विविध >> वैतरणी वैतरणीवसिरेड्डी सीता देवी
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नेशनल बुक ट्रस्ट की सतत् शिक्षा पुस्तकमाला सीरीज़ के अन्तर्गत एक रोचक पुस्तक
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
वैतरणी
ऊषा देवी ने अपने घूंघट से झांककर गांव के लोगों को देखा।
उसकी मुस्कान का उजाला धीरे-धीरे आकाश में फैल गया।
उसके रक्त-वर्ण गालों की लाली से पूरब दिशा का आकाश लालिमा से भर गया।
"अरे भागवान ! और कितनी देर करोगी ? भद्रैया जी की बैलगाड़ी भी चली गयी। एक तुम हो कि जल्दी तैयार होकर निकलती ही नहीं !" बैलगाड़ी में जुते बैल की पीठ थपथपाते हुए माधवैया ने पुकारा।
"अभी आई !" अन्दर से पुन्नम्मा की आवाज़ सुनाई दी।
माधवैया ने बच्चों से कहा, "तुम लोग पहले गाड़ी में बैठ जाओ।"
माधवैया का बड़ा बेटा सुब्बारायुडु पन्द्रह साल का किशोर था। जल्दी से गाड़ी में बैठ गया।
दूसरा लड़का रामदास तेरह साल का था। उसे गाड़ी में चढ़ने में दिक्कत हो रही थी, तो किसान मज़दूर ने उसे चढ़ा दिया।
तीसरा बेटा ग्यारह साल का था। उसका नाम नागभूषणम् था। उसे भी किसान मज़ूदर ने चढ़ाया।
सात साल का सत्यनारायण चौथा था। पिता ने उसे गोद में लिया और गाड़ी के अगले भाग में बिठाया।
गाड़ी में बैठे तीनों लड़के पीछे बैठने के लिए लड़ रहे थे। पैर लटकाककर पीछे बैठना उन्हें अच्छा लगता था।
‘‘सुब्बाराजुडू, तू पीछे बैठ ! और तुम दोनों गाड़ी के अन्दर बैठो। छोटे हो, गाड़ी हिचकोले खाकर चलेगी तो गिर पड़ोगे !’’ माधवैया ने बेटों से कहा। माधवैया से बच्चे डरते थे। चुपचाप पिता की आज्ञा का पालन किया।
माथे पर कुमकुम का बड़ा टीका लगाए, जरी की बड़ी किनारेवाली साड़ी पहने, हाथ में दूध का लोटा लिए पुन्नम्मा आ गई।
‘‘आ गई ? चलो, जल्दी से गाड़ी में बैठो,’’ माधवैया झुंझला उठा।
‘‘अरे, इतनी भी क्या जल्दी है ?’’ पुन्नम्मा बोली। पुन्नम्मा को गाड़ी में चढ़ना कठिन लगा। पर किसी तरह चढ़कर बैठ गई।
‘‘बाबूजी, आप भी बैठिए’’ ,किसान मज़दूर ने कहा।
‘‘तू घर पर ही रुक जा। घर की रखवाली कर, गाड़ी मैं चला लूंगा,’’ कहकर माधवैया बड़ी फुर्ति से गाड़ी में बैठ गया।
छोटे आकार के नन्दी जैसे दिखनेवाले बैलों की जोड़ी मालिक के बैठते ही दौड़ पड़ी।
‘‘जरा धीरे चलाइए जी ! दूध गिरता जा रहा है,’’ पुन्नम्मा बोली।
माधवैया गांव के संपन्न किसानों में से एक था।
माधवैया और पुन्नम्मा के जीवन में एक ही कमी थी। उनकी एक भी लड़की नहीं थीं। ‘‘भई, चार लड़कों की मां हो, तुम बड़ी भाग्यवान हो जी !’’ इस तरह की बात अगर कोई करता, तो पुन्नम्मा ठंडी सांस लेकर चुप रह जाती।
उन दोनों ने लड़की के लिए सभी देवी-देवताओं से मन्नतें मांगी थीं। हर प्रकार के व्रत कर चुके थे।
नागपंचमी का दिन था। गाँव से दूर सांपों के बिल थे। उनमें दूछ डालने के लिए माधवैया का परिवार निकल पड़ा।
पुन्नम्मा बोली, ‘‘इस बार नागदेवता की कृपा से लड़की हुई तो अगले साल देवता के लिए सोने का फन बनवाऊंगी।
