कहानी संग्रह >> वसीयत वसीयतसुदर्शन वशिष्ठ
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अकसर आदमी अपनी वसीयत होशोहवास में नहीं लिखता, अलबत्ता हमेशा यह लिखा जाता है कि जो कुछ भी मैं लिख रहा हूँ, अपने पूरे होशोहवास में लिख रहा हूँ।
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
कथा साहित्य में निरन्तर लेखन बहुत कठिन है।
एक समय के बाद
अधिकांश कथाकार चुक जाते हैं। वशिष्ठ की कथा यात्रा ने एक लम्बा सफर तय
किया है। पिछले लगभग पैंतीस वर्षों से ये लगातार कहानियां लिख रहे हैं।
विषयों की विविधता और उसकी के अनुरूप बानगी इनकी कहानियों की विशेषता रही
है। चाहे धर्मयुग में छपी कहानी ‘सेमल के फूल’ हो या
साप्ताहिक हिन्दुस्तान की ‘माणस गंध’, सारिका की ‘ऋण का
धन्धा’, हंस की ‘घोड़ा पुराण’ या कथादेश की ‘दादा
का प्रेत’ या फिर वागर्थ की ‘कोट’ या नया ज्ञानोदय की ‘बिरादरी बाहर’ सभी लम्बे समय तक गहरी छाप छोड़ने वाली कहानियाँ हैं।
कथाकार की पैनी दृष्टि ने कई अनुछुए प्रसंगों को छेड़ा है, पीड़ाओं को
कुरेदा है। ग्राम परिवेश से आरम्भ होकर ये कहानियां कस्बाई, छोटे शहरों की
नब्ज टटोलते हुए राजनीति और दफ्तरी जीवन पर भी करारी चोट करती है।
मानवीय सम्बन्धों का सम्प्रेषण करते हुए कथाकार की भाषा काव्यमय हो जाती
है। ‘घर बोला’, ‘सुख का पंछी’, ‘पहाड़ पर कटहल’, ‘सेहरा नहीं देखते,’
‘मीठा भात’, ‘पिता क्या सोचते हैं’ ऐसी कहानियां हैं जिनमें संवेदना परत
दर परत खुलती चली जाती हैं। वहीं दफ्तरी जीवन की फाइलें खोलतीं
‘खाली कुर्सी’ और ‘अथ श्रीसचिवालय कथा’ जैसी
कहानियां व्यंग्य की तीखी धार लिए हुए हैं। ‘मुआवजा’ और
‘फूलों की घाटी में राक्षस ‘राजनैतिक व्यवस्था पर तीखा
व्यंग्य है। सन् 2000 में प्रकाशित ‘कतरनें’ के बाद प्रस्तुत
संग्रह सातवाँ कहानी संग्रह है जो कथाकार की निरन्तर गतिमान कथा यात्रा के
अगले पड़ाव को दर्शाता है। संग्रह की सभी कहानियां हाल ही में
इन्द्रप्रस्थ भारती, साहित्य अमृत, कादम्बिनी, साक्षात्कार, पल प्रतिपल
समकालीन भारतीय साहित्य, वागर्थ तथा नया ज्ञानोदय आदि में छप चुकी
हैं और विशेष चर्चित रही हैं।
विश्वास है यह संग्रह हिन्दी कथा साहित्य को और समृद्ध करेगा।
सत्य से सामना
अकसर आदमी अपनी वसीयत होशोहवास में नहीं
लिखता, अलबत्ता
हमेशा यह लिखा जाता है कि जो कुछ भी मैं लिख रहा हूँ, अपने पूरे होशोहवास
में लिख रहा हूँ। लिखना क्या चाहता है आदमी ! उसकी अन्तिम इच्छा क्या रहती
है ! यह शायद उसे स्वयं भी ज्ञात नहीं होता। वैसे तो बहुत-सी बातें हैं
जिनके बारे में बता पाना सम्भव नहीं होता। अन्तिम इच्छा बता पाना भी आसान
नहीं है।
वसीयत का लिखा जाना पहले तय नहीं होता। पहले तो वह वक्त भी तय नहीं हो
पाता जब वसीयत लिखी जानी चाहिए। बहुत बार तो वसीयत बाद में तैयार की जाती
है जो जमीन-जायदाद, धन-सम्पत्ति से सम्बन्धित होती है। जमीन जायदाज साथ
नहीं जाती, यह किसी न किसी के पास पीछे रहनी ही है।
इसके अलावा भी कुछ होता है जो वह अपने पीछे छोड़ता हुआ किसी को देना चाहता
है। जो चीजें साथ जाती हैं, उनकी वसीयत होना लाजिमी है। आदमी का अच्छा
रसूख, उसकी तमाम अच्छाइयाँ या बुराइयाँ भी, खूबियाँ तो कमियाँ भी, पूरे
जीवन में कमाया मान या अपमान- कुछ ऐसी चीजें हैं जो वह किसी न किसी के नाम
करना चाहता है।
कहानी लिखना भी वसीयत लिखने जैसा है। आदमी को यह पता नहीं होता कि वह क्या
लिख रहा है। लिखना क्या चाहता है और लिखा क्या जा रहा है। क्या उसके साथ
आगे तक जाएगा, क्या बीच में ही पूरा हो जाएगा, यह तय नहीं होता। जहाँ से
शुरू करना चाहता है, वह अन्त बन जाता है और जहाँ अन्त करना चाहता है, वहाँ
से शुरूआत होती है। कभी-कभी यह एहसास बहुत बाद में होता है कि लिखना कुछ
और चाहता था, लिखा कुछ और गया। गोया जो लिखना था वह तो अभी तक भी लिखा
नहीं गया।
आज हर पग पर जद्दोजहद और लड़ाई का जमाना है। हर क्षेत्र में आदमी को एक
जंग लड़नी है। तमाम तनावों के बीच जीना है। एक लड़ाई बाहर की है, तो एक
लड़ाई भीतर की है। पहले आदमी अपने भीतर से लड़ता है, फिर बाहर निकलता है
भीतर की लड़ाई बाहर की लड़ाई से ज्यादा तोड़ती है। सातवें संग्रह तक
आते-आते लगना चाहिए था कि कुछ सत या सत्य सामने आए। सत्य को ढूँढना, उसे
पाना इतना आसान नहीं, जितना समझा जाता है। डायरी या आत्मकथा लिखने वाले भी
सत्य से बचते रहे, कहानी तो कहानी है।
सुदर्शन वशिष्ठ
मीठा भात
बहुत दिनों बाद चाँद चाँद लगा, सितारे सितारे।
चाँद एकदम चमक रहा था, असली सोने-सा रंग लिए। एक सितारा अंगारे सा दहकता हुआ, जैसे साधु का अखण्ड धूणा। चाँद जैसे कोई देवता, तेज से देदीप्यमान। सितारा, किसी पावन पुरुष की आत्मा, स्वर्ग में स्थित।
ऐसा बहुत दिनों बाद हुआ। एकदम निर्मल आकाश में चमकते चाँद-सितारे। चाँद तो चाँद है, एक देवता। सितारे पुण्यात्माएँ, धरती छोड़ स्वर्ग में स्थिति। सर्दियां उतरने से पहले के निर्मल आकाश में चाँद-सितारे जो सजते हैं, देखते ही बनते हैं, खासकर जब चाँद आधा-अधूरा हो।
आज-चाँद सितारों के सौन्दर्य की बात कोई नहीं करता। किसी को उनकी ओर निहारने की फुर्सत नहीं। न ही ये शहरों के मैले आकाश में नजर आते हैं। गांव के आंगन में, फिर से चाँद सितारे दिखें। उन्हें देवता और भगवान समझ भावविभोर होना, कितना खुसकर अनुभव है।
‘‘क्या देख रहा है...वह तेरा पड़दादू बैठा है। अभी भी इसे शान्ति नहीं। कैसे जलभुन रहा है।’’ चाची ने कहा। मैंने चाची की ओर देखा, फिर तारे की ओर। परदादा का नाम तारादत्त था। मैं एकदम धरती पर आ गया। चाची का मुँह सूखे छुहारे जैसा हो गया था।
