कहानी संग्रह >> हमारे मालिक सबके मालिक हमारे मालिक सबके मालिकगिरिराज किशोर
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‘हमारे मालिक सबके मालिक’ जिस कहानी पर इस संग्रह का नामकरण किया गया है। वह दुनिया के तथाकथित मालिकों की कहानी है जिनका डंडा पूजने के लिए आज सब बाध्य हैं, शायद आगे भी रहेंगे, ख़ासतौर से तीसरी दुनिया के हम जैसे देश!
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गिरिराज किशोर का ग्यारहवाँ कहानी संग्रह आपके हाथों में
देते हुए हमें प्रसन्नता हो रही है। गिरिराज जी ने जीवन के जितने विभिन्न
अनुभवों को डूबकर जिया है और अपनी कहानियों में अभिव्यक्त किया है उतना
शायद ही उनके किसी समकालीन अथवा पूर्ववर्ती ने किया हो। भले ही अपने समय
के सर्वाधिक सफल उपन्यासकारों में उनकी गणना होती हो परन्तु उनकी
कथा-संसार अनुभव और अभिव्यक्ति की दृष्टि से बहुत व्यापक है। उन्होंने
भाषाई चमत्कार या जिंदगी की कुछेक चटखारेदार घटनाओं या राजनीति और गुटबंदी
के सहारे अपनी पहचान नहीं बनाई, अपने विस्तृत अनुभव और कथा कहने की
सामर्थ्य से अपना कथा संसार निर्मित किया। अगर यह कहा जाए तो अनुचित न
होगा कि उनकी कहानियाँ आने वाले ज़माने और जिंदगी के रचनात्मक संसार की
ऐसी तस्वीरें हैं जो पाठकों को सदा सचेत करती रहेंगी चूँकि उनकी पैठ
समकालीन ज़िंदगी भी गहरी है।
‘हमारे मालिक सबके मालिक’ जिस कहानी पर इस संग्रह का नामकरण किया गया है। वह दुनिया के तथाकथित मालिकों की कहानी है जिनका डंडा पूजने के लिए आज सब बाध्य हैं, शायद आगे भी रहेंगे, ख़ासतौर से तीसरी दुनिया के हम जैसे देश! ‘परिवर्तन’ कहानी अमानवीय राजनीति का एक ऐसा ख़ाका है जो दिनों-दिन हिंसक होता जा रहा है। वह सामंती जमाने का जनतांत्रिक रूप तो नहीं ?’ ‘हेल यूरो भगवान’ बाज़ारी- करण और विदेशी पूँजी के वर्चस्व का यूटोपियन लगने वाला संत्रासदाई चित्र है जब सैकड़ों वर्ष बाद यूरो सरकार होगी और समाज भावना विहीन रोबो समाज में विकसित हो जाएगा। पारिवारिक विडम्बनाओं के भी बहुत आत्मीय चित्र इन कहानियों में मिलेंगे।‘मैं परशुराम नहीं’, ‘कुर्सी’ को सलाम’, ‘पुण्यात्मा’,‘फ़ाइल दाख़िल दफ़्तर’, ‘घर के कुत्ते’, ‘पापा मैं अंग्रेज़ी नहीं जानता’ आदि कहानियाँ गिरिराज किशोर की क़लम से ही संभव हैं और हो सकती हैं। इन कहानियों को पढ़कर ज़िंदगी और बदलती समाज के बारे में आप और गहराई के साथ सोचने की गुंजाइश पैदा करने के लिए बाध्यता अनुभव करेंगे।
‘हमारे मालिक सबके मालिक’ जिस कहानी पर इस संग्रह का नामकरण किया गया है। वह दुनिया के तथाकथित मालिकों की कहानी है जिनका डंडा पूजने के लिए आज सब बाध्य हैं, शायद आगे भी रहेंगे, ख़ासतौर से तीसरी दुनिया के हम जैसे देश! ‘परिवर्तन’ कहानी अमानवीय राजनीति का एक ऐसा ख़ाका है जो दिनों-दिन हिंसक होता जा रहा है। वह सामंती जमाने का जनतांत्रिक रूप तो नहीं ?’ ‘हेल यूरो भगवान’ बाज़ारी- करण और विदेशी पूँजी के वर्चस्व का यूटोपियन लगने वाला संत्रासदाई चित्र है जब सैकड़ों वर्ष बाद यूरो सरकार होगी और समाज भावना विहीन रोबो समाज में विकसित हो जाएगा। पारिवारिक विडम्बनाओं के भी बहुत आत्मीय चित्र इन कहानियों में मिलेंगे।‘मैं परशुराम नहीं’, ‘कुर्सी’ को सलाम’, ‘पुण्यात्मा’,‘फ़ाइल दाख़िल दफ़्तर’, ‘घर के कुत्ते’, ‘पापा मैं अंग्रेज़ी नहीं जानता’ आदि कहानियाँ गिरिराज किशोर की क़लम से ही संभव हैं और हो सकती हैं। इन कहानियों को पढ़कर ज़िंदगी और बदलती समाज के बारे में आप और गहराई के साथ सोचने की गुंजाइश पैदा करने के लिए बाध्यता अनुभव करेंगे।
कहानी संग्रह के बारे में
‘हमारे मालिक सबके
मालिक’ मेरा ग्यारहवाँ
कहानी संग्रह है। आप पूछेंगे कि तुम कहानी क्यों लिखते हो ? इसका एक जवाब
तो यही है कि लिखता हूँ, कर लो मेरा क्या करते हो। लेकिन यह एक ऐसे लेखक
के मुँह से अच्छा नहीं लगता जिसने लेखन को अपने धर्म से बड़ा धर्म मान
लिया हो। दूसरा जवाब मेरा अपना है। कहानी मेरी ज़मीन है उसी पर मैंने खड़ा
होना, चलना साहित्य के अर्थ को समझना सीखा। वरना इस क्षेत्र में
नाख़्वांदा, मेरे बुज़ुर्ग नाख़्वांदा। मैंने पहले भी कहीं लिखा या कहा था
कि अगर मैं लेखक न हुआ होता या बचपन में प्रेमचन्द या शरत् चन्द्र, टेगोर,
यशपाल, अज्ञेय, बंकिन बाबू, निराला, तारा बाबू, वृंदावनलाल वर्मा यहाँ तक
कि कुशवाहा कांत आदि की रचनाओं के संपर्क में न आया होता तो एक लट्ठ मार,
बददिमाग़ क़िस्म का ज़मीदार हुआ होता। ज़मीन-जायदाद छोड़कर केवल पचहत्तर
रुपये लेकर न निकल पड़ता। जैसे मेरे बुज़ुर्ग एक-एक गाँव और एक-एक खूँट पर
लड़े मरे उसी तरह मैं भी उसी तरह लड़-भिड़कर ख़त्म हो गया होता, जैसे
ज़मींदारी नेस्तनाबूद हो गई। वहाँ से चला आया, इसीलिए मैं कह सकता हूँ कि
अच्छा ही हुआ । यह बात ज़रूर है एक संस्कृति ज़रूर खत्म हो गई। पर राजनीति
ने उससे बदतर और नामुराद सामंती संस्कृति बना दी। ज़्यादा शोषणकारी।
ख़ैर, कहानी संग्रह से इन बातों का क्या लेना-देना। मुझ से कभी-कभी यह पूछा जाता है, तुम हो क्या, कहानीकार या उपन्यासकार ? इसका जवाब मैं क्या दूँ, मैं कभी तय नहीं कर पाता। मैं जानता हूँ मैं कुछ भी नहीं क्योंकि यह सब कहलाने का उनका अधिकार है जिन्होंने जिन्दगी को इतना उलट-पुलट कर देखा और जाना है कि उनकी बात अन्तिम हो गई है। हम लोग जो करते हैं वो अधिकतर लेखकीय अहं की तृप्ति मात्र है। हम किनारे बैठकर ज़िंदगी की भँवर का नज़ारा करने के आदी हो गये हैं कई बार वह ‘किनारे का साहित्य’ होता है। इसलिए हम किसी को भी साधिकार कह देते हैं अमुक कहाँ का कहानीकार या उपन्यासकार ? सही भी है। साहित्य एक अकेला ऐसा जनतंत्रात्मक इरादा है जहाँ हरएक को नुक़ताचीनी करने का अधिकार है। लेकिन मुझे एक सवाल हमेशा परेशान करता है क्या हम कभी अपनी भी उसी नज़रिये से तनकीद करते हैं। हम दूसरों को छोटा नापकर अपने को कैसे बड़ा बना लेंगे। मैं कहानीकार इसीलिए हूँ कि कहानी ने ही मुझे साहित्य की राह दिखाई। अपनी और अपने आस-पास की ज़िंदगी को मैंने देखने और जीने की कोशिश एक कहानीकार के रूप में की इसलिए मैंने अपनी कहानियों को अपने हर अनुभव का आईना बनाने की कोशिश की। आईना भी धुँधला हो सकता है और कुछ मायने में नजर भी। आईना तो हो ही सकता है, नज़र भले ही न हो।
