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मनन

सरला भाटिया

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4930
आईएसबीएन :81-7043-327-4

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आधुनिक जीवन की जटिलतम समस्याओं की समीक्षा ही नहीं उनके समाधान....

Rajani

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

समर्पण

अपने दादाजी स्व. ठाकुर दास भाटिया जी को जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा...उन्होंने दीक्षा दी थी...
‘‘तेरी तंग नज़रों ने मारा तुझे
तेरी ही खुदी ने बिसारा तुझे
अगर तू देखे निगाह करके साफ़
लगे हर कोई प्यारा तुझे।’’

संपादकीय

परिवार वह सुदृढ़ किला है जहाँ बच्चों, बड़ों, बूढ़ों सभी को सुरक्षा मिलती है। इस पुस्तक में लोकप्रिय लेखिका सरला भाटिया ने यह बताने का प्रयास किया है कि किस प्रकार रिश्तों में सामंजस्य बनाए रखकर जीवन में खुशहाली लाई जाए।
अपने पहले चार कहानी-संग्रहों द्वारा अपनी पहचान बना लेनी वाली जानी-मानी लेखिका की यह पुस्तक ‘मनन’ सुधी पाठकों को सोच की एक नई दिशा प्रदान करेगी, ऐसी आशा है।

अपनी बात

अब रिश्तों में वह गर्मी नहीं, न हमदर्दी, न प्यार-भरा अहसास; न कोई लगाव, न निकटता और न सहीगता। मिलने-मिलाने में भी वह तपाक और गर्मजोशी नहीं रही।
बदलते जीवन-मूल्यों के साथ-साथ सास-बहू, देवर-भाभी, बहन-बहन और यहाँ तक कि पिता-पुत्री व अन्य पारिवारिक रिश्तों में ठहराव-सा आ गया है यह अहम रिश्ते ज़मीन-जायदाद, व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता, आपसी मतभेद और अंधविश्वासों में उलझकर बिखरने लगे हैं। आधुनिक युग में लोगों के पास चीजों और सुविधाओं की भरमार है परंतु एक-दूसरे से हमदर्दी व दिली जज़्बात नहीं जो रिश्तों को एक सूत्र में बाँधते हैं। रिश्तों की गर्मी को बरकरार रखना, आपसी मेलजोल और प्यार-मुहब्बत पर निर्भर है।
इन लेखों में मैंने बच्चों का मनोविज्ञान, मनोविश्लेषकों से भेंटवार्ताएँ, बड़े-बुजुर्गों के अनुभव, शिक्षाविदों और कानूनविदों और अपने-अपने क्षेत्र में कार्यरत विशेषज्ञों के मश्विरे दिए हैं जो पाठकों को पारस्परिक आत्मीयता, स्नेह और सहृदयता की ओर प्रेरित करते हैं।
आधुनिक जीवन की जटिलतम समस्याओं की केवल समीक्षा ही नहीं की गई बल्कि उसके समाधान की खोज भी की गई। सामाजिक और पारिवारिक संबंध-सूत्रों के पुनर्निर्माण में यह पुस्तक यदि किंचितमात्र भी सहायक हो सके तो मैं अपना प्रयास सार्थक समझूँगी। जीवन को समग्रता में देखने का यह छोटा-सा प्रयास है मेरा।

