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नारी विमर्श >> नारीत्व

नारीत्व

शान्ति कुमार स्याल

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4907
आईएसबीएन :81-7043-359-2

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नारी के अधिकारों के संरक्षण पर आधारित पुस्तक...

Naritva

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपनी बात

भारतीय नारियों में त्याग, सेवाभाव, सहिष्णुता एवं निष्ठा के गुण विद्यमान हैं। नारी प्राचीन काल से ही अपनी अद्भुत शक्ति प्रतिभा, चातुर्य, स्नेहशीलता, धैर्य, समझ, सौन्दर्य के कारण हर मोर्चे पर पुरुष से आगे नहीं तो पीछे भी नहीं रही है। जहाँ वह पति को पूज्य व देवता के समतुल्य मानती है, वहाँ पति भी उसे गृहलक्ष्मी कहकर किसी देवी से कम नहीं समझता।
यद् गृहे रमते नारी लक्ष्मीस्तद गृहवासिनी।
देवता कोटिशो वत्स न त्यज्यंति ग्रहहितत्।।

अर्थात् जिस घर में सद्गुण सम्पन्न नारी सुखपूर्वक निवास करती है उस घर में लक्ष्मी जी निवास करती हैं। हे वत्स ! करोड़ों देवता भी उस घर को नहीं छोड़ते।
नर-नारी दोनों गृहस्थी रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। स्त्री के बिना तो किसी घर की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसीलिए कहा गया है—‘बिन घरनी घर भूत समाना।’
पुरुष के लिए नारी प्रेरणा का एक स्रोत है। प्रेरणा का सूक्ष्म प्रभाव होता है। कुछ कहना-सुनना नहीं पड़ता। केवल उसकी उपस्थिति ही सब चमत्कार कर देती है।
नारी में त्याग एवं उदारता है, इसलिए वह देवी है। परिवार के लिए तपस्या करती है इसलिए उसमें तापसी है। उसमें ममता है इसलिए माँ है। क्षमता है, इसलिए शक्ति है। किसी को किसी प्रकार की कमी नहीं होने देती इसलिए अन्नपूर्णा है।
नारी महान् है। वह एक शक्ति है। भारतीय समाज में वह देवी है। नारी की कोमलता, सुन्दरता और मोहकता ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति है। इसी शक्ति के बल पर वह बड़े-से-बड़े वीर, महान्, विद्वान् और कलाकार को पैदा करती है। बिना अपने आप को विज्ञापित किए, वह एक साथ कई मोर्चों पर सृजन की कमान सँभालती है। सन्तान उत्पत्ति से लेकर पुत्र पालन तक, प्रेम से लेकर विवाहित जीवन तक वह निरन्तर प्रेरणा की मशाल बनी रहती है।
नारी का प्रेम सृजनात्मक है तथा उसकी प्रसन्नता फूल खिलाती है। नारी सृष्टि सर्जक है। वह पोषक है और संकट-काल में साक्षात् काली बनकर संहार करने में समर्थ है। नारी पहले अनुगामिनी होती है फिर सहभागिनी होती है और अन्त में अग्रगामिनी हो जाती है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसकी महत्त्वपूर्ण स्थिति और उपयोगिता है। वह पुरुष की तुलना में परिश्रम प्रेम, सहानुभूति, सेवा और जीवन के अन्यान्य क्षेत्रों में उससे सदैव आगे रही है और रहेगी।
नारी उदात्त भावनाओं का मूर्त रूप है, त्याग की प्रतिमूर्ति है, प्रेम और श्रेय की परिधि से परे योग और भोग, अध्याय और दर्शन, दैव और जैव-धरातल पर सकाम और निष्काम उपलब्धियों की पूर्वपीठिका है।
माता होने पर ब्रह्माण्ड में लाने, पत्नी के रूप में पुरुषों के सुख-दुःख में भागीदार होने वाली, बहन के रूप में माता का वात्सल्य देकर पीछे मज़बूती से खड़ी रहने वाली, पुत्री बनकर घर में उजाला फैलाने वाली स्त्री का दर्ज़ा समाज में, परिवार में ऊँचा है।