मेरे कुछ आलोचकों ने लिखा है कि कहानियों के मुक़ाबले उपन्यास ज़्यादा पसन्द किये जाते हैं या दूसरे शब्दों में, मैं एक असफल कहानीकार हूँ। समकालीन सफलताओं के मुकाबले किसी भी सफलता का निर्णय करना कई बार व्यक्तिपरक निर्णय भी हो सकता है। मैं उसे ग़लत नहीं कह रहा वह आंशिक सत्य के रूप में लेना ज़्यादा समीचीन होगा। क्योंकि जिन चीजों को अन्तिम सत्य के रूप में स्वीकर कर लिया जाता है। बाद में जब रद्दोबदल करनी पड़ती है तो तकलीफ़ से गुज़रना पड़ता है। मेरे उपन्यास, अच्छे हों या बुरे, कहानी की ज़मीन पर ही खड़े हैं। इसलिए मैं कहानीकार भी उतना हूँ जितना उपन्यासकार। हालांकि इन बातों को सुनकर मन-ही-मन डर लगता है। कमज़ोर बुनियाद पर खड़ी इमारत कितने दिन खड़ी रहेगी। फिर सोचता हूँ गिरे तो गिरे। बनाने वाला यह जिम्मेदारी कहाँ लेता है कि यह दस साल चलेगी या सौ साल। रहने वाला जाने या रखरखाव वाले जानें। खँडहर भी बचे रहें तो काफ़ी है। राहगीर के, हो सकता है, गर्मी-सर्दी में साये के काम आ जाएँ। यह भी लेखक की ख़ामख़याली है। अपने को ज़िन्दा रखने की, अरे भाई जो सबसे अटल सच है उससे मुँह मोड़कर कहाँ जाएगा। खाद बनकर तो देख, कितने नायाब-नायाब फूल खिलाने की कुव्वत आ जाएगी।
माफ़ कीजिए। इस लमतरानी में आपका बहुत वक्त जाया हुआ। इस कहानी संग्रह में पिछले पाँच वर्षों में, यानी 1997 के बाद छपी चंद कहानियाँ हैं। कुछ की तारीख़ें तो उपलब्ध हैं। दरअसल मैं बहुत ही ख़राब रिकार्ड कीपर हूँ। कभी-कभी शर्मिन्दगी होती है। यह कोई शान की बात नहीं। सब कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। मैं उन पत्रिकाओं के सम्पादकों का आभारी हूँ। इस संग्रह को छापने के लिए आत्माराम एंड संस के सर्वश्री सुशील पुरी और सुधीर पुरी का भी आभारी हूँ। पाठकों का विशेष रूप से जिन्होंने इन कहानियों को पत्रिकाओं में पढ़कर सराहना की थी।
ख़ैर, कहानी संग्रह से इन बातों का क्या लेना-देना। मुझ से कभी-कभी यह पूछा जाता है, तुम हो क्या, कहानीकार या उपन्यासकार ? इसका जवाब मैं क्या दूँ, मैं कभी तय नहीं कर पाता। मैं जानता हूँ मैं कुछ भी नहीं क्योंकि यह सब कहलाने का उनका अधिकार है जिन्होंने जिन्दगी को इतना उलट-पुलट कर देखा और जाना है कि उनकी बात अन्तिम हो गई है। हम लोग जो करते हैं वो अधिकतर लेखकीय अहं की तृप्ति मात्र है। हम किनारे बैठकर ज़िंदगी की भँवर का नज़ारा करने के आदी हो गये हैं कई बार वह ‘किनारे का साहित्य’ होता है। इसलिए हम किसी को भी साधिकार कह देते हैं अमुक कहाँ का कहानीकार या उपन्यासकार ? सही भी है। साहित्य एक अकेला ऐसा जनतंत्रात्मक इरादा है जहाँ हरएक को नुक़ताचीनी करने का अधिकार है। लेकिन मुझे एक सवाल हमेशा परेशान करता है क्या हम कभी अपनी भी उसी नज़रिये से तनकीद करते हैं। हम दूसरों को छोटा नापकर अपने को कैसे बड़ा बना लेंगे। मैं कहानीकार इसीलिए हूँ कि कहानी ने ही मुझे साहित्य की राह दिखाई। अपनी और अपने आस-पास की ज़िंदगी को मैंने देखने और जीने की कोशिश एक कहानीकार के रूप में की इसलिए मैंने अपनी कहानियों को अपने हर अनुभव का आईना बनाने की कोशिश की। आईना भी धुँधला हो सकता है और कुछ मायने में नजर भी। आईना तो हो ही सकता है, नज़र भले ही न हो।
मेरे कुछ आलोचकों ने लिखा है कि कहानियों के मुक़ाबले उपन्यास ज़्यादा पसन्द किये जाते हैं या दूसरे शब्दों में, मैं एक असफल कहानीकार हूँ। समकालीन सफलताओं के मुकाबले किसी भी सफलता का निर्णय करना कई बार व्यक्तिपरक निर्णय भी हो सकता है। मैं उसे ग़लत नहीं कह रहा वह आंशिक सत्य के रूप में लेना ज़्यादा समीचीन होगा। क्योंकि जिन चीजों को अन्तिम सत्य के रूप में स्वीकर कर लिया जाता है। बाद में जब रद्दोबदल करनी पड़ती है तो तकलीफ़ से गुज़रना पड़ता है। मेरे उपन्यास, अच्छे हों या बुरे, कहानी की ज़मीन पर ही खड़े हैं। इसलिए मैं कहानीकार भी उतना हूँ जितना उपन्यासकार। हालांकि इन बातों को सुनकर मन-ही-मन डर लगता है। कमज़ोर बुनियाद पर खड़ी इमारत कितने दिन खड़ी रहेगी। फिर सोचता हूँ गिरे तो गिरे। बनाने वाला यह जिम्मेदारी कहाँ लेता है कि यह दस साल चलेगी या सौ साल। रहने वाला जाने या रखरखाव वाले जानें। खँडहर भी बचे रहें तो काफ़ी है। राहगीर के, हो सकता है, गर्मी-सर्दी में साये के काम आ जाएँ। यह भी लेखक की ख़ामख़याली है। अपने को ज़िन्दा रखने की, अरे भाई जो सबसे अटल सच है उससे मुँह मोड़कर कहाँ जाएगा। खाद बनकर तो देख, कितने नायाब-नायाब फूल खिलाने की कुव्वत आ जाएगी।
माफ़ कीजिए। इस लमतरानी में आपका बहुत वक्त जाया हुआ। इस कहानी संग्रह में पिछले पाँच वर्षों में, यानी 1997 के बाद छपी चंद कहानियाँ हैं। कुछ की तारीख़ें तो उपलब्ध हैं। दरअसल मैं बहुत ही ख़राब रिकार्ड कीपर हूँ। कभी-कभी शर्मिन्दगी होती है। यह कोई शान की बात नहीं। सब कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। मैं उन पत्रिकाओं के सम्पादकों का आभारी हूँ। इस संग्रह को छापने के लिए आत्माराम एंड संस के सर्वश्री सुशील पुरी और सुधीर पुरी का भी आभारी हूँ। पाठकों का विशेष रूप से जिन्होंने इन कहानियों को पत्रिकाओं में पढ़कर सराहना की थी।
परिवर्तन
सफ़र में कब क्या हो, अन्दाज़ लगाना मुश्किल
नहीं होता,
सफ़र अनिश्चितता का राग है, जो हर यात्री को गाना पड़ता है। एक से एक
विचित्र और अविश्वसनीय अनुभवों के पड़ावों से भरा हुआ...सफ़र ! किसी आदमी
को रेल की यात्रा में एक आदमी मिला। बोला, ‘‘तुमने
भूत देखा
है ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘देखोगे ?’’
आदमी ने कहा, ‘‘हाँ।’’
उसने कहा, ‘‘तो लो देखो !’’
उसने देखा—दूसरे ही क्षण वहाँ कोई नहीं था। कहा जाता है कि यह संसार का सबसे छोटा और प्रभावी गल्प है, लेकिन जो मैं बता रहा हूँ, यह वाकई सफ़र है। मैं एक लम्बी यात्रा पर था। हालाँकि मैं कभी-कभी यात्रा करता हूँ, पर करता हूँ। मेरे सामने दो नौजवान बैठे थे। अंग्रेज़ी के अलावा शायद वे कोई दूसरी भाषा नहीं जानते थे। वे उठ भी अंग्रेज़ी में रहे थे और बैठ भी अंग्रेज़ी में रहे थे। यहाँ तक कि ज़रुरियात से भी वे शायद अंग्रेज़ी में ही फ़ारिग होते थे।
वे इतिहास की बात कर रहे थे। उनकी बातों में इतिहास कम था, अंग्रेज़ी ज़्यादा थी।
मैंने उनसे पूछा, ‘‘आप इतिहास के छात्र हैं ?’’
