कहानी संग्रह >> लौट आई थी वह लौट आई थी वहआशा साकी
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कहते हैं कि यदि धरती की कोख में दाने को बीज दिया जाए तो वह देर सबेर जमीन में जगह बनाकर अपने आप कोंपल के रूप में बाहर निकल आता है और फिर अनजाने ही उसके सींचने से वह एक पौधे के रूप में प्रकट हो जाता है और दिखाई देने लगता है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपनी बात
कहते हैं कि यदि धरती की कोख में दाने को बीज
दिया जाए तो वह देर सबेर जमीन में जगह बनाकर अपने आप कोंपल के रूप में बाहर निकल आता है और फिर अनजाने ही उसके सींचने से वह एक पौधे के रूप में प्रकट हो जाता है और दिखाई देने लगता है।
बस लगभग ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ।
अब मुझे कोई विशेष सन् या वर्ष तो याद नहीं है परन्तु है बहुत साल पहले की बात। शायद तीस पैंतीस या थोड़ा कम या ज्यादा। मेरे घर में एक दुखद घटना घट गई थी जिसे लेकर बाद में मैंने एक कहानी लिखी थी और घर में अपने पिता और बहिन-भाइयों को सुनाई थी। आँखों में आँसू भरे हुए उनके द्वारा मुझे वाह-वाह तो बहुत मिली थी, परन्तु उस शाबासी की कीमत उस वक्त बहुत बढ़ गई थी जब उसी तरह की कहानी पर एक फिल्म ‘‘आराधना’’ कुछ महीनों बाद आई थी। और इस तरह लगता है मुझे कि, मेरे अन्दर भी लेखिका का बीज तो तब ही पड़ गया था जो कभी-कभार दो-चार कविताओं या एक-आध कहानी के रूप में ज़रूर प्रकट होता रहा।
पता नहीं मैं फिर भी पक्के तौर पर क्यों गतिशील नहीं हो सकी थी।
मेरे पति पंजाबी के प्रसिद्ध लेखक एस. साकी की बहुत-सी रचनाओं का अनुवाद करते हुए मेरे अन्दर दबे उस बीज ने भी सिर उठाया और फिर सारे बाँध, सारे किनारे तोड़कर उसने एक कोंपल और कोंपल ने बहुत-सी शाखाओं के साथ एक पेड़ का रूप ले लिया।
अब ऐसा है कि इतने वर्षों के दबे-घुटे भाव अन्दर टिकते ही नहीं हैं बल्कि मचल-मचल उठते हैं बाहर आने के लिए।
बस इन्हीं भावों को...इन्हीं विचारों को शब्दों का जामा पहनाकार पाठकों के सामने पेश कर रही हूँ।
बस शेष फिर अगली बार...।
बस लगभग ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ।
अब मुझे कोई विशेष सन् या वर्ष तो याद नहीं है परन्तु है बहुत साल पहले की बात। शायद तीस पैंतीस या थोड़ा कम या ज्यादा। मेरे घर में एक दुखद घटना घट गई थी जिसे लेकर बाद में मैंने एक कहानी लिखी थी और घर में अपने पिता और बहिन-भाइयों को सुनाई थी। आँखों में आँसू भरे हुए उनके द्वारा मुझे वाह-वाह तो बहुत मिली थी, परन्तु उस शाबासी की कीमत उस वक्त बहुत बढ़ गई थी जब उसी तरह की कहानी पर एक फिल्म ‘‘आराधना’’ कुछ महीनों बाद आई थी। और इस तरह लगता है मुझे कि, मेरे अन्दर भी लेखिका का बीज तो तब ही पड़ गया था जो कभी-कभार दो-चार कविताओं या एक-आध कहानी के रूप में ज़रूर प्रकट होता रहा।
पता नहीं मैं फिर भी पक्के तौर पर क्यों गतिशील नहीं हो सकी थी।
मेरे पति पंजाबी के प्रसिद्ध लेखक एस. साकी की बहुत-सी रचनाओं का अनुवाद करते हुए मेरे अन्दर दबे उस बीज ने भी सिर उठाया और फिर सारे बाँध, सारे किनारे तोड़कर उसने एक कोंपल और कोंपल ने बहुत-सी शाखाओं के साथ एक पेड़ का रूप ले लिया।
अब ऐसा है कि इतने वर्षों के दबे-घुटे भाव अन्दर टिकते ही नहीं हैं बल्कि मचल-मचल उठते हैं बाहर आने के लिए।
बस इन्हीं भावों को...इन्हीं विचारों को शब्दों का जामा पहनाकार पाठकों के सामने पेश कर रही हूँ।
बस शेष फिर अगली बार...।
आशा साकी
लौट आई थी वह
डोली में से उतरकर बहू घर आ गई थी। लाल ज़री के कपड़ों में सजी-धजी।
मोहल्ले की कितनी ही लड़कियाँ लपकी आई थीं गाड़ी तक। उनकी उत्सुकता रोके नहीं रुक रही थी एक झलक बहू को देख लेने के लिए। उचक-उचककर गाड़ी की खिड़की में से अन्दर झाँकने की कोशिश कर रही थीं वे सब।
अरी मरजानियो....वह तो इसी घर में आई है, अब रोज ही देखती रहना चाहे। इतना भी सब्र नहीं कि अन्दर तो आ जाने दो। चलो हट जाओ पीछे सबकी सब।
लड़के की मोटी-सी बुआ ने सबको धकियाते हुए आगे बढ़कर गाड़ी का दरवाजा खोला।
द्वार पर खड़ी गुलाबी चुन्नी ओढे़ बेसब्री से इन्तजार करती बेटे की माँ ने सबसे पहले बहू-बेटे को ढेरों आशीर्वाद दिए और फिर पानी वार कर पिया। सौ-सौ बलाएँ लेते हुए बहू को लाकर अन्दर बिठा दिया। अन्दर-बाहर जाते हुए वह बहू को एक नज़र देख जाती। खुशी से फूली नहीं समा रही थी वह। जी तरस गया था उसका अपने घर में भी बहू को देखने के लिए। रिश्तेदारी में बेटे ब्याहे जाते, बहुएँ आतीं, यह देखकर सपने बुनने लगती थी वह भी। यूँ तो बड़ा बेटा ही नहीं छोटा भी कोई कम उम्र का नहीं था। ब्याह लायक तो दोनों ही थे, बसू यूँ ही देर होती चली गई कि लड़का कुछ और हाथ-पाँव जमा ले काम में। दो पैसे का अच्छा जुगाड़ हो जाए तभी शादी हो। करने को तो एक साल और पहले ब्याह कर डालती वह बड़े का....क्योंकि अब पैसे की उतनी तंगी नहीं रह गई थी, परन्तु लड़का चाहता था कि अभी नया-नया ही काम जमाया है थोड़ा और खुला पैसा आ जाए।
सर्दियों की भरपूर ठंड थी। बिमला ने नई शनील की रजाइयाँ पहले से ही बहू-बेटे के कमरे में रखवा दी थीं। बहुत शौक से गहरे मैरून रंग में पीले डिजाइन की छाँटकर रजाइयाँ बनवाई थीं। रेशमी झालर वाली चादर और रेशमी लिहाफ़ के तकियों से पलंग झक-झक कर रहा था।