नारी केवल नर का मादा रूप मात्र नहीं है। नारी तो एक शाश्वत, चिरन्तन दिव्य रूप है। जिसकी अनुभूति मात्र हो सकती है, अभिव्यक्ति नहीं। और वह अनुभूति हर उस व्यक्ति को होती है जो एक पुत्र है, पति, पिता या भाई है, इसकी अनुभूति प्रत्येक उस व्यक्ति को होती है जो आत्मीयता के धरातल पर आदमी है या हर उस जीव को होती है जो जैव धरातल पर चैतन्य है, क्योंकि नारी रूप की पूर्णता मातृरूप में होती है।
नारी के दायित्व अनगिनत हैं। सन्तान को निहारती माँ के वात्सल्यपूर्ण नयन, प्रिय को अनुराग में नहलाती प्रिया, भाई की मंगल कामना में बुदबुदाते बहना के अधर और इन सबसे बढ़कर अमर राष्ट्र-प्रेम में सराबोर, एक ओजस्वी व्यक्तित्व जो आवश्यकता पड़ने पर अपने संकुचित दायरे से बाहर निकल कर जन-मानस को राष्ट्रीय चेतना से तरंगित कर देता है।
भारत की धरती पर स्वतंत्रता संग्राम में अनेक महिलाओं ने क्रान्तिकारी संगठनों में सम्मिलित होकर इस देश की भूमि को अपने खून से सींचा है। महारानी लक्ष्मीबाई, दुर्गावती तथा अहिल्याबाई आदि नारियों ने अपनी आनबान की रक्षा के लिए अपने जौहर दिखाए।
जब भी किसी समाज में नारी का निरादर हुआ उस युग एवं समूचे राष्ट्र को इसका मूल्य चुकाना पड़ा। जिस प्रकार रामायण काल और महाभारत काल में सीता और द्रौपदी पर समाज ने प्रश्नचिह्न लगाए तो इसकी नारी कीमत समाज को ही नहीं बल्कि युग को चुकानी पड़ी।
यदि भारत को अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में अपनी साख बनानी है, तो उसे अपने राष्ट्र की नारियों की क्षमता का इस क्षेत्र में समुचित व भरपूर उपयोग करना होगा।
आज नारियों को अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है, संगठित होना पड़ रहा है, महिला कल्याण आयोग आदि बनाए जा रहे हैं, महिलाओं के कल्याण संबंधी कितनी तरह की संस्थाएँ आगे आ रही हैं। महिला विश्व सम्मेलनों का आयोजन कर दुनिया-भर में संग्राम छेड़ने का अभियान चलाया जा रहा है। आरक्षण की आवश्यकता पर जोर दिया जा रहा है। आखिर नारियों को इनकी आवश्यकता क्यों पड़ी ? क्या सचमुच इनको अधिकारों से वंचित रखा गया है ? अधिकांश पुस्तकों में, समाचार-पत्रों में महिलाओं की समस्याओं तथा उन पर हो रहे अत्याचारों को दर्शाया गया है। कहीं-कहीं नारियाँ ही नारियों पर तथा कहीं पर पुरुष वर्ग नारियों पर अत्याचार करते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में मुख्य रूप से नारी के अच्छे गुणों पर प्रकाश डाला गया है। नारी में जितनी भी विशेषताएँ हैं उन्हें अलग-अलग अध्यायों में प्रदर्शित करने का प्रयास किया गया है। जबकि नारी के किसी भी अवगुण को नहीं लिया गया, न ही उस संबंध में अपने विचार ही दिए गए हैं। जिस प्रकार अच्छाई के साथ बुराई, देवताओं के साथ दानवों, रात के साथ दिन, दुःख के साथ सुख आदि का संबंध तो घनिष्ठ ही है। लेकिन फिर भी यहाँ नारी के मात्र एकपक्षीय गुणों को ही लिया गया है। अवगुणों को लेने से अपने विषय से भटकन पैदा हो सकती थी।

