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एक रात का जख्म

दर्शन मित्तवा

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4906
आईएसबीएन :00000

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एक श्रेष्ठ उपन्यास....

Ek Rat Ka Jakhm

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दर्शन मितवा छोटी-छोटी घटनाओं को लेकर उपन्यास लिखते हैं, मगर घटनाएँ तो फिर घटनाएँ होती हैं बेशक वो कितनी भी छोटी क्यों न हों। उसने अपने इन लघु उपन्यासों की बनावट भी कुछ इस ढंग से की है कि बेतरतीब होते हुए भी घटनाएं अत्यंत सहज महसूस होती हैं, मगर हमारे मन पर गहरा और तीक्ष्ण प्रभाव छोड़ती हैं।
मितवा की कहानियाँ और उपन्यास हमेशा चर्चा का विषय बने रहे हैं। उनकी कई रचनाओं की प्रशंसा भी बहुत होती है तो कई रचनाओं का विरोध भी।

भूमिका

यह उपन्यास लिखने से पहले एक औरत के मुँह से सुना हुआ वह वाक्य मुझे अभी तक याद है—जब उस औरत ने पति के छोड़ दिया तो उसके रिश्तेदारों ने उस पर दबाव डालना शुरू कर दिया कि वह अपने खर्च के लिए अपने पति के खिलाफ अदालत में जाए। तो उस औरत ने कहा था, ‘जिस आदमी के साथ आग को साक्षी मानकर मैंने साथ फेरे लिए हैं, उसके खिलाफ अदालत में मैं कैसे खड़ी हो सकती हूँ....?’’
उपन्यास लिखने के पश्चात् इसकी पाण्डुलिपि पढ़ते हुए मेरे एक दोस्त ने मुझसे पूछा, ‘क्या काकी ने सचमुच घुमंडी से दूसरा विवाह करवा लिया था ?’
और जब इसी उपन्यास का पंजाबी नाट्य-रूपान्तर दूरदर्शन जालंधर से टेलीकास्ट किया गया तो पंजाबी के प्रसिद्ध नाटककार प्रो. आत्मजीत ने लिखा था, ‘नंदसिंह ने काकी को नहीं मरवाया क्योंकि उसका असली दुश्मन तो घुमंडी बनिया है जो एक जट्टी से ब्याह रचा रहा है। इसलिए कत्ल घुमंडी का किया गया। अगर घुमंडी जट्ट होता तो काकी मरती....।’
बस, और कुछ नहीं !

