कहानी संग्रह >> चांदनी हूं मैं चांदनी हूं मैंअमरीक सिंह दीप
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अठारह प्रेम कहानियों का संग्रह
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
संग्रह की कहानियों से
प्रिय अमरीक,
पहले ‘फ्रीडम फाइटर’ और
अब
‘तीर्थाटन’। क्या खूब कहानी है अमरीक। तुम्हारे हाथ
चूमता हूं
यार। यह मैं तुम्हारा मन रखने या उत्साह बढ़ाने के लिए नहीं, सच्चे दिल से
कह रहा हूं। अपने वाहे गुरु से अरदास करो कि कभी काशी भी ऐसी कहानी लिख
सके।
काशी नाथ सिंह
प्रिय दीप जी,
‘हंस’ के ताजा अंक में
प्रकाशित अपनी
‘तीर्थाटन’ जैसी उत्कृष्ट कहानी के लिए साधुवाद। वाकई
आपने नई
ज़मीन तोड़ी है। समग्र मौजूदा भारतीय पारिवारिक परिवेश और उसकी खुदगर्ज
‘माड’ बर्बरता इसके छोटे से कलेवर में समाहित हो उठी
है। एक
बार पुनः बधाई।
संजीव
प्रिय अमरीक जी,
आपको पढ़ना एक ऐसे संसार में प्रवेश करना है
जिसकी चाहत
लेखकों में ही नहीं हर इन्सान में होती है। संवेदना, सौन्दर्य और महानता
ऐसे विरल मूल्य हैं, जिसे लेकर हर बच्चा पैदा होता है लेकिन इस आपाधापी
समाजीकरण की प्रक्रिया में इन्हें गवां देता है। यही आपकी कहानियों की
लोकप्रियता का कारण है जिसका मैं सम्मान करती हूं और आपकी हर कहानी बेहद
चाव से पढ़ती हूं।
लवलीन
अनाज की बालों की तरह प्रेम तुम्हें अन्दर भर
लेता है।
तुम्हें नंगा करने के लिए कूटता है। तुम्हारी भूसी दूर करने के लिए
तुम्हें फटकता है। तुम्हें पीस कर श्वेत बनाता है। तुम्हें नरम बनाने तक
गूंथता है। और अब तुम्हें अपनी पवित्र अग्नि पर सेंकता है, जिससे तुम
प्रभु के पावन थाल की पवित्र रोटी बन सको।
खलील जिब्रान
आभार
हंस, अक्षर पर्व, सबरंग, कला, वर्तमान,
साहित्य, कथाक्रम,
अक्षरा, उत्तर संवाद, वैचारिकी और अमर उजाला का जिनमें ये कहानियां
प्रकाशित हुईं।
वृक्ष
उसका डाक्टर सरकार की लैब में होना तीखी
बेचैनी भरी खुशी से भर गया है।
अन्दर जैसे कोई मोर नाचने से पूर्व अपने अंग खोलने लगा हो।
फाल्गुनी जब शीशे का दरवाजा खोल प्रत्यक्ष आ खड़ी हुई हो तो वह एक पगलायी हुई अभिभूतता से भर उठा और कुछ देर पहले किये गए लैब एटेन्डेंट के सारे अप्रिय सवालों को भूल गया।
फाल्गुनी अपने सहज सादे रूप में बेहद सुन्दर लग रही है। लखनवी चिकन की फिरोज़ी रंग की कमीज और सलवार, सफ़ेद दुपट्टा। इस पोशाक में उसका दूधिया दमकता चेहरा किसी प्रखर दीप शिखा-सा लग रहा है। मस्तकान्त पर मांग की रेखा के दोनों ओर उभरे मेंहदी रंगें बालों के दो गुच्छे, जैसे उड़ने से पूर्व पर तोलती हुई तो बुलबुलें। उसकी अभिभूतता अमूर्त से नशे में बदलने लगी।
अबीर को देखकर फाल्गुनी की आंखों में रोशनी उतर आई। उसकी पानीदार पुतलियाँ उस झील की तरह हो गईं, जिसके किनारे लगी रोशनियां सहसा ही जल उठी हों। अबीर निर्वाक-सा इस झिलमिलाहट में डूबा खड़ा रहा।
फाल्गुनी ने लैब एटेन्डेंट को हिदायत दी कि वह अपनी लैब में जा रही है और थोड़ी ही देर में लौट आयेगी। वह लैब बन्द न करे।
फाल्गुनी के कहे शब्द अबीर को कहीं दूर से आते हुए प्रतीत हुए। जो उसको छू कर भी नहीं छू रहे हैं।
वह सम्मोहित-सा कपड़ों की सरसराहट और सांसों की सन्दली महक के पीछे चलने लगा है।
उसे लेकर फाल्गुनी शीशे के उपकरणों और शीशे की दीवारों से बाहर आ गई है। लैब से जुड़े गलियारे में अमोनिया गैस की गंध में घुला नम अंधेरा कुछ कदम तक उनके साथ साथ चला फिर इस अंधेरे का पल्लू गलियारे की छत पर लगी रोशनियों ने पकड़ लिया। वह अंधेरे और रोशनी की इस चितकबरी नदी में चुपचाप बहता रहा नदी में सिराये गए किसी कामना दीप-सा।
जहां अंधेरे की हद खत्म होती और रोशनी का सिलसिला शुरू होता वहां वह फाल्गुनी की ओर भरपूर नज़रों से देख लेता। उसे यूं लगता जैसे एक आदिम रहस्य उसके सामने है। संदेह। छत से झरती हुई रोशनी में डूबा। उसका निहित अर्थ इस रहस्य में ही कहीं छुपा हुआ है, जिसे पाना चाहता है, छूना चाहता है, लेकिन जो जल में रहने वाली मछली की तरह जल में रह कर भी जल के मर्म से वंचित है।
गलियारे में चलते हुए उन दोनों के बीच छोटे-छोटे संवादों के टुकड़े यूं ही कभी-कभी तितलीपन के साथ उड़ने लगते हैं। फाल्गुनी यूं भी ज्यादा बातें करना पसंद नहीं करती है। वह चुप ही रहना पसंद करती है। लेकिन उसकी चुप्पी के दौरान उसके चेहरे का एक-एक नक्श वाचाल रहता है। उसके अन्दर का अनकहा सब अक्सर उसके चेहरे की सतह पर तिर आया करता है, जिसे अबीर पकड़ने की भरपूर कोशिश करता पकड़ भी लेता है, पर फिर भी बहुत कुछ छूट जाता है। दरअसल फाल्गुनी खुद को बहुत कम खोलती है। शुरू की चन्द मुलाकातों में ही उसने कह दिया था कि वह इर्न्टोवर्टी लड़की है। अपना सब बहुमूल्य वह अपने अन्दर के तिलिस्मी किले के उस तहखाने में बंद रखती है जिस तक कोई बड़े में बड़ा अय्यार भी नहीं पहुंच सकता। इस तहखाने में बंद रखती है जिस तक कोई बड़े में बड़ा अय्यार भी नहीं पहुंच सकता। इस तहखाने का बीजक उसकी आत्मा के आलोक में घुला है। कोई उसकी आत्मा तक पहुंचने के बाद भी इसे नहीं पा सकता।...वह अक्सर कहा करती है, अपने अन्दर की दुनिया उसे बाहरी दुनिया से कहीं ज्यादा अच्छी लगती है। इसलिए वह खुद को सबसे काट कर अपने आप में जीना चाहती है। उसके स्वभाव की इस गूढ़ता का रहस्य बहुत बाद में पकड़ पाया था अबीर....अमूमन जिस उम्र में ज्यादातर लड़कियों की सादी हो जाती है। उसकी भी शादी उसी उम्र में हो गई थी। वह सपनों में खोई, सुगन्धों में डूबी सुहागसेज पर ही मुरझा गयी थी, जब उसने अपने जीवन सहचर को यह कहते सुना था कि यह शादी उसकी मर्जी से नहीं हुई है। कि वह दैहिक और मानसिक रूप से पहले से ही कहीं जुड़ा हुआ है। अपना घर-आंगन, अपने संगों का संग-साथ छोड़कर पराये घर में, पराये मर्द के साथ दोयम दर्जे की स्त्री बनकर रहना उसे किसी भी तौर पर स्वीकार नहीं था।
वापिस लौटने के बाद उसने लोगों के प्रश्नों से बचने के लिए अपने आपको अपनी जड़ों की ओर मोड़ लिया था। उसने अपने एकाकीपन के साथ मिल कर अपने अन्दर एक ऐसा तिलिस्मी किला खड़ा कर लिया, जिसमें छुप कर वह बाहरी दुनिया के हर प्रश्न-प्रहार से बच सकती थी। अपने एकाकीपन को सजा-सवांर सकती थी, उसे प्यार कर सकती थी। उसके साथ सहवास कर सकती थी।....