माधवैया ने गहरी सांस ली। बैलों को हांका। बैलों के गले में बंधी घंटियां बजने लगीं और ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर गाड़ी झूले की तरह झूलती हुई आगे बढ़ी।
सबसे छोटा लड़का सात साल का हो गया। एक अरसे के बाद पुन्नम्मा फिर से गर्भवती है। माधवैया को विश्वास नहीं था कि लड़की होगी। पर पुन्नम्मा को पूरी उम्मीद थी।
‘‘नागदेवता के आशीर्वाद से लड़की हुई, तो उसका नाम नागम्मा रखेंगे,’’ पुन्नम्मा बोली। वह दूध के लोटे को कसकर पकड़ कर बैठी थी।
माधवैया ने जवाब नहीं दिया। फिर से बैलों को हांकने लगा।
‘‘मां ! बहन का नाम नागम्मा नहीं, बालनागम्मा रखेंगे,’’ बड़े बेटे सुब्बारायुडु ने कहा।
‘‘मेरा राजा बेटा ! बहन से कितना प्यार करता है !’’ बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए, पुन्नम्मा खुश होकर बोली।
‘‘नागम्मा भी कोई नाम होता है ? बहन का कोई अच्छा-सा नाम देंगे !’’ तीसरा बेचा नागभूषणम् बड़ा तेज़-मिजाज था।
मां ने बड़े भाई की तारीफ की तो उसे बुरा लगा। वह दिखाना चाहता था कि बहन को सबसे ज्यादा वही चाहता है।
‘‘चुप, बदमाश !’’ मां ने डांट दिया। नागभूषणम् को पता न चला कि उसकी गलती क्या थी। वह मां का मुंह देखता रहा।
‘‘नागदेवता ! छोटा बच्चा है, नासमझ है, उसे माफ़ कर देना। मैं अपनी बच्ची का नाम नागम्मा ही रखूंगी,’’ पुन्नम्मा ने देवता से माफी मांगी।
‘‘अरे चुप भी रहो। अभी बच्ची हुई ही नहीं, अभी से नाम को लेकर झगड़ा करने लग गए !’’ माधवैया ने डांट दिया।
‘‘क्यों अशुभ बोलते हो जी ? पुन्न्म्मा का गला भर आया। गाड़ी गाँव से दूर स्थित ताड़ के पेड़ों के झुरमुट के पास जाकर रुक गई। वहां पर छोटे-बड़े सब मिलाकर तकरीबन दस बिल थे।
स्त्रियां बिलों पर हल्दी-कुंकुम का लेप लगाकर उनमें दूध डाल रही थीं। प्रदक्षिणा कर रही थीं। बच्चे दूर पेड़ों के पास खेल रहे थे। मर्द गाड़ियों के पास बैठकर बाते कर रहे थे।
पुन्नम्मा गाड़ी से उतरी और एक बिल की तरफ चल पड़ी। बच्चे खेलने चले गए। माधवैया ने बैलों को खोलकर गाड़ी से बांध दिया और चुरुट जलाकर बैठ गया।
उसकी मुस्कान का उजाला धीरे-धीरे आकाश में फैल गया।
उसके रक्त-वर्ण गालों की लाली से पूरब दिशा का आकाश लालिमा से भर गया।
"अरे भागवान ! और कितनी देर करोगी ? भद्रैया जी की बैलगाड़ी भी चली गयी। एक तुम हो कि जल्दी तैयार होकर निकलती ही नहीं !" बैलगाड़ी में जुते बैल की पीठ थपथपाते हुए माधवैया ने पुकारा।
"अभी आई !" अन्दर से पुन्नम्मा की आवाज़ सुनाई दी।
माधवैया ने बच्चों से कहा, "तुम लोग पहले गाड़ी में बैठ जाओ।"
माधवैया का बड़ा बेटा सुब्बारायुडु पन्द्रह साल का किशोर था। जल्दी से गाड़ी में बैठ गया।
दूसरा लड़का रामदास तेरह साल का था। उसे गाड़ी में चढ़ने में दिक्कत हो रही थी, तो किसान मज़दूर ने उसे चढ़ा दिया।
तीसरा बेटा ग्यारह साल का था। उसका नाम नागभूषणम् था। उसे भी किसान मज़ूदर ने चढ़ाया।
सात साल का सत्यनारायण चौथा था। पिता ने उसे गोद में लिया और गाड़ी के अगले भाग में बिठाया।