एक

विपदाग्रस्त काकी बुड़बुड़ाती-सी चारपाई से उठी, आँगन में लगी कीली से अपना सफेद दुपट्टा उतार कर सिर ढँका और पैरों में घिसी-पुरानी जूती पहन कर वह घर से बाहर निकल आई। उसका माथा त्योरियों से भर गया। उसकी आँखों में रोष और गुस्सा था तथा मन में अनन्त पीड़ा। घर के बाहर दरवाज़े के आगे खड़े शोर मचाते छोटे-छोटे बच्चों ने झुरमुट डाल रखा था और वे घर के अंदर इस तरह से झाँक रहे थे जैसे भीतर कोई तमाशा चल रहा हो।
‘बेटा नाहर, कहाँ गिरा पड़ा है वो ...चल, मैं खींचूं उसकी चौरी दाढ़ी। मेरा तो लहू पी रखा है उसने।’ उसके इतना कहते ही बच्चों की वह टोली उसके आगे-आगे चलने लगी, जिन्होंने उसे बाबू की ख़बर ला कर दी थी। अपने घर का दरवाज़ा उसी तरह खुला छोड़कर वह बच्चों के पीछे-पीछे चलने लगी। बच्चे चुपचाप चलते रहे, मगर काकी के पड़ोसी नरैणे के पोते नाहर ने चलते-चलते ज़ोरज़ोर से बोलना शुरू कर दिया, ‘वो तो चाची मैंगल बनिए के घर के आगे नाली में गिरा पड़ा है। वहाँ तो कितना इकट्ठ हुआ पड़ा था।’ नाहर नंगे पाँव था उसने छोटी-सी कछनी और डिब्बीदार लम्बा मैला कुर्ता पहना हुआ था। उसके जूड़े के बाल बिख़रे हुए थे। काकी ने उसकी बात का जवाब नहीं दिया। फिर नाहर बाकी बच्चों से आगे निकल गया। बाकी सभी बच्चे उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे। वे सभी एक-दूसरे से आगे निकल जाने की कोशिश में थे।
‘जाते हो या नहीं वापस...? तुम वहाँ क्या आग माँगने जाते हो ?’ काकी ने गुस्से में बच्चों की टोली को डाँटा। भयभीत-से बच्चे, कोई अपने कुरते की कन्नी चबाता, कोई कछनी ऊपर उठाता और सिर खुजलाता क्षणांश के लिए वहीं रुक गए, मगर उससे थोड़ा फासला रखकर फिर उसके पीछे चलने लगे।
चौपाल के आगे से गुज़रते हुए काकी ने दुपट्टे के छोर से अपना आधा चेहरा छिपा लिया, जैसे किसी से घूँघट निकाला हो और चोर नज़र चौपाल में डाली। चौपाल में बैठे बूढ़े आपस में बतिया रहे थे। एक तरफ कुछ लड़के तास की बाजी लगा रहे थे। उन्होंने काकी को आते हुए नहीं देखा। वे अपने खेल में मस्त, ज़ोर-ज़ोर से शोर मचा रहे थे, मगर चानण कुबड़ा उसकी ओर आँखें फाड़-फाड़ कर देखने लगा। उसकी उम्र साठ वर्ष से भी अधिक ही होगी। दाढ़ी और सिर के बालों के अलावा उसकी भौंएं भी सफेद होने लगी थीं। काकी की ओर देखते हुए उसने अपने पास बैठे भूरा सिंह से कुछ कहा। काकी को लगा वे दोनों उसी के बारे में बातें कर रहे हों। चानण ने तो जैसे बिना किसी सन्देह उसी की चुगली की होगी। काकी ने पल्लू में से उनकी ओर नफ़रत से देखा और चलते-चलते एक ओर थूकती हुई बुड़बुड़ाई, ‘मेरे बाप के स्साले ! मुंह में दांत नहीं और...।’