गलियारे का एक छोर सहसा सीढ़ियों से आ जुड़ा है। सीढ़ियां उतरते हुए उसे यूं लगा जैसे वह आकाश मार्ग से धरती पर उतर रहा है।
नीचे उतरने के बाद सीढ़ियां फिर एक गलियारे से जुड़ गयी हैं। एक अजीब-सी रहस्यानुभूति में डूबा वह फाल्गुनी के पीछे-पीछे चलता हुआ उसकी लैब तक जा पहुंचा। फाल्गुनी ने ताला खोला। दरवाजा खुलते ही अन्दर अपने पन्जों में सिर गाड़ कर बैठी झबरीली खामोशी कान फटफटा कर उठ खड़ी हुई और तेजी से आकर फाल्गुनी के कदमों में लिपटी गयी। फाल्गुनी ने कदमों में लिपटी खामोशी को उठा कर पुचकारा और गोद में भर लिया। शीशेवाला पुशडोर खोल कर फाल्गुनी अपनी मेज के पीछे जा बैठी।
अबीर मेज के सामने खड़ी खाली कुर्सी पर बैठ गया।
कमरे का अजनबीपन उसे उपेक्षा से घूरता रहा। अबीर की उष्माभरी सांसों ने इस अजनबीपन को अपने भीतर भर कर उसे आत्मीयपन में ढाल लिया। सब कुछ अनुकूल होते ही वह मुग्धभाव से फाल्गुनी के चेहरे को निहारने लगा। फाल्गुनी के चेहरे पर एक मांसल सम्पन्नता विद्यमान है जो बरबस ही अपनी ओर खींचती है, सम्मोहित करती है। उसकी आंखें बड़ी-बड़ी नहीं हैं फिर भी उनमें अबूझ-सी गहराई व ठण्डी तटस्थता है, जो अगर अपने में डूब जाने के लिए सामने वाले को उकसाती है तो नामालूम-सा खौफ भी पैदा करती है। छोटी, सुगढ़ नासिका। मुश्किल से ढाई-तीन सेन्टीमीटर लम्बी, ऊपर से ढलुआ, आगे से हल्की-सी ऊपर उठी हुई। होंठ लयात्मक, किसी प्रेमगीत के मुखड़े सरीखे। ऊपर वाले होंठ और नासिका के मध्य बारीक से सुनहले रोयें। जिनकी ओर लगातार देखते रहे पर भीतर एक सनसनी-सी शुरू हो जाती है।
उसकी नसों में कुछ चटकने लगा। अपने खून में उसे लपटें घुलती महसूस हुईं। हालांकि वह आठ-नौ किलोमीटर का फासला तयकर क्वार की पैने पन्जोंवाली धूप से जूझते हुए आया है। प्यास बीच रास्ते में ही उसके गले के गिर्द सर्प-सी लिपट गयी थी पर अब जाकर उसकी चुभन महसूस हुई है उसे।
‘पानी पिलाओ यार...’
‘सादा या कूलर का ?’ फाल्गुनी अचकचा गई।’ यहां तो बस कूलर का ही पानी मिल सकता है।’
फाल्गनी मेज पर रखा प्लास्टिक का जग लेकर लैब से बाहर चली गई।
खामोशी में डूब गई लैब को अबीर खोयी-खोयी आंखों से निहारता रहा...कांच और धातु के उपकरणों और रसायनों की यह रहस्यमयी दुनिया उसे हमेशा फाल्गुनी की तरह ही अबूझ लगती रही है। इस दुनिया में लगे कम्प्यूटर कभी भी उन सवालों को हल नहीं कर पाये हैं, जो उसे परेशान करते रहते हैं। सच बात तो यह है कि यह अंकसम्राट भावनाओं और एहसासों के मामले में पूरी तरह से संवेदनशून्य है।
पानी लेकर लौट आई फाल्गुनी। पानी का स्पर्श होते ही प्यास चिहुंक उठी...‘ बाप रे इतना ठण्डा पानी !’
फाल्गुनी के चेहरे पर मुस्कराहट की किरणें फैल गयीं। अपनी छलकती हुई हंसी स्थिर करने के लिए वह सिर झुका कर मेज की दराज में उलझ गयी।
कुछ देर बाद जब उसने सिर उठाया तो चेहरे पर मुस्कराहट की किरणों का एक तिनका तक शेष नहीं बचा। उसके हाथ में कुछ कागज हैं, जो चुपचाप उसने उसकी ओर बढ़ा दिए। हमेशा ही फाल्गुनी जब नया लिखती है तो यूं ही बड़े निर्लिप्त भाव से प्रस्तुत कर देती है उसके सामने। जैसे यह सब कुछ उसने नहीं किसी और ने किया हो। कागज़ों पर फाल्गुनी के अन्दर की एकाकी फाल्गुनी ने अनजाने ही अपने अन्दर की चोर खिड़की खोल दी है...कल रात/चांदनी परी बन उतरी थी/मेरी उदासी को उसने/सिन्ड्रेला की तरह पहनाये थे नये रेशमी वस्त्र/ मेरी सारी उदासीनता और मलीनता हर ली थी उसने/मेरे भग्न स्वप्नों को श्वेत अश्वों में बदल दिया था/मुझे दे दिया था सारा चांदनी का वैभव-विलास/कल आधी रात तक/नाचती रही थी मैं/अपनी ही धुन में/अपने ही साथ/मेरा मैं बन गया था मेरा हमसफ़र/मेरी कमर में हाथ डाल कर वह नाचता रहा था/और अन्ततः/उसने मुझे उस शून्य शिखर पर ले जाकर खड़ा कर दिया था/जहां सिर्फ मैं थी और मेरा मैं था/मेरा मैं था और मैं थी...
कविता खौफनाक धुन्ध बन कर अबीर की चेतना पर छाती चली गई। वह ओसभीगी उदासी में घिरता चला गया। कई पल तक वह जड़बुत-सा बना बैठा रहा। जैसे किसी कुपित ऋषि का श्राप फलित हो गया। बमुश्किल इस पत्थरपन से बाहर निकल पाया वह-‘क्यों लिखती हो ऐसी कविताएं फाल्गुनी ?...अपने अकेलेपन को इतना भयानक क्यों बनाती जा रही हो तुम मत करो ऐसा..ऐसा न हो, एक दिन तुम्हारा यह अकेलापन भस्मासुर बन जाये और...’
अनकहे शब्दों का चेहरा बहुत भयानक है। वह सहम गया।
फाल्गुनी के होंठों पर सलवटें उभरीं। गालों की जिल्द सिहर उठी। ठुड्डी की नोंक पर नामालूम ढंग से जुम्बिश हुई। लेकिन अगले ही पल सबकुछ पूर्वत हो गया। सिर्फ एक क्षीण-सी स्मिति होंठों के आसपास मडराती रही। अबीर उलझ कर रह गया...किस धातु की बनी है यह लड़की ? आखिर यह सब कुछ क्या है ? निपट आत्मरति...खुद को जानवरपन की हद तक प्यार करने लगना। अपने रक्त की आसक्ति में डूब कर खुद को, अपने ज़ख़्मों को चाट-चाट कर लाइलाज कर लेना ?
उफ ! वह घबरा कर कविता के तात्विक गुणों का विवेचन करने लगा-‘बुरा न मानता फाल्गुनी, यह एक सैडिस्ट कविता है। तुमने चांदनी के कोमल बिम्ब को इतना डरावना बना डाला है कि इसकों पढ़ने के बाद पाठक चांदनी में घर बाहर निकलना छो़ड देंगे। दरअसल चांदनी...’