उन्होंने जवाब दिया, ‘‘आपको कोई तकलीफ़ ?’’
मैं समझ नहीं पाया कि ‘इतिहास’ और ‘तकलीफ़’ का आपस में क्या रिश्ता है ? मैंने उस बात को नज़रन्दाज करते हुए कहा, ‘‘मैं साहित्य का आदमी हूँ। साहित्य भी मनुष्य की दुनिया का इतिहास ही है।’’
‘‘वेल सेड !’’ फिर मुझे काटते हुए बोले, ‘‘लेकिन हमें साहित्य से कुछ लेना-देना नहीं। वह इंसान का इतिहास हो या ख़ुदा का।’’
‘‘फिर आपकी रुचि किस चीज़ में है ?’’
पहले उन्होंने एक-दूसरे की तरफ़ देखा। फिर हँसे। एक ने दूसरे से कहा, ‘‘तो बता ही दें ?’’
‘‘हाँ, बता ही दो !’’ दूसरे ने जवाब दिया।
उनके इस अंदाज़ से मुझे डर लगा। शायद वे लोग मुझे एक-दूसरे पर गेंद की तरह उछालने के मूड में थे। एक बार ऐसा ही एक और सफ़र में हुआ था। वहाँ भी दो आदमी थे। टिकट चेकर टिकट चेक करने आया।
उनमें से एक ने दूसरे से कहा, ‘‘टिकट बाबू टिकट माँग रहे हैं।’’
‘‘तो दिखा दो !’’
पहले ने पूछा, ‘‘तो दिखा दें ?’’
‘‘हाँ, दिखा दो।’’ दूसरा जूता खोलने लगा। टिकट चेकर खिसक गया। यहाँ तो ऐसा नहीं हुआ, बल्कि सोच-विचार कर जवाब दिया, ‘‘हम वर्तमान को इतिहास की चौखट पर रख कर देखते हैं कि वर्तमान इतिहास बनने पर कैसा लगेगा ?’’
‘‘मैं समझा नहीं ?’’
‘‘यानी जो आज है, वह कल इतिहास होगा। कैसा होगा ? इतिहास बनने लायक है या नहीं ? इतिहास की काल्पनिक संरचना ही हमारा काम और शौक है।’’
मेरा मुँह खुल गया और शायद काफ़ी खुल गया था। हो सकता है इस बीच दो-चार मक्खियाँ अन्दर घुस कर बाहर भी निकल आयी हों और मुझे पता भी नहीं चला हो। मैंने जब मुँह बन्द किया, तो एक भी मक्खी मौजूद नहीं थी। होती तो वह पिस गई होती और मुँह बदबू से भर जाता।
‘‘आप तो इस तरह मुँह खोले हैं, जैसे सुनने का काम मुँह से ही लेते हों। जितना ही मुँह खुलेगा, शायद उतना ही ज़्यादा साफ सुनाई पड़ेगा। आपने वाल्मीकि का नाम सुना है ? उसने क्या किया था ? वो तो और भी एक कदम आगे थे। उन्होंने तो जो कुछ भविष्य में होने वाला था, उसे ही इतिहास बनाकर पेश कर दिया था। हम तो ‘वर्तमान’ को ही ‘इतिहास’ बनाते हैं, और कोई सवाल ?’’
मेरा मुँह तो बन्द हो गया, लेकिन दिमाग़ तो प्रसिद्ध पेन्टर डॉली के चित्र में बने विभिन्न आकारों की तरह फैल गया था।
‘‘मैं अभी भी नहीं समझा।’’
‘‘आप चाहे कुछ भी हों, लेखक नहीं हैं। लेखक की सबसे बड़ी शक्ति ‘कल्पना’ होती है, उसी में वह अपने यथार्थ की पकौड़ियाँ तलता है।’’
‘‘नहीं, मैं आपको समझता हूँ।’’ दूसरा बोला, ‘‘सफ़ेदा देखा है ? उसमें तारपीन का तेल मिलाकर ही उसका सही इस्तेमाल हो सकता है। वह इतना चीमड़ होता है कि बिना तारपीन का तेल मिलाए इस्तेमाल ही नहीं किया जा सकता। यथार्थ भी सफ़ेदे की तरह एकदम चीमड़ होता है। तारपीन का तेल कल्पना है, उसमें बड़ा-से-बड़ा जटिल यथार्थ घुलकर साहित्य बन जाता है।’’
उनकी यह व्यवस्था कुछ उत्तर-आधुनिकतावादी लगी। हालाँकि मैं यह बात विश्वास से नहीं कह सकता। न मैं दरिदा से मिला और न उसके किसी भारतीय संस्करण से मुठभेड़ हुई।
उनमें से एक ने पूछा, ‘‘समझे या नहीं समझे ?’’
मैंने उसी तरह गर्दन हिला दी, जैसे कोई नासमझ बच्चा मास्टरजी के बार-बार समझाने पर भी नहीं समझता और पूछने पर डरा हुआ-सा गर्दन हिला देता है।
उन्होंने मेरे इन्कार पर गंभीरता से गौर किया और बोले, ‘‘मान लो हमें अपने देश, प्रदेश या नगर के सन्दर्भ में, वर्तमान को लेकर इतिहास की संरचना करनी है। ‘इतिहास’ शब्द आपके लिए गरिष्ठ है। उसे छोड़िए। आपने स्वयं कहा कि साहित्य मनुष्य का इतिहास है, तो आप इस तरह समझिए की वर्तमान को साहित्य यानी मनुष्य को इतिहास के रूप में देखना है, तो आप अपनी संरचना की शुरुआत कैसे करेंगे ?’’
मैं चकराया। उन दोनों का परिचय पूछ कर मैं मुसीबत में फँस गया था। जान छुड़ाना मुश्किल हो रहा था। ये लौंडे क्या मेरी परीक्षा ले रहे हैं ?
‘‘बोलिए,’’ वे दबाव बनाए हुए थे।
दूसरा बोला, ‘‘आप साहित्य को मनुष्य का इतिहास व्यर्थ कहते हैं ! आप न उसका उपयोग जानते हैं न अर्थ।’’
‘‘तो बताइए आप अपने देश, प्रदेश या नगर के बारे में कोई भी संरचना...लिखना या...बोलना कैसे शुरू करेंगे.....? जिससे वह साहित्य या कहिए, मनुष्य का इतिहास बन सके ?’’
मैंने अल्लटप्प बोलना शुरू किया, ‘‘बीसवीं सदी का अन्त था।’’ मैंने डरते-डरते कहा। कहीं मैं गलत न कह रहा होऊँ और मास्टर जी का कन्टाप तड़ से खोपड़ी पर पड़ जाए। बचपन में ऐसे कन्टाप बहुत झेले थे। दरअसल बीसवीं सदी अभी खत्म ही कहाँ हुई है ?
‘‘बहुत ठीक....आगे ?’’ उन्होंने शाबासी के तौर पर कहा, जैसे हिम्मत बढ़ा रहे हों। वाकई मेरी हिम्मत बढ़ी भी। मैं आगे बोला, ‘‘गंगा–जमुना की तरह दो नदियों के बीच एक देश था....वह दोआब के नाम से बजता था। दोआबा का अर्थ दो जलधाराओं के बीच का क्षेत्र।’’
‘‘है’ को ‘था’ में बदलते ही वर्तमान इतिहास का रूप लेने लगता है।’’ एक बोला।
‘‘आगे बढ़िए....या इसी को चुबलाते रहेंगे ?’’ दूसरे ने कहा।
उन दोनों के बोलने से मेरी एकाग्रता भंग हुई थी। मैं उसे वापस लाता हुआ बोला, ‘‘दोआबा में सदियों तक ऐसे लोगों का राज्य रहा था, जो पढ़े-लिखे विद्वान, गौरवर्ण, ईश्वर को मानने वाले, सबको करुणा और दया का उपदेश देने वाले धर्माचरण सिखाने वाले थे। हर वर्ग के लोग उनके आधीन थे। उनका बच्चा भी आ जाता था, तो वय-प्राप्त लोग भी खड़े होकर उसका सम्मान करते थे, पूजा-अर्चन करते थे, नज़राना पेश करते थे।’’
उसने पहली बार हिन्दी में कहा, ‘‘गुरु, ठीक चल रहे हो !’’
दूसरा बोला, ‘‘तुममें आशुलेखक के गुण हैं। हाँ, आगे बढ़ो।’’ मैंने चकित भाव से उनकी तरफ देखा, दोनों हिंदी में बोले थे !