गाड़ी में बैठे तीनों लड़के पीछे बैठने के लिए लड़ रहे थे। पैर लटकाककर पीछे बैठना उन्हें अच्छा लगता था।
‘‘सुब्बाराजुडू, तू पीछे बैठ ! और तुम दोनों गाड़ी के अन्दर बैठो। छोटे हो, गाड़ी हिचकोले खाकर चलेगी तो गिर पड़ोगे !’’ माधवैया ने बेटों से कहा। माधवैया से बच्चे डरते थे। चुपचाप पिता की आज्ञा का पालन किया।
माथे पर कुमकुम का बड़ा टीका लगाए, जरी की बड़ी किनारेवाली साड़ी पहने, हाथ में दूध का लोटा लिए पुन्नम्मा आ गई।
‘‘आ गई ? चलो, जल्दी से गाड़ी में बैठो,’’ माधवैया झुंझला उठा।
‘‘अरे, इतनी भी क्या जल्दी है ?’’ पुन्नम्मा बोली। पुन्नम्मा को गाड़ी में चढ़ना कठिन लगा। पर किसी तरह चढ़कर बैठ गई।
‘‘बाबूजी, आप भी बैठिए’’ ,किसान मज़दूर ने कहा।
‘‘तू घर पर ही रुक जा। घर की रखवाली कर, गाड़ी मैं चला लूंगा,’’ कहकर माधवैया बड़ी फुर्ति से गाड़ी में बैठ गया।
छोटे आकार के नन्दी जैसे दिखनेवाले बैलों की जोड़ी मालिक के बैठते ही दौड़ पड़ी।
‘‘जरा धीरे चलाइए जी ! दूध गिरता जा रहा है,’’ पुन्नम्मा बोली।
माधवैया गांव के संपन्न किसानों में से एक था।
माधवैया और पुन्नम्मा के जीवन में एक ही कमी थी। उनकी एक भी लड़की नहीं थीं। ‘‘भई, चार लड़कों की मां हो, तुम बड़ी भाग्यवान हो जी !’’ इस तरह की बात अगर कोई करता, तो पुन्नम्मा ठंडी सांस लेकर चुप रह जाती।
उन दोनों ने लड़की के लिए सभी देवी-देवताओं से मन्नतें मांगी थीं। हर प्रकार के व्रत कर चुके थे।
नागपंचमी का दिन था। गाँव से दूर सांपों के बिल थे। उनमें दूछ डालने के लिए माधवैया का परिवार निकल पड़ा।
पुन्नम्मा बोली, ‘‘इस बार नागदेवता की कृपा से लड़की हुई तो अगले साल देवता के लिए सोने का फन बनवाऊंगी।
माधवैया ने गहरी सांस ली। बैलों को हांका। बैलों के गले में बंधी घंटियां बजने लगीं और ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर गाड़ी झूले की तरह झूलती हुई आगे बढ़ी।
सबसे छोटा लड़का सात साल का हो गया। एक अरसे के बाद पुन्नम्मा फिर से गर्भवती है। माधवैया को विश्वास नहीं था कि लड़की होगी। पर पुन्नम्मा को पूरी उम्मीद थी।
‘‘नागदेवता के आशीर्वाद से लड़की हुई, तो उसका नाम नागम्मा रखेंगे,’’ पुन्नम्मा बोली। वह दूध के लोटे को कसकर पकड़ कर बैठी थी।
माधवैया ने जवाब नहीं दिया। फिर से बैलों को हांकने लगा।
‘‘मां ! बहन का नाम नागम्मा नहीं, बालनागम्मा रखेंगे,’’ बड़े बेटे सुब्बारायुडु ने कहा।
‘‘मेरा राजा बेटा ! बहन से कितना प्यार करता है !’’ बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए, पुन्नम्मा खुश होकर बोली।
‘‘नागम्मा भी कोई नाम होता है ? बहन का कोई अच्छा-सा नाम देंगे !’’ तीसरा बेचा नागभूषणम् बड़ा तेज़-मिजाज था।
मां ने बड़े भाई की तारीफ की तो उसे बुरा लगा। वह दिखाना चाहता था कि बहन को सबसे ज्यादा वही चाहता है।
‘‘चुप, बदमाश !’’ मां ने डांट दिया। नागभूषणम् को पता न चला कि उसकी गलती क्या थी। वह मां का मुंह देखता रहा।