अबीर के शब्द भीतर ही रह गये। उसकी आंखों से चांदनी-सी झरने लगी। वह अपने अन्दर के चांदनी में डूबे जंगल के बीच जा पहुंचा और उसके शब्द चांदनी में ढल गए-‘चांदनी हमेशा से ही मुझे सम्मोहित करती रही है। जानती हो, अक्सर चांदनी रातों में खुली छत पर बिस्तर बिछा कर लेटती हूं मैं। मेरे आसपास कुछ नहीं होता सिर्फ चांदनी, चांदनी और चांदनी ही होती है। उस वक्त तुम्हारा चेहरा चांदनी बन कर मेरी नींद में घुलमिल जाता है। मेरे सपनों में महकता रहता है।’
खुद को खोलते हुए अनावृत करते हुए अबीर को यूं लग रहा है जैसे वह अपने आपे में नहीं है। आसमान में घूम रहा है। आसमान पर घूमते-घूमते उसने इन्द्रधनुष अपनी मुट्ठी में लिया है। जैसे ही मुट्ठी खोलता है वह इन्द्रधनुष उसकी हथेली की लकीरों का ही हिस्सा हो जाता है। वह फिर मुट्ठी बन्द कर लेता है। इस बार इन्द्रधनुष रंगों के चमकते हुए झुरमुट में बदल जाता है, जिसका हर रंग एक अमूर्त अर्थ के साथ दूसरे रंग में गुम्फित है। एक दूसरे में घुला हुआ, एक दूसरे में रचा बसा है।
फाल्गुनी का व्यथित स्वर उसकी सात्विक सुख समाधि भंग करता है-‘ऐसी बातें मत करो प्लीज....मुझे बहुत डर लगता है। भीतर जाल जैसा बुनने लगता है कोई। मैं यह अच्छी तरह से जानती हूं कि अगर यह जाल बुना गया तो उलझ कर रह जाऊंगी मैं। मन जकड़ा जायेगा। ऐसी इमोशनल स्थिति से बचना चाहती हूं। सच तो यह है कि मैं किसी भी संबंध में इतनी दूर नहीं जाना चाहती कि वापिस लौट ही न सकूं।’
अबीर आवाक् ! अजीब है यह लड़की ? निपट एक पहेली। यूं प्यारी-प्यारी, सुन्दर-सुन्दर कविताएं लिखती है लेकिन जीवन में कवितामयी स्थितियां आने पर डर कर कन्नी काट जाती है ! लगभग पिछले सात वर्षो से निरन्तर मिल रहे हैं वे दोनों। इन वर्षों के दौरान कई बार उसकी आंखों में झांकते हुए वह उसके भीतर उतरा है उसके अन्दर के रहस्यलोक में भटका है। उसके अनछुए कोनों तक पहुंचा है। उसके अन्दर के उन बाघ-चीतों से मिला है जिनसे डर कर उसने खुद को अध्यात्मिकता की ओर मोड़ा हुआ है। यूं वह अक्सर कहा करती है कि मैं बहुत ड्राई लड़की हूं लेकिन ऐसा है नहीं। उसकी कविताएँ गवाह हैं इस बात की। स्थूल बंजरपन से कभी कविताएं नहीं उगा करतीं। फाल्गुनी के साथ उसके घर में बैठकर बातें करते हुए, चाय पीते हुए कई बार उनकी उंगलियों के पोरों के बीच संवाद हुआ है। किसी नई लिखी खूबसूरत कविता के सुख से अभिभूत होकर उसने उसके सिर को सहलाया है, माथे को चूमा है। और यह अचानक क्या हो जाता है उसे ? जब भी उसका मन नदी बन कर बहने की स्थिति में आता है वह इस नदीपन का रुख रेगिस्तान की ओर मोड़ देती है।
क्यों करती है वह ऐसा ? उसके सारे संवेदनशील रेशे और कोमल तन्तु इतने उलझे हुए क्यों हैं ? अपने प्रति इतनी निष्ठुर और निर्मम क्यों है वह ? क्यों उसने अपने आपको एक कठोर किस्म की संयमिता की मुट्ठी में कस रखा है ? कभी-कभी खीझ उठता है वह-‘फाल्गुनी, अपने आपको यूं नष्ट मत करो। सच जानो न इस जीवन के पहले कोई जीवन था, न इस जीवन के बाद कोई जीवन होगा। जो कुछ भी है बस यही एक जीवन है। इसलिए इसके एक-एक क्षण को, एक-एक कतरे को पूरी शिद्दत से जियो। ईश्वर और अध्यात्म इस जीवन को सुंदर बनाने के लिए हैं। इसकी हत्या करने के लिए नहीं हैं।’
उसकी ऐसी बातें सुनकर उसकी आंखों की ठण्डी तटस्थता और गहराने लगती है।
कई बार अबीर ने चाहा है कि असम्पृक्त कर ले खुद को। खत्म कर दे ये मुलाकातों का सिलसिला। एक बार उनके बीच तल्ख तकरार भी हो चुकी है। सब कुछ खत्म कर देने की बात पर ही फाल्गुनी का चेहरा विवर्ण हो गया था। उसकी आत्मा में घुली पीड़ा उसकी आवाज़ में उतर आई थी-‘अबीर, तुम अच्छी तरह से जानते हो, तुम्हारे सिवा मेरा कोई मेल या फीमेल दोस्त नहीं है।’
अबीर उलझ कर रह गया है-‘फाल्गुनी, आखिर तुम मुझे क्यों इस एहसास को कोई रूप या आकार नहीं देने देती ? हमारे बीच सब कुछ इतना अस्पष्ट और उलझा-उलझा क्यों है ?’
फाल्गुनी के हाथ में डाटपेन है। वह अपने मेज पर बिछे सफेद कागज़ पर यूं ही आड़ी तिरछी रेखायें खींच रही है।
‘तुम यह जो मेज पर बिछे कागज पर अनजाने ही रेखायें खींच रही हो, जानती हो ये रेखायें इस कोरे कागज को कोरा नहीं रहने दे रहीं। एक अमूर्त अर्थ प्रदान कर रही हैं।’
फाल्गुनी चौंक उठी। हाथ का पेन जहां है वहीं ठिठक गया। कुछ देर तक यूं ही जड़वत् रहने के बाद उसके चेहरे पर पथरीली कठोरता उभर आई। उसने निर्मम ढंग से डाटपेन का मुंह कैप से बन्द कर उसे मेज की दराज में फेंक दिया और भड़ाक से दराज बन्द कर दिया।
अबीर को लगा, फाल्गुनी ने कैप से डाटपेन की नहीं अपने मन का, अपनी इच्छाओं का मुंह बंद कर दिया है। वह कहना चाहता है, ‘अपने नाम के साथ यूं छल मत करो फाल्गुनी। अपने अन्दर की फगुनाहट से इतनी निरासक्त क्यों हो तुम ? जिन्दगी के रंगों के प्रति इतनी निर्मम क्यों हो तुम ? अपनी जिन्दगी के रंगों से सारे रंग बेदखल कर तुमने सिर्फ एक रंग को अंगीकार किया है और वह है अध्यात्म का सफ़ेद रंग। जानती हो अध्यात्म का यह सफ़ेद रंग मृत्यु का भी रंग है, वैधव्य का भी रंग है। अध्यातम का रंग सफेद इसलिए होता है कि पूरे तौर पर राग-रंग की जिन्दगी जी चुका बूढ़ा व्यक्ति इन रंगों की आसक्ति से खुद को असम्पृक्त कर बेराग (वैराग्य), बेरंग होता चला जाये। अन्ततः चेतना में सिर्फ एक ही रंग शेष रह जाये-कफ़न का श्वेत रंग ! मृत्यु के वक्त जिसे यह बिना किसी हील-हुज्जत के ओढ़ कर दुनिया से रुख्सत हो जाये।’...पर ऐसा वह कह नहीं सका। जानता है, ऐसा कहते ही फाल्गुनी के अन्दर का वह एकाकीपन, जिसे वह पागलपन की हद तक प्यार करती है, अपने पैने पंजे खोल कर उसके स्वर में घुल जायेगा। फिर भी उससे रहा नहीं गया-
‘मन को कोरा मत रहने दो फाल्गुनी। जिन्दगी के साथ छल है यह। और कुछ नहीं तो तो एक रेखा ही खींच कर देखो। रेखा की परिभाषा तो तुम जानती ही होगी...दो बिन्दुओं को मिलाने वाली आकृति को रेखा कहते हैं।’