मुझे लगा, अब प्रजा की बात आनी चाहिए। राज्य तो वे ही बनाती है। राजा अकेला सिंहासन पर बैठा रहे और प्रजाविहीन राज्य को देख-देखकर खुश होता रहे, तो वह राज्य थोड़े ही हो जाएगा। मैंने कहा, ‘‘दोआबा राज्य की प्रजा उपेक्षित थी। उसके साधन न्यूनतम थे, पर संतोषी थी। जो मिल जाता था, वह खाकर और पानी पीकर सो जाती थी। नहीं मिलता था, तो करवट पर करवट बदलकर रात गुजार लेती थी। सड़क पर सीधी पीठ करके चलना वर्जित था। गर्दन उठाकर चलने का तो सवाल ही नहीं उठता था। अधिकार किस चिड़िया का नाम है—उन्होंने जाना ही नहीं था। जब रोटी पर अधिकार नहीं, खेत पर अधिकार नहीं...ज़मीन पर अधिकार नहीं, तो ‘अधिकार’ शब्द ही उनके लिए निर्रथक था। उनका एक अधिकार था चुपचाप जीते चले जाना और न जिया जाए, तो चुपचाप मर जाना। उनका मरना-जीना सब ईश्वर इच्छा थी। खाना या भूखे रहना तक ईश्वर-इच्छा ही थी। मरने के बाद वे कहाँ जाएँगे ? स्वर्ग में या नर्क में...उस पर भी उनका हक़ नहीं था। बस, उन्हें जो बताया गया था, वही जानते थे। सेवा में जीते रहो, तो मुक्ति मिल जाएगी। उसकी संस्तुति वे करेंगे। यदि उस दायरे के बाहर जाओगे, तो पुंगी नरक में ढकेल दिये जाओगे। जिस सन्दर्भ में उन्होंने इस नाम को सुना था, वह भयभीत कर देता था। हालाँकि न बताने वालों ने देखा था और न जाने वालों ने। ईश्वर का घर भी उन्होंने दो हिस्सों में बाँट रखा था। एक अपने लिए। उसका नाम स्वर्ग था। दूसरा नरक, वह इन्हीं सब लोगों के लिए था। जाना-आना तो बाद की बात थी, पर इन सब बातों ने उन्हें इतना डरपोक बना दिया था कि वे यह भी नहीं सोचना चाहते थे कि जिसमें वे अब रहे हैं, वह क्या है ? बस, एक झूठी आशा थी। इसी तरह गिरते-पड़ते जीते हुए, हो सकता है कभी युधिष्ठिर के साथ....उनका भी स्वर्गारोहण हो जाए ! भले ही बाद में दुत्कार कर निकाल दिए जाएँ।’’
उन दोनों ने एकाएक टोक कर पूछा, ‘‘तुम कौन हो ?’’
‘‘मैं समझा नहीं !’’
‘‘अपनी ही बात किए जा रहे हो ?’’
‘‘आप लोग बताइए, आप कौन हैं ?’’
वे लोग चक्कर काट गए ! उन्होंने जेर करने के लिए यह सवाल पूछा था। उलट कर सवाल पूछे जाने की बात उन्होंने सोची तक नहीं थी।
कहानी रुक गई थी। वे बोले, ‘‘हमने अपनी माँ से पूछा ही नहीं ?’’
‘‘पूछते तो क्या वह बता देती ?’’ मेरा जवाब सख्त था।
पासा यहीं से पलटना शुरू हो गया था। मैं उन पर हावी होने लगा था। मैंने उनसे कहा, ‘‘कहानी सुननी है और यथार्थ को बकौल मेरे, ‘इतिहास’ बनाना है, तो कहानी सुनते जाओ वरना फूटो।’’
वे चुप हो गए। मुझे लगा—उनका चेहरा धुआँ होने लगा है। चमक गायब होती जा रही है।
मैंने कहानी फिर शुरू की, ‘‘उन शासकों की वेशभूषा एकदम अलग थी। वे तरह-तरह के सुगन्धित लेपों से अपने को सजाते थे। दरअसल लेपन उनके लिए धार्मिक कार्य था। उनकी भाषा भी अलग थी...वह भाषा अवतरित थी। उसे जानने का अधिकार उन्हीं लोगों को था। वह भाषा उन्हीं लोगों के लिए ऊपर से उतरी थी। कुपात्र को सीखने की अनुमति नहीं थी। कुपात्र या सुपात्र तय करना उनका अपना अधिकार था। उनकी महिलाएँ तक उससे वंचित थीं। अगर कोई अनाधिकृत व्यक्ति सीखने की जुर्रत करता था। तो वह पातकी करार दे दिया जाता था। उनके पंचाट का निर्णय अन्तिम होता था। बाकी लोगों की भाषा कामचलाऊ थी। उसके उच्चारण पर, प्रयोग पर आसानी से हँसा जा सकता था। लोग हँसते भी थे। डाँट भी पड़ती थी...यह तुम क्या बोलते हो ? यह कोई सभ्य लोगों की भाषा है ? उनसे यह कौन कहता कि हमारे बड़ों ने हमें यही भाषा विरासत में दी है। आप लोग तो अपनी भाषा अपने अन्दर की मंजुषा में बन्द रखते हो।’’
उन दोनों ने मेरे बयान में व्यवधान पैदा करना चाहा, लेकिन तब तक मेरे अन्दर इतना आत्मविश्वास आ गया था कि टेढ़ी निगाहों से देख लेने भर से उनकी बोलती बन्द हो जाती थी वही हुआ ! उन्होंने बिना बोले गर्दन हिला दी—आगे चलिए।
मैंने कहानी जारी रखी, ‘‘जब प्रजा के लोग रात को लेटते, तो उन्हें लगता कि वे एक बहुत बड़े कड़ाहे में पड़े हैं और उसके नीचे धू-धू कर आग जल रही है। वे खदबद-खदबद उबल रहे हैं। उनकी समझ में नहीं आता था कि फिर भी वे जिन्दा कैसे हैं ? रात-भर वे उलट-पुलट होते रहते। सवेरे उठते, काम पर चले जाते। उन्हें लगता था-वे न मरते हैं न जीते हैं। उनको शायद पता नहीं था...यही उनका नरक है, जिसे वे भोग रहे हैं।’’
एक दिन सब इकट्ठे हुए। सब ऐसे व्यक्ति की शरण में गए, जो सब कुछ देख और भोग चुका था। यह माना जाता था कि वह सब जानता है। वे बोले, बाबा, आप हमें बताइए, हम क्या करें...दिन भर धूप में तपते हैं, रात को कड़ाहे में उबलते हैं...उन लोगों के घरों में मुलायम गद्दे बिछे हैं, रतन दीप जले हैं...तरह-तरह के भोजन बने हैं। हमें भूख और अँधेरे के सिवाय कुछ नहीं मिलता ?’’
बड़े बूढ़े ने जवाब दिया, ‘‘यह इतिहास की देन है !’’
‘‘इतिहास क्या ?’’
‘‘मैंने सुना है—जैसे कुम्हार चाक घुमाकर बर्तन बनाता है, ऐसे ही शक्तिशाली लोग समय को घुमाकर या उसके साथ घूमकर मनमाना इतिहास बनाते हैं। अपने उसी ’इतिहास’ को ‘समय’ की संज्ञा देते हैं !’’
उनमें एक नौजवान लड़का था। उसकी आँखें खुल रही थीं उसे लगा—समय आकाश है। वह बोला, ‘‘बाबा पूरी धरती एक है न ?’’
बाबा ने गर्दन हिला दी।
वह बोला, ‘‘धरती पर सब एक साथ रहते हैं ना ! इसी तरह समय है। वह भी एक है...उसके नीचे...या उसके ऊपर...हम सब एक ही साथ रहते हैं। फिर हम उबलते क्यों हैं ?’’
बाबा बोले, ‘‘समय का सब पर अलग-अलग असर होता है। जैसे हल्दी, खटाई, चूने के साथ मिलकर किसी चीज का रंग बदल जाता है...किसी के साथ वे अपना रंग बदल लेती है...कोई गल जाता है, कोई चमक जाता है ! किसी का स्वाद कसैला हो जाता है, किसी का खट्टा !’’ ‘‘तो हम क्या करें...ज़िन्दगी के इस कसैलेपन को कब तक सहते रहें ?’’