छोटे बच्चे और आप

‘‘क्या खाएगा मेरा राजा बेटा ?’’ मिंकू की माँ का इतना कहना ही था कि डेढ़ साल के नन्हे-मुन्ने ने स्वयं अपने हाथ से डाइनिंग रूम में पड़े फ्रिज को खोला और पूरा निरीक्षण करके बोला, ‘‘अंडा ! अंडा।’’
ममता ने अपने बेटे के लिए अंडे को फ्रिज से निकाल कर हाफ़-बोयल किया क्योंकि उसे अंडे को तरल रूप में खाना ही पसंद है। उसने पूरा अंडा कुर्सी-मेज़ पर बैठकर बड़े आनन्द से खाया और खत्म हो जाने पर दोबारा फ्रिज खोलकर उसकी फरमाइश की ‘अंडा !, अंडा !’ कहकर वह खिलखिलाकर हँसने लगा।
‘‘पर एक अंडा तो यह खा चुका है। दो-दो अंडे एक ही समय पर और फिर इसे तो स्किन की इससे Allergy भी है।’’
‘‘ऐसा करो बहू ! इसका ध्यान किसी दूसरी तरफ लगा दो।’’
इतना कहकर ममता की सास ने अपने पोते के सामने सब्जी वाले की कविता गानी आरंभ कर दी :
‘‘सब्जी वाला आया देखो
सब्जी वाला आया,
भर-भर केला लाया देखो
झट-झट केला लाया।’’
इतना सुनते ही मिंकू प्रसन्न मुद्रा में हँसकर बोला, ‘‘तातर ! तातर!’’
दादी ने झट से पोते के लिए टमाटर निकाला और उसके नन्हे हाथ में थमा दिया। फिर दोबारा उसके हाथ से लेकर उसे धोकर साफ किया तो बच्चे ने इशारे से नमकदानी की फरमाइश की। दादी ने टमाटर को प्लेट में रखकर और चाकू से काटकर उसी के हाथ से उस पर नमक छिड़काया और एक-एक टुकड़ा उसके मुँह में डालती जाती। उसे मालूम था कि बच्चा टमाटर का बेहद शौकीन है। बच्चे का ध्यान अंडे से हटकर अब टमाटर और कविता पर था। फिर उसने स्वयं अपने हाथ से एक उँगली ऊँची करके न तब यानी बाथरूम में जाने की फरमाइश की लेकिन दादी को इशारे से कहा कि बाथरूम में रखी टेबल पर बैठ जाए।
वास्तव में बच्चा इस उम्र में भी अपनी विशिष्ट प्रकार की इच्छाएँ रखता है और यह जताना चाहता है कि उसका अपना एक अलग व्यक्तित्व है। कई बार वह अपनी पहचान बनाने के लिए और दूसरों का ध्यान आकर्षित करने के लिए नकारात्मक रवैया अख्तियार करता है, गुस्सा करता है अपना सिर पटकता है और अपने अभिभावकों को मारता भी है। अभिभावक उसके जिद्दीपन से नाराज़ होकर उसे डाटते भी हैं और कई बार उसे एक आध चपत भी लगा देते हैं। इसी प्रकार मीता का ढाई वर्ष का पुत्र कई बातों को मनवाने के लिए ऊधम मचाता है, डाइनिंग टेबल पर चढ़कर प्लेटों, चम्मचों को इधर-उधर फेंकता है। बहुत पुचकारने पर भी वह नहीं मानता और वहाँ से हटा लेने पर जोर-जोर से रोना शुरू कर देता है और अपने क्रोध को उग्र व्यवहार में प्रकट करता है।