इस पुस्तक का मात्र उद्देश्य यह है कि नारी के गुणों को देखते हुए गहराई से मनन किया जाए तो साक्षात् देवी रूप एवं ईश्वरीय रूप सामने आता है। नारियों पर अत्याचार करते हुए अत्याचारी पुरुष यदि एक बार भी नारी गुणों का अध्ययन कर लेता है तो वह अत्याचार नहीं कर सकता, ऐसा मेरा विश्वास है।
प्रस्तुत पुस्तक लिखने में सबसे अधिक प्रेरणा व महत्त्वपूर्ण सुझाव मुझे आदरणीय परममित्र एवं भाई तुल्य डॉ. रामगोपाल वर्मा जी से मिला। उनकी शैक्षिक तथा बैद्धिक संवेदनशीलता ने मुझे सदैव प्रेरित किया है। मैं उनका हृदय से आभारी हूँ।
आदरणीय मित्र श्री सुभाष तनेजा जी के प्रति मैं विशेष रूप से आभारी हूँ जो इस कृति के लेखन कार्य को पूरा करने के लिए प्रोत्साहित करते रहे तथा इसके प्रकाशन कार्य में सहयोग दिया।
पाण्डुलिपी तैयार करने में अपने सहयोगी व आदरणीय मित्रों में श्री सुरेन्द्र लाल मल्होत्रा व श्री नेत्रसिंह रावत जी का भी मार्गदर्शन वह सहयोग के लिए आभारी हूँ।
अन्त में सहधर्मिणी श्रीमती रमा स्याल, बेटी रीतू, बेटे ललित तथा अनुज नन्दकिशोर स्याल के सहयोग को नहीं भुला सकता जिन पर मेरी व्यस्तता का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है और वे सहर्ष मौन रूप में इसे स्वीकार कर लेते हैं।
पुस्तक में त्रुटियाँ होना स्वाभाविक है। किसी भी प्रकार की गलती के लिए मैं सभी पाठकों एवं आदरणीय विद्वानों से क्षमायाचना करता हूँ तथा उनके महत्त्वपूर्ण सुझाव की अपेक्षा करता हूँ।

1
नारी में ईश्वरत्व

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवतः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।। (मनुस्मृति,3/56)

अर्थात् ‘‘जहाँ स्त्रियों का आदर किया जाता है, वहाँ देवता रमण करते हैं और जहाँ इनका अनादर होता है, वहाँ सब कार्य निष्फल होते हैं।’’
जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता भी निवास करते हैं।
धर्म ग्रन्थों में, नीति-नियम से संबंधित उक्तियों में नारी को ‘पूज्य’, ‘देवी’, ‘गृह-लक्ष्मी’ आदि कई संज्ञाएँ प्रदान की गईं। शास्त्रवेत्ताओं ने अपनी-अपनी बात भले ही अलग-अलग ढंग से कही है परन्तु उनका आशय नारी को पूज्य बनाना ही रहा है। नारी के पूजने का तात्पर्य परिवार में नारी के पूर्ण सम्मान से है। शास्त्र ज्ञाताओं की ये उक्तियाँ स्वतः उच्चरित नहीं हुई होंगी। उस काल में नारी के प्रति अवश्य कुछ अपमाननीय रहा होगा जिसका प्रतिक्रियान्वित परिणाम नारी की पूजा उभरा। ऐसे दुष्ट प्रवृत्ति लोगों को उपदेशात्मक उक्तियाँ बनाई गई होंगी। सीता जी की पवित्रता पर कीचड़ उछालता हुआ धोबी रामायण में अपनी पत्नी पर सन्देह कर उसे घर से निकाल देता है। उस धोबी जैसे पात्र उस काल में रहे होंगे और ऐसी घटनाओं का बाहुल्य रहा होगा जिसके परिणामस्वरूप नारी को पूजने संबंधी उक्तियों का जन्म हुआ। यहाँ कुछ ऐसी उक्तियों को उद्धृत किया जा रहा है।
‘मनुस्मृति’ में लिखा है—
प्रजनार्थ महाभागाः पूजार्हा गृहदीप्तयः।
स्त्रियः श्रियश्य गेहेषु न विशेषोऽस्ति कश्चन।। (मनुस्मृति,9/26)