लड़की का विदा होना हो या फिर बारात का ब्याह कर लौट आना। मेहमान लोग भी दूसरे दिन जल्दी न उठने की फ़िक्र से मुक्त लम्बी तान कर सोते हैं। लेकिन रमा थी कि कब से उठने-उठने का सोचकर करवटें ले रही थी। सबके उठ जाने पर तो गुसलखाने भी खाली नहीं मिलेंगे और शादी-ब्याह में तो एक गुलखाना हो चाहे चार हों...सब के सब रुके हुए ही मिलते हैं।
सभी मेहमान आज विदा होने वाले थे। उसे तो जाना भी बहुत दूर था। सुबह निकलेगी तब कहीं जाकर शाम तक घर पहुँच पाएगी वह। यह सोचकर उठ गई थी वह और सन्दूक में से कपड़े निकालने लगी थी स्नान करने के लिए। तभी उसे बाहर आँगन में खटर-पटर की आवाज सुनाई दी थी। कमरे का दरवाजा खोलकर बाहर झाँककर देखा था उसने।
अरे यह तो नई बिमला की बहू नहा-धोकर गीले बाल लिए गुसलखाने में से निकलती दिखाई दी उसे। उसने ऊपर लगी घड़ी में देखा। सुबह के साढे़ चार बजे थे। बहू साढ़े तीन-पौने चार तक ही उठी होगी तभी नहाकर निकल भी आई थी बाहर।
वह भी कपड़े लिए कमरे से बाहर आ गई थी और हँसते हुए बहू से बोली थी...। अरे बहू...तुमने तो सुबह-सुबह ही मोर्चा मार लिया भई नहाने का। मैंने तो सोचा सबसे पहले मैं ही नहा लूँगी आज लेकिन इतनी सर्दी में बिस्तर छोड़ना बहुत मुश्किल लगता है। बहू ने हँसते हुए आगे बढ़कर पाँव छुए उसके...।
जीती रहो...सुहागवती रहो...।
रमा ने सिर पर हाथ रख आशीर्वाद दिया था बहू को।
बेटा स्वेटर-शॉल पहन लेना। बहुत सर्दी है। कहते हुए गुसलखाने में घुस गई थी वह।
सुबह के सात बज चुके थे। बाकी सब लोग भी उठ गए थे परन्तु रजाइयों से बाहर नहीं निकले थे अभी....। शायद चाय का इन्तजार कर रहे थे वे।
वह भी नहा-धोकर चाय की प्रतीक्षा में बैठी थी। तभी लड़के की मौसी यानी बिमला की छोटी बहिन बड़बड़ाती हुई-सी चाय की ट्रे लिए कमरे में घुसी...। सब लोग चाय लेने के लिए लपक पड़े। उसने यूँ ही सरसरी-सा पूछ लिया था उससे...।
अरी निम्मो....दुल्हन को भी चाय दे दी क्या...? वह तो तड़के ही नहा- धोकर बैठी है।
चाय क्या दूँ दीदी उसे...। वह तो कब की मन्दिर में बैठी है गीले बाल लिए। चार दफा बोल चुकी हूँ कि स्वेटर पहन ले। शॉल ले ले। ठंड लग जाएगी। लेकिन वह तो सुनती ही नहीं है, ऐसी समाधि लगाकर बैठी है वह तो।
पहले दिन ही इतनी भक्ति...? स्वेटर-शॉल का तो उसने भी कहा था उससे तो फिर ? इससे पहले कि रमा कुछ और सोच पाती या कह पाती...सब लोग चाय पीते हुए कल बारात में हुई हुड़दंगबाजियों का हँस-हँसकर बखान करने लगे थे।
साढ़े आठ, नौ बजते-बजते सबसे और बिमला से विदा लेकर वह गाड़ी में आकर बैठ गई थी।
रिश्ते में बिमला उसकी कुछ नहीं लगती थी क्योंकि रिश्तेदारियों में कुछ दुराव-छिपाव होता है, परन्तु बिमला और उसके बीच में कहीं कोई दुराव-छिपाव या दूरी नहीं थी। अगर सहेली कहें तो स्कूल और कॉलेज का दोस्ताना भी दूर-दूर तक कहीं नहीं था। पड़ोसन भी नहीं कह सकती वह क्योंकि उसका घर और बिमला का घर कभी पास-पास नहीं था। तब भी उन दोनों का आपसी लगाव और प्यार-मोहब्बत ऐसा था कि जिसे किसी भी रिश्ते का नाम देना मूर्खता लगती थी उसे। जहाँ सारे नाम और रिश्ते गौण हो जाते हों बस वही रिश्ता था उसके और बिमला के बीच में।
यूँ वे दोनों गाँव की रहने वाली थीं। परन्तु वह तो जल्दी ही गाँव से निकलकर दिल्ली जैसे बड़े शहर में आ बसी थी।
बिमला की जिन्दगी कष्टों भरी थी। उसके एक-एक संघर्ष की जानकार थी वह। ब्याही आकर रमा केवल चार महीने ही उस गाँव में अपने सास-ससुर के पास रही थी। सारा दिन खाली बैठी जी तंग आ गया था उसका। तभी सास ने एक दिन कहा था उससे...।
‘‘बेटा यह चार घर छोड़कर बिमला रहती है। कहते हैं बहुत अच्छी सिलाई-कढ़ाई सिखाती है वह। न हो तो दो घड़ी वहीं जा-आया कर। जी भी लगा रहेगा और कोई हुनर भी हाथ में आ जाए तो अच्छा ही है।’’
और बस चली गई थी वह उसके यहाँ। एकदम कच्चे से दो कमरों में छोटा-सा घर था उसका। आगे आँगन और पीछे कमरे। बारिश हो चुकी थी। वह दगड़-दगड़ चप्पल पहने जैसे ही आँगन से होती हुई कमरे तक जाने लगी तो धड़ाम से फिसलकर कच्चे आँगन में चौफ़ाल गिरी थी। सारे कपड़े, हाथ-पाँव सब मिट्टी में लिप गए थे। बिमला भागकर अन्दर से निकली थी। हाथ –मुँह धुलवाकर अपने कपड़े पहनने को दिए थे उसने और फिर फटाफट चाय भी बनवा दी थी उसके लिए।
तुम वकीलों की बहू हो न...? मुस्कुराते हुए पूछा था बिमला ने।
दरअसल उसके पति और पति के बड़े भाई दोनों शहर में रहकर वकालत कर रहे थे। इसलिए उनका घर पूरे गाँव में ‘‘वकीलों का घर’’ के नाम से मशहूर था।
चाय पीते हुए उसने अपने आने का मकसद बताया था। उसने देखा कि घर यद्यपि उसका कच्चा था, परन्तु लिपा-पुता बेहद साफ़-सुथरा था। साथ वाले कमरे में दस-बारह लड़कियाँ सिलाई की मशीनों पर कपड़े सिल रही थीं। कुछ दो-तीन अन्य कपड़ों पर धागे की कढ़ाई भी कर रही थीं।
बिमला उसकी ही हम-उम्र थी। यद्यपि सब लड़कियाँ उसे बहिन जी कहकर ही बुलाती थीं परन्तु उसे बिमला को बहिन जी कहने में थोड़ी झिझक महसूस हो रही थी और फिर बिमला ने ही उसे बहिन जी न कहकर बिमला कहने का आग्रह ही किया था। और बस उसे बिमला कहने से ही उनके बीच के सब रिश्ते बेमानी हो गए थे। वह मानती है कि केवल प्यार के रिश्ते ने ही सबसे ऊँची जगह ले ली थी।