हालाँकि क्रोधजनित उग्र व्यवहार का प्रदर्शन इस उम्र के बच्चों की एक सामान्य समस्या है, लेकिन फिर भी उनके माता-पिता को उनके इस व्यवहार पर नियंत्रण रखने के लिए कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ेगा।
कई बार छोटा बच्चा तब तक जिद पर अड़ा रहता है, जब तक कि उसके माता-पिता उसकी नज़र के सामने रहते हैं। जब बच्चा इस तरह के व्यवहार पर उतर आए तो माता-पिता को उसके सामने से हट जाना चाहिए। अक्सर कामकाजी अभिभावकों के सामने ऐसी समस्याएँ आए दिन आती हैं।
मनोचिकित्सकों की सलाह है कि माता-पिता अपने बच्चों के क्रोध और जिद को सहज ढंग से लेना सीखें और समय-समय पर उन्हें अपने मूल्यवान समय में से कुछ समय देना सीखें।
तीन साल की उम्र के बच्चे ज़रा समझदार होते हैं इसलिए माता-पिता उन्हें समझा-बुझाकर उनके क्रोध को शांत कर सकते हैं। लेकिन इस प्रकार का वार्त्तालाप तभी करें जब बच्चा शांत हो चुका हो, क्योंकि क्रोधित बच्चे पर उपदेश का कोई असर नहीं होता। क्रोध में बच्चे कुछ भी ग़लत-सलत कह देते हैं। माता-पिता बच्चे की बदजुबानी और बदतमीजी सहन नहीं करते। क्रोध में पागल हुए बच्चे की गाली माता-पिता की सहनशीलता का बाँध तोड़ डालती है और वह कई बार उसकी पिटाई भी कर देते हैं। उनके इस रवैये से बच्चा भी असहयोगी और अशिष्ट होता जाता है।
कुछ रोज़ पहले रमा के पुत्र ने गुस्से में उसे एक गाली दी। वह उसकी बदतमीजी और बदजुबानी देखकर उसे एक अलग कमरे में ले गई और बोली, ‘‘देखो राहुल ! तमीज़ से बात करना सीखो, आइंदा ऐसी गलती मत करना।’’ चार साल का राहुल कुछ तो समझ ही गया और अपने पड़ोस के मित्र के साथ खेलने चल दिया। मैंने भी उसे कुछ नहीं जताया। कमरे के भीतर ही उसने माँ से ‘सॉरी’ कहा और जूते पहनकर खेलने के लिए भाग गया।
यदि माता-पिता सज़ापूर्ण रवैया अपनाते हैं तो टोका-टाकी और उनके गुस्से को बच्चे एक चुनौती के रूप में लेते हैं। अतः माता-पिता को बड़ी चतुराई से काम लेने की ज़रूरत होती है।
कई बार स्कूल में जाते बच्चों की समस्याएँ गंभीर रूप धारण कर लेती हैं।
ढाई साल से पहले बच्चे को स्कूल में न भेजें, इसलिए तीन साल का होने पर ही उसे नर्सरी में दाखिला करवाएँ, जहाँ खेल-खेल में ही वह बच्चों में मिल-जुलकर रहना सीखे, गाना सीखे और खेले। वास्तव में शिष्ट कक्षा का अर्थ है, बच्चों को स्कूल भेजने से पहले स्कूल जैसे वातावरण से बच्चे को परिचित कराना, घर से बाहर की दुनिया में कदम रखवाना न कि उस नन्हें-मुन्ने पर कड़े अनुशासन लादना। आजकल स्कूलों में दाखिले के लिए होने वाले साक्षात्कारों ने माता-पिता और बच्चों के दिमागों में तनाव भर दिया है। कामकाजी माएँ व पिता इस समस्या से ज़्यादा ग्रस्त हैं।
बच्चों के सामने उनकी टीचर्स और शिक्षक की बुराई न करें ताकि बच्चा खुले दिमाग से वहाँ जा सके। सबसे जरूरी बात है वहाँ के संचालन का व्यवहार स्नेहपूर्ण हो। यदि बच्चे की देखभाल सही ढंग से की जाए और उसे इस बात का अहसास कराया जाए कि वह कक्षा का और परिवार का महत्त्वपूर्ण सदस्य है और उसका हर जगह स्वागत है। जो प्यार और सहानुभूति उसे अपने अभिभावकों से मिलती है वह उसके व्यक्तित्व को निखारने में अत्यंत सहायक होती है। बच्चा स्कूल जाने लगे तो उसके कपड़ों पर भी खूब ध्यान दें, क्योंकि सबसे अधिक बच्चा इन्हीं कपड़ों में रहता है। ये कपड़े आरामदायक साफ़ व मौसम के अनुकूल होने चाहिए। कपड़ों के साथ-साथ जूते और मौजे भी आरामदायक हों ताकि बच्चा उन्हें पहनकर आसानी से चल-फिर सके। आपका प्रयास यही होना चाहिए कि बच्चे में सफाई से रहने की आदत बनी रहे।
कुछ बच्चे रात को कुरता-पायजामा या नाइट सूट पहनने की बजाए पैंट-कमीज में ही सो जाते हैं। घबराइए नहीं कभी-कभार ऐसा हो जाए तो कोई हर्ज नहीं परंतु यह कपड़े कसे हुए कदापि नहीं होने चाहिए।