‘‘नागदेवता ! छोटा बच्चा है, नासमझ है, उसे माफ़ कर देना। मैं अपनी बच्ची का नाम नागम्मा ही रखूंगी,’’ पुन्नम्मा ने देवता से माफी मांगी।
‘‘अरे चुप भी रहो। अभी बच्ची हुई ही नहीं, अभी से नाम को लेकर झगड़ा करने लग गए !’’ माधवैया ने डांट दिया।
‘‘क्यों अशुभ बोलते हो जी ? पुन्न्म्मा का गला भर आया। गाड़ी गाँव से दूर स्थित ताड़ के पेड़ों के झुरमुट के पास जाकर रुक गई। वहां पर छोटे-बड़े सब मिलाकर तकरीबन दस बिल थे।
स्त्रियां बिलों पर हल्दी-कुंकुम का लेप लगाकर उनमें दूध डाल रही थीं। प्रदक्षिणा कर रही थीं। बच्चे दूर पेड़ों के पास खेल रहे थे। मर्द गाड़ियों के पास बैठकर बाते कर रहे थे।
पुन्नम्मा गाड़ी से उतरी और एक बिल की तरफ चल पड़ी। बच्चे खेलने चले गए। माधवैया ने बैलों को खोलकर गाड़ी से बांध दिया और चुरुट जलाकर बैठ गया।
2
उत्तर दिशा में काले बादल उमड़कर आ रहे थे। आकाश की लालिमा पर वे छाए जा
रहे थे, मानों किसी सुहागन के माथे पर सिन्दूर को कठोर कबंध का हाथ पोंछ
रहा हो।
ऐसा लग रहा था कि आकाश मटमैला है। न जाने कैसी उदासी है।
सारे संसार को प्रकाश देनेवाले सूरज को निगलने के लिए राहु अपनी अंधेरी छायाओं को फैलाता हुआ आने लगा।
लोग इधर-उधर दौड़ रहे थे। कुछ लोग कांच के टुकड़ों पर कालिख लगाकर सूर्यग्रहण को देखने की तैयारी में लगे थे। गर्भवती स्त्रियां बिना हिले-डुले लेटी थीं।
गांव की सबसे ऊंची इमारत पर बने घोंसले से कबूतरों की एक जोड़ी पंख फड़फड़ाती हुई आकाश में उड़ गई।
उस इमारत के पिछवाड़े में बनी गोशाला में गाय का बछड़ा मां का दूध पीने के लिए रंभा रहा था।
उस इमारत की पहली मंजिल पर दक्षिण की दिशा में स्थित कमरे के बाहर माधवैया बैचेन-सा बड़े-बड़े पग बढ़ाता हुआ घूम रहा था।
उसके चेहरे पर एक प्रकार का भय और मन की खुशी आपस में मिलकर एक अजीब-सा भाव प्रकट कर रहे थे।
माधवैया के चारों बेटे रोनी-सी सूरत बनाकर बैठे थे। कमरे से आ रही मां की चीख-पुकार सुनकर सत्यनारायण ने पूछा, ‘‘पिताजी ! मां क्यों रो रही है ?’’
बड़े संजीदगी से जवाब दिया, ‘‘छोटे, हमें बहन मिलनेवाली है।’’
‘‘सुनो सुब्बुलू, तुम लोग जाकर खेलो। सत्यम् को भी ले जाओ,’’ पिता ने कहा।
पिता की बात वे टालते नहीं थे। उठकर जाने लगे। पर छोटे सत्यम्, ने ज़िद की, ‘‘मुझे मां चाहिए। मां के पास जाऊंगा।’’
‘‘ठीक है, तुम तीनों जाओ,’’ बेटे को गोद में उठाते हुए माधवैया ने कहा।
कमरे से कराहने की आवाज़ और ज़ोर से आने लगी। माधवैया सांस रोककर सुन रहा था। इतने में कराहना बन्द हो गया। माधवैया ने दूर बैठे पुरोहित त्रिपुरैया की आँखों में झांककर देखा।
पुरोहित ने पचांग खोला, दीवार पर लगी घड़ी की तरफ एक बार देखा, और बोले, ‘‘अभी-अभी सूर्य ग्रहण लगा है। सूर्य भगवान राहु में फंसे हैं।’’
‘‘और कितना समय है ?’’ माधवैया ने लंबी सांस ली और पूछा।
कमरे में फिर कराहने की आवाज़ आई। गोद में बैठा बच्चा जोर से रोने लगा।’’ डरने की कोई बात नहीं है रे, मुन्ना। मत रो, अभी मां के पास जाएंगे। अरे, रामुडू !’’ माधवैया ने मज़दूर को बुलाया।