फाल्गुनी के चेहरे की पथरीली कठोरता दरक गई हो जैसे। उसकी आंखों की ठण्डी तटस्थता में विचलित हो उठी-‘पता नहीं क्या हूं मैं ? क्यों हूं ? कुछ समझ नहीं आता, कुछ भी समझ नहीं आता ? कहां है इन सवालों के जवाब ? मेरे भीतर ? मेरे बाहर ? मेरी आत्मा में या अध्यात्म में ? कभी-कभी तो इन प्रश्नों को लेकर उलझन इतनी बढ़ जाती है कि डिप्रेशन होने लगता है, डर लगने लगता है अपने आपसे। यह डर उस वक्त और भी भयावह हो उठता है जब मैं घर से बाहर निकलती हूं, पुरुषों के बीच होती हूं। उस वक्त इस डर में एक और डर शामिल हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे हर पुरुष भेड़िया है, जो मुझे जिन्दा ही निगल जायेगा।’
जैसे किसी भेड़िये ने अबीर पर छलांग लगा दी हो। वह डर कर अपने अन्दर की ओर भागा। भागते-भागते वहां जा पहुंचा, जहां भिन्न-भिन्न ज्योतिमत आकृतियों वाले दर्पणों वाला शीश-घर है। वहां उसे अपने अन्दर का पुरुष दानव-सा नजर आता। लेकिन कुछ पल बाद ही वह इस दर्पण भ्रम से बाहर निकल आया और एक पारदर्शी जल वाली झील के किनारे जा पहुंचा। उसने झील में अपना प्रतिबिम्ब देखा...एक भावुक, संवेदनशील, अनुभूतिसम्पन्न आदमी उसके सामने है। जिसमें अच्छाइयां और बुराइयां दोनों ही हैं। लेकिन अच्छाइयों का अनुपात बुराइयों से ज्यादा है। जो अपनी बुराइयों को जानता है और उन्हें निरन्तर अच्छाइयों में बदलने में चेष्टारत रहता है। यह सच है कि दुनिया में बिखरे हर प्रकार के सौन्दर्य के प्रति उसम उद्दाम किस्म का रुमानीपन है।
सृष्टि के सम्पूर्ण सौन्दर्य को करीब से देखना चाहता है वह। उससे जुड़ना चाहता है, उसमें उतर कर मर्म को छूना चाहता है। पर उसका यह रुमानीपन नितान्त शाकाहारी है। वह किसी से कुछ जबरन छीनना नहीं चाहता।
‘तुम्हें अगर मुझसे डर लगता है, तुम्हें मैं अगर सिर्फ एक पुरुष नजर आता हूं तो मैं आइन्दा फिर कभी नहीं आऊंगा तुम्हारे पास।’
सर्द सन्नारा खिंचा रहा काफी देर तक। सिर्फ एयर कण्डीशनर के चलने की सर्द सरसराहट लैब के शून्य में चक्कर काटती रही। फाल्गुनी के चेहरे पर, उसकी सर्द आंखों में कभी तेज हवाएं चलने लगती, कभी बादल छा जाते। कभी तीखी धूप उत्तर आती। कभी सब कुछ शुष्क हो जाता। चेहरा पथरा जाता, आंखों में ठण्डी तटस्थता उत्तर आती। कभी इस ठण्डी तटस्थता से धूसर उदासी झरने लगती। कभी उसका चेहरा सफेद धुन्ध में गुम हो जाता। उसका सिद्धार्थ मन भटक रहा है। बार-बार अपने अभ्यंतर की यात्राएं कर रहा है।
अन्ततः चुप्पी टूटी-‘अबीर, मैं तुम्हें पहले भी कह चुकी हूं कि मेरा तुम्हारे सिवा कोई मेल या फीमेल साथी नहीं है। घर में भी मेरी किसी के साथ इतनी गहरी इन्टीमेसी नहीं है कि जहां पर मैं खुद को पूरी तरह से खोल सकूं। अपने व्यक्तिगत दुखों की साझेदारी कर सकूं। मम्मी-पापा के साथ मेरा आत्मीय संबंध होने के बावजूद उनके प्रति जो मेरे अन्दर आदरभाव है वह मुझे कभी भी पूरी तरह से अनौपचारिक नहीं होने देता। बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण उनके सामने मुझे एक आदर्श बन कर रहना पड़ता है। जानते हो मेरे जीजा सब मुझसे इसलिए नाखुश रहते हैं क्योंकि मैं उन्हें लिफ्ट नहीं देती हूं। एक तुम हो जिससे निःसंकोच मैं अपना सुख दुख बाँट लेती हूं। खुद को पूरी तरह से खोल मुक्त भाव से अभिव्यक्ति कर लेती हूं....यह सच है कि तुमसे मिलना, तुमसे बात करना अच्छा लगता है मुझे। तुमसे बात करते हुए मेरे अंदर का खालीपन भरने लगता है। इसके अलावा मैं और कुछ नहीं जानती, और कुछ नहीं बता सकती।’ एक अमूर्त पीड़ा है फाल्गुनी के स्वर में।
अबीर को शार्मिन्दी-सी महसूस हुई। फाल्गुनी की अमूर्त पीड़ा उसे अपनी आत्मा में घुलती महसूस हुई। उसे लगा, वही गलत है। उसे ‘आइन्दा फिर कभी न आने’ की बात कहनी चाहिए थी। अपने जिह्वा से छूट कर पत्थर बन गए अपने शब्दों को निरस्त करना चाहता है। उनके नुकीले कोनों को तराश कर उन्हें कलात्मक रूप देना चाहता है पर यह सब कैसे हो पायेगा, उसे समझ नहीं आ रहा है। वह अपनी उस अभीप्सा को दुत्कार रहा है, जिसमें कुछ पाने की धूमिल-सी लालसा जुड़ी हुई है। उसे याद है, रोज सुबह उठकर मंदिर की ओर जाने वाली सड़क की ओर निकल जाया करता है वह, टहलने के लिए। सड़क के दोनों ओर छायादार वृक्ष हैं। आम, अमलतास और गुलमोहर के। जिनकी शाखें ऊपर जाकर एक दूसरे यूं गुम्फिल हो गयी हैं, यूं एक अटूट से रिश्ते में बंधी हुई है लगता है कि जैसे उन्हें जीवन का बोधिसत्व मिल गया हो। सड़क पर बन गई इस छायादार सुरंग से गुजरते हुए वह प्रार्थना किया करता है।....हे वृक्ष देवताओं, मुझे अपने सादृष्य बनाओ। जैसे आप सब अपनी छाया, अपने फल, फूल और सुगंध, अपना अंग-अंग सबको बांट देते हो, ऐसा ही मुझे भी कर दो। आप सब जैसा ही सर्वदानी और दृढ़चित्त हो जाऊं मैं।’
फाल्गुनी अपने अन्दर की गुफा से फिर बाहर निकली। उसके स्वर में पीड़ा के साथ-साथ उलाहना भी है-‘अबीर, एक दिन तुम्हीं ने कहा था कि कुछ संबंध हमें पैदा होते ही विरासत में मिलते हैं, कुछ संबंध सामाजिक तौर पर हासिल होते हैं हमें और कुछ संबंध हम खुद अपने श्रम से हासिल करते हैं। यह संबंध हमारी मानसिक सोच और कद के अनुरूप होते हैं। बमुश्किल हासिल होते हैं यह हमें। यह हमारे वर्षों के श्रम का अर्जन होते हैं इसलिए इन्हें हम खोना नहीं चाहते। यूं भी विरासत में मिले संबंधों और सामाजिक रूप से हासिल हुए रिश्ते बैंक के ब्याज सहित लौटाना पड़ता है। लेकिन एहसासों और भावनाओं द्वारा अर्जित किये सब संबंधों में ऐसी कोई शर्त नहीं होती। इनका तो सारा हिसाब ही अजब होता है। इनमें अपने आपको पूरी तरह जमा कर देने पर कभी-कभी कुछ भी हासिल होता और कभी-कभी इतना कुछ मिल जाता है कि सहेजना कठिन हो जाता है।’
अपने ही कहे शब्द जैसे सारे वस्त्र उतार कर नंगे हो गये हों। उसके दिगम्बर हो चुके शब्दों ने उसे किसी अपराधी की तरह ग्लानि और शर्मिन्दगी के शिखर पर ले जाकर अन्धी खाई में धकेल दिया। वह क्षत-आहत है। उसके होंठों से मूक कराह सी निकल गयी।
उसके चेहरे को एकटक देख रही है फाल्गुनी। चेहरे के पीछे चल रहे द्वन्द को पढ़ रही है। अबीर के होंठों से निकली मूक कराह उसके अन्दर के सूनेपन में फैलने लगी। उसके सारे के सारे कोमल संवेद सिहर उठे। उसकी आत्मा में नामालूम-सी व्याकुलता भरने लगी।
आखिर अबीर की आत्मपीड़ा बमुश्किल शब्दो की शक्ल अख्तियार कर पायी, ‘तुम्हें देर हो रही होगी ?’
