कहानी संग्रह >> मनोदाह मनोदाहमधुप शर्मा
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एक उत्कृष्ठ कहानी संग्रह
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आज जबकि तमिल उपन्यास-साहित्य का इतिहास लगभग सौ वर्ष पुराना हो चुका है,
निश्चित रूप से इस अवधि में इतने उपन्यास लिखे जा चुके हैं कि यदि स्तरीय
उपन्यासों को चुनने की बात उठे तो कई उपन्यासों के नाम आसानी से लिये जा
सकते हैं। यही कोई दस वर्ष पूर्व कोई एक पाठकीय सर्वेक्षण किया गया,
जिसमें लगभग दो सौ गम्भीर तमिल- पाठकों की राय ली गयी थी। उसमें लगभग सभी
ने ति. जानकीरामन को आधुनिक तमिल गद्य के एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में
पहचाना था। उनमें भी पचहत्तर प्रतिशत लोगों की राय में
‘मोहदंश’ (मोहमुळ) उनकी सबसे उल्लेखनीय कृति रही। एक
बार जब स्वयं मुझे तमिल के छह महत्वपूर्ण उपन्यासों का नाम लेना था तो
‘मोहदंश’ (मोहमुळ) का नाम लिये बिना मैं नहीं रह पाया।
यूँ तो ‘मोहदंश’ (मोहमुळ) ति. जानकीरामन की चालीस-वर्षीय साहित्य-साधना का प्रारम्भिक पड़ाव ही है। ‘मोहमुळ’ का एक साप्ताहिक पत्रिका ‘स्वदेश मिलन’ में धारावाहिक प्रकाशित भी हुआ था। यह उस समय की बात है जब तमिल पत्रिकाओं में बिक्री को लेकर कोई होड़ नहीं थी और उस समय प्रकाशित होने वाली कुछेक पत्रिकाओं ने अपनी व्यक्तिगत पहचान बनाये रखने पर ज़ोर दिया था। उन सब ने विषयों की गम्भीरता और चुनिन्दा लेखकों तक ही अपने को सीमित बनाए रखने को अधिक महत्वपूर्ण माना। ‘मोहमुळ’ पुस्तकाकार सर्वप्रथम 1961 में प्रकाशित अवश्य हुआ, पर कुछ असामान्य और विपरीत परिस्थितियों के कारण प्रतियाँ गोदाम में पड़ी रहीं। अन्ततः सन् 1969 में पुस्तक पाठकों के हाथों में पहुँची।
‘मोहदंश’ (मोहमुळ) विस्तृत कालखण्ड दर्जनों पात्रों और घटनाओं के साथ एक विशाल फलकवाला उपन्यास है, जिसका प्रारम्भिक कथोपकन के विपरीत एक अनिश्चित अन्त है। इस उपन्यास में आज से पचास वर्ष पूर्व के तंजौर की मिट्टी की सांस्कृतिक और सामाजिक विरासत को असाधारण कुशलता के साथ चित्रित किया गया है। वास्तव में जानकीरामन की विशेषता ही है-परिवेश के सृजन की कुशलता और उस पर उनकी मौलिक टिप्पणियाँ। लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या ‘मोहमुळ’ यानी ‘मोहदंश’ आज से पचास वर्ष पूर्व के जीवन को पुनर्रचित करने के अतिरिक्त भी कुछ कहता है। निस्सन्देह इसका उत्तर पाने के लिए उपन्यास को पढ़ना होगा। फिर भी इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि लम्बे समय तक गम्भीर पाठक ‘मोहदंश’ को पढ़ेंगे और सराहेंगे।
यूँ तो ‘मोहदंश’ (मोहमुळ) ति. जानकीरामन की चालीस-वर्षीय साहित्य-साधना का प्रारम्भिक पड़ाव ही है। ‘मोहमुळ’ का एक साप्ताहिक पत्रिका ‘स्वदेश मिलन’ में धारावाहिक प्रकाशित भी हुआ था। यह उस समय की बात है जब तमिल पत्रिकाओं में बिक्री को लेकर कोई होड़ नहीं थी और उस समय प्रकाशित होने वाली कुछेक पत्रिकाओं ने अपनी व्यक्तिगत पहचान बनाये रखने पर ज़ोर दिया था। उन सब ने विषयों की गम्भीरता और चुनिन्दा लेखकों तक ही अपने को सीमित बनाए रखने को अधिक महत्वपूर्ण माना। ‘मोहमुळ’ पुस्तकाकार सर्वप्रथम 1961 में प्रकाशित अवश्य हुआ, पर कुछ असामान्य और विपरीत परिस्थितियों के कारण प्रतियाँ गोदाम में पड़ी रहीं। अन्ततः सन् 1969 में पुस्तक पाठकों के हाथों में पहुँची।
‘मोहदंश’ (मोहमुळ) विस्तृत कालखण्ड दर्जनों पात्रों और घटनाओं के साथ एक विशाल फलकवाला उपन्यास है, जिसका प्रारम्भिक कथोपकन के विपरीत एक अनिश्चित अन्त है। इस उपन्यास में आज से पचास वर्ष पूर्व के तंजौर की मिट्टी की सांस्कृतिक और सामाजिक विरासत को असाधारण कुशलता के साथ चित्रित किया गया है। वास्तव में जानकीरामन की विशेषता ही है-परिवेश के सृजन की कुशलता और उस पर उनकी मौलिक टिप्पणियाँ। लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या ‘मोहमुळ’ यानी ‘मोहदंश’ आज से पचास वर्ष पूर्व के जीवन को पुनर्रचित करने के अतिरिक्त भी कुछ कहता है। निस्सन्देह इसका उत्तर पाने के लिए उपन्यास को पढ़ना होगा। फिर भी इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि लम्बे समय तक गम्भीर पाठक ‘मोहदंश’ को पढ़ेंगे और सराहेंगे।