‘‘क्या है, बाबूजी ?’’ मज़दूर दौड़कर आया।
‘‘मुन्ने को ले जा। जा, मुन्ना ! रामुडू के साथ जा। जरा देख आना तो, बछड़ा क्या कर रहा है ? माधवैया बोला।
बछड़े का नाम सुनते ही बच्चा माधवैया की गोद से उतर गया और रामुडु के हाथ पकड़कर गोशाला की ओर चला।
माधवैया ने आतुर होकर पुरोहित की तरफ देखा।
त्रिपुरैया बोला, ‘‘सूर्य को विमुक्त होने में अभी सात मिनट बाकी हैं।’’
ऐसा लग रहा था कि आकाश मटमैला है। न जाने कैसी उदासी है।
सारे संसार को प्रकाश देनेवाले सूरज को निगलने के लिए राहु अपनी अंधेरी छायाओं को फैलाता हुआ आने लगा।
लोग इधर-उधर दौड़ रहे थे। कुछ लोग कांच के टुकड़ों पर कालिख लगाकर सूर्यग्रहण को देखने की तैयारी में लगे थे। गर्भवती स्त्रियां बिना हिले-डुले लेटी थीं।
गांव की सबसे ऊंची इमारत पर बने घोंसले से कबूतरों की एक जोड़ी पंख फड़फड़ाती हुई आकाश में उड़ गई।
उस इमारत के पिछवाड़े में बनी गोशाला में गाय का बछड़ा मां का दूध पीने के लिए रंभा रहा था।
उस इमारत की पहली मंजिल पर दक्षिण की दिशा में स्थित कमरे के बाहर माधवैया बैचेन-सा बड़े-बड़े पग बढ़ाता हुआ घूम रहा था।
उसके चेहरे पर एक प्रकार का भय और मन की खुशी आपस में मिलकर एक अजीब-सा भाव प्रकट कर रहे थे।
माधवैया के चारों बेटे रोनी-सी सूरत बनाकर बैठे थे। कमरे से आ रही मां की चीख-पुकार सुनकर सत्यनारायण ने पूछा, ‘‘पिताजी ! मां क्यों रो रही है ?’’
बड़े संजीदगी से जवाब दिया, ‘‘छोटे, हमें बहन मिलनेवाली है।’’
‘‘सुनो सुब्बुलू, तुम लोग जाकर खेलो। सत्यम् को भी ले जाओ,’’ पिता ने कहा।
पिता की बात वे टालते नहीं थे। उठकर जाने लगे। पर छोटे सत्यम्, ने ज़िद की, ‘‘मुझे मां चाहिए। मां के पास जाऊंगा।’’
‘‘ठीक है, तुम तीनों जाओ,’’ बेटे को गोद में उठाते हुए माधवैया ने कहा।
कमरे से कराहने की आवाज़ और ज़ोर से आने लगी। माधवैया सांस रोककर सुन रहा था। इतने में कराहना बन्द हो गया। माधवैया ने दूर बैठे पुरोहित त्रिपुरैया की आँखों में झांककर देखा।
पुरोहित ने पचांग खोला, दीवार पर लगी घड़ी की तरफ एक बार देखा, और बोले, ‘‘अभी-अभी सूर्य ग्रहण लगा है। सूर्य भगवान राहु में फंसे हैं।’’
‘‘और कितना समय है ?’’ माधवैया ने लंबी सांस ली और पूछा।
कमरे में फिर कराहने की आवाज़ आई। गोद में बैठा बच्चा जोर से रोने लगा।’’ डरने की कोई बात नहीं है रे, मुन्ना। मत रो, अभी मां के पास जाएंगे। अरे, रामुडू !’’ माधवैया ने मज़दूर को बुलाया।
‘‘क्या है, बाबूजी ?’’ मज़दूर दौड़कर आया।
‘‘मुन्ने को ले जा। जा, मुन्ना ! रामुडू के साथ जा। जरा देख आना तो, बछड़ा क्या कर रहा है ? माधवैया बोला।
बछड़े का नाम सुनते ही बच्चा माधवैया की गोद से उतर गया और रामुडु के हाथ पकड़कर गोशाला की ओर चला।
माधवैया ने आतुर होकर पुरोहित की तरफ देखा।
त्रिपुरैया बोला, ‘‘सूर्य को विमुक्त होने में अभी सात मिनट बाकी हैं।’’
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