अर्थात् ‘‘परम सौभाग्यशालिनी स्त्रियाँ सन्तानोत्पादन के लिए हैं। वह सर्वथा सम्मान के योग्य और घर की शोभा हैं। घर की स्त्री और लक्ष्मी में कोई भेद नहीं है।’’
उत्पादन मपत्यस्य जातस्य पारिपालनम्।
प्रत्यहं लोक यात्रायाः प्रत्यक्ष स्त्रीनिबन्धनम्।।
(मनुस्मृति, 9/27)

अर्थात् ‘‘सन्तान उत्पन्न करना, उत्पन्न हुई सन्तान का भली-भाँति पालन-पोषण करना और प्रतिदिन भोजन आदि बनाकर लोक यात्रा का निर्वाह करना—यह सब प्रत्यक्ष रूप से स्त्री के आधीन है।’’
श्री स्कन्दपुराण के ब्रह्माण्ड में कहा है—
भार्या मूलं गृहस्थस्य भार्या मूलं सुखस्य च।
भार्या धर्म फलायैव भार्या संतान वृद्धये।।
(श्री स्कन्दपुराण, 7/64)

अर्थात् ‘‘गृहस्थ आश्रम का मूल भार्या है, सुख का मूल कारण भार्या है, धर्म फल की प्राप्ति तथा सन्तान वृद्धि का कारण भार्या ही है।’’
नारी का महान् पद माता का है, जिसके लिए वाल्मीकि ने ‘रामायण’ में कहा है—

‘‘जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’’

अर्थात् ‘‘जननी और जन्म-भूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।’’
महाभारत में श्री विदुर जी ने कहा है—
पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः।
स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद रक्ष्या विशेषतः।। (महाभारत, 38/11)

अर्थात् ‘‘घर को उज्जवल करने वाली और पवित्र आचरण वाली महाभाग्यवती स्त्रियाँ पूजा (सत्कार) करने योग्य हैं, क्योंकि वे घर की लक्ष्मी कही गई हैं, अतः उनकी विशेष रूप से रक्षा करें।’’
शास्त्रवेत्ताओं ने जो कुछ शास्त्रों में लिखा है वह व्यक्ति, परिवार और समाज की भलाई के लिए ही उद्धृत किया है। जिस भलाई के लिए लिखा गया, निःसन्देह समाज में उस भलाई के परिणाम किसी-न-किसी रूप में सामने आये होंगे। दूसरी ओर उस मार्ग पर न चलने वाले सामाजिकों के दुष्परिणाम भी सामने आ रहे होंगे। इनका तुलनात्मक अध्ययन इन शास्त्रों की सामग्री बना है। नारी की सन्तानोत्पत्ति का साधन माना। यह एक प्राकृतिक सत्य है। किन्तु उसमें उस सन्तान का महत्त्व है जिसमें उस कुल का आगे चलना निहित है। कुल को आगे चलाने की लोलुपता मानवीय कर्तव्य के रूप में पहले ही व्याख्या का विषय बन चुकी है। इस कुल को आगे बढ़ाने की मुख्य पात्रा नारी है इसलिए उसे ‘गृहस्थाश्रम का मूल भार्या है’ कहा गया। ‘पवित्र आचरण वाली महाभाग्यवती स्त्रियाँ पूजा (सत्कार) करने योग्य हैं।’ इसका अर्थ यह भी है कि जिन स्त्रियों का आचरण ऐसा नहीं है, वे न तो भाग्यवती हैं और न ही पूजा के योग्य हैं। ऐसी स्त्रियों का भी उस काल में बोलबाला रहा होगा और दूसरे, ऐसे पुरुषों का भी बाहुल्य रहा होगा जो अज्ञानवश नारी के घर की लक्ष्मी बनने वाले गुणों से परिचित ही नहीं रहे होंगे। ऐसे पुरुषों को समझाने के लिए, उनमें समाज और परिवार को सुधारने के लिए, मानवता की उच्चता के लिए अध्ययन किया गया हो और फिर नारी को गृहलक्ष्मी के रूप में स्थापित किया गया हो।
शास्त्रों में विदित नारी-सम्मान हमें मान्य है। इस सम्मान के पीछे जो अध्ययन दिखाई पड़ता है, वह व्यक्ति, परिवार और समाज के लिए ही औचित्य प्रदान नहीं करता, बल्कि उस महाप्रभु की प्रकृति की सार्थकता का भी प्रतिपादन करता है। निःसन्देह नारी के प्रति बुरा आचरण प्रकृति के विरुद्ध जाना है। प्रकृति के नियमों की अवहेलना करने वाला, प्रकृति से कुछ प्राप्त नहीं कर पाता, वह जब तक जीवित रहता है, तब तक प्रकृति से उसका संघर्ष जारी रहता है। नारी सम्मान के पीछे सुख का एक बहुत बड़ा आधार है। समृद्धि भी नारी की तरह सुख का कारण है, पर सुख लक्ष्य है, सुख ही साध्य है। सुख की प्राप्ति हेतु पारिवारिक और आध्यात्मिक रूप से नारी-सम्मान अनिवार्य है। परिवार में हम जहाँ एक-दूसरे के सुख के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, वहीं त्याग की भावना उभरकर आती है। त्याग की परिभाषा में यह परिलक्षित है कि त्याग करने वाले को आत्मिक सुख की प्राप्ति होती है। अतः साध्य वही सुख है जो कभी नारी पुरुष के त्याग को साधन बनाता है और कभी नारी सम्मान को। व्यक्तिगत सुख से पारिवारिक सुख जन्म लेता है। व्यक्तिगत सुख के साधन भले ही नारी-सम्मान, पुरुष का त्याग एवं समृद्धि हों, पर पारिवारिक सुख व्यक्तिगत सुख में ही निहित रहता है। परिवार की धुरी नारी है। निष्कर्षतः, नारी के व्यक्तिगत सम्मान में ही परिवार का सुख छिपा है। अतः शास्त्रों में ‘नारी पूज्यन्ते’ सूत्र प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में परिवार के सुख के लिए है। इसका विश्लेषण व्यक्तिगत रूप में, सामाजिक रूप में या आध्यात्मिक रूप में किया जाए तो भी परिणाम वही निकलता है।