एक
अणैक्करै की बस आनैयडी को पार करती हुई टाउन
हाईस्कूल के अहाते के सामने से धूल उड़ाती गुजर गयी। बस, लगा जैसे धूल का
एक बगूला पूरे कस्बे को उड़ा ले जायेगा। आस-पास गुज़रते लोगों ने अपने
अँगौछे और रुमाल से कान और मुँह बन्द कर लिये। आँखें भींच लीं। बाबू ने
गेरुए उत्तरीय से मुँह ढाँप लिया और वह गला खँखारने लगा। धूल का गुबार
थमने में तीन-चार मिनट तो लगेंगे। सुबह ही तो धोकर सुखायी थी यह खद्दर की
धोती, उत्तरीय और कमीज। ऐसे में निकलेगा तो सारी मेहनत बेकार जायेगी।
लिहाजा सड़क के किनारे वह एक दुकान के पास खड़ा हो गया। उत्तरीय से उसने
चेहरे और मुँह को ढँक रखा था।
‘‘अन्ये देशे कृतं पापं
वाराणस्यां विनश्यति।
वाराणस्यां कृतं पापं कुम्भकोणे विनश्यति।
कुम्भकोणे कृतं पापं कुम्भकोणे विनश्यति।’’
वाराणस्यां कृतं पापं कुम्भकोणे विनश्यति।
कुम्भकोणे कृतं पापं कुम्भकोणे विनश्यति।’’
धूल के शान्त होने की प्रतीक्षा में दुकान के पास साइकिल लिये खड़े गेल
कावेरी के शास्त्री जी बुदबुदाये। उनके माथे पर बने निशान की तरह ही उनके
होंठों से चिपकी वह हँसी कुछ फैल गयी थी।
‘‘क्या हो गया पण्डित जी, सुबह-सुबह किसे गाली दे रहे हैं ?’’ दुकानदार आरुमुगम ने छेड़ा।
‘‘अरे काहे की गाली-गलौज ! कुछ नहीं।’’
‘‘फिर क्या कह रहे थे ?’’
‘‘कुछ नहीं स्थल-माहात्म्य सुना रहा था।’’
‘‘अरे तो, हमारी बोली में समझाइए न !’’
‘‘मतलब यह है, कि संसार में किसी भी देश में किसी भी स्थान पर कोई पाप हो जाये तो काशी प्रवास उस पाप को धो देगा। और अगर काशी में कोई पाप हो जाये तो कुम्भकोण के इसी माघी कुण्ड में डुबकी लेने से धुल जायेगा।’’
‘‘कहाँ ? यहाँ ! इस कीचड़ में ?’’
‘‘ऐसा मत कहो। अपनी महापालिका उसमें दवाइयाँ डलवाती है कि नहीं ?’’
‘‘तभी तो असली नाले का मजा आता है।’’
‘‘अरे कहाँ की दुर्गन्ध या सुगन्ध। पहले दुर्गन्ध जैसा ही कुछ समझ में आता है। धीरे-धीरे जब आदत पड़ जाती है, तो फिर सब ठीक हो जाता है।
‘‘मतलब कुण्ड की बदबू झेलनी ही पड़ेगी, क्यों ?’’
‘‘अरे, तुम तो यहाँ के कुण्ड और कुम्भकोणम की बुराई करने लगे। तनिक बाहर निकलकर देखो, मद्रास ही हो आओ एक बार, पता चल जायेगा।’’
‘‘क्या पता चल जायेगा ?’’
‘‘वही कुम्भकोणम की सुपारी, डोसा, नारियल की चटनी, रेशमी साड़ियाँ, वाक्यपटुता....’’
‘‘और चार-सौ बीसी...’’
‘‘हाँ.. कह लो ! रामस्वामी के मन्दिर का एक खम्भा भर कोई परदेशी देख ले, फिर कहाँ याद रहेगी यहाँ की दुर्गन्ध या चार-सौ-बीसी ! अब तुम्हें ही देख लो..कैसा बीड़ा बना रहे हो....! और फिर गणितज्ञ रामानुजम यहीं के थे कि नहीं ?’’
‘‘हाँ-हाँ, रामानुज के बारे में यहाँ के लोगों ने ही तो दुनिया को बताया था..।’’
‘‘अरे बताये कोई भी, लेकिन उसकी मिट्टी तो यही थी न ! तुम्हें यह बात बुरी क्यों लग रही है ? कुम्भकोणम का पाप कुम्भकोणम में ही धुलेगा।..’’
‘‘लेकिन हम तो देखते हैं कि कुम्भकोणम के लोग भी काशी जाते हैं !’’
‘‘देखो आरुमुगम ! अब यह मत समझना कि हमें कुछ मालूम नहीं।’’ उन्होंने बाबू की तरफ देखकर कहा, ‘‘देखिये साहब पिछले साल वो चक्रपाणि अय्यर थे न, रिटायर्ड प्रोफेसर, तो हमें साथ लिवा ले गये। अकेले जाना था, तो सेवा-टहल के लिये साथ लिवा ले गये। उस बात पर किस तरह ताने दे रहा है यह ! देख लिया आपने। आरुमुगम, तुम तो भई छः सेकेण्ड से चूक गये बस, वरना आतलाडी नार्टन की गुट में होते।’’
‘फिर आपको यहाँ पान बनाकर कौन देता ?’’
‘‘बात तो ठीक है, आरुमुगम, देखो, तुम्हारी बात पर तो ये साहब भी मुग्ध हो गये लगता है। इन्हें पहचान रहे हो ?’’ बाबू को देखते हुए पूछ लिया।
‘‘अरे, ग्राहक हैं यहाँ के, जानता कैसे नहीं ?’’
‘‘बस इतना ही पता है इनके बारे में ?’’
‘‘तो आप ही बताइए...!’’
‘‘अरे जाओ ! तुम बातें तो ऐसी बनाते हो, जैसे शहर बेच खाओगे और इन्हें नहीं जानते ?’’