ये लोग कुछ नहीं जानते...प्रकृति के सौन्दर्य की अनुभूति, चाँद-सितारों का आकर्षण पहाड़ पेड़-पौधों की सुन्दरता, पक्षियों का चहचहाना- इस सबसे इन्हें कोई सरोकार नहीं...सोच कर मैं हँस दिया। कवियों ने क्या-क्या नहीं कहा प्रकृति-सौन्दर्य के बारे में। ये कुछ नहीं जानते। इन के लिए चाँद-सितारे देवता हो सकते हैं जो दूसरे लोक में रहते हैं। चाची का सूखे छुहारे-सा चेहरा मुझे गँवई झुर्रियों भरा दिखा।
यह तो सच है, हमारे पुरखे गांव के आकाश में रहते हैं-वह दादा, वह परदादा, वह लक्कड़दादा...रहना भी उसी आकाश में है जिसकी जमीन पर जिन्दा रहे। ठीक भी है, वहीं रहेंगे तो कोई उन्हें जानेगा, पहचानेगा। अनजान जगह या शहर के आसमान में जाकर क्यों कर रहेंगे। जो शहर में जिन्दा नहीं आए, मर कर क्यों कर आएँगे। उन की जगह वहीं है। वहीं वे हर रात जलते-बुझते रहते हैं। धधकते रहना उनकी नियति है। गाँव का आकाश बड़ा होता है, उसमें रहने वाले कम। वैसे भी यहाँ सब कुछ अपना होता है। अपना स्वर्ग, अपना नरक वहीं आसपास ही। पहाड़ में सामने वी के आकार के शिखरों के बीच धर्म-दुआरी, जहाँ से जीव स्वर्ग जाता है।
चाची गँवार तो है, कह ठीक ही रही है। हमारे पुरखे उसी आकाश में स्थित हैं। हमें रोज रात ऊपर से देखते हैं। कौन यहाँ रह रहा है, कौन चला गया है, कौन आता-जाता है, कौन एक बार जा कर वापिस नहीं आता। कहते हैं ज़माना बड़ी तेजी से बदलता है, बदल रहा है। ज़माना चाहे बदले, लोग वैसे ही रहते हैं। चाचा का रूप नौकरी से आने पर बहुत बदल गया था। पेंट-कमीज़, कभी टाई भी लगाई। सूट-बूट भी पहना। बड़ी-बड़ी बातें भी कीं। जब रिटायर हुए, साल भर में ही लगा जैसे वे सदा गाँव में ही रह रहे हैं। कहीं शहर बाजार गए ही नहीं। वही कुर्ता-पायजामा, वही गँवई बातें। अब तो पुरानी पेंट में नाड़ा डाल बाँधने लगे। कमीज बाहर लटकी हुई। सर्दियों में सिर पर टोपी। लगता ही नहीं वे कभी गाँव से बाहर भी निकले हों।
रात, मैं अपने पूर्वजों को गाँव के निर्मल आसमान में खोजता रहा। दहकता सितारा चाँद सहित जल्दी ही छिप गया। अब हजारों हजार सितारे थे जिसमें अपना सितारा ढूँढना कठिन था।
सर्दियाँ उतरने से पहले हल्की गुलाबी-सी ठण्ड रहती है। दिन में धूप तेज हो जाती है। मेरे उठने से पहले ही आँगन के बीचोंबीच गारे का बड़ा-सा ढेर लगा दिया था। पिछली शाम जंगल से चिकनी मिट्टी ढोकर रखी गई थी। मिट्टी ढोने परिवार के सभी सदस्य लगे हुए थे। इस मिट्टी में शाम ही सूखे घास का बूरा, गोबर आदि मिलाकर बीच में पानी भर दिया था। सोये-सोये कुछ लोगों की आवाजें कानों में पड़ रही थीं। वे तड़के ही गारा बनाने लग गए थे। दो आदमियों के पैर घुटनों तक मिट्टी में धँसे थे। वे गारे को पैरों से गूँथ रहे थे। आँगन और घर की दीवारें लीपने के लिए हर साल आजकल के दिनों में गारा बनाया जाता है। साफ सुथरे दिन देख कर ही गारा तैयार किया जाता है ताकि लीपापोती ढँग से हो सके और आँगन, दीवारें लीपने के लिए हर साल आजकल के दिनों में गारा बनाया जाता है। साफ सुथरे दिन देख कर ही गारा तैयार किया जाता है ताकि लीपापोती ढँग से हो सके और आँगन, दीवारों पर पोती मिट्टी सूख सके। इसके बाद दीवारों पर सफेद गेरू किया जाता। दरवाजों, खिड़कियों के आसपास बेल-बूटे, पशु पक्षी उकेरे जाते।
मैं हाथ-मुँह धोकर चाय पी रहा था तो चाची ने गारे के ढेर के ऊपर एक बड़ा-सा गेंदे का फूल रख दिया और धूप बाती लेकर आकाश की ओर वंदना की।
‘‘तू भी मत्था टेक ले....मुझे क्या है जो बरखा आए या साफ रहे। आँगन में मिट्टी लेपी जाय या न लेपी जाए...आँगन नंगा रहे या ढका-लपेटा...कुछ नीं तुम शहरिए। सब कुछ भूल बैठे...।’’ चाची ने कहा तो मैंने झट दूर से नमस्कार की मुद्रा बना डाली।
अब तक धूप निकल आई थी। देसी पत्ती की कड़क चाय पीते हुए बरामदे में गौर से देखा। जगह-जगह बड़े-बड़े मकौड़े चलते हुए नजर आए। पिछला भाग ऊपर उठाए वे तेजी से भाग रहे थे।
ऐसे कभी कुछ नहीं दिखता। गौर से देखने लगें तो कई कुछ नजर आता है। बरामदे में तो कई मकौड़ों ने रेस लगा रखी थी। इधर से उधर, उधर से इधर होते हुए वे रसोई के अन्दर तक दौड़े जा रहे थे। माँ की रसोई में भी ऐसे ही मकौड़े भागते थे। चूल्हे के ऊपर, बरतनों पर, रोटियों के टोकरू पर मकौड़े ही मकौड़े चले रहते। माँ उन्हें झाड़ू से बाहर करती, वे फिर रसोई में हर जगह चहलकदमी करते। माँ की रसोई मन्दिर थी हमारे लिए। चूल्हे का एक-एक कोना देवता। सभी बच्चे बार-बार रसोई में मकौड़े की तरह घुसते। माँ का पूरा दिन रसोई में बीत जाता। कहीं शाम को जा कर कुछ पल के लिए आँगन में निकलना होता। बहुत बड़ा परिवार था उस समय। चाची ज्यादातर मायके रहती थी। अभी भी लग रहा था, माँ भीतर से हँसती हुई निकलेगी और दूध का गिलास हाथ में थमा देगी।
एक ओर कतार में छोटी चीटियाँ चली हुई थीं। कुछ आगे उन्होंने एक लम्बा केंचुआ पकड़ रखा था। साँप के आकार के ऐसे केंचुए बरसात में निकलते हैं जो सर्दियाँ आने तक अकड़ने लगते हैं। लम्बे केंचुए का मुँह चीटियों ने पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया था। दूसरा भाग हिल रहा था। दो मुँहे साँप की तरह इस केंचुए का मुँह किस ओर था पता नहीं चल रहा था। मरे या सूखे केंचुओं को चीटियाँ उठा कर ले जाती हैं चाहे कितना ही बड़ा हो। इस पर भी कुछ देर में काबू पा लेंगी। कहते हैं छोटी-सी चींटी बड़े-से-बड़े साँप को लग जाए तो उसे भी मार देती है। बैठक में दीवार पर हरा टिड्डा बैठा था। इसे सीतू कहते हैं। सर्दियाँ उतरने पर सीतू निकलता है।