‘‘या तो तुम बदल जाओ या समय को बदल डालो।’’ बाबा सहजता के साथ बोले, फिर मौन हो गए।
उनकी बात को वह लड़का ज़्यादा तो नहीं समझ पाया, मगर जितना समझा, उसका उतना ही उपयोग कर पाया कि वह घर-घर जाकर एक ही बात कहता था, ‘‘या तो तुम बदलो या समय को बदल डालो।’’
उसकी बात लोगों के मन को छूती ज़रूर थी, पर उसका सही-सही मतलब समझ में नहीं आता था। आपस में बात भी करते थे। इसके सिवाय किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाते थे कि इससे बचने के लिए बदलाव ज़रूरी है। सवाल था—क्या बदलें ? कैसे बदलें ? प्रभु-वर्ग को पता चला कि उन लोगों के मौखिक शब्द-कोश में ‘बदलना’ शब्द सम्मिलित हो गया है। वे लोग समय के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं। उन्होंने फतवा दे दिया...जो कुछ भी है, वह है। उसे बदलना ईश्वरीय नियमों के प्रति विद्रोह है, पर वह लड़का नहीं माना। उसने घूम-घूम कर कहना जारी रखा, ‘‘या तो तुम बदलो या समय को बदल डालो।’’
एक दिन जब लोग दिशा मैंदान के लिए घरों से निकले, तो उन्होंने देखा कि राजधानी के बाहर एक द्वार बना हुआ है और उस पर एक सिर लटका हुआ है। लोगों ने पास जाकर देखा, तो वह उसी लड़के का सिर था, जिसने बाबा की बात को जगह-जगह पहुँचाना अपने जीवन का ध्येय बना लिया था। लोगों ने उसका नाम ‘बदलू’ रख दिया था। उसके नीचे लिखा था—‘‘बदलने की बात करने वाले को पहले अपने को बदलना पड़ता है। वह स्वयं नहीं बदलता, तो दूसरे बदल देते हैं।’’
लेकिन वह सिर कटने के बाद भी चुप नहीं था। लगातार वही एक आवाज आ रही थी, ‘‘या तो तुम बदलो या समय को बदल डालो।’’ उसके स्वर और शब्दों में अन्तर हो गया था।
लोगों ने डर के मारे अपना रास्ता बदल दिया। उनकी समझ में नही आ रहा था कि यह आवाज़ कहाँ से आ रही है और किसने उसे एक भरे-पूरे शरीर को एक सिर में बदल डाला ?
देखते-देखते उसके चारों तरफ काँटों की बाढ़ लगा दी गई। उसे चारों तरफ़ से घेर दिया गया। उसकी आवाज़ फिर भी बन्द नहीं हुई। हर राहगीर को उसका उद्बोधन सुनाई पड़ता था। जो डरते थे, वे भाग खड़े होते थे। जो समझदार थे, वे अपने हिसाब से अर्थ समझने की कोशिश करते थे। उनमें ऐसे भी थे, जो उसके पास तक पहुँचना चाहते थे। उस तक पहुँचना जान-जोखिम का काम था जहरीले काँटों को लाँघकर ही वहाँ पहुँचा जा सकता था। अगर कोई किसी तरह छुपकर, कूद-फाँद कर वहाँ पहुँच जाता था, तो अगले दिन उसका वहाँ सिर लटका मिलता था। ताज्जुब की बात यह थी कि उसके मँह से भी वहाँ शब्द निकल रहे होते थे, ‘या तो तुम बदलो या समय को बदल डालो।’
यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते उन दोनों इतिहासकारों के चेहरे गायब होते हुए मालूम पड़ने लगे थे। उपस्थिति बरकरार थी।
‘एक ऐसा जमाना आया कि लोग बाबा को भूल गए। उसका गुरु वह सिर हो गया, जिसने सबसे पहले बाबा से वह मंत्र लिया था। हर नौजवान के लिए यह वाक्य गुरुमंत्र बन गया था। लोग उसी को जपते घूमते थे। इस मंत्र की गूँज धीरे-धीरे उन बस्तियों में भी सुनाई पड़ने लगी है जहाँ आचारी-विचारी लोग सब कुछ भूलकर अपने धर्म-कर्म में प्रवृत्त रहते थे। उनका जीवन निष्पाप माना जाता था। उन्होंने अपनी साधना से अपने हृदय का मल काट डाला था। कुन्दन की तरह हो गए थे। लेकिन जब परिवर्तन कायह वाक्य वहाँ पहुँचा, तो उन्हें लगा, जैसे उसमें सैकड़ों मेगा टन शक्ति है। जिस दिन वह फटेगा, इतनी ऊर्जा उत्पन्न होगी कि उनका कुन्दन वन टूट-फूट कर बिखर जाएगा। नतीजा यह हुआ कि उस वाक्य के संवाहक घेरे जाने लगे। उनका उन बस्तियों में जाना बन्द हो गया। लेकिन हुआ उसका उल्टा। उनके अपने बच्चे भी टोले के लोगों के साथ मिलकर उस वाक्य को दोहराने लगे, जैसे-जैसे धर-पकड़ शुरू हुई उन टोलों से उठने वाली सदा और तेज हो गई। राजधानी के मुख्य द्वार पर मुंडों की संख्या बढ़ती गई। वे मुख से उस वाक्य को समवेत स्वर में दोहराते तो नगर प्रदेशों और देशों तक में उसकी प्रतिध्वनि होती है।
लोग चकित थे। जो हाशिये पर थे, वे प्रमुख होने लगे थे। कछुए गौर वर्ण ख़रगोशों से आगे निकल रहे थे। गौर वर्ण ख़रगोश परेशान थे—उनकी चाल को यह क्या हो गया ? एक दिन राजधानी के लोगों ने देखा कि सारी दीवारें, दफ़्तर सचिवालय उसी एक वाक्य से पटे पड़े हैं, अहंकार मुकुटों की तरह गिर रहे थे। रौंदे जा रहे थे। ऊँचे-ऊँचे शिखरों पर विशिष्टता का बाना पहने खड़ी बस्तियाँ काँपने लगी थीं। नए लोगों के हाथ समय को पकड़ने के लिए बढ़ रहे थे।’
‘कौन कितना बदला, किसने बदला...यह कहना तो मुश्किल है। मुनिया ने देखा कि तलहटियों से उठने वाला गुबार शिखरों की तरफ बढ़ रहा है। हालाँकि शिखर इतने ऊँचे थे कि उन तक पहुँचने की कल्पना करना ही संभव नहीं था। भाषा बदली, स्वर बदले, रहन-सहन बदला, यहाँ तक कि जो सिंहासन जननायक के बैठने के लिए था। उस पर एक रानी गुड़िया को बैठा दिया गया। उस गुड़िया को उन्हीं टोलों और बस्तियों ने बनाया था, जो कभी ज़मीन पर लेट कर खिसकते थे, जिनकी नज़रें इस तरह बँधी रहती थीं। जैसे तार से बाँध दी गई हों। उन्होंने आकाश देखा ही नहीं था। पहले वह गुड़िया चाबी से चलती थी। फिर वह अपनी चाबी स्वयं लगाने लगी। उसमें तरह-तरह के कैसेट फिट थे। वह गाली देती थी। प्रशंसा करती थी। उन पुण्यात्माओं के खिलाफ बयान देती थी, जो स्वयं अपने खिलाफ कुछ कहने का साहस नहीं कर पाते थे। धीरे-धीरे वह उन कैसेटों से भी स्वतंत्र होने लगी। उसकी अपनी भाषा बन गई। उसकी गालियाँ अपनी बन गईं। उसका प्यार, उसका तिरस्कार अपना हो गया, वह एक चमत्कार हो गई।’
उसने अपने लोगों को खबरदार रखने के लिए एक सिपहसालार नियुक्त कर लिया। उसका नाम था रानी और बाकी लोगों के बीच रिश्ते बनाना और बने हुए रिश्तों को टूटने न देना। उनके समर्थक तनी हुई फौज की तरह मार्च करते हुए सड़कों पर निकलते थे। चारों तरफ़ रानी-ही-रानी सुनाई पड़ता था द्वार पर लटके सिरों को उतारकर चौराहों पर ससम्मान स्थापित कर दिया गया था। रानी का हुक्म था—
परिवर्तन के इन वीरों की रोज़ सवेरे उठकर वंदना करो। उनके बताए हुए रास्ते पर चलने का व्रत लो। रानी ने ‘अपने को बदलो या समय को बदल डालो’ को शिलालेख पर खुदवा कर शहीद स्मारक की तरह राजधानी के बीचों-बीच लगवा दिया था।
परिवर्तनों की भरमार थी। राजधानी के लोग इस नए परिवर्तन को देखकर भयभीत थे। जहाँ उन लोगों के सिर लटके होने चाहिए थे, जिन्होंने अपनी विशिष्टता के बल पर बाहर धकेल दिया था, वहाँ अब रानी के सिपहसालार का सिर लटका था। वह उस संदेश को मशाल की तरह लेकर गाँव-गाँव, नगर-नगर घूमा था। नीचे लिखा था—‘परिवर्तन के खिलाफ पूर्व शासकों की नीति ‘यथास्थिति’ को चोर दरवाज़े से अन्दर लाने वाला कोई भी हो, वह रानी के कहर से नहीं बच सकता ! सावधान ! सावधान !’
‘‘नहीं।’’
‘‘देखोगे ?’’
आदमी ने कहा, ‘‘हाँ।’’
उसने कहा, ‘‘तो लो देखो !’’