‘‘ओफ्ओ ! पण्डित जी के मुँह से कोई बात उगलवाना तो ..बस ? आप भी नहीं बताते...!’’
‘‘पिछले साल कॉलेज में नाटक हुआ था याद है ?’’
‘‘हाँ गया तो था देखने।’’
‘‘तब फिर बताओ यह कौन हैं ?’’
आरुमुगम ने मुस्कराकर बाबू को पहचानने की कोशिश की।
‘‘अब कहिए...!’’
‘‘रुकिये तो...’’
‘‘अरे कितनी देर लगाओगे ? पता नहीं ? लीलावती बने थे...।’’
‘‘अरे हाँ..ये तो पहचान में ही नहीं आ रहे !’’
‘‘बस यही तो खूबी है, क्या गला था ! कितना गमक दिया था, और क्या आलाप लिया था। फुलझड़ी की तरह खन्न से बरसती आवाज थी। क्या लोच था गले में ! हम तो आगे ही बैठे थे। हमारे पास मृदंगम सामी पिल्लै बैठे थे। आपका गाना सुनकर तो वे लट्टू हो गये। हमसे बोले, यह छोकरी कौन है ? हमने कहा यह छोकरी नहीं, छोकरा है। वे तो चौंक गये। विश्वास ही नहीं हुआ उन्हें। बोले, हमने तो अनन्त नारायण अय्यर, कल्याण रामैय्यर को भी नाचते देखा है, पर लौंडा तो लगता है उनसे भी आगे निकल जायेगा। औरत की तरह लजाना, शरमाना, इठलाना, लटके-झटके, सबकुछ अद्भुत था। भई, हम तो देखते ही रह गये। क्यों साबह, साड़ी पहनने के बाद आप लोग क्या औरत की तरह हो जाते हैं ?’’
बाबू कुछ नहीं बोला। मुसकुरा भर दिया। इतनी प्रशंसा पाकर वह सकुचा गया।
‘‘और वह जो कन्धे झटकाकर मुँह बिराया था आपने.. और हाँ, महाराज को देखकर, आँखें जिस तरह मटकायीं थीं...हमने भी लाख कोशिश की, बना ही नहीं।’’
‘‘हमने भी का क्या मतलब ? समझ में नहीं आया।’’
आरुमुगम ने रोक दिया-‘‘चुप भी करो। ये तो जन्मजात कलाकार हैं। इसके लिए तो ईश्वर की कृपा चाहिए।...आप तो नाच भी अच्छा लेते हैं।..कुछ भी कहिए. इन पर ईश्वर की कृपा है। यह सबके वश का है भी नहीं। उस दिन कानडा को षड्ज में ले जाकर मूर्च्छना दी फिर नीचे कोमल गन्धार पर उतार कर एकदम से ऊपर उठाया---अहा !’’
‘‘अरे ! पण्डित जी को तो संगीत का भी खासा ज्ञान है !’’ आरुमुगम ने फिर छेड़ा।
‘‘चुप भी करो यार ! उस दिन अगर इनसे कानडा सुन लिया होता तो धन्य हो जाते ! ये बस आज ही संगीत सीखना शुरू कर दें तो जो कौओं की तरह काँव-काँव कर रहे हैं, बोलती बन्द हो जाये उन लोगों की।’’
शास्त्री जी आगे भी कुछ बोलते पर सामने होटल से निकलते कुछ लड़के तम्बाकू लेने आरुमुगम की दुकान पर आ गये।
‘‘ठीक है, तो तुम धन्धा सँभालो। मैं चला। चलता हूँ साहब !’’ बाबू से विदा लेकर शास्त्री जी ने साइकिल आगे बढ़ायी तब तक तिरुवैपारु की बस भौंड़े तरीके से हॉर्न बजाती, फिर धूल उड़ाती निकल गयी।
‘‘आज तो जाने का मुहुर्त ही नहीं बन रहा है..।’’ शास्त्री जी फिर रुक गये।
‘‘अब पाँच मिनट यहाँ से निकलते नहीं बनेगा। मैसूर में तो सड़कों में सीमेण्ट पड़ गया। पता नहीं यहाँ कब वह वक्त आयेगा। हमारे रहते तो भरने से रहा।’’
घोर अन्याय है। यहाँ इसी धूल में सोहन हलुआ और पान..सब बेचे जा रहे हैं। हम भी इलायची की ख़ुशबू के साथ इन्हें निगल जाते हैं। अच्छा हुआ, हमारा मोहल्ला तो आगे है, आप कहाँ रह रहे हैं ?’’
‘‘कॉलेज के सामने ?’’
‘‘सत्यानाश ! वह तो कचहरी वाली सड़क है न ! वहाँ भी धूल की कमी कहाँ होगी ? कौन-सा मकान है ?’’
‘‘सुब्बैया के मकान के आगे वाला मकान।’’
‘‘तो कैलाशम का मकान है क्या ?’’
‘‘हाँ...।’’
‘‘वहाँ किराये पर उठाने के लिए कमरे हैं क्या ?’’
‘‘न, एक कमरा है मेरे पास।’’
‘‘क्यों, माँ-बाबा के साथ नहीं है ?’’
‘‘न...।’’
‘‘खाना-पीना ? गणपति लॉज ?’’
‘‘नहीं, वहीं पड़ोस में एक रिश्तेदार हैं। उनके यहाँ पैसे देकर खा रहा हूँ।’’
‘‘पड़ोस का मतलब ! आगे वाला या पहले वाला ?’’
‘‘आगे वाला..।’’
‘‘तो नीलू दादी का घर होगा।’’
‘‘हाँ, वहीं।’’
‘‘उनका बेटा भी तो बीमा एजेण्ट है।’’
‘‘आपके रिश्तेदार हैं ?’’