न जाने कितने ही जीव-जन्तु इस घर के अन्दर रहते हैं। कीड़े-मकौड़े, चूहे बिल्ली, चिड़ियाँ-घटारियाँ, तोते-कुत्ते और बाहर कीट-पटंगे, पशु, पक्षी, झाड़-झंखाड़ घास फूस- इतना कुछ एक साथ चाची के घर में ही रह सकता है। शहर में तो एक कॉकराच रसोई में दिख जाए तो लक्ष्मण रेखा खींच दी जाती है।
जीव-जन्तु पालने का शौक गाँव में सभी को रहता है। तोता तो हर घर में, कुत्ता भी। मोर-चकोर-खरगोश। दादा के एक भाई थे जिन्होंने सिर में जूएँ पाल रखी थीं। जूओं को वे सिर में मीठा डाल खिलाते थे। एक थे जिन्होंने रोटियाँ खिला-खिला कुत्ते पीछे लगा रखे थे।
गारे के ढेर का पूजन हो गया। अब कल तड़के से मिट्टी लीपने का काम शुरू होगा। खा-पीकर बाण का मंजा बिछा आँगन में लेट गया। चाची ने थोड़ा-थोड़ा हलवा बाँटा। मुझे हलवा देते हुए बोली-‘‘छोटू का ब्याह भी आ गया। ...आज जेठानी होती तो...।’’
तभी एक धमाका हुआ। ऐसा धमाका कि छप्पर के सलेट जड़जड़ा कर बोल उठे। मेरा मन धक् से बैठ गया। हलवा हाथ से गिरते-गिरते बचा। धमाके के बाद जहाज जाने की गूँज हुई। नीले आकाश में घुएँ की एक सफेद लकीर खिंचती गई। लकीर के आगे-आगे एक जहाज बहुत तेजी से बहुत दूर भागता दिख रहा था।
‘‘यह ऐसे ही होता है यहाँ, ‘‘चाची ने कहा, ‘‘जब ये जहाज इस आकाश में जाते हैं तो धमाका करते हैं, जिस से पूरा घर हिल जाता है।’’ यह कोई जम्बू जैट जैसा लड़ाकू यान था जो जोरदार धमाका करता हुआ आकाश में स्पीड की सीमाएँ तोड़ता खो गया।
अब तक आँगन में गाँव के दो काम करने वालों के साथ एक औरत और बच्चा भी आ गए थे। यह औरत घर में पशुओं का गोबर उठा देती। उन्हें बाहर धूप में बाँध देती। आदमी घास काट जाता था। दूसरा शायद मिट्टी लीपने के लिए सलाह-मशविरा करने आया था। औरत के साथ आए बच्चे का पेट फूला हुआ था। उसके चेहरे पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। बीच-बीच में बच्चा बहुत बेचैन हो उठता था।
चाची की पहले से ही बहुत बोलने की आदत थी। वह कुछ न कुछ बोले जा रही थी। मैंने आँखें बन्द कर लीं। बहुत-सी आवाजें एक साथ आने लगीं। जैसे शादी ब्याह में जोर से बोल रहे कई लोगों की मिली-जुली-सी आवाजें आती हैं कई तरह की। उसी तरह आँगन आवाजों से भर गया। ऐसी आवाजें सुनते हुए आँखें बन्द किए धूप में लेटना अच्छा लगता है।
बीच में मैंने आँखें खोलीं तो लगा बच्चा बार-बार बेचैन हो रहा था। चाची ने उसे दूध का गिलास दिया। बच्चे ने दोनों हाथों से जोर से गिलास कस कर पकड़ा और बड़ी तेजी से एक ही साँस में गटागट पी गया।
चचेरे भाई का ब्याह नजदीक आ रहा था। तैयारियाँ की जा रही थीं। सर्दियां का ब्याह अच्छा रहता है। बस ओढ़ने-बिछाने को ज्यादा चाहिए होता है। सभी रिश्तेदार सर्दियों में इकट्ठा हो कर और करीब हो जाते हैं। तभी चाची ने माघ में ब्याह रखवा दिया, वैसे जेठ भी जुड़ता था।
मेरा जन्म इसी पुराने घर में हुआ था। आठवीं तक पढ़ा भी यहीं। तभी शायद मैं सब के मना करने पर भी बार-बार यहाँ आता हूँ। पिता ने बहुतेरा समझाया अब पुराने समय नहीं रहे जब महीना भर कारज करते थे। इतना लम्बा लंगर मत डालो। करो, लेकिन सूक्ष्म करो। चाचा नहीं माने। यही तो मौका होता है जब अपने इकट्ठे होते हैं, मिलते हैं-उनका कहना था।
हम सोचते, वे कुछ नहीं जानते। हम समझाते-समझाते थक जाते। वे अपनी ही धुन में चले रहते। अब तो तीनों भाइयों में बँटवारा भी हो गया था। बँटवारा जहाँ संकीर्णता का सूचक है, वहाँ आज के युग में विस्तार भी है। अब यहाँ चौघरा-सा बन गया था। जिसमें एक ओर चाचा का पुश्तैनी घर, दूसरी ओर ताऊ का आधा कच्चा आधा पक्का घर। ताऊ के बड़े लड़के ने एक लेंटर डाल दिया था जिसका आँगन पिछली ओर था। बीच में कुछ जगह अभी खाली थी जो हमारे लिए रखी हुई थी। इस जगह में रात औरतें और दिन में मरद पेशाब करते थे। जब इकट्ठे रहते थे तो कई बार लड़ाई-झगड़े भी हुए। ये गाँव है, यहाँ तो गाँव के रीति-रिवाज चलेंगे भइया। तुम निभाओ, न निभाओ-ताऊ कहते, जमाना तो बड़ा नाजुक आ गया है, फिर भी हमें परम्परा निभानी है।
जब मेरी शादी पक्की हो गई तो ताई बहुत रोई थी। हम से इसे क्यों बिछोड़ रहे हैं। देरपानी की यही एक निशानी है। हैं कौन वे लोग। किस जन्म का बदला ले रहे हैं-ताई ने मेरे भावी ससुराल को भरपूर गालियाँ दी थीं। यहाँ अपनी ओर की, गाँव की लड़की ब्याह कर सुख करेगा। हमारे पास ही रहेगा। नहीं तो तू गया बाप की तरह-चाची ने भी नसीहत दी थी।
शादी कर के भी कोई ऐसे बिछुड़ता है ताई-मैं उनके भोलेपन पर हँस दिया। लड़की शहर की है तो क्या मैं भी वहीं का होकर रह जाऊँगा सदा के लिए। घर जमाई थोड़े ही बनूँगा मैं। दादी भी उन दिनों जिन्दा थीं। वह इस प्रसंग में कुछ नहीं बोलीं। मन ही मन न जाने क्या वार्तालाप चलता रहा, ऐसे दादी के चेहरे से लग रहा था।
परदादा तारादत्त को नहीं देखा। दादा को देखा। भैरवदत्त नाम था उनका। जैसा नाम वैसे ही सख्त। बहुत ही खर्रांट। घर में होते तो सन्नाटा छाया रहता। यदि उनका लम्बा काला कोट खूँटी से टँगा हो तो समझा जाता, वे घर में ही हैं। कभी बिना कोट पहने चले जाएँ तो भी खूँटी पर टँगा काला कोट ही सब को डराता। घर तो घर, पूरे गाँव के लोग उनसे सहमते थे। पुराने लम्बरदार थे। पढ़े हुए नहीं, कढ़े हुए थे। सबसे खतरनाक और दिल दहला देने वाला उन का हुंकारा था। वे इतनी जोर से दहाड़ कर डाँटते थे कि डाँट खाने वाला हक्का-बक्का रह जाता। अपनी हुंकार और मुद्रा से वे दूसरे का पेशाब निकाल देते। बच्चे तो उन्हें देखते ही छिप जाते।