चौपाल से आगे जोगे वालों की तिमंजिली हवेली थी। हवेली के आगे पड़े बड़े-से तख्त पर भी मुख्तयार नाई के पास बैठे कई आदमी आपस में हंस रहे थे। वह उन्हें मसालेदार चटपटी बातें सुना रहा था। काकी वहाँ से मुँह फेर कर तेज़ी से गुज़र गयी। इसके आगे कपूर ब्राह्मण का घर था। फिर उन्हीं का खाली पड़ा गलियारा और उससे आगे गाँव का जैसे चौक हो—चौराहा। बाईं ओर को जाने वाली गली को ‘हमीर साध’ वाली गली कहते थे। दाईं ओर तारे की मशीन वाली गली थी। यो दोनों गलियाँ गाँव के पार निकल कर गाँव कि फिरनी से जा मिलती थी। चौक लाँघ कर तीसरा घर मैंगल बनिए का था। नशे की गोलियाँ और अफीम बेचने के कारण मैंगल बनिया गाँव में काफी बदनाम था। पुलिस ने भी उसे कई बार पकड़ा था, मगर वह उन्हें ‘मामे’ कहता और हरेक बार उन्हें कुछ-न-कुछ दे-दिला कर छूट आता। गाँव वाले भी उसकी निन्दा-चुगली नहीं करते थे। वक्त-बेवक्त भी वह नशे के लिए किसी को जवाब नहीं देता था। एक वक्त अगर किसी के पास पैसे भी न होते, तो भी वह उसे निराश नहीं जाने देता था।
उसके घर के आगे छोटे-छोटे बच्चे, युवक और एकाध बुजुर्ग भी खड़ा था। वे सभी गिरे पड़े बाबू की ओर देख रहे थे।
काकी को आते देख वे सभी इधर-उधर खिसकने लगे।
गोलियों के नशे में धुत्त बाबू मैंगल बनिए के घर के आगे की नाली में गिरा पड़ा था। उसकी आधी पगड़ी उसके सिर पर लिपटी हुई थी और आधी नाली के गारे में लिबड़ी हुई जमीन पर बिखरी पड़ी थी। उसका एक हाथ और एक पैर भी नाली की गंदगी से लिबड़ा हुआ था। उसे कुछ होश नहीं था और उसकी एक टाँग अभी भी नाली में पड़ी थी उसका सिर दीवार से सटा हुआ था। पगड़ी का एक सिरा उसके पैर में उलझा हुआ था, शायद इसी कारण वह गिरा हो।
बाबू के इर्द-गिर्द घेरा डाले खड़े बच्चे कभी बाबू की ओर देख लेते और कभी काकी की ओर। उसके लिए जैसे यह भी एक तमाशा ही हो ! पहले तो काकी बाबू की ओर घूर-घूर कर देखती रही, फिर आसपास खड़े तमासबीन बच्चों को घूरने लगी। उसे इस तरह घूरते देख कर बच्चे सहम-से गए और एक-एक, दो-दो कदम पीछे हट गए।
‘ए, यहाँ कोई तमाशा होता है क्या ? क्यूँ इकट्ठ किया है ?’ काकी बच्चों की ओर लपकी, ‘कुछ बँटता है क्या यहाँ....? निपूतों ने इकट्ठ देख किया,...जाते हो कि नहीं...?’ डरते हुए बच्चे थोड़ा और पीछे खिसक गए। कुछेक तो दौड़ भी गए थे। काकी चेहरे को दुपट्टे से ढंके बाबू की ओर भी घूरती रही, मगर वह समझती थी कि वह अपना लहू पानी बनाने तथा मन जलाने के बिना बाबू पर उसका कुछ असर नहीं होने वाला।