परिवार के सुख का एक कारण है, समृद्धि। इस समृद्धि में ही समाज का उत्थान है। समाज की सम्पन्नता जहाँ एक ओर आर्थिक है, वहीं दूसरी ओर सांस्कृतिक है। उसका आर्थिक पक्ष समृद्धि से जुड़ा है जबकि सांस्कृतिक पक्ष व्यक्तिगत सुख से। अतः यह निश्चित है कि सांस्कृतिक दृष्टि से उसी समाज का उत्थान होगा जहाँ नारी की पूजा होती है, नारी को सम्मान दिया जाता है। यही कारण है कि किसी भी समाज के जितने भी धार्मिक सांस्कृतिक अनुष्ठान हैं, वे सभी नारी की उपस्थिति में ही सम्पन्न होते हैं। नारी के सम्मान में ही सांस्कृतिक उत्थान निहित है। जहाँ नारी का सम्मान है वहाँ व्यक्ति, परिवार और समाज तीनों का कल्याण है। शास्त्र सम्म्त नारी की पूजा सामाजिक और आत्मिक रूप से सार्थक है, उचित है।
लौकिक और पारलौकिक सभी कार्यों के सम्पादन में मूल आधार स्त्रियाँ ही हैं, अतः मनुष्य को इनका आदर-सम्मान यत्नपूर्वक करना चाहिए।
सारी सृष्टि को विद्या का ज्ञान देने वाली तथा मनुष्य की मेधा व बुद्धिबल की प्रतीक और नर-नारी के शरीरों के संघर्ष से जो अग्नि पैदा होती है उसी के तेज, उसी की ज्योति, देवी माँ सरस्वती भारतीय नारी की चरम उपलब्धि है। धन का भण्डार लुटाने वाली, श्री सौभाग्य, धन-धान्य और समृद्धि की अधिष्ठात्री देवी माँ लक्ष्मी है जिसकी कामना सारी दुनिया में छोटे से लेकर बड़े तक बड़े चाव से करते हैं।
प्राचीन काल में विवाह का उद्देश्य पत्नी के साथ मिलकर गृहस्थ धर्म का पालन धर्मानुष्ठान, यज्ञ, श्रेष्ठ सन्तान की प्राप्ति था। स्त्री के बिना कोई धार्मिक कृत्य, अनुष्ठान सम्पन्न नहीं हो सकता था। बाइबल के अनुसार, नारी में ऐसे गुण विराजमान हैं जो परिवार की देखभाल के अतिरिक्त व्यक्तिगत कार्यक्षमता, ग़रीबों के प्रति दया व सेवा-भावना, बुद्धिमानी और समझदारी की क़दर से उनमें स्वतन्त्र व्यक्तित्व का विकास करती है। जैन धर्म में स्त्रियों को उचित स्थान दिया गया है। इस्लाम में क़ुरान शरीफ में स्त्रियों-पुरुषों को समान अधिकार प्राप्त है। पारसी धर्म में नारियों का आदर होता है। वे समाज में पुरुष के समकक्ष कार्य करती हैं। धार्मिक कार्य, उच्च शिक्षा, रोज़गार में वे सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं जो मनुष्य को प्राप्त हैं। नारी को जो मान्यता विभिन्न धर्मों ने दी उसकी स्थापना चाणक्य ने दो हज़ार वर्ष से पूर्व कर दी थी।
चाणक्य के अनुसार जिस गृहस्थाश्रम में आनन्दपूर्वक गृह, बुद्धिमान पुत्र, प्रियवादी पत्नी, इच्छापूर्ति के लिए पर्याप्त धन, अपनी पत्नी से प्रीति, आज्ञाकारी सेवक, अतिथि सत्कार, देव-पूजन, प्रतिदिन मधुर भोजन तथा सत्पुरुषों के संग-सत्संग का सुअवसर सदा सुलभ होता है, वह धन्य है।
केरल के तिरुवल्ले क्षेत्र में चक्कुलाथालु काबू देवी मन्दिर में मलयालम के धानु माह के प्रथम शुक्रवार को प्रति वर्ष नारी की पूजा की जाती है। इस दिवस पर हजारों नारियाँ एकत्रित होती हैं। मन्दिर का पुज़ारी महिलाओं को आसन पर बैठाकर उनके पाँव धोता है, नए वस्त्र वितरित करता है, तत्पश्चात् पुरुष वर्ग पुजारी के साथ मंत्रोच्चारण करते हुए उपस्थित महिलाओं की विधिवित पूजा करते हैं।