दादी एक गठरी की तरह थी। हमेशा कोने में ढकी लपेटी पड़ी रहती। दादी की गठरी कभी नहीं खुली। न किसी ने खोली, न खुद खुली। वैसे दादा दो गठरियाँ लाए थे। पिछली गठरी का पता नहीं क्या हुआ, दूसरी घर में पड़ी रही। दादा की क्रोधाग्नि जमदग्नि की तरह थी। अधोवस्त्र पहने दादा की लड़ाई का एक दृश्य बार-बार याद आता है। वे कुल्हाड़ी हाथ में लिए चौड़ी किए खड़े थे। बहुएँ तो पता नहीं कहाँ दुबकी थीं। बूएँ आस-पास चीखो-पुकार कर रही थीं। दादी की गठरी दादा के पैरों में बिछी थी-मुझे खत्म कर दो। अब आपके हाथ में है मेरी मुक्ति-दादी की गठरी पल्लू खोले गुहार कर रही थी। दादा ने अपना जोरदार हुंकारा भरा, ‘‘हत् तेरी कुपत्ती रंड...’’ और एक भरपूर मुक्का दादी के सिर पर दे मारा। दादी वहीं घायल पक्षी-सी तड़पती हुई बिछ गई। अब बुओं ने दादा की टाँगें किसी तरह हिलाईं और कुल्हाड़ी हाथ से छीनी।
युद्ध के ऐसे दृश्य कई बार सामने आते थे। भरा-पूरा परिवार तीन लड़के, बहुएँ। पाँच लड़कियाँ जो बार-बार मायके आतीं और खलबली मचातीं। बच्चों की भरमार। गृहयुद्ध चला रहता। कारण कुछ भी हो सकता था-खाना पकने में देरी, चाय में मीठे की कमी, दूध में मलाई न होना सब्जी में नमक की कमी, आँगन में सफाई न होना, किसी लड़की की ससुराल में खटपट, हुक्के की चिमल तुरन्त न भरना आदि-आदि।
यह तो लगभग दिन-रात तय था कि औरतों के लिए साग-सब्जी नहीं बचती थी। हाँ, दिन में भात सभी इकट्ठा खाते थे। दादा ही सब को परोसते। ऐसे में किसी औरत का शर्म के मारे भूखा रहना मुमकिन था, कुछ भी न मिल पाए-
यह सम्भव नहीं था। रात को पहले मरद रोटी खा लेते। वे बार-बार मनपसन्द साक-भाजी माँगते जाते। परोसने वाली कभी नहीं कहती कि कोई चीज कम है या खत्म हो रही है। एकदम से चीज न मिलने पर दादा तो कभी-कभी थाली पटक देते थे। थाली में रोटी सब्जी खत्म होने पर वे माँगते नहीं थे, बस हूँ-हूँ करते। यदि खाली थाली देखने में देरी हो गई तो थाली दूर पटक देते। मरद और बच्चों के खाने के बाद औरतों को अकसर कुछ नहीं बचता। वे बस हण्डू-पतीले चाटतीं।
दादी के बाद दूसरी गठरी ताई की आई। यह गठरी अधखुली रही। दादी आठ बरस की उम्र में गठरी हुई तो ताई बारह बरस में। पहली बहू होने से बहुत-सी वर्जनाएं झेली ताई ने। ताऊ ने कहीं नौकरी नहीं की। घर में ही खेती-बाड़ी करते रहे। इसलिए ताई की सीमाएँ ज्यादा रहीं। तीसरी गठरी माँ की आई जो शहर में जा कर खुली। चाची थोड़ी-मस्तमौला थी, उसने किसी की ज्यादा परवाह नहीं की। पिता छोटी उम्र में सरकारी नौकरी में आ गए। वे कई साल अकेले बाहर रहे। पास में नौकरी थी तो हर शनि घर आ जाते। शहर में तबादला हुआ और कुछ साल बाद राजधानी में। जब मैं बड़ा हुआ तो पिता एक बड़ी लड़ाई के बाद हमें शहर ले जाने में कामयाब हो गए, वैसे यह उन्हें ज्यादा समय रास नहीं आया। वे कैसे माँ को राजधानी ले जा पाए, यह अलग कहानी है। घर और गाँव वाले इसे अलग-अलग ढंग से बयान करते हैं। ताई और चाची आज भी उस दिन को कोसती हैं, जब माँ यहाँ से गई थी। मंगलवार था उस दिन, वे बार-बार कहतीं। ताई आज भी किसी को मंगल के दिन घर से नहीं जाने देती है।
आज का खाना ताई के घर था। जब भी घर जाओ, सुबह की चाय कहीं, नाश्ता कहीं, दोपहर का खाना कहीं तो रात का कहीं। पूरा का पूरा परिवार आए तब भी हफ्ता दस दिन तो इधर-उधर खाते पीते निकल जाते। यदि किसी के यहाँ न जाओ तो सब नाराज। घर क्या पूरे गाँव में जिस घर न जाओ। वही नाराज। खाने के साथ-साथ साल भर के किस्से-कहानियाँ सुनने को मिलतीं। कौन मरा, कौन जिया, कौन जाने को तैयार है। किसकी शादी हुई, किसके बच्चा हुआ। किसका पशु मरा, किसकी गाय-भैंस सूई। शहर से आए लोग इनकी बातों पर हँसते। इनकी मूर्खताओं पर मुस्कराते। बहुत-सी गम्भीर बातें भी हँसी में टालते। वैसे भी चार दिन तो रहना होता है। कोई भी बात गम्भीरता से क्यों लेनी। कुछ लोग जो शहर से रिटायर हो ताज़ा-ताज़ा गाँव आए होते हैं, छः महीने में ही उसी ढर्रे में ढल जाते हैं, यह जान हैरानी होती।
रात चाची ने मक्की की रोटी और सरसों का साग बनाया था। माँ की तरह चाची ने साग के भीतर मक्खन छिपा कर डाल दिया था। शहरी मक्खन-मलाई नहीं खाते, दूध नहीं पीते-चाची जानती है।
ताई ने मेरी पसन्द की कुलथ की दाल, अरबी की सूखी सब्जी और मीठा भात बनाया। गरी-दाख और सोए वाले मीठे भात की खुशबू दूर से आ रही थी। ताऊ जी में तो दादा साक्षात् उतर आए थे। भात खाती बार बच्चे किसी बात पर हि-हि करने लगे तो ताऊ ने बन्दर की तरह कड़छी घुमाते हुए जो हुंकारा भरा, मेरा हाथ का कौर हाथ में और गले का गले में फँसा रह गया। मैं एकदम सिहर कर काँप उठा। बच्चे तो दुबक गए। ताई कुछ देर बाद घूँघट की ओट से हँसी। ताई का चेहरा पोपला हो गया था। आज ही घर में कुछ ढूँढते हुए मुझे एक फोटो मिला था- श्वेत श्याम। फोटो में एक सभ्रान्त महिला गोद में थुलथुल बच्चा लिए बैठी थी। बड़ी-बड़ी आँखें भरा हुआ चेहरा मुड़ी हुई पलकें। इतना सुन्दर तराशा हुआ चेहरा जैसे फिल्म अभिनेत्री देविका रानी। यह किसका फोटो है-मैंने झाड़-पोंछ कर फोटो बाहर निकाला। यह कौन हिरोइन है भई-यह सुनते ही ताई ने फोटो छीन लिया, ‘‘यह तुझे कहाँ से मिला ?-बदमाश-।’’
‘‘कौन है ये-कौन-!’’ ‘‘मुआ तू, एह मैं, एह बड़का। ला उरे कर।’’ ताई चीखी।
मैं हैरान रह गया, ‘‘ताईए, एह तेरा फोटू-नहीं-नहीं....।’’
कोई विश्वास नहीं कर सकता था कि ताई भी ऐसी हीरोइन रही होगी। अब कमान-सी टेढ़ी, बाँस के फट्टे-सी काया। जब चलती है, आगे झुक कर चलती है।
‘‘शंकरदत्त क्या कर रहा है अब। रिटायर हो गया है, अब घर बैठकर आराम कर तो कहीं नौकरी लग गया है। तू नौकरीशुदा है। अब घर में एक औरत है, एक लड़की है। क्या खर्चा है। इतना पैसा जमाकर क्या करेगा ?’’