वह हर बार दावे के साथ कहती है कि जब आपस में बराबरी की सोच-समझ के रिश्ते जकड़ लेते हैं एक दूसरे को तो उन रिश्तों में सदैव स्थायित्व कायम रहता है। और वे बराय नाम से होते हुए भी अन्य सभी रिश्तों से ऊपर उठ जाते हैं। बस यही रिश्ता बिमला और उसके बीच भी कायम था।
नियम के खिलाफ़ होकर भी सालभर के कोर्स में से बिमला ने उसे चार महीनों में जरुरी सिलाई और कढ़ाई के टाँकों में निपुणता करवा दी थी।
आज पूरे उन्तीस वर्ष पूरे हो गए थे इन बातों को। चार-पाँच साल तक तो एकाध बार जाना हो जाता था गाँव में उसका। उसके बाद तो कोई रहा ही न था वहाँ और फिर हमेशा के लिए नाता ही टूट गया था उसका गाँव से। परन्तु बिमला से उसका सम्बन्ध ज्यों का त्यों ही बना रहा। उसके हर सुख दुख का पता लगता रहा उसे। सुख तो उसके पल्ले में आये ही नहीं थे अब तक। दुखों से ही उसका रिश्ता रहा इतने वर्षों तक। उसका बड़ा बेटा तब केवल आठ माह का था और छोटा तो तब पैदा ही नहीं हुआ था। दो-अढ़ाई साल बाद ही जन्म हुआ था उसका।
कहते हैं ईश्वर जब ढेर-से दुःख देता है किसी को...तो अपनी मर्यादा और इंसान की आस्था कायम रखने के लिए थोड़ा-सा सुख भी छोड़ देता है उसके भाग्य के किसी कोने में।
गरीबी और ससुरालिया रिश्तेदारियों की चक्की और चालाकी में पिसते हुए भी एक तरफ़ से बेहद सुख और सुकून था बिमला को कि उसका पिता बहुत अच्छा इंसान था। यदि वह बिमला की कोई मदद करके उसे बाह्य दुखों से उबार नहीं सकता था तो पत्नी की हिम्मत और समझदारी का वह पूरा-पूरा कायल ही नहीं था बल्कि उसके गुणों से प्रभावित भी था और अन्दर ही अन्दर कहीं सम्मान भी करता था वह उसका। बस इसी आत्मसन्तुष्टि के सहारे बिमला ने वे सारे कष्ट, वे सारे दुख सह लिए थे जो उसे गरीबी से मिले थे। अपने सास-ससुर और अपने जेठिया परिवार से मिले थे।
सिलाई-कढ़ाई के स्कूल को उसने अपनी हिम्मत से काफ़ी अच्छा बढ़ा लिया था। उसके पति का तबादला अब इस कस्बे में हो गया था जो अब तीस वर्षों बाद कस्बा कम शहर ज्यादा लगता था। यहाँ आकर भी स्कूल के बल पर ही उसने न केवल छोटा-सा कच्चा घर ही खरीद लिया था बल्कि प्लॉट भी ले लिया था छोटा-सा जिस पर यह खूबसूरत मकान बना लिया था उसने।
और अब ज़िन्दगी के इस तीसरे पड़ाव में आकर संसार की हर गृहिणी की तरह बच्चों के अपने गाँव पर खड़े होते ही उसकी भी घर में बहू लाने की इच्छा बलवती हो गई थी।
शादी से लौट आने पर दो-तीन महीने तक उसका फ़ोन आता रहा था रमा को कि वह बहुत खुश है। कोई छः माह बाद फिर उसका एक बार फ़ोन आया था कि छोटा बेटा अपनी पसन्द की बहू ब्याहकर घर ले आया था। बस छोटा-सा फंक्शन कर दिया था उसने बिना किसी को बुलाए। नई बहू को अपनी स्वीकृति दे दी है उसने और अब वह दोनों बहुओं को पाकर बहुत खुश है।
बिमला हमेशा बाहर लगे बूथ से ही यह सब बताया करती थी क्योंकि उसके घर में फ़ोन नहीं लगा हुआ था।
फिर दो वर्ष बीत जाने पर भी उसका कोई फ़ोन, कोई अता-पता न लगा था। तीस वर्षों मे ऐसे तो कभी नहीं हुआ कि बिमला का उसे कुछ भी पता न लगा हो। बहुओं के आने पर जैसा कि कहा जाता है कि सभी रिश्तेदार भी पराए हो जाते हैं या बहुओं के आने पर दूसरे स्थान पर आ जाते हैं तो क्या वह भी उसके लिए अब उसी श्रेणी में आ गई थी ? सोचती तो थी वह परन्तु उसका मन ऐसा कतई नहीं मानता था।
लगभग छः बाद माह बाद ही सबब बन गया उसका पंजाब जाने का। बिमला का कस्बा शादी के घर से जहाँ उसे जाना था कोई साठ-सत्तर किलोमीटर की दूरी पर था और वह वहाँ जाने का सोचकर ही गई
रिश्तेदारी के धूमधाम भरे माहौल में से एक दिन निकालकर चल पड़ी थी वह बिमला के घर।
कितनी ही बातें मन में आ रही थीं। कितनी भोली-भाली और कितनी निश्च्छल मन की है बिमला। जेठ-जेठानी के होते हुए भी सास-ससुर के अच्छा व्यवहार न करने पर भी उसने सदैव ईमानदारी से सेवा की है उनकी। बीमारी होने पर उनके आखिरी समय में तो दिन-रात एक ही कर दिया था उसने जिसका असर बाद में उसकी अपनी सेहत पर भी काफ़ी पड़ा था।
गरीबी के नर्क से भी निकल गई थी अब तो वह। दो-दो मकानों की मालकिन थी वह कच्चा मकान तो था ही उसका। बाद में सफ़ेद पत्थर लगवाकर बनाए पक्के मकान की भी मालकिन हो गई थी वह।
और अब दो-दो बहुओं के आ जाने से इतनी मस्त हो गई थी कि उसे भी अब परायों में शामिल कर दिया था उसने। ईश्वर से उसकी खुशी और उसके सुखों के लिए दुआ तो अवश्य माँगती है वह परन्तु झगड़ेगी ज़रूर उससे अच्छी तरह जाकर वह। यह सोचते ही पहुँचने पर मुस्कुराती हुई जाकर घंटी बजाई उसने घर के बाहर खड़ी होकर।
कौन है...? अन्दर से पूछा गया।
अरे दरवाजा खोल आकर...। इतनी बूढ़ी हो गई है कि अन्दर से ही आवाज़ देकर पूछ रही है कि कौन है...? उसने कहा था।
अरे पहचाना नहीं मुझे भई....? उसका मन किया कि मन आई बात जोर से बोल दे वह।
आती हूँ...दम तो लो जरा कि बजाते जाओगे घंटी पर घंटी...। अन्दर से फिर आवाज़ आई थी।
आ जाओ भई...अब कहाँ से दम लूँ...अब नहीं रूका जाता दम लेने के लिए...जल्दी से खोलो दरवाजा आकर।
इस बार जोर से बोल गई थी वह भी पूर हक से।
दरवाजा खुला तो पूछा खोलने वाली ने...। कौन हैं आप...?