इस नारी पूजा को देखने के लिए देशी-विदेशी पर्यटक हज़ारों की संख्या में उपस्थित होते हैं। मन्दिर के रज़िस्टर में दर्ज़ एक फ्रांस की महिला पर्यटक जेन लोपाल ने अपनी टिप्पणी में लिखा है—
‘‘महिलाओं का ऐसा सम्मान होना, भारत में ही सम्भव है। एक विकसित राष्ट्र की गर्वित नागरिक के रूप में मैं विकासशील भारत के प्रति कुछ-कुछ तिरस्कार की भावना से यहाँ आई थी, किन्तु अब एक विकसित राष्ट्र से अपनी विकासशील मातृभूमि वापस जा रही हूँ।’’
नवरात्रों में खासकर अष्टमी/नौवीं को तो घर-घर में कन्याओं की पूजा होती है। अविवाहित लड़कियों के पैर धोए जाने की प्रथा है। कन्याओं के पैरों को धोकर उनको खाना आदि खिलाया जाता है।
नारी एक ईश्वरीय उपहार है जिसे स्वर्ग खो जाने की क्षतिपूर्तिस्वरूप पुरुष को प्रदान किया गया है। नारी ही प्रजा-सृष्टि है। वह शिशु के रूप में ईश्वर को भी जन्म देती है। वह महासेतु है जिस पर अदृश्य जगत् से चलकर नए मनुष्य दृश्य जगत् में आते हैं। सृष्टि के आदि से विश्व उसकी गोद में क्रीड़ा करता आया है। नारी सृष्टि की परम सौन्दर्यमयी सर्वोत्कृष्ट कृति है। सौंदर्य से अभिमानी, उत्तम गुणों से उसकी प्रशंसा होती है और लज्जा से वह देवी है। उसकी मधुर मुसकान में महानिर्माण के स्वप्न हैं।
प्रकृति की तरह नारी भी निर्मात्री और संचालिका है। अपने स्त्री-गुणों के साथ कल्याणी है। वह अपने परिवार व संसार का कल्याण करने वाली है। जीवन को निरंतरता देने का माध्यम माँ है, इसलिए वह अपने सौंदर्य और यौवन से हमें मोहकर प्रजनन और संरक्षण दोनों में हमारा उपयोग करती है। स्त्री को सरस्वती समान गुणी, लक्ष्मी समान कुशल गृहलक्ष्मी होने के साथ शक्ति भी माना गया है। अतः नारी को देवी के रूप में दुर्गा, लक्ष्मी, ज्वाला, गौरी, भगवती आदि नामों से पूजा जाता है।
भारतीय समाज में नारी का समाज एक अभिन्न अंग है। नारी के बिना भारतीय समाज ही नहीं बल्कि सारी सृष्टि ही अधूरी प्रतीत होती है।
नारी सत्य, प्रेम और विश्वास का रूप है। उसमें श्रद्धा, भक्ति और त्याग का जीवित चित्रण है। कला चेतना उसमें विद्यमान है। लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती भी नारी के प्रतीक रूप हैं।
नारी माता है, पत्नी है, पुत्री है, बहन है, भाभी है, प्रेमिका है, साथी है, सहयोगी है।
नारी एक अगरबत्ती की तरह है जो अपना सर्वस्व हवन कर सम्पूर्ण जगत् को सुगन्धित करती है और अन्त में भस्मीभूत होकर राख में परिणत हो जाती है।