ताऊजी ने बच्चों का गुस्सा जैसे पिता पर निकाला जो रिटायरमेंट के बाद एक कम्पनी में लग गए थे।
‘‘ताऊ, शहर में कोई बेहला नहीं बैठता। घर बैठकर भी क्या करना।’’ मैंने कहा।
‘‘हम कौन से बेहले हैं...यह तुम लोगों की गलतफहमी है कि हम बेहले हैं। जो घर में रहते हैं, वे बेहले नहीं हो जाते।’’
ताऊ का गुस्सा ठण्डा नहीं हो रहा था। वे खाते भी जा रहे थे, बोलते भी।
‘‘तुम लोग मकान का काम शुरू नहीं कर रहे। घर वाले शंकरदत्त को यहाँ आने नहीं देंगे....’’
ताऊ ने फिर गला भारी और मोटा करते हुए कहा।
‘‘अपना घर अपना घर होता है। अपनी पुश्तैनी जमीन, अपनी जमीन होती है। इसे कभी छोड़ना नहीं चाहिए। इसकी बेकदरी नहीं करनी चाहिए। तुम बच्चे तो वहाँ रह सकते हो, शंकरदत्त कहाँ और किसके आसरे रहेगा !’’
इतना सब सोचते और बोलते हुए भी ताऊ सब बार-बार दाल-सब्जी परोसते जा रहे थे।
‘‘इन्होंने कुछ नहीं बणाणा यहाँ। सुना है वहाँ भी घर ले लिया है। इसे क्यों पूछ रहे हो। उसका क्या कसूर। इसका क्या है इसमें। आज देवरानी होती तो....’’ कहकर ताई खाते-खाते सुबकने लगी।
हम सोचते, वे कुछ नहीं जानते।
वे सब कुछ जानते हैं। हमसे, सबसे कहीं ज्यादा। मन्त्रद्रष्टा हैं वे, भविष्यद्रष्टा हैं। बीता वक्त तो जाना ही उन्होंने बहुत आगे की बात भी जानी। हम जिन्हें अनपढ़ गँवार समझते हैं, वे कितने सूत्र वाक्य बोलते हैं। जो बात वे कहते हैं, वह उनके मन की गहराई से निकलती है। कहते हुए वे उसे जीते हैं। जिनके बारे में हम कभी नहीं सोचते, वे हमारे बारे में कितने चिंतित रहते हैं। जिन्हें हम सीधा-साधा और गँवई समझते हैं, वे लोग हमारी कमियों को पोतते, खूबियों को लीपते। हमारे सुखों को माँजते, दुखों को बुहराते।
बच्चे फिर हँसने लगे थे। ताऊ ने उन्हें घूरा और पूछा, क्या लैणा ?’’ सबकी नजर अब मीठे भात पर थी। ताऊ ने भरती के मोटे लते वाले पतीले में कड़छी मारी। मीठा भात नीचे लगा था। इस लगे हुए लाल भात का स्वाद ही और होता है।’’ ताऊ ! ये लगा हुआ भात मुझे दो...’’ मैंने भी बच्चों की तरह कहा।
‘‘ले पुत्तर । खा तू। तेरे लिए ही बनाया है।’’ ताई ने कहा।
मुझे ताई में साक्षात् माँ दिखाई दी और मन रोने को हो आया।
चाँद एकदम चमक रहा था, असली सोने-सा रंग लिए। एक सितारा अंगारे सा दहकता हुआ, जैसे साधु का अखण्ड धूणा। चाँद जैसे कोई देवता, तेज से देदीप्यमान। सितारा, किसी पावन पुरुष की आत्मा, स्वर्ग में स्थित।
ऐसा बहुत दिनों बाद हुआ। एकदम निर्मल आकाश में चमकते चाँद-सितारे। चाँद तो चाँद है, एक देवता। सितारे पुण्यात्माएँ, धरती छोड़ स्वर्ग में स्थिति। सर्दियां उतरने से पहले के निर्मल आकाश में चाँद-सितारे जो सजते हैं, देखते ही बनते हैं, खासकर जब चाँद आधा-अधूरा हो।
आज-चाँद सितारों के सौन्दर्य की बात कोई नहीं करता। किसी को उनकी ओर निहारने की फुर्सत नहीं। न ही ये शहरों के मैले आकाश में नजर आते हैं। गांव के आंगन में, फिर से चाँद सितारे दिखें। उन्हें देवता और भगवान समझ भावविभोर होना, कितना खुसकर अनुभव है।
‘‘क्या देख रहा है...वह तेरा पड़दादू बैठा है। अभी भी इसे शान्ति नहीं। कैसे जलभुन रहा है।’’ चाची ने कहा। मैंने चाची की ओर देखा, फिर तारे की ओर। परदादा का नाम तारादत्त था। मैं एकदम धरती पर आ गया। चाची का मुँह सूखे छुहारे जैसा हो गया था।
ये लोग कुछ नहीं जानते...प्रकृति के सौन्दर्य की अनुभूति, चाँद-सितारों का आकर्षण पहाड़ पेड़-पौधों की सुन्दरता, पक्षियों का चहचहाना- इस सबसे इन्हें कोई सरोकार नहीं...सोच कर मैं हँस दिया। कवियों ने क्या-क्या नहीं कहा प्रकृति-सौन्दर्य के बारे में। ये कुछ नहीं जानते। इन के लिए चाँद-सितारे देवता हो सकते हैं जो दूसरे लोक में रहते हैं। चाची का सूखे छुहारे-सा चेहरा मुझे गँवई झुर्रियों भरा दिखा।
यह तो सच है, हमारे पुरखे गांव के आकाश में रहते हैं-वह दादा, वह परदादा, वह लक्कड़दादा...रहना भी उसी आकाश में है जिसकी जमीन पर जिन्दा रहे। ठीक भी है, वहीं रहेंगे तो कोई उन्हें जानेगा, पहचानेगा। अनजान जगह या शहर के आसमान में जाकर क्यों कर रहेंगे। जो शहर में जिन्दा नहीं आए, मर कर क्यों कर आएँगे। उन की जगह वहीं है। वहीं वे हर रात जलते-बुझते रहते हैं। धधकते रहना उनकी नियति है। गाँव का आकाश बड़ा होता है, उसमें रहने वाले कम। वैसे भी यहाँ सब कुछ अपना होता है। अपना स्वर्ग, अपना नरक वहीं आसपास ही। पहाड़ में सामने वी के आकार के शिखरों के बीच धर्म-दुआरी, जहाँ से जीव स्वर्ग जाता है।
चाची गँवार तो है, कह ठीक ही रही है। हमारे पुरखे उसी आकाश में स्थित हैं। हमें रोज रात ऊपर से देखते हैं। कौन यहाँ रह रहा है, कौन चला गया है, कौन आता-जाता है, कौन एक बार जा कर वापिस नहीं आता। कहते हैं ज़माना बड़ी तेजी से बदलता है, बदल रहा है। ज़माना चाहे बदले, लोग वैसे ही रहते हैं। चाचा का रूप नौकरी से आने पर बहुत बदल गया था। पेंट-कमीज़, कभी टाई भी लगाई। सूट-बूट भी पहना। बड़ी-बड़ी बातें भी कीं। जब रिटायर हुए, साल भर में ही लगा जैसे वे सदा गाँव में ही रह रहे हैं। कहीं शहर बाजार गए ही नहीं। वही कुर्ता-पायजामा, वही गँवई बातें। अब तो पुरानी पेंट में नाड़ा डाल बाँधने लगे। कमीज बाहर लटकी हुई। सर्दियों में सिर पर टोपी। लगता ही नहीं वे कभी गाँव से बाहर भी निकले हों।
रात, मैं अपने पूर्वजों को गाँव के निर्मल आसमान में खोजता रहा। दहकता सितारा चाँद सहित जल्दी ही छिप गया। अब हजारों हजार सितारे थे जिसमें अपना सितारा ढूँढना कठिन था।