‘‘हाँ, रिश्ता ही समझ लीजिए। दूर का रिश्ता है।’’
‘‘तो आप कहाँ के हैं।’’
‘‘किलिमंगलम के।’’
‘‘किलिमंगलम ? हम जानते हैं।’’ पता नहीं कौन-सा किलिमंगलम हो।
‘‘वहाँ तो वैत्ती नाम के एक सज्जन भजन-कीर्तन करते हैं, वही वाला तो नहीं ?’’
‘‘हाँ, वही। वैत्ती मेरे पिता हैं।’’
‘‘क्या कहा, आप वैत्ती के बेटे हैं ?’’
‘‘हाँ...।’’
‘‘तभी तो, बेटा बाप से बढ़कर निकला। हम तो पहले ही समझ गये थे कि संगीत का असर तो खानदानी होना चाहिए। वरना इतनी जानकारी कहाँ से आती ? तो आप वैत्ती के बेटे हैं। वे किलिमंगलम में हैं क्या ? पहले काफी दिनों तक तंजौर में थे न ?’’
‘‘अब तंजौर में नहीं है। पापनाशम में आ गये हैं हम लोग।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘वे भी काफी बूढ़े़ हो गये हैं। अब कुछ होता नहीं उनसे। पापनाशम में एक मकान सस्ते में मिल गया खरीद लिया।’’
‘‘पिता जी ठीक तो हैं न !’’
‘‘ठीक क्या ? अब तो उम्र हो गयी।’’
‘‘आपके पिता जी की आवाज तो गजब की थी, तानपूरे की तरह। वे भले ही न गायें बस एक अलाप ले लें...ऐसी खनक गूँजेगी कि बस। भीतर तक उतर जाती है उनकी आवाज़।
‘‘पर अब कुछ नहीं होता उनसे। गाते-गाते तो अब पेट में दर्द अलग से शुरू हो जाता है। पेट के दर्द से तड़पने लगते हैं।’’
‘‘अब इतने दिनों तक लगातार गाते रहे, तो होना भी और क्या था। यूँ भी डेढ़ हड्डी के हैं। ये सारे मुस्टण्डे ब्राण्डी पी-पीकर मुटा रहे हैं। यह भी नहीं जानते क्या गाते हैं। किस भाषा में गा रहे हैं। उन्हें तो कुछ होता नहीं। और तुम्हारे पिता ने तो भक्ति-संगीत की इस धारा से नहलाया है प्रभु को और सारे दुःख-दर्द वे झेल रहे हैं ! प्रभु की लीला भी कुछ समझ में नहीं आती। इलाज तो चल रहा होगा ?’’
‘‘इलाज में कोई कसर हम लोगों ने नहीं छोड़ी-खेतों से जितना भी आता है, वह वैद्य के खाते में जमा हो जाता हैं। इंजेक्शन, टेबलेट, सिन्दूर...जाने क्या-क्या ! बस उतनी देर के लिए उन्हें आराम आ जाता है। जहाँ एकाध दिन परहेज भूले, फिर वही दर्द।’’
‘‘खून की कमी हो जाये तो यही दिक्कत है, दवा भी जल्दी असर नहीं करती। क्या गाते थे ! अरुणाचल के पद तो रटे हुए थे उन्हें। किस तरह भाव-विभोर होकर गाते थे ! हमारा तो उनसे सीधा परिचय कभी नहीं रहा।’’ कुछ क्षण चुप रहे शास्त्री जी, फिर बोले, ‘‘पापानाशम जाना हुआ तो उनसे मिलूँगा ज़रूर। यहाँ कभी आयें तो खबर कर दीजिएगा। दर्शन हो जायेंगे। उन्हें गाते भले न सुन पाऊँ, दर्शन-लाभ तो पा जाऊँगा। पर आप भी तो बहुत अच्छा गाते हैं। वहाँ कमरे में रियाज की सुविधा तो होगी न !’’
‘‘न, उसमें कोई दिक्कत नहीं होती !’’
‘‘हाँ, होनी भी नहीं चाहिए। कैलाशम अच्छा आदमी है। पैसे के लिए मरता ज़रूर है। पहली तारीख होते ही किराया लेने पठान की तरह दरवाजे पर आ जायेगा। लेकिन किसी के पचड़े में नहीं पड़ता...लेकिन एक बात कहूँ ! आप जिस कमरे में रहते हैं न ! वह कमरा बहुत ही भाग्यशाली है। वहाँ जो भी रहा, बहुत ऊँची जगह पहुँच गया। मूर्ति को ही लीजिए, यहीं रहा, आज जाने यू.पी. या बिहार ...कहीं पर कलेक्टर है। शंकरन भी यहीं था, आज दिल्ली में डिप्टी सेक्रेटरी है। आप भी किसी दिन बहुत बड़े आदमी बनेंगे।...संगीत की शिक्षा नहीं चल रही है ?’’
‘‘न, शुरू करनी है।’’
‘‘तो अभी तक किसी से सीखा ही नहीं ?’’
‘‘शुरूआत तो की थी, पर नियमित कुछ नहीं चल पाया।’’
‘‘तो फिर अभी से सीखना शुरू कर देना चाहिए। जहाँ शादी हुई, दो-चार बच्चे हुए, बस फिर तो नून-तेल में ही जिन्दगी खप जायेगी।’’
शास्त्री जी बात आगे बढ़ाते पर धूल शान्त हो गयी थी। तभी आरुमुगम ने पूछ लिया, ‘‘अभी बात पूरी नहीं हुई क्या ?’’