नारी एक ऐसा फूल है जो छाया में भी सुगन्ध फैलाता है। पति के लिए त्याग, सन्तान के लिए ममता, दुनिया के लिए दया, जीव-मात्र के लिए करुणा सँजोने वाली नारी ही है।
नारी जीवन की वह धुरी है जहाँ से जीवन संचालित होता है। पिता के न रहने से सन्तान ग़रीब हो सकती है पर माता उनका पालन-पोषण ठीक-ठाक कर देती है। माता के बिना ग़रीब न होने पर भी वह दुःखी हो जाती है। बच्चों का माता के बिना मन, मस्तिष्क और जीवन का सन्तुलन ही बिगड़ जाता है। बच्चों का भविष्य, आने वाले समाज का भविष्य, नारी पर निर्भर है। भारतीय संस्कारों में नारी को पुरुष से, माता को पिता से पहले स्थान दिया जाता है जैसे माता-पिता, स्त्री-पुरुष, राधा-कृष्ण, सीता-राम, लक्ष्मी-नारायण, भवानी-शंकर आदि।
इतिहास में ऐसी महिलाएँ असंख्य हैं जिन्होंने अपने परिवार और बच्चों को बचाने के लिए प्राणों की आहुति दे दी। आज भी कई नारियाँ ऐसी हैं जो अपने परिवार की रात-दिन सेवा में लीन हैं। उन्हें अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान नहीं रहता। यदि उनका स्वास्थ्य खराब भी चल रहा है तो भी आराम नहीं कर सकतीं। बस उन्हें तो परिवार के एक-एक सदस्य का ध्यान रखना है। उनकी सेवा करनी है। यहाँ तक यदि उन्हें आराम करने के लिए कहा जाता है तो कहती हैं कि यदि शरीर है तो इसके साथ कुछ-न-कुछ तो लगा ही रहता है। वे अपने शरीर की परवाह किए बग़ैर दूसरे सदस्यों का ध्यान रखती हैं। ऐसा करने से उन्हें जो आनन्द प्राप्त होता उसकी कोई सीमा नहीं।
नारी की प्रकृति ईश्वरीय है इसमें कोई शक नहीं है। वह पक्षी की तरह आकाश में आज़ाद उड़ना या घूमकर इतनी खुशी नहीं होगी जितनी वह पति, बच्चों और परिवार में बँधकर। सारी रात स्वयं गीले बिस्तर पर सोकर और अपने बच्चों को सूखे में सुलाकर उसे सुख मिलता है। वह अपने पति की पसन्द को अपनी पसन्द मानकर आनन्दित होती है।

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