सर्दियाँ उतरने से पहले हल्की गुलाबी-सी ठण्ड रहती है। दिन में धूप तेज हो जाती है। मेरे उठने से पहले ही आँगन के बीचोंबीच गारे का बड़ा-सा ढेर लगा दिया था। पिछली शाम जंगल से चिकनी मिट्टी ढोकर रखी गई थी। मिट्टी ढोने परिवार के सभी सदस्य लगे हुए थे। इस मिट्टी में शाम ही सूखे घास का बूरा, गोबर आदि मिलाकर बीच में पानी भर दिया था। सोये-सोये कुछ लोगों की आवाजें कानों में पड़ रही थीं। वे तड़के ही गारा बनाने लग गए थे। दो आदमियों के पैर घुटनों तक मिट्टी में धँसे थे। वे गारे को पैरों से गूँथ रहे थे। आँगन और घर की दीवारें लीपने के लिए हर साल आजकल के दिनों में गारा बनाया जाता है। साफ सुथरे दिन देख कर ही गारा तैयार किया जाता है ताकि लीपापोती ढँग से हो सके और आँगन, दीवारें लीपने के लिए हर साल आजकल के दिनों में गारा बनाया जाता है। साफ सुथरे दिन देख कर ही गारा तैयार किया जाता है ताकि लीपापोती ढँग से हो सके और आँगन, दीवारों पर पोती मिट्टी सूख सके। इसके बाद दीवारों पर सफेद गेरू किया जाता। दरवाजों, खिड़कियों के आसपास बेल-बूटे, पशु पक्षी उकेरे जाते।
मैं हाथ-मुँह धोकर चाय पी रहा था तो चाची ने गारे के ढेर के ऊपर एक बड़ा-सा गेंदे का फूल रख दिया और धूप बाती लेकर आकाश की ओर वंदना की।
‘‘तू भी मत्था टेक ले....मुझे क्या है जो बरखा आए या साफ रहे। आँगन में मिट्टी लेपी जाय या न लेपी जाए...आँगन नंगा रहे या ढका-लपेटा...कुछ नीं तुम शहरिए। सब कुछ भूल बैठे...।’’ चाची ने कहा तो मैंने झट दूर से नमस्कार की मुद्रा बना डाली।
अब तक धूप निकल आई थी। देसी पत्ती की कड़क चाय पीते हुए बरामदे में गौर से देखा। जगह-जगह बड़े-बड़े मकौड़े चलते हुए नजर आए। पिछला भाग ऊपर उठाए वे तेजी से भाग रहे थे।
ऐसे कभी कुछ नहीं दिखता। गौर से देखने लगें तो कई कुछ नजर आता है। बरामदे में तो कई मकौड़ों ने रेस लगा रखी थी। इधर से उधर, उधर से इधर होते हुए वे रसोई के अन्दर तक दौड़े जा रहे थे। माँ की रसोई में भी ऐसे ही मकौड़े भागते थे। चूल्हे के ऊपर, बरतनों पर, रोटियों के टोकरू पर मकौड़े ही मकौड़े चले रहते। माँ उन्हें झाड़ू से बाहर करती, वे फिर रसोई में हर जगह चहलकदमी करते। माँ की रसोई मन्दिर थी हमारे लिए। चूल्हे का एक-एक कोना देवता। सभी बच्चे बार-बार रसोई में मकौड़े की तरह घुसते। माँ का पूरा दिन रसोई में बीत जाता। कहीं शाम को जा कर कुछ पल के लिए आँगन में निकलना होता। बहुत बड़ा परिवार था उस समय। चाची ज्यादातर मायके रहती थी। अभी भी लग रहा था, माँ भीतर से हँसती हुई निकलेगी और दूध का गिलास हाथ में थमा देगी।
एक ओर कतार में छोटी चीटियाँ चली हुई थीं। कुछ आगे उन्होंने एक लम्बा केंचुआ पकड़ रखा था। साँप के आकार के ऐसे केंचुए बरसात में निकलते हैं जो सर्दियाँ आने तक अकड़ने लगते हैं। लम्बे केंचुए का मुँह चीटियों ने पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया था। दूसरा भाग हिल रहा था। दो मुँहे साँप की तरह इस केंचुए का मुँह किस ओर था पता नहीं चल रहा था। मरे या सूखे केंचुओं को चीटियाँ उठा कर ले जाती हैं चाहे कितना ही बड़ा हो। इस पर भी कुछ देर में काबू पा लेंगी। कहते हैं छोटी-सी चींटी बड़े-से-बड़े साँप को लग जाए तो उसे भी मार देती है। बैठक में दीवार पर हरा टिड्डा बैठा था। इसे सीतू कहते हैं। सर्दियाँ उतरने पर सीतू निकलता है।
न जाने कितने ही जीव-जन्तु इस घर के अन्दर रहते हैं। कीड़े-मकौड़े, चूहे बिल्ली, चिड़ियाँ-घटारियाँ, तोते-कुत्ते और बाहर कीट-पटंगे, पशु, पक्षी, झाड़-झंखाड़ घास फूस- इतना कुछ एक साथ चाची के घर में ही रह सकता है। शहर में तो एक कॉकराच रसोई में दिख जाए तो लक्ष्मण रेखा खींच दी जाती है।
जीव-जन्तु पालने का शौक गाँव में सभी को रहता है। तोता तो हर घर में, कुत्ता भी। मोर-चकोर-खरगोश। दादा के एक भाई थे जिन्होंने सिर में जूएँ पाल रखी थीं। जूओं को वे सिर में मीठा डाल खिलाते थे। एक थे जिन्होंने रोटियाँ खिला-खिला कुत्ते पीछे लगा रखे थे।
गारे के ढेर का पूजन हो गया। अब कल तड़के से मिट्टी लीपने का काम शुरू होगा। खा-पीकर बाण का मंजा बिछा आँगन में लेट गया। चाची ने थोड़ा-थोड़ा हलवा बाँटा। मुझे हलवा देते हुए बोली-‘‘छोटू का ब्याह भी आ गया। ...आज जेठानी होती तो...।’’
तभी एक धमाका हुआ। ऐसा धमाका कि छप्पर के सलेट जड़जड़ा कर बोल उठे। मेरा मन धक् से बैठ गया। हलवा हाथ से गिरते-गिरते बचा। धमाके के बाद जहाज जाने की गूँज हुई। नीले आकाश में घुएँ की एक सफेद लकीर खिंचती गई। लकीर के आगे-आगे एक जहाज बहुत तेजी से बहुत दूर भागता दिख रहा था।
‘‘यह ऐसे ही होता है यहाँ, ‘‘चाची ने कहा, ‘‘जब ये जहाज इस आकाश में जाते हैं तो धमाका करते हैं, जिस से पूरा घर हिल जाता है।’’ यह कोई जम्बू जैट जैसा लड़ाकू यान था जो जोरदार धमाका करता हुआ आकाश में स्पीड की सीमाएँ तोड़ता खो गया।
अब तक आँगन में गाँव के दो काम करने वालों के साथ एक औरत और बच्चा भी आ गए थे। यह औरत घर में पशुओं का गोबर उठा देती। उन्हें बाहर धूप में बाँध देती। आदमी घास काट जाता था। दूसरा शायद मिट्टी लीपने के लिए सलाह-मशविरा करने आया था। औरत के साथ आए बच्चे का पेट फूला हुआ था। उसके चेहरे पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। बीच-बीच में बच्चा बहुत बेचैन हो उठता था।
चाची की पहले से ही बहुत बोलने की आदत थी। वह कुछ न कुछ बोले जा रही थी। मैंने आँखें बन्द कर लीं। बहुत-सी आवाजें एक साथ आने लगीं। जैसे शादी ब्याह में जोर से बोल रहे कई लोगों की मिली-जुली-सी आवाजें आती हैं कई तरह की। उसी तरह आँगन आवाजों से भर गया। ऐसी आवाजें सुनते हुए आँखें बन्द किए धूप में लेटना अच्छा लगता है।