‘‘चल रहा हूँ भई, देर तो हमें भी हो रही है।...तो चलूँ। आपके कमरे पर किसी दिन आऊँगा। लेकिन यह मत सोच लीजिएगा कि आपको तंग कर रहा हूँ। मैं भी शिष्टाचार समझता हूँ।’’
‘‘अरे नहीं, सुबह अमूमन कमरे पर ही मिलूँगा। आप आइएगा ज़रूर ।’’
शास्त्री जी साइकिल पर सवार हो गये। कोई बस नहीं गुजरी, अच्छा ही हुआ। वे चौराहे का चक्कर लगाते हुए बड़ी गली की ओर मुड़ गये। उनकी साइकिल जब तक आँखों से ओझल नहीं हुई वह उस दिशा की ओर देखता ही रहा। उनकी निश्छल हँसी और अनौपचारिक बातें जैसे दिमाग़ से हट नहीं रही थीं। ऊँचा पूरा क़द, तिकोना चेहरा, चौड़ी छाती, कावेरी में धुली धोती पीली पड़ गयी थी। कितने गठे हुए थे उनके पैर। कितने मज़बूत ! जिस मित्र की प्रतीक्षा बाबू कर रहा था वह नहीं आया। गाँधी पार्क के भीतर जाने के लिए उसने चौराहा पार किया। बड़ी गली में काफ़ी भीड़ थी। नवरात्र के दिन जो थे। महिलाओं और कन्याओं की भीड़ पूर्व से पश्चिम की ओर आ-जा रही थी। शाम की पीली धूप उनके चेहरे को सुनहरा करती हुई सरक रही थी। रेशमी साड़ियाँ, आभूषण और खिलखिलाहटों से बाबू का ध्यान नहीं बँटा। मन तो जैसे कहीं भटक रहा था। शास्त्री जी की बातों ने उसे उदास कर दिया था। घर से निकलते वक़्त जो उत्साह था, वह जाने कहाँ गुम हो गया ! कुछ छूट जाने का एहसास रह-रहकर मन को बेध रहा था। पैर जैसे भारी होने लगे थे। एक बार मन हुआ, कमरे पर लौट जाये। लगा, कहीं बैठ जाये या फिर लेट जाये। गाँधी पार्क के अन्दर वह निकल गया।
पार्क में हमेशा की तरह भीड़ थी। लोग इधर-उधर घास और रेत में बैठे बतिया रहे थे-शब्दों से तम्बाकू को चबाते हुए। कुम्भकोणम के वासियों के लिए गाँधी पार्क ही तो समुद्र का किनारा है। गेट को पार करके भीतर जाते हुए बाबू ने ध्यान से उत्तर पश्चिम की ओर बने घास के मैदान की ओर देखा। उसका मित्र वहाँ भी नहीं था। कुछ देर रुककर चारों ओर नज़र घुमायी। वह जानता है कि राजम इस स्थान को छोड़कर कहीं और नहीं बैठता। पर मन जितना उदास था, उसे लगा, एक बार उससे मिल भर ले, इसी वक़्त।
एक बार फिर उसने चारों ओर देखा। थोड़ी ही दूर पर एक सज्जन ज़ोर से अखबार पढ़ रहे थे। उनके आस-पास बीस-तीस लोग बैठे उन्हें सुन रहे थे। यह एक गुट है जिनमें बुनकर, घड़ी-साज, मवेशी दलाल और एकाध दिहाड़ी मज़दूर भी थे। पाँच बजे ये लोग एक स्थान पर इकट्ठा होते-समाचारों पर कुछ विचारोत्तेजक मुद्दों पर बहस करते। तेज़ बारिश उन्हें रोक सके तो रोक ले, वरना उन्हें वहाँ आने से कोई रोक नहीं सकता। आँधी और ठण्ड से घबराने वाले लोग नहीं हैं ये। बाबू चुपचाप आगे बढ़ गया। इण्टर कॉलेज के लड़कों का एक झुण्ड-पाँच-सौ-चार खेल रहा था। एक लड़के ने तम्बाकू चबाते हुए बाबू को सिर उठाकर देखा, गुड मार्निंग का संकेत किया। और ताश के पत्तों में उलझ गया। बाबू उत्तर-पश्चिम कोने पर बैठ गया। यहाँ घास बहुत नहीं थी, मिट्टी भरा मैदान था। पैरों से ज़मीन को साफ़ किया और वहीं झाड़ी की आड़ में बैठ गया।
‘‘क्या हो गया पण्डित जी, सुबह-सुबह किसे गाली दे रहे हैं ?’’ दुकानदार आरुमुगम ने छेड़ा।
‘‘अरे काहे की गाली-गलौज ! कुछ नहीं।’’
‘‘फिर क्या कह रहे थे ?’’
‘‘कुछ नहीं स्थल-माहात्म्य सुना रहा था।’’
‘‘अरे तो, हमारी बोली में समझाइए न !’’
‘‘मतलब यह है, कि संसार में किसी भी देश में किसी भी स्थान पर कोई पाप हो जाये तो काशी प्रवास उस पाप को धो देगा। और अगर काशी में कोई पाप हो जाये तो कुम्भकोण के इसी माघी कुण्ड में डुबकी लेने से धुल जायेगा।’’
‘‘कहाँ ? यहाँ ! इस कीचड़ में ?’’
‘‘ऐसा मत कहो। अपनी महापालिका उसमें दवाइयाँ डलवाती है कि नहीं ?’’
‘‘तभी तो असली नाले का मजा आता है।’’
‘‘अरे कहाँ की दुर्गन्ध या सुगन्ध। पहले दुर्गन्ध जैसा ही कुछ समझ में आता है। धीरे-धीरे जब आदत पड़ जाती है, तो फिर सब ठीक हो जाता है।
‘‘मतलब कुण्ड की बदबू झेलनी ही पड़ेगी, क्यों ?’’
‘‘अरे, तुम तो यहाँ के कुण्ड और कुम्भकोणम की बुराई करने लगे। तनिक बाहर निकलकर देखो, मद्रास ही हो आओ एक बार, पता चल जायेगा।’’
‘‘क्या पता चल जायेगा ?’’
‘‘वही कुम्भकोणम की सुपारी, डोसा, नारियल की चटनी, रेशमी साड़ियाँ, वाक्यपटुता....’’
‘‘और चार-सौ बीसी...’’
