह मुझे कहीं दिल्ली में भी नज़र न आया और केवल उस समय उसकी ख़बर मिली जब वह वापस कराची पहुंच चुका था तो मुशायरे के प्रबंधकों के साथ-साथ मैंने भी सिर पीट लिया।
सुनी-सुनाई बातों के प्रसंग में ही मुझे मालूम हुआ कि अपनी नौकरी के सम्बन्ध में (‘अदम’ पाकिस्तान सरकार के ऑडिट एण्ड अकाउंट्स विभाग में गज़ेटिड आफ़ीसर है) बहुत होशियार और ज़िम्मेदार है। यह अलग बात है कि किसी दिन यदि उसका दफ़्तर जाने को जी न माने तो दफ़्तर के अन्य कर्मचारी उसका सारा काम स्वयं कर देते हैं। कराची आने से पूर्व वह काफ़ी समय तक रावलपिंडी और लाहौर में भी रह चुका है और स्वर्गीय ‘अख़्तर’ शीरानी से उसकी गहरी छनती थी। कारण समकालीन शायर होने से अधिक एक साथ और एक समान मदिरापान था। दोनों बेतहाशा पीते थे और बुरी तरह बहकते थे (‘थे’-इसलिए कि ‘अख़्तर’ अब इस संसार में नहीं है)। मदिरापान के बाद उनमें कुछ इस प्रकार का संवाद हुआ करता था :
अख़्तर: तुम नज़्म के बादशाह हो ‘अदम’ !
अदम: नहीं, तुम नज़्म के बादशाह हो।
अख़्तर: मैं कहता हूँ तुम हो।
अदम: अरे नहीं भाई, तुम हो।
अख़्तर: तो फिर तुम क्या हो ?
अदम: मैं ग़ज़ल का बादशाह हूँ।
ख़ैर, उस ‘अदम’ में जो अपनी शायरी में नज़र आता है और उस ‘अदम’ में जिसे उसके घनिष्ट मित्र जानते हैं, रत्ती बराबर फ़र्क़ नहीं। अतः उसके व्यक्तित्व और शायरी की इस प्रवृत्ति का समन्वय अपनी समस्त त्रुटियों और हीनताओं के बावुजूद उस विशेष लक्षण का साधन बना जिसे आम परिभाषा में ‘शायराना ख़ुलूस’ या ‘काव्यात्मक-शुद्धहृदयता’ कहा जाता है। अर्थात् कवि का वही बात कहना जो मांगे-तांगे की न होकर उसकी अपनी अनुभूतियों से उत्पन्न होती है और सैद्धांतिक मतभेद के बावजूद अपने-आप में अपनी महानता मनवाने की क्षमता रखती है। एक शे’र देखिये :

-

साक़ी में ख़ुलूस की शिद्दत को1 देखना
फिर आ गया हूं गर्दिशे-दौराँ को2 टालकर

 

लेकिन शुद्धहृदयता मात्र से भी बात नहीं बनती। शायरी में बात बनाने के लिए शुदहृदयता के साथ-साथ और भी बहुत कुछ आवश्यक होता है कि ‘गर्दिशे-दौरां’ को टालना उतना ही कठिन बल्कि असंभव है जितना शायर ने इस शे’र में सहल बताया है। अतएव क्रियात्मक जीवन के प्रति उदासीनता और चिन्तन की कमी ने उसे अवसन्नतावादी बना दिया और उसने अपने इर्द-गिर्द एक चार-दीवारी खड़ी कर ली, जिससे न वह स्वयं बाहर निकलना चाहता है और न वह चाहता है कि बाहर की गर्म हवा उस तक पहुंचे। लेकिन यहां फिर किसी व्यक्ति के चाहने या न चाहने का प्रश्न आ खड़ा होता है। और चूंकि कोई चाहे कितना बड़ा अवसन्नतावादी क्यों न हो आखिर को मनुष्य होता है और मनुष्य चाहे अपने गर्द कितनी ऊँची और मज़बूत दीवारें खड़ी कर ले, बाहर की सर्दी-गर्मी उसे ढूँढ़ ही लेती है, अतः जब ‘अदम’ ढूँढ़ लिया जाता है तो बेबसी के साथ ही, चौंकने पर अवश्य मजबूर हो जाता है :