किसे मिलना है...?
अरे हटो परे..बिमला से मिलना है भई...।
उसने कहा...।
छोटी बहू होगी यह जो उसे जानती नहीं थी। यह सोचकर मुस्कुराहट तिर आई थी उसके होंठों पर और उसे एक तरफ हटने को कहा था उसने मजाकिया लहजे में।
जी...जरा रुकिए यहीं पर...।
दीदी..देखो तो जरा आकर कि कौन हैं यह...?
हैरान रह गई थी वह उसे इस तरह दरवाजे पर ही रोककर अन्दर आवाज़ देने पर।
कौन है...? कहते हुए बड़ी बहू आ गई थी...।
अरे आप...?
हाँ बहू....अन्दर तो भई..। इस बेचारी ने तो पहचाना नहीं मुझे...बड़ी बहू को देखकर बोली थी वह।
लेकिन माँ तो यहाँ नहीं रहती हैं। पीछे की तरफ़ से चली जाइए। उस दूसरे वाले घर में रहती हैं वह...कहते हुए बिना पाँव छुए...बिना अन्दर बुलाए खटाक से दरवाजा बन्द कर लिया था उसने।
वह आवक-सी दो पल खड़ी रह गई थी वहाँ। बड़ी मुश्किल से दो सीढ़ियाँ दरवाजे से नीचे उतरी थी वह। पाँव थे कि उठ ही नहीं रहे थे। मन-मन के भारी हो गए थे मानो। बड़ी मुश्किल से उन्हें घसीटती हुई घर के पिछवाड़े उस कच्चे मकान के आगे जा खड़ी हुई थी वह।
वह मकान अभी भी उसी तरह कच्चा था। बड़ी-सी गन्दी नाली मकान के ठीक आगे से होकर बह रही थी। एक छोटा-सा पत्थर उस नाली के ऊपर रखा हुआ था। उस पत्थर पर पाँव रखकर जैसे ही घर की कच्ची सीढ़ी पर खड़े होकर कुंडी खटखटाने के लिए हाथ बढ़ाया तो अन्दर से खाँसने की आवाज़ आई...और साथ ही एक और आवाज़ उभरी...।
बैठी रह बिमला...मैं अभी चाय बनाकर देता हूँ तुझे। धुआँ चढ़ जाएगा चूल्हे का और फिर खाँसते हुए अवाजार हो जाएगी, बैठी रह वहीं बस उठ रहा हूँ मैं। कुंडी को खटखटाने को उठा हाथ उसका वहीं-का-वहीं रह गया था। यह तो बिमला थी जो खाँस रही थी और उसके पति की आवाज थी जो चाय बनाने को उठ रहा था।
हे भगवान-इतनी दुर्दशा।
कैसे देख पाएगी वह बिमला को इस हालत में। दो क्षण खड़ी रही थी वह। लौट चलो वापिस दरवाजे से ही। मन ने कहा था। मुड़ गई थी वह वहीं से। भरी आँखें लिए आकर गाड़ी में बैठ गई थी वह।
अपने नर्क को तो बाँटती रही थी वह उससे सारी उम्र परन्तु फिर सुखों को वह उससे साँझा नहीं करने देना चाहती थी शायद, क्योंकि यह नर्क उसके भाग्य का लिखा नहीं था बल्कि उसकी अपनी औलाद द्वारा दिया गया नर्क जो था।
वह तो उसके लिए अब भी उस सफ़ेद पत्थर के बने पक्के मकान में अपनी दो-दो बहुओं के साथ बहुत खुश रह रही थी।
वह कुंडी खटखटाकर उसके इस खूबसूरत भ्रम को तोड़ना नहीं चाहती थी। लौट आई थी दरवाजे से ही वह फिर कभी न मिलने के लिए उससे।
मोहल्ले की कितनी ही लड़कियाँ लपकी आई थीं गाड़ी तक। उनकी उत्सुकता रोके नहीं रुक रही थी एक झलक बहू को देख लेने के लिए। उचक-उचककर गाड़ी की खिड़की में से अन्दर झाँकने की कोशिश कर रही थीं वे सब।
अरी मरजानियो....वह तो इसी घर में आई है, अब रोज ही देखती रहना चाहे। इतना भी सब्र नहीं कि अन्दर तो आ जाने दो। चलो हट जाओ पीछे सबकी सब।
लड़के की मोटी-सी बुआ ने सबको धकियाते हुए आगे बढ़कर गाड़ी का दरवाजा खोला।
द्वार पर खड़ी गुलाबी चुन्नी ओढे़ बेसब्री से इन्तजार करती बेटे की माँ ने सबसे पहले बहू-बेटे को ढेरों आशीर्वाद दिए और फिर पानी वार कर पिया। सौ-सौ बलाएँ लेते हुए बहू को लाकर अन्दर बिठा दिया। अन्दर-बाहर जाते हुए वह बहू को एक नज़र देख जाती। खुशी से फूली नहीं समा रही थी वह। जी तरस गया था उसका अपने घर में भी बहू को देखने के लिए। रिश्तेदारी में बेटे ब्याहे जाते, बहुएँ आतीं, यह देखकर सपने बुनने लगती थी वह भी। यूँ तो बड़ा बेटा ही नहीं छोटा भी कोई कम उम्र का नहीं था। ब्याह लायक तो दोनों ही थे, बसू यूँ ही देर होती चली गई कि लड़का कुछ और हाथ-पाँव जमा ले काम में। दो पैसे का अच्छा जुगाड़ हो जाए तभी शादी हो। करने को तो एक साल और पहले ब्याह कर डालती वह बड़े का....क्योंकि अब पैसे की उतनी तंगी नहीं रह गई थी, परन्तु लड़का चाहता था कि अभी नया-नया ही काम जमाया है थोड़ा और खुला पैसा आ जाए।
सर्दियों की भरपूर ठंड थी। बिमला ने नई शनील की रजाइयाँ पहले से ही बहू-बेटे के कमरे में रखवा दी थीं। बहुत शौक से गहरे मैरून रंग में पीले डिजाइन की छाँटकर रजाइयाँ बनवाई थीं। रेशमी झालर वाली चादर और रेशमी लिहाफ़ के तकियों से पलंग झक-झक कर रहा था।
लड़की का विदा होना हो या फिर बारात का ब्याह कर लौट आना। मेहमान लोग भी दूसरे दिन जल्दी न उठने की फ़िक्र से मुक्त लम्बी तान कर सोते हैं। लेकिन रमा थी कि कब से उठने-उठने का सोचकर करवटें ले रही थी। सबके उठ जाने पर तो गुसलखाने भी खाली नहीं मिलेंगे और शादी-ब्याह में तो एक गुलखाना हो चाहे चार हों...सब के सब रुके हुए ही मिलते हैं।
सभी मेहमान आज विदा होने वाले थे। उसे तो जाना भी बहुत दूर था। सुबह निकलेगी तब कहीं जाकर शाम तक घर पहुँच पाएगी वह। यह सोचकर उठ गई थी वह और सन्दूक में से कपड़े निकालने लगी थी स्नान करने के लिए। तभी उसे बाहर आँगन में खटर-पटर की आवाज सुनाई दी थी। कमरे का दरवाजा खोलकर बाहर झाँककर देखा था उसने।