‘हां, लैब एटेण्डेंट मेरा इन्तजार कर रहा होगा।’ फाल्गुनी की कांपती थरथराती-सी आवाज़।
‘ठीक है, तुम ऊपर जाओ...मैं भी चलता हूं अब।’ वह कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।
कुछ अनकहा कई पल तक दोनों के चेहरों की ओर टुकर-टुकर ताकता रहा। एक अचकचायी-सी खामोशी दोनों के चारों ओर लिपटी रही।
‘इस इतवार को घर पर ही रहोगी ?’ कांच का क्रिस्टल बनती जा रही खामोशी झनझना कर टूट गई।
‘हांऽऽआंऽऽ...’ स्थितियों से डर कर अपने अन्दर की किसी गुप्त गुफा में जा दुबकी फाल्गुनी की आवाज़ सहमी-सहमी सी बाहर निकली।
‘दोपहर दस बजे के लगभग आऊंगा मैं।’
फाल्गुनी ने कुछ कहा नहीं बस चुपचाप अबीर के चेहरे की ओर देखती रही। सहसा उसके अधरों के मध्य एक भीनी-सी स्मिति उभरी, जो धीरे-धीरे उसके पूरे चेहरे पर फैलती चली गयी।
फाल्गुनी जब शीशे का दरवाजा खोल प्रत्यक्ष आ खड़ी हुई हो तो वह एक पगलायी हुई अभिभूतता से भर उठा और कुछ देर पहले किये गए लैब एटेन्डेंट के सारे अप्रिय सवालों को भूल गया।
फाल्गुनी अपने सहज सादे रूप में बेहद सुन्दर लग रही है। लखनवी चिकन की फिरोज़ी रंग की कमीज और सलवार, सफ़ेद दुपट्टा। इस पोशाक में उसका दूधिया दमकता चेहरा किसी प्रखर दीप शिखा-सा लग रहा है। मस्तकान्त पर मांग की रेखा के दोनों ओर उभरे मेंहदी रंगें बालों के दो गुच्छे, जैसे उड़ने से पूर्व पर तोलती हुई तो बुलबुलें। उसकी अभिभूतता अमूर्त से नशे में बदलने लगी।
अबीर को देखकर फाल्गुनी की आंखों में रोशनी उतर आई। उसकी पानीदार पुतलियाँ उस झील की तरह हो गईं, जिसके किनारे लगी रोशनियां सहसा ही जल उठी हों। अबीर निर्वाक-सा इस झिलमिलाहट में डूबा खड़ा रहा।
फाल्गुनी ने लैब एटेन्डेंट को हिदायत दी कि वह अपनी लैब में जा रही है और थोड़ी ही देर में लौट आयेगी। वह लैब बन्द न करे।
फाल्गुनी के कहे शब्द अबीर को कहीं दूर से आते हुए प्रतीत हुए। जो उसको छू कर भी नहीं छू रहे हैं।
वह सम्मोहित-सा कपड़ों की सरसराहट और सांसों की सन्दली महक के पीछे चलने लगा है।
उसे लेकर फाल्गुनी शीशे के उपकरणों और शीशे की दीवारों से बाहर आ गई है। लैब से जुड़े गलियारे में अमोनिया गैस की गंध में घुला नम अंधेरा कुछ कदम तक उनके साथ साथ चला फिर इस अंधेरे का पल्लू गलियारे की छत पर लगी रोशनियों ने पकड़ लिया। वह अंधेरे और रोशनी की इस चितकबरी नदी में चुपचाप बहता रहा नदी में सिराये गए किसी कामना दीप-सा।
जहां अंधेरे की हद खत्म होती और रोशनी का सिलसिला शुरू होता वहां वह फाल्गुनी की ओर भरपूर नज़रों से देख लेता। उसे यूं लगता जैसे एक आदिम रहस्य उसके सामने है। संदेह। छत से झरती हुई रोशनी में डूबा। उसका निहित अर्थ इस रहस्य में ही कहीं छुपा हुआ है, जिसे पाना चाहता है, छूना चाहता है, लेकिन जो जल में रहने वाली मछली की तरह जल में रह कर भी जल के मर्म से वंचित है।
गलियारे में चलते हुए उन दोनों के बीच छोटे-छोटे संवादों के टुकड़े यूं ही कभी-कभी तितलीपन के साथ उड़ने लगते हैं। फाल्गुनी यूं भी ज्यादा बातें करना पसंद नहीं करती है। वह चुप ही रहना पसंद करती है। लेकिन उसकी चुप्पी के दौरान उसके चेहरे का एक-एक नक्श वाचाल रहता है। उसके अन्दर का अनकहा सब अक्सर उसके चेहरे की सतह पर तिर आया करता है, जिसे अबीर पकड़ने की भरपूर कोशिश करता पकड़ भी लेता है, पर फिर भी बहुत कुछ छूट जाता है। दरअसल फाल्गुनी खुद को बहुत कम खोलती है। शुरू की चन्द मुलाकातों में ही उसने कह दिया था कि वह इर्न्टोवर्टी लड़की है। अपना सब बहुमूल्य वह अपने अन्दर के तिलिस्मी किले के उस तहखाने में बंद रखती है जिस तक कोई बड़े में बड़ा अय्यार भी नहीं पहुंच सकता। इस तहखाने में बंद रखती है जिस तक कोई बड़े में बड़ा अय्यार भी नहीं पहुंच सकता। इस तहखाने का बीजक उसकी आत्मा के आलोक में घुला है। कोई उसकी आत्मा तक पहुंचने के बाद भी इसे नहीं पा सकता।...वह अक्सर कहा करती है, अपने अन्दर की दुनिया उसे बाहरी दुनिया से कहीं ज्यादा अच्छी लगती है। इसलिए वह खुद को सबसे काट कर अपने आप में जीना चाहती है। उसके स्वभाव की इस गूढ़ता का रहस्य बहुत बाद में पकड़ पाया था अबीर....अमूमन जिस उम्र में ज्यादातर लड़कियों की सादी हो जाती है। उसकी भी शादी उसी उम्र में हो गई थी। वह सपनों में खोई, सुगन्धों में डूबी सुहागसेज पर ही मुरझा गयी थी, जब उसने अपने जीवन सहचर को यह कहते सुना था कि यह शादी उसकी मर्जी से नहीं हुई है। कि वह दैहिक और मानसिक रूप से पहले से ही कहीं जुड़ा हुआ है। अपना घर-आंगन, अपने संगों का संग-साथ छोड़कर पराये घर में, पराये मर्द के साथ दोयम दर्जे की स्त्री बनकर रहना उसे किसी भी तौर पर स्वीकार नहीं था।
वापिस लौटने के बाद उसने लोगों के प्रश्नों से बचने के लिए अपने आपको अपनी जड़ों की ओर मोड़ लिया था। उसने अपने एकाकीपन के साथ मिल कर अपने अन्दर एक ऐसा तिलिस्मी किला खड़ा कर लिया, जिसमें छुप कर वह बाहरी दुनिया के हर प्रश्न-प्रहार से बच सकती थी। अपने एकाकीपन को सजा-सवांर सकती थी, उसे प्यार कर सकती थी। उसके साथ सहवास कर सकती थी।....