इसी प्रकार सोते समय उन्हें अच्छी बातें और अच्छी कहानियाँ सुनाएँ। डरावनी कथाएँ मन-मस्तिष्क पर बुरा प्राभाव डालती है।
डॉक्टरों का कहना है कि दूध पीने से अच्छी नींद आती है। सोने से पहले उन्हें दूध पिलाएँ तो बेहतर होगा, क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन और दिमाग का विकास होता है।
आज का बच्चा कल का भविष्य है। जैसा आपका बरताव होगा, जैसा आप अपने नाते-रिश्तेदारों, मित्रों परिचितों से पेश आएँगे वैसा ही वह भी सीखेगा। घर के बुजुर्ग व माता-पिता बच्चों के साथ आत्मीयता का रिश्ता कायम करें—बच्चों को बच्चा समझकर कभी नज़रअंदाज़ न करें क्योंकि उनकी बुद्धि, अक्ल व समझदारी को पुष्पित व पल्लवित करने वाले आप ही हैं।
अपने घरेलू झगड़े व मनमुटावों को बच्चों से दूर रखें। यह क्लेश उनके मन मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ती है।
आज के हमारे सामाजिक ढाँचे में व्यक्तिवादी भावनाएँ सर्वोपरि हैं। हर इंसान को अपने काम और स्वार्थ से मतलब है। साथ-साथ आधुनिक युग में धन व ऐश्वर्य का विशेष, महत्त्व है। गरीब रिश्तेदारों को लोग अपने से दूर ही रखते हैं। बच्चा यह सब देखकर उन्हीं का अनुसरण करता है। पता नहीं कहाँ खो गई हैं कृष्ण-सुदामा की कहानियाँ ?
इस प्रेम और मुहब्बत के जज़्बे को कायम रखने के लिए सबसे पहले उच्चवर्ग को पहल करनी होगी। ईद, होली, दीवाली, बैसाखी आदि पर्वों पर एक-दूसरे के साथ मेल-जोल व आपसी व्यवहार आपसी रिश्तों में गरमाहट लाता है। यही गरमाहट बच्चों को पारस्परिक सहयोग की ओर प्रेरित करेगी।