अरे यह तो नई बिमला की बहू नहा-धोकर गीले बाल लिए गुसलखाने में से निकलती दिखाई दी उसे। उसने ऊपर लगी घड़ी में देखा। सुबह के साढे़ चार बजे थे। बहू साढ़े तीन-पौने चार तक ही उठी होगी तभी नहाकर निकल भी आई थी बाहर।
वह भी कपड़े लिए कमरे से बाहर आ गई थी और हँसते हुए बहू से बोली थी...। अरे बहू...तुमने तो सुबह-सुबह ही मोर्चा मार लिया भई नहाने का। मैंने तो सोचा सबसे पहले मैं ही नहा लूँगी आज लेकिन इतनी सर्दी में बिस्तर छोड़ना बहुत मुश्किल लगता है। बहू ने हँसते हुए आगे बढ़कर पाँव छुए उसके...।
जीती रहो...सुहागवती रहो...।
रमा ने सिर पर हाथ रख आशीर्वाद दिया था बहू को।
बेटा स्वेटर-शॉल पहन लेना। बहुत सर्दी है। कहते हुए गुसलखाने में घुस गई थी वह।
सुबह के सात बज चुके थे। बाकी सब लोग भी उठ गए थे परन्तु रजाइयों से बाहर नहीं निकले थे अभी....। शायद चाय का इन्तजार कर रहे थे वे।
वह भी नहा-धोकर चाय की प्रतीक्षा में बैठी थी। तभी लड़के की मौसी यानी बिमला की छोटी बहिन बड़बड़ाती हुई-सी चाय की ट्रे लिए कमरे में घुसी...। सब लोग चाय लेने के लिए लपक पड़े। उसने यूँ ही सरसरी-सा पूछ लिया था उससे...।
अरी निम्मो....दुल्हन को भी चाय दे दी क्या...? वह तो तड़के ही नहा- धोकर बैठी है।
चाय क्या दूँ दीदी उसे...। वह तो कब की मन्दिर में बैठी है गीले बाल लिए। चार दफा बोल चुकी हूँ कि स्वेटर पहन ले। शॉल ले ले। ठंड लग जाएगी। लेकिन वह तो सुनती ही नहीं है, ऐसी समाधि लगाकर बैठी है वह तो।
पहले दिन ही इतनी भक्ति...? स्वेटर-शॉल का तो उसने भी कहा था उससे तो फिर ? इससे पहले कि रमा कुछ और सोच पाती या कह पाती...सब लोग चाय पीते हुए कल बारात में हुई हुड़दंगबाजियों का हँस-हँसकर बखान करने लगे थे।
साढ़े आठ, नौ बजते-बजते सबसे और बिमला से विदा लेकर वह गाड़ी में आकर बैठ गई थी।
रिश्ते में बिमला उसकी कुछ नहीं लगती थी क्योंकि रिश्तेदारियों में कुछ दुराव-छिपाव होता है, परन्तु बिमला और उसके बीच में कहीं कोई दुराव-छिपाव या दूरी नहीं थी। अगर सहेली कहें तो स्कूल और कॉलेज का दोस्ताना भी दूर-दूर तक कहीं नहीं था। पड़ोसन भी नहीं कह सकती वह क्योंकि उसका घर और बिमला का घर कभी पास-पास नहीं था। तब भी उन दोनों का आपसी लगाव और प्यार-मोहब्बत ऐसा था कि जिसे किसी भी रिश्ते का नाम देना मूर्खता लगती थी उसे। जहाँ सारे नाम और रिश्ते गौण हो जाते हों बस वही रिश्ता था उसके और बिमला के बीच में।
यूँ वे दोनों गाँव की रहने वाली थीं। परन्तु वह तो जल्दी ही गाँव से निकलकर दिल्ली जैसे बड़े शहर में आ बसी थी।
बिमला की जिन्दगी कष्टों भरी थी। उसके एक-एक संघर्ष की जानकार थी वह। ब्याही आकर रमा केवल चार महीने ही उस गाँव में अपने सास-ससुर के पास रही थी। सारा दिन खाली बैठी जी तंग आ गया था उसका। तभी सास ने एक दिन कहा था उससे...।
‘‘बेटा यह चार घर छोड़कर बिमला रहती है। कहते हैं बहुत अच्छी सिलाई-कढ़ाई सिखाती है वह। न हो तो दो घड़ी वहीं जा-आया कर। जी भी लगा रहेगा और कोई हुनर भी हाथ में आ जाए तो अच्छा ही है।’’
और बस चली गई थी वह उसके यहाँ। एकदम कच्चे से दो कमरों में छोटा-सा घर था उसका। आगे आँगन और पीछे कमरे। बारिश हो चुकी थी। वह दगड़-दगड़ चप्पल पहने जैसे ही आँगन से होती हुई कमरे तक जाने लगी तो धड़ाम से फिसलकर कच्चे आँगन में चौफ़ाल गिरी थी। सारे कपड़े, हाथ-पाँव सब मिट्टी में लिप गए थे। बिमला भागकर अन्दर से निकली थी। हाथ –मुँह धुलवाकर अपने कपड़े पहनने को दिए थे उसने और फिर फटाफट चाय भी बनवा दी थी उसके लिए।
तुम वकीलों की बहू हो न...? मुस्कुराते हुए पूछा था बिमला ने।
दरअसल उसके पति और पति के बड़े भाई दोनों शहर में रहकर वकालत कर रहे थे। इसलिए उनका घर पूरे गाँव में ‘‘वकीलों का घर’’ के नाम से मशहूर था।
चाय पीते हुए उसने अपने आने का मकसद बताया था। उसने देखा कि घर यद्यपि उसका कच्चा था, परन्तु लिपा-पुता बेहद साफ़-सुथरा था। साथ वाले कमरे में दस-बारह लड़कियाँ सिलाई की मशीनों पर कपड़े सिल रही थीं। कुछ दो-तीन अन्य कपड़ों पर धागे की कढ़ाई भी कर रही थीं।
बिमला उसकी ही हम-उम्र थी। यद्यपि सब लड़कियाँ उसे बहिन जी कहकर ही बुलाती थीं परन्तु उसे बिमला को बहिन जी कहने में थोड़ी झिझक महसूस हो रही थी और फिर बिमला ने ही उसे बहिन जी न कहकर बिमला कहने का आग्रह ही किया था। और बस उसे बिमला कहने से ही उनके बीच के सब रिश्ते बेमानी हो गए थे। वह मानती है कि केवल प्यार के रिश्ते ने ही सबसे ऊँची जगह ले ली थी।
वह हर बार दावे के साथ कहती है कि जब आपस में बराबरी की सोच-समझ के रिश्ते जकड़ लेते हैं एक दूसरे को तो उन रिश्तों में सदैव स्थायित्व कायम रहता है। और वे बराय नाम से होते हुए भी अन्य सभी रिश्तों से ऊपर उठ जाते हैं। बस यही रिश्ता बिमला और उसके बीच भी कायम था।
नियम के खिलाफ़ होकर भी सालभर के कोर्स में से बिमला ने उसे चार महीनों में जरुरी सिलाई और कढ़ाई के टाँकों में निपुणता करवा दी थी।