-

कभी-कभी तो मुझे भी ख़याल आता है
कि अपनी सूरते-हालात3 पर निगाह करूं
और जब वह उसी शुद्धहृदयता के साथ ‘सूरते-हालात पर निगाह’ करता है तो उसके क़लम से :

 

1. आधिक्य को 2. संसार-चक्र 3. स्थिति

 

ये अक़्ल के सहमे हुए बीमार इरादे
क्या चारा-ए-नासाज़ी-ए-हालात1 करेंगे।

 

ऐसे शे’र निकलने लगते हैं और कभी-कभी तो वह ‘सूरते-हालात’ और ‘नासाज़ी-ए-हालात’ पर सोचते-सोचते मदिरा-स्तुति की सीमा से निकल कर एकदम विचारक और दार्शनिक बन जाता है :

 

दूसरों से बहुत आसान है मिलना साक़ी
अपनी हस्ती से मुलाक़ात बड़ी मुश्किल है
और
ज़हने-फ़ितरत में2 थीं जितनी नाकुशूदा3 उल्झनें
एक मर्कज़ पर4 सिमट आईं तो इन्साँ बन गईं

 

लेकिन ऐसे शे’रों की उसके यहां अधिक संख्या नहीं है। अधिक संख्या उन्हीं शे’रों की है जिनमें शायर को ‘सूरते-हालात’ पर विचार करने से भय लगता है और यदि वह विचार करता भी है तो यह कहकर चुप हो जाता है

:

अभी हवादिसे-दौरां पे5 कौन ग़ौर करे
अभी तो महफ़िले-हस्ती6 शराबख़ाना है

 

और यों आधुनिक उर्दू शायरी का यह मद्यप और मतवाला शायर उसी मार्ग पर भटकता नज़र आता है जिसे सदियों पहले उमर ख़य्याम ने तराशा और समतल किया था और जिसे पार
1. दुखद परिस्थितियों को दूर करने का उपाय
2. प्रकृति के मस्तिष्क में
3. न सुलझने वाली
4. केन्द्र
5. सांसारिक दुर्घटनाओं पर
6. संसार-रूपी महफ़िल

करके आज के शायर कहीं से कहीं निकल गये हैं।
रौंदी हुई राह पर ‘अदम’ के भटकने की बात मैंने पूरी ज़िम्मेदारी के साथ कही है, हालांकि मैं जानता हूँ कि अपनी काव्यात्मक-शुद्धहृदयता के कारण ‘अदम’ मेरे इस मत से कभी सहमत नहीं होगा क्योंकि अपनी मदिरा-स्तुति को उचित और उपयुक्त सिद्ध करने के लिए वह बड़े सुन्दर बहाने गड़कर अपनी अवसन्नता प्रवृत्ति को कल्पनावाद के खोल में छुपा देता है और उस स्थिति में उसे प्याले की खनक ख़ुदा की आवाज़ मालूम होने लगती है। उसके विचार में तो मदिरा-पान के बिना ब्रह्मज्ञान तक नहीं हो सकता :

-

पीता हूं हादिसात के इर्फ़ान के1 लिए
मै एक तजज़िया2 है ग़मे-रोज़गार का3

 

और यह केवल जीवन की आतृप्ति है जो उसे मधुशाला की ओर ले जाती है :

 

मैकदे के4 मोड़ पर रुकती हुई
मुद्दतों की तिश्नगी5 थी मैं न था

 

इस प्रकार का एक और दिलचस्प बहाना देखिये :-

 

वो हौलनाक6 सियाही7 है मुन्तशिर8 हर सू9
वुफ़ूरे-कर्ब से10 कौनेन11 फड़फड़ाते हैं

 

1. परिचय या ज्ञान के
2. विश्लेषण
3. सांसारिक ग़मों का
4. मधुशाला के
5. प्यास या अतृप्ति
6. भयानक
7. अंधकार
8. फैली हुई
9. चारों ओर
10. पीड़ा की1 तीवृता के कारण
11. दोनों जहान