बच्चों का मनोविज्ञान और आप

इस लेख को लिखते समय मेरे मस्तिष्क में आज से 20 साल पहले की घटना उजागर होने लगती है। उन दिनों मैंने अपने 7 वर्षीय बेटे का नए स्कूल में दाखिला करवाया था। कुछ रोज पश्चात मुझे महसूस होने लगा, बच्चा अपने नये स्कूल के वातावरण से कुछ निराश-सा है।
एक रोज़ उसे स्कूल के लिए तैयार करते समय मैंने उसके हाथ में बगीचे से ताजा गुलाब का फूल तोड़कर देते हुए कहा, ‘‘इस फूल को आप अपनी अध्यापिका को दे देना, वह बहुत खुश होंगी।’’
बच्चे ने फूल को दूर फेंककर उत्तर दिया, ‘‘नहीं, मैं उसे कुछ नहीं दूँगा। वह बहुत बुरी हैं। वह मुझे हर बात पर डाँटती हैं और मारती भी हैं’’ इतना कहकर वह फूट-फूट कर रोने लगा। उसके मन का रोष व खीझ आँसुओं में बह निकले।
उसके इस व्यवहार ने मुझे भी बहुत चिंतित कर दिया और मैंने उसकी वर्ग शिक्षिका से मिलना ज़रूरी समझा। उससे मुलाकात करके मुझे महसूस हुआ कि अध्यापिका का व्यवहार पक्षपातपूर्ण है। मेरे नन्हें बेटे की शरारतों से वह कुछ ज्यादा ही खीझ गई हैं। मुझे अपने बच्चे की शिकायत सच लगी कि वह अध्यापिका बात-बेबात उसे डाँटती हैं और मारती भी है।
मैंने उसकी अध्यापिका से प्रश्न किया, ‘‘देखिए, मेरा बच्चा इस स्कूल में नया-नया आया है। यहाँ के माहौल को अपनाने में उसे कुछ समय तो लगेगा ही। आप सुझाव दें कि हम माता-पिता इसे स्कूल के अनुकूल बनाने में क्या सहयोग दे सकते हैं ?’’
मेरे बच्चे की वर्ग शिक्षिका ने बताया, ‘‘इसको गृहकार्य करवाते समय आप इसकी कापियों की जाँच स्वयं करें और इसके गणित विषय पर विशेष ध्यान दें। बहुत सारी लापरवाही भरी गलतियों के कारण मैं इसे पूरे अंक नहीं देती। आप इसकी सब माँगें जैसे मनचाहे कपड़े, नए जूते या खिलौने आदि खरीदकर तब तक न दें जब तक यह पढ़ाई में सुधर नहीं जाता यानी जब तक इसे 10 अंकों में 10 अंक प्राप्त नहीं हो जाते, इसे नए जूते, जिसकी फरमाइश कर रहा है, खरीदकर न दें।’’
उसकी बातें सुनकर मैं गंभीर हो गई क्योंकि बाल मनोविज्ञान के अनुसार अभिभावकों का सजापूर्ण व्यवहार और गुस्सा बच्चों में सुधार लाने के बजाए उन्हें और अधिक उद्दंड बनाता है। वे चिड़चिड़े आक्रमक, तथा जिद्दी बन जाते हैं। माता-पिता या अध्यापिका के पक्षपातपूर्ण व्यवहार से कई बच्चे बेहद जिद्दी व ढीठ बन जाते हैं। वे स्कूल में साथी बच्चों को पीटते हैं और साथ-साथ लड़-झगड़कर अपना गुस्सा शांत करते हैं।
पहले समय में बच्चों को 5 साल की उम्र में स्कूल भेजा जाता था, जो हर प्रकार से उचित था। आज के समय में अभिभावक ढाई साल की उम्र में ही नर्सरी स्कूलों में बच्चों को भेजने लगते हैं। नर्सरी स्कूल खोलने का प्रायोजन यह था कि बच्चा घर के वातावरण से निकलकर अन्य बच्चों के साथ मिल-जुलकर रहना सीखेगा। बच्चा नए-नए खिलौनों से खेलेगा। पर अब कई नर्सरी स्कूलों में बच्चों पर अत्यधिक पढ़ाई का बोझ लादा जाने लगा है जो बच्चों के स्वाभाविक विकास में बाधक और हानिकारक है। विशेषज्ञों के अनुसार 5 साल से कम उम्र के बच्चों के हाथों की माँसपेशियाँ बहुत कोमल होती है। पेंसिल पकड़ने से बच्चे की कोमल उँगलियों पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है। इसके साथ ही इस उम्र में लिखने से बच्चे की आँखों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि आजकल बहुत से छोटे बच्चों की आँखों में चश्मा दिखाई देता है।