आज पूरे उन्तीस वर्ष पूरे हो गए थे इन बातों को। चार-पाँच साल तक तो एकाध बार जाना हो जाता था गाँव में उसका। उसके बाद तो कोई रहा ही न था वहाँ और फिर हमेशा के लिए नाता ही टूट गया था उसका गाँव से। परन्तु बिमला से उसका सम्बन्ध ज्यों का त्यों ही बना रहा। उसके हर सुख दुख का पता लगता रहा उसे। सुख तो उसके पल्ले में आये ही नहीं थे अब तक। दुखों से ही उसका रिश्ता रहा इतने वर्षों तक। उसका बड़ा बेटा तब केवल आठ माह का था और छोटा तो तब पैदा ही नहीं हुआ था। दो-अढ़ाई साल बाद ही जन्म हुआ था उसका।
कहते हैं ईश्वर जब ढेर-से दुःख देता है किसी को...तो अपनी मर्यादा और इंसान की आस्था कायम रखने के लिए थोड़ा-सा सुख भी छोड़ देता है उसके भाग्य के किसी कोने में।
गरीबी और ससुरालिया रिश्तेदारियों की चक्की और चालाकी में पिसते हुए भी एक तरफ़ से बेहद सुख और सुकून था बिमला को कि उसका पिता बहुत अच्छा इंसान था। यदि वह बिमला की कोई मदद करके उसे बाह्य दुखों से उबार नहीं सकता था तो पत्नी की हिम्मत और समझदारी का वह पूरा-पूरा कायल ही नहीं था बल्कि उसके गुणों से प्रभावित भी था और अन्दर ही अन्दर कहीं सम्मान भी करता था वह उसका। बस इसी आत्मसन्तुष्टि के सहारे बिमला ने वे सारे कष्ट, वे सारे दुख सह लिए थे जो उसे गरीबी से मिले थे। अपने सास-ससुर और अपने जेठिया परिवार से मिले थे।
सिलाई-कढ़ाई के स्कूल को उसने अपनी हिम्मत से काफ़ी अच्छा बढ़ा लिया था। उसके पति का तबादला अब इस कस्बे में हो गया था जो अब तीस वर्षों बाद कस्बा कम शहर ज्यादा लगता था। यहाँ आकर भी स्कूल के बल पर ही उसने न केवल छोटा-सा कच्चा घर ही खरीद लिया था बल्कि प्लॉट भी ले लिया था छोटा-सा जिस पर यह खूबसूरत मकान बना लिया था उसने।
और अब ज़िन्दगी के इस तीसरे पड़ाव में आकर संसार की हर गृहिणी की तरह बच्चों के अपने गाँव पर खड़े होते ही उसकी भी घर में बहू लाने की इच्छा बलवती हो गई थी।
शादी से लौट आने पर दो-तीन महीने तक उसका फ़ोन आता रहा था रमा को कि वह बहुत खुश है। कोई छः माह बाद फिर उसका एक बार फ़ोन आया था कि छोटा बेटा अपनी पसन्द की बहू ब्याहकर घर ले आया था। बस छोटा-सा फंक्शन कर दिया था उसने बिना किसी को बुलाए। नई बहू को अपनी स्वीकृति दे दी है उसने और अब वह दोनों बहुओं को पाकर बहुत खुश है।
बिमला हमेशा बाहर लगे बूथ से ही यह सब बताया करती थी क्योंकि उसके घर में फ़ोन नहीं लगा हुआ था।
फिर दो वर्ष बीत जाने पर भी उसका कोई फ़ोन, कोई अता-पता न लगा था। तीस वर्षों मे ऐसे तो कभी नहीं हुआ कि बिमला का उसे कुछ भी पता न लगा हो। बहुओं के आने पर जैसा कि कहा जाता है कि सभी रिश्तेदार भी पराए हो जाते हैं या बहुओं के आने पर दूसरे स्थान पर आ जाते हैं तो क्या वह भी उसके लिए अब उसी श्रेणी में आ गई थी ? सोचती तो थी वह परन्तु उसका मन ऐसा कतई नहीं मानता था।
लगभग छः बाद माह बाद ही सबब बन गया उसका पंजाब जाने का। बिमला का कस्बा शादी के घर से जहाँ उसे जाना था कोई साठ-सत्तर किलोमीटर की दूरी पर था और वह वहाँ जाने का सोचकर ही गई
रिश्तेदारी के धूमधाम भरे माहौल में से एक दिन निकालकर चल पड़ी थी वह बिमला के घर।
कितनी ही बातें मन में आ रही थीं। कितनी भोली-भाली और कितनी निश्च्छल मन की है बिमला। जेठ-जेठानी के होते हुए भी सास-ससुर के अच्छा व्यवहार न करने पर भी उसने सदैव ईमानदारी से सेवा की है उनकी। बीमारी होने पर उनके आखिरी समय में तो दिन-रात एक ही कर दिया था उसने जिसका असर बाद में उसकी अपनी सेहत पर भी काफ़ी पड़ा था।
गरीबी के नर्क से भी निकल गई थी अब तो वह। दो-दो मकानों की मालकिन थी वह कच्चा मकान तो था ही उसका। बाद में सफ़ेद पत्थर लगवाकर बनाए पक्के मकान की भी मालकिन हो गई थी वह।
और अब दो-दो बहुओं के आ जाने से इतनी मस्त हो गई थी कि उसे भी अब परायों में शामिल कर दिया था उसने। ईश्वर से उसकी खुशी और उसके सुखों के लिए दुआ तो अवश्य माँगती है वह परन्तु झगड़ेगी ज़रूर उससे अच्छी तरह जाकर वह। यह सोचते ही पहुँचने पर मुस्कुराती हुई जाकर घंटी बजाई उसने घर के बाहर खड़ी होकर।
कौन है...? अन्दर से पूछा गया।
अरे दरवाजा खोल आकर...। इतनी बूढ़ी हो गई है कि अन्दर से ही आवाज़ देकर पूछ रही है कि कौन है...? उसने कहा था।
अरे पहचाना नहीं मुझे भई....? उसका मन किया कि मन आई बात जोर से बोल दे वह।
आती हूँ...दम तो लो जरा कि बजाते जाओगे घंटी पर घंटी...। अन्दर से फिर आवाज़ आई थी।
आ जाओ भई...अब कहाँ से दम लूँ...अब नहीं रूका जाता दम लेने के लिए...जल्दी से खोलो दरवाजा आकर।
इस बार जोर से बोल गई थी वह भी पूर हक से।
दरवाजा खुला तो पूछा खोलने वाली ने...। कौन हैं आप...?
किसे मिलना है...?
अरे हटो परे..बिमला से मिलना है भई...।
उसने कहा...।
छोटी बहू होगी यह जो उसे जानती नहीं थी। यह सोचकर मुस्कुराहट तिर आई थी उसके होंठों पर और उसे एक तरफ हटने को कहा था उसने मजाकिया लहजे में।
जी...जरा रुकिए यहीं पर...।
दीदी..देखो तो जरा आकर कि कौन हैं यह...?