‘‘हाँ.. कह लो ! रामस्वामी के मन्दिर का एक खम्भा भर कोई परदेशी देख ले, फिर कहाँ याद रहेगी यहाँ की दुर्गन्ध या चार-सौ-बीसी ! अब तुम्हें ही देख लो..कैसा बीड़ा बना रहे हो....! और फिर गणितज्ञ रामानुजम यहीं के थे कि नहीं ?’’
‘‘हाँ-हाँ, रामानुज के बारे में यहाँ के लोगों ने ही तो दुनिया को बताया था..।’’
‘‘अरे बताये कोई भी, लेकिन उसकी मिट्टी तो यही थी न ! तुम्हें यह बात बुरी क्यों लग रही है ? कुम्भकोणम का पाप कुम्भकोणम में ही धुलेगा।..’’
‘‘लेकिन हम तो देखते हैं कि कुम्भकोणम के लोग भी काशी जाते हैं !’’
‘‘देखो आरुमुगम ! अब यह मत समझना कि हमें कुछ मालूम नहीं।’’ उन्होंने बाबू की तरफ देखकर कहा, ‘‘देखिये साहब पिछले साल वो चक्रपाणि अय्यर थे न, रिटायर्ड प्रोफेसर, तो हमें साथ लिवा ले गये। अकेले जाना था, तो सेवा-टहल के लिये साथ लिवा ले गये। उस बात पर किस तरह ताने दे रहा है यह ! देख लिया आपने। आरुमुगम, तुम तो भई छः सेकेण्ड से चूक गये बस, वरना आतलाडी नार्टन की गुट में होते।’’
‘फिर आपको यहाँ पान बनाकर कौन देता ?’’
‘‘बात तो ठीक है, आरुमुगम, देखो, तुम्हारी बात पर तो ये साहब भी मुग्ध हो गये लगता है। इन्हें पहचान रहे हो ?’’ बाबू को देखते हुए पूछ लिया।
‘‘अरे, ग्राहक हैं यहाँ के, जानता कैसे नहीं ?’’
‘‘बस इतना ही पता है इनके बारे में ?’’
‘‘तो आप ही बताइए...!’’
‘‘अरे जाओ ! तुम बातें तो ऐसी बनाते हो, जैसे शहर बेच खाओगे और इन्हें नहीं जानते ?’’
‘‘ओफ्ओ ! पण्डित जी के मुँह से कोई बात उगलवाना तो ..बस ? आप भी नहीं बताते...!’’
‘‘पिछले साल कॉलेज में नाटक हुआ था याद है ?’’
‘‘हाँ गया तो था देखने।’’
‘‘तब फिर बताओ यह कौन हैं ?’’
आरुमुगम ने मुस्कराकर बाबू को पहचानने की कोशिश की।
‘‘अब कहिए...!’’
‘‘रुकिये तो...’’
‘‘अरे कितनी देर लगाओगे ? पता नहीं ? लीलावती बने थे...।’’
‘‘अरे हाँ..ये तो पहचान में ही नहीं आ रहे !’’
‘‘बस यही तो खूबी है, क्या गला था ! कितना गमक दिया था, और क्या आलाप लिया था। फुलझड़ी की तरह खन्न से बरसती आवाज थी। क्या लोच था गले में ! हम तो आगे ही बैठे थे। हमारे पास मृदंगम सामी पिल्लै बैठे थे। आपका गाना सुनकर तो वे लट्टू हो गये। हमसे बोले, यह छोकरी कौन है ? हमने कहा यह छोकरी नहीं, छोकरा है। वे तो चौंक गये। विश्वास ही नहीं हुआ उन्हें। बोले, हमने तो अनन्त नारायण अय्यर, कल्याण रामैय्यर को भी नाचते देखा है, पर लौंडा तो लगता है उनसे भी आगे निकल जायेगा। औरत की तरह लजाना, शरमाना, इठलाना, लटके-झटके, सबकुछ अद्भुत था। भई, हम तो देखते ही रह गये। क्यों साबह, साड़ी पहनने के बाद आप लोग क्या औरत की तरह हो जाते हैं ?’’
बाबू कुछ नहीं बोला। मुसकुरा भर दिया। इतनी प्रशंसा पाकर वह सकुचा गया।
‘‘और वह जो कन्धे झटकाकर मुँह बिराया था आपने.. और हाँ, महाराज को देखकर, आँखें जिस तरह मटकायीं थीं...हमने भी लाख कोशिश की, बना ही नहीं।’’
‘‘हमने भी का क्या मतलब ? समझ में नहीं आया।’’
आरुमुगम ने रोक दिया-‘‘चुप भी करो। ये तो जन्मजात कलाकार हैं। इसके लिए तो ईश्वर की कृपा चाहिए।...आप तो नाच भी अच्छा लेते हैं।..कुछ भी कहिए. इन पर ईश्वर की कृपा है। यह सबके वश का है भी नहीं। उस दिन कानडा को षड्ज में ले जाकर मूर्च्छना दी फिर नीचे कोमल गन्धार पर उतार कर एकदम से ऊपर उठाया---अहा !’’
‘‘अरे ! पण्डित जी को तो संगीत का भी खासा ज्ञान है !’’ आरुमुगम ने फिर छेड़ा।
‘‘चुप भी करो यार ! उस दिन अगर इनसे कानडा सुन लिया होता तो धन्य हो जाते ! ये बस आज ही संगीत सीखना शुरू कर दें तो जो कौओं की तरह काँव-काँव कर रहे हैं, बोलती बन्द हो जाये उन लोगों की।’’
शास्त्री जी आगे भी कुछ बोलते पर सामने होटल से निकलते कुछ लड़के तम्बाकू लेने आरुमुगम की दुकान पर आ गये।
‘‘ठीक है, तो तुम धन्धा सँभालो। मैं चला। चलता हूँ साहब !’’ बाबू से विदा लेकर शास्त्री जी ने साइकिल आगे बढ़ायी तब तक तिरुवैपारु की बस भौंड़े तरीके से हॉर्न बजाती, फिर धूल उड़ाती निकल गयी।
‘‘आज तो जाने का मुहुर्त ही नहीं बन रहा है..।’’ शास्त्री जी फिर रुक गये।
‘‘अब पाँच मिनट यहाँ से निकलते नहीं बनेगा। मैसूर में तो सड़कों में सीमेण्ट पड़ गया। पता नहीं यहाँ कब वह वक्त आयेगा। हमारे रहते तो भरने से रहा।’’
घोर अन्याय है। यहाँ इसी धूल में सोहन हलुआ और पान..सब बेचे जा रहे हैं। हम भी इलायची की ख़ुशबू के साथ इन्हें निगल जाते हैं। अच्छा हुआ, हमारा मोहल्ला तो आगे है, आप कहाँ रह रहे हैं ?’’