गलियारे का एक छोर सहसा सीढ़ियों से आ जुड़ा है। सीढ़ियां उतरते हुए उसे यूं लगा जैसे वह आकाश मार्ग से धरती पर उतर रहा है।
नीचे उतरने के बाद सीढ़ियां फिर एक गलियारे से जुड़ गयी हैं। एक अजीब-सी रहस्यानुभूति में डूबा वह फाल्गुनी के पीछे-पीछे चलता हुआ उसकी लैब तक जा पहुंचा। फाल्गुनी ने ताला खोला। दरवाजा खुलते ही अन्दर अपने पन्जों में सिर गाड़ कर बैठी झबरीली खामोशी कान फटफटा कर उठ खड़ी हुई और तेजी से आकर फाल्गुनी के कदमों में लिपटी गयी। फाल्गुनी ने कदमों में लिपटी खामोशी को उठा कर पुचकारा और गोद में भर लिया। शीशेवाला पुशडोर खोल कर फाल्गुनी अपनी मेज के पीछे जा बैठी।
अबीर मेज के सामने खड़ी खाली कुर्सी पर बैठ गया।
कमरे का अजनबीपन उसे उपेक्षा से घूरता रहा। अबीर की उष्माभरी सांसों ने इस अजनबीपन को अपने भीतर भर कर उसे आत्मीयपन में ढाल लिया। सब कुछ अनुकूल होते ही वह मुग्धभाव से फाल्गुनी के चेहरे को निहारने लगा। फाल्गुनी के चेहरे पर एक मांसल सम्पन्नता विद्यमान है जो बरबस ही अपनी ओर खींचती है, सम्मोहित करती है। उसकी आंखें बड़ी-बड़ी नहीं हैं फिर भी उनमें अबूझ-सी गहराई व ठण्डी तटस्थता है, जो अगर अपने में डूब जाने के लिए सामने वाले को उकसाती है तो नामालूम-सा खौफ भी पैदा करती है। छोटी, सुगढ़ नासिका। मुश्किल से ढाई-तीन सेन्टीमीटर लम्बी, ऊपर से ढलुआ, आगे से हल्की-सी ऊपर उठी हुई। होंठ लयात्मक, किसी प्रेमगीत के मुखड़े सरीखे। ऊपर वाले होंठ और नासिका के मध्य बारीक से सुनहले रोयें। जिनकी ओर लगातार देखते रहे पर भीतर एक सनसनी-सी शुरू हो जाती है।
उसकी नसों में कुछ चटकने लगा। अपने खून में उसे लपटें घुलती महसूस हुईं। हालांकि वह आठ-नौ किलोमीटर का फासला तयकर क्वार की पैने पन्जोंवाली धूप से जूझते हुए आया है। प्यास बीच रास्ते में ही उसके गले के गिर्द सर्प-सी लिपट गयी थी पर अब जाकर उसकी चुभन महसूस हुई है उसे।
‘पानी पिलाओ यार...’
‘सादा या कूलर का ?’ फाल्गुनी अचकचा गई।’ यहां तो बस कूलर का ही पानी मिल सकता है।’
फाल्गनी मेज पर रखा प्लास्टिक का जग लेकर लैब से बाहर चली गई।
खामोशी में डूब गई लैब को अबीर खोयी-खोयी आंखों से निहारता रहा...कांच और धातु के उपकरणों और रसायनों की यह रहस्यमयी दुनिया उसे हमेशा फाल्गुनी की तरह ही अबूझ लगती रही है। इस दुनिया में लगे कम्प्यूटर कभी भी उन सवालों को हल नहीं कर पाये हैं, जो उसे परेशान करते रहते हैं। सच बात तो यह है कि यह अंकसम्राट भावनाओं और एहसासों के मामले में पूरी तरह से संवेदनशून्य है।
पानी लेकर लौट आई फाल्गुनी। पानी का स्पर्श होते ही प्यास चिहुंक उठी...‘ बाप रे इतना ठण्डा पानी !’
फाल्गुनी के चेहरे पर मुस्कराहट की किरणें फैल गयीं। अपनी छलकती हुई हंसी स्थिर करने के लिए वह सिर झुका कर मेज की दराज में उलझ गयी।
कुछ देर बाद जब उसने सिर उठाया तो चेहरे पर मुस्कराहट की किरणों का एक तिनका तक शेष नहीं बचा। उसके हाथ में कुछ कागज हैं, जो चुपचाप उसने उसकी ओर बढ़ा दिए। हमेशा ही फाल्गुनी जब नया लिखती है तो यूं ही बड़े निर्लिप्त भाव से प्रस्तुत कर देती है उसके सामने। जैसे यह सब कुछ उसने नहीं किसी और ने किया हो। कागज़ों पर फाल्गुनी के अन्दर की एकाकी फाल्गुनी ने अनजाने ही अपने अन्दर की चोर खिड़की खोल दी है...कल रात/चांदनी परी बन उतरी थी/मेरी उदासी को उसने/सिन्ड्रेला की तरह पहनाये थे नये रेशमी वस्त्र/ मेरी सारी उदासीनता और मलीनता हर ली थी उसने/मेरे भग्न स्वप्नों को श्वेत अश्वों में बदल दिया था/मुझे दे दिया था सारा चांदनी का वैभव-विलास/कल आधी रात तक/नाचती रही थी मैं/अपनी ही धुन में/अपने ही साथ/मेरा मैं बन गया था मेरा हमसफ़र/मेरी कमर में हाथ डाल कर वह नाचता रहा था/और अन्ततः/उसने मुझे उस शून्य शिखर पर ले जाकर खड़ा कर दिया था/जहां सिर्फ मैं थी और मेरा मैं था/मेरा मैं था और मैं थी...
कविता खौफनाक धुन्ध बन कर अबीर की चेतना पर छाती चली गई। वह ओसभीगी उदासी में घिरता चला गया। कई पल तक वह जड़बुत-सा बना बैठा रहा। जैसे किसी कुपित ऋषि का श्राप फलित हो गया। बमुश्किल इस पत्थरपन से बाहर निकल पाया वह-‘क्यों लिखती हो ऐसी कविताएं फाल्गुनी ?...अपने अकेलेपन को इतना भयानक क्यों बनाती जा रही हो तुम मत करो ऐसा..ऐसा न हो, एक दिन तुम्हारा यह अकेलापन भस्मासुर बन जाये और...’
अनकहे शब्दों का चेहरा बहुत भयानक है। वह सहम गया।
फाल्गुनी के होंठों पर सलवटें उभरीं। गालों की जिल्द सिहर उठी। ठुड्डी की नोंक पर नामालूम ढंग से जुम्बिश हुई। लेकिन अगले ही पल सबकुछ पूर्वत हो गया। सिर्फ एक क्षीण-सी स्मिति होंठों के आसपास मडराती रही। अबीर उलझ कर रह गया...किस धातु की बनी है यह लड़की ? आखिर यह सब कुछ क्या है ? निपट आत्मरति...खुद को जानवरपन की हद तक प्यार करने लगना। अपने रक्त की आसक्ति में डूब कर खुद को, अपने ज़ख़्मों को चाट-चाट कर लाइलाज कर लेना ?
उफ ! वह घबरा कर कविता के तात्विक गुणों का विवेचन करने लगा-‘बुरा न मानता फाल्गुनी, यह एक सैडिस्ट कविता है। तुमने चांदनी के कोमल बिम्ब को इतना डरावना बना डाला है कि इसकों पढ़ने के बाद पाठक चांदनी में घर बाहर निकलना छो़ड देंगे। दरअसल चांदनी...’