शायद इसी वजह से अमेरिका रूस, इंगलैंड व जर्मनी जैसे विकसित देशों में 6 वर्ष की आयु में बच्चों को लिखना सिखाया जाता है। इन देशों के नर्सरी स्कूलों में बच्चों को अध्यापक केवल अक्षरों की पहचान व उच्चारण करा देते हैं। नर्सरी स्कूलों में भी अगर घर-सा वातावरण है और स्वस्थ खेल-कूद का माहौल है तो बच्चों का प्रारंभिक विकास अच्छी तरह से होगा।
माँ-बाप का बच्चे के प्रति जुड़ाव उसे बड़ा संबल देता है। उसके साथ कुछ समय बिताने और मित्रता करने में आपको बहुत-सी ऐसी बातें पता चलेंगी, जिनका जानना आपके लिए ज़रूरी है। खेल-खेल में यह पता लगाना कि उसका रुझान किस ओर है, इन्हीं बातों के आधार पर आप अभिभावक उसके भविष्य का सही मार्ग तय कर सकते हैं। बच्चे की प्रतिभा के विकास के लिए ज़रुरी है कि हम उसकी बातों को ध्यान से सुनें और उसके प्रश्नों का उत्तर भी दें तभी उसकी जिज्ञासा शान्त होगी।
स्वस्थ पारिवारिक वातावरण के अभाव में बच्चों का सही बौद्धिक विकास संभव नहीं, वे तनाव में रहते हैं, डरे-डरे और सहमे-सहमे। नर्सरी शिक्षा के नाम पर लादे गए बोझ के नीचे अपना दम घुटता हुआ महसूस करते हैं।
सच तो यह है कि बच्चा जन्म से रोने और हँसने के सिवा और कुछ भी सीखकर नहीं आता। शेष सब तो उसे सिखाया ही जाता है। 3 से लेकर 5-6 वर्ष की आयु का बच्चा माता-पिता के हर काम में सहयोग देना चाहता है, जैसे घर की सफाई, कापी पेंसिलों को करीने से रखना, कपड़े धोना और सुखाना, घर को सजाना इत्यादि। रोजमर्रा की दिनचर्या से जुड़े इन कामों से ही जिंदगी का व्यवस्थित रूप पाया जा सकता है।
काम के प्रति आदर की भावना को बच्चों के मनमस्तिष्क में रोपित करने के लिए किसी भी काम को अनादर की दृष्टि से न देखें, जैसे, ‘अरे बर्तन साफ करना महरी का काम, जूठे बर्तनों को हाथ मत लगाना’ या ‘क्यों बगीचे की मिट्टी से खेल रहे हो, माली अपने आप ठीक कर लेगा।’ इत्यादि बातें बच्चों के दिमाग पर अच्छा असर नहीं डालतीं। कामों के प्रति वितृष्णा या हीन भावना उनके विकास में बाधा डाल सकती है।
आज की व्यस्त जिंदगी में तो माता-पिता को घर और बाहर दोनों मोरचों को सँभालना पड़ता है।
बचपन से ही उन्हें घर के कामों में सहायक का दर्जा दे। बच्चों को शुरू से सिखाएँ कि वे समस्या के हर पहलू पर खुलकर बोल सकते हैं। परंतु साथ ही एक दूसरे के लिए सम्मान का भाव भी बनाए रखें।
अपने बच्चों में आत्मविश्वास जगाएँ। परिवार की अपेक्षा और अध्यापकों की आलोचना के कारण बच्चों में हीन भावना घर करने लगती है, वे अपने आपको असुरक्षित महसूस करने लगते हैं। कोशिश करें की उनका आत्मबल विश्वास बना रहे। और साथ-साथ उनके व्यक्तित्व का विकास भी ठीक ढंग से होता रहे। बच्चों को शिक्षा-संस्थाओं में भेजकर माता-पिता अपने कर्तव्य की इतिश्री न मान लें। भले ही समाज में कुछ जीवन-मूल्य बदल रहे हैं परंतु प्रेम वात्सल्य और विश्वास तो शाश्वत जीवन-मूल्य हैं। उन्हें बनाए रखें। यही अटूट मानवीय रिश्तों का मर्म है।

शिशु शिक्षा

दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय ने मान्यता प्राप्त स्कूलों को यह निर्देश देकर अच्छा काम किया है कि 4 वर्ष से कम उम्र के शिशुओं को स्कूलों में दाखिला न दिया जाए। उम्मीद करनी चाहिए कि इस निर्देश का पालन भी कड़ाई से किया जाएगा। पालने से निकलते ही शिशु की पीठ पर एक बस्ता बाँध देने की जो प्रवृत्ति घर करती जा रही है वह शोचनीय तो है ही, निंदनीय भी है। जब शिशु के हाथों में खिलौने होने चाहिए तब हाथ में किताबें देकर अभिभावक और स्कूल उसका कोई हित नहीं कर रहे होते। दिल्ली में तो यह दृश्य आम रहा है कि सुबह-सुबह रोते हुए शिशुओं को, किसी तरह पुचकार कर, माता-पिता पैदल या किसी वाहन पर स्कूल की ओर ढकेलते रहे हैं। इसमें शिशु को बहुत जल्दी पढ़ा-लिखाकर नवाब बनाने की मनोवृत्ति तो काम करती ही है, यह भी दिखता है कि नौकरी पर जा रहे माता-पिता पहले शिशु को स्कूल की चारदीवारी को सौंपकर निश्चिन्त हो जाना चाहते हैं। मनोवृत्ति यह भी है कि जितनी जल्दी शिशु स्कूल में दाखिल हो जाएगा, उतनी जल्दी वे स्कूल में उसकी जगह आगे के लिए सुरक्षित कर लेंगे। चारों ओर बन रहे एक प्रतियोगी वातावरण में बचपन को बचाने की जगह, बचपन को भी होम कर देना कहाँ की बुद्धिमानी है ? शिशु का शारीरिक ही नहीं मानसिक विकास भी तभी संभव है। जब हाथ –पाँव ठीक से खुल जाने पर ही उसे लिखने-पढ़ने की ओर प्रवृत्त किया जाए। बचपन का आरम्भिक चरण तो खास तौर पर फूलों, फलों तितलियों, पशु-पक्षियों के ‘विस्मय’ भरे संसार में व्यतीत होने के लिए है। एक जमाना था जब बच्चों की एक बहुत बड़ी पढ़ाई दादा-दादी, नाना-नानी, बुआ-मौसी की गोद में कहानियों गीतों किलकारियों के बीच खेलते हुए पूरी होती थी। अब अगर आज के जमाने में हम शिशुओं को वह युग वापस नहीं कर सकते तो कम-से-कम उन्हें कुछ खेल तो लेने दें।
शिक्षा भले ही राज्यों का मामला हो, पर इस पर तो एक राष्ट्रीय नीति बनानी चाहिए कि सभी जगह, सभी राज्यों में, 4 साल से कम उम्र के बच्चों को स्कूल में नहीं भेजा जाएगा। बरहाल, दिल्ली निदेशालय की इस पहल से इस ओर ध्यान जाना चाहिए कि इस बाबत अन्य राज्यों में क्या प्रावधान है ? फिलहाल तो इस पहल के लिए दिल्ली सरकार को बधाई।