बीच में मैंने आँखें खोलीं तो लगा बच्चा बार-बार बेचैन हो रहा था। चाची ने उसे दूध का गिलास दिया। बच्चे ने दोनों हाथों से जोर से गिलास कस कर पकड़ा और बड़ी तेजी से एक ही साँस में गटागट पी गया।
चचेरे भाई का ब्याह नजदीक आ रहा था। तैयारियाँ की जा रही थीं। सर्दियां का ब्याह अच्छा रहता है। बस ओढ़ने-बिछाने को ज्यादा चाहिए होता है। सभी रिश्तेदार सर्दियों में इकट्ठा हो कर और करीब हो जाते हैं। तभी चाची ने माघ में ब्याह रखवा दिया, वैसे जेठ भी जुड़ता था।
मेरा जन्म इसी पुराने घर में हुआ था। आठवीं तक पढ़ा भी यहीं। तभी शायद मैं सब के मना करने पर भी बार-बार यहाँ आता हूँ। पिता ने बहुतेरा समझाया अब पुराने समय नहीं रहे जब महीना भर कारज करते थे। इतना लम्बा लंगर मत डालो। करो, लेकिन सूक्ष्म करो। चाचा नहीं माने। यही तो मौका होता है जब अपने इकट्ठे होते हैं, मिलते हैं-उनका कहना था।
हम सोचते, वे कुछ नहीं जानते। हम समझाते-समझाते थक जाते। वे अपनी ही धुन में चले रहते। अब तो तीनों भाइयों में बँटवारा भी हो गया था। बँटवारा जहाँ संकीर्णता का सूचक है, वहाँ आज के युग में विस्तार भी है। अब यहाँ चौघरा-सा बन गया था। जिसमें एक ओर चाचा का पुश्तैनी घर, दूसरी ओर ताऊ का आधा कच्चा आधा पक्का घर। ताऊ के बड़े लड़के ने एक लेंटर डाल दिया था जिसका आँगन पिछली ओर था। बीच में कुछ जगह अभी खाली थी जो हमारे लिए रखी हुई थी। इस जगह में रात औरतें और दिन में मरद पेशाब करते थे। जब इकट्ठे रहते थे तो कई बार लड़ाई-झगड़े भी हुए। ये गाँव है, यहाँ तो गाँव के रीति-रिवाज चलेंगे भइया। तुम निभाओ, न निभाओ-ताऊ कहते, जमाना तो बड़ा नाजुक आ गया है, फिर भी हमें परम्परा निभानी है।
जब मेरी शादी पक्की हो गई तो ताई बहुत रोई थी। हम से इसे क्यों बिछोड़ रहे हैं। देरपानी की यही एक निशानी है। हैं कौन वे लोग। किस जन्म का बदला ले रहे हैं-ताई ने मेरे भावी ससुराल को भरपूर गालियाँ दी थीं। यहाँ अपनी ओर की, गाँव की लड़की ब्याह कर सुख करेगा। हमारे पास ही रहेगा। नहीं तो तू गया बाप की तरह-चाची ने भी नसीहत दी थी।
शादी कर के भी कोई ऐसे बिछुड़ता है ताई-मैं उनके भोलेपन पर हँस दिया। लड़की शहर की है तो क्या मैं भी वहीं का होकर रह जाऊँगा सदा के लिए। घर जमाई थोड़े ही बनूँगा मैं। दादी भी उन दिनों जिन्दा थीं। वह इस प्रसंग में कुछ नहीं बोलीं। मन ही मन न जाने क्या वार्तालाप चलता रहा, ऐसे दादी के चेहरे से लग रहा था।
परदादा तारादत्त को नहीं देखा। दादा को देखा। भैरवदत्त नाम था उनका। जैसा नाम वैसे ही सख्त। बहुत ही खर्रांट। घर में होते तो सन्नाटा छाया रहता। यदि उनका लम्बा काला कोट खूँटी से टँगा हो तो समझा जाता, वे घर में ही हैं। कभी बिना कोट पहने चले जाएँ तो भी खूँटी पर टँगा काला कोट ही सब को डराता। घर तो घर, पूरे गाँव के लोग उनसे सहमते थे। पुराने लम्बरदार थे। पढ़े हुए नहीं, कढ़े हुए थे। सबसे खतरनाक और दिल दहला देने वाला उन का हुंकारा था। वे इतनी जोर से दहाड़ कर डाँटते थे कि डाँट खाने वाला हक्का-बक्का रह जाता। अपनी हुंकार और मुद्रा से वे दूसरे का पेशाब निकाल देते। बच्चे तो उन्हें देखते ही छिप जाते।
दादी एक गठरी की तरह थी। हमेशा कोने में ढकी लपेटी पड़ी रहती। दादी की गठरी कभी नहीं खुली। न किसी ने खोली, न खुद खुली। वैसे दादा दो गठरियाँ लाए थे। पिछली गठरी का पता नहीं क्या हुआ, दूसरी घर में पड़ी रही। दादा की क्रोधाग्नि जमदग्नि की तरह थी। अधोवस्त्र पहने दादा की लड़ाई का एक दृश्य बार-बार याद आता है। वे कुल्हाड़ी हाथ में लिए चौड़ी किए खड़े थे। बहुएँ तो पता नहीं कहाँ दुबकी थीं। बूएँ आस-पास चीखो-पुकार कर रही थीं। दादी की गठरी दादा के पैरों में बिछी थी-मुझे खत्म कर दो। अब आपके हाथ में है मेरी मुक्ति-दादी की गठरी पल्लू खोले गुहार कर रही थी। दादा ने अपना जोरदार हुंकारा भरा, ‘‘हत् तेरी कुपत्ती रंड...’’ और एक भरपूर मुक्का दादी के सिर पर दे मारा। दादी वहीं घायल पक्षी-सी तड़पती हुई बिछ गई। अब बुओं ने दादा की टाँगें किसी तरह हिलाईं और कुल्हाड़ी हाथ से छीनी।
युद्ध के ऐसे दृश्य कई बार सामने आते थे। भरा-पूरा परिवार तीन लड़के, बहुएँ। पाँच लड़कियाँ जो बार-बार मायके आतीं और खलबली मचातीं। बच्चों की भरमार। गृहयुद्ध चला रहता। कारण कुछ भी हो सकता था-खाना पकने में देरी, चाय में मीठे की कमी, दूध में मलाई न होना सब्जी में नमक की कमी, आँगन में सफाई न होना, किसी लड़की की ससुराल में खटपट, हुक्के की चिमल तुरन्त न भरना आदि-आदि।
यह तो लगभग दिन-रात तय था कि औरतों के लिए साग-सब्जी नहीं बचती थी। हाँ, दिन में भात सभी इकट्ठा खाते थे। दादा ही सब को परोसते। ऐसे में किसी औरत का शर्म के मारे भूखा रहना मुमकिन था, कुछ भी न मिल पाए-
यह सम्भव नहीं था। रात को पहले मरद रोटी खा लेते। वे बार-बार मनपसन्द साक-भाजी माँगते जाते। परोसने वाली कभी नहीं कहती कि कोई चीज कम है या खत्म हो रही है। एकदम से चीज न मिलने पर दादा तो कभी-कभी थाली पटक देते थे। थाली में रोटी सब्जी खत्म होने पर वे माँगते नहीं थे, बस हूँ-हूँ करते। यदि खाली थाली देखने में देरी हो गई तो थाली दूर पटक देते। मरद और बच्चों के खाने के बाद औरतों को अकसर कुछ नहीं बचता। वे बस हण्डू-पतीले चाटतीं।