‘देख री क्या पाखण्ड करती है मक्कार ! अपना आदमी तो सम्भलता नहीं और गालियाँ औरों के बच्चों को...बेवा...।’ घरों से निकल आई दो-तीन औरतों ने आपस में बात की। वे भी अपने घरों के दरवाज़ों में खड़ी जैसे तमाशा ही देख रही थीं। उनकी खुसर-फुसर काकी के कानों में ज़हर की भाँति घुल गई। उसका क्रोध और भी बढ़ गया। उसने उन औरतों की तरफ इस तरह से घूरा जैसे अभी उन्हें भस्म कर डालेगी, ‘एक ये सारा गाँव भी ऐसा कंजर हो गया कि किसी की मदद तो क्या करनी थी, बल्कि दरवाज़ों में खड़ा हो-हो कर तमाशा देखता है, शर्म नहीं आती...।’ वह बोलती रही, मगर उन औरतों ने घर में घुस कर किवाड़ बन्द कर लिए। काकी को बुरा-भला बोलते हुए वहाँ से जा रहे भागू बूढ़े ने भी सुन लिया। अपनी डगोरी के सहारे, कूबड़ निकाले चलता-चलता वह वहाँ रुक गया, ‘नहीं भाई, ऐसे नहीं बोलते गाँव को।...बच्चों का क्या है पगली, ये तो बन्दरों जैसे होते हैं, यूँ ही इकट्ठे हो जाते हैं...।’
‘तू नहीं जानता बाबाजी, यहाँ तो सयाने बच्चों से भी ज्यादा कंजर बने हुए हैं।’ काकी अपनी कमर पर हाथ रखे गुस्से में झाग फेंकती रही। उसे इतने ऊँचे सुर में बोलते हुए सुन कर जोगे वालों की तिमंजली हवेली के आगे तख़्त पर मुख्तयार नाई के पास बैठे सभी लोग चुप हो गए। उन्हें लगा जैसे काकी उन्हीं को सुनाकर कह रही हो।
‘चलते हैं भाई।’ छज्जू लंगड़ा चलने लगा तो मुख्तयार ने टोका, ‘क्या बात डर गया ?’
‘अबे उसका क्या भरोसा, कोई ईंट-पत्थर ही उठाकर मारे सिर में...!’ और वह लंगड़ाता-सा वहाँ से खिसक गया। बाकी सभी हँसने लग। भागू बूढ़ा भी कान लपेटता कूबड़ निकाले अपनी राह चलता बना, अच्छा भाई मुझे क्या ?’
काकी ने मैंगल बनिए के घर की ओर देखा। घर का दरवाजा भीतर से बंद था। उसने आगे बढ़कर ज़ोर-ज़ोर से जरवाजा खटखटाना शुरू कर दिया और जब तक अंदर से आवाज़ नहीं आयी, वह दरवाज़ा खटखटाती रही।
‘कौन है ?’ अन्दर से किसी ने पूछा।
‘तू बाहर तो निकल मेरे बाप के साले, मैं बताती हूँ तुझे कि मैं कौन हूँ’ काकी ने दरवाजा खुलने से पहले ही बोलना शुरू कर दिया। उसने इतना भी ध्यान नहीं किया कि अंदर से बोलने वाला मैंगल बनिया ही था या कोई और। उसकी गरज सुनकर दरवाज़ा खोलने के लिए आने वाला शायद वहीं रुक गया। जब थोड़ी देर और दरवाज़ा नहीं खुला तो काकी ने फिर से दरवाज़ा खटखटाया, ‘तेरा कुछ न बचे मैंगल बनिया। तुझे दोनों जहानों में ओट न मिले कंजर कहीं के।...मर जाएँ तेरे बचड़े।...अब मैं बिकवाऊँगी तुझे अफीम और गोलियाँ। आने दे थानेदार को गाँव में, अगर तेरा मुँह काला न करवाया तो तू भी क्या याद रखेगा !...जो तू हुज्जतें सिखाता है...।’ कितनी देर तक बोलती वह मन की भड़ास निकालती रही, मगर अन्दर से किसी ने दरवाज़ा नहीं खोला और न ही कोई आवाज़ सुनाई दी, जैसे अन्दर कोई था ही नहीं।
बाबू थोड़ा-सा हिला। उसे जैसे थोड़ा-बहुत होश आ रहा था। वह उठने की कोशिश करने लगा, मगर वह उठा नहीं सका, अंगों में जैसे जान ही न हो। उसने अपना सिर थोड़ा ऊपर उठाया, पर फिर गिर पड़ा। उसका माथा दीवार से जा लगा। आँख के थोड़ा ऊपर माथे से लहू रिसने लगा। चोट तो शायद वहाँ पहले से ही लगी हुई थी, वहाँ खून जमा हुआ था और अब फिर माथा दीवार से टकरा जाने से पहली चोट से ही खून रिसने लगा।