बच्चों को समझें

जिन घरों में माता-पिता लड़ते रहते हैं वहाँ बच्चा स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगता है। यदि आप बात-बात पर बच्चे को फटकारते और झिड़कते रहेंगे तो वह प्रकटतः आपका विरोध तो नहीं कर पाएगा किंतु अपने प्रति इस व्यवहार से वह क्षुब्ध हो जाएगा और फिर धीरे-धीरे अंतरमुखी होता जाएगा। इससे वह स्वभावतः मानसिक रूप से तनावग्रस्त होगा ही। यही मानसिक तनाव उसमें कभी-कभी शारीरिक बीमारियों व आदतों में प्रकट हो जाता है। अगर उसकी मानसिक स्थिति का अंदाज समय रहते लगा लिया जाए तो उस समस्या का निदान किया जा सकता है।
बच्चों में प्रकट होने वाली कुछ आम बीमारियाँ निम्नलिखित हैं :

बिस्तर गीला करना :

डॉक्टरी भाषा में इसे ‘एन्यूरेसिस’ कहते हैं। यह बीमारी पाँच-सात साल के बच्चों से लेकर पन्द्रह साल तक के किशोरों तक को होती है। वैसे इस बीमारी से ग्रस्त बच्चे सामान्य दिखाई पड़ते हैं किंतु एक छोटी-सी समस्या उन्हें असामान्य बना सकती है, विशेषकर उस अवस्था में जब बच्चे को इसके लिए डाँटा-फटकारा जाता है व अन्य लोगों के सामने लज्जित किया जाता है। उसे झिड़कने या धमकाने के बजाय जाँच के लिए डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए। यदि डॉक्टर उसमें कोई दोष नहीं बताता तो यथाशीघ्र किसी मनोचिकित्सक से उसकी जाँच करवानी चाहिए। मनोचिकित्सक बच्चे में पल रहे आंतरिक तनावों, जैसे माता-पिता के आपसी झगड़ों या घर में किसी अन्य सदस्य के आ जाने से प्यार में बँटवारे या ईर्ष्या आदि मनोभावों को पहचान कर उसका इलाज प्रारंभ कर देंगे।
बच्चों के ऐसे रोगों के बारे में मनोचिकित्सकों द्वारा प्रकट विचारों के निष्कर्ष से यही तथ्य सामने आया है कि जब बच्चा स्वयं को ‘असुरक्षित’ महसूस करने लगता है, तब उसमें यह ‘बिस्तर गीला’ करने की बीमारी पनपने लगती है। एक तरह से इसे बच्चे का अपने प्रति होने वाले व्यवहारों का ‘विरोध’ कहा जा सकता है। जो विरोध वह बोलकर प्रकट नहीं कर पाता वह अर्ध चेतनावस्था में इस बीमारी के रूप में प्रकट हो जाता है। हालाँकि यह बीमारी बहुत गंभीर नहीं है किंतु अधिक समय तक इसका रहना बच्चे में हीन भावना उत्पन्न कर देता है। यह स्थिति तब और अधिक गंभीर हो जाती है जब उसके माता-पिता भी उसकी समस्या को समझने का प्रयास नहीं करते। बच्चे को इस बीमारी से उबारने का एक मात्र सरल उपाय यही है कि उसे सोने के तीन-चार घंटे बाद जगा दें और पेशाब करने के लिए भेज दें। यदि वह अकेले जाने से डरता है, तो आप स्वयं उसके साथ चले जाएँ। जहाँ वह सोए, वहाँ रात में मद्धिम रोशनी का एक बल्ब जला रहने दें ताकि अँधेरे में वह भयभीत न हो और फिर पेशाब करने अकेले ही जा सके।