दादी के बाद दूसरी गठरी ताई की आई। यह गठरी अधखुली रही। दादी आठ बरस की उम्र में गठरी हुई तो ताई बारह बरस में। पहली बहू होने से बहुत-सी वर्जनाएं झेली ताई ने। ताऊ ने कहीं नौकरी नहीं की। घर में ही खेती-बाड़ी करते रहे। इसलिए ताई की सीमाएँ ज्यादा रहीं। तीसरी गठरी माँ की आई जो शहर में जा कर खुली। चाची थोड़ी-मस्तमौला थी, उसने किसी की ज्यादा परवाह नहीं की। पिता छोटी उम्र में सरकारी नौकरी में आ गए। वे कई साल अकेले बाहर रहे। पास में नौकरी थी तो हर शनि घर आ जाते। शहर में तबादला हुआ और कुछ साल बाद राजधानी में। जब मैं बड़ा हुआ तो पिता एक बड़ी लड़ाई के बाद हमें शहर ले जाने में कामयाब हो गए, वैसे यह उन्हें ज्यादा समय रास नहीं आया। वे कैसे माँ को राजधानी ले जा पाए, यह अलग कहानी है। घर और गाँव वाले इसे अलग-अलग ढंग से बयान करते हैं। ताई और चाची आज भी उस दिन को कोसती हैं, जब माँ यहाँ से गई थी। मंगलवार था उस दिन, वे बार-बार कहतीं। ताई आज भी किसी को मंगल के दिन घर से नहीं जाने देती है।
आज का खाना ताई के घर था। जब भी घर जाओ, सुबह की चाय कहीं, नाश्ता कहीं, दोपहर का खाना कहीं तो रात का कहीं। पूरा का पूरा परिवार आए तब भी हफ्ता दस दिन तो इधर-उधर खाते पीते निकल जाते। यदि किसी के यहाँ न जाओ तो सब नाराज। घर क्या पूरे गाँव में जिस घर न जाओ। वही नाराज। खाने के साथ-साथ साल भर के किस्से-कहानियाँ सुनने को मिलतीं। कौन मरा, कौन जिया, कौन जाने को तैयार है। किसकी शादी हुई, किसके बच्चा हुआ। किसका पशु मरा, किसकी गाय-भैंस सूई। शहर से आए लोग इनकी बातों पर हँसते। इनकी मूर्खताओं पर मुस्कराते। बहुत-सी गम्भीर बातें भी हँसी में टालते। वैसे भी चार दिन तो रहना होता है। कोई भी बात गम्भीरता से क्यों लेनी। कुछ लोग जो शहर से रिटायर हो ताज़ा-ताज़ा गाँव आए होते हैं, छः महीने में ही उसी ढर्रे में ढल जाते हैं, यह जान हैरानी होती।
रात चाची ने मक्की की रोटी और सरसों का साग बनाया था। माँ की तरह चाची ने साग के भीतर मक्खन छिपा कर डाल दिया था। शहरी मक्खन-मलाई नहीं खाते, दूध नहीं पीते-चाची जानती है।
ताई ने मेरी पसन्द की कुलथ की दाल, अरबी की सूखी सब्जी और मीठा भात बनाया। गरी-दाख और सोए वाले मीठे भात की खुशबू दूर से आ रही थी। ताऊ जी में तो दादा साक्षात् उतर आए थे। भात खाती बार बच्चे किसी बात पर हि-हि करने लगे तो ताऊ ने बन्दर की तरह कड़छी घुमाते हुए जो हुंकारा भरा, मेरा हाथ का कौर हाथ में और गले का गले में फँसा रह गया। मैं एकदम सिहर कर काँप उठा। बच्चे तो दुबक गए। ताई कुछ देर बाद घूँघट की ओट से हँसी। ताई का चेहरा पोपला हो गया था। आज ही घर में कुछ ढूँढते हुए मुझे एक फोटो मिला था- श्वेत श्याम। फोटो में एक सभ्रान्त महिला गोद में थुलथुल बच्चा लिए बैठी थी। बड़ी-बड़ी आँखें भरा हुआ चेहरा मुड़ी हुई पलकें। इतना सुन्दर तराशा हुआ चेहरा जैसे फिल्म अभिनेत्री देविका रानी। यह किसका फोटो है-मैंने झाड़-पोंछ कर फोटो बाहर निकाला। यह कौन हिरोइन है भई-यह सुनते ही ताई ने फोटो छीन लिया, ‘‘यह तुझे कहाँ से मिला ?-बदमाश-।’’
‘‘कौन है ये-कौन-!’’ ‘‘मुआ तू, एह मैं, एह बड़का। ला उरे कर।’’ ताई चीखी।
मैं हैरान रह गया, ‘‘ताईए, एह तेरा फोटू-नहीं-नहीं....।’’
कोई विश्वास नहीं कर सकता था कि ताई भी ऐसी हीरोइन रही होगी। अब कमान-सी टेढ़ी, बाँस के फट्टे-सी काया। जब चलती है, आगे झुक कर चलती है।
‘‘शंकरदत्त क्या कर रहा है अब। रिटायर हो गया है, अब घर बैठकर आराम कर तो कहीं नौकरी लग गया है। तू नौकरीशुदा है। अब घर में एक औरत है, एक लड़की है। क्या खर्चा है। इतना पैसा जमाकर क्या करेगा ?’’
ताऊजी ने बच्चों का गुस्सा जैसे पिता पर निकाला जो रिटायरमेंट के बाद एक कम्पनी में लग गए थे।
‘‘ताऊ, शहर में कोई बेहला नहीं बैठता। घर बैठकर भी क्या करना।’’ मैंने कहा।
‘‘हम कौन से बेहले हैं...यह तुम लोगों की गलतफहमी है कि हम बेहले हैं। जो घर में रहते हैं, वे बेहले नहीं हो जाते।’’
ताऊ का गुस्सा ठण्डा नहीं हो रहा था। वे खाते भी जा रहे थे, बोलते भी।
‘‘तुम लोग मकान का काम शुरू नहीं कर रहे। घर वाले शंकरदत्त को यहाँ आने नहीं देंगे....’’
ताऊ ने फिर गला भारी और मोटा करते हुए कहा।
‘‘अपना घर अपना घर होता है। अपनी पुश्तैनी जमीन, अपनी जमीन होती है। इसे कभी छोड़ना नहीं चाहिए। इसकी बेकदरी नहीं करनी चाहिए। तुम बच्चे तो वहाँ रह सकते हो, शंकरदत्त कहाँ और किसके आसरे रहेगा !’’
इतना सब सोचते और बोलते हुए भी ताऊ सब बार-बार दाल-सब्जी परोसते जा रहे थे।
‘‘इन्होंने कुछ नहीं बणाणा यहाँ। सुना है वहाँ भी घर ले लिया है। इसे क्यों पूछ रहे हो। उसका क्या कसूर। इसका क्या है इसमें। आज देवरानी होती तो....’’ कहकर ताई खाते-खाते सुबकने लगी।
हम सोचते, वे कुछ नहीं जानते।
वे सब कुछ जानते हैं। हमसे, सबसे कहीं ज्यादा। मन्त्रद्रष्टा हैं वे, भविष्यद्रष्टा हैं। बीता वक्त तो जाना ही उन्होंने बहुत आगे की बात भी जानी। हम जिन्हें अनपढ़ गँवार समझते हैं, वे कितने सूत्र वाक्य बोलते हैं। जो बात वे कहते हैं, वह उनके मन की गहराई से निकलती है। कहते हुए वे उसे जीते हैं। जिनके बारे में हम कभी नहीं सोचते, वे हमारे बारे में कितने चिंतित रहते हैं। जिन्हें हम सीधा-साधा और गँवई समझते हैं, वे लोग हमारी कमियों को पोतते, खूबियों को लीपते। हमारे सुखों को माँजते, दुखों को बुहराते।
बच्चे फिर हँसने लगे थे। ताऊ ने उन्हें घूरा और पूछा, क्या लैणा ?’’ सबकी नजर अब मीठे भात पर थी। ताऊ ने भरती के मोटे लते वाले पतीले में कड़छी मारी। मीठा भात नीचे लगा था। इस लगे हुए लाल भात का स्वाद ही और होता है।’’ ताऊ ! ये लगा हुआ भात मुझे दो...’’ मैंने भी बच्चों की तरह कहा।
‘‘ले पुत्तर । खा तू। तेरे लिए ही बनाया है।’’ ताई ने कहा।
मुझे ताई में साक्षात् माँ दिखाई दी और मन रोने को हो आया।
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लोगों की राय
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