क्रोधित काकी ने एक बार फिर ज़ोर-ज़ोर से दरवाजा खटखटाया, ‘न खोल तू दरवाज़ा’ फिर देखना जब पूरा थाना चढ़ा कर लाई तेरे घर पे। फिर तो हाथ जोड़ेगा बहनोई के आगे।’ दो-चार गंदी-सी गालियाँ बक कर, थकी-मांदी-सी वह बाबू के सिरहाने आ खड़ी हुई। बाबू अभी भी उठने की कोशिश कर रहा था।
‘चल बेटा नाहर, इसे छुड़वा कर आ।’ वह उसे खड़ा करने के लिए झुकी, ‘मुक्कन तू भी आ जा बेटा, आना मेरा हीरा पुत्र।...ए संती के, आना मेरा सयाना पुत्र बन कर।’ एक-एक करके बच्चे धीरे-धीरे उसके पास आ गए। उन्होंने काकी के साथ लगकर बाबू को खड़ा किया, मगर उससे खड़ा भी नहीं रहा जाता था, उसकी टाँगें उसके शरीर का बोझ नहीं झेल पा रही थीं। एक तरफ से उसे काकी ने पकड़ा और दूसरी तरफ से नाहर और हीरे ने। कुछ बच्चे तमाशबीनों की भाँति उनके साथ-साथ चलने लगे। इतना सहारा पा कर भी बाबू लड़खड़ा रहा था।
चौपाल के पास पहुँच कर काकी ने पहले से भी अधिक घूँघट निकाल लिया। चौपाल की ओर उसने देखा भी नहीं। पीठ के पीछे उसे हँसी सुनाई दी मगर उसे कुछ पता नहीं चला कि वो हँसी मुख्तयार नाई के पास तख़्त पर बैठे लोगों की थी या चौपाल में ताश की बाज़ी में मस्त लड़कों की स्वाभाविक हँसी ! मगर हँसी जैसे तीर की भाँति उसकी पीठ में चुभ रही थी।
बच्चों के सहारे जैसे-तैसे उसने बाबू को घर के अंदर किया और आंगन में पड़ी बिना मूंज की चारपाई पर लिटा दिया। नाहर और हीरा दोनों बाबू की चारपाई के बाजुओं पर बैठ गए और बेसुध पड़े बाबू के चेहरे को निहारने लगे। बाकी बच्चे बाहर से ही अंदर झांकते रहे।
‘अब यहाँ से क्या आग माँगते हो, निगोड़ो ? क्यों मुझ दुखी को तंग करते हो।...भागो यहाँ से, नहीं तो देख लो लहू पी जाऊँगी किसी का।...दुखी तो मुझे इसी ने बहुत कर रखा है ! वह भीतर से ही बाहर खड़े एकाध बच्चे को फटकारती रही, ‘जाओ बेटा नाहर, तुम भी बाहर जा कर खेलो।’ उसके इतना कहने पर नाहर और हीरा भी एक-दूसरे की ओर देखते हुए उठ कर बाहर चले आए।
‘जाता नहीं तू...?’ अभी तक बाहर खड़े एकाध बच्चे को दुत्कारती काकी ने दरवाजा बंद कर लिया और बेसुध पड़े बाबू के सिरहाने बैठ गई, ‘बहुत दुखी कर रखा है’ नरकी। कभी तो डर-मर जा, कहीं तो सँभल जा...।’ एक पल उसे उसपर गुस्सा आता और दूसरे पल उसका मन दया से भर जाता। दया उसे बाबू पर आती थी या अपने पर, यह बात उसकी समझ से परे थी। उसके मन की पीड़ा उसकी आँखों में से पानी बनकर बहने लगी। फिर उसने अपनी आँखें पोछीं और उठकर पिछले कोठे में चली गई। थोड़ी ही देर बाद वह फिर बाहर चली आई। बाबू की ओर देखकर उसका मन कुढ़ने लगा। उसने नाली के गारे से लिबड़ी उसकी पगड़ी सिर से उतार कर इकट्ठी-सी की और आंगन में बंधी तार पर लटका दी पगड़ी में से नाली के गंद की बू आ रही थी। काकी ने अपनी नाक सिकोड़ी। पहले उसका मन किया कि पगड़ी को धोकर सूखने डाल दूँ, पर फिर नफरत से बुड़बुड़ाने लगी, क्या करूँ मैं तेरा रोज़-रोज़।’ उसने गंदगी से लिबड़े उसके पैर की ओर देखा। उसका एक पैर नंगा था। उस पैर की जूती वह कहीं गिरा आया था। काकी के माथा फिर त्योरियों से भर गया, ‘हाय री, मैं मर जाऊँ...। अभी दो दिन नहीं हुए नई जूती लाये हुए, गंवा आया कहीं। अब माँगना तू कल को और जूती...यूँ दूँगी तेरे माथे में जलती-जलती। मैं कहाँ से फूँकूँ तुझे रोज़-रोज़...? उसे बुरा भला बोलती काकी अपने ही भाग्य पर सिसकने लगी, ‘मेरी किस्मत में ही धरा पड़ा था ऐसा ! रब्ब भी जैसे दुश्मन बन बैठा है!...मैंने बता तेरा क्या बुरा किया था ? जब से ब्याह आयी हूँ, एक-पल भी सुख-चैन का नहीं देखा। आठों पहर इसी का स्यापा...। कभी कहीं गिर पड़ा है और कभी कहीं।...मैं तो कहती हूँ, हे परमात्मा ! कभी इसकी मरे-पड़े की ही खबर ला दे बाहर से। तंग आ गई मैं तो इसे उठा-उठा कर लाती हुई...।’ फिर वह परमात्मा का स्मरण करने लगी, ‘हे मेरे परमात्मा ! मेरी भी सुन ले कभी, दुखी आत्मा की। इसे भी कभी बुद्धि बख़्श दे...!’