 

कि अब तो ख़ल्क़ के1 ईमान डगमगाते हैं
तेरे जहान में जब तक कोई निज़ाम2 नहीं
फ़कीर के3 लिए बादाकशी4 हराम नहीं

 

ऊपर के शे’र ‘अदम’ की एक नज़्म ‘जवाज़’ (औचित्य) के शे’र हैं। मैंने इस संकलन में जानबूझकर ‘अदम’ की कोई नज़्म नहीं रखी—हालांकि उसने सौ से अधिक नज़्में लिखी हैं, और उनका बकायदा संग्रह भी मौजूद है। कारण एक तो यह है कि ‘अदम’ की नज़्में, वास्तविक ‘अदम’ को प्रस्तुत नहीं करतीं और दूसरे अपने स्वभाव के प्रतिकूल पाकर स्वयं ‘अदम’ ने नज़्में लिखनी छोड़ दी हैं।
स्वभाव या प्रकृति की दृष्टि से ‘अदम’, जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूं, उदासीनता-प्रिय है और इसलिए वह किसी विशेष जीवन-सिद्धांत या दृष्टिकोण का पक्षपाती नहीं। वह आस्तिक भी है और नास्तिक भी। कभी मंजिल पर पहुँचने के लिए तड़पता है और कभी मंजिल पर पहुंचाने वाले पथ-प्रदर्शक को कोसता है। आहों-आंसुओं का यह संसार क्षण-भर के लिए उसकी दृष्टि अपनी ओर खींचता है, लेकिन दूसरे ही क्षण में वह इस तूफ़ानी संसार से भागकर मधुशाला की शरण में चला जाता है। और जब कोई मुक्ति-मार्ग नहीं मिलता तो अच्छे-बुरे तमाम नैतिक सिद्धांतों को तोड़ता हुआ संकीर्णतावादी हो जाता है। प्रत्यक्ष है आज के युग में जबकि उर्दू नज़्म विषय, कला इत्यादि हर दृष्टि से उन्नति के

1. दुनिया के
2. व्यवस्था
3. सेवक के
4. मदिरा-पान

शिखर पर पहुंच चुकी है, वह गिरगिट की तरह प्रतिक्षण रंग बदलने वाले शायर को प्रशंसा का पात्र नहीं बना सकती। ग़ज़ल चूंकि अब भी बहुत-सों को बख़्श देती है और केवल :

(1) मैं, मैख़ाना, रिंद, ज़ाहिद, शैख़, नासेह
(2) तूफ़ान, कश्ती, नाख़ुदा
(3) राहनुमा, राहज़न, मंज़िल
(4) हश्र, फ़र्दे-अमल, कातिबे-अमल, ख़ुदा को चौकोने में चक्कर काटने वालों को भी आश्रय दे देती है, अतएव ‘अदम’ में स्वभाववश स्थायी रूप से ग़ज़ल का दामन थाम लिया है।

‘अदम’ की ग़ज़लें भाषा तथा शैली की दृष्टि से इस काल की श्रेष्ठ ग़ज़लें हैं और तीव्र-भावनाओं की दृष्टि से तो ऐसी बेपनाह कि सैद्धांतिक मतभेद होने पर भी कुछ देर के लिए हम सैद्धांतिक मतभेद को स्थगित करने पर विवश हो जाते हैं।

 