अबीर के शब्द भीतर ही रह गये। उसकी आंखों से चांदनी-सी झरने लगी। वह अपने अन्दर के चांदनी में डूबे जंगल के बीच जा पहुंचा और उसके शब्द चांदनी में ढल गए-‘चांदनी हमेशा से ही मुझे सम्मोहित करती रही है। जानती हो, अक्सर चांदनी रातों में खुली छत पर बिस्तर बिछा कर लेटती हूं मैं। मेरे आसपास कुछ नहीं होता सिर्फ चांदनी, चांदनी और चांदनी ही होती है। उस वक्त तुम्हारा चेहरा चांदनी बन कर मेरी नींद में घुलमिल जाता है। मेरे सपनों में महकता रहता है।’
खुद को खोलते हुए अनावृत करते हुए अबीर को यूं लग रहा है जैसे वह अपने आपे में नहीं है। आसमान में घूम रहा है। आसमान पर घूमते-घूमते उसने इन्द्रधनुष अपनी मुट्ठी में लिया है। जैसे ही मुट्ठी खोलता है वह इन्द्रधनुष उसकी हथेली की लकीरों का ही हिस्सा हो जाता है। वह फिर मुट्ठी बन्द कर लेता है। इस बार इन्द्रधनुष रंगों के चमकते हुए झुरमुट में बदल जाता है, जिसका हर रंग एक अमूर्त अर्थ के साथ दूसरे रंग में गुम्फित है। एक दूसरे में घुला हुआ, एक दूसरे में रचा बसा है।
फाल्गुनी का व्यथित स्वर उसकी सात्विक सुख समाधि भंग करता है-‘ऐसी बातें मत करो प्लीज....मुझे बहुत डर लगता है। भीतर जाल जैसा बुनने लगता है कोई। मैं यह अच्छी तरह से जानती हूं कि अगर यह जाल बुना गया तो उलझ कर रह जाऊंगी मैं। मन जकड़ा जायेगा। ऐसी इमोशनल स्थिति से बचना चाहती हूं। सच तो यह है कि मैं किसी भी संबंध में इतनी दूर नहीं जाना चाहती कि वापिस लौट ही न सकूं।’
अबीर आवाक् ! अजीब है यह लड़की ? निपट एक पहेली। यूं प्यारी-प्यारी, सुन्दर-सुन्दर कविताएं लिखती है लेकिन जीवन में कवितामयी स्थितियां आने पर डर कर कन्नी काट जाती है ! लगभग पिछले सात वर्षो से निरन्तर मिल रहे हैं वे दोनों। इन वर्षों के दौरान कई बार उसकी आंखों में झांकते हुए वह उसके भीतर उतरा है उसके अन्दर के रहस्यलोक में भटका है। उसके अनछुए कोनों तक पहुंचा है। उसके अन्दर के उन बाघ-चीतों से मिला है जिनसे डर कर उसने खुद को अध्यात्मिकता की ओर मोड़ा हुआ है। यूं वह अक्सर कहा करती है कि मैं बहुत ड्राई लड़की हूं लेकिन ऐसा है नहीं। उसकी कविताएँ गवाह हैं इस बात की। स्थूल बंजरपन से कभी कविताएं नहीं उगा करतीं। फाल्गुनी के साथ उसके घर में बैठकर बातें करते हुए, चाय पीते हुए कई बार उनकी उंगलियों के पोरों के बीच संवाद हुआ है। किसी नई लिखी खूबसूरत कविता के सुख से अभिभूत होकर उसने उसके सिर को सहलाया है, माथे को चूमा है। और यह अचानक क्या हो जाता है उसे ? जब भी उसका मन नदी बन कर बहने की स्थिति में आता है वह इस नदीपन का रुख रेगिस्तान की ओर मोड़ देती है।
क्यों करती है वह ऐसा ? उसके सारे संवेदनशील रेशे और कोमल तन्तु इतने उलझे हुए क्यों हैं ? अपने प्रति इतनी निष्ठुर और निर्मम क्यों है वह ? क्यों उसने अपने आपको एक कठोर किस्म की संयमिता की मुट्ठी में कस रखा है ? कभी-कभी खीझ उठता है वह-‘फाल्गुनी, अपने आपको यूं नष्ट मत करो। सच जानो न इस जीवन के पहले कोई जीवन था, न इस जीवन के बाद कोई जीवन होगा। जो कुछ भी है बस यही एक जीवन है। इसलिए इसके एक-एक क्षण को, एक-एक कतरे को पूरी शिद्दत से जियो। ईश्वर और अध्यात्म इस जीवन को सुंदर बनाने के लिए हैं। इसकी हत्या करने के लिए नहीं हैं।’
उसकी ऐसी बातें सुनकर उसकी आंखों की ठण्डी तटस्थता और गहराने लगती है।
कई बार अबीर ने चाहा है कि असम्पृक्त कर ले खुद को। खत्म कर दे ये मुलाकातों का सिलसिला। एक बार उनके बीच तल्ख तकरार भी हो चुकी है। सब कुछ खत्म कर देने की बात पर ही फाल्गुनी का चेहरा विवर्ण हो गया था। उसकी आत्मा में घुली पीड़ा उसकी आवाज़ में उतर आई थी-‘अबीर, तुम अच्छी तरह से जानते हो, तुम्हारे सिवा मेरा कोई मेल या फीमेल दोस्त नहीं है।’
अबीर उलझ कर रह गया है-‘फाल्गुनी, आखिर तुम मुझे क्यों इस एहसास को कोई रूप या आकार नहीं देने देती ? हमारे बीच सब कुछ इतना अस्पष्ट और उलझा-उलझा क्यों है ?’
फाल्गुनी के हाथ में डाटपेन है। वह अपने मेज पर बिछे सफेद कागज़ पर यूं ही आड़ी तिरछी रेखायें खींच रही है।
‘तुम यह जो मेज पर बिछे कागज पर अनजाने ही रेखायें खींच रही हो, जानती हो ये रेखायें इस कोरे कागज को कोरा नहीं रहने दे रहीं। एक अमूर्त अर्थ प्रदान कर रही हैं।’
फाल्गुनी चौंक उठी। हाथ का पेन जहां है वहीं ठिठक गया। कुछ देर तक यूं ही जड़वत् रहने के बाद उसके चेहरे पर पथरीली कठोरता उभर आई। उसने निर्मम ढंग से डाटपेन का मुंह कैप से बन्द कर उसे मेज की दराज में फेंक दिया और भड़ाक से दराज बन्द कर दिया।
अबीर को लगा, फाल्गुनी ने कैप से डाटपेन की नहीं अपने मन का, अपनी इच्छाओं का मुंह बंद कर दिया है। वह कहना चाहता है, ‘अपने नाम के साथ यूं छल मत करो फाल्गुनी। अपने अन्दर की फगुनाहट से इतनी निरासक्त क्यों हो तुम ? जिन्दगी के रंगों के प्रति इतनी निर्मम क्यों हो तुम ? अपनी जिन्दगी के रंगों से सारे रंग बेदखल कर तुमने सिर्फ एक रंग को अंगीकार किया है और वह है अध्यात्म का सफ़ेद रंग। जानती हो अध्यात्म का यह सफ़ेद रंग मृत्यु का भी रंग है, वैधव्य का भी रंग है। अध्यातम का रंग सफेद इसलिए होता है कि पूरे तौर पर राग-रंग की जिन्दगी जी चुका बूढ़ा व्यक्ति इन रंगों की आसक्ति से खुद को असम्पृक्त कर बेराग (वैराग्य), बेरंग होता चला जाये। अन्ततः चेतना में सिर्फ एक ही रंग शेष रह जाये-कफ़न का श्वेत रंग ! मृत्यु के वक्त जिसे यह बिना किसी हील-हुज्जत के ओढ़ कर दुनिया से रुख्सत हो जाये।’...पर ऐसा वह कह नहीं सका। जानता है, ऐसा कहते ही फाल्गुनी के अन्दर का वह एकाकीपन, जिसे वह पागलपन की हद तक प्यार करती है, अपने पैने पंजे खोल कर उसके स्वर में घुल जायेगा। फिर भी उससे रहा नहीं गया-
‘मन को कोरा मत रहने दो फाल्गुनी। जिन्दगी के साथ छल है यह। और कुछ नहीं तो तो एक रेखा ही खींच कर देखो। रेखा की परिभाषा तो तुम जानती ही होगी...दो बिन्दुओं को मिलाने वाली आकृति को रेखा कहते हैं।’
फाल्गुनी के चेहरे की पथरीली कठोरता दरक गई हो जैसे। उसकी आंखों की ठण्डी तटस्थता में विचलित हो उठी-‘पता नहीं क्या हूं मैं ? क्यों हूं ? कुछ समझ नहीं आता, कुछ भी समझ नहीं आता ? कहां है इन सवालों के जवाब ? मेरे भीतर ? मेरे बाहर ? मेरी आत्मा में या अध्यात्म में ? कभी-कभी तो इन प्रश्नों को लेकर उलझन इतनी बढ़ जाती है कि डिप्रेशन होने लगता है, डर लगने लगता है अपने आपसे। यह डर उस वक्त और भी भयावह हो उठता है जब मैं घर से बाहर निकलती हूं, पुरुषों के बीच होती हूं। उस वक्त इस डर में एक और डर शामिल हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे हर पुरुष भेड़िया है, जो मुझे जिन्दा ही निगल जायेगा।’