काकी ने उसकी जेब की तलाशी ली। जेब में से केवल एक पुड़िया निकली। उसमें लाल रंग की चमकती गोलियाँ थीं। वह जानती थी कि गोलियां नशे की होंगी। पहले उसका मन हुआ कि पुड़िया उसी तरह परे नाली में फेंक दे, मगर उसने उसे अपने खीसे में ठूँस लिया। फेंकने को उसकी हिम्मत नहीं हुई। उसने बाबू को कई बार हिलाया-डुलाया पर वह टस से मस नहीं हुआ। वह उठी पानी लाकर उसका हाथ और टाँग धोई, फिर पगड़ी धोकर सूखने के लिए तार पर फैला दी। उसके चेहरे पर भी पानी छिड़का। पानी का एक लोटा उसके सिर में उड़ेल दिया। जब फिर भी उसे होश नहीं आया तो आंगन में दीवार के साथ खड़ी की हुई चारपई लगाकर काकी उस पर बैठ गई और टकटकी बाँधे बेसुध पड़े बाबू के चेहरे को निहारने लगी।
बाबू ने एक बार अपना शरीर हिलाया।
‘मैं पूछती हूँ कुछ सुनता भी या नहीं...?’ अपनी चारपाई पर बैठे-बैठे ही उसने बाबू को बुलाया।
फिर वह बेचारी अपनी ही सोच में गुम-सी हो गई।
इन कुछ ही वर्षों में बाबू क्या से क्या हो गया था। उसके रंग तवे जैसा काला पड़ गया था। गाल अन्दर को धँस गए और जबड़े बाहर निकल आए थे। उसकी तो पहचान भी मुश्किल से आती। शरीर सूख कर काँटा हो गया था। देखने में वह कुछ ही दिनों का मेहमान लगता। जब कभी नशे में धुत्त कहीं गिरा पड़ा होता तो विश्वास ही नहीं होता था कि वह कभी उठ कर चल-फिर भी सकेगा। नशे ने उसके शरीर को बिल्कुल खोखला बना दिया था। हड्डियों पर मांस तो कहीं नजर ही नहीं आता था।
जब काकी यहाँ ब्याही आई थी तो उसके मन में कितने चाव थे, कितनी खुशी थी। वह भी डोली में बैठी थी। उसके हाथों पर भी शगुन की मेंहदी रची थी, मौली बंधी थी। मगर कुछ ही दिनों में उसका मन टूट गया था, चाव फीके पड़ गए थे और खुशियाँ रौंदी गई थीं। दिन उसे रूखे-रूखे लगने लगे। काम में उसका मन न लगता, खाने-पीने की इच्छा न होती। वह बेचारी अपनीनाजुक सी जिंदगी एक शराबी-कबाबी के पल्लू से बंधी देखकर सारा-सारा दिन तड़पती-सिसकती रहती। बाबू उससे बिल्कुल बेखबर नशे में चूर रहता था। शराब, अफीम, गोलियाँ या और किसी भी प्रकार का नशा उसे मिल जाता, वह हड़प जाता।
उसके मन में संजोए विवाह के मीठे-मीठे सपने कुछ ही दिनों में बिखर गए थे। उसे अपनी ससुराल दोज़ख़ महसूस होने लगी। उसका मन होता कि कहीं भाग जाए, मगर बापू की पगड़ी और माँ की मिन्नतें जैसे उसकी राह रोक लेतीं।
उसे अपने बापू गुज्जर की वो बातें याद आतीं जो उसके विवाह से पहले हरेक रात उसकी माँ भंती से कहा करता था, ‘लड़का तो हीरा है हीरा। कोई ऐब नहीं। ऊँचा-लम्बा गबरू जवान है, दर्शनीय लड़का है ! ऐसे लड़के रोज़-रोज़ कहीं धरे पड़े हैं ! उम्र तो ख़ैर थोड़े फर्क से है, पर लड़की सारी उम्र मौज़ करेगी। ज़मीन भी अच्छी है, बेशक कल को अलग हो जाए...।’ यह बातें याद करते हुए काकी का मन गुस्से से भर जाता।