उसने देखा—दूसरे ही क्षण वहाँ कोई नहीं था। कहा जाता है कि यह संसार का सबसे छोटा और प्रभावी गल्प है, लेकिन जो मैं बता रहा हूँ, यह वाकई सफ़र है। मैं एक लम्बी यात्रा पर था। हालाँकि मैं कभी-कभी यात्रा करता हूँ, पर करता हूँ। मेरे सामने दो नौजवान बैठे थे। अंग्रेज़ी के अलावा शायद वे कोई दूसरी भाषा नहीं जानते थे। वे उठ भी अंग्रेज़ी में रहे थे और बैठ भी अंग्रेज़ी में रहे थे। यहाँ तक कि ज़रुरियात से भी वे शायद अंग्रेज़ी में ही फ़ारिग होते थे।
वे इतिहास की बात कर रहे थे। उनकी बातों में इतिहास कम था, अंग्रेज़ी ज़्यादा थी।
मैंने उनसे पूछा, ‘‘आप इतिहास के छात्र हैं ?’’
उन्होंने जवाब दिया, ‘‘आपको कोई तकलीफ़ ?’’
मैं समझ नहीं पाया कि ‘इतिहास’ और ‘तकलीफ़’ का आपस में क्या रिश्ता है ? मैंने उस बात को नज़रन्दाज करते हुए कहा, ‘‘मैं साहित्य का आदमी हूँ। साहित्य भी मनुष्य की दुनिया का इतिहास ही है।’’
‘‘वेल सेड !’’ फिर मुझे काटते हुए बोले, ‘‘लेकिन हमें साहित्य से कुछ लेना-देना नहीं। वह इंसान का इतिहास हो या ख़ुदा का।’’
‘‘फिर आपकी रुचि किस चीज़ में है ?’’
पहले उन्होंने एक-दूसरे की तरफ़ देखा। फिर हँसे। एक ने दूसरे से कहा, ‘‘तो बता ही दें ?’’
‘‘हाँ, बता ही दो !’’ दूसरे ने जवाब दिया।
उनके इस अंदाज़ से मुझे डर लगा। शायद वे लोग मुझे एक-दूसरे पर गेंद की तरह उछालने के मूड में थे। एक बार ऐसा ही एक और सफ़र में हुआ था। वहाँ भी दो आदमी थे। टिकट चेकर टिकट चेक करने आया।
उनमें से एक ने दूसरे से कहा, ‘‘टिकट बाबू टिकट माँग रहे हैं।’’
‘‘तो दिखा दो !’’
पहले ने पूछा, ‘‘तो दिखा दें ?’’
‘‘हाँ, दिखा दो।’’ दूसरा जूता खोलने लगा। टिकट चेकर खिसक गया। यहाँ तो ऐसा नहीं हुआ, बल्कि सोच-विचार कर जवाब दिया, ‘‘हम वर्तमान को इतिहास की चौखट पर रख कर देखते हैं कि वर्तमान इतिहास बनने पर कैसा लगेगा ?’’
‘‘मैं समझा नहीं ?’’
‘‘यानी जो आज है, वह कल इतिहास होगा। कैसा होगा ? इतिहास बनने लायक है या नहीं ? इतिहास की काल्पनिक संरचना ही हमारा काम और शौक है।’’
मेरा मुँह खुल गया और शायद काफ़ी खुल गया था। हो सकता है इस बीच दो-चार मक्खियाँ अन्दर घुस कर बाहर भी निकल आयी हों और मुझे पता भी नहीं चला हो। मैंने जब मुँह बन्द किया, तो एक भी मक्खी मौजूद नहीं थी। होती तो वह पिस गई होती और मुँह बदबू से भर जाता।
‘‘आप तो इस तरह मुँह खोले हैं, जैसे सुनने का काम मुँह से ही लेते हों। जितना ही मुँह खुलेगा, शायद उतना ही ज़्यादा साफ सुनाई पड़ेगा। आपने वाल्मीकि का नाम सुना है ? उसने क्या किया था ? वो तो और भी एक कदम आगे थे। उन्होंने तो जो कुछ भविष्य में होने वाला था, उसे ही इतिहास बनाकर पेश कर दिया था। हम तो ‘वर्तमान’ को ही ‘इतिहास’ बनाते हैं, और कोई सवाल ?’’
मेरा मुँह तो बन्द हो गया, लेकिन दिमाग़ तो प्रसिद्ध पेन्टर डॉली के चित्र में बने विभिन्न आकारों की तरह फैल गया था।
‘‘मैं अभी भी नहीं समझा।’’
‘‘आप चाहे कुछ भी हों, लेखक नहीं हैं। लेखक की सबसे बड़ी शक्ति ‘कल्पना’ होती है, उसी में वह अपने यथार्थ की पकौड़ियाँ तलता है।’’
‘‘नहीं, मैं आपको समझता हूँ।’’ दूसरा बोला, ‘‘सफ़ेदा देखा है ? उसमें तारपीन का तेल मिलाकर ही उसका सही इस्तेमाल हो सकता है। वह इतना चीमड़ होता है कि बिना तारपीन का तेल मिलाए इस्तेमाल ही नहीं किया जा सकता। यथार्थ भी सफ़ेदे की तरह एकदम चीमड़ होता है। तारपीन का तेल कल्पना है, उसमें बड़ा-से-बड़ा जटिल यथार्थ घुलकर साहित्य बन जाता है।’’
उनकी यह व्यवस्था कुछ उत्तर-आधुनिकतावादी लगी। हालाँकि मैं यह बात विश्वास से नहीं कह सकता। न मैं दरिदा से मिला और न उसके किसी भारतीय संस्करण से मुठभेड़ हुई।
उनमें से एक ने पूछा, ‘‘समझे या नहीं समझे ?’’
मैंने उसी तरह गर्दन हिला दी, जैसे कोई नासमझ बच्चा मास्टरजी के बार-बार समझाने पर भी नहीं समझता और पूछने पर डरा हुआ-सा गर्दन हिला देता है।
उन्होंने मेरे इन्कार पर गंभीरता से गौर किया और बोले, ‘‘मान लो हमें अपने देश, प्रदेश या नगर के सन्दर्भ में, वर्तमान को लेकर इतिहास की संरचना करनी है। ‘इतिहास’ शब्द आपके लिए गरिष्ठ है। उसे छोड़िए। आपने स्वयं कहा कि साहित्य मनुष्य का इतिहास है, तो आप इस तरह समझिए की वर्तमान को साहित्य यानी मनुष्य को इतिहास के रूप में देखना है, तो आप अपनी संरचना की शुरुआत कैसे करेंगे ?’’
मैं चकराया। उन दोनों का परिचय पूछ कर मैं मुसीबत में फँस गया था। जान छुड़ाना मुश्किल हो रहा था। ये लौंडे क्या मेरी परीक्षा ले रहे हैं ?
‘‘बोलिए,’’ वे दबाव बनाए हुए थे।
दूसरा बोला, ‘‘आप साहित्य को मनुष्य का इतिहास व्यर्थ कहते हैं ! आप न उसका उपयोग जानते हैं न अर्थ।’’
‘‘तो बताइए आप अपने देश, प्रदेश या नगर के बारे में कोई भी संरचना...लिखना या...बोलना कैसे शुरू करेंगे.....? जिससे वह साहित्य या कहिए, मनुष्य का इतिहास बन सके ?’’
मैंने अल्लटप्प बोलना शुरू किया, ‘‘बीसवीं सदी का अन्त था।’’ मैंने डरते-डरते कहा। कहीं मैं गलत न कह रहा होऊँ और मास्टर जी का कन्टाप तड़ से खोपड़ी पर पड़ जाए। बचपन में ऐसे कन्टाप बहुत झेले थे। दरअसल बीसवीं सदी अभी खत्म ही कहाँ हुई है ?
‘‘बहुत ठीक....आगे ?’’ उन्होंने शाबासी के तौर पर कहा, जैसे हिम्मत बढ़ा रहे हों। वाकई मेरी हिम्मत बढ़ी भी। मैं आगे बोला, ‘‘गंगा–जमुना की तरह दो नदियों के बीच एक देश था....वह दोआब के नाम से बजता था। दोआबा का अर्थ दो जलधाराओं के बीच का क्षेत्र।’’
‘‘है’ को ‘था’ में बदलते ही वर्तमान इतिहास का रूप लेने लगता है।’’ एक बोला।
‘‘आगे बढ़िए....या इसी को चुबलाते रहेंगे ?’’ दूसरे ने कहा।
उन दोनों के बोलने से मेरी एकाग्रता भंग हुई थी। मैं उसे वापस लाता हुआ बोला, ‘‘दोआबा में सदियों तक ऐसे लोगों का राज्य रहा था, जो पढ़े-लिखे विद्वान, गौरवर्ण, ईश्वर को मानने वाले, सबको करुणा और दया का उपदेश देने वाले धर्माचरण सिखाने वाले थे। हर वर्ग के लोग उनके आधीन थे। उनका बच्चा भी आ जाता था, तो वय-प्राप्त लोग भी खड़े होकर उसका सम्मान करते थे, पूजा-अर्चन करते थे, नज़राना पेश करते थे।’’
उसने पहली बार हिन्दी में कहा, ‘‘गुरु, ठीक चल रहे हो !’’