‘‘कॉलेज के सामने ?’’
‘‘सत्यानाश ! वह तो कचहरी वाली सड़क है न ! वहाँ भी धूल की कमी कहाँ होगी ? कौन-सा मकान है ?’’
‘‘सुब्बैया के मकान के आगे वाला मकान।’’
‘‘तो कैलाशम का मकान है क्या ?’’
‘‘हाँ...।’’
‘‘वहाँ किराये पर उठाने के लिए कमरे हैं क्या ?’’
‘‘न, एक कमरा है मेरे पास।’’
‘‘क्यों, माँ-बाबा के साथ नहीं है ?’’
‘‘न...।’’
‘‘खाना-पीना ? गणपति लॉज ?’’
‘‘नहीं, वहीं पड़ोस में एक रिश्तेदार हैं। उनके यहाँ पैसे देकर खा रहा हूँ।’’
‘‘पड़ोस का मतलब ! आगे वाला या पहले वाला ?’’
‘‘आगे वाला..।’’
‘‘तो नीलू दादी का घर होगा।’’
‘‘हाँ, वहीं।’’
‘‘उनका बेटा भी तो बीमा एजेण्ट है।’’
‘‘आपके रिश्तेदार हैं ?’’
‘‘हाँ, रिश्ता ही समझ लीजिए। दूर का रिश्ता है।’’
‘‘तो आप कहाँ के हैं।’’
‘‘किलिमंगलम के।’’
‘‘किलिमंगलम ? हम जानते हैं।’’ पता नहीं कौन-सा किलिमंगलम हो।
‘‘वहाँ तो वैत्ती नाम के एक सज्जन भजन-कीर्तन करते हैं, वही वाला तो नहीं ?’’
‘‘हाँ, वही। वैत्ती मेरे पिता हैं।’’
‘‘क्या कहा, आप वैत्ती के बेटे हैं ?’’
‘‘हाँ...।’’
‘‘तभी तो, बेटा बाप से बढ़कर निकला। हम तो पहले ही समझ गये थे कि संगीत का असर तो खानदानी होना चाहिए। वरना इतनी जानकारी कहाँ से आती ? तो आप वैत्ती के बेटे हैं। वे किलिमंगलम में हैं क्या ? पहले काफी दिनों तक तंजौर में थे न ?’’
‘‘अब तंजौर में नहीं है। पापनाशम में आ गये हैं हम लोग।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘वे भी काफी बूढ़े़ हो गये हैं। अब कुछ होता नहीं उनसे। पापनाशम में एक मकान सस्ते में मिल गया खरीद लिया।’’
‘‘पिता जी ठीक तो हैं न !’’
‘‘ठीक क्या ? अब तो उम्र हो गयी।’’
‘‘आपके पिता जी की आवाज तो गजब की थी, तानपूरे की तरह। वे भले ही न गायें बस एक अलाप ले लें...ऐसी खनक गूँजेगी कि बस। भीतर तक उतर जाती है उनकी आवाज़।
‘‘पर अब कुछ नहीं होता उनसे। गाते-गाते तो अब पेट में दर्द अलग से शुरू हो जाता है। पेट के दर्द से तड़पने लगते हैं।’’
‘‘अब इतने दिनों तक लगातार गाते रहे, तो होना भी और क्या था। यूँ भी डेढ़ हड्डी के हैं। ये सारे मुस्टण्डे ब्राण्डी पी-पीकर मुटा रहे हैं। यह भी नहीं जानते क्या गाते हैं। किस भाषा में गा रहे हैं। उन्हें तो कुछ होता नहीं। और तुम्हारे पिता ने तो भक्ति-संगीत की इस धारा से नहलाया है प्रभु को और सारे दुःख-दर्द वे झेल रहे हैं ! प्रभु की लीला भी कुछ समझ में नहीं आती। इलाज तो चल रहा होगा ?’’
‘‘इलाज में कोई कसर हम लोगों ने नहीं छोड़ी-खेतों से जितना भी आता है, वह वैद्य के खाते में जमा हो जाता हैं। इंजेक्शन, टेबलेट, सिन्दूर...जाने क्या-क्या ! बस उतनी देर के लिए उन्हें आराम आ जाता है। जहाँ एकाध दिन परहेज भूले, फिर वही दर्द।’’
‘‘खून की कमी हो जाये तो यही दिक्कत है, दवा भी जल्दी असर नहीं करती। क्या गाते थे ! अरुणाचल के पद तो रटे हुए थे उन्हें। किस तरह भाव-विभोर होकर गाते थे ! हमारा तो उनसे सीधा परिचय कभी नहीं रहा।’’ कुछ क्षण चुप रहे शास्त्री जी, फिर बोले, ‘‘पापानाशम जाना हुआ तो उनसे मिलूँगा ज़रूर। यहाँ कभी आयें तो खबर कर दीजिएगा। दर्शन हो जायेंगे। उन्हें गाते भले न सुन पाऊँ, दर्शन-लाभ तो पा जाऊँगा। पर आप भी तो बहुत अच्छा गाते हैं। वहाँ कमरे में रियाज की सुविधा तो होगी न !’’
‘‘न, उसमें कोई दिक्कत नहीं होती !’’