‘मगर ऐसे खाली हाथ वो रिश्ता कैसे लेंगे ? कहीं लंगड़ा-लूला लड़का न सहेड़ लेना ! मेरी तो एक ही बेटी है। लड़का सुन्दर हो तभी बात बने। जमाई-भाई घर में बैठा हुआ भी अच्छा लगे।’ भंती चिंता व्यक्त करती।
‘ऐसे मैं कोई पागल हूँ जो लंगड़ा-लूला जमाई सहेडूँगा ! काकी तो मेरी जान खा जाएगी।’ ऐसी बातें करके गुज्जर भंती को दिलासा देता।
भंती मन ही मन खुश होती। धरती पर उसका पैर न लगता। वह भागी-भागी फिरती।
गुज्जर खुद लड़के को देखकर आया था। लड़का उसे जंच गया था।
काकी किवाड़ों के पीछे छिपकर चोरी-चोरी उनकी बातें सुनती तो उसका मन गुदगुदाने लगता। पूरे शरीर में झनझनाहट छूट जाती। होने वाले पति के बारे में बापू के मुँह से गबरू-जवान शब्द सुनकर उसका दिल काबू में न रहता। उसका मन होता कि उसके पंख निकल आएँ और वह उड़कर उस गबरू जवान उस हीरे जैसे लड़के के पास चली जाए। फिर मन में उतारी तसवीर जैसा लड़का उसके सामने आ खड़ा होता। वह उसे निहारती और शर्म से आँखें झुका लेती। अजीब-अजीब सपने संजोती। उसे अपनी एक छोटी-सी दुनिया बसी हुई महसूस होती। कभी वह पतिसे रूठती और कभी मान जाती। हँसती-खेलती खूबसूरत जिन्दगी !...पीहर की याद, पति का मोह...माँ की ममता...बच्चे...भाई हार-श्रृंगार, और इन सब में घिरी हुई वह खुद...।
कभी वह खुद को डोली में बैठी हुई देखती। ब्याह के मीठे-मीठे गीत उसके कानों में रस की तरह घुलने लगते। ढोलक और मटका बजाती लड़कियाँ उससे छेड़छाड़ करने लगतीं। घुंघरुओं की खनक उसके पूरे बदन को झुनझुना देती। वह अजीब से स्वप्नमय माहौल में तैरती अपने जवान पति की बाहों में झूल रही होती। सुहागरात के बारे में सोचती तो खुद से शरमा कर सिकुड़-सी जाती। मज़ाक करती सखियों में घिरी वह लजाती भी और खुश भी होती। उसके अंग-अंग से हँसी फूटने लगती।
मगर अब जब वही गबरू-जवान पति हड्डियों की एक मूंठ बना नशे में चूर कभी कहाँ और कभी कहाँ गिरा पड़ा होता तो उसका मन खीज और रोष से भर जाता। उसका मन होता कि अब बापू को सामने बिठाकर पूछूँ, ‘बापू, यही है वो गबरू-जवान जिसकी तू माँ से प्रशंसा करते नहीं थकता था !’ इसी तरह धक्का देना था मुझे ?...इसी गबरू को देखकर गया था तू ?...इससे अच्छा तो मुझे जहर दे कर ही मार डालता। किसी कुएँ में ही धक्का दे दिया होता मुझे !...बस ज़मीन ही ज़मीन देख ली, मेरी ओर तो नहीं देखा। ज़मीन तो इसने कुछ दिन भी नहीं छोड़ी !’

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