दूसरा बोला, ‘‘तुममें आशुलेखक के गुण हैं। हाँ, आगे बढ़ो।’’ मैंने चकित भाव से उनकी तरफ देखा, दोनों हिंदी में बोले थे !
मुझे लगा, अब प्रजा की बात आनी चाहिए। राज्य तो वे ही बनाती है। राजा अकेला सिंहासन पर बैठा रहे और प्रजाविहीन राज्य को देख-देखकर खुश होता रहे, तो वह राज्य थोड़े ही हो जाएगा। मैंने कहा, ‘‘दोआबा राज्य की प्रजा उपेक्षित थी। उसके साधन न्यूनतम थे, पर संतोषी थी। जो मिल जाता था, वह खाकर और पानी पीकर सो जाती थी। नहीं मिलता था, तो करवट पर करवट बदलकर रात गुजार लेती थी। सड़क पर सीधी पीठ करके चलना वर्जित था। गर्दन उठाकर चलने का तो सवाल ही नहीं उठता था। अधिकार किस चिड़िया का नाम है—उन्होंने जाना ही नहीं था। जब रोटी पर अधिकार नहीं, खेत पर अधिकार नहीं...ज़मीन पर अधिकार नहीं, तो ‘अधिकार’ शब्द ही उनके लिए निर्रथक था। उनका एक अधिकार था चुपचाप जीते चले जाना और न जिया जाए, तो चुपचाप मर जाना। उनका मरना-जीना सब ईश्वर इच्छा थी। खाना या भूखे रहना तक ईश्वर-इच्छा ही थी। मरने के बाद वे कहाँ जाएँगे ? स्वर्ग में या नर्क में...उस पर भी उनका हक़ नहीं था। बस, उन्हें जो बताया गया था, वही जानते थे। सेवा में जीते रहो, तो मुक्ति मिल जाएगी। उसकी संस्तुति वे करेंगे। यदि उस दायरे के बाहर जाओगे, तो पुंगी नरक में ढकेल दिये जाओगे। जिस सन्दर्भ में उन्होंने इस नाम को सुना था, वह भयभीत कर देता था। हालाँकि न बताने वालों ने देखा था और न जाने वालों ने। ईश्वर का घर भी उन्होंने दो हिस्सों में बाँट रखा था। एक अपने लिए। उसका नाम स्वर्ग था। दूसरा नरक, वह इन्हीं सब लोगों के लिए था। जाना-आना तो बाद की बात थी, पर इन सब बातों ने उन्हें इतना डरपोक बना दिया था कि वे यह भी नहीं सोचना चाहते थे कि जिसमें वे अब रहे हैं, वह क्या है ? बस, एक झूठी आशा थी। इसी तरह गिरते-पड़ते जीते हुए, हो सकता है कभी युधिष्ठिर के साथ....उनका भी स्वर्गारोहण हो जाए ! भले ही बाद में दुत्कार कर निकाल दिए जाएँ।’’
उन दोनों ने एकाएक टोक कर पूछा, ‘‘तुम कौन हो ?’’
‘‘मैं समझा नहीं !’’
‘‘अपनी ही बात किए जा रहे हो ?’’
‘‘आप लोग बताइए, आप कौन हैं ?’’
वे लोग चक्कर काट गए ! उन्होंने जेर करने के लिए यह सवाल पूछा था। उलट कर सवाल पूछे जाने की बात उन्होंने सोची तक नहीं थी।
कहानी रुक गई थी। वे बोले, ‘‘हमने अपनी माँ से पूछा ही नहीं ?’’
‘‘पूछते तो क्या वह बता देती ?’’ मेरा जवाब सख्त था।
पासा यहीं से पलटना शुरू हो गया था। मैं उन पर हावी होने लगा था। मैंने उनसे कहा, ‘‘कहानी सुननी है और यथार्थ को बकौल मेरे, ‘इतिहास’ बनाना है, तो कहानी सुनते जाओ वरना फूटो।’’
वे चुप हो गए। मुझे लगा—उनका चेहरा धुआँ होने लगा है। चमक गायब होती जा रही है।
मैंने कहानी फिर शुरू की, ‘‘उन शासकों की वेशभूषा एकदम अलग थी। वे तरह-तरह के सुगन्धित लेपों से अपने को सजाते थे। दरअसल लेपन उनके लिए धार्मिक कार्य था। उनकी भाषा भी अलग थी...वह भाषा अवतरित थी। उसे जानने का अधिकार उन्हीं लोगों को था। वह भाषा उन्हीं लोगों के लिए ऊपर से उतरी थी। कुपात्र को सीखने की अनुमति नहीं थी। कुपात्र या सुपात्र तय करना उनका अपना अधिकार था। उनकी महिलाएँ तक उससे वंचित थीं। अगर कोई अनाधिकृत व्यक्ति सीखने की जुर्रत करता था। तो वह पातकी करार दे दिया जाता था। उनके पंचाट का निर्णय अन्तिम होता था। बाकी लोगों की भाषा कामचलाऊ थी। उसके उच्चारण पर, प्रयोग पर आसानी से हँसा जा सकता था। लोग हँसते भी थे। डाँट भी पड़ती थी...यह तुम क्या बोलते हो ? यह कोई सभ्य लोगों की भाषा है ? उनसे यह कौन कहता कि हमारे बड़ों ने हमें यही भाषा विरासत में दी है। आप लोग तो अपनी भाषा अपने अन्दर की मंजुषा में बन्द रखते हो।’’
उन दोनों ने मेरे बयान में व्यवधान पैदा करना चाहा, लेकिन तब तक मेरे अन्दर इतना आत्मविश्वास आ गया था कि टेढ़ी निगाहों से देख लेने भर से उनकी बोलती बन्द हो जाती थी वही हुआ ! उन्होंने बिना बोले गर्दन हिला दी—आगे चलिए।
मैंने कहानी जारी रखी, ‘‘जब प्रजा के लोग रात को लेटते, तो उन्हें लगता कि वे एक बहुत बड़े कड़ाहे में पड़े हैं और उसके नीचे धू-धू कर आग जल रही है। वे खदबद-खदबद उबल रहे हैं। उनकी समझ में नहीं आता था कि फिर भी वे जिन्दा कैसे हैं ? रात-भर वे उलट-पुलट होते रहते। सवेरे उठते, काम पर चले जाते। उन्हें लगता था-वे न मरते हैं न जीते हैं। उनको शायद पता नहीं था...यही उनका नरक है, जिसे वे भोग रहे हैं।’’
एक दिन सब इकट्ठे हुए। सब ऐसे व्यक्ति की शरण में गए, जो सब कुछ देख और भोग चुका था। यह माना जाता था कि वह सब जानता है। वे बोले, बाबा, आप हमें बताइए, हम क्या करें...दिन भर धूप में तपते हैं, रात को कड़ाहे में उबलते हैं...उन लोगों के घरों में मुलायम गद्दे बिछे हैं, रतन दीप जले हैं...तरह-तरह के भोजन बने हैं। हमें भूख और अँधेरे के सिवाय कुछ नहीं मिलता ?’’
बड़े बूढ़े ने जवाब दिया, ‘‘यह इतिहास की देन है !’’
‘‘इतिहास क्या ?’’
‘‘मैंने सुना है—जैसे कुम्हार चाक घुमाकर बर्तन बनाता है, ऐसे ही शक्तिशाली लोग समय को घुमाकर या उसके साथ घूमकर मनमाना इतिहास बनाते हैं। अपने उसी ’इतिहास’ को ‘समय’ की संज्ञा देते हैं !’’
उनमें एक नौजवान लड़का था। उसकी आँखें खुल रही थीं उसे लगा—समय आकाश है। वह बोला, ‘‘बाबा पूरी धरती एक है न ?’’
बाबा ने गर्दन हिला दी।
वह बोला, ‘‘धरती पर सब एक साथ रहते हैं ना ! इसी तरह समय है। वह भी एक है...उसके नीचे...या उसके ऊपर...हम सब एक ही साथ रहते हैं। फिर हम उबलते क्यों हैं ?’’
बाबा बोले, ‘‘समय का सब पर अलग-अलग असर होता है। जैसे हल्दी, खटाई, चूने के साथ मिलकर किसी चीज का रंग बदल जाता है...किसी के साथ वे अपना रंग बदल लेती है...कोई गल जाता है, कोई चमक जाता है ! किसी का स्वाद कसैला हो जाता है, किसी का खट्टा !’’ ‘‘तो हम क्या करें...ज़िन्दगी के इस कसैलेपन को कब तक सहते रहें ?’’