जैसे किसी भेड़िये ने अबीर पर छलांग लगा दी हो। वह डर कर अपने अन्दर की ओर भागा। भागते-भागते वहां जा पहुंचा, जहां भिन्न-भिन्न ज्योतिमत आकृतियों वाले दर्पणों वाला शीश-घर है। वहां उसे अपने अन्दर का पुरुष दानव-सा नजर आता। लेकिन कुछ पल बाद ही वह इस दर्पण भ्रम से बाहर निकल आया और एक पारदर्शी जल वाली झील के किनारे जा पहुंचा। उसने झील में अपना प्रतिबिम्ब देखा...एक भावुक, संवेदनशील, अनुभूतिसम्पन्न आदमी उसके सामने है। जिसमें अच्छाइयां और बुराइयां दोनों ही हैं। लेकिन अच्छाइयों का अनुपात बुराइयों से ज्यादा है। जो अपनी बुराइयों को जानता है और उन्हें निरन्तर अच्छाइयों में बदलने में चेष्टारत रहता है। यह सच है कि दुनिया में बिखरे हर प्रकार के सौन्दर्य के प्रति उसम उद्दाम किस्म का रुमानीपन है।
सृष्टि के सम्पूर्ण सौन्दर्य को करीब से देखना चाहता है वह। उससे जुड़ना चाहता है, उसमें उतर कर मर्म को छूना चाहता है। पर उसका यह रुमानीपन नितान्त शाकाहारी है। वह किसी से कुछ जबरन छीनना नहीं चाहता।
‘तुम्हें अगर मुझसे डर लगता है, तुम्हें मैं अगर सिर्फ एक पुरुष नजर आता हूं तो मैं आइन्दा फिर कभी नहीं आऊंगा तुम्हारे पास।’
सर्द सन्नारा खिंचा रहा काफी देर तक। सिर्फ एयर कण्डीशनर के चलने की सर्द सरसराहट लैब के शून्य में चक्कर काटती रही। फाल्गुनी के चेहरे पर, उसकी सर्द आंखों में कभी तेज हवाएं चलने लगती, कभी बादल छा जाते। कभी तीखी धूप उत्तर आती। कभी सब कुछ शुष्क हो जाता। चेहरा पथरा जाता, आंखों में ठण्डी तटस्थता उत्तर आती। कभी इस ठण्डी तटस्थता से धूसर उदासी झरने लगती। कभी उसका चेहरा सफेद धुन्ध में गुम हो जाता। उसका सिद्धार्थ मन भटक रहा है। बार-बार अपने अभ्यंतर की यात्राएं कर रहा है।
अन्ततः चुप्पी टूटी-‘अबीर, मैं तुम्हें पहले भी कह चुकी हूं कि मेरा तुम्हारे सिवा कोई मेल या फीमेल साथी नहीं है। घर में भी मेरी किसी के साथ इतनी गहरी इन्टीमेसी नहीं है कि जहां पर मैं खुद को पूरी तरह से खोल सकूं। अपने व्यक्तिगत दुखों की साझेदारी कर सकूं। मम्मी-पापा के साथ मेरा आत्मीय संबंध होने के बावजूद उनके प्रति जो मेरे अन्दर आदरभाव है वह मुझे कभी भी पूरी तरह से अनौपचारिक नहीं होने देता। बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण उनके सामने मुझे एक आदर्श बन कर रहना पड़ता है। जानते हो मेरे जीजा सब मुझसे इसलिए नाखुश रहते हैं क्योंकि मैं उन्हें लिफ्ट नहीं देती हूं। एक तुम हो जिससे निःसंकोच मैं अपना सुख दुख बाँट लेती हूं। खुद को पूरी तरह से खोल मुक्त भाव से अभिव्यक्ति कर लेती हूं....यह सच है कि तुमसे मिलना, तुमसे बात करना अच्छा लगता है मुझे। तुमसे बात करते हुए मेरे अंदर का खालीपन भरने लगता है। इसके अलावा मैं और कुछ नहीं जानती, और कुछ नहीं बता सकती।’ एक अमूर्त पीड़ा है फाल्गुनी के स्वर में।
अबीर को शार्मिन्दी-सी महसूस हुई। फाल्गुनी की अमूर्त पीड़ा उसे अपनी आत्मा में घुलती महसूस हुई। उसे लगा, वही गलत है। उसे ‘आइन्दा फिर कभी न आने’ की बात कहनी चाहिए थी। अपने जिह्वा से छूट कर पत्थर बन गए अपने शब्दों को निरस्त करना चाहता है। उनके नुकीले कोनों को तराश कर उन्हें कलात्मक रूप देना चाहता है पर यह सब कैसे हो पायेगा, उसे समझ नहीं आ रहा है। वह अपनी उस अभीप्सा को दुत्कार रहा है, जिसमें कुछ पाने की धूमिल-सी लालसा जुड़ी हुई है। उसे याद है, रोज सुबह उठकर मंदिर की ओर जाने वाली सड़क की ओर निकल जाया करता है वह, टहलने के लिए। सड़क के दोनों ओर छायादार वृक्ष हैं। आम, अमलतास और गुलमोहर के। जिनकी शाखें ऊपर जाकर एक दूसरे यूं गुम्फिल हो गयी हैं, यूं एक अटूट से रिश्ते में बंधी हुई है लगता है कि जैसे उन्हें जीवन का बोधिसत्व मिल गया हो। सड़क पर बन गई इस छायादार सुरंग से गुजरते हुए वह प्रार्थना किया करता है।....हे वृक्ष देवताओं, मुझे अपने सादृष्य बनाओ। जैसे आप सब अपनी छाया, अपने फल, फूल और सुगंध, अपना अंग-अंग सबको बांट देते हो, ऐसा ही मुझे भी कर दो। आप सब जैसा ही सर्वदानी और दृढ़चित्त हो जाऊं मैं।’
फाल्गुनी अपने अन्दर की गुफा से फिर बाहर निकली। उसके स्वर में पीड़ा के साथ-साथ उलाहना भी है-‘अबीर, एक दिन तुम्हीं ने कहा था कि कुछ संबंध हमें पैदा होते ही विरासत में मिलते हैं, कुछ संबंध सामाजिक तौर पर हासिल होते हैं हमें और कुछ संबंध हम खुद अपने श्रम से हासिल करते हैं। यह संबंध हमारी मानसिक सोच और कद के अनुरूप होते हैं। बमुश्किल हासिल होते हैं यह हमें। यह हमारे वर्षों के श्रम का अर्जन होते हैं इसलिए इन्हें हम खोना नहीं चाहते। यूं भी विरासत में मिले संबंधों और सामाजिक रूप से हासिल हुए रिश्ते बैंक के ब्याज सहित लौटाना पड़ता है। लेकिन एहसासों और भावनाओं द्वारा अर्जित किये सब संबंधों में ऐसी कोई शर्त नहीं होती। इनका तो सारा हिसाब ही अजब होता है। इनमें अपने आपको पूरी तरह जमा कर देने पर कभी-कभी कुछ भी हासिल होता और कभी-कभी इतना कुछ मिल जाता है कि सहेजना कठिन हो जाता है।’
अपने ही कहे शब्द जैसे सारे वस्त्र उतार कर नंगे हो गये हों। उसके दिगम्बर हो चुके शब्दों ने उसे किसी अपराधी की तरह ग्लानि और शर्मिन्दगी के शिखर पर ले जाकर अन्धी खाई में धकेल दिया। वह क्षत-आहत है। उसके होंठों से मूक कराह सी निकल गयी।
उसके चेहरे को एकटक देख रही है फाल्गुनी। चेहरे के पीछे चल रहे द्वन्द को पढ़ रही है। अबीर के होंठों से निकली मूक कराह उसके अन्दर के सूनेपन में फैलने लगी। उसके सारे के सारे कोमल संवेद सिहर उठे। उसकी आत्मा में नामालूम-सी व्याकुलता भरने लगी।
आखिर अबीर की आत्मपीड़ा बमुश्किल शब्दो की शक्ल अख्तियार कर पायी, ‘तुम्हें देर हो रही होगी ?’
‘हां, लैब एटेण्डेंट मेरा इन्तजार कर रहा होगा।’ फाल्गुनी की कांपती थरथराती-सी आवाज़।
‘ठीक है, तुम ऊपर जाओ...मैं भी चलता हूं अब।’ वह कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।
कुछ अनकहा कई पल तक दोनों के चेहरों की ओर टुकर-टुकर ताकता रहा। एक अचकचायी-सी खामोशी दोनों के चारों ओर लिपटी रही।
‘इस इतवार को घर पर ही रहोगी ?’ कांच का क्रिस्टल बनती जा रही खामोशी झनझना कर टूट गई।
‘हांऽऽआंऽऽ...’ स्थितियों से डर कर अपने अन्दर की किसी गुप्त गुफा में जा दुबकी फाल्गुनी की आवाज़ सहमी-सहमी सी बाहर निकली।
‘दोपहर दस बजे के लगभग आऊंगा मैं।’
फाल्गुनी ने कुछ कहा नहीं बस चुपचाप अबीर के चेहरे की ओर देखती रही। सहसा उसके अधरों के मध्य एक भीनी-सी स्मिति उभरी, जो धीरे-धीरे उसके पूरे चेहरे पर फैलती चली गयी।
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