अतिरिक्त >> बड़े बाबू : छोटा जीवन बड़ी कहानी बड़े बाबू : छोटा जीवन बड़ी कहानीअशोक लाल
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नेशनल बुक ट्रस्ट की सतत् शिक्षा पुस्तकमाला सीरीज़ के अन्तर्गत एक रोचक पुस्तक
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बड़े बाबूः छोटा जीवन बड़ी कहानी
विनोद शर्मा मथुरा जिले के रहने वाले थे। पढ़े-लिखे थे। करीब पैंतीस-चालीस
साल पहले दिल्ली आ गए थे। बहुत कोशिश के बाद नगरपालिका के दफ्तर में
क्लर्क की नौकरी मिल गई। वे एक छोटे-से घर में रहने लगे। जल्द
ही
शादी भी हो गई । अपनी बीवी से उन्हें बहुत प्रेम था। दो वर्ष बाद उनके घर
बेटा पैदा हुआ। शर्मा जी खुश हुए। मगर उन्हें ऐसा भी लगा जैसे बीवी के
प्रेम का कोई और हिस्सेदार हो गया।
बदकिस्मती से दो वर्ष बाद एक दुर्घटना में शर्मा जी की बीवी चल बसीं। उस दिन से शर्मा जी ने जैसे पूरी दुनिया से नाता तोड़ लिया। जैसे-तैसे पेट काटकर बेटे उमेश को हास्टल में रखकर पढ़ाया-लिखाया। पढ-लिख लेने के बाद उमेश दिल्ली में ही प्राइवेट कंपनी में नौकरी मिल गई। फिर उमेश ने अपनी ही पसंद की लड़की से शादी कर ली। उमेश और उसकी पत्नी अलग घर लेकर रहना चाहते थे। मगर महंगाई के कारण मन मानकर उसी छोटे-से घर में रहना पड़ा। बाप-बेटा एक ही छत के नीचे रहते थे। मगर अपनी-अपनी दुनिया में मस्त। एक-दूसरे से जैसे कोई लेना-देना ही नहीं था।
कलम घिसते-घिसते शर्मा जी नगरपालिका के दफ्तर में हेड क्लर्क बन गए। सब उन्हें ‘बड़े बाबू,, बड़े बाबू’ कहते थे। बड़े बाबू को न तो किसी में दिलचस्पी थी, न ही कोई शौक था। पान, सिगरेट, दारू-वारू कुछ भी नहीं। चुपचाप घर से दफ्तर और दफ्तर से घर। काम भी बस कामचलाऊ करते। मगर सरकारी दफ्तर में थे तो नौकरी बची रही। सब मिलकर बड़े बाबू अपनी ही दुनिया में बंद हो गए।
चौबीस घंटे उनके मन में एक ही बात घूमती रहती, मैं कितना बेचारा आदमी हूं। बीवी मर गई। और अब मेरा बेटा और मेरी बहू भी मुझे नहीं पूंछते।’ बड़े बाबू को एक बात समझ में नहीं आई थी। वह यह कि उन्होंने भी तो अपने बेटे को कभी नहीं पूछा। इधर कुछ सालों से उनकी तबीयत भी खराब रहने लगी थी। सुस्ती छाई रहती, पेट, में दर्द रहता। खाने-पीने का मन भी नहीं करता। पूजा-पाठ में भी मन नहीं लगता।। दिन-रात शरीर और मन बेचैन रहता।
बदकिस्मती से दो वर्ष बाद एक दुर्घटना में शर्मा जी की बीवी चल बसीं। उस दिन से शर्मा जी ने जैसे पूरी दुनिया से नाता तोड़ लिया। जैसे-तैसे पेट काटकर बेटे उमेश को हास्टल में रखकर पढ़ाया-लिखाया। पढ-लिख लेने के बाद उमेश दिल्ली में ही प्राइवेट कंपनी में नौकरी मिल गई। फिर उमेश ने अपनी ही पसंद की लड़की से शादी कर ली। उमेश और उसकी पत्नी अलग घर लेकर रहना चाहते थे। मगर महंगाई के कारण मन मानकर उसी छोटे-से घर में रहना पड़ा। बाप-बेटा एक ही छत के नीचे रहते थे। मगर अपनी-अपनी दुनिया में मस्त। एक-दूसरे से जैसे कोई लेना-देना ही नहीं था।
कलम घिसते-घिसते शर्मा जी नगरपालिका के दफ्तर में हेड क्लर्क बन गए। सब उन्हें ‘बड़े बाबू,, बड़े बाबू’ कहते थे। बड़े बाबू को न तो किसी में दिलचस्पी थी, न ही कोई शौक था। पान, सिगरेट, दारू-वारू कुछ भी नहीं। चुपचाप घर से दफ्तर और दफ्तर से घर। काम भी बस कामचलाऊ करते। मगर सरकारी दफ्तर में थे तो नौकरी बची रही। सब मिलकर बड़े बाबू अपनी ही दुनिया में बंद हो गए।
चौबीस घंटे उनके मन में एक ही बात घूमती रहती, मैं कितना बेचारा आदमी हूं। बीवी मर गई। और अब मेरा बेटा और मेरी बहू भी मुझे नहीं पूंछते।’ बड़े बाबू को एक बात समझ में नहीं आई थी। वह यह कि उन्होंने भी तो अपने बेटे को कभी नहीं पूछा। इधर कुछ सालों से उनकी तबीयत भी खराब रहने लगी थी। सुस्ती छाई रहती, पेट, में दर्द रहता। खाने-पीने का मन भी नहीं करता। पूजा-पाठ में भी मन नहीं लगता।। दिन-रात शरीर और मन बेचैन रहता।
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