नाखून कुतरना :

इस बुरी आदत वाले बच्चे मुख्यतः हीन भावना से ग्रस्त रहते है। ऐसे बच्चों को व्यग्रता, दब्बूपन व एकाकीपन का एहसास घेरे रहता है। मनोचिकित्सकों के अनुसार इस बुरी आदत के प्रमुख कारण हैं, सहोदर से ईर्ष्या, उपेक्षित समझे जाने की पीड़ा आदि। अतः बच्चे को नाखून कुतरते देखते ही सहज रूप से ही यह समझा जा सकता है कि वह अपना भावात्मक संतुलन कायम नहीं रख पा रहा है।
यह आदत छोड़ने के लिए बच्चे को न तो झिड़कना चाहिए न धमकी देनी चाहिए अपितु बच्चे को प्यार, स्नेह व सुरक्षा व ऊष्म कवच देना चाहिए। यदि बच्चा आपसे खुलकर व्यवहार नहीं करता है और आप उसकी समस्या नहीं सुलझा पा रहे हैं तो तत्काल किसी मनोचिकित्सक से संपर्क करें। डॉक्टर बच्चे के स्नायुओं को स्थिति में चिकित्सा द्वारा सुधार लाकर उसे भावात्मक आवेग की स्थिति से उबारने में सहायक हो सकते हैं।

बच्चे द्वारा बाएँ हाथ से काम कराना :

वैसे यह कोई जटिल समस्या नहीं है किंतु यदि आप उसे सामान्य मानते हैं तो इसे ठीक किया जा सकता है। वह बच्चा हीन भावना व अपराधबोध जैसे मनोविकारों से ग्रस्त हो जाता है। फलतः उसका मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। ऐसी दशा में बेहतर यही होगा कि आप बच्चे को सहज रूप से उल्टे हाथ से ही बेहतर ढंग से कार्य करते रहने को प्रेरित करें या उसे समझा-बुझाकर प्यार से दाएँ हाथ से काम करने के लिए कहें। हाँ, उस समय यह अवश्य ध्यान रखें कि बच्चा दाएँ हाथ से काम करने को ‘गलत’ न समझे। इसके लिए बहुत सूझ-बूझ की आवश्यकता है।
इसके अतिरिक्त कुछ अन्य ऐसी आदते हैं जो बच्चों में पाई जाती है, जैसे अन्यमनस्कता, व्यग्रता, काम को टालमटोल करना आदि। ऐसी आदतें उसमें बहुधा तब जन्म लेती हैं जब वह स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है। इसके प्रमुख कारण हैं माता-पिता में तलाक हो जाना या घर में किसी नए व्यक्ति का प्रवेश या माता-पिता की अतिव्यस्तता व उनसे बहुत कम मिल पाना आदि। इन सबके अतिरिक्त अपने स्कूल की कोई समस्या, साथियों से कोई लड़ाई या झगड़ा आदि भी उसके मानसिक असंतुलन का कारण बन सकता है।
बच्चों की इन समस्याओं को समझकर शीघ्रातिशीघ्र उनका निदान करने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि वे बच्चे एक सरल, सहज व सफल एवं आत्मविश्वास से परिपूर्ण नागरिक बन सकें।

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