‘‘हाँ, होनी भी नहीं चाहिए। कैलाशम अच्छा आदमी है। पैसे के लिए मरता ज़रूर है। पहली तारीख होते ही किराया लेने पठान की तरह दरवाजे पर आ जायेगा। लेकिन किसी के पचड़े में नहीं पड़ता...लेकिन एक बात कहूँ ! आप जिस कमरे में रहते हैं न ! वह कमरा बहुत ही भाग्यशाली है। वहाँ जो भी रहा, बहुत ऊँची जगह पहुँच गया। मूर्ति को ही लीजिए, यहीं रहा, आज जाने यू.पी. या बिहार ...कहीं पर कलेक्टर है। शंकरन भी यहीं था, आज दिल्ली में डिप्टी सेक्रेटरी है। आप भी किसी दिन बहुत बड़े आदमी बनेंगे।...संगीत की शिक्षा नहीं चल रही है ?’’
‘‘न, शुरू करनी है।’’
‘‘तो अभी तक किसी से सीखा ही नहीं ?’’
‘‘शुरूआत तो की थी, पर नियमित कुछ नहीं चल पाया।’’
‘‘तो फिर अभी से सीखना शुरू कर देना चाहिए। जहाँ शादी हुई, दो-चार बच्चे हुए, बस फिर तो नून-तेल में ही जिन्दगी खप जायेगी।’’
शास्त्री जी बात आगे बढ़ाते पर धूल शान्त हो गयी थी। तभी आरुमुगम ने पूछ लिया, ‘‘अभी बात पूरी नहीं हुई क्या ?’’
‘‘चल रहा हूँ भई, देर तो हमें भी हो रही है।...तो चलूँ। आपके कमरे पर किसी दिन आऊँगा। लेकिन यह मत सोच लीजिएगा कि आपको तंग कर रहा हूँ। मैं भी शिष्टाचार समझता हूँ।’’
‘‘अरे नहीं, सुबह अमूमन कमरे पर ही मिलूँगा। आप आइएगा ज़रूर ।’’
शास्त्री जी साइकिल पर सवार हो गये। कोई बस नहीं गुजरी, अच्छा ही हुआ। वे चौराहे का चक्कर लगाते हुए बड़ी गली की ओर मुड़ गये। उनकी साइकिल जब तक आँखों से ओझल नहीं हुई वह उस दिशा की ओर देखता ही रहा। उनकी निश्छल हँसी और अनौपचारिक बातें जैसे दिमाग़ से हट नहीं रही थीं। ऊँचा पूरा क़द, तिकोना चेहरा, चौड़ी छाती, कावेरी में धुली धोती पीली पड़ गयी थी। कितने गठे हुए थे उनके पैर। कितने मज़बूत ! जिस मित्र की प्रतीक्षा बाबू कर रहा था वह नहीं आया। गाँधी पार्क के भीतर जाने के लिए उसने चौराहा पार किया। बड़ी गली में काफ़ी भीड़ थी। नवरात्र के दिन जो थे। महिलाओं और कन्याओं की भीड़ पूर्व से पश्चिम की ओर आ-जा रही थी। शाम की पीली धूप उनके चेहरे को सुनहरा करती हुई सरक रही थी। रेशमी साड़ियाँ, आभूषण और खिलखिलाहटों से बाबू का ध्यान नहीं बँटा। मन तो जैसे कहीं भटक रहा था। शास्त्री जी की बातों ने उसे उदास कर दिया था। घर से निकलते वक़्त जो उत्साह था, वह जाने कहाँ गुम हो गया ! कुछ छूट जाने का एहसास रह-रहकर मन को बेध रहा था। पैर जैसे भारी होने लगे थे। एक बार मन हुआ, कमरे पर लौट जाये। लगा, कहीं बैठ जाये या फिर लेट जाये। गाँधी पार्क के अन्दर वह निकल गया।
पार्क में हमेशा की तरह भीड़ थी। लोग इधर-उधर घास और रेत में बैठे बतिया रहे थे-शब्दों से तम्बाकू को चबाते हुए। कुम्भकोणम के वासियों के लिए गाँधी पार्क ही तो समुद्र का किनारा है। गेट को पार करके भीतर जाते हुए बाबू ने ध्यान से उत्तर पश्चिम की ओर बने घास के मैदान की ओर देखा। उसका मित्र वहाँ भी नहीं था। कुछ देर रुककर चारों ओर नज़र घुमायी। वह जानता है कि राजम इस स्थान को छोड़कर कहीं और नहीं बैठता। पर मन जितना उदास था, उसे लगा, एक बार उससे मिल भर ले, इसी वक़्त।
एक बार फिर उसने चारों ओर देखा। थोड़ी ही दूर पर एक सज्जन ज़ोर से अखबार पढ़ रहे थे। उनके आस-पास बीस-तीस लोग बैठे उन्हें सुन रहे थे। यह एक गुट है जिनमें बुनकर, घड़ी-साज, मवेशी दलाल और एकाध दिहाड़ी मज़दूर भी थे। पाँच बजे ये लोग एक स्थान पर इकट्ठा होते-समाचारों पर कुछ विचारोत्तेजक मुद्दों पर बहस करते। तेज़ बारिश उन्हें रोक सके तो रोक ले, वरना उन्हें वहाँ आने से कोई रोक नहीं सकता। आँधी और ठण्ड से घबराने वाले लोग नहीं हैं ये। बाबू चुपचाप आगे बढ़ गया। इण्टर कॉलेज के लड़कों का एक झुण्ड-पाँच-सौ-चार खेल रहा था। एक लड़के ने तम्बाकू चबाते हुए बाबू को सिर उठाकर देखा, गुड मार्निंग का संकेत किया। और ताश के पत्तों में उलझ गया। बाबू उत्तर-पश्चिम कोने पर बैठ गया। यहाँ घास बहुत नहीं थी, मिट्टी भरा मैदान था। पैरों से ज़मीन को साफ़ किया और वहीं झाड़ी की आड़ में बैठ गया।
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