मैं मयक़दे की राह से होकर गुज़र गया
वर्ना सफ़र हयात का काफ़ी तवील था


ख़ाली है अभी जाम, मैं कुछ सोच रहा हूं।
ए गर्दिशे-अय्याम1, मैं कुछ सोच रहा हूं।।
साक़ी तुझे इक थोड़ी-सी तकलीफ़ तो होगी।
साग़र को ज़रा थाम, मैं कुछ सोच रहा हूं।।
पहले बड़ी रग़बत2 थी तेरे नाम से मुझ को।
अब सुन के तेरा नाम, मैं कुछ सोच रहा हूं।।
इदराक3 अभी पूरा तआ़वुन4 नहीं करता।
दे बादा-ए-गुलफ़ाम5, मैं कुछ सोच रहा हूं।।
हल कुछ तो निकल आएगा हालात की जिद का।
ऐ कसरते-आलाम6, मैं कुछ सोच रहा हूं।।
* * * *
हमने हसरतों के दाग़ आंसुओं से धो लिए।
आपकी ख़ुशी हुजूर, बोलिये न बोलिये।।
क्या हसीन ख़ार7 थे जो मेरी निगाह ने।
सादगी से बारहा8 रूह में चुभो लिये।।
ज़िन्दगी का रास्ता काटना ही था ‘अदम’।
जाग उठे तो चल दिये, थक गये तो सो लिये।।

 

1. समय के चक्कर
2. लगाव
3. बुद्धि 4.
सहयोग 5.
पुष्पवर्णा मदिरा
6. ग़मों के आधिक्य
7. कांटे
8. कई बार

 

जो लोग जान-बूझके नादान बन गये।
मेरा ख़याल है कि वो इन्सान बन गये।।
हम हश्र में1 गये थे मगर कुछ न पूछिये।
वो जान-बूझकर वहां अनजान बन गये।।
हंसते हैं हमको देख के अरबाबे-आगही2।
हम आपके मिजाज की पहचान बन गये।।
मंजधार तक पहुंचना तो हिम्मत की बात थी।
साहिल के आस-पास ही तूफ़ान बन गये।।
इन्सानियत की बात तो इतनी है शेख3 जी।
बदक़िस्मती से आप भी इन्सान बन गये।।
कांटे थे चंद दामने-फ़ितरत में4 ऐ ‘अदम’।
कुछ फूल और कुछ मेरे अरमान बन गये।।
* * * *
आरज़ूओं के ख़्वाब क्या देंगे ?
ख़ूबसूरत सराब5 क्या देंगे ?
कुछ किया ही नहीं जवानी में।
हश्र के दिन हिसाब क्या देंगे ?
जीने वाले तो ख़ैर बेबस हैं।
मरने वाले हिसाब क्या देंगे।।
* * * *

 

1. प्रलय में (जहाँ इस्लामी मत के अनुसार मनुष्य के कर्मों का फैसला होगा)
2. बुद्धि-जीवी
3. धर्मोपदेशक
4. प्रकृति के दामन में
5. मरीचिका

 

रिंद और तर्के-ख़राबात1, बड़ी मुश्किल है।
शैख़ साहब ये करामात बड़ी मुश्किल है।।
आप अगर बात पे कुछ ग़ौर करें बन्दा-नवाज़।
बात आसान नहीं, बात बड़ी मुश्किल है।।
लाइये कूज़ा-ए-सहबा2 कि कुदूरत3 धोलें।
बेवुज़ू हम से मुनाजात4, बड़ी मुश्किल है।।
दूसरों से बहुत आसान है मिलना साक़ी।
अपनी हस्ती से मुलाक़ात बड़ी मुश्किल है।।
गो हर इक रात है तकलीफ़ से लबरेज़ ‘अदम’।
लोग कहते हैं कि इक रात बड़ी मुश्किल है।।
* * * *
तेरी आंखों पे इशारों का गुमां5 होता है।
नौतराशीदा6 सितारों का गुमां होता है।।
बाज़ औक़ात तसव्वुर के7 हसीं लम्हों में8।
दिल की आहट पे निगारों का9 गुमां होता है।।
आंख उठती है जिधर अहदे-जवानी में10 ‘अदम’।
महजबीनों की11 क़तारों का गुमां होता है।
* * * *

 

1. मद्यपान छोड़ना
2. शराब का प्याला
3. मनोमालिन्य
4. प्रार्थना
5. भ्रम
6. नए तराशे हुए
7. कल्पना के
8. क्षणों में
9. सुन्दरियों का
10 यौवन-काल में
11. (चाँद जैसे मुखड़े वाली) सुन्दरियों की।



प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book