हैरान रह गई थी वह उसे इस तरह दरवाजे पर ही रोककर अन्दर आवाज़ देने पर।
कौन है...? कहते हुए बड़ी बहू आ गई थी...।
अरे आप...?
हाँ बहू....अन्दर तो भई..। इस बेचारी ने तो पहचाना नहीं मुझे...बड़ी बहू को देखकर बोली थी वह।
लेकिन माँ तो यहाँ नहीं रहती हैं। पीछे की तरफ़ से चली जाइए। उस दूसरे वाले घर में रहती हैं वह...कहते हुए बिना पाँव छुए...बिना अन्दर बुलाए खटाक से दरवाजा बन्द कर लिया था उसने।
वह आवक-सी दो पल खड़ी रह गई थी वहाँ। बड़ी मुश्किल से दो सीढ़ियाँ दरवाजे से नीचे उतरी थी वह। पाँव थे कि उठ ही नहीं रहे थे। मन-मन के भारी हो गए थे मानो। बड़ी मुश्किल से उन्हें घसीटती हुई घर के पिछवाड़े उस कच्चे मकान के आगे जा खड़ी हुई थी वह।
वह मकान अभी भी उसी तरह कच्चा था। बड़ी-सी गन्दी नाली मकान के ठीक आगे से होकर बह रही थी। एक छोटा-सा पत्थर उस नाली के ऊपर रखा हुआ था। उस पत्थर पर पाँव रखकर जैसे ही घर की कच्ची सीढ़ी पर खड़े होकर कुंडी खटखटाने के लिए हाथ बढ़ाया तो अन्दर से खाँसने की आवाज़ आई...और साथ ही एक और आवाज़ उभरी...।
बैठी रह बिमला...मैं अभी चाय बनाकर देता हूँ तुझे। धुआँ चढ़ जाएगा चूल्हे का और फिर खाँसते हुए अवाजार हो जाएगी, बैठी रह वहीं बस उठ रहा हूँ मैं। कुंडी को खटखटाने को उठा हाथ उसका वहीं-का-वहीं रह गया था। यह तो बिमला थी जो खाँस रही थी और उसके पति की आवाज थी जो चाय बनाने को उठ रहा था।
हे भगवान-इतनी दुर्दशा।
कैसे देख पाएगी वह बिमला को इस हालत में। दो क्षण खड़ी रही थी वह। लौट चलो वापिस दरवाजे से ही। मन ने कहा था। मुड़ गई थी वह वहीं से। भरी आँखें लिए आकर गाड़ी में बैठ गई थी वह।
अपने नर्क को तो बाँटती रही थी वह उससे सारी उम्र परन्तु फिर सुखों को वह उससे साँझा नहीं करने देना चाहती थी शायद, क्योंकि यह नर्क उसके भाग्य का लिखा नहीं था बल्कि उसकी अपनी औलाद द्वारा दिया गया नर्क जो था।
वह तो उसके लिए अब भी उस सफ़ेद पत्थर के बने पक्के मकान में अपनी दो-दो बहुओं के साथ बहुत खुश रह रही थी।
वह कुंडी खटखटाकर उसके इस खूबसूरत भ्रम को तोड़ना नहीं चाहती थी। लौट आई थी दरवाजे से ही वह फिर कभी न मिलने के लिए उससे।
डरती हूँ मैं
अच्छा दीदी जी...आप इसे कैसा समझती हैं ? मेरा मतलब है-यह सब जो हुआ या हो
रहा है क्या ठीक है आपकी नज़र में...?
क्या कह रहे हो तुम ? अरे किस बारे में पूछ रहे हो ?
उसके अचानक इस तरह से पूछने पर आश्चर्यचकित-सी होकर कहा मैंने।
यही दीदी जी...कि बाबरी मस्जिद तोड़कर अच्छा किया उन्होंने या गलत किया ?
मैं उसके मुँह की तरफ़ देखने लगी थी। यह क्यों पूछ रहा है मुझसे ? और फिर मैं क्या जवाब दूँ इसे ? किसकी तरफ़दारी करते हुए जवाब दूँ ? मुझे क्या पता कि यह हिन्दू है या मुसलमान ? मैं तो हिन्दू होते हुए भी साफ नीयत से सच का साथ देते हुए ही जवाब दूँगी, परन्तु यह किस तरह की बात से खुश होगा मैं नहीं जानती थी।
वह एक सब्जी बाला था। यूँ तो दिन भर में सब्जी से भरी कई रेहड़ियाँ आवाज़ें देतीं घर के सामने से निकलती हैं, परन्तु मैं अक्सर इसी से सब्जी लेती हूँ।
इसके दो कारण हैं। एक तो दूसरे सब्जी वालों की सब्जी भी बहुत ताज़ी नहीं होती दूसरा वे लोग सब्ज़ी देने में भी ईमानदारी नहीं बरतते। यानि आधा किलो सब्जी चाहिए हो तो वे जबरन पौन किलो तक तोल देंगे। या फिर एक दो रुपए वापिस करने हों तो उन्हें बहुत ही मुश्किल लगता है। और वे ज़बर्दस्ती उतने की सब्जी ज्यादा कर देंगे। अन्यथा एकाध टमाटर, आलू प्याज या ऐसी कोई भी चीज़ सब्जी में फालतू के लिए डाल देंगे। इस तरह की हरकतें देखकर उनसे सब्जी लेने का मन ही नहीं करता। परन्तु इस सब्जी वाले ने ऐसा कभी नहीं किया। और फिर अच्छी बात यह भी कि सब्जियाँ भी काफ़ी हरी और ताजी ही लाता है यह।
मेरे घर के आगे खड़े होकर दो-तीन दफ़ा आवाज़ लगाता है। यदि मैं बाहर निकलकर सब्जी ले लूँ तो ठीक नहीं तो चला जाता है जबकि दूसरे सब्जी वाले अक्सर ही घंटियां बजा-बजाकर नाक में दम कर देते हैं।
इस हिसाब से यह व्यक्ति न केवल अच्छी सब्जियों के कारण बल्कि अपनी शिष्टता के कारण भी सब्जी देने में सफल रहता है। बस इससे मेरा एक विक्रेता और ग्राहक का ही नाता है, इसीलिए न इसने कभी कोई और बात मुझसे कही या पूछी और न मैंने ही कभी जरूरत समझी जानने की कि वह हिन्दू है या मुसलमान अथवा उसका नाम ही क्या है...?
यह उन दिनों की बात है शायद छः दिसम्बर की जब बाबरी मस्जिद को तोड़े कुछ ही समय हुआ था। शायद एकाध महीना ही।
और आज उसके इस अप्रत्याशित सवाल के कारण मुझे उसका नाम पूछने की आवश्यकता महसूस हुई।
दीदी जी-आपने बताया नहीं ? जवाब नहीं दिया मेरी बात का...?