‘‘या तो तुम बदल जाओ या समय को बदल डालो।’’ बाबा सहजता के साथ बोले, फिर मौन हो गए।
उनकी बात को वह लड़का ज़्यादा तो नहीं समझ पाया, मगर जितना समझा, उसका उतना ही उपयोग कर पाया कि वह घर-घर जाकर एक ही बात कहता था, ‘‘या तो तुम बदलो या समय को बदल डालो।’’
उसकी बात लोगों के मन को छूती ज़रूर थी, पर उसका सही-सही मतलब समझ में नहीं आता था। आपस में बात भी करते थे। इसके सिवाय किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाते थे कि इससे बचने के लिए बदलाव ज़रूरी है। सवाल था—क्या बदलें ? कैसे बदलें ? प्रभु-वर्ग को पता चला कि उन लोगों के मौखिक शब्द-कोश में ‘बदलना’ शब्द सम्मिलित हो गया है। वे लोग समय के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं। उन्होंने फतवा दे दिया...जो कुछ भी है, वह है। उसे बदलना ईश्वरीय नियमों के प्रति विद्रोह है, पर वह लड़का नहीं माना। उसने घूम-घूम कर कहना जारी रखा, ‘‘या तो तुम बदलो या समय को बदल डालो।’’
एक दिन जब लोग दिशा मैंदान के लिए घरों से निकले, तो उन्होंने देखा कि राजधानी के बाहर एक द्वार बना हुआ है और उस पर एक सिर लटका हुआ है। लोगों ने पास जाकर देखा, तो वह उसी लड़के का सिर था, जिसने बाबा की बात को जगह-जगह पहुँचाना अपने जीवन का ध्येय बना लिया था। लोगों ने उसका नाम ‘बदलू’ रख दिया था। उसके नीचे लिखा था—‘‘बदलने की बात करने वाले को पहले अपने को बदलना पड़ता है। वह स्वयं नहीं बदलता, तो दूसरे बदल देते हैं।’’
लेकिन वह सिर कटने के बाद भी चुप नहीं था। लगातार वही एक आवाज आ रही थी, ‘‘या तो तुम बदलो या समय को बदल डालो।’’ उसके स्वर और शब्दों में अन्तर हो गया था।
लोगों ने डर के मारे अपना रास्ता बदल दिया। उनकी समझ में नही आ रहा था कि यह आवाज़ कहाँ से आ रही है और किसने उसे एक भरे-पूरे शरीर को एक सिर में बदल डाला ?
देखते-देखते उसके चारों तरफ काँटों की बाढ़ लगा दी गई। उसे चारों तरफ़ से घेर दिया गया। उसकी आवाज़ फिर भी बन्द नहीं हुई। हर राहगीर को उसका उद्बोधन सुनाई पड़ता था। जो डरते थे, वे भाग खड़े होते थे। जो समझदार थे, वे अपने हिसाब से अर्थ समझने की कोशिश करते थे। उनमें ऐसे भी थे, जो उसके पास तक पहुँचना चाहते थे। उस तक पहुँचना जान-जोखिम का काम था जहरीले काँटों को लाँघकर ही वहाँ पहुँचा जा सकता था। अगर कोई किसी तरह छुपकर, कूद-फाँद कर वहाँ पहुँच जाता था, तो अगले दिन उसका वहाँ सिर लटका मिलता था। ताज्जुब की बात यह थी कि उसके मँह से भी वहाँ शब्द निकल रहे होते थे, ‘या तो तुम बदलो या समय को बदल डालो।’
यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते उन दोनों इतिहासकारों के चेहरे गायब होते हुए मालूम पड़ने लगे थे। उपस्थिति बरकरार थी।
‘एक ऐसा जमाना आया कि लोग बाबा को भूल गए। उसका गुरु वह सिर हो गया, जिसने सबसे पहले बाबा से वह मंत्र लिया था। हर नौजवान के लिए यह वाक्य गुरुमंत्र बन गया था। लोग उसी को जपते घूमते थे। इस मंत्र की गूँज धीरे-धीरे उन बस्तियों में भी सुनाई पड़ने लगी है जहाँ आचारी-विचारी लोग सब कुछ भूलकर अपने धर्म-कर्म में प्रवृत्त रहते थे। उनका जीवन निष्पाप माना जाता था। उन्होंने अपनी साधना से अपने हृदय का मल काट डाला था। कुन्दन की तरह हो गए थे। लेकिन जब परिवर्तन कायह वाक्य वहाँ पहुँचा, तो उन्हें लगा, जैसे उसमें सैकड़ों मेगा टन शक्ति है। जिस दिन वह फटेगा, इतनी ऊर्जा उत्पन्न होगी कि उनका कुन्दन वन टूट-फूट कर बिखर जाएगा। नतीजा यह हुआ कि उस वाक्य के संवाहक घेरे जाने लगे। उनका उन बस्तियों में जाना बन्द हो गया। लेकिन हुआ उसका उल्टा। उनके अपने बच्चे भी टोले के लोगों के साथ मिलकर उस वाक्य को दोहराने लगे, जैसे-जैसे धर-पकड़ शुरू हुई उन टोलों से उठने वाली सदा और तेज हो गई। राजधानी के मुख्य द्वार पर मुंडों की संख्या बढ़ती गई। वे मुख से उस वाक्य को समवेत स्वर में दोहराते तो नगर प्रदेशों और देशों तक में उसकी प्रतिध्वनि होती है।
लोग चकित थे। जो हाशिये पर थे, वे प्रमुख होने लगे थे। कछुए गौर वर्ण ख़रगोशों से आगे निकल रहे थे। गौर वर्ण ख़रगोश परेशान थे—उनकी चाल को यह क्या हो गया ? एक दिन राजधानी के लोगों ने देखा कि सारी दीवारें, दफ़्तर सचिवालय उसी एक वाक्य से पटे पड़े हैं, अहंकार मुकुटों की तरह गिर रहे थे। रौंदे जा रहे थे। ऊँचे-ऊँचे शिखरों पर विशिष्टता का बाना पहने खड़ी बस्तियाँ काँपने लगी थीं। नए लोगों के हाथ समय को पकड़ने के लिए बढ़ रहे थे।’
‘कौन कितना बदला, किसने बदला...यह कहना तो मुश्किल है। मुनिया ने देखा कि तलहटियों से उठने वाला गुबार शिखरों की तरफ बढ़ रहा है। हालाँकि शिखर इतने ऊँचे थे कि उन तक पहुँचने की कल्पना करना ही संभव नहीं था। भाषा बदली, स्वर बदले, रहन-सहन बदला, यहाँ तक कि जो सिंहासन जननायक के बैठने के लिए था। उस पर एक रानी गुड़िया को बैठा दिया गया। उस गुड़िया को उन्हीं टोलों और बस्तियों ने बनाया था, जो कभी ज़मीन पर लेट कर खिसकते थे, जिनकी नज़रें इस तरह बँधी रहती थीं। जैसे तार से बाँध दी गई हों। उन्होंने आकाश देखा ही नहीं था। पहले वह गुड़िया चाबी से चलती थी। फिर वह अपनी चाबी स्वयं लगाने लगी। उसमें तरह-तरह के कैसेट फिट थे। वह गाली देती थी। प्रशंसा करती थी। उन पुण्यात्माओं के खिलाफ बयान देती थी, जो स्वयं अपने खिलाफ कुछ कहने का साहस नहीं कर पाते थे। धीरे-धीरे वह उन कैसेटों से भी स्वतंत्र होने लगी। उसकी अपनी भाषा बन गई। उसकी गालियाँ अपनी बन गईं। उसका प्यार, उसका तिरस्कार अपना हो गया, वह एक चमत्कार हो गई।’
उसने अपने लोगों को खबरदार रखने के लिए एक सिपहसालार नियुक्त कर लिया। उसका नाम था रानी और बाकी लोगों के बीच रिश्ते बनाना और बने हुए रिश्तों को टूटने न देना। उनके समर्थक तनी हुई फौज की तरह मार्च करते हुए सड़कों पर निकलते थे। चारों तरफ़ रानी-ही-रानी सुनाई पड़ता था द्वार पर लटके सिरों को उतारकर चौराहों पर ससम्मान स्थापित कर दिया गया था। रानी का हुक्म था—
परिवर्तन के इन वीरों की रोज़ सवेरे उठकर वंदना करो। उनके बताए हुए रास्ते पर चलने का व्रत लो। रानी ने ‘अपने को बदलो या समय को बदल डालो’ को शिलालेख पर खुदवा कर शहीद स्मारक की तरह राजधानी के बीचों-बीच लगवा दिया था।
परिवर्तनों की भरमार थी। राजधानी के लोग इस नए परिवर्तन को देखकर भयभीत थे। जहाँ उन लोगों के सिर लटके होने चाहिए थे, जिन्होंने अपनी विशिष्टता के बल पर बाहर धकेल दिया था, वहाँ अब रानी के सिपहसालार का सिर लटका था। वह उस संदेश को मशाल की तरह लेकर गाँव-गाँव, नगर-नगर घूमा था। नीचे लिखा था—‘परिवर्तन के खिलाफ पूर्व शासकों की नीति ‘यथास्थिति’ को चोर दरवाज़े से अन्दर लाने वाला कोई भी हो, वह रानी के कहर से नहीं बच सकता ! सावधान ! सावधान !’
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