मुझे उसी तरह चुपचाप सब्जी छाँटकर टोकरी में डालते देखकर उसने दोबारा वही प्रश्न पूछा।
हाँ तो...तुम्हारा नाम क्या है सब्जी वाले ? मैंने होश्यारी दिखाते हुए पूछा उससे...।
जी...शादिया...! शादिया नाम है मेरा।
अब इस शादिया नाम से तो कुछ भी पता नहीं लग सकता कि यह हिन्दू है या मुसलमान।
शादिया तो यूँ भी बहुत पहले हमारे घर काम करने वाले एक नौकर का नाम था और वह तो हिन्दू था। परन्तु यह नाम तो किसी मुसलमान का भी हो सकता है। मैं सोचने लगी थी।
सारी सब्जी देकर पैसे लेते हुए एक बार फिर पूछा उसने तो मुझे बोलना ही पड़ा।
देखो शादिया...घर तो चाहे हिन्दू का हो या मुसलमान का...इस तरह तोड़ देना तो अच्छी बात नहीं होती। और फिर अल्लाह निवास करता हो उसमें या ईश्वर का वास हो, है तो एक ही हस्ती। उसी के तो रूप हैं ये सब अलग-अलग। मैंने ऊपर की तरफ़ हाथ उठाते हुए कहा। इस एक रूप को टुकड़ों में बाँटकर सबको अलग-अलग घरों में तो हमीं ने बिठा दिया है। फिर तुम्हीं बताओ शादिया एक दूसरे के द्वारा बनाए घरों को तोड़ देना अच्छी बात है क्या...? मैं तो न हिन्दुओं के लिए अच्छी बात समझती हूँ और मुसलमानों के लिए ही।
वह खिलखिलाकर हँस पड़ा।
आपको तो दीदी जी राजनीति में होना चाहिए।
यूँ तो वह मेरी बात सुनकर बहुत खुश हुआ था। परन्तु नेताओं की तरह गोलमोल जवाब सुनकर राजनीतिज्ञ का खिताब देने पर मैं उसकी समझदारी की कायल भी हो गई थी।
क्या कह रहे हो तुम ? अरे किस बारे में पूछ रहे हो ?
उसके अचानक इस तरह से पूछने पर आश्चर्यचकित-सी होकर कहा मैंने।
यही दीदी जी...कि बाबरी मस्जिद तोड़कर अच्छा किया उन्होंने या गलत किया ?
मैं उसके मुँह की तरफ़ देखने लगी थी। यह क्यों पूछ रहा है मुझसे ? और फिर मैं क्या जवाब दूँ इसे ? किसकी तरफ़दारी करते हुए जवाब दूँ ? मुझे क्या पता कि यह हिन्दू है या मुसलमान ? मैं तो हिन्दू होते हुए भी साफ नीयत से सच का साथ देते हुए ही जवाब दूँगी, परन्तु यह किस तरह की बात से खुश होगा मैं नहीं जानती थी।
वह एक सब्जी बाला था। यूँ तो दिन भर में सब्जी से भरी कई रेहड़ियाँ आवाज़ें देतीं घर के सामने से निकलती हैं, परन्तु मैं अक्सर इसी से सब्जी लेती हूँ।
इसके दो कारण हैं। एक तो दूसरे सब्जी वालों की सब्जी भी बहुत ताज़ी नहीं होती दूसरा वे लोग सब्ज़ी देने में भी ईमानदारी नहीं बरतते। यानि आधा किलो सब्जी चाहिए हो तो वे जबरन पौन किलो तक तोल देंगे। या फिर एक दो रुपए वापिस करने हों तो उन्हें बहुत ही मुश्किल लगता है। और वे ज़बर्दस्ती उतने की सब्जी ज्यादा कर देंगे। अन्यथा एकाध टमाटर, आलू प्याज या ऐसी कोई भी चीज़ सब्जी में फालतू के लिए डाल देंगे। इस तरह की हरकतें देखकर उनसे सब्जी लेने का मन ही नहीं करता। परन्तु इस सब्जी वाले ने ऐसा कभी नहीं किया। और फिर अच्छी बात यह भी कि सब्जियाँ भी काफ़ी हरी और ताजी ही लाता है यह।
मेरे घर के आगे खड़े होकर दो-तीन दफ़ा आवाज़ लगाता है। यदि मैं बाहर निकलकर सब्जी ले लूँ तो ठीक नहीं तो चला जाता है जबकि दूसरे सब्जी वाले अक्सर ही घंटियां बजा-बजाकर नाक में दम कर देते हैं।
इस हिसाब से यह व्यक्ति न केवल अच्छी सब्जियों के कारण बल्कि अपनी शिष्टता के कारण भी सब्जी देने में सफल रहता है। बस इससे मेरा एक विक्रेता और ग्राहक का ही नाता है, इसीलिए न इसने कभी कोई और बात मुझसे कही या पूछी और न मैंने ही कभी जरूरत समझी जानने की कि वह हिन्दू है या मुसलमान अथवा उसका नाम ही क्या है...?
यह उन दिनों की बात है शायद छः दिसम्बर की जब बाबरी मस्जिद को तोड़े कुछ ही समय हुआ था। शायद एकाध महीना ही।
और आज उसके इस अप्रत्याशित सवाल के कारण मुझे उसका नाम पूछने की आवश्यकता महसूस हुई।
दीदी जी-आपने बताया नहीं ? जवाब नहीं दिया मेरी बात का...?
मुझे उसी तरह चुपचाप सब्जी छाँटकर टोकरी में डालते देखकर उसने दोबारा वही प्रश्न पूछा।
हाँ तो...तुम्हारा नाम क्या है सब्जी वाले ? मैंने होश्यारी दिखाते हुए पूछा उससे...।
जी...शादिया...! शादिया नाम है मेरा।
अब इस शादिया नाम से तो कुछ भी पता नहीं लग सकता कि यह हिन्दू है या मुसलमान।
शादिया तो यूँ भी बहुत पहले हमारे घर काम करने वाले एक नौकर का नाम था और वह तो हिन्दू था। परन्तु यह नाम तो किसी मुसलमान का भी हो सकता है। मैं सोचने लगी थी।
सारी सब्जी देकर पैसे लेते हुए एक बार फिर पूछा उसने तो मुझे बोलना ही पड़ा।
देखो शादिया...घर तो चाहे हिन्दू का हो या मुसलमान का...इस तरह तोड़ देना तो अच्छी बात नहीं होती। और फिर अल्लाह निवास करता हो उसमें या ईश्वर का वास हो, है तो एक ही हस्ती। उसी के तो रूप हैं ये सब अलग-अलग। मैंने ऊपर की तरफ़ हाथ उठाते हुए कहा। इस एक रूप को टुकड़ों में बाँटकर सबको अलग-अलग घरों में तो हमीं ने बिठा दिया है। फिर तुम्हीं बताओ शादिया एक दूसरे के द्वारा बनाए घरों को तोड़ देना अच्छी बात है क्या...? मैं तो न हिन्दुओं के लिए अच्छी बात समझती हूँ और मुसलमानों के लिए ही।
वह खिलखिलाकर हँस पड़ा।
आपको तो दीदी जी राजनीति में होना चाहिए।
यूँ तो वह मेरी बात सुनकर बहुत खुश हुआ था। परन्तु नेताओं की तरह गोलमोल जवाब सुनकर राजनीतिज्ञ का खिताब देने पर मैं उसकी समझदारी की कायल भी